"एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में लखनऊ जा रहा हूँ। तुम भी चलोगी?"
"लखनऊ!"
चाय के लिए अदरख कूटती रागिनी के हाथ रुक गए थे। लखनऊ! नवाबों का शहर,अपनी इसी
खासियत से इस शहर का नाम विश्व में प्रसिद्ध था। लखनऊ के नाम से उसके
मन-मस्तिष्क में एक भीनी सी खुशबू बिखर जाती। लखनऊ में उसका ननिहाल था पर कहते
हैं न माँ से मायका और नानी से ननिहाल…नाना बहुत पहले ही इस दुनिया से जा चुके
थे और नानी के जाने के साथ वह रिश्ता ही नहीं वह घर, वह गली, वह शहर भी छूट
गया। मामा अपने परिवार के साथ बंबई कूच कर गए और वह घर अकेला पड़ गया। रागिनी का
पूरा बचपन उस शहर और उनकी गलियों में बिता था। रागिनी का जुड़वा भाई राहुल बचपन
से ही शरीर से बड़ा कमजोर था। माँ के लिए दोनों बच्चों को अकेले पालना आसान नहीं
था।
"सुनीता! बिटिया को हमारे पास छोड़ दे। घर में और भी बच्चे हैं उन सबके साथ पल
जाएगी।"
नानी ने कहा था-
"पर!"
"पर क्या?तुझे अपनी माँ पर भरोसा नहीं! अरे तुझे भी पाल-पोस कर बड़ा किया है। जो
खुद खाएंगे उसे भी खिलाएंगे, जो खुद पहनेंगे उसे भी पहनाएंगे।"
"पर माँ ऐसे कैसे छोड़ दूँ।"
माँ की ममता आज कसौटी पर थी ईश्वर उनकी परीक्षा ले रहा था। कभी वह कुपोषित
अस्वस्थ बेटे की तरफ देखती तो कभी फूल सी रागिनी को…ऐसे कैसे उसे अपनी ममता से
वंचित कर देती।
"तू हर महीने आ कर मिल जाना या फिर हम ही मिलने आ जाएंगे।"
नानी ने एक पत्ता और फेंका। आखिर माँ की ममता नानी के आगे हार ही गई। माँ हर
महीने रागिनी से मिलने आती और अपना ममत्व उस पर उड़ेल कर रख देती। वक्त के साथ
बड़ी होती रागिनी के होठों पर अपनी माँ के लिए सिर्फ़ कहने भर के लिए माँ शब्द
होता पर मन से वह नानी को ही माँ मानती थी। कहीं न कहीं मन में एक गुस्सा भी
था, माँ ने उसे कैसे और क्यों छोड़ दिया? क्या कसूर था उसका…! शायद सिर्फ इतना
कि वह लड़की थी या फिर दूसरी संतान की उन्हें चाहत नहीं थी। उसका बाल मन यह
मानने को तैयार ही नहीं था कि एक माँ इतनी निर्मोही कैसे हो सकती है? उसने अपने
आस-पास संदेह और नाराजगी का ताना-बाना बुन लिया था।
उसे आज भी वह दिन याद है, दस साल की थी वह,राहुल उसका संग-सहोदर था। वह भी अब
बड़ा हो चुका था। माँ उसे पहली बार अपने साथ अपने घर ले जाने के लिए आईं थी।
रागिनी ने रो-रोकर घर सिर पर उठा लिया था। नानी चाह कर भी उसे रोक नहीं पाईं
थीं। रोकती भी तो किस हक से रागिनी किसी की अमानत थी जिसे उनकी बेटी विश्वास के
भरोसे छोड़ कर आई थी। नानी ने अपनी रुलाई दाँतों के बीच दबाकर रखी थी। सुना था
उसके इस घर से जाने के बाद वह बुक्का मार कर रोईं थीं। कई दिनों तक खाना नहीं
खाया था उनकी आँखें दरवाजे पर ही टिकी रहती शायद कहीं से कोई आवाज आएगी-
"नानी, देखो मैं आ गई।"
शकुंतला अम्मा ने ही उन्हें संभाला था। शकुंतला अम्मा की आँखें भी रागिनी को
याद कर भर आती थी। रागिनी दिन भर उन्ही के घर तो पड़ी रहती थी। शकुंतला अम्मा
नानी के मोहल्ले में ही रहती थी। नानी के घर से चार घर छोड़कर,नानी की सुख-दुख
की साथी, हर राज की साथी…शकुंतला अम्मा ने न जाने यह बात कितनी बार उससे कही
होगी।
"तेरी नानी को एक-एक दिन भारी पड़ रहे थे पर वह अपना दर्द किस से कहती और क्या
कहती?"
रागिनी का बाल मन अपने जीवन में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर
पाया। माँ के लाए महंगे खिलौने और कपड़े भी उसके मन को रिझा नहीं पाए। राहुल
उसका जुड़वा भाई था, उसका जन्म उसके साथ ही हुआ था। एक नाल से जुड़े दो रिश्तों
के होते हुए भी उनके मन के तार जीवन में कभी ना जुड़ पाए। राहुल उसे अपरिचितों
की तरह देखता था उसे हमेशा लगता कि वह उसके कमरे, उसके खिलौने और यहाँ तक कि
माता-पिता के प्यार में साझेदारी करने के लिए आई है।
एक अनदेखी दीवार उन दोनों के बीच हमेशा ही खीची रही। कहाँ तो वह इस घर का
इकलौता वारिस और इकलौती संतान के रूप में पल-बढ़ रहा था। रागिनी के आने से उसके
सपनों का महल ढह चुका था। उसका बाल मन उसे अपनी बहन के रूप में स्वीकार करने के
लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। राहुल से नानी के घर में मुलाकात तो होती थी पर दिल
के तार कभी नहीं जुड़ पाए थे। राहुल को रागिनी अपनी नानी के घर में ही अच्छी
लगती थी पर अपने घर, अपने कमरे में रागिनी की साझेदारी उसे कभी पसंद नहीं आई।
रागिनी अपने आप को उस घर में कटा-कटा सा महसूस करने लगी। एक अजीब सी ज़िद्द उसके
दिमाग पर सवार थी। बात-बात पर गुस्सा होना सामान को पटकने और किसी की बात को ना
मानना उसके स्वभाव में शामिल हो गया था। एक दिन माँ ने गुस्से में नानी को फोन
भी किया था।
"मम्मी मैंने तो बड़े विश्वास के साथ रागिनी को आपके पास छोड़ा था पर वह क्या
बन गई है! किसी की बात नहीं सुनती,बड़े-छोटे का लिहाज नहीं है। मेरी सास मुझे
हमेशा सुनाती रहती हैं। ननिहाल में पले बच्चों को यही हाल होता है। बड़े-बुजुर्ग
ऐसे ही नहीं कह गए कि ननिहाल में बच्चे बिगड़ जाते हैं।"
नानी के हाथ आज पूरी तरह से खाली थे जो सास आज उनकी बेटी को ताने मार रही थी
आखिर वह उस वक्त कहाँ थी जब उनकी बहू को उनके सहारे की जरूरत थी। नानी ने अपनी
छोटी सी गृहस्थी में भी रागिनी के जीवन में कभी किसी तरह की कोई कमी नहीं रखी
थी। मामी जी को रागिनी का उस घर में रहना पसंद नहीं आता था उन्हें हमेशा लगता
था कि रागिनी उनके बच्चे का हिस्सा मार रही है पर नाना और नानी के आगे उनकी
जुबान नहीं खुल पाती थी। रागिनी की जरूरत किसी को नहीं थी उसके होने या न होने
से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। किसी ने ठीक ही कहा है कि जरूरत और जरूरी
होने में बहुत बड़ा फ़र्क होता है,कभी-कभी आप लोगों की जरूरत तो होते है पर जरूरी
नहीं होते।
सबने अपने-अपने जरूरत के हिसाब से उसे एक-दूसरे के पाले में फेंक दिया था। नानी
की उस छोटी सी दुनिया में जो सुकून था वह उसे सुख-सुविधाओं से युक्त इस घर में
कभी नहीं मिला। वह उस घर में खुश नहीं थी और न ही उसके रहने से घर का कोई और
सदस्य…एक दिन राहुल से छोटी सी बात पर झगड़ा हो गया था। माँ ने झुंझलाकर कहा था,
"दिमाग खराब था मेरा जो तुझे अपने साथ ले आई। इससे तो अच्छा था कि तू पैदा होते
ही मर जाती।"
रागिनी का बाल मन टूट कर बिखर गया। जिसकी किरचें उसे जीवन भर चुभती रही। इंसान
जीवन में एक बार मरता है पर वह तो रोज थोड़ा-थोड़ा मर रही थी। यह शब्द पिघले शीशे
की तरह उम्र भर उसके वजूद पर टपकता रहा। शायद उसका दुख उतना नहीं था जितना
दिखता था पर रह-रह कर उसकी टीस उभरती रहती जो उसे न जीने देती न ही मरने…दर्द
घूँट-घूँट मन-मस्तिष्क में उतर रहा था।
गलत कोई नहीं था न तो रागिनी और न ही उसकी माँ शायद वक्त ही गलत था। रागिनी का
वक्त भी रिश्तों की तरह बेवफ़ा निकला। वह इस घर से निकलने के बहाने ढूंढने लगी।
कभी घर,कभी पड़ोसी तो कभी स्कूल से उसकी शिकायतें आने लगी। माँ शिकायत पेटी बनकर
रह गई थी जिसमे हर आदमी रागिनी के नाम की शिकायत लिखकर उनके दिमाग में डालकर
चला जाता। रागिनी पापा की नज़रों में अपने हिस्से का प्यार ढूंढती रहती पर पापा
उसकी तरफ़ से बिल्कुल पत्थर हो चुके थे।
वह रोज फोन से नानी को अपने दिल का हाल बताती। नानी सब कुछ समझ कर भी अनजान बनी
रही। बेचारी करती भी तो क्या…? उनका दर्द समझने वाला कोई नहीं था। बेटे-बहू से
कहती तो हँसी का पात्र बन जाती। नाना समझते सब कुछ थे पर उनका दर्द बांट न
पाते। दर्द जब बहुत अधिक बढ़ जाता तब नानी शकुंतला अम्मा की शरण लेती।
"संभालों अपने आप को,खुद दुखी करने से क्या होगा जिसकी अमानत थी उसके पास चली
गई।"
"पर वह वहाँ खुश नहीं!"
"यही उसकी किस्मत है।"
किस्मत! रागिनी की किस्मत में शायद वह घर नहीं था। माँ रोज-रोज की शिकायतों से
तंग आ चुकी थी। अंततः उन्हें रागिनी के सामने हथियार डालने पड़े और छःमहीने में
ही माँ उसे नानी के घर वापस छोड़ आईं। रागिनी के जाने से घर में सभी बहुत खुश
थे पर माँ खुश नहीं थी। वह खुश कैसे हो सकती थी आखिर वह माँ थी उसने रागिनी को
नौ महीने पेट में रखा था। रागिनी की वापिसी से रागिनी और नानी बहुत खुश थे। छः
महीने का वनवास उन दोनों ने कैसे काटे थे यह वही जानते थे।
वक्त पंख लगाए उड़े जा रहा था। रागिनी की शादी में माँ-पापा मेहमानों की तरह आए
थे। माँ रागिनी के लिए ढेरों सामान लेकर आई थी। उन सामानों की आड़ में वह अपने
अंदर पल रहे शर्मिंदगी के बोझ को कुछ इस तरह से कम करने का निरर्थक प्रयास कर
रही थी। महंगे कपड़े और गहने भी रागिनी के दर्द को कम नहीं कर सके। माँ के साथ
जुड़ा हुआ वह रिश्ता रागिनी की शादी होने के बाद पूरी तरह टूट गया था। ससुराल
वालों ने भी यह सच स्वीकार कर लिया जब उनकी बहू ही अपने माता-पिता से संबंध
नहीं रखना चाहती थी तो वह संबंध रखकर करते भी तो क्या…? रागिनी की पहली विदाई
नानी के घर ही हुई थी। वह माँ को माँ के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर पाई।
लखनऊ अब सिर्फ उसके सपनों और यादों में रह गया था। उस शहर की गलियाँ और चौबारे
उसे सोने नहीं देते थे। नानी का चेहरा बार-बार उसकी आँखों के सामने आता था पर…
"रागिनी! बहुत दिन हो गए तुम मायके नहीं गई?"
एक दिन अखबार में नजर गढ़ाए,चाय की चुस्कियाँ लेते हुए विभोर ने तिरछी नजर से
उसे देखते हुए कहा था-
"कल ही भैया का फोन आया था। कह रहे थे तुम बहुत दिनों से मायके नहीं आई।"
"राहुल?"
विभोर की आँखों में न जाने कितने सवाल तैर गए। रागिनी चिढ़ गई, विभोर सब कुछ
जानकर भी अनजान क्यों बन जाते हैं!
"राहुल और मैं हमउम्र हैं। मैं उसे भैया क्यों कहूँगी और जहाँ तक फोन की बात है
उसका फोन नहीं आया तो नहीं आया। मैं कौन सा मरी जा रही हूँ उसके पास जाने के
लिए…"
मायके का मतलब उसके लिए सिर्फ नानी का घर ही था। नानी के जाने के बाद ससुराल की
इज्ज़त रखने के लिए उसे न जाने कितनी बार इस तरह के झूठ बोलने पड़ते थे। राहुल ने
उसे बहन के रूप में कभी स्वीकार ही नहीं किया था और नानी के जाने के बाद मामी
के बच्चों ने उसे बुआ की बेटी की तरह ही समझा। बहन होना और बहन जैसी होने में
जमीन-आसमान का फर्क था। मामा-मामी और उनके बच्चे रागिनी से कभी जुड़ ही नहीं
पाए। उसके आगमन पर न किसी को खुशी होती और न ही अफसोस… वह उस घर में एक सजावटी
सामान बनकर रह गई थी जो कुछ समय के लिए आँखों को अच्छा लगता है फिर उसका होना
ना होना बराबर ही हो जाता है। नानी के मरने के बाद अपने-पराए का फर्क साफ-साफ
दिखने लगा था। सब ने अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से उससे संबंध रखे और वक्त के
साथ अपने हाथ खींच लिए थे। ठीक भी था जिस समाज में खून के रिश्ते पराए हो जाते
हैं वहाँ दूसरों से क्या ही उम्मीद करनी।
ससुराल में मायके की इज्जत रखने के लिए वह आ तो जाती पर एक-एक दिन बिताना
मुश्किल होता। ऐसे कठिन समय में वह शकुंतला अम्मा के घर भाग जाती। शकुंतला
अम्मा उसकी तकलीफ को समझती थी। उसका दर्द उनकी आँखों से छिपा नहीं था।
"बिटिया यह रख लो,अपनी पसंद की साड़ी खरीद लेना।"
शकुंतला अम्मा अपनी सूती साड़ी के कोर में बंधी उस दुनिया को खोलकर रख देती।
अम्मा की साड़ी का वह कोर साधारण कोर नहीं था पूरा का पूरा भानुमति का पिटारा
था। लौंग,इलायची,मीठी सुपाड़ी,छोटे-बड़े नोट और चिल्लरों का परिवार…उनकी पोटली का
मुँह खुलते ही चिल्लर खिलखिला कर बाहर आ जाते। शकुंतला अम्मा नानी की कमी को
पूरा करने की भरपूर कोशिश करती।
"अम्मा!इसकी क्या जरूरत है?मैं इसे नहीं रख सकती।"
शकुन्तला अम्मा का चेहरा उतर जाता…
"तू इतनी बड़ी कब हो गई कि अपनी अम्मा को मना कर दे। अरे जैसे तेरी नानी थी
वैसे मैं भी तो तेरी नानी हूँ।"
रागिनी उनके चेहरे पर पसरी उदासी नहीं देख पाती और हॅंसाने के लिए कहती-
"आप नानी नहीं है, आप तो अम्मा है… जगत अम्मा।"
शकुन्तला अम्मा के पति सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हुए थे। उनकी साड़ी के कोर में
बंधी पूंजी उनकी समृद्धि को दिखाती थी। शकुन्तला अम्मा के पास आज के जमाने की
तरह रंगीन और ब्रांडेड पर्स नहीं थे। साड़ी का वह कोर चलता-फिरता खुशियों का
पिटारा था। उनका बटुवा जितना बड़ा था उससे कहीं ज्यादा बड़ा उनका दिल था। बचपन
में न जाने कितनी बार अम्मा ने उसे बटुवे को खोल उसकी छोटी-बड़ी मांगों को पूरा
कर उसकी झोली भर दी थी।
नुक्कड़ की दुकान से लेमन जूस खरीदना हो या फिर कभी मेले से चौका-चूल्हा खरीदने
के लिए पैसा चाहिए होते तो शकुन्तला अम्मा है न…
"अम्मा गुड़िया की शादी करनी है,उसके लिए सलमा सितारे वाला लहंगा भी तो बनवाना
है, मेरे पास तो पैसे ही नहीं है। अब मेरी गुड़िया की शादी कैसे होगी?"
"अपनी गुड़िया को ऐसे ही विदा कर देगी!दहेज नहीं देगी।"
"दहेज! दहेज तो बुरी बात है ना…?"
रागिनी ने मासूमियत से पूछा था। अम्मा खिलखिला कर हॅंस पड़ीं थीं।
"पर बिटिया उसके बिना तेरी लाडो से शादी कौन करेगा।"
बचपन में सहज भाव से कही गई बातें जीवन की सच्चाई होती है, मासूम रागिनी यह बात
कहाँ जानती थी। आज वह शहर एक बार फिर उसे पुकार रहा था। लखनऊ का नाम सुन उसकी
आँखें भर आई थी। उसका मन लखनऊ शहर की गलियों में घूमने लगा। दिल्ली की अपेक्षा
लखनऊ हमेशा से छोटा था पर इन दोनों शहरों में एक समानता थी। दिल्ली की तंग
गलियों में उसे लखनऊ का स्वाद आता था। उसका बचपन लखनऊ की तंग गलियों में बिता
था। गलियाँ भले ही तंग थी पर उन गलियों में रहने वाले लोगों के दिल बहुत बड़े
थे। तंग गलियों वाले इस मोहल्ले के घरों की छतों में भी इतना प्रेम था कि वे
आपस में जुड़ी हुई थी। कभी-कभी लगता मानों वो आपस में गलबहियाँ कर रही हो। वो
गलियाँ बच्चों के हो-हल्ले से हमेशा गुलज़ार रहती।
रागिनी का मन यादों के गलियारों में यूँ ही तफरीह करने चल पड़ा था। इन मुहल्लों
की गलियाँ भी इनकी तरह ही अजीब थी। बाँस गली,फूलों वाली गली,बताशे वाली गली और
न जाने क्या-क्या…फूलों वाली गली,जिसका एक-एक कोना अलग-अलग तरह की खुशबुओं से
गमकता रहता। बताशे वाली गली उसकी वो सोंधी सी खुशबू आज भी मन को तृप्त कर देती
थी। बताशे वाली गली जहाँ बड़े-बड़े कड़ाहों में पकती सफेद चीनी से उठते धुंवे में
पसीने से तर-बतर आकृति कहीं गुम सी हो जाती। उन गरम-गरम बताशों का स्वाद ऐसा कि
महंगी मिठाईयाँ भी पानी भरे। सधे हाथों से सफेद चादर पर कलछुल से समान दूरी पर
डाली गई रुई सी सफेद चाशनी के गोले देख आश्चर्य होता था। उनकी गोलाई ऐसी कि
बड़े-बड़े आर्टिटेक्ट भी उसके सामने फेल थे।
इन गलियों में रहने वाले बाशिंदों की सादगी आज भी कायम थी और उसका सिर्फ़ एक ही
कारण था। इन गलियों में अभी भी शहरी हवा घुस नहीं पाई थी। इन मोहल्लों में रहने
वालों की अपनी एक अलग ही दुनिया थी। छोटी-छोटी बातों में भी वो अपनी ख़ुशियाँ
ढूंढ लेते थे। यादों की सिमटी हुई गठरी भावों का हल्का सा स्पंदन पाकर झरझरा कर
खुल गई थी। उसका मन उड़कर पहुँचने को बेकरार था। आखिर वह दिन आ ही गया। उनकी
ट्रेन राइट टाइम थी। रेलवे स्टेशन से विभोर और रागिनी सीधे गेस्ट हाउस पहुँच
गए। अपने ही शहर में आकर उन्हें गेस्ट हाउस में रुकना होगा यह उन्होंने कभी
सोचा भी नहीं था। विभोर ने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया और…
"मैं साइट पर जा रहा हूँ। तुम्हें अगर कहीं जाना हो तो हो आओ।"
"हम्म…"
"रास्ता भूल तो नहीं जाओगी। किसी को साथ लेती जाओ।"
विभोर ने चुटकी ली,ज्ञरागिनी तड़प उठी।
"मेरा अपना शहर है,मैं रास्ता भूल जाऊॅंगी?"
पर वह शहर बदला-बदला सा लग रहा था। बदलना तो था ही इन बीते सालों में वह भी तो
कितना बदल चुकी थी। बालों में सफेद चांदनी चमकने लगी थी। अपने कहने जैसा कोई
भी रिश्ता इस शहर में नहीं रह गया था। खून के रिश्ते बिखर चुके थे। रागिनी एक
अलग ही दुनिया में थी। पीली-काली रंग की ऑटो गलियों में घूमती-घुमाती अपने
गंतव्य पर पहुँच गई।
"भैया!बस यहीं रोक दो।"
वह नानी के घर के सामने खड़ी थी। बड़े-बड़े जालें,धूल और सूखे पत्तों ने उसका
स्वागत किया। लोहे के गेट पर जंग लगा ताला उसे मुँह चिढ़ा रहा था। वह गेट के इस
पार खड़ी थी,गेट के उस पार उसकी अपनी दुनिया थी जो कहीं पीछे छूट गई थी। वह
दौड़कर उस दुनिया को अपनी बाहों में भर लेना चाहती थी पर बीच की इस दीवार को
तोड़ पाना उसके लिए आसान नहीं था।
"रागिनी रुक कितना दौड़ेगी, तेरी नानी से अब चला नहीं जाता।"
जो घर नानी की आत्मा थी आज वहाँ एक बड़ा सा ताला जड़ा हुआ था। नानी की आवाज उसके
कानों में गूंज रही थी। दिल और आँखें पूरी तरह से भर चुकी थीं। आँसू अपनी
मर्यादा को तोड़ बह निकले थे। उसने अपने आँसुओं को आँचल में समेटा मन भर कर उस
घर को देखा… पता नहीं अब कब आना हो,हो भी या नहीं! यह बात शायद कोई नहीं जानता
था खुद रागिनी और ये घर भी नहीं। उसने गहरी सांस ली और घर पर एक भरपूर नज़र
डाली। वह भरे मन से आगे बढ़ गई। कितनी बदल गई थी वह गली…जो गली बच्चों की
धमा-चौकड़ी से गूंजती रहती थी आज वहाँ पर सियापा पसरा हुआ था। बच्चे भी क्या
करते उनके कंधों पर भारी बस्तों और सपनों का बोझ था। जिन हाथों में कभी गीली
डंडा और क्रिकेट के बैट हुआ करते थे। आज उन हाथों में मोबाइल,टैब और वीडियो
गेम्स थे।
नानी तो रही नहीं यहाँ तक आ ही गई हूँ तो कम से कम शकुंतला अम्मा से मिलती
चलूँ, नानी के जाने के बाद एक वही तो थी जिन्हें उसके आने से खुशी होती थी। चार
मकान छोड़कर ही तो घर था। शकुंतला अम्मा की याद आते ही उनका वह जादुई बटुवा याद
आ गया। उनके उस बटुवे ने न जाने कितनी बार रागिनी की इच्छाओं को शांत किया था।
"शकुंतला! तुमने लड़की को बिगाड़ दिया है।"
"जीजी! बहू-बेटियों की झोली भरी रहनी चाहिए बरक्कत होती है।"
शकुंतला अम्मा की याद आते ही उनका वह विराट स्वरूप आँखों के सामने आ गया। माथे
पर बड़ी सी बिंदी, करीने से बाँधी हुई साड़ी, चौड़ी मांग में भरा हुआ लाल
सिंदूर,हाथों में भर-भर चूड़ियाँ, पैरों में बिछिया और पायल कितनी सुंदर और
सौम्य छवि थी उनकी…देखते ही मन जुड़ जाता।
वह शकुंतला अम्मा के घर के सामने खड़ी थी। अभय सिंह इंजीनियर डॉ.आलोक सिंह
नेत्र विशेषज्ञ…रागिनी के चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। अभय और आलोक शकुंतला अम्मा
के पोते थे। शकुंतला अम्मा के पति सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। समाज में उनका
बड़ा मान-सम्मान था। अम्मा ने कितने चाव से नाना जी के नाम की तख्ती घर के मुख्य
द्वार पर लगवाई थी। अम्मा रोज अपने आँचल के कोर से उसका मुँहह बड़े लाड़ से
पोंछती। बेटे जीवन में कुछ ख़ास नहीं कर पाए। नाना जी ने कह सुन के अपने ही
विद्यार्थी के यहाँ बड़े बेटे की नौकरी लगवा दी थी। छोटे बेटे ने अपने दोस्तों
के साथ मिलकर एक छोटा सा कारोबार कर लिया था। कुल मिलाकर परिवार के लिए
दाल-रोटी का इंतजाम हो ही जाता था पर नाना जी का अपने बच्चों को इंजीनियर और
डॉक्टर बनाने का सपना सपना ही रह गया। कहते हैं भगवान के यहाँ देर है अंधेर
नहीं, बेटों ने न सही पोतों ने नाना जी का सपना पूरा कर ही दिया था।
अम्मा के सपनों का महल उसका स्वागत कर रहा था। घर वैसा ही था पहले से उसकी
स्थिति दुरस्त दिख रही थी। ऊपर वाली मंजिल जहाँ शकुन्तला अम्मा और नानी ने
मिलकर वर्षों-वर्ष चिप्स,पापड़,और आचार डाले थे, जाड़े की गुनगुनाती धूप में
पूरी दोपहरी बैठ एक-दूसरे के सिर में तेल और न जाने कितने स्वेटर बनाए थे वहाँ
दो कमरे बड़े गर्व से सर उठाए इठला रहे थे। उस घर के मालिक अब बदल चुके थे। घर
पर लगी तख्तियों ने इस बात को पुख्ता कर दिया। गेट पर नाना जी के नाम की लगी
हुई लकड़ी की तख्ती अब वहाँ से हट चुकी थी और वहाँ ग्रेनाइट पत्थर पर सुनहरे
अक्षरों में उनके पोतों के नाम की तख्ती चमक रही थी। आलोक और अभय के साथ बिताए
बचपन के वह दिन याद आ गए।
"धूप कितनी तेज़ है,कब तक खेलते रहोगे ?"
"आते हैं दादी बस थोड़ी देर…"
आलोक चिल्ला कर कहता, बड़े होने के कारण हर खेल में अभय की बारी हमेशा पहले आती
थी और आलोक अपनी बारी के इंतजार में धूप और गुस्से में तपता रहता। शकुंतला
अम्मा खींझ कर कहती…
"री लड़की तू तो अपने घर जा धूप में तेरा रंग काला हो जाएगा तो ब्याह में दिक्कत
आएगी। ऊपर से तेरी नानी मुझे चार बात और सुनाएगी हमने छोरी को बिगाड़ दिया है।"
"आप भी न अम्मा कुछ भी कहती हैं।"
रागिनी शकुंतला अम्मा की बातों को हवा में उड़ा खेलने में मगन हो जाती।
"डिंग-डांग…"
उसने गेट पर लगी डोरबेल बजाई और यादों के बियावान से एक झटके से खुद को बाहर
निकाल लिया।
"जी कहिए किस से मिलना है आपको…?"
"शकुन्तला अम्मा है क्या?"
"दादी जी!"
सामने वाली महिला ने चौंक कर कहा
"आप…?"
"मैं रागिनी, चार मकान छोड़कर शर्मा जी का जो मकान है,मैं वहाँ रहा करती थी।"
"रागिनी दीदी माफ़ कीजिएगा,मैंने आपको पहचाना नहीं…"
रागिनी हंस पड़ी, पहचानती भी तो कैसे इससे पहले उनकी मुलाकात ही कहाँ हुई थी।
"आप?"
"मैं अभय की पत्नी हूँ।"
रागिनी ने एक भरपूर नज़र उस पर डाली। कंधे तक कटे बाल चेहरे पर हल्का सा पाउडर
माथे पर गोल बिंदी और सलीके से पहनी हुई साड़ी में वह बड़ी प्यारी लग रही थी।
रागिनी को बचपन की एक बात याद आ गई। अभय ने उसकी गुड़िया तोड़ दी थी। रागिनी ने
रोते हुए कहा था तेरी बीवी काली-कलूटी आएगी। अभय उस दिन कितना रोया था। वह सोच
रही थी बचपन कितना मासूम होता है। अभय की पत्नी को देख रागिनी को बेहद खुशी हुई
थी।
"दादी जी अपने कमरे में हैं। दादी जी से मिलने कोई आता नहीं और अब उनसे ठीक से
चला भी नहीं जाता इसलिए बाहर निकलना भी बंद ही हो गया है। जब आपने दादी जी का
नाम लिया तो मुझे बेहद आश्चर्य हुआ कि उनसे मिलने कौन आ सकता है।"
सामने वाला बदस्तूर बोलता रहा। रागिनी पुराने रिश्तों के मोह में डूबी
पीछे-पीछे चलती चली गई। घर की रूपरेखा पूरी तरह से बदल चुकी थी। एक मध्यम
वर्गीय परिवार का घर और इस घर में काफी परिवर्तन आ चुका था। घर में महंगे
फर्नीचर और महंगे पर्दें टंगे हुए थे। आर्किटेक्ट ने उस घर को सुविधा-संपन्न तो
बना दिया था पर उस घर में घर होने का भाव खो चुका था उसकी आँखें उस घर को
ढूंढने लगी जिस घर में आकर उसे सुकून मिलता था। वह शकुंतला अम्मा के कमरे के
बाहर खड़ी थी।
"दादी देखिए आपसे मिलने कौन आया है?"
उम्र शकुंतला अम्मा के ऊपर पूरी तरह से हावी हो चुकी थी। उन्होंने बगल की मेज
पर रखे चश्मा को हाथ से टटोला और चश्मे को अपनी आँखों पर लगा लिया।
"कौन है अनु?"
"दादी,आपसे कोई मिलने आया है। शर्मा जी के यहाँ से रागिनी दीदी।"
शकुंतला अम्मा ने वक्त के साथ बूढी हो चुकी याददाश्त पर जोर डाला।
"रागिनी!"
उनकी आँखों के जुगनू चमक उठे। रागिनी उनके बिस्तर पर आकर बैठ गई। उन्होंने अपनी
झुर्रियों से भरी उंगलियों से उसके चेहरे को टटोला। उनकी आँखें भर आईं। होंठ
फड़फड़ाए पर शब्द आँसू बनकर गालों पर ढुलक गए। शकुंतला अम्मा ने चिर-परिचित
तरीके से अपनी साड़ी की कोर से अनमोल आँसुओं को समेट लिया। कितनी बदल गई थी
शकुंतला अम्मा… उनका वह सौम्य और विशाल व्यक्तित्व नाना जी के इस दुनिया से
जाने के बाद कहीं पीछे छूट गया था। तन पर सूती साड़ी, सूनी मांग, सूना माथा और
सूनी कलाइयाँ देखकर मन न जाने कैसा-कैसा हो गया।
"मैं आप लोगों के लिए चाय भिजवाती हूँ।"
अनु उन दोनों को छोड़ वापस चली गई। अम्मा के आँसू देख कर रागिनी का गला भी भर
आया था उसने गला खा-खार कर अपने आप को संयत करने का प्रयास किया।
"कितने सालों बाद आई। अपनी अम्मा को भूल ही गई। तेरे मामा-मामी इस घर से क्या
गए तुमने तो पलट के भी नहीं देखा।"
रागिनी चुपचाप अम्मा की बातें सुनती रही। उनकी शिकायत नाजायज तो नहीं थी। क्या
कहती रिश्तों को जोड़ कर रखने वाला रिश्ता ही जब छोड़कर चला गया तो वह किसके लिए
आती और क्यों? आखिर वह भी मायके की इज्जत कब तक रखती! बेटियाँ उम्रभर मायके में
ससुराल की और ससुराल में मायके की इज्जत रखती हैं। उनका जीवन बस यही करते-करते
बीत जाता है पर यह बात न कभी ससुराल समझ पाता है और न ही मायका…
"अम्मा आपसे तो कुछ भी नहीं छुपा है। मेरी छोड़िए अपनी बताइए कैसी हैं आप?"
"ठीक ही हूँ। ऊपर वाला मेरा हाल लेना भूल गया है। पता नहीं मेरे हिस्से का कागज
कहाँ रह गया है। सब एक-एक कर छोड़कर जा रहे हैं। एक अकेले मैं ही बैठी रह गई
हूँ।"
"ऐसा क्यों कह रही हैं है अम्मा…"
"अब जीने का मन नहीं करता बेटा… किसी को किसी की जरूरत नहीं। इस बुढ़िया के लिए
किसी के पास दो मिनट का समय नहीं है। दो पल के लिए भी कोई साथ नहीं बैठता।"
रागिनी ने कमरे पर नजर डाली। शकुंतला अम्मा का कमरा सुख-सुविधाओं की चीजों से
भरा पड़ा था पर उनका मन खाली था। अकेलेपन ने उन्हें पूरी तरह से खाली कर दिया
था। उनके कमरे में सुख-सुविधा की सारी चीज उपलब्ध थी पर क्या महंगे सामान खुशी
का पैमाना हो सकते हैं? जिस घर में अम्मा बेफिक्र होकर दिन भर घूमती रहती थी।
आज उनकी दुनिया एक कमरे में सिमट कर रह गई थी। अम्मा बेटों के साथ रह तो रही थी
पर उस तरह नही जिस तरह उनके बेटे उनके साथ रहा करते थे। घर के साथ रिश्तों में
एक अजनबियत सी आ गई थी।
"अभय और आलोक काम की वजह से देर रात तक आते हैं और सुबह काम पर जल्दी चले जाते
हैं। बहुओं को घर-गृहस्थी के काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। इस बुढ़िया के लिए अब
किसी के पास वक्त नहीं है।"
"ऐसा क्यों कहती है अम्मा,मामा-मामी जी है न …कहाँ है वो दिखाई नहीं दे रहे
हैं।"
"आजकल दोनों का एक ही काम है, एफ डी तुड़वा-तुड़वा कर चारों धाम कर रहे हैं।"
"आप नहीं गई?"
अम्मा ठठा मारकर हंस पड़ी।
"तेरे मामा मामी को लेकर जाएंगे या फिर इस बुढ़िया को…तेरे नाना होते तो…तेरे
नाना जिंदा थे तब बात कुछ औऱ थी पर अब…?"
उनकी आवाज़ और आँखों में एक अजीब सा सूनापन था। उन्होंने सामने की दीवार पर लगी
नाना जी की तस्वीर की ओर देखा। नानाजी तस्वीर में मुस्कुरा रहे थे नाना जी अब
तस्वीर हो चुके थे। किसी ने सच कहा है कि जीवनसाथी की जरूरत जवानी में नहीं
बुढ़ापे में सबसे ज्यादा महसूस होती है।
अम्मा ने गहरी सांस ली। चाय की चुस्कियों के बीच अतीत के पन्ने खुल गए। बात
करते-करते समय का पता ही नहीं चला।
"अरे आप लोग अंधेरे में क्यों बैठे हैं?"
अनु ने कमरे की लाइट जला दी। रागनी जैसे सोते से जागी। उसने बाएं हाथ में बंधी
अपनी घड़ी पर नजर डाली।
"कितना वक्त हो गया बातों में समय का अंदाजा ही नहीं लगा। अम्मा मैं चलती हूँ।"
"कब तक रुकी हो बिटिया?"
"कल चली जाऊॅंगी।"
"कहाँ ठहरी हो!"
"ऑफिस के गेस्ट हाउस में…"
न जाने क्या सोच कर अम्मा की आँखों से दो बूंद आँसू टपक गए। जो शहर रागिनी का
कभी अपना हुआ करता था उस शहर में वह गेस्ट हाउस में रुकी थी।
"आती रहा करो, इस बुढ़िया का कोई भरोसा नहीं कब ऊपर से बुलावा आ जाए।"
रागिनी चाह कर भी कुछ नहीं कह पाई जिन खुशियों की तलाश में वह इस शहर में आई थी
वो खुशियाँ कब का उससे हाथ छुड़ा कर कहीं दूर छिप गईं थी। अम्मा ने साड़ी का कोर
खोला, रागिनी के चेहरे पर कुछ पल के लिए मुस्कान आई और धप्प हो गई। अम्मा की वह
पोटली उनकी तरह ही जर्जर हो चुकी थी। जिस पोटली में
लौंग,इलायची,सुपाड़ी,छोटे-बड़े नोट और चिल्लर भरे रहते थे। उसमें सिर्फ दस और बीस
के दो-चार नोट और कुछ चिल्लर मुँह छिपाए चुपचाप पड़े थे। रागिनी की आँखें नम हो
गई। दरवाजे पर लगी ग्रेनाइट का नेम प्लेट उसकी आँखों के आगे से गुजर गई थी। अभय
सिंह इंजीनियर डॉ.आलोक सिंह नेत्र विशेषज्ञ…जब तक दरवाजे पर लकड़ी की नेम प्लेट
थी अम्मा का बटुवा भरा रहता था पर ग्रेनाइट की नेम प्लेट लगते ही अम्मा पूरी
तरह से खाली हो चुकी थी। उसकी नजर दीवार पर टँगी नाना जी की तस्वीर पर गई। नाना
जी अभी भी उस तस्वीर में मुस्कुरा रहे थे पर पता नहीं यह उसका भ्रम था या फिर
कुछ और उसे उनकी आँखों में एक अजीब सा सूनापन महसूस हुआ था और वह मुस्कान फीकी
सी लगी थी। नाना जी शकुंतला अम्मा का गुरुर थे उनका वह गुरुर उनके इस दुनिया से
जाने के साथ ही खत्म हो गया।
शकुंतला अम्मा के कोर में बंधी पूंजी रागिनी के लिए हमेशा से खुली रहती थी। आज
इतने वर्षों बाद भी अम्मा का बटुवा उसके लिए खुल गया था। अम्मा ने अपने
झुर्रीदार हाथों से उस कोर की गांठ खोल रागिनी के सामने रख दिया था।
"अम्मा!मैं क्या करुँगी? आपका आशीर्वाद ही काफी है।"
"तेरी अम्मा का आशीर्वाद समझकर ही रख ले तेरे काम आएगा। अपने लिए कुछ खरीद
लेना,बहू-बेटियों यूँ खाली हाथ मायके से विदा होती अच्छी नहीं लगती। उनकी झोली
हमेशा भरी रहनी चाहिए बरक्कत होती है।"
रागिनी ने उनके हाथों को चूम लिया और उनकी दी हुई अनमोल पूंजी को माथे से लगा
पर्स की अंदर वाली जेब मे डाल लिया। जानती थी अम्मा से बहस करना बेकार था जीत
उन्हीं की होनी थी। कभी-कभी हार जाना भी खुशी देता है। रागिनी की आँखों के साथ
मन भी छलछला आया था। कितने सालों से वह इस आशीर्वाद के लिए तरस रही थी। वर्षों
बाद किसी ने उसे मन भर कर आशीर्वाद दिया था। रागिनी ने पीछे मुड़कर देखा अम्मा
का घर वैसे ही मुस्कुरा रहा था। रागिनी ने भारी मन और आशीर्वाद से भरी हुई झोली
के साथ इस शहर से विदा ले ली।