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अब नहीं करना चाहता हूँ...
मैं
तुम्हारी कविताओं से किसी भी तरह का संवाद...
एक लंबे अरसे से सुनते-सुनते
तंग आ चुका हूँ... मैं
तुम्हारे इन अजनबी बीमार
बूढ़े शब्दों को...
मुझे अच्छी नहीं लगती
तुम्हारी किसी एक उदास शाम की कल्पना
बार-बार सोचता हूँ
आखिर क्यों नहीं बनता है
तुम्हारी कविताओं में प्रेम का कोई एक चित्र
या कोई जिज्ञासा
जिसे मैं थोड़ी देर तक गुन-गुनाकर चुप हो सकूँ
क्यों नहीं झलकती है कविताओं में तुम्हारी उम्र
तुम्हारी इच्छाएँ, वासनाएँ
नहीं बजता है गीत-संगीत या कल-कल की कोई एक धुन
कभी नहीं दिखते हैं इस तरह के
कोई भी प्रयास या कोशिशें।
मुझे दिखते हैं तुम्हारी कविताओं में
सिर्फ और सिर्फ
ढेर सारे... अल्पविराम, कामा, प्रश्नवाचक चिह्न
या फिर सदियों से चले आ रहे कुछ लंबे अंतराल
जिसे देखकर मुझे हो जाना पड़ता है
अंततः निःशब्द...
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