जितना खिड़की से दिखता है
उतना ही ‘सावन’ मेरा है।
निर्वसना नीम खड़ी बाहर
जब धारोधार नहाती है
यह ‘देह’ न जाने कब कैसे
पत्ती-पत्ती बिछ जाती है
मन से जितना छू लेती हूँ
बस उतना ही ‘धन’ मेरा है।
श्रृंगार किए गहने पहने
जिस दिन से ‘घर’ में उतरी हूँ
पायल बजती ही रहती हैं
कमरों-कमरों में बिखरी हूँ
कमरों से चौके तक फैला
बस इतना ‘आँगन’ मेरा है।
डगमग पैरों से बूटों को
हर रात खोलना मजबूरी
बिन बोले देह सौंप देना,
मन से हो कितनी भी दूरी
है जहाँ नहीं ‘‘नीले निशान’’
बस उतना ही ‘तन’ मेरा है।