बहुत दिनों बाद दद्दा को आज फिर काम मिला था। वैसे उम्र तो उनकी घर में बैठ कर
आराम करने और नाती-पोते खिलाने की थी पर जब से दुर्घटना में उनका बेटा अपाहिज
हुआ था। उन्हें इस उम्र में काम करने के लिए निकलना पड़ा। पिछले साल की ही तो
बात है,उनका बेटा राजन ससुराल से लौट रहा था। इकलौते साले की शादी थी, ससुराल
वालों ने मान-सम्मान से दामाद-बेटी की झोली भर दी थी। हर मौके पर शगुन दिया था,
मौके-मौके पर मनुहार किया। करना भी था अरे कौन रोज-रोज शादी होती है। सब राजी
खुशी ट्रेन से लौट रहे थे पर…
ट्रेन पटरी से उतर गई थी। चार डिब्बे खेत मे गिर गए थे। चारों तरफ़ कोहराम मच
गया। किसी का सुहाग उजड़ा था तो किसी की कोख सूनी हो गई थी। लोगों को अपने तन की
सुध नहीं थी, हर तरफ़ चीख-पुकार मची हुई थी। पास के गाँव के लोग मदद के लिए
पहुँच गए थे। मदद करने वाले हाथ कौन थे, कहाँ से आए थे, किस जाति के थे, किस
धर्म के थे कोई नहीं जानता था। भीड़ की कोई जाति या धर्म नहीं होता। आस-पास के
थानों से पुलिस की गाड़ियाँ घटनास्थल पर पहुँची। उखड़ती सांसों और डबडबाई आँखों
से घायलों ने उन्हें देखा, उम्मीद की एक किरण जागी पर…लगभग पचास यात्री मारे गए
थे और सौ से ज्यादा घायल थे। मीडिया के पहुँचने से पहले सरकार की नाकामी को
छुपाने की कोशिश जारी थी। पुलिस वालों ने कुछ लाशों को अरहर की फ़सल के पीछे
फेंक दिया।
दूसरे दिन का अख़बार इस हृदय विदारक घटना से रंगा हुआ था। पता नहीं यह भ्रम था
या कुछ और उस दिन अख़बार की स्याही का रंग काला नहीं लाल दिखाई दे रहा था।
ट्रेन दुर्घटना में पन्द्रह मृत्यु और सौ घायल…सिर्फ़ पन्द्रह पर…मुआवजे देने
से बचने के लिए मृतकों की संख्या कम कर दी गई। उन मृतकों में दद्दा की बहू भी
शामिल थी। दद्दा से लोगों ने कितनी बार कहा
"सरकारी महकमे में जाकर शिकायत करो। बेटे का इलाज़ सरकारी अस्पताल में हुआ है।
बेटे की जेब से ट्रेन का टिकिट भी मिला था। मरने वाले के नाम पर भी पैसा भी दे
रहे हैं। तुम्हें भी सरकार जरूर पैसा देगी।"
पैसा…क्या करेंगे ऐसा पैसा लेकर जब इकलौते बेटे का पैर काटना पड़ा और बहू…बहू
सबसे हाथ छुड़ा भगवान के पास चली गई। बच्चे दिन भर माँ-माँ की रट लगाए रहते।
कहाँ से लाते उनकी माँ वो तो ऐसी जगह चली गई थी जहाँ से कोई वापस नहीं आता।
दद्दा की पत्नी अम्मा इसी नाम से तो पुकारते थे वह… वैसे वह राजन की अम्मा थी।
राजन उनकी आँखों का तारा था, उनके बुढ़ापे का सहारा उनकी इकलौती आस उनका इकलौता
बेटा…वैसे तो दद्दा की पाँच औलादें हुई पर कोई छःमहीने तो कोई साल भर ही जीवित
रहता। माता-पिता बनकर भी वह निःसंतान ही बने रहे। कोई मंदिर कोई दरगाह नहीं बची
थी जिसकी दहलीज पर उन्होंने अपना माथा नहीं टेका था नाक नहीं रगड़ी थी। भगवान
इतना निर्मोही भी नहीं हो सकता था। आखिर उन्होंने राजन को उनकी गोद में डाल
दिया था।ऊँचा कद, चौड़ा माथा तरासी हुई उंगलियाँ मुँह खोले तो मानो शहद टपकता
हो। सब कुछ तो ठीक चल रहा था पता नहीं किसकी नज़र लग गई थी।
"दद्दा हम है न तुम चिंता न करो, आराम से घर में बैठकर भगवान को नाम लो और
पोते-पोतियाँ खिलाओ।"
दद्दा का जी जुड़ जाता। उन के आशीर्वाद का पिटारा खुल जाता। वो आसमान की तरफ़
देख ऊपर वाले का धन्यवाद करने लगते। ऊपर वाले ने बड़ी कृपा की था जो राजन जैसा
बेटा दिया था। जरूर पिछले जन्म के पुण्य का फल ही था राजन…
लक्ष्मी! राजन की पत्नी थी अपने नाम के ही अनुरूप सुंदर, सुघढ़ और कर्मठ…महावर
लगे पैरों से जब वह घर -आंगन में डोलती तो पूरा घर चहक उठता। दद्दा की कोई बेटी
तो नहीं थी पर उन्हें हमेशा लगता कि अगर उनकी बेटी होती तो शायद ऐसी ही होती।
जिस समाज में बहू परिवार में गिनती में न आती हो वहाँ अपनी बहू लक्ष्मी को हर
सांस के साथ याद करना भी अपने आप में एक विचित्र बात थी। लक्ष्मी थी भी ऐसी जो
भी उससे एक बार मिलता उसी का होकर रह जाता। आवाज़ में मानो मिश्री घुली हो
बोलती तो मानो फूल झरते थे। हाथों में ऐसा स्वाद की उंगलियाँ चाटते रह जाओ,
उसकी मौत ने घर को तोड़कर रख दिया था। दद्दा हमेशा कहते अच्छे लोग की जरूरत
भगवान को भी होती है। राजन एक जगह का होकर रह गया था। अम्मा को इस उम्र में
गृहस्थी संभालनी पड़ी। लक्ष्मी के आने के बाद अम्मा एक जगह बैठी पोते-पोतियों
को ही खिलाती रहती। लक्ष्मी उन्हें एक काम नहीं करने देती पर वक्त ने ऐसी करवट
ली।सारे सपनें, सुख-चैन, छिन्न-भिन्न हो गया।
"दद्दा आज कल के जमाने में क्या लड़का क्या लड़की…लड़कियाँ भी लड़कों की तरह
नौकरी कर रहीं हैं। बेटे के साथ-साथ हम अपनी बिटियाँ को भी इतना पढ़ाएंगे कि वह
अपने पैरों पर खड़ी हो जाए। कल किसने देखा है!"
सच ही तो कहा था उसने कि कल किसने देखा है अपनी बेटियों को पैरों पर खड़ा करने
के सपनें देखने वाला राजन अपना कल कहाँ जानता था। वह आज खुद अपने पैरों पर खड़े
होने में लाचार था। दद्दा समझ नहीं पा रहे थे वे कहाँ जाए किससे मदद माँगे।
जिंदगी घूंट-घूंट उन्हें पी रही थी। नए लड़कों के आगे उन्हें भला कौन पूछता।
सुबह से चार दुकान पर काम माँगने गए थे किसी ने उनकी ढलती उम्र तो किसी ने
जाहिल और अनपढ़ होने के कारण काम देने से मना कर दिया। जेठ की भरी दुपहरी सूरज
पूरे वेग के साथ चमक रहा था। आसमान भी मानो गर्मी से टप -टप पिघल रहा था।
दद्दा को कुछ समझ नहीं आ रहा था। राजन का मायूस चेहरा उन की आँखों के सामने
बार-बार आ रहा था वह कहता तो कुछ नही था पर उसकी आँखें…उसकी वो आँखें दद्दा को
सोने नहीं देती थी। कैसे चलेगा घर बड़े तो अपनी इच्छाएं मार सकते हैं पर बच्चों
के सपनों का गला कैसे घोंट दें। दद्दा की न जाने कितनी रातें आँखों में कट
जाती। क्या होगा अब! राजन…राजन से क्या कहेगा। धूप और चिंता से दद्दा का सर घूम
गया। वे चकरा कर जमीन पर बैठ गए।गाड़ियाँ तेजी से धूल उड़ाती सामने से गुजर जा
रही थी पर दद्दा की जिंदगी तो मानो ठहर गई थी। उन्होंने अपने थके हुए हाथों को
देखा और वक्त को सौंप दिया।
"छन्न्न!"
तभी दो रुपये का एक सिक्का उनके पैरों के पास आकर टकराया। दद्दा ने नजर उठा कर
देखा।
"क्या हुआ कम है क्या…?"
सिक्का फेंकने वाले ने कहा, दद्दा कभी सिक्के को देखते कभी उस रहम दिल इंसान
को…
"जी वो…!
शब्द दद्दा के गले में अटक कर रह गए। उस आदमी के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक
मुस्कान थी। उस आदमी ने एक चमकता हुआ सिक्का उनकी ओर और उछाल दिया। अबकी वह
सिक्का दद्दा के पैरों से नहीं उनके स्वाभिमान से टकराया था।
"साहब! मैं भिखारी नहीं हूँ।'
"फिर…!"
एक अजीब सी कड़वाहट उस इंसान के चेहरे पर पसर गई।
"तेवर तो देखो। भलाई का तो जमाना ही नहीं है।"
उस रहमदिल इंसान ने अपनी ब्रांडेड बेल्ट से साधी हुई पेंट की जेब को एक बार फिर
टटोला। शायद खोज काफी गहरी थी। सिक्कों को बाहर निकलने में वक्त लग गया। आखिर
खोज पूरी हुई। अबकी जेब से पाँच का सिक्का बाहर निकला। सिर्फ़ आँखें नहीं
कभी-कभी उंगलियाँ भी आँखों का काम करती है। दद्दा ने हाथ जोड़ लिए…
"साहब मैं भिखारी नहीं हूँ।"
"फिर! यहाँ जमीन पर क्यों बैठे हो।"
रहम दिल इंसान का स्वर अचानक कड़वा हो गया था।
"बाबू सुबह से भूखा हूँ। काम की तलाश में निकला था। भूख और गर्मी से चक्कर आ
गया।"
दद्दा की आवाज़ में निराशा थी।
"अब तुम लोग काम करोगे तो जवान लोग कहाँ जाएँगे। घर बैठने की उम्र में काम तलाश
रहे हो।"
"किसको बैठ कर खाना पसंद नहीं बाबू पर मजबूरी जो न कराएं।"
दद्दा की आवाज में एक दर्द था जिसका अहसास उस रहम दिल आदमी को भी हो गया था।
तेज़ धूप और गर्मी से तारकोल की सड़क भी पिघल रही थी और कहीं न कहीं उस रहम दिल
इंसान का दिल भी…
"काम करोगे?"
दद्दा का चेहरा जो अभी तक तनाव की सिलवटों में जकड़ा हुआ था ढीला होता चला गया।
"बिल्कुल साहब!"
"अरे ये तो पूछा ही नहीं कि काम क्या है।?"
दद्दा का झुर्रियों सा भरा चेहरा काम के नाम भर से खुशियों से दमकने लगा था।
क्या कहते वो जब हर दरवाजे बंद हो वहाँ विकल्प की तो गुंजाइश ही कहाँ थी उन्हें
तो बस काम चाहिए था।दद्दा ने लगभग मिमियाते हुए कहा
"मैं सब कर लूँगा बाबू साब जो आप कहे।"
"ज्यादा कुछ नहीं शादी-ब्याह और बच्चों के जन्मदिन, मुंडन की पार्टी में
कभी-कभार लोग स्टेच्यू की डिमांड करते हैं।"
"टेचू?"
बाबू साब खिलखिला कर हँस पड़े।
"हाँ-हाँ वही ज्यादा कुछ नहीं शरीर पर वार्निश पोत कर पुतला बनना है। बिल्कुल
भी हिलना नहीं है।"
दद्दा सोच रहे थे ये कैसा काम है।घर में बच्चे भी दिन भर टेचू-टेचू खेलते हैं।
कुछ समय तक वह वैसे ही खड़ा रहता जब तक टेचू बोलने वाला ओवर नहीं बोल देता।
अगर ऐसे में कोई हिलता है तो वो सब जोर से हँसते और चिल्लाते…
"आउट-आउट…"
दद्दा को क्या पता था बच्चों का यह खेल उनके जीवन की सच्चाई बन जाएगा।
"ये तो बहुत आसान है साब हम बन जाएंगे।"
न जाने क्या सोचकर साब मुस्कुरा दिए।
"अच्छा पैसा मिल जाता है, बस दम सांधकर रखना एकदम लगे कि पुतला है।लोग खुश होकर
अपनी तरफ से भी पैसा दे देते हैं।"
"जी साब"
दद्दा सोच रहे थे बहू के इस दुनिया से जाने के बाद और बेटे के अपाहिज होने से
एक-एक सांस भी सोचकर आती और जाती थी। वहाँ दम साध कर खड़ा होना कौन सी बड़ी बात
थी।
"पर हाँ रोज-रोज का काम नहीं है, लगन,शादी ब्याह के सीजन में ही मिलेगा।"
"कोई बात नहीं बाबू हम तैयार हैं।"
"बाबू कपड़े?"
"वो हम दे देंगे एक धोती,लाठी और गोल चश्मा।"
दद्दा मुस्कुरा दिए, घर में वो यही तो पहनकर रहते थे। ये कुर्ता और लोअर तो
उनके बेटे राजन का था। अब किसी के दरवाजे पर फटेहाल काम मांगने तो नहीं जा सकते
थे। रही चश्मे और लाठी की बात तो बहू के इस दुनिया से जाने और जवान बेटे के
अपाहिज़ होने के बाद उनकी वह उम्मीद की लाठी भी टूट चुकी थी। राजन का बेटा बहुत
ही शरारती था। एक जगह बैठना मानो उसने सीखा ही न था, दिन भर बंदर की तरह इधर से
उधर कूदता रहता। एक दिन उसकी धमा-चौकड़ी में चश्मे की डंडी शहीद हो गई। खाने के
लिए पैसे नहीं थे वहाँ नया चश्मा कहाँ से बनवाते।
पत्थर के इन रास्तों पर उम्मीद की एक मखमली चादर बिछने लगी थी। दद्दा को अब
शादी-ब्याह का इंतज़ार रहने लगा। दद्दा तन पर वार्निश पोते, कमर के निचले हिस्से
में धोती, हाथों में लाठी, मोतियाबिंद से धुंधलाती आँखों पर गोल फ्रेम के चश्मे
को चढ़ाए खड़े हो जाते। उन्हें देख किसी की याद आती थी। गर्मी और पसीने से सूखी
चमड़ी वार्निश लगाने से छरछराने लगती। वार्निश से चमड़ी छिल सी जाती पर दिल के
घाव उससे कहीं अधिक गहरे थे। दद्दा दर्द से कराह उठते पर बच्चों का मासूम चेहरा
उनकी आँखों के सामने घूम जाता।
दद्दा घण्टों एक ही मुद्रा में खड़े रहते, उन्हें देख लगता मानो बस अभी… बस अभी
बोल पड़ेंगे। कुछ लोग उन्हें आश्चर्य से देखते तो कुछ उन्हें छू कर और कुछ ऐसे
भी थे जो लोगों की नज़रों को बचाकर चिकोटी भी काट लेते । दद्दा दर्द से कराह
उठते मुँह से एक सिसकारी निकलती पर वह उसे अपने पिछले दाँतों के बीच दबा गटक
जाते। जब दर्द बर्दाश्त से बाहर हो जाता तो वह आँखों मे छलक आता, दद्दा उसे पी
जाते आँसुओं के खारेपन से कलेजा कट जाता पर…
इधर खरवास की वजह से कोई भी शुभ काम नहीं हो रहे थे। आज बहुत दिनों के बाद
दद्दा को काम मिल था। कल रात से तबीयत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी।
"आज जाने दो रात भर ज्वर में तपते रहे और बड़बड़ाते रहे।"
"हम बैठ जाएँगे तो घर कैसे चलेगा,राजन को नकली पैर लगवाना है। राशन भी खत्म
होने वाला है उसे भी लाना है।"
"सब हो जाएगा तुम चिंता क्यों करते हो।"
"कैसे?"
दद्दा ने अम्मा की आँखों मे देखकर कहा, वहाँ एक खालीपन था। हर बात का जवाब
जानने वाली अम्मा के पास दद्दा के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। अम्मा ने बस
इतना ही कहा
"तुम्हारी ख्वाहिशें चाँद की तरह हो गई हैं।"
"वो कैसे?"
दद्दा ने अम्मा की बूढ़ी आँखों में आँखें डालकर कहा
"जैसे चाँद हमेशा घटता है, बढ़ता है, खत्म होता है। फिर वापस आ जाता है।
तुम्हारी ख्वाहिशें भी रोज घटती बढ़ती है। पूरी होने पर एक बारगी खत्म भी होती
है। फिर हर नए रोज नए सपनों और उम्मीदों के साथ यह दुबारा उग भी आती हैं।"
दद्दा ताप से जलते शरीर में भी हल्के से मुस्कुरा दिए। कैसे न जाते जाए बिना तो
काम भी भला कैसे चलता।
आज गर्मी भी बहुत थी, उमस से जी घबरा रहा था।दद्दा हमेशा की तरह मुख्य द्वार के
एक तरफ अपना स्वरूप लिए खड़े थे। किसी शरारती बच्चे ने शुगर कैंडी की डंडी से
उनके सूखे पेट मे कोचा। चुभन से दद्दा की पसलियाँ खलबला उठी। बच्चा ताली बजाने
लगा,उसे लगा यह कोई खेल है। उसने दुबारा फिर से भी कोशिश की। अचानक से दद्दा की
पीठ में दर्द की एक लहर उठी और वह बाएं हाथ से होती हुई बाएं सीने के पास आकर
रूक गई। दद्दा उस दर्द को अपनी मुट्ठियों में भींच लेना चाहते थे पर काम ठीक से
न हुआ तो भीड़ को मज़ा नहीं आएगा। फिर न्योछावर के पैसे…! ऐसा दर्द तो पहले कभी
न हुआ था, कभी-कभार घंटों एक जैसा खड़ा रहने पर हड्डियाँ जरूर अकड़ जाती दर्द
जरूर उठता था तो अम्मा से रात में तेल मलवा लेता था पर आज का दर्द तेल से जानें
वाला भी नहीं लग रहा था। दद्दा सोच रहे थे कि घर जाते ही अम्मा से कड़वा तेल
में अजवाइन और लहसुन अच्छी तरह से पका कर गर्म-गर्म लगाने को कहेंगे। जब बापू
ठेला खींचकर आते थे। दद्दा की माई बचपन में ऐसा ही तेल बापू को मलती थी,जादू था
उस तेल में बापू दूसरे दिन चंगे खड़े हो जाते। आज समझ में आता है खड़े न होते
तो क्या करते, परिवार का पेट कैसे पालते।
आज सुबह से बापू और माई बहुत याद आ रहे थे। दर्द ने करवट ली, हर करवट के साथ
दर्द की लकीरें चेहरे पर उभर आती। दर्द की टीस से मुँह से एक सिसकारी निकल आती
है। आँखों के मोतियाबिंद के जाले गहरे होते जा रहे थे और वह अपने हाथ-पैर पसार
रहे थे। हर छटपटाहट के साथ जाल चक्रव्यूह की तरह उन्हें अपने आप में जकड़ता जा
रहा था। शायद तेज़ बुखार ने दद्दा को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। मुख्य द्वार
के दूसरी तरफ़ हवा वाला झूला लगा हुआ था।सारे बच्चे चिल्लाते हुए उस ओर
भागे।कितना गुलगुला और मुलायम था वह झूला… कूदते-फांदते बच्चे पसीने से तर-बतर
हो गए थे। दद्दा के पास कोई नहीं आया।आज का दिन बड़ा सूखा जा रहा था,किसी ने भी
खुश होकर दद्दा के आगे चिल्लर और नोट नहीं फेंके थे। स्टेच्यू बने दद्दा मन ही
मन सोच रहे थे,
"एक तो इतने दिनों बाद काम मिला उस पर से ऊपरी पैसा नहीं मिला सिर्फ़ दिहाड़ी
से कैसे काम चलेगा।"
दद्दा कुछ सोच ही रहे थे कि तभी एक तेज आवाज़ हुई।सब उस आवाज़ की ओर दौड़े।
दद्दा जमीन पर गिर पड़े हुए थे।
"हे राम! हे राम! हे राम!"
लाठी हाथ से छूट चुकी थी,गोल चश्मा टूट कर अपने अस्तित्व को खो चुका था। दद्दा
ने उठने का प्रयास किया पर…भीड़ ने उन्हें घेर लिया।लोगों ने मधुमक्खी के छत्ते
की तरह चारों ओर से घेर लिया था। भीड़ की धुंधली छवि और अस्फुट स्वर उनके कानों
में पड़ रहे थे। लोग खुशी से तालियाँ पीट रहे थे।
"कितना स्वाभाविक अभिनय कर रहा है न…"
किसी ने कहा…जो भीड़ अभी तक छिटक कर दूर खड़ी थी।वह दद्दा के पास सरक आई थी। भीड़
में से किसी ने नोट तो किसी ने छुटट्टे पैसे दद्दा के पैरों के पास रख दिए।
दद्दा के कान चिल्लर की आवाज़ सुन खड़े हो गए। भीड़ की छवि धीरे-धीरे स्पष्ट
होती जा रही थी। भीड़ का उत्साह देख दद्दा एक बार फिर चिल्ला पड़े।
"हे राम! हे राम! हे राम!"
कुछ लोगों के चेहरे पर दया का भाव था तो कुछ के चेहरे आँसुओं से भीगे हुए थे।
शायद लोगों के जेहन में कोई भूली स्मृति ताज़ी हो गई थी पर दद्दा बिखरे नोट और
सिक्कों को देख मन ही मन गुणा-भाग करने में लगे थे।
"एक-दो काम ऐसे और मिल जाए तो राजन का पैर जल्दी लग जाएगा।"