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कहानी

दिदिया

रंजना जायसवाल


जेठ की तेज धूप से खोपड़ी चटकने लगी थी। सूरज के डूबने और चाँद के उगने का दूर-दूर तक पता नहीं था। पिंकिया ने धूप से काली हो चुकी अपनी देह की ओर देखा। चमड़ी कई जगह से धूल, धूप और गर्मी से चटक गई थी। जेठ के थपेड़ों की वजह से चुहचुहाता पसीना उन दरारों में आ कर फँस जाता और नमकीन पसीने की वजह से पिंकिया के मुँह से एक सिसकी निकल जाती। तन पर लिपटे चिथड़ों में इतना जोर कहाँ था जो धूप की आब को रोक सकता। तन पर कपड़ों के नाम पर था ही क्या? उम्र के साथ शरीर बढ़ रहा था या शायद कपड़े छोटे हो रहे थे। बापू का जांघिया और अम्मा का ब्लाउज ही उसका परिधान था। अम्मा की साड़ी को दो फाड़ कर उसने दुप्पटे की तरह फेंटा मारकर तन को ढक लिया था। बापू के गमछे को गोल-गोल लपेट कर वह सर पर रख लेती और उस पर ईंट और तसला ढोती।

आज सुबह से बउवा बहुत रो रहा था। उसने बापू की लुंगी को बिछा बउवा को लिटा दिया। आसमान से अंगार बरस रहे थे। इंसान के साथ-साथ धरती भी तप और झुलस रही थी। पिंकिया ने बउवा को सीने से चिपका लिया। वो चाहती थी सूरज आज जल्दी से ढल जाए पर चाहा हुआ होता कहाँ है। वह खुद ही अपनी सोच पर हँस पड़ी। सच कहूँ तो वह अपने लिए यह नहीं चाहती थी पर बउवा! कितनी जान ही थी उसमें… कैसे बचाती इस धूप से…कल से उसका शरीर तप रहा था।

"लू लग गई है। ये दवाई लिख रहा हूँ। आराम की जरूरत है। बाहर धूप में लेकर न निकलना, धूप-गर्मी से बचाना।"

"बाहर न निकलना…!"

डॉक्टर ने यही तो कहा था। किस के सहारे छोड़कर निकलती। पिंकिया ही उसकी अम्मा थी, बापू थी,भाई थी और दिदिया तो थी ही…आज अम्मा बहुत याद आ रही थी। वह होती तो सब कुछ कितनी आसानी से संभाल लेती। उसकी अम्मा फुलवा फूल की तरह ही सुंदर थी, उसका बापू मोहन जान छिड़कता था अपनी जोरू पर…उसने अम्मा की पसंदीदा लाल साड़ी का टुकड़ा तन पर लपेट लिया। बापू दीपावली पर लाए थे,उस साड़ी में बापू के प्यार और अम्मा की खुशबू थी।

पिंकिया बउवा को लादे काम पर निकल गई थी। आज चूल्हे की लकड़ी भी खत्म हो गई थी, सुबह बड़ी मुश्किल से कागज और सूखी पत्तियों से चूल्हा जला कर काली चाय बनाई थी। दूध वाली चाय देखे तो जमाना हो गया था। बउवा को दवा देनी थी, पिंकिया बउवा की माँ बन तो गई थी पर दुधमुँहे भाई के लिए माँ का दूध कहाँ से लाती। चाय के सहारे चम्मच से घूँट-घूँट दवा पिलाई थी।

"जल्दी से पी ले बउवा वरना साधू बाबा आ जाएगा।"

अम्मा ऐसे ही तो डराती थी उसे…वो हमेशा सोचती अम्मा कहती थी साधू बाबा लोगों के हाथों में बड़ी शक्ति होती है। राजा को रंक,आदमी को जानवर बना दे। कितनी बार उन्होंने वो राजकुमारी को शिला बनाने वाली कहानी भी तो सुनाई थी। काश उसकी जिंदगी में भी कोई ऐसा बाबा आता जो सब कुछ पहले जैसे कर देता। न जाने क्यों वो मुस्कुरा दी थी।

साइट पर पड़े ईंटों से ही उसने छोटा सा घर बनाया था। पूरी गृहस्थी थी उसकी…गुड्डे-गुड़ियों से खेलने की उम्र में, उम्र से पहले ही बन गई थी वो गृहस्थन और दिदिया कहीं पीछे छूट गई थी। आज भी वो दिन भूले नहीं भुलाता था। ठेकेदार ने बहुत खराब माल लगाया था। सब यही तो कहते थे।एक मौसम भी न झेल पाया।

"ओ पिंकिया जरा बउवा को लेकर बाहर बैठ जा बड़ी उमस है। हवा थोड़ी तन को लगेगी तो उसे अच्छा लगेगा।"

और वो बंदरिया की तरह अपने छोटे भाई को चिपकाए सीढ़ियों से नीचे उतर गई थी।

"संभल कर बिटिया कहीं बउवा गिर न जाए।"

"अम्मा चिंता न करो हम हैं न…"

उसने मुस्कुरा कर कहा था, शायद वो आखिर दिन था जब वह मुस्कुराई थी। पिंकिया के बाऊ को तेज़ बुख़ार था । अम्मा रात से गीली पट्टी रख रही थी। ननकू वहीं बगल में मोरंग वाले रंगीन पत्थरों से खेल रहा था। पाँच मंजिला बिल्डिंग उसकी आँखों के सामने भरभरा के गिर गई। दूसरे दिन अखबार के एक कोने में सूचना छपी थी। शहर के नवनिर्मित इमारत गिरी। दो पुरुष, एक औरत और एक बच्चे की मृत्यु… यह अखबार वाले भी कितनी झूठी खबर छापते हैं। उस दिन एक बच्चे की मृत्यु नहीं हुई थी, उस दिन तीन बच्चों की मृत्यु हुई थी। पिंकिया भी जिंदा होकर कहाँ जिंदा थी। कम उम्र में माँ-बाप का साया सर से उठ चुका था। खेलने की उम्र में, माँ-बाप से लाड़-लड़ाने की उम्र में वह अपने छोटे भाई की माँ बनी घूम रही थी। वो दिन था और आज का दिन तब से लेकर आज तक वह बउवा को संभाल ही रही थी। आज भी उसे अपने बचपन की धुंधली सी यादें थीं।

मुम्बई शहर सपनों का शहर...सपने देखने से भला कोई किसी को कैसे रोक सकता है। पिंकिया के बाऊ मोहन अपनी जोरू के साथ शहर में रोज़ी-रोजगार की तलाश में चला आया था। गाँव के कई परिवार गाँव छोड़कर मुम्बई चले आये थे। करते भी तो क्या... मुट्ठी भर जमीन, हर साल बाढ़ के पानी में डूब जाती। जब से बाँध बना था सरकार ने वो जमीन भी छीन ली थी। जमीन के बदले में थोड़ा मुआवजा जरूर मिला था पर उससे जिन्दगी तो नहीं कट सकती थी। यहाँ रहते-रहते उन्हें बरसों बीत गए थे, पिंकिया, ननकू और बउवा यहीं पैदा हुए थे। जीवन में खेती के सिवा कोई काम नहीं किया था, इस अनजान शहर में कोई काम देता भी तो कैसे पर कहते हैं न मुम्बई में कोई भूखा नहीं सोता। मोहन ने ठेकेदार के हाथ-पैर जोड़कर बेलदारी का काम शुरू कर दिया। शुरू -शुरू में तो बहुत दिक्कत हुई। इस अनजान शहर में जोरू को कहाँ छोड़े। तब फुलवा ने ही कहा,

"मैं बैठ कर क्या करूँगी तुम्हारे साथ मैं भी चलूँगी। इस महंगाई के जमाने में एक आदमी के कमाने से कैसे काम चलेगा।"

फुलवा ने पल्लू को समेटकर कमर में खोंस लिया और मोहन के गमछे को गोल-गोल घुमाकर अपने सर पर रख लिया।

"ए ठेकेदार बाबू! हम भी काम करेंगे।"

ठेकेदार ने एक अजीब सी निगाह से फुलवा को देखा, फुलवा एक क्षण को असहज हो गई थी।

"क्या नाम है तेरा…"

"फुलवा.."

"फुलवा… !"

ठेकेदार ने मन ही मन बुदबुदाया। ठेकेदार की लालची निग़ाहों ने ऊपर से नीचे तक फुलवा के तन का एक्स रे कर डाला,

"तू कर लेगी, कभी किया है इस तरह का काम...?"

ठेकेदार ने मुँह में भरे पान को गुलगुलाते हुए कहा,

मोहन ढाल की तरह उसके आगे खड़ा हो गया, जानता था इस तरह के लोगों के बारे में पर उसकी जोरू सुनती ही कहाँ थी किसी की…

"साहब! हमारी जोरू है,तीन तक पढ़ी है। हम मना किए थे तेरे बस का नहीं है ये सब पर…औरत जात कहाँ किसी की सुनती है। आप किसी काम पर लगा दो जल्दी सीख जाएगी।"

"चल ठीक है तू जिम्मेदारी ले रहा है न…!"

और वह दिन था और आज का दिन... वर्षों बीत गए थे इस अंजान शहर में...जहाँ कभी कोई इमारत बनती दोनों अपना डेरा-डंडा उठाये पहुँच जाते। फुलवा की बड़ी इच्छा थी कि दोनो बच्चों को पढ़ाये-लिखाए पर इस महंगे शहर में पेट भरने के लिए पैसा कमा लें वही बहुत था। मोहन और फुलवा साइट पर पड़े ईंट को जोड़कर झोपड़ी बना लेते और काली-पीली पन्नी से छत छवा लेते।

फुलवा बड़ी सुघड़ थी।उसका मर्द जब काम से थका-हारा आता। तब वो झट से पिंकिया से लोटा भर पानी और गुड़ भेज देती।

"पिंकिया जब भी कोई बाहर से आए तो उसके लिए गुड़-पानी जरूर रखना।"

"अरे अभी से ये सब घर-गृहस्थी की बातें काहे सिखा रही हो?"

मोहन झुंझला कर कहता

"सोलह की हो गई है, इसकी उम्र में तो हमारा ब्याह हो गया था और तुमको अभी बच्ची ही लगती है। गुण कभी बेकार नहीं जाता, अभी से सीखी रहेगी तो ससुराल में काम देगा।"

पिंकिया के लिए स्कूल, कॉपी और पेंसिल जुटाना संभव नहीं था पर फुलवा ने हार नहीं मानी थी। रात को जब शहर रौशनी में नहा जाता तो फुलवा की झोपड़ी भी कुप्पी और चूल्हे के अंगार की रौशनी में दमक उठती। चूल्हे की आग में सिकती रोटियों की गमक से सारी झोपड़ी सोंधी खुशबू से महक उठती। दिन भर ईंटे उठाने से चोटहील हुए हाथ आटे की लोई को बड़ी कलाकारी से पीट-पीट कर हथेलियों पर बड़ा कर देते। चाँद जैसी गोल-गोल रोटियों को थाली में रखते ही पिंकिया नमक के डिब्बे की ओर भागती और मोहन प्याज को जमीन पर रख अपनी मजबूत हथेलियों से धप्प की तेज आवाज के साथ दो टुकड़े कर देता। कुल जमा सात रोटी ही बन पाती। गिनती की रोटियों के साथ पिंकिया भी सात तक गिनती सीख गई।

फिर आगे...आगे भी तो गिनती सीखनी थी पर रोटियाँ तो इतनी ही थी। फुलवा ने इसका भी इलाज निकाल लिया था, चूल्हे की लकड़ी को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर वह पिंकिया को आगे की गिनती सिखाने लगी। पिंकिया दिनभर उतरते ईंटों की ट्रक को देखकर खुशी से खिल उठती। एक-दो-तीन-चार.. वो बहुत खुश थी, उसने तीस तक गिनती सीख ली थी। बगल वाले चाचा ने उसकी कितनी तारीफ की थी और कितना आशीर्वाद दिया था…

"बड़ी होकर डॉक्टर बनना।"

और उसके सपनों को मानो पंख लग गए। वो रोज ननकू के साथ डॉक्टर-डॉक्टर खेलने लगी। ननकू भी कोई कम थोड़ी था, वो भी झूठ-मूठ का आँख बन्दकर लेट जाता। दिदिया है न उसका इलाज करने के लिए… फुलवा की आँखे भर आती। हाय री तकदीर! ये मासूम ये भी नहीं जानते कि डॉक्टर बनना इतना आसान थोड़ी है। बड़ी पढ़ाई करनी होती है, इतना पैसा लगता है कि जितनी तो उसे गिनती भी नहीं आती।

मोहन और फुलवा पिंकिया और ननकू को छोड़ साइट पर काम पर चले जाते। पिंकिया को आज भी वो दिन याद है। जररर…. की आवाज के साथ मोरंग की ट्रक जमीन पर मोरंग गिराकर आगे बढ़ गई थी। धूल का गुब्बार वातावरण में छा गया था। पिंकिया अपने सुनहरे बालों के साथ अपने छोटे भाई ननकू को कमर पर टिकाये ये नजारा देख रही थी। लाल रिबन बंधी चोटियाँ, घुटने तक की फ्रॉक हाथ मे प्लास्टिक की धानी चूड़ियाँ धूप से तपा धूसरित शरीर...ननकू गोदी से उतरने के लिए मचलने लगा। उसके नए खिलौने जो आ गये थे। दोनों भाई-बहन मोरंग के ढेर की ओर दौड़े। रोज का ही तो काम था उनका ...उनकी खोजी निगाहें तेज़ी से अपने छोटे-छोटे हाथों से मोरंग के ढेर में से अपना खजाना ढूंढने लगती। चिकने पत्थर,छोटे गोल-मटोल पत्थर,सीपियाँ और शंख...ननकू सबकी नजरें बचाकर अपनी पैंट की जेब में सरका देता। दिदिया उससे हमेशा छीन लेती थी और वो रो कर रह जाता।

पिंकिया अपनी फ्रॉक को एक हाथ से पकड़े दूसरे हाथ से जल्दी-जल्दी खजाने को समेट रही थी। कल ही तो बापू ने बताया था,अब वो झोपड़ी को छोड़कर नई वाली इमारत में रहने चले जायेंगे। कितना खुश थे वो सब… बारिश के दिनों में कितनी दिक्कत होती थी। पानी झोपड़ी में घुस जाता और लकड़ी भीग जाती, कितनी रात उन्हें भूखे सोना पड़ता था। पिंकिया तो फिर भी बड़ी थी पर ननकू भूख से बिलबिला जाता। फुलवा उन गीली लकड़ियों को न जाने कितने जतन करके जलाने का प्रयास करती पर गीली लकड़ी बस धू-धू करके रह जाती और झोपड़ी धुँए से भर जाती। धुँए से सबकी आँखें जलने लगतीं और आँखों से झर-झर कर आँसू बहने लगते। आँसू तो फुलवा के भी निकल आते पर वो धुँए से नहीं भूख से बिलबिलाते बच्चों के मासूम चेहरों के कारण ही होते थे। अब कम से कम उन्हें भूखे तो नहीं सोना पड़ेगा।

आज उनकी इस झोपड़ी में आखिरी रात थी, मोहन दिन भर का थका हुआ था। बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई थी पर पिंकिया को खुशी के मारे नींद नहीं आ रही थी। बउवा फुलवा का दूध पीकर सो गया था। फुलवा ननकू और पिंकिया को लोरी गाकर सुलाने का प्रयास कर रही थी। झोपड़ी की छत पर पड़ी काली पन्नी एक- आध जगह से फट गई थी। पन्नी के उस पार आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। पिंकिया रोज की तरह उन्हें गिनने का प्रयास कर रही थी।

"ननकू! सो गया क्या..?"

"बोलो दिदिया..!"

"जानते हो कल से हम उस नई वाली बिल्डिंग में रहेंगे और वो जो सुंदर वाले पत्थर और सीपियाँ है न उनसे अपने घर को सजायेंगे।"

पिंकिया ने किलक कर कहा,

"दिदिया! बापू हर बार घर क्यों बदल देते हैं। पहले हम सामने वाली बिल्डिंग में रहते थे फिर हम झोपड़ी में रहने लगे अब फिर नई वाली बिल्डिंग में रहेंगे।"

"हमारे बापू बहुत बड़े आदमी है, हर छः महीने में अपना घर बदल देते हैं, जानते हो ये हमारा सातवाँ घर है।"

ननकू बड़े पेशोपेश में था,बड़ा आदमी कौन है… वो जो रोज सफेद चमचमाती लम्बी गाड़ी से अपनी बिल्डिंग को देखने आता है या फिर उसके बापू,जो दूसरों के लिए घर बनाते हैं पर आज़ तक उनका कोई घर नहीं हुआ। फुलवा पिंकिया के भ्रम को तोड़ना नहीं चाहती थी,आखिर सपने देखने मे हर्ज ही क्या है। तकदीर की लकीरें तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते, सपने तो वो भी देखते हैं जिनकी आँखें नहीं होती। आज भी वो सोचती है काश वह उस नई इमारत में नहीं गए होते तो अम्मा, बापू और ननकू जिंदा होते ।

सूरज ढलने को आ गया था। पिंकिया की परछाईं लंबी होती गई उसके दुख की ही तरह…और उस परछाईं में उसका अस्तित्व ढक गया। कुछ यात्राएँ अकेले ही तय करनी होती हैं उन यात्राओं को तय करने में कोई हमदम कोई हमकदम नहीं होता। शायद दिदिया के जीवन की यही सच्चाई थी। उसे जीवन में अभी हजारों मीलों की यात्रा करनी थी एक-एक कदम के साथ…शाम ढलने को आ रही थी,वो जल्दी से लकड़ी वाले के यहाँ पहुँची।

"भइया बीस किलो सूखी लकड़ी तौल देना।"

"कैसे ले जाओगी बिटिया…ठेला या कोई गाड़ी?"

"हम हैं न…"

दुकानदार उसके हौसले को देखता रह गया।

पिंकिया तराजू को देख रही थी।

"भइया लकड़ी तौल रहे या सोना।"

"बिटिया लकड़ी का भाव बढ़ गया इस बार तो पिछले दाम पर दे दे रहा हूँ पर अगली बार बढ़े हुए दाम पर ही लूँगा।"

"ठीक है अगली की अगली बार देखेंगे।"

उसने बेफिक्री से कहा

पिंकिया ने जल्दी से लकड़ियाँ बटोरी और लकड़ी को सर पर लाद बउवा को बापू की लुंगी में रख गले से लटका घर के लिए चल पड़ी। वह सोच रही थी उसकी जिंदगी भी तो तराजू की तरह हो गई है जहाँ सुख और दुःख के साथ उसे संतुलन बना कर चलना है।अंधेरा बढ़ने लगा था उसने तेज़ी से घर की ओर कदम बढ़ा दिए। इसलिए नहीं कि कोई उसका इंतजार कर रहा होगा बल्कि जहाँ उसे अपने हिस्से का पानी और गुड़ खुद ही लेना था।


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