जनवरी की सर्द सुबह गुड़ी-मुड़ी सी जिन्दगी पैर पसारने को बेकरार थी। तभी ठंडी
हवा का झोंका अभय के तन और मन दोनों को सहला गया। सूरज भगवान उसके साथ
आँख-मिचौली कर रहे थे। धूप को तलाश करती उसकी आँखें गेट से लॉन की ओर ठहर गई।
उसका मन एक छोटे बच्चे की तरह किलक गया। बचपन में वह भी माँ के साथ इसी तरह जब
लुका-छिपी का खेल खेलता तब माँ उसे हर बार जिताने के लिए पकड़े जाने का बहाना
करती।
"ढूंढ लिया मैंने…"
और माँ कितनी मासूमियत से कहती
"ओह! मैं फिर हार गई,बिट्टू फिर जीत गया।"
उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कान आ गई, माँ ऐसी ही होती है।उसकी पत्नी नीतू भी तो
उसके बेटे से हमेशा हार जाती है। माँ सब के बारे में सोचती है पर माँ के लिए
कभी कोई नहीं सोचता।उसने ठंड से ऐंठती अपनी उंगलियों को तेजी से रगड़ा और गर्म
करने की कोशिश की पर…उसने कुर्सी उठाई और धूप के लालच में वहीं लॉन में बैठ
गया। नर्म, मुलायम, अलसाई सी घास ठंड में मानो ठिठुर के दुबक गई थी। माँ का
अपना ही लॉजिक था,
"जब तुझे ठंड लगती हैं मुझे ठंड लगती है तो इन पेड़-पौधों को भी तो लगती है।
तभी तो इनकी ग्रोथ जाड़े में कम होती है।"
पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई थी पर माँ के इस दुनिया से जाने के बाद उसकी
हर बात पर भरोसा करने का मन करता था। कितने शौक से लगाई थी माँ ने यह घास
दिल्ली सिलेक्शन…माँ ने न जाने कहाँ-कहाँ से पता लगाया था। दिन भर अपनी देख-रेख
में माली के साथ घास लगवाई थी। कितनी बार माँ से कहा था,
"माँ! वो कर लेंगे, आप आराम से अंदर बैठो।"
पर माँ तो माँ ही थी। सच भी था माँ के हाथ लगाते ही सारी चीज़ें खिल जाती, जान
आ जाती थी।
"तू फिर चप्पल लेकर घास पर चढ़ गया। ऊपर से यह कुर्सी भी… अभी कुर्सी के पाएं
से गड्ढे बन जाएंगे।"
लगता बस अभी माँ आएँगी और उसे डाँट लगाएंगी। मन न जाने क्यों भारी हो गया, इस
साल ठंड जाने का नाम ही नहीं ले रही थी कुछ भी करने का मन नहीं कर रहा था। आज
अभय को माँ बहुत याद आ रही थी। माँ होती तो अभी कहती,
"तुझे ठंड लग रही है ना चल अंदर कमरे में बैठ जा… मैं हीटर चला देती हूँ। आराम
मिल जाएगा।"
और वह दुलार से उनके कांधे पर सिर झुका लेता।
"माँ बोरसी जला दो न…ठंड से राहत भी मिल जाएगी और कमरा भी गर्म हो जाएगा। इसी
बहाने भुजे हुए आलू और मटर भी खाने को मिल जाएंगे।"
और माँ हँस कर कहती
"इतना बड़ा हो गया पर बचपना बिल्कुल नहीं गया।"
और माँ झूठी नाराजगी दिखाते हुए बोरसी जलाने बैठ जाती और उसी के लाल दहकते
अंगारों में छोटे-छोटे आलू और मटर भी डाल देती। वह माँ से नजर चुरा धीरे से
कागज़ का टुकड़ा डाल देता। आग अचानक से भभक जाती और कमरा धुंए से भर जाता।
"क्या डाल दिया रे तूने?"
माँ पूछती और वह मासूम सा चेहरा बनाकर बैठ जाता।
"कुछ भी तो नहीं… देख लो, मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है।"
माँ आलू पलटने के लिए चिमटा लेने रसोईघर चली जाती और वह अपने होठों को गोल कर
हल्के-हल्के फूँक मारकर खिलवाड़ करने लगता। वह सोच रहा था इंसान और जिन्दगी को
उसने कोयले की तरह सांस लेते और रंग बदलते देखा है। हर फूँक के साथ कोयला कभी
काला कभी लाल तो कभी सफ़ेद हो जाता उसने गहरी सांस ली। सामने नीम के पेड़ पर एक
तोता बैठा अपने पंखों को अपनी चोंच से खुजला रहा था। अचानक उसे अपनी माँ की याद
आ गई, वह हमेशा कहती थी जैसे राक्षस की जान तोते में होती है वैसे मेरी जान भी
बिट्टू में है और वो इस बात पर खिल-खिलाकर हँस पड़ता था। छत के ऊपर लगे
बोगनवेलिया की सूखी टहनियों की बीच से झांकता हुआ एक तारा आसमान में अभी-अभी भी
टिमटिमा रहा था, शायद रास्ता भटक गया था। माँ हमेशा कहती थी, मरने के बाद इंसान
तारा बन जाता है। सामने के कमरे में माँ की तस्वीर के ऊपर चंदन की माला चढ़ी
हुई थी। एक पल को उसे लगा कि मानो उन सूखी डालियों के फ्रेम में आसमान से
झाँकती माँ हो, जो तारा बनकर उसे निहार रही हो। अपने हिस्से का प्रेम समेट माँ
आसमान में टिमटिमा रही थी। कभी-कभी सबके होने के बावजूद किसी एक इंसान के न
होने की कमी जिंदगी भर सालती है।
माँ की उंगलियों में कितना रस था, सिर्फ वह ही नहीं मुहल्ले के सारे लोग भी
उनकी काबिलियत से वाकिफ थे। जाड़े की हाड़ कंपा देने वाली ठंड में वह वही गेट
खोल चारपाई डालकर बैठ जाती। धीरे-धीरे अड़ोस-पड़ोस की चाची और ताई जी लोगों का
जमावड़ा लगना शुरू हो जाता।
"बहुरिया! जीजी से नींबू का अचार बनाना सीख ले, उनके जैसा अचार पूरे मुहल्ले
में कोई नहीं डालता। सालों साल खराब नहीं होता, बराबर नमक मिर्च मुँह में डालो
तो झट से घुल जाए और घंटों मुँह में स्वाद बना रहे।"
और माँ झट से अपनी पाक कला का नमूना दिखाने के लिए नई बहू के सामने नींबू का
अचार रख देती थी। नमूने के तौर पर कटोरी भर लाया गया नींबू का अचार एक हाथ से
दूसरे हाथ होते हुए कब चट हो जाता पता भी नहीं चलता।
"बिटिया जब तुम्हारे पैर भारी होंगे तो तुम्हारे लिए नींबू का अचार मैं ही
बनाऊँगी।"
माँ कितने उत्साह से कहती थी, माँ के हाथ की बुनाई के आगे तो बाजार का स्वेटर
भी फेल था। चार फंदे सीधे और चार फंदे उल्टे कर न जाने वह कितनी स्वेटर, मोजे,
टोपी, कार्डिगन बुन जाती थी। राह चलते जिस डिजाइन को देख ले, उसे आँखों और
दिमाग में एक्स रे की तरह उतार लेती और दूसरे दिन उनकी उंगलियों से होता हुआ ऊन
का गोला उनकी कलाकारी में तब्दील हो जाता। एक अजीब सी गर्माहट थी उनकी बुनाई
में शायद उनके प्यार और मोहब्बत की ऊष्मा के आगे वह स्वेटर भी घुटने टेक देता
था।
एक साल हो गया था माँ को इस दुनिया से गए। माँ के बिना जिंदगी बस गुजर और बीत
रही थी पर जीना अभी शुरू नही हो पाई थी। पिछले साल मौनी अमावस्या के दिन माँ की
तेरहवीं थी, न बोलकर भी दिन भर अपने होने के आभास देने वाली माँ फोटो फ्रेम में
हमेशा के लिए मौन हो गई थी। तभी…
"वह काटा!"
आसमान रंग-बिरंगी पतंगों से लबालब भरा था। शायद किसी ने किसी की पतंग काट दी
थी। माँ के जीवन की पतंग भी तो क्रूर काल ने काट दी थी। उसकी आँखें छलछला आई।
माँ के जाने के बाद जीवन मानो रुक सा गया था, अचानक उसे याद आया, आज तो मकर
संक्रान्ति है।
संक्रान्ति के त्योहार के दस दिन पहले से ही माँ की तैयारियाँ शुरू हो जाती थी।
माँ हर साल चौदह लोगों को दान करती थी।
"आँगन में चावल, उरद,दान का सामान और पैसे रख दिए है। तुम सब नहाने के बाद छू
देना गरीबों को दान देने में चला जाएगा।"
और माँ हर बार दान के महत्व को लेकर कहानी सुनाने बैठ जाती। दस दिन पहले से ही
काले तिल को धोना सुखाना और पछोरना शुरू हो जाता। नए गुड़ की सोंधी खुशबू से घर
भर जाता। कितना सधा हुआ हाथ था अम्मा का…न किसी तराजू की जरूरत न चम्मच की।
गुलाब जामुन की चाशनी हो या लाई पट्टी के गुड़ की चाशनी उनकी झुर्रिदार उंगलियाँ
और चश्मे के पीछे से झाँकती बूढ़ी आँखें दोनों उंगलियों के बीच की सीमा रेखा में
भी तार गिन ही लेती।
"नीतू गैस नीचे उतार दे, हमसे खड़े होकर काम नहीं होता।"
नीतू चुपचाप माँ के आदेश का पालन करती। माँ गैस के चारों ओर अखबार बिछा देती और
अपनी पुरानी सूती धोती या गमछा को चौपतिया कर दस्ती बना लेती। गर्म कड़ाही में
बाएँ हाथ से छोटी-छोटी मुट्ठी भर रामदाने के दाने डाल कपड़े के उस दस्ती से तेजी
से उसे गोल-गोल घुमाती और रामदाने के दाने कढ़ाही के ताप से छटपटा कर इधर-उधर
भागने लगते। माँ उन्हें फिर से दस्ती के जर्द में खींच लेती और देखते ही देखते
कढ़ाही फुले हुए दानों से भर जाती। माँ को कितना शौक था हर चीज़ बनाने का पर मजाल
है त्योहार में चढ़ाए और दान किए बिना वह एक दाना मुँह डाल लें।तिल पट्टी,
मूंगफली की पट्टी, रामदाने के लड्डू वह चपटप बनाकर रख देती। नीतू सामान पकड़ाने
में उनकी मदद तो करती पर बनवाने के नाम पर हाथ खड़ा कर देती कितनी बार माँ ने
नीतू से कहा होगा,
"कितनी बार कहा सीख ले, दिन भर मोबाइल से नई-नई चीज़ें बनाती है पर ये नहीं कि
जो सास बनाती है जो उसके पति को पसन्द है सीख ले। देख लेना मेरे मरने के बाद
तुझे बहुत खलेगा, बहुत याद आएगी तुझे…."
पर नीतू की भी पता नहीं क्या जिद्द थी।
"आप है न यह सब बनाने के लिए फिर मैं क्यों बनाऊँ। सब मिलता है बाजार में…"
नीतू ढीठता से जवाब देती।
"पर माँ के हाथ का स्वाद कहाँ से लाएगी?"
माँ तपाक से बोलती,माँ की बात सुन नीतू मंद-मंद मुस्कुराती रहती, एक बार उसने
भी तो नीतू से कहा था।
"माँ चाहती है कि तुम सीख लो, उनकी छोड़ो कम से कम अपने पति की पसन्द के बारे
में तो सोचो…कल अगर माँ!"
शब्द गले में अटक गए, कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिनके बारे में गलत कहना तो क्या
सोचने में जबान और मन दोनों लड़खड़ा जाते हैं। मेरा चेहरा उतर गया। नीतू मेरे
पास खिसक आईं।
"आप भी न…क्या-क्या सोचते हैं।"
"माँ अगर चाहती है तो तुम क्यों नहीं सीख लेती हो,आख़िर कभी यू ट्यूब से, कभी
अपनी बहन और दोस्तों से आए दिन कुछ न कुछ बनाना सीखती ही हो। ऐसी भी क्या
जिद्द?"
अभय का मन न जानें क्यों खिन्न हो गया था। नीतू अचानक से गंभीर हो गई।
"आप को क्या लगता है कि मैं यह सब जानबूझ कर करती हूँ।"
"तुम जानो या तुम्हारा भगवान!"
अभय की जुबान पर अचानक से कांटे उग आए थे। नीतू की आँखें पनिया गई।
"पापा जी के जाने के बाद माँ बिल्कुल अकेली पड़ गई थी। आप तो ऑफिस चले जाते थे
पर मैंने उन्हें अकेलेपन से जूझते रोते देखा था। माँ खाना सिर्फ़ बनाने के लिए
नहीं बनाती थी बल्कि यह उनका शौक भी था पर न जानें क्यों उससे भी उन्होंने मुँह
मोड़ लिया था। आख़िर कब तक उन्हें इस हाल में देख सकती थी। इसीलिए कभी आपके नाम
तो कभी गोलू की पसन्द के नाम पर उनसे खाना बनवाने लगी। पापा जी की कमी को हम
पूरा तो नहीं कर सकते पर उनके दुःख को कम करने की कोशिश तो कर ही सकते हैं।"
अभय चुपचाप उसकी बात सुनता रहा, उसने एक गहरी सांस ली। दर्द उसके चेहरे पर पांव
पसारे पड़ा था।
"इसके बाद भी अगर मैं आपको गलत लगती हूँ तो मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ।"
मैं सोच रहा था एक बहू अपने ससुराल में मायके की अपेक्षा ज्यादा समय बिताती है
पर जब विश्वास की बात आती है तब लोग बहू की अपेक्षा बेटी पर विश्वास करना उचित
समझते हैं, आखिर उसने भी तो यही गलती की थी। उस दिन से उसने भी नीतू का साथ
देना शुरू कर दिया था।
"माँ तुम्हारे हाथ में जो बात है वह नीतू के हाथ में कहा… तुम्हारी तो उंगलियों
में रस है। खाने में घुमा दो तो स्वाद आ जाता है।"
वह उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों से खिलखिला कर हँस पड़ती, उसने यही तो चाहा था। आज
वह अतीत की गलियारों में टहल रहा था। तभी पीछे से गोलू ने उसकी गर्दन में अपने
दोनों छोटे-छोटे हाथ डाल दिए और वो चौक गया।
"क्या हो रहा है गोलू?"
"कुछ नहीं पापा!"
गोलू ने उदास स्वर में कहा
"आज तो तुम्हारी छुट्टी है न, मजे ही मजे हैं तुम्हारे…!"
"कैसे मजे पापा! मेरे सारे दोस्तों के पास इतनी सारी काईटस है और मेरे पास एक
भी नहीं… दादी होती तो मुझे कितनी सारी काइट्स दिलाती पर इस बार एक भी काईट
नहीं आई।"
अभय चुपचाप सुनता रहा, गलत तो नहीं कह रहा था गोलू…वह बदस्तूर जारी रहा।
"दादी थी तब सब कितना मजा करते थे। पूजा होती थी, पतंग उड़ाते थे खिचड़ी बनती थी
पर आज कुछ भी नहीं। इससे अच्छा तो था कि मैं स्कूल ही चला गया होता।"
गोलू ने चुपचाप उसका मोबाइल फोन उठाया और अपने कमरे में गेम्स खेलने चला गया।
उसके पास गोलू की किसी भी बात का कोई जवाब नही था। तभी उसने अपने कंधे पर एक
चिर-परिचित दबाव महसूस किया। नीतू उसके पास आकर बैठ गई, उसने आसमान में उड़ती
पतंगों को देखा।
"वह तारा है न…!"
उसने हुलस कर पूछा
"हम्म!"
मैंने सामने कमरे में लगी फ़ोटो की ओर देखकर कहा,
"माँ की याद आ रही है न?"
मेरी आँखें सजल हो गई, नीतू मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर सहलाने लगी।
"माँ की कमी कोई भी पूरी नहीं कर सकता पर अगर आज माँ होती तो हमें इस तरह उदास
देखकर कितना दुखी होती। जिंदगी चलने का नाम है, माँ हमारे बीच आज नहीं है पर
उनकी यादें हमेशा हमारे साथ हैं।"
मैं नीतू के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा, अचानक जिम्मेदारियों ने उसे कितना
बड़ा बना दिया था।
"अब जल्दी से उठिए, पूजा भी तो करनी है। माँ को गए एक साल हो गया है उनके जाने
के बाद ये पहला त्योहार है। करना तो है ही..!"
अभय की आँखों में हजारों सवाल तैर गए, नीतू उसे उन सवालों के साथ छोड़ आगे बढ़
गई। अभय भरे मन से नहा-धोकर तैयार हो गया।
"आँगन में पूजा और दान का सामान रखा है छू दीजिएगा। गरीबो को दान कर आऊँगी।"
आँगन में वैसे ही चावल, उरद की दाल,पैसा और चौदह रूमाल रखे हुए थे, ठीक वैसे ही
जैसे माँ रखा करती थी। नीतू ने भी वह सारी चीज़ें बनाई थी जो माँ बनाया करती थी।
अभय आश्चर्य से नीतू को देख रहा था, उसे ये सब कैसे आता है?
"नीतू तुमने ये सब कब सीखा?"
नीतू ने मुस्कुराते हुए कहा
"मैंने माँ की कभी मदद नहीं की पर उस किचन में मैं भी तो रहती थी और उन्हें काम
करते देखती थी। माँ को इस तरीके से घर में चुपचाप बैठे नहीं देख सकती थी। इसलिए
जब वह कोई चीज़ बना रही होती तो वह उन्हें करने देती। वह खुश होती थी अपने
बच्चों के लिए बनाकर क्योंकि माँ के हाथ के स्वाद के आगे सारे स्वाद फ़ीके हैं।"
माँ तस्वीर में मुस्कुरा रही थी, अभय ने गोलू को आवाज़ दी।
"कहाँ हो गोलू पतंग नहीं उड़ानी है क्या? आज उस निक्कू और उसके भाई की पतंग
जरूर काटेंगे। पिछले दो साल से उसने तुम्हारी पतंग काटी है, आज सारे बदले लिए
जाएंगे।"
अभय ने गोलू को आवाज लगाई, नन्हा गोलू अभय की आवाज को सुनकर खिल उठा,
"पर पापा पतंग तो है ही नहीं पिछले साल की पड़ी हुई है। पता नहीं वह उड़ने लायक
है भी कि नहीं हो सकता है रखे-रखे फट भी गई हो?"
तब तक हाथ में कटोरी लिए नीतू ने कमरे में प्रवेश किया।
"तू पतंग तो लेकर आ… मैं लेई बना कर लाई हूँ, सब जोड़ लेंगे।"
"सच्ची माँ!"
नीतू की बात सुनकर गोलू खुशी से नाचने लगा। अभय नीतू और गोलू को लेई से पतंगों
को जोड़ते हुए देख रहा था। माँ भी तो इसी तरह से लेई बनाकर उसकी पतंग को को
जोड़ती थी। पता नहीं यह सच था या भ्रम अभय ने तस्वीर में माँ की आँखों में एक
खुशी देखी थी। नीतू को पतंग के साथ-साथ रिश्तो को जोड़ना भी बखूबी आता था।