इतवार का दिन अलसाई सुबह के साथ शहर भी रोज की भागम-भाग से पस्त होकर
सुस्ताया-सुस्ताया सा लग रहा था। गली के मुहाने पर बना काका बाबू के घर सन्नाटा
पसरा हुआ था। मोटर साइकिल की तेज आवाज इस सन्नाटे को चीरते निकल गई और एक पल को
उस गली में पसरे सन्नाटे और शांति को भंग कर गई। अचानक उपजे इस शोर से निर्मला
जी के चेहरे पर एक तनाव उभर आया। काका बाबू के जाने के बाद क्या इतवार क्या
सोमवार सब एक जैसे ही लगते थे। आज की सुबह भी बाकी दिनों से अलहदा नहीं थी।
वक्त के साथ उन्होंने भी सन्नाटे और शांति से यारी कर ली थी।
काका बाबू! काका बाबू का असली नाम क्या था ये किसी को याद नहीं था क्योंकि वह
सिर्फ सर्टिफिकेट और दस्तखत तक ही सीमित था। पूरा शहर उन्हें काका बाबू के नाम
से ही पुकारता था। काका बाबू! लम्बा ऊँचा कद, बगुले की तरह सफेद झक
कुर्ता-धोती, बाएं हाथ में ब्रांडेड सुनहरी घड़ी और दाहिने हाथ में मौली का
धागा…लंबा-चौड़ा व्यवसाय था उनका, शहर और आस-पास के इलाके में उनकी जायदाद फैली
हुई थी। कहीं भी जमीन बिक रही हो काका बाबू हाजिर कुल मिलाकर माँ लक्ष्मी की
असीम कृपा थी।
समाज में काफी इज़्ज़त थी उनकी…घर में सुघड़ पत्नी और तीन संस्कारी बेटियाँ थी।
कुल मिलाकर एक हँसता-खेलता परिवार था। बेटियाँ अपनी-अपनी गृहस्थी में खुश थी।
बेटियों के जाने से काका बाबू की पत्नी निर्मला जी बिल्कुल अकेली पड़ गई थी।
किसके लिए बनाऊॅं, क्या बनाऊॅं? बच्चे जब तक थे घर में फरमाइशी कार्यक्रम चलता
ही रहता था पर वक्त के साथ बूढ़े होते काका बाबू और निर्मला जी को स्वास्थ्य
कारणों की वजह से डॉक्टर ने खाने-पीने पर रोक लगा दी थी।
"अरे यह सब डॉक्टरों के चोंचले हैं।"
काका बाबू निर्मला जी से हँस कर कहते। निर्मला जी ने घर पर तला-भुना बनाना बन्द
कर दिया था पर काका बाबू तो काका बाबू ही थे। निर्मला जी की नज़रों से चुराकर वह
बाहर आते-जाते खा ही लेते और निर्मला जी छटपटा कर रह जाती।
"अपने पापा को समझाओ अपनी जीभ पर कंट्रोल करें। पिछले महीने कोलेस्ट्रॉल बढ़ा
हुआ था। शुगर लेवल भी बॉर्डर लाइन पर है।"
पर काका बाबू किसी की कहाँ सुनने वाले थे। रोज सुबह तैयार होकर एक नई जमीन, एक
नए काम की तलाश में निकल पड़ते।
"आप ने इतना सब जो फैला रखा है उसे समेटिए। हमारे बाद बेटियाँ कहाँ तक देख
पाएंगी। उनकी भी तो घर-गृहस्थी है।"
काका बाबू हँस कर रह जाते
"तुम भी न, मैं अभी जिंदा हूँ। दस-बीस साल तक मुझे कुछ नहीं होने वाला… अभी तो
बहुत कुछ करना है।"
पर काका बाबू कहाँ जानते थे ऊपर वाला उनके हिस्से की सांसे पहले ही तय कर चुका
है। एक रात ऐसा सोए कि सोते ही रह गए। अलसुबह उठने वाले काका बाबू को देर तक
सोता देख निर्मला जी को बहुत आश्चर्य हुआ था। उन्होंने उन्हें जगाने की कोशिश
की। निर्मला जी की दुनिया उजड़ चुकी थी। जीवनभर साथ निभाने का वायदा करने वाले
काका बाबू बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने इस दुनिया से चले गए थे। निर्मला जी खुद
को ठगा सा महसूस कर रही थीं।
काका बाबू के इस संसार से जाते ही लोग उस घर की ड्योढ़ी चढ़ना भूल गए।
जमीन-जायदाद समेटते-समेटते निर्मला जी थकने लगी थी पर काका बाबू के साथ बिताए
हुए पल को भला कैसे समेटती। बेटियाँ बार-बार उन्हें अपने पास बुला रहीं थीं पर
क्या इतना आसान था सब कुछ छोड़कर चल देना।
"मम्मी! पापा के कपड़े गरीबों में बाँट दो कब तक उन्हें सीने से लगाए रखोगी?"
गलत तो नहीं कहा उन्होंने पर क्या इतना आसान था। हर कपड़े के पीछे उनकी यादें
जुड़ी थीं। निर्मला जी आज सुबह-सुबह ही उठ गई थी या इसे यूँ भी कह सकते हैं इस
अकेले घर में उन्हें नींद ही नहीं आती थी। कहने के तो इस घर में दो आदमी रहते
थे, काका बाबू काम के सिलसिले में अक्सर बाहर ही रहते पर फिर भी एक उम्मीद
हमेशा रहती कि वो शाम तक लौट आएंगे। उनके इस दुनिया से जाते ही अब वह उम्मीद भी
जाती रही।
निर्मला जी आज मन पक्का कर बैठी थी कि वह काका बाबू के कपड़े गरीबों में बाँट
देंगी। काका बाबू अपनी अलमारी किसी को छूने नहीं देते थे।
"मैं तुम्हारी अलमारी छूता हूँ ? नहीं न, फिर तुम मेरी क्यों छू रही हो?"
निर्मला जी चुटकी लेते हुए कहती।
"ऐसा भी क्या है जो आप मुझे नहीं दिखा सकते? कोई चिट्ठी या फिर सूखा सूर्ख
गुलाब…!"
काका बाबू संजीदा स्वर में कहते
"कुछ लोगों की अमानत है जो बड़े विश्वास के साथ मेरे पास रखकर गए हैं।"
निर्मला जी ने अलमारी खोली सामने सफेद कुर्ते-धोती का अंबार लगा हुआ था। काका
बाबू के देह की खुशबू अभी भी महसूस की जा सकती थी। निर्मला जी ने बड़े प्यार से
उन कपड़ों पर हाथ फेरा उनकी आँखों के कोर से दो बूंद आँसू टप से टपक गए। निर्मला
जी ने बोझिल मन से कपड़ों को निकालकर बेड पर रखना शुरू किया। तभी…
एक खोया हुआ अतीत झरझरा के उनके सामने आ कर गिर गया। लाल बदरंग पड़ चुके कपड़े
में कुछ बंधा हुआ रखा था शायद कोई गहना या फिर शायद किसी के अरमान, सपनें या
फिर शायद मजबूरी…
"कुछ लोगों की अमानत है जो बड़े विश्वास के साथ मेरे पास रख गए हैं।"
निर्मला जी को काका बाबू की कही गई बातें याद आ रहीं थी। अतीत से जितना भी पीछा
छुड़ाओ वह सामने आकर खड़ा हो ही जाता है। अतीत! अतीत जैसा भी हो न जाने कितनी
खट्टी-मीठी बातों, यादों और भूली-बिसरी तारीखों की गोद से भरा रहता है। अतीत उस
अंधे कुएं की तरह होता है जो बरस दर बरस सहेजे रखता है न जाने कितनी यादों
को…वक्त की धूल भी उन्हें धूमिल नही कर पाती। वह इंसानों की तरह वक्त के साथ
रंग नहीं बदलता है।
निर्मला जी ने उस छोटी सी पोटली के साथ उठ आई धूल को बड़े प्यार से देखा और
मुस्कुरा पड़ी। वक्त के साथ पोटली का उस धूल के साथ गहरा नाता बन गया था। शायद
इसीलिए निर्मला जी के छूने भर से वह मनुहार करती उनकी उंगलियों से चिपक आई थी।
पोटली के इस तरह अचानक उठाए जाने से वहाँ का स्थान साफ चमकदार दिख रहा था।
पोटली ने न होकर भी वर्षों से बनाए अपने सम्बन्धों के निशान चुपचाप छोड़ दिए थे।
निर्मला जी की उंगलियों में शीत और वक्त के बोझ की मारी चिपचिपी गाढ़ी धूल चिपक
गई। उन्होंने झटक कर उन्हें दूर करने का प्रयास किया पर वह हठी जिद्दी बच्चे की
तरह चिपकी रही। उन्होंने पोटली को मेज पर रखा और वाशबेसिन पर हाथ धोने चली गई।
हथेली के दबाव से उन्होंने नल को खोलने का प्रयास किया।
"झरsss…!"
एक तेज़ आवाज़ के साथ पानी वाशबेसिन के सफेद कटोरे में गिरने लगा। पानी की तेज़
धार की वजह से पानी में सफेद फेन और बुलबुले कुलबुलाने और शोर मचाने लगे।
निर्मला जी ने अपने हाथों को धार के नीचे रख पानी की धार की छटपटाहट को शांत
करने का प्रयास किया। उंगलियों में चिपकी धूल को जैसे ही पानी की तेज़ धार का
अहसास हुआ वह पानी की धार के साथ सारी मोह-माया छोड़ वाशबेसिन की जाली में
गोल-गोल घूमते-घूमते अनन्त यात्रा पर निकल पड़ी।
निर्मला जी ने पानी के नल को बंद किया और आंचल से अपने हाथों को पोंछते हुए
वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गई। वक्त की मार से कपड़ा काफी गल चुका था। निर्मला जी
ने सधे हुए हाथों से उसे खोलने का प्रयास किया। एक मुड़े-तुमड़े कागज के साथ एक
मांग टीका और एक हल्का सा गले का हार नजर आया। निर्मला जी ने हार को उठाया।
डोरी वक्त की मार से काली पड़ चुकी थी।
निर्मला जी के हाथ लगाते ही डोरी का एक सिरा टूट कर हवा में लटक गया। हार का
वजन इतना ज्यादा नहीं था कि उसके वज़न से डोरी टूट जाती शायद वह हार अपने मालिक
की परिस्थिति और वक्त की मार के आगे हार गया था और टूट गया। उस फूल से हल्के
हार को न जाने किस परिस्थिति के कारण काका बाबू के ड्योढ़ी पर रेहन के लिए रखना
पड़ा होगा। यह राज काका बाबू के साथ ही चला गया।
निर्मला जी की आँखें उस मांग टीके पर आकर टिक गई। शुद्ध खरे सोने का मांग टीका
झिलमिला रहा था। निर्मला जी ने हौले से मांग टीके को उठाया। मांग टीके की
जालीदार चेन हवा में झूलने लगी उन्होंने चेन के कुंडी को पकड़ा और ध्यान से
मांग टीके को देखने लगी।
लाल सिंदूर मांग टीके पर गहराई से अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा था। निर्मला जी की
आँख भर आईं। कितनी सुंदर डिजाइन थी। दस रुपये के सिक्के के बराबर गोलाकार…लाल
और हरे रंग के मीनाकारी और नीचे की तरफ सोने के महीन कुंडे में फँसे सफेद और
लाल मोती मासूम बच्चे की दंतुरित मुस्कान की तरह झिलमिल चमक रहे थे। किसी नव
विवाहिता का था शायद…
उस पोटली के साथ जीर्ण-शीर्ण रखा कागज पंखे की हवा के झोंके से न जाने कब उनके
पैरों के पास आकर गिर गया। कागज़ वक्त के साथ पीला पड़ चुका था। कागज़ कई तहों
में मुड़ा हुआ था। मोड़ वाली जगह पर कागज़ कमज़ोर पड़ चुका था। निर्मला जी ने
हल्के हाथों से उसकी तहों को खोलना शुरू किया। मांग टीका,सविता सक्सेना, नई
सड़क, फोन नंबर…हार, गीता दुबे,राजा बाजार,फोन नम्बर…
उन दस अंकों पर निर्मला जी की आँखें आकर रुक गई। वो समझ नहीं पा रहीं थीं कि वह
आगे क्या करे।
"हेलो! गुड़िया तेरे पापा की अलमारी से किसी के गहने निकले हैं। समझ नही आ रहा
उनका क्या करूँ।"
"कुछ नाम पता भी मिला है?"
निर्मला जी की बेटी ने चिंतित स्वर में कहा
"हाँ उन गहनों के साथ ही है। कोई सविता सक्सेना और गीता दुबे का पता और फोन
नम्बर भी है।"
"मम्मी! जिसका जो है उसे वापस कर दो, क्या करेंगे ऐसे गहने रखकर… किसी की आह
लेकर सुख की नींद तो आपको भी नहीं आएगी।"
अपनी गुड़िया के मुँह से इतनी बड़ी-बड़ी बातें सुनकर वह आश्चर्य में पड़ गई थी।
"पर तेरी बहनें?"
"मुझे नहीं लगता कि उन्हें ऐसा कुछ चाहिए होगा। अगर उन्हें कुछ चाहिए तो मैं
उनसे बात कर लूँगी।"
निर्मला जी के दिल से बोझ उतर गया। वह कुर्सी पर शांति से बैठ गईं। मन-मस्तिष्क
में एक अजीब सी हलचल मची हुई थी।आखिर…
"हेलो!"
"कौन?"
किसी पुरुष की आवाज थी। शायद सविता जी के पति या फिर बेटा…मन तरह-तरह के कयास
लगाने लगा।
"मैं निर्मला बोल रही हूँ।"
"निर्मलाsss?"
उस आवाज ने अपनी यादाश्त पर जोर डालते हुए कहा
"माफ कीजिएगा, मैंने पहचाना नहीं!"
निर्मला जी झुंझला गई। सामने वाले का पूछना भी लाजिमी ही था। उन्होंने
जान-पहचान में न पड़ते हुए सीधे पूछा
"सविता जी से बात हो सकती है।"
सामने वाला अचकचा सा गया। शायद उसे सामने वाले से सवाल के बदले सवाल की उम्मीद
नहीं थी।
"जी कराता हूँ।
निर्मला जी बार-बार घड़ी की ओर देख रही थी। वक्त मानो रुक सा गया था। वक्त! वक्त
रुक ही गया था उनके लिए नहीं उसके लिए जिसका वह मांग टीका था…
"हेलो कौन?"
"जी मैं निर्मला, आप सविता जी बोल रहीं है?"
"जी! मैंने आपको पहचाना नहीं…?"
वह आवाज़ थकी-थकी लग रही थी शायद जिंदगी की जदोजहद ने उसे बुरी तरह थका दिया था।
"मैं निर्मला, काका बाबू की पत्नी,टेढ़ी पुलिया से…"
"काका बाबूsss…!
आवाज़ थम सी गई थी, शायद सामने वाले के मन-मस्तिष्क में कुछ चल रहा था। चल तो
निर्मला जी के जेहन में भी रहा था। सवाल दोनों के दिमाग में चल रहे थे बस फर्क
इतना सा था कि दोनों के स्वरूप भिन्न-भिन्न थे। निर्मला जी सोच रही थी काका
बाबू जैसे लोगों के यहाँ न जाने कितनी कहानियाँ ऐसी ही पोटलियों में बंधी
दरवाजों के पीछे बंद है जो हर गाँठ खुलने के साथ खुलेंगी।
"आप ने फोन किया? काका बाबू कैसे हैं?"
उस आवाज़ ने विचारों और भावों के बवंडर को सम्भालतें हुए कहा, निर्मला जी को एक
झटका सा लगा। सामने दीवार पर लगी तस्वीर में काका बाबू मुस्कुरा रहे थे। काका
बाबू अब तस्वीर बन चुके थे। चंदन की माला के बीच से झाँकती उनकी मुस्कुराहट आज
भी उनके होने का सबूत थी। इस नश्वर संसार से वह भले ही अलविदा कह चुके थे पर
अपनों के दिलों में वह आज भी जिंदा थे।
"वह अब इस दुनिया में नहीं रहे।"
"कब?"
सामने वाली आवाज़ घोर आश्चर्य में थी।
"छः महीने पहले हृदय गति रुक जाने सेsss…"
शब्द गले मे अटक गए आँसुओं ने आँखें और गले का मार्ग अवरुद्ध कर दिया।
"ओह!"
यह एक शब्द कहकर सविता जी न जाने क्यों चुप गई थी। निर्मला जी शायद उस चुप्पी
के पीछे छुपे मर्म को समझ पा रही थी। वह सविता जी के बोलने का इंतज़ार कर रही थी
पर वह इंतज़ार लम्बा होता चला गया। उन दोनों के बीच एक गहरा सन्नाटा पसर गया।
आखिर उन्होंने ही उस सन्नाटे को तोड़ा।
"सविता जी आपने इनके पास अपना कोई गहना sss…!"
वाक्य पूरा होने से पहले ही सविता जी बोल पड़ी।
"मांग टीका, काका बाबू के पास मैंने अपना मांग टीका रेहन पर रखा था।"
"जी, आज उनका लॉकर खोला तो उसमें आपका मांग टीका मिला।"
"हम्म…"
निर्मला जी सविता जी कशमकश जान रही थी। उन्होंने बात आगे बढ़ाई…
"काका बाबू रहे नहीं, उनके साथ जुड़ी चीजें भी अब नहीं रहीं। आप अपना मांग टीका
लेते जाइए।"
"परsss!"
"मुझे नहीं पता आपने किन परिस्थितियों में उसे रेहन पर रखा। मुझे यह भी नहीं
पता कि आपने उसका पैसा चुका भी दिया है या नहीं… यह बातें काका बाबू के साथ ही
चली गई। मैं चाहती हूँ कि चीज़ें लोगों तक पहुँच जाए। निर्मला जी ने अपनी बात
पूरी करते हुए कहा पर उधर से कोई जवाब नही आया।
"हेलो-हेलो! आप सुन रही हैं न…?"
"जी…"
निर्मला जी ने राहत की सांस ली।
"निर्मला जी,आप अन्यथा मत लीजिएगा। वो मांग टीका आप अपने पास ही रख लीजिए। अब
उसकी जरूरत नहीं रही।"
"जी मैं आपका मतलब नहीं समझी?"
निर्मला जी आश्चर्य में थी, मांग टीका खुद चलकर आ रहा था और सविता जी उसे लेने
से मना कर रहीं थीं। आखिर क्यों…? सविता जी ने रूंधे हुए स्वर में कहा
"जिनके लिए वो माँग टीका रेहन पर रखा था वो तो अब दुनिया में भी नहीं रहे। फिर
उस मांग टीके को लेकर क्या करुँगी। जब सुहाग ही नहीं रहा तो फिर सुहाग की
निशानी रखने का क्या मतलब…? मेरे लिए अब वह सिर्फ सोने का टुकड़ा भर ही है।"
निर्मला जी ने महसूस किया कि सविता जी ने सिर्फ अपना मांग टीका रेहन पर नहीं
रखा था बल्कि अपने अरमान और सपने भी उनके साथ रेहन पर रखे थे।
"पर!"
"निर्मला जी! उनके जाने के बाद इस दुनिया से मन उचट सा गया।समझ नहीं आता कि
खुशी के पल कहाँ ढूंढू…? कभी-कभी सोचती हूँ मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ। जिंदगी
से न जाने कितनी शिकायतें थी पर उनका होना ही मेरे लिए काफी था। सच कहूँ सिर्फ
वो नहीं मरे उन के साथ उनके दिल में बसा मेरा हिस्सा भी मर गया। उनका जाना मानो
भाग्य की लकीरों का चुपचाप बिन कुछ कहे बिना कुछ सुने निकल जाना जैसा था।"
निर्मला जी चुपचाप सविता जी की बातें सुन रही थी। एक अनजान औरत के सामने
उन्होंने अपना दिल और दर्द खोल कर रख दिया था शायद इसलिए क्योंकि निर्मला जी भी
आज उसी नाव पर सवार थी। शायद उन्हें लगा होगा कि निर्मला उनके दुख-दर्द को
बेहतर ढंग से समझ सकती हैं। वैसे भी इस दुनिया में औरतों की सुनने वाला है ही
कौन…?सविता जी कहते-कहते चुप हो गई। महीनों से भरा गुब्बार एक हल्के से स्पंदन
से भरभरा कर बाहर आ गया था।
"माफ कीजिएगा, मैं कुछ ज्यादा ही बोल गई।"
"कोई बात नहीं सविता जी, मैं समझ सकती हूँ पर मैं उस मांग टीके को अपने पास
कैसे रख सकती हूॅं?"
एक बार फिर एक गहरा सन्नाटा उन दोनों के बीच पसर गया।
"निर्मला जी किसी को दान कर दीजिए या फिर गंगा में प्रवाहित कर दीजिए।"
"ठक्क…!"
निर्मला जी को एक तेज झटका लगा। उन दोनों के बीच अब कहने-सुनने के लिए कुछ भी
नहीं रह गया था। सविता जी ने कहा
"जी रखती हूँ। आप से बात करके अच्छा लगा।"
"मुझे भी…"
दोनों ही इस अचानक उपजी परिस्थिति से असहज हो गई थीं और उन्होंने फोन काट दिया।
निर्मला जी का दिल भारी हो चुका था। उन्हें काका बाबू की बहुत याद आ रही थी।
अपने पीछे वह न जाने कितनी सारी दर्दनाक कहानियाॅं छोड़ गए थे यह कैसा काम कर
रखा था उन्होंने… कितनी बार समझाया था।
"ऐसे काम करने से क्या फायदा? किसी के गहने के बदले पैसे देना, कितना अजीब है
यह सब !"
काका बाबू हंसकर कहते
"तुम नहीं समझोगी। सोचकर देखो मेरे पास लोग अपने गहने रेहन पर रखने क्यों आते
हैं?"
"पैसे के लिए…"
"पैसे तो वो अपने रिश्तेदारों और मित्रों से भी ले सकते हैं न…"
"हाॅं ये तो है।"
"और अगर मदद मिलने के सारे रास्ते बंद हो जाए तब…?"
"मतलब?"
"एक औरत के लिए उसके गहने क्या होते हैं तुमसे बेहतर कौन जान सकता है पर सोचो
यदि कोई औरत अपने गहने को रेहन पर रखवाने आती है तो वह कितनी मजबूर होगी। जब
मदद के सारे रास्ते बंद हो जाए या फिर इस समाज में झूठी इज्जत को बचाने की
खातिर वह रात के अंधेरे में छिपते-छुपाते अपने और अपनों की जरूरत के लिए अपने
गहने रेहन पर रखने के लिए आती है। सोचो वह कितनी मजबूर होगी। रिश्तेदारों और
मित्रों के होते हुए भी अगर उसे मदद न मिल पाए तो उसके पास यही एक रास्ता बचता
है।"
काका बाबू ने बात गलत तो नहीं कही थी। सोचते-सोचते निर्मला जी का सिर भारी हो
गया था। दिल का एक कोना खालीपन से भर गया था। वह वहीं सोफे पर सर टिकाकर बैठ गई
और अपनी आँखें मूंद ली। सविता जी की बातें अभी तक उनके कानों में गूंज रही थी।
"जब सुहाग ही नहीं रहा तब सुहाग की निशानी रखने का क्या मतलब ? मेरे लिए अब वह
सिर्फ़ सोने का टुकड़ा भर ही है।"
दिलों-दिमाग में एक अजीब सी हलचल मची हुई थी। उस पोटली में अभी भी न जाने कितने
राज छिपे हुए थे। निर्मला जी सोच रही थी। अभी उन्हें कितने ही दर्द और तकलीफों
से होकर गुजरना था। क्या गीता जी को फोन करूँ? उन्होंने अपने आप सवाल से किया।
किसी के हिस्से का दर्द किसी के आँसू सुनने और उसे पोंछने का हौसला अब उनमें
बाकी नहीं था। नहीं! अब और नहीं पर क्या इन गहनों को उनके मालिकों तक पहुँचाना
उनकी जिम्मेदारी और कर्तव्य नहीं? वह गहने सिर्फ सोने के टुकड़े नहीं थे किसी
के अरमान, किसी के सपनें, किसी की मजबूरी थे और शायद उम्मीद भी… उम्मीद की वह
उन रेहन पर रखे गहनों को एक दिन छुड़वा लेंगे। निर्मला जी ने अपने आप को संभाला
और पोटली से निकले उस कागज को खोलकर देखा। गीता दुबे,राजा बाजार…पास के ही
मोहल्ले में रहती थी। निर्मला जी ने मोबाइल उठाया और उन्हें फोन मिला दिया।
पूरी-पूरी घंटी जा चुकी थी पर फोन नहीं उठा। शायद गीता जी व्यस्त हों, शायद
नंबर बदल गया हो? न जाने कितने ही सवाल जोर मार रहे थे। निर्मला जी सोच नहीं पा
रही थी कि वह अब क्या करें? उन्होंने फोन रख दिया और पानी पीने के लिए जैसे ही
उठीं मोबाइल की घंटी घनघना गई। वही नंबर था हाँ वही…उन्होंने अपने आप को
समझाया।
"हेलो…"
उधर से आवाज आई।
निर्मला जी तब तक अपने आप को संभाल चुकी थी।सामने वाले ने कहा
"आपने फोन मिलाया था?"
"जी मैं निर्मला,काका बाबू की पत्नी…"
"काका बाबू!"
उस आवाज ने अपनी याददाश्त पर जोर डालते हुए कहा
"वही न जो टेढ़ी पुलिया मोहल्ले में रहते थे!"
"जी वही…"
"हाँ बोलिए…"
"आप गीता जी बोल रहीं हैं?"
"जी! मैं गीता बोल रही हूँ।"
"काका बाबू इस दुनिया में नहीं रहे।"
गीता जी सन्नाटे में आ गई। निर्मला जी ने कुछ चटकने की आवाज महसूस की शायद
अपने गहने की वापस होने की उम्मीद दिल के किसी कोने में अभी भी बाकी थी पर
निर्मला जी के मुँह से काका बाबू की मरने की खबर सुनने के बाद वह उम्मीद टूट गई
थी। निर्मला जी ने बोलना जारी रखा।
"आज अलमारी साफ करते हैं समय उनकी तिजोरी से एक हार निकला है और साथ ही एक कागज
भी, उस पर आपका नाम लिखा हुआ था। आपको जब भी समय हो उस हार को लेती जाइए।"
"जी मैं समझी नहीं!'
निर्मला जी समझ नहीं पा रही थी इसमें समझने जैसा क्या था? सच कहूँ तो गीता जी
को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। जिस हार को वापस पाने कि वह कब की आस
छोड़ चुकी थी। आज उस हार के पैर निकल आए थे वह खुद उनके पास चल कर आने को आतुर
था।
"पर…पर मेरे पास उसे छुड़वाने के लिए पैसे नहीं है।"
"कोई बात नहीं, काका बाबू अब रहे नहीं मैं उनकी छोड़ी जिम्मेदारियों से मुक्त
होना चाहती हूँ।"
"जी!"
गीता जी को अभी भी अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
"मैं घर पर ही रहती हूँ, आप कभी भी आकर अपना सामान ले जा सकती हैं।"
"जी"
"पता तो याद है न…?"
"टेड़ी पुलिया,दुर्गा जी के मंदिर वाली गली में पहला मकान, पेंट वाले की दुकान
के ठीक सामने, काला बड़ा लोहे का गेट,चार सीढ़ी चढ़कर…"
गीता जी एक सांस में बोल गईं।निर्मला जी आश्चर्य में पड़ गई। उनके घर का पता
उनके सिवा किसी और को भी मुँह जुबानी याद था। वह सोच रहीं थी। गीता जैसे न जाने
कितने लोग होंगे जिन्होंने उनके घर की ड्योढ़ी लाँघकर अपने अरमानों और सपनों को
सविता और गीता जी की तरह रेहन पर रखा होगा और उन्हें भी उनके घर का पता ऐसे ही
याद होगा।
"आपको मेरे घर का पता मुँह जुबानी याद है?"
"कैसे भूल सकती हूँ, वर्षों तक ब्याज देने के लिए इस घर की ड्योढ़ी चढ़ती रही।"
"जी…आप कभी भी आ जाइए, मैं आपका इंतज़ार करुँगी।"
निर्मला जी ने का मन कसैला हो गया था, उन्होंने काका बाबू की तस्वीर की तरफ
देखा,
"ये कैसा काम मोल ले लिया था।"
निर्मला जी ने फोन रख दिया और घर के कामों में लग गई पर गीता जी की कही बातें
अभी भी उनके जेहन में घूम रहीं थी।
"कैसे भूल सकती हूँ, वर्षों तक ब्याज देने के लिए इस घर की ड्योढ़ी चढ़ती रही।"
तभी दरवाजे की घंटी बजी।
"इतनी सुबह-सुबह कौन हो सकता है?"
उन्होंने अपने आप से सवाल किया। बन्द दरवाजे के पीछे से उन्होंने आवाज लगाई।
"कौन?"
"जी मैं गीता दुबे अभी कुछ देर पहले आप से बात हुई थी।"
निर्मला जी स्तब्ध थी। अभी थोड़ी देर पहले ही तो बात की थी। जरा भी सब्र नहीं,
क्या गीता जी को उनकी बात पर भरोसा नहीं था। आज ही तो बात की थी थोड़ा तो इंतज़ार
कर लेती। मन न जाने कैसा-कैसा हो गया।निर्मला जी शायद भूल गई थी। इंतज़ार! गीता
जी के हिस्से में इतने सालों तक सिर्फ इंतजार ही तो आया था। इतने सालों तक
उन्होंने एक बेहतर समय का इंतजार ही तो किया था।
निर्मला जी ने दरवाजा खोला, सामने गीता जी खड़ी थी। उम्र तो ज्यादा नहीं थी पर
परिस्थितियाँ कभी-कभी इंसान को वक्त से पहले ही बूढ़ा कर देती हैं। सामने
पचास-पचपन साल की एक अधेड़ महिला सूती साड़ी में लिपटी खड़ी थी।
"नमस्कार! मैं गीता,गीता दुबे, अभी आप से बात हुई थी। माफ कीजिएगा मैं बिना
बताए आ गई।"
"कोई बात नहीं…"
निर्मला जी ने औपचारिकता दिखाते हुए कहा और बैठक की ओर बढ़ गई। कमरे में पंखा
घूं-घूं की आवाज के साथ चल रहा था। निर्मला जी पानी लेने के लिए रसोईघर में चली
गई। गीता जी की निगाहें कमरे का निरीक्षण-परीक्षण कर रही थी।
"पानी…"
निर्मला जी ने पानी का गिलास गीता जी की ओर बढ़ाया। अचानक उनकी आँखें टकरा गई।
गीता जी संकोच से दोहरी हो गई। उन्होंने एक सांस में पानी का गिलास अपने गले के
नीचे उतार दिया। सामने खाली गिलास रखा हुआ था पर गीता जी के मन-मस्तिष्क में न
जाने कितनी सारी बातें भरी पड़ी थी।
"इस दरवाजे पर न जाने कितनी बार आना हुआ पर काका बाबू से मुलाकात हमेशा घर के
आगे वाले हिस्से में बने ऑफिस में होती थी शायद इसी वजह से आपसे कभी मुलाकात
नहीं हुई।"
"जी…"
निर्मला जी गीता जी को इस वक्त आया देखकर कुछ विशेष खुश नहीं थी उन्हें बार-बार
लग रहा था वह तो गीता जी को उनका हार देने के लिए सहर्ष तैयार थी फिर गीता जी
को आने की इतनी जल्दी क्या थी? गीता जी का उतावलापन उन्हें रास नहीं आया था। वो
कमरे में गई और थोड़ी देर बाद वापस लौट आई।जाते वक्त उनके हाथ खाली थे पर आते
वक्त उनके हाथ भरे थे, खुशियों से भरे… गीता जी की हिस्से में आने वाली खुशियाँ
उनके हाथों में थी।उन्होंने लाल रंग की पोटली गीता जी के आगे बढ़ा दी।
"आपकी अमानत…"
गीता जी बहुत देर तक चुपचाप उस पोटली को देखती रही। निर्मला जी उनके मन और मौन
को समझने का प्रयास करती रहीं।वह महज पोटली नहीं थी उसमें उनके अरमान, सपनें और
उम्मीदें भी कैद थीं। उन्होंने धीरे से पोटली को उठाया और अपनी फैली हुई बायीं
हथेली पर पलट दिया। सोने का हार अपने मालिक का सानिध्य पा खिलखिलाने लगा। वक्त
के थपेड़ों से मात खा धूमिल हो चुके हार को देख गीता जी की आँखें भरभरा कर बह
चली। एक पल को लगा मानो आँखों में समुंदर उतर आया हो। उन आँसुओं की बारिश में
अकेली वह नहीं भीगी थीं बल्कि वे दोनों भीगे थे। निर्मला जी इस अचानक उपजी
स्थिति से असहज हो गई पर धीरे-धीरे उनके परिपक्व मन ने उन्हें संभाल लिया।
उन्होंने गीता जी को उनके अतीत के साथ छोड़ दिया और चुपचाप बैठी रही। गीता जी की
हिचकियाँ बंध गई। जल्दी ही उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि वह दूसरे के
दरवाजे पर बैठीं हैं।
"माफ कीजिएगा, मैं अपने आप को रोक नहीं पाई।"
"समझ सकती हूँ कि आपको कैसा लग रहा होगा।"
निर्मला जी को काका बाबू पर बहुत गुस्सा आ रहा था। किसी का रोवा दुखाकर धन
कमाकर आखिर उन्होंने क्या हासिल कर लिया। तभी…
"निर्मला जी आप से क्या छिपाना। वैसे भी अब छिपाने का क्या फायदा…पति के शराब
की लत की वजह से एक-एक कर सारे गहने बिक गए। एक ही बचा था, चाह कर भी बेच नहीं
पाई थी। पिताजी की यही एक आखिरी निशानी बची थी। मायके का मोह ही ऐसा होता है।
सोचा था बच्चे बड़े होंगे तो माँ का गहना रेहन से छुड़वा लेंगे। पर…एक वक्त ऐसा
भी आया जब काका बाबू को ब्याज देने के लिए भी मेरे पास पैसे नहीं थे।घर की
जिम्मेदारी, बच्चों को पढ़ाती या फिर ब्याज देती। उस वक्त काका बाबू ने कहा था
तुम्हारी अमानत मेरे पास सुरक्षित है जब तुम्हारे पास ब्याज के पैसे हो तो दे
देना पर जिंदगी की जद्दोजहद से लड़ते-लड़ते मैं हारने लगी थी। किस मुँह से हार
लेने आती। आज काका बाबू न होते तो मैं अपने बच्चों को न पढ़ा पाती। बच्चे भूल
सकते हैं पर मैं उनका अहसान नहीं भूल सकती।"
निर्मला जी एकटक गीता जी को देख रही थी। काका बाबू की कही हुई बातें उन्हें याद
आ रही थी।
"कुछ लोगों की अमानत है जो बड़े विश्वास के साथ मेरे पास रखकर गए हैं।"
निर्मला जी की आँखें भीग गई थी। एक बारिश भीतर भी हो रही थी जिसने उनके मन को
भिगो दिया था। आँखों के आगे धुंधलका छा गया था उन्होंने आँसुओं को अपने आँचल
में समेट लिया। बारिश अपने साथ काका बाबू को लेकर बनाई गई गलतफहमियाँ संग बहा
ले गई थी। सामने काका बाबू तस्वीर में मुस्कुरा रहें थे। सच ही कहा था काका
बाबू ने लोगों ने उनके पास सिर्फ गहने रेहन पर नहीं रखे थे बल्कि उनका विश्वास
भी रेहन पर रखा था।