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कहानी

ऐ लड़की

रंजना जायसवाल


इतवार की अलसाई सुबह घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। घड़ी ने आठ बजाए,घर के लोगों के साथ-साथ सूरज भगवान भी शायद सो रहे थे। मालती ने रसोईघर की खिड़की खोली सूरज भगवान अचकचा कर उठ बैठे और भर-भरा के अपना बोरिया-बिस्तर समेटे खिड़की के रास्ते कमरे में पसर गए। ठीक वैसे ही जैसे स्कूल के खाने की छुट्टी बजते ही बच्चे एक झोंके से कक्षा से बाहर निकलकर पूरे स्कूल में बिखर जाते हैं।

मालती ने अपनी सूती साड़ी की प्लीट्स को ठीक किया, प्लीट्स आज्ञाकारी विद्यार्थियों की तरह एक के पीछे एक सीध में खड़े हो गए। कंधे पर बिखरे बालों को उसने अपने सधे हाथों से जूड़ा बनाया पर एक दिन पहले ही धुले और कंडीशनर लगे बाल शरारती बच्चे की तरह सारी बन्दिशों को तोड़ हाथ छुड़ाकर उसकी पीठ पर बिखर गए।

रसोईघर की खटर-पटर को सुन घर के बाकी लोग भी एक-एक कर जग गए।

"क्या माँ आज तो संडे है, आज तो चैन से सोने देती।"

पच्चीस साल के हर्ष ने पीछे से आकर मालती को प्यार से पकड़ लिया और उसकी पीठ पर अपना सिर टिका दिया।

"जा जल्दी से ब्रश कर आ… देख कितना दिन चढ़ आया। आज तेरी पसन्द का नाश्ता बनाऊँगी। सूजी का हलवा और प्याज की पकौड़ियाँ…"

मालती ने अपने जवान बेटे के बालों को सहलाते हुए कहा

"ओ माँ! मेरे बाल मत छुआ करो खराब हो जाएंगे।"

मालती खिल-खिला कर हँस पड़ी। उसकी हँसी उस सूने घर में गूंज उठी। बहुत कम बार उसे यूँ हँसते-खिलखिलाते देखा था। आमतौर पर वह खुश तभी दिखती थी जब वह अपने बेटे के साथ होती थी। उसे हफ्ते भर इतवार का इंतजार रहता था। एक इतवार ही था जो उसके रिश्तों को संभालता था। बाकी दिन तो वह जिंदगी को किश्तो में संभाल-संभाल कर खर्च करती थी।

पहले का तो नहीं पता पर जब से वो इस घर में आई थी उसने घर में आमतौर पर सन्नाटा ही देखा था। यह घर आम भारतीय मध्यम वर्गीय परिवारों की तरह नहीं दिखता था। आम मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार इस लिए क्योंकि जब से वह इस परिवार में आई थी उन्हें हंसते,बोलते,बतियाते नहीं देखा था। घर के मुखिया को अख़बार में सर गड़ाए, माँ को बच्चों के इर्द-गिर्द मनुहार करते, बच्चों को दिन भर फरमाइश करते और उन फरमाइशों को दिन पर निपटाते, काम के साथ झींकती-झुंझलाती औरत को नहीं देखा था। शायद यह सब चीज़ें पहले इस घर में होती रही होगी पर उसके आगमन के साथ यह सब चीजें कहीं न कहीं गुमशुदा की तलाश हो गई थी। मानो घर की हवाओं में एक ज़हर घुला हो।

शुरू-शुरू में उसने परिवार के लोगों की अंकुर के प्रति नाराजगी भी देखी थी पर वक्त के साथ अंकुर के प्रति यह नाराज़गी बेचारगी में बदल गई आख़िर उनका क्या दोष था वो तो दोस्त की शादी में गए थे। वो कहाँ जानते थे उनके साथ इतना कुछ हो जाएगा…जानती तो वो भी नहीं थी कि ताऊ जी के बेटी पदमा दीदी की शादी भले ही उनकी जिंदगी में खुशियाँ ला रही थी पर उसकी जिंदगी में एक ऐसा भूचाल आने वाला था जिसके जर्द में आकर उसकी जिंदगी तबाह हो जाएगी।

तीस साल बीत गए थे इस बात को पर… वक्त बड़े से बड़े घाव को भर देता है पर क्या सचमुच? कुछ घाव को न तो वक्त भरता है न कोई मरहम! उसका घाव तो वक्त के साथ नासूर बनता चला गया जो अंदर से टीस भी देता था और दर्द भी… तानों-उलाहनों रूपी मक्खियाँ दिन भर आस-पास भिनभिनाती रहती और हर पल डंक मारती रहती उसके उन खुले हुए घावों पर! आज भी याद है उसे वह दिन…

"ट्रिन-ट्रिन!"

घर के सन्नाटे को तोड़ती एक आवाज गूंजी, वैसे भी इन बीते दिनों में उसने इंसानों की सांसों और तानों-उलाहनों के अलावा कुछ भी नहीं सुना था।

"हेलो!"

"जी कौन मैंने पहचाना नहीं?"

अंकुर की माँ की आवाज़ घर के सन्नाटे को चीर उसके कानों में पड़ी।

"मालती…मालती से बात करा दीजिए।"

"मालती!"

कमरें की चादर को ठीक करते मालती के हाथ अपने नाम को सुन रुक गए थे। इस घर में पहली बार उसने अपना नाम सुना था। वरना इस घर में अब तक तो वो "ए लड़की" भर ही थी। फोन पर मालती के पापा थे।

"जी मेरी बेटी और आपकी बहू! जरा बुला दीजिए। मैं थोड़ी देर में दुबारा फोन करता हूँ।"

अंकुर की माँ का चेहरा गुस्से से लाल था। उन्होंने फोन पटक दिया और जोर से आवाज़ लगाई।

"अंकुर फोन है?"

अंकुर कमरे से बाहर निकल आए। मालती भी अंकुर के पीछे आकर खड़ी हो गई।

"तेरी बीबी के बाप का फोन आया था?"

बाप! अपने पिता के लिए ऐसे शब्द सुनकर मालती को लगा मानो किसी ने पिघला हुआ शीशा उसके कानों में उड़ेल दिया हो। अंकुर की आँखों में अंगार दहकने लगे। अंकुर की माँ के शब्द गले में अटक कर रह गए थे, मालती ने चोर नज़रों से अपने दूल्हे की ओर देखा, इन दस दिनों में चेहरा कितना उतर गया था। बात-बात में अपने दोस्तों के साथ ठहाके लगाने वाला, अपने दोस्त की सालियों से चुहलबाजी और हंसी-ठिठोली करने वाला सुदर्शन अंकुर के चेहरे से हंसी गायब थी। अंकुर ने मालती की ओर पलट कर देखा, उसकी आँखों में आदेश था। मालती सर झुकाए उसके पीछे हो ली। दस दिनों से उसके पैरों में चप्पल नहीं थी, होती भी तो कैसे उसकी शादी जिन परिस्थितियों में हुई थी कुछ करने का मौका ही कहाँ मिला था। साड़ी के साथ पहनी हुई हील की चप्पल आखिर कब तक पहनती। पैर सूज आए थे, मालती नंगे पैर ही अंकुर के पीछे पीछे चल पड़ी।

बरामदे को पार करते वक्त मुजैक की फर्श को जोड़ने वाली कांच की फंटी में उसका अंगूठा अटक गया और काँच टूट कर उसके पैरों में चुभ गया। एक हल्की सी सिसकारी उसके मुँह से निकल आई। अंगूठे से टप-टप करके खून बहने लगा। दर्द से उसकी आँखें भर आई पर अंकुर वैसे ही बुत बने रहे। मालती ने अपने हाथ से खून को दबाने का प्रयास किया। खून हाथ के दबाव से रुक गया था पर अंदर रिसते घाव को कैसे रोकती? कहने को तो वो अपना था पर वो अपना होकर भी अपना कहाँ था। शिकायतें तो अपनों से होती हैं गैरों से क्या गिला करना।

"उन सब को यहाँ का नम्बर कैसे मिला?"

अंकुर ने मालती की तरफ देखकर बुदबुदाया था।

"इसी ने दिया होगा, चोरी करने की आदत तो शुरू से है। पहले बेटा चुराया और अब फोन नंबर…!"

अंकुर की माँ ने तीर छोड़ा,जिस फोन पर हमेशा ताला जड़ा रहता था वो फोन कर भी कैसे सकती थी?

"जी मैंने किसी को फ़ोन नहीं किया।"

मालती ने रिरियाते हुए कहा था

"चुप! एकदम चुप…एक शब्द भी नहीं।"

अंकुर की आवाज में कांटे उग आए थे। मालती की ज़ुबान तालु से चिपक गई और ऐसी चिपकी की उम्र भर भी नहीं छूटी।

"अब ये सब लगा ही रहेगा, इसके चक्कर में तुम अपना मूड क्यों ख़राब क्यों कर रहे हो। इसके बाप का ही फोन होगा, इसकी बात करा दो वरना क्या पता इसके घर वाले यहाँ धमक आए!"

मालती चुपचाप अंकुर के साथ बरामदे की ओर चल पड़ी। आंगन से लगे बरामदे में शीशम के एक नक्काशीदार स्टूल था जिसकी टांगे अपनी औकात से ज्यादा ऊँची थी। उसे देखकर लगता मानो किसी ने वक्त से पहले जबरदस्ती उसे लंबा कर दिया हो। यूं तो बाज़ार में बहुत सुन्दर-सुन्दर लैंड लाइन फोन आने लगे थे पर इस घर में कुछ चीज़ें वक्त के साथ भी नहीं बदली थी एक उसके लिए नफ़रत दूजा ये फ़ोन…मालती नजरें झुकाए फोन आने का इंतज़ार कर रही थी। उसकी नज़र अंकुर के पैरों की तरफ़ गई।

अंकुर के मजबूत, चौड़े गोरे पैरों में लगा आलता ज़ोर-जबरदस्ती के कारण इधर-उधर फैल गया था। न जाने क्यों एक पल के लिए उसे ऐसा लगा मानो वह आलते का लाल रंग नहीं उसकी खुशियों का रंग हैं जिसका वह खून कर चुकी है। कैसी शादी थी उनकी… न हल्दी लगी, न मड़वा गाड़ा गया, न बन्ना-बन्नी गाए गए। पापा और माँ ने सत्य नारायण की कथा सुनकर उसके भावी भविष्य के लिए मंगल कामना भी कहाँ की थी।

"महलों का राजा मिला कि रानी बेटी राज करेगी,

खुशी-खुशी कर दो विदा कि रानी बेटी राज करेगी।"

महल…महल तो उसने कभी भी नहीं चाहा था बस प्यार करने वाला पति मिलता तो वह उसके साथ खुशी-खुशी झोपड़ी में भी रह लेती पर ऐसा कहाँ हो पाया था। पापा ने वर तो ढूंढ दिया, माँ ने कन्यादान भी कर दिया और घर से विदा भी कर दिया पर क्या अपनी बन्नी के साथ खुशी और सुख भी विदा कर पाए थे? इस शादी में सप्तपदी,मंत्रोचार,सिंदूरदान भी हुआ। माँ ने खोयचा भी भरा पर शायद उस खोयचे में वो खुशियाँ डालना भूल गई थी। सप्तपदी के सात फेरे और सात वचन उनके विश्वास को कहाँ जोड़ पाई थी जो रिश्ता शुरू भी नहीं हुआ था, शुरुआत में ही उस रिश्ते में गाँठ पड़ चुकी थी। अंकुर ने फ़ोन मालती की ओर पकड़ा दिया। दोनों की उंगलियाँ एक-दूसरे से छू गई। मालती की आँखें अंकुर से टकरा गई। जिन आँखों में उसके लिए प्रेम का सागर हिलोर मारना चाहिए था वहाँ उसे अपने लिए नफ़रत दिखाई दी थी। सिर्फ़ नफ़रत…

"हेलो!"

उधर पापा थे, इतने दिनों बाद मालती ने पापा की आवाज़ सुनी थी। मन भर आया,आँखें अपनी मर्यादा को तोड़ बाहर छलक आई। उसने अपने आप को संभाला।

"नमस्ते पापा!"

"कैसी है रे!'

"ठीक हूँ।"

ठीक हूँ…ये शब्द कहने में उसे कितनी मेहनत लगी थी, पहले की बात होती तो वह चीख-चीख कर कहती, पापा मैं ठीक नहीं हूँ दर्द होता है मुझे एक-एक नस में…आखिर लोग क्यों भूल जाते हैं, औरतों के शरीर में भी पुरुषों की तरह ही दो सौ छः हड्डियाँ होती है,उनका खून भी उन्हीं की ही तरह लाल होता है और आँखों का आँसू खारा… बिना कहे सब कुछ समझ लेने वाले पापा ने इस रिश्ते के भविष्य को आखिर क्यों नहीं समझा था l

"दामाद जी कैसे हैं?"

मालती ने अंकुर की ओर नज़र उठाकर देखा, वह उस चेहरे पर अपने लिए भाव ढूंढती रही पर…

"ठीक हैं।"

उसकी आवाज में एक सूनापन था उसकी जिंदगी की ही तरह…

"और घर वाले…?"

"सन्नाटा!"

"और घर वाले…?"

"सन्नाटा!"

"हेलो-हेलो!"

"सुन रही हूँ।"

"तो जवाब काहे नहीं देती।"

"माँ कैसी हैं?"

"उसको क्या हुआ? ठीक हैं।"

"पापा मैं घर आना चाहती हूँ, अपने घर…"

मालती ने एक बार फिर अंकुर की ओर नज़र उठाकर देखा। शायद उसकी इस बात को सुन वो कुछ तो प्रतिक्रिया देगा पर…अपनी बहनों और सहेलियों से सुना था शादी के शुरुआती दिनों में पति बीबियों को मायके न भेजने के लिए दस बहाने करते हैं।

"जिंदगी भर वहीं तो रही हो, अब यही तुम्हारा घर है। रह लोगी मेरे बिना…!"

पर अंकुर ने कभी उससे इस तरह की बातें नहीं कही थी। मधु दीदी वाले जीजा जी शादी के इतने सालों बाद भी उन्हें मायके भेजने को तैयार नही होते थे। सारी बहनें उन्हें कितना छेड़ती थी पर उसका पहुना तो इन सबसे बिल्कुल अलग था। उसकी आँखों मे उसने अपने लिए सिर्फ़ नफ़रत का सैलाब ही देखा था। टेलीफोन पर सन्नाटा छा गया।

"पापा!'"

"शादी के बाद ससुराल ही लड़की का घर होता है, अब वही तुम्हारा घर है।"

वो रुआंसी हो गई, लगा अब रोई तब रोई। मालती का मन खट्टा हो गया था। सच कहते हैं लोग विदाई के वक्त लड़कियाँ यूँ ही नहीं रोती, सिर्फ रिश्तो से छूटने का दर्द नहीं होता वह इसलिए भी रोती हैं… जानती हैं दहलीज के इस पार और उस पार उनका कोई घर नहीं होता।

"एक-दो साल विदाई मत कराना, झक मारकर स्वीकार तो करना ही पड़ेगा l"

बड़ी बुआ जी ने विदाई के समय यही तो कहा था जिस घर में एक पल भी सांस लेना मुश्किल था, वहाँ एक-दो साल रहना? पापा की आवाज़ में रूखापन था।उसके चेहरे की एक-एक लकीरें पढ़ लेने वाले पापा आज उसकी आवाज़ में पसरी उदासी को नहीं पढ़ पाएं थे। वो कहना चाहती थी, आप तो हमेशा कहते थे तुझे खुद से बेहतर जिन्दगी दूँगा। क्या ऐसी जिन्दगी…टुकड़ों-टुकड़ों में जी रही थी वो जिंदगी को…जिंदगी भर वह अपने रिश्तों को सँवारने का प्रयास करती रही पर जब उस रिश्ते का रूप ही विकृत था तब वह उसे कहाँ तक सवार पाती। रिश्तों के हवनकुंड में सबसे ज्यादा आहुतियाँ स्त्रियों की इच्छाओं और सपनों की ही दी जाती है। समय बीतता गया पर चीजें जस की तस ही रही।कितनी बार सोचा कि माँ को चिट्ठी लिख अपने दिल का हाल बताऊँ जब इंसान के पास कहने को कुछ नही रह जाता तब वह लिखने बैठ जाता है पर उसकी क़लम की स्याही वक्त के साथ सूखती चली गई।

"उस की गोदी में बच्चा डाल दो सब सही हो जाएगा।"

क्या इलाज बताया था माँ ने…मन खिन्न हो गया। जो व्यक्ति उसकी शक़्ल तक नहीं देखना चाहता उससे आप इस बात की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं। माँ को यह आशा थी वक्त के साथ सब सही हो जाएगा। आशा और विश्वास कभी गलत नहीं होते। बस ये हम पर निर्भर करता है कि हमने किससे आशा की और किस पर विश्वास? उसका वक्त न जाने कहाँ खो गया था जिस समाज में पुरुषों को उनके रूठने से पहले ही मना लिया जाता हो, रूठने के बाद उनका ज़िद्दी होना स्वाभाविक है। अंकुर की जिद्द ने उनके रिश्ते को पनपने नहीं दिया। अंकुर ने दोस्तों के घर आना-जाना छोड़ दिया था पर कब तक वह समाज से भागता रहता। अंकुर के दोस्त की शादी थी,अंकुर की माँ ने कहा था

"इसे भी अपने साथ ले जा।"

"इसको! ये कहाँ जाएगी।"

अंकुर का चेहरा कसेला हो गया था।

"पर कभी तो लेकर निकलना ही पड़ेगा।"

माँ ने अपना पक्ष रखा

"क्या चाहती है आप… मैं भी जाऊँ या फिर…इस मनहूस के साथ तो जाने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता।"

मालती स्तब्ध थी, उसका गुनाह क्या था वह चुपचाप कमरे में चली आई। काफी देर तक रसोईघर से खटर-पटर की आवाज़ आती रहीं शायद सब अपने-अपने कमरे में सोने चले गए थे। किसी ने यह जानने और समझने की कोशिश नहीं कि उसने खाना खाया भी है या नहीं? भूख उसे कभी बर्दाश्त नहीं होती थी। कितनी बार नींद से जगाकर माँ ने उसे खाना खिलाया था पर इस घर में किसी ने जानने की कभी कोशिश भी नहीं कि उसने खाना खाया भी है या नहीं। उसकी पसंद क्या है जब वह खुद उनकी पसंद नहीं थी तो और चीजों की पसंद या नापसंद जानने का सवाल ही कहाँ उठता था। दरवाजा जोर की आवाज़ के साथ खुलने की आवाज आई। शायद शादी में न जाने का मलाल इस दरवाज़े पर निकाला जा रहा था या फिर दरवाजा बारिश की वजह से शायद अकड़ गया था घर के लोगों की ही तरह… जिनकी चाल ही नही बात-व्यवहार में उसने एक अकड़ महसूस की थी।

अंकुर के पैरों की आहट सुन मालती ने करवट बदल ली और सफेद चादर सर तक खींच ली। उसका शरीर उसके रुदन से कांप रहा था। उसकी सिसकियों से दीवारें भी थर्रा गई थी। वह रात के अंधेरे में सफ़ेद कपड़े में लिपटी लाश की तरह लग रही थी, लाश ही तो थी वह चलती फिरती लाश…पर वो तो जिंदा थी। उसकी चोटे गवाह थी यह बताने के लिए कि अभी वह जिंदा हैं। चोट तन की नहीं मन की थी जो दिखती तो नही थी पर टिस बहुत देती थी। कुछ घाव वक्त के साथ भरते नहीं नासूर बन जाते हैं। उसका घाव भी तो नासूर बन चुका था जो हल्की सी चोट से चिलकता बहुत था। यह चिलकन यह चोट यह बताने के लिए काफी थे कि वह जिंदा है।

ताऊ जी की बेटी पदमा दीदी की शादी में अंकुर को देखकर एक बार के लिए उसका मन भी डोल गया था। सपनों के राजकुमार सा ही था अंकुर…किसी से सुना था किसी नामी-गिरामी कंपनी में काम करता था।

कितना खूबसूरत था, लंबा कद, सुतवा नाक, गेहुआँ रंग…कोई भी दिल हार बैठे। कुछ अलग ही बात थी हर लड़की उसकी ओर आकर्षित हो रही थी। ऊपर से उसका व्यवहार सब के लिए आकर्षण का केंद्र था। हर बात पर हँसी-ठिठोली करना, सालियों को छेड़ना…जीजा जी के दोस्त होने का पूरा फर्ज निभा रहा था वह… कहीं न कहीं अंकुर भी मालती की सादगी से प्रभावित था। उसकी चोर नज़र हर जगह मालती का पीछा कर रही थी। जयमाला के समय जब मालती पदमा दीदी और छोटी बहनों के साथ स्टेज पर चढ़ी। तब अंकुर ने मालती की ओर देखकर छेड़ते हुए कहा था।

"यार अभिषेक तेरी ससुराल के पानी में जरूर कोई बात है, सारी खूबसूरती यहीं गिर गई है।"

तभी साथी मित्र ने कहा

"अंकुर! भाभी के साथ उनकी बहनों और सहेलियों को भी ले चले। भाभी का भी मन लगा रहेगा और हमारा भी…"

ठहाकों से पूरा स्टेज भर गया, लड़कियाँ भी कोई कम नही थी वो भी बराबरी से जवाब दे रही थी पर मालती एक ओर चुपचाप खड़ी उन्हें इस तरह हँसी-ठिठोली करती देखती रही। कुछ तो था अंकुर में जो उसे अपनी ओर खींच रहा था।

"मालती! इधर सुन।"

स्टेज के नीचे खड़ी बुआ जी ने आवाज लगाई,

"जी बुआ जी।"

मालती जयमाल की थाली छोटी बहन रुनझुन को थमा कर स्टेज से नीचे उतर आई।

"जा बेटा दौड़ कर आरती वाली थाली तो ले आए तेरी दीदी को दामाद जी की आरती भी तो उतारनी होगी। इन लड़कियों से तो कहना-सुनना बेकार है। ढेले भर का काम नहीं करती बस दिन भर खी-खी करती रहेंगी। काम के नाम पर लीपा-पोती करवा लो। अच्छी-खासी शक्ल का देखो क्या हाल कर रखा है।"

बुआ जी बोलती जा रही थी और मालती… उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह उनकी बात का क्या जवाब दे।

"जरा भागकर ऊपर वाले कमरे से तो ले आ…अब इन हड्डियों में इतनी ताकत नहीं रही कि बार-बार ऊपर-नीचे करे।"

मालती ने दुपट्टा संभाला और सीढ़ियों की ओर बढ़ गई। मालती ने खुद अपने हाथों से उस थाली को सजाया था। एक-एक चीज सोच-सोच कर रखी थी। उसके हाथों में तो मानो जादू था जिस चीज को छू देती संवर जाती पर वो जादू वह अपनी ज़िंदगी मे कहाँ चला पाई थी। मालती ने एक भरपूर नजर उस थाली पर डाली, कहीं कुछ रह तो नहीं गया। वह कहाँ जानती थी कुछ ही घण्टों में उसकी जिंदगी बदलने वाली है और उसके सारे सपनें, उम्मीदें और इच्छाएँ यहीं स्वाहा होने वाली हैं। दबे-दबे पाओं से होले-होले जिंदगी में एक तूफ़ान आने वाला था जिसकी जर्द में सब कुछ ख़त्म होने वाला था। वह सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी। तभी अपना नाम सुन उसके कान खड़े हो गए।वो पापा थे।

"एक बार मालती से भी पूछ लेते?"

"पूछना क्या है? क्या हमारी शादी बाबूजी ने हमसे पूछ कर की थी। जहाँ बाँध दिया चुपचाप पड़े रहे, इतने सालों से अच्छे से निभा रहे हैं न…!"

बुआ जी की आवाज़ में एक खलिश थी।

"दीदी ठीक कह रही हैं, हमारे बाबूजी ने कौन सा हमसे पूछ कर शादी की थी जिस खूंटे से बांध दिया बंध गए। हम माँ-बाप हैं, बच्चों का भला-बुरा हमसे ज्यादा कौन समझेगा।"

माँ! ये तो माँ की आवाज़ थी,मालती सांस रोके खिड़की के पास खड़ी बात सुनने की कोशिश करने लगी।

"देखने में लड़का अच्छा-खासा है। सुना है किसी अच्छी कंपनी में काम भी करता है। अपनी मालती के लिए जोड़ी बहुत अच्छी रहेगी।"

बुआ जी ने कहा

"पर बिरादरी…?"

"बिरादरी का क्या अचार डालोगे? गए तो थे बिरादरी वालों के यहाँ… टका सा मुँह लेकर चले आए। कहाँ से लाओगे इतना दहेज…?"

बुआ जी मानो आज ठान कर बैठी थी।

"पर इस तरह से जोर-जबरदस्ती से शादी करना कहाँ तक ठीक है। कल को कोई ऊँच-नीच हो गई तो…लड़के वाले नहीं माने तो…मालती को शादी के बाद यहीं पटक गए तो?"

"हम अभी जिंदा है। हमारी बहुत लोगों से जान-पहचान है, जरा सी भी चू-चपड़ की तो देख लेंगे।"

फूफा जी ने कमर में खोसे तमंचे पर हाथ रखते हुए कहा।

"अंदर रखिए इसको, जब देखो तब ले कर चल देते हैं।"

बुआ जी की आवाज़ में एक नाराज़गी थी पर फूफा जी उनकी आँखों में एक गर्व था शायद उन्हें इस समस्या को सुलझाने का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं समझ आया था। समस्या ही तो थी वह…जिस पिता की दो जवान बेटियाँ घर में ब्याहने को हो और लड़के वाले दहेज के नाम पर मुँह फाड़े खड़े हो उस पिता के लिए बेटियाँ समस्या ही होंगी। पापा मालती की शादी के लिए काफी परेशान थे। कभी लड़का पसंद आता तो परिवार नहीं… कभी लड़का-परिवार दोनों पसंद आता तो दहेज की लंबी-चौड़ी लिस्ट उनके कदमों को रोक देती। कहाँ से लाते वो इतने पैसे… वह हमेशा चाहते थे कि उनकी लड़की अपने ससुराल में राज करें। सपने देखने का अधिकार तो सभी को है। सपनें कभी अमीरी-गरीबी, धर्म-जाति को देखकर नहीं आते। गलत भी क्या था एक पिता ने अपनी बेटी के लिए सुख ही तो चाहा था पर इस सुख की कीमत उनकी बेटी को इस तरह से चुकानी पड़ेगी शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा।

पापा की आवाज़ में एक पिता का डर था। जिस देश में सब कुछ… मतलब… सब कुछ इंसान से लेकर सपनें तक बिकते हो वहाँ दूल्हा क्या चीज़ है? फूफा जी ने एक-दो बार अपने मुस्टंडों के साथ उसके होने वाले ससुराल के चक्कर लगाने की गारंटी भी दी थी। पापा भी इस भय की कीमत चुकाने को तैयार थे। सौदा बुरा नही था, वो सामान बन कर रह गई थी। सामान की तो फिर भी गारंटी और वारंटी होती है पर उसके वैवाहिक जीवन की गारंटी और वारंटी किसी ने नहीं ली। उसका भाग्य समझकर छोड़ दिया।

मालती फूफा जी की बात सुन सन्न रह गई। क्या ऐसी शादी की कल्पना की थी उसने? क्या ऐसा सोचा था उसने… उसके सपनों का राजकुमार इस तरह से उसकी जिंदगी में दस्तक देगा। अंकुर का मासूम खिलखिलाता चेहरा उसकी आँखों के सामने से गुज़र गया। आख़िर उसके भी तो सपने होंगे? क्या पता वह किसी को चाहता हो? क्या पता उसकी माँ अपने बेटे के लिए क्या-क्या सपने देख रखी हो? क्या पता…क्या पता…क्या पता? उसका सिर दर्द से फटने लगा, सपनें तो उसने भी देखे थे अपने जीवन साथी के लिए पर उन सपनों को पूरा करने के लिए जो जुगत लगाई जा रही थी वह तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था। उसके हाथ-पैर थरथरा रहे थे, तभी बुआ जी कमरे से बाहर निकल आई।

"तू यहाँ क्या कर रही है? थाली ले आई, चल तू स्टेज के पास पहुँच हम सभी अभी आते हैं।"

बुआ जी का चेहरा बिल्कुल शांत था जैसे कुछ हुआ ही ना हो पर मालती का मन वहीं अटक कर रह गया था। अंकुर सामने मुस्कुराते हुए उसे देख रहा था पर मालती की सांसें घुट रही थी। फूफा जी की आवाज अभी तक उसके कानों में गूंज रही थी,

"ज्यादा चू-चपड़ करेगा तो हम देख लेंगे।"

मालती का चेहरा डर से पीला पड़ चुका था। न जाने अब क्या होने वाला है। अंकुर…वह नहीं जानता था कि कुछ ही पलों बाद उसके साथ क्या होने वाला है।पदमा दीदी की शादी राजी खुशी सम्पन्न हो गई। सब थक कर चूर हो चुके थे,आँखों में नींद भरी हुई थी, विदाई में अभी समय था। बैठे-बैठे सबकी कमर अकड़ गई थी। अंकुर जो अभी तक गद्दे पर बैठे हुए थे, उन्होंने उठने का उपक्रम किया ही था। तभी फूफा जी ने उनके कंधे पर हाथ रखा,

"कहाँ चले दामाद जी अभी तो आपकी शादी बाकी है।"

"जी मेरीss...शादी तो अभिषेक की थी वो तो हो चुकी!"

अंकुर ने हकलाते हुए कहा, मंडप में सन्नाटा छा गया। फूफा जी ने तमंचा निकालकर अंकुर के सामने रख दिया।

"सोच लो, शादी तो आज ही होगी और इसी मंडप में ही…प्यार से मान जाओगे तो अच्छा है जोर-जबरदस्ती करना मुझे पसन्द नहीं!"

अंकुर ने भागने की कोशिश की तो फूफा जी के चेलों ने दबोच लिया। जिन आँखों मे कुछ देर पहले खुशियाँ खिलखिला रही थी अब उन आँखों मे डर था दहशत थी।

"बेटवा! पैर आगे बढ़ाओ। बिना आलता लगाए ब्याह में नहीं बैठते।"

ब्याह की सारी रूपरेखा तैयार हो चुकी थी। नाउन बुआ आलते की कटोरी में रंग घोलने लगी, अंकुर छटपटा रहा था। फूफा जी के चेलों ने उसके हाथ-पैर जकड़ लिए… नाउन बुआ अपनी ही दुनिया में मग्न उसके पैरों में आलता लगाती रहीं। उसकी हालत उस बकरे की तरह थी जिसे हलाल करने से पहले उसकी सेवा-खातिर की जाती है।

बड़ी बुआ जी ने पदमा दीदी के बक्से से साड़ी निकाली और मालती को जबरदस्ती पहना दी। पंडित जी ने मंत्रोचार शुरू कर दिए। इस शादी में सात फेरे और सात वचन भी लिए गए पर उन वचनों में विश्वास, भरोसा और एक-दूसरे के साथ जीवन बिताने का भाव नदारद था। माना अंकुर के साथ सही नहीं हुआ था पर वह जो उसके साथ कर रहे थे वह भी तो सही नहीं था! सही को सही समझने और समझाने में सदियाँ बीत जाती है पर गलत… गलत तुरंत समझ आ जाता है। उसके जीवन के सही-गलत में इतना ही अंतर था। उनका रिश्ता एकदम नपा-तुला था। न एक छटाँक ज्यादा न एक छटाँक कम…दुनिया की नजर में वह एक खुशहाल परिवार थे। मालती एक बेटे की माँ भी थी।

याद है उसे आज भी वह दिन अंकुर ने अपने गम को भुलाने के लिए शराब का सहारा लेना शुरू कर दिया था। कितना आसान होता है पुरुष के लिए अपने गम को गलत करना पर औरतें… औरतें आँसू बहा कर अपने दर्द को हल्का कर देती हैं। उस रात वह हुआ जिसकी इन पाँच सालों में उसने कल्पना भी नहीं की थी। एक कमजोर पल की देन था हर्ष…

"हर्ष नहा-धोकर अच्छे कपड़े पहन ले।"

"क्या हुआ माँ कोई आ रहा है क्या…?"

"हम्म! तुझे फोटो दिखाई तो थी। आज उसके पिता तुझसे मिलने आ रहे हैं। फोटो से लड़की देखने में काफी अच्छी दिख रही थी। घर-परिवार भी सीधा-सादा,समझदार लग रहा है।"

"आपको पसन्द है?"

हर्ष की आँखों में शरारत थी। महीने में दो-तीन आदमी शादी के संदर्भ में हर्ष के बारे में पता लगाते आ ही जाते थे पर बात कहीं बन नहीं रही थी। हर्ष भी अब इस दिखावे बाजी से परेशान हो गया था।

" माँ! यह रोज-रोज के दिखावे से मैं तंग आ गया हूँ। किसी से बात कर लो मुझे उठा ले जाए और अपनी बिटिया से शादी करा दे। रोज-रोज के झंझट से छुट्टी मिल जाएगी।कुछ तो कहते हैं उस तरह की शादी को…पक…पकss"

"तुम भी न क्या बेकार की बाते करते हो।"

मालती ने डाँटते हुए कहा, हर्ष की बात सुन मालती का चेहरा सफेद पड़ गया। घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसर गया। अंकुर सुबह से दो बार पढ़ चुके अखबार में सर डाल कर बैठ गए जैसे उन्होंने कुछ सुना ही ना हो। कभी-कभी चीजों से भागने का सबसे बेहतरीन तरीका यही होता है, सुनकर भी बहरे हो जाना। कभी-कभी इंसान के शब्द नहीं उसकी खामोशी चुभ जाती है। मालती को अंकुर की खामोशी चुभ गई थी। सारी उम्र कोशिश ही की थी कि सब कुछ ठीक हो जाए जैसे आम पति-पत्नी में होता है पर सोचने और होने में हमेशा से फर्क रहा है। उसके मन ने मन की कभी सुनी ही कब थी।उसकी कोशिशें जारी रही। गलती एक लम्हे की थी और सजा उम्र भर की थी। उसके जीवन की रात मानो ठहर सी गई थी जिसमे उम्मीद का सूरज निकलने की कोई संभावना नहीं थी। एक लड़की के सपनों ने न जाने कब की खुदकुशी कर ली थी। दर्द का कुआं भरने की जगह गहरा होता जा रहा था।

वह अंकुर का हाथ पकड़े-पकड़े इस घर में चली तो आई थी। क्या पता था उस मजबूत हाथ ने कभी भी उसका हाथ पकड़ा ही कहाँ था।प्यार किया जाता है, करवाया नहीं जाता। माँ हमेशा कहती थी शादी के बाद प्यार हो ही जाता है, कहते हैं जब कहने को कुछ भी बाकी नहीं रह जाता तब लोग लिखते हैं। कितनी बार सोचा माँ को चिट्ठी लिखूँ उसने कहीं न कहीं अंकुर से प्यार किया ही था पर क्या अंकुर ने भी… जिस रिश्ते में प्यार नहीं था वहाँ सम्मान कहाँ से होता? वो हमनवा होकर भी साथ नहीं थे।

माँ कहती थी पहले के लोगों को गाँव में जब कोई सूचना पहुँचानी होती थी तो मुनादी पिटवाते थे। वह भी मुनादी पिटवाना चाहती थी कि अपने सर का बोझ उतारने के लिए और बेटियों की शादी के नाम पर गंगा नहाने के नाम पर बेटियों की इस तरह से बलि न दें। जो रिश्ता प्रेम और सौहार्द के ताने-बाने से बुना जाना चाहिए था। उसके रेशे-रेशे नोंच कर फेंक दिए गए थे। सपनों को उड़ान भरने से पहले ही उसके पंख काट दिए गए थे। ये कैसा रिश्ता था जिसमे न अपेक्षा थी और न उपेक्षा जिसके मुसाफिर बस अंतहीन यात्रा पर थे। वो जब कभी भी किसी सड़क को देखती तो एक ही विचार आता लोग कहते हैं ये सड़क अमुक जगह जा रही है पर सच तो यह है सड़क कहीं नहीं जाती…जाते तो हम है और सड़क वहीं खड़ी इंतज़ार करती रहती है अपने नए आने वाले मुसाफिरों का…

चाय-नाश्ते के दौर खत्म हो चुका था। चाय के अंतिम घूंट को पी खाली कप को रखते हुए लड़की के पिता ने कहा

"बहन जी!तो अगले इतवार का दिन फिक्स कर ले। आप लोग बेटी को देख ले। आगे की बातें बाद में होती रहेगी।"

"हम देखकर क्या करेंगे। जिंदगी इन्हें काटनी है अगर लड़का और लड़की शादी के लिए राजी है तो मुझे और इन्हें कोई आपत्ति नहीं।"

मालती ने अंकुर की सहमति या असहमति का इंतज़ार नहीं किया l जानती थी कोई फ़ायदा नहीं है l

"मेरी बेटी बहुत संस्कारी और समझदार है। आपकी बहू नहीं बेटी बनकर रहेगी।"

इतने सालों बाद पता नहीं क्यों आज मालती को पापा याद आ गए थे, एक पल को लगा मानो उसके पिता ही हाथ जोड़े खड़े हो। क्या एक उम्र के बाद हर बेटी का पिता एक सा ही दिखने लगता है।

"भाई साहब! सिंदूर भरते ही लड़की बेटी से बहू बन जाती है और लोगों की उम्मीदें भी बढ़ जाती है पर ये उम्मीदें दोनों से होनी चाहिए। मेरा मतलब बेटे और बहू दोनों से…वह बेटी नहीं बहू ही बन कर रहे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।"

मालती ने दृढ़ता से कहा, जिस घर ने उसे बहू के रूप में स्वीकार नही किया गया था वहाँ कोई बेटी क्या मानता। वो तो जिंदगी भर "ऐ लड़की" से ज्यादा कुछ भी नहीं बन पाई।

सुना था दुनिया की तीन-चौथाई पानी खारा है, इन बीते वर्षों में उसके अंदर की मिठास न जाने कहाँ गुम हो गई थी। कभी-कभी लगता इतने विकृत माहौल में रहकर वह पूरी तरीके से खारी हो चुकी है। लोग सामान तो सहेज कर रख लेते हैं पर रिश्तो को सहेजना न जाने क्यों भूल जाते हैं। हर आँसू आँखों से निकल ही जाएँ यह जरूरी तो नहीं कुछ आँसू अंदर ही अंदर सालों तक आपका दम घोंटता रहता है पर आज…

शादी चाहे बेटे की हो या बेटी की माँ का पल्लू तो भीगा ही रहता है। आज उसकी आँखें गीली थी, तकिया भी गीला था और शायद मन भी…मन की गिरहें आज धीरे-धीरे खुल रही थी।


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