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कहानी

मसालदानी

रंजना जायसवाल


घुटनों का दर्द आजकल ज्यादा तकलीफ देने लगा था। आरती जी घर के गलियारे में धीरे-धीरे टहल रही थी। आँखों में मोतियाबिंद उतर आया था। मोतियाबिंद के जालों ने सिर्फ आँखों की रोशनी पर नहीं उनके कदमों पर भी रोक लगा दी थी। वक्त के साथ बूढ़े हो चुके शरीर को लगभग घसीटते हुए वे इस वक्त गलियारे में टहल रही थी।

"मशीन को भी तो चलाना पड़ता है, नहीं तो बैठे-बैठे उसमें भी जंग लग जाता है।"

प्रशांत जी ने उन्हें टहलता हुआ देखकर कहा, आरती जी के झुर्रियों से भरे चेहरे पर एक हल्की मुस्कान बिखर गई। उनकी आँखों में एक अनदेखे दर्द की टीस उभर आई, एक ऐसा दर्द जो लफ्जों से कम आँखों से ज्यादा बयां होता था। प्रशांत जी उनके इस दर्द की वजह जानते थे पर कुछ दर्द के इलाज नहीं होते। आरती जी टहलते-टहलते घर के मुख्य द्वार से सटे खंभे के पास आकर खड़ी हो गई। घर के मुख्य द्वार पर प्रशांत जी की वर्षों पुरानी नेम प्लेट लगी थी और दूसरे खंभे पर कबीर और ऋतु के नाम की, जिस घर को आरती जी ने अपने खून-पसीने से सींचा था उस घर के नेम प्लेट पर उनका नाम भी नहीं था। उन्होंने अपनी धुंधली हो चुकी नजरों पर जोर डाला और उस खंभे पर कुछ ढूंढ़ने लगी। मकान के गृह प्रवेश के समय उनके शुभ हाथों द्वारा बनाया गया "ॐ" वक्त की मार से धूमिल हो चुका था और "ॐ" के ऊपरी हिस्से पर बने तिलक की छाप भर ही दिख रही थी। उन्होंने एक गहरी सांस ली और मेहनत से बनाए घर की ओर बड़े प्यार से देखा। अतीत ने हौले से उनके मन-मस्तिष्क पर खटखटाया और हाथ पकड़कर अपने साथ ले गया।

"मम्मी पीछे वाला पार्क बहुत अच्छा मेंटेन हो गया है।"

"अरे कब?"

"कॉलोनी में पी डब्लू डी विभाग के एक इंजीनियर साहब ने भी अपना घर बनवा लिया है उन्हीं के प्रयास से पार्क की देख-रेख अब अच्छे से होने लगी है। आप भी हो आइए।इसी बहाने कॉलोनी के लोगों से मिलना-जुलना हो जाएगा। वरना दो दिन की छुट्टी में आप कहाँ किसी से मिल पाती हैं।"

कबीर ने सही ही कहा था, आरती जी हर बार सोचती थी कि वह कॉलोनी के लोगों से मिल कर जाएंगी। सब की शिकायतें भी दूर हो जाएगी पर दो दिन के समय में क्या-क्या करती! समय पंख लगाए ऐसे उड़ जाता कि वह देखते ही रह जाती। बच्चों के साथ समय बिताने की आस लिए वह घर आती थी। सोचती थी बच्चों को क्या ना बना कर खिला दूँ पर बच्चों को छोड़कर घर से निकलने का मन ही नहीं करता था और फिर वापिस जाने का समय हो जाता।

वह ऋतु के पीछे-पीछे पार्क पहुँच गईं। पार्क में और भी महिलाएं थी। पार्क के बीचों-बीच पानी की टंकी की बनी हुई थी। पानी की टंकी! पानी की टंकी साधारण टंकी नहीं थी इस कॉलोनी की पहचान थी। इस कॉलोनी के हर घर में आने वाली डाक और पार्सल पर घर के मालिक के नाम के साथ इस टंकी का जिक्र भी होता था। आस-पास के इलाके में इतनी बड़ी कोई टंकी नहीं थीं। घुमावदार सीढ़ियाँ चंदन के पेड़ पर लिपटे साँप की तरह कंक्रीट और सीमेंट की बनी उन लंबी-लंबी टांगों पर लिपटी हुई थीं। उस टंकी की तरफ जब भी नजर जाती आरती जी को अम्मा की बात याद आ जाती। बड़े-बड़े शहरों में इतनी ऊँची-ऊँची इमारतें होती हैं देखो तो टोपी गिर जाए।

गर्मी के दिनों में कमरे की घुटन और तपिश से बचने के लिए आरती जी जब भी छत की तरफ रुख करती उस टंकी पर नजर जरूर जाती। रात के स्याह अंधेरे में टंकी के चारों तरफ लगी रेलिंग पर कबूतर दम साधे बैठे सुबह होने का इंतज़ार करते रहते। एक पल को लगता रात का अंधेरा उनकी उड़ान पर बंदिशें लगा देता है और वह थकहार कर कुछ पल सांस लेने के लिए टंकी की शरण मे बैठ जाते हैं। चाँद की पीली रौशनी में वह टंकी और भी भयावह लगती। जमीन पर पड़ती परछाई को देख एक पल को लगता टंकी की और टाँगें उग आई हो। एक अजीब सा आकर्षण था, न चाहते हुए भी उस टँकी पर नज़र जरूर जाती। टंकी की ऑक्टोपस सी लंबी टांगे अपने गिरफ्त में कसती जाती जिससे छूट पाना मुश्किल लगता था। अचानक…

"अरे आरती भाभी! कब आना हुआ?"

सामने से मिसेज शुक्ला आती हुई नज़र आई।

"बस परसों ही आई हूँ, कल सुबह जाना भी है।"

आरती जी की आवाज़ में एक निराशा थी। ये दो दिन पंख लगाए कितनी जल्दी उड़ गए। महीने में एक बार बच्चों से मिलने के लिए कितना इंतज़ार रहता था।

"अरे इतनी जल्दी…!"

"इनकी नौकरी ही ऐसी है। आखिर कब तक रुका जा सकता है।"

"बात तो सही कह रहीं हैं।"

"अब तो इनके रिटायरमेंट के बाद ही आप लोगों के साथ फुर्सत से बैठ सकूँगी।"

"सच कहा भाभी अपने…"

ऋतु ने अपनी सास को देखा तो उनके पास चली आई। उसके साथ उसकी उम्र की ही लड़कियाँ थी। शायद कॉलोनी में रहने वालों की किसी की बहुएं…बेटियाँ तो सबकी ब्याह कर अपने-अपने ससुराल जा चुकी थी। उनका आगमन भी मौसम की तरह ही होता। चुटकी भर सिंदूर भरते ही लड़कियों की किस्मत बदल जाती है। अपना घर मम्मी-पापा का घर या मायका हो जाता और नए रिश्ते जुड़ते ही नया घर ससुराल…इन दोनों घरों के बीच उनकी स्थिति त्रिशंकु की तरह होती जिसमें उम्र भर वह अपने हिस्से का घर ढूंढती रहती है।

आरती जी कॉलोनी के लोगों से बात कर रही थी। तभी…

"आज तुम्हारी सास भी आई हुई है?"

"हाँ मम्मी बाहर रहती हैं, पापा जी की नौकरी ही ऐसी है उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जा सकता परसों ही आई है।"

ऋतु ने सहज भाव से कहा

"तुम्हारी सास तुम्हारे साथ ही रहती है न…?"

आरती जी के कानों में यह बात गरम तेल की तरह गई। मानो किसी ने कानों में गर्म तेल डाल दिया हो। आरती जी ऋतु की तरफ खिसक आई।

"बेटा! ऋतु की सास उसके साथ नहीं ऋतु अपनी सास के साथ रहती है।"

आरती जी का सख्त लहजा देखकर एक पल के लिए वह लड़की सहम गई। यह बात काफी दिनों तक आरती जी के ज़ेहन में गूंजती रही। कबीर की शादी को जुम्मा-जुम्मा छः महीने ही हुए थे। आरती जी को पति की नौकरी की वजह से उनके साथ ही रहना पड़ता था। खून-पसीने से बनाए घर में सिर्फ बहू और बेटा ही रह गए थे। बेटी ब्याह कर अपने ससुराल जा चुकी थी। अब तो रिटायरमेंट के बाद ही इस घर में रहना संभव था। आरती ने ऋतु को धीरे-धीरे करके गृहस्थी की चीजें समझा दी थी पर माँ माँ ही होती है और सास सास ही…माँ और सास के बीच हमेशा से एक अंतर रहा ही है।

आरती जी हमेशा सोचती थी जब ससुराल जाएंगी तो सब सीख जाएंगी की धारणा न जाने किसने बनाई थी। माएँ अपनी बेटियों को पहले से सिखाकर गृहस्थी के लिए क्यों नहीं तैयार करती। सपनें और इच्छाएँ भी ससुराल में ही सबको क्यों पूरे करने होते हैं। जब जन्मदाता अपनी बेटियों के सपनें और इच्छाओं को समझ नहीं पाते तो उसका बोझ ससुराल वालों पर क्यों लाद देते हैं। सास सीखा भी दे पर सास की बातें बहुओं को किस युग में अच्छी लगीं हैं!

आजकल की लड़कियाँ वैसे भी घर-गृहस्थी के नाम से दूर ही भागती हैं। यूँ अचानक से आ जाने वाली जिम्मेदारियों से बहुएं घबरा भी जाती हैं। यह सोचकर आरती जी मसाले,पापड़-चिप्स और अचार की तैयारी वहीं से करके यह सोचकर ले आती थी जिससे ऋतु को कोई दिक्कत न हो आखिर अकेली लड़की क्या-क्या करेगी?

आशा जी की गृहस्थी में महंगे ताम-झाम तो नहीं थे पर एक गृहस्थन की सुघड़ता उसका सुकून दूर से ही नजर आता था। हर महीने अलमारियों के अखबार बदले जाते। डिब्बों को धो-पोछ उन्हें नई दुल्हन की तरह चमकाया जाता। धनिया,हल्दी,मिर्च,गर्म मसाला,भुना जीरा और न जाने कितने तरह के खड़े और पिसे मसाले मसालदानी में रखे रहते। अलग-अलग खाने में रखे होकर भी वे मसाले एक जुड़ाव महसूस कराते थे।

घर में एक छोटी सी बगिया भी थी। इस छोटी सी बगिया में फूल खिलखिलाते रहते। एक कतार में गेरुए रंग में रंगे गमले नए रंग रूटों की तरह सांस रोके खड़े रहते। जिनमे खिले हुए गुलाब और गेंदे के फूल स्वागत के लिए हमेशा तत्पर रहते। एक गृहस्थन के सुघड़ हाथों का परिचय घर के द्वार से ही मिल जाता था। एक-एक कमरा शीशे की तरह चमकता रहता था। घर में महंगे फर्नीचर और पेंट नहीं थे पर सफाई और करीने से सजा हुआ घर भी सुंदर लगता था। बिस्तर पर बिछी चादर पर एक सिलवट भी ढूंढी नहीं जा सकती थी। जानती थी पति ने कितनी मेहनत करके इस घर को बनाया था। इस घर को बनाने में जितना आरती जी के पति का योगदान था उनके योगदान से भी मुँह मोड़ा नहीं जा सकता था शायद इसीलिए इस घर में उनकी आत्मा बसती थी। इस घर को उन्होंने सीमेंट और गारे से नहीं प्रेम, विश्वास और त्याग से बनाया था। इसकी एक-एक ईंट में उनकी आत्मा बसती थी पर वक्त बदला और वक्त के साथ घर की आबो हवा भी बदली।

आरती जी हमेशा से चाहती थी उनके घर में एक ऐसी बहू आए जो उनकी गृहस्थी को अच्छे से संभाल ले। ऋतु नए जमाने की लड़की थी हर चीज को अपने तरीके से करना चाहती थी पर आरती जी अपना अधिकार ऐसे कैसे छोड़ देती पर घर की सुख-शांति के लिए उन्होंने मुँह पर ताला लगा लिया था। हर महीने दो महीने पर जब भी वह घर आती घर में एक परिवर्तन दिखाई देता। अब वह घर घर नहीं एक होटल के रूप में परिवर्तित होता जा रहा था। जिसमें महंगे फर्नीचर ब्रांडेड पर्दे टंगे हुए थे, यह सब देख कर उन्हें खुशी तो होती थी पर उन चीजों में अपनापन नजर नहीं आता था।

आरती जी की गृहस्थी में जुड़ी हुई हर चीज़ अपनी एक अलग कहानी कहती थी। आरती जी को एक-एक सामान के पीछे जुड़े हुए इतिहास की कहानी जुबानी याद थी। जिन अलमारियों में अखबार बिछे होते थे। आज वहाँ प्रिंटेड कागज बिछे हुए थे। दीवारों पर शांत पीले और हरे रंग के पेट की जगह अब वॉलपेपर और टेक्सचर पेंट ने ले ली थी। यह परिवर्तन अच्छा था पर इस परिवर्तन में पैसा ज्यादा अपनापन कम था। वह उन दीवारों में उस अपनेपन को ढूंढती रहती।

उन्हें आज भी वादन याद है, आरती जी रसोईघर में व्यस्त थी। प्रशांत जी के ऑफिस जाने का समय हो रहा था। तभी मोबाइल पर एक नम्बर फ्लैश हुआ।

"हेलो! नमस्ते मम्मी कैसी हैं आप…?"

"कबीर! इतनी सुबह-सुबह फोन किया,सब ठीक है न…?"

कबीर का फोन देखकर एक पल को आरती जी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई।

"ऋतु तो ठीक है ना…?"

"हाँ मम्मी सब ठीक है। पापा कैसे हैं?"

"पापा ठीक हैं, नहाने गए हैं। तुम बताओ सुबह-सुबह फोन कैसे किया?"

आरती जी समझने की कोशिश कर रही थी पर कबीर का बेवक्त फोन आने से असमंजस में थीं।

"आप इस बार आएगी तो आपके लिए बहुत बड़ा सरप्राइज है।"

"कैसा सरप्राइज…?"

आरती जी सोच रही थी। कबीर के दो बच्चे थे। दादी बनने की खुशखबरी तो नहीं हो सकती। फिर… इस उम्र में सरप्राइज के नाम पर उनका जी घबराने लगता था।

"अब बता भी दो, कैसा सरप्राइज है।"

"सरप्राइज आकर ही देखिएगा, अभी से बता दिया तो फिर सरप्राइज क्या रह जाएगा।"

आरती जी के चेहरे पर एक सहज मुस्कान आ गई। इतना बड़ा हो गया पर बचपना नहीं गया।

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा…"

आरती जी ने कहा

"अच्छा मम्मी फोन रखता हूँ। ऑफिस के लिए देर हो रही है। पापा को मेरा नमस्ते कहिएगा।"

आरती जी ने फोन रख दिया पर उनके दिमाग में 'सरप्राइज' शब्द घूमता रहा। वह समझ नहीं पा रही थी आखिर कबीर उनसे क्या कहना चाहता था। वक्त काटे नहीं कट रहा। कितनी बार सोचा एक बार ऋतु से पूछ लूँ पर ऋतु के साथ उनके रिश्ते ठीक-ठाक ही थे या यूँ कहिए जैसे सास और बहू के होते हैं बस वैसे ही थे।

आखिर वह दिन आ ही गया। एक महीने बाद जब आरती जी अपने घर पहुँची तो कबीर सबसे पहले उन्हें रसोई घर की तरफ लेकर गया। आरती जी का जी धक्क से रह गया। रसोई घर पूरी तरह से बदला हुआ था अब यह रसोई घर आरती जी की रसोई घर नहीं था उस पर मॉड्यूलर किचन की मोहर लग चुकी थी।

"मम्मी देखो ना कितना जगह है। अब आप कितना भी सामान रख लो कोई दिक्कत नहीं होगी। यह चिमनी भी लग गई है। धुंआ-मसाले की महक से भी कोई दिक्कत नहीं होगी।"

वह सोच रही थी जिन मसालों की खुशबू से उसकी भूख बढ़ जाती थी आज वह उसी खुशबू से बचने के उपाय सोच रहा था,नाक-मुँह सिकोड़ रहा था। कबीर बड़े उत्साह से चीजों को दिखा रहा था, उसने अलमारियाँ खोल-खोल कर दिखाई। हाथ के हल्के से दबाव से दराज बाहर आ गई। एक-एक प्लेट करीने से सजी हुई थी। लाइटर और माचिस की तीलियों से जलने वाला गैस चूल्हा ऑटोमैटिक हो चुका था जिसे जलाने के लिए लाइटर या माचिस की नहीं बिजली की जरूरत थी। उंगलियों के इशारे पर बर्नर भक्क से जल उठा और नीली लौ से आगुंतकों का स्वागत करने लगा। उसने जैसे ही दूसरी दराज खोली पारदर्शी नए-नए डिब्बों में मसाले चमक रहे थे।आरती जी की आँखें अपनी उस मसालेदानी को ढूंढ रही थी जिसमें रखे मसाले की खुशबू उन्हें अपनी अम्मा की याद दिलाते थे। वह कोई साधारण मसालदानी नहीं थी उनकी शादी में अम्मा मुरादाबाद से कितने शौक से लाई थीं।

"बिटिया! इस मसालदानी में रखे मसाले जिस तरह स्वाद को जोड़कर रखते हैं ससुराल में तुम अपने रिश्तों को भी जोड़कर रखना।"

अम्मा की बात आरती जी ने तोते की तरह रट लिया था। जीवन में न जाने कितने उतार-चढ़ाव आए पर जिस तरह इस मसालदानी में रखे मसालों ने खाने के स्वाद को नहीं छोड़ा, ठीक वैसे ही उन्होंने जीवन के कठिन समय में रिश्तों को नहीं छोड़ा। अलग-अलग डिब्बों में रखे धनिया, हल्दी,मिर्च अपनी एक अलग कहानी कह रहे थे जिस मसालदानी में रखे हुए मसालों में भी वह एक रिश्ता ढूंढ लेती थीं। आज वह अलग हो चुके थे। आरती जी सोच रही थी,

"क्या महंगे रसोई घर में बने खाने में उतना ही स्वाद आएगा?"

शायद हाँ शायद न… धीरे-धीरे चीजें बदलती जा रही थी। आरती जी सब कुछ समझ रही थी और देख भी रही थी। यह परिवर्तन अच्छा भी था पर इस परिवर्तन के साथ वह अपने घर जैसी चीज से दूर होती जा रही थी। उनका अपना घर अब उनका घर नहीं रह गया था। एक अजीब सी कसक दिल में हिलोर मारती रहती। आखिर प्रशांत जी का रिटायरमेंट हो ही गया। वर्षों से बच्चों के साथ रहने की उनकी साध पूरी हो चुकी थी। आरती जी अपना सारा सामान लेकर अपने घर वापस आ गई थी।

अपना घर! अपना घर जिसमें प्रशांत जी के नेम प्लेट के अलावा कुछ अपना नहीं रह गया था। ऋतु अब नई नवेली बहू नहीं थी अब वह पंद्रह साल पुरानी पत्नी थी और कबीर के हिसाब से उसे गृहस्थी अच्छे से संभालने आती थी। चार दिन के लिए आने वाली सास के आगे-पीछे डोलने वाली ऋतु के लिए अब तीन सौ पैंसठ दिन और चौबीस घंटे सास के साथ सामंजस बिठाना इतना आसान नहीं था। पंद्रह साल से अकेले स्वतंत्र और स्वछंद रहने वाली ऋतु का सास-ससुर की वापसी उसकी स्वतंत्रता पर अंकुश सी लग रही थी। जिन दीवारों पर घर के बड़े-बुजुर्गों की तस्वीरें लगी थीं वहाँ डेकोरेटिव पीसेस ने जगह ले ली और तस्वीरें स्टोररूम में धूल खा रहीं थीं।

आरती जी ने दबे स्वर में अपने बेटे से कहने की कोशिश भी की थी पर उनकी आवाज़ कहीं दब गई थी।

"मम्मी आप भी न किस जमाने में जीती हैं।पापा की उस छोटी सी तनख्वाह में हमारी जरूरतें तो पूरी नहीं हो पाती थी, घर कहाँ से सजाते। आज मैं ठीक-ठाक कमाने लगा हूँ तो फिर खर्च क्यों न करूँ!"

ऋतु के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान थी। आरती जी कसमसा के रह गई। जरूरतें! आरती जी सोच रही थीं कबीर की कौन सी जरूरत पूरी नहीं हो पाई उसके बेहतर भविष्य के लिए प्रशांत जी अपने बुढ़ापे के लिए रखी एफ डी तक तुड़वा दी थी यह बात उससे छिपी भी नही थी आज वही बेटा अपनी जरूरतें पूरी न होने का रोना रो रहा था। पिता की जिस छोटी कमाई से उसे घिन्न आती थी वह यह भूल गया था उसी छोटी कमाई से उन्होंने उसे इस काबिल बनाया था कि आज वह उन्हें ही ताने मार रहा था।

आरती जी सोच रही थी जब कमाई कम थी तब घर में खुशियाँ थी आज कमाई बढ़ गई तो खुशियाँ नदारद थी। किसी को किसी के पास पल भर बैठने की फुर्सत नहीं थी। उन्हें आज भी वह दिन याद है।

"ऋतु कहाँ है?"

आरती जी ने अपने बेटे कबीर से पूछा था। कबीर ने दीवार पर लगी खूबसूरत घड़ी पर नजर डालते हुए कहा-

"ऋतु! मम्मी पीछे पार्क गई होगी।इवनिंग वॉक का टाइम है न…"

"इवनिंग वॉक?ये क्या बला है?"

आरती जी ने वक्त के साथ बूढ़ी हो चली आँखों को फैलाकर कहा, उन आँखों में न जाने कितने प्रश्न झिलमिला रहे थे। शाम के वक्त वह घर से बाहर जाने की सोच भी नहीं सकती थी। प्रशांत जी के ऑफिस से लौटने का समय होता था। आरती जी की सांझ प्रशांत जी के ऑफिस से लौटने के साथ शुरू होती थी। प्रशांत जी चाहते थे जब वह ऑफिस से लौट कर आए तब उनकी बीवी उनकी आँखों के सामने हो। प्रशांत जी ही नहीं कबीर भी तो बचपन में ऐसा ही था। स्कूल से लौटने पर गेट से ही मम्मी-मम्मी कह कर चिल्लाने लगता।

आरती जी को आजकल की लड़कियों का मिजाज ही समझ नहीं आता। कबीर को नाश्ता-पानी देकर ऋतु इवनिंग वॉक के लिए निकल गई थी। प्रशांत अकेला बैठा टीवी के सामने नाश्ता टुंग रहा था। आरती जी को अपने दिन याद आ गए जब प्रशांत जी के ऑफिस से लौटने के बाद वह गरम-गरम नाश्ता उनके सामने परोसती थी।

"चाय,नाश्ते के साथ लेंगे या बाद में…?"

"चाय चढ़ा दो, जब तक नाश्ता खत्म होगा तब तक चाय भी बनकर तैयार हो जाएगी और हाँ अपनी चाय भी साथ ही लेकर आना।"

चाय की चुस्कियों के बीच दिनभर की कितनी बातें होती थी। प्रशांत जी ऑफिस का हाल-चाल बताते और आरती जी दिन की गतिविधियों से प्रशांत जी को परिचित कराती। आज के बच्चे जिस क्वालिटी टाइम की तलाश में शहर से बाहर जाते हैं वह क्वालिटी टाइम आरती जी की जिंदगी में हर रोज आता था। वह महज चाय नहीं थी, पति के साथ चाय की चुस्कियों के साथ लुफ्त लेते वे दिनभर की कार्यों के बारे में बातचीत उनके रिश्ते को मजबूत भी करती थीं पर ऋतु इस बात को क्यों नहीं समझ पा रही थी? आश्चर्य तो उन्हें इस बात का था कि कबीर को भी ऋतु के इस व्यवहार से कोई दिक्कत नहीं थी।

उस दिन भी यही हुआ था। ऋतु कबीर को नाश्ता देकर इवनिंग वॉक के लिए पार्क चली गई थी।

"दिन भर घर में ही पड़ी रहती हो पीछे पार्क तक टहल आया करो। डॉक्टर ने वैसे भी टहलने को कहा है। टहलना भी हो जाएगा और लोगों से मिलना भी…"

उस दिन प्रशांत जी ने आरती जी से कहा था। आरती जी का जाने का मन तो नहीं था पर घर में बैठे-बैठे वह भी उब जाती थी। ऋतु भी अब उनके पास नहीं बैठती थी। आखिर आरती जी पार्क की ओर चल पड़ी। कितने दिन हो गए थे पार्क की तरफ गए हुए। पानी की टंकी भी वक्त के साथ बूढ़ी हो चली थी। जगह-जगह से पेंट और प्लास्टर उखड़ गया था।ज्ञचोर टंकी के चारों तरफ लगी ग्रिल का काफी हिस्सा काट ले गए थे। उसके उन लंबे पैरों में काईं ने घर बसा लिया था। कई जगहों से पानी टप-टप टपक रहा था। एक पल को लगा मानो वह अपनी बदहाली पर टेसुए बहा रहा हो।

आरती जी के घुटनों को आर्थराइटिस ने जकड़ लिया। एक-एक कदम भी भारी पड़ते थे। आरती जी छोटे-छोटे कदमों से पार्क की तरफ चल पड़ी। पार्क में हर उम्र के लोग दिख रहे थे। ख़ासकर बुजुर्गों की संख्या ज्यादा थी। पता नहीं यह भ्रम था या फिर कुछ और आरती जी को लगा घरों में पसरे अकेलेपन से ऊबकर सब कुछ पल के लिए लोगों का साथ पाने चले आए हो। आखिर इंसान थे, इंसान को इंसान का साथ तो चाहिए ही…

"अरे भाभी जी आप,बहुत दिनों बाद आना हुआ। अब तो भाई साहब भी रिटायर हो गए। अब तो आया करिए। इसी बहाने मिलना हो जाएगा।"

आरती जी को देख शुक्लाइन के झुर्रियों से भरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।

"आना तो चाहती हूँ पर यह घुटना ही साथ नहीं देता।"

"समझती हूँ इस उम्र में यह सब तो लगा ही रहता है। घर मे कोई कितना बैठे कितना टी वी देखे।जी घबरा जाता है। हम दोनों मिया-बीबी कितना एक-दूसरे से बात करेंगे। कम से कम आपके बेटा-बहू तो आप के साथ रहते हैं। हमारे तो हमे छोड़कर परदेश उड़ गए।"

शुक्लाइन जी की आवाज में एक अजीब सा दर्द था।आरती जी धीरे से बुदबुदाई।

"बहू मेरे साथ नहीं मैं बहू के साथ रहती हूँ।"

सच ही तो कहा आरती जी ने खून-पसीने और न जाने कितनी सारी इच्छाओं को मारकर उन्होंने यह घर बनाया था। एक-एक दीवार उनके संघर्ष की कहानी कहते थे। सोचा था प्रशांत जी के रिटायरमेंट के बाद बच्चों के साथ एक साथ रहेंगे पर जिस घर को वह छोड़कर गई थी वह घर वह तो था ही नहीं…गलत कोई नहीं था न ही आरती जी और न ही ऋतु पर कुछ तो गलत था शायद वक्त…! इन दिनों माँ की मसालदानी बहुत याद आती थी, आरती जी ने रिश्तों को जोड़े रखने की बहुत कोशिश की थी पर मसालों की तरह रिश्तों की खुशबू भी अब उड़ चुकी थी।


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