आधुनिकीकरण की बड़ी परियोजनाओं ने समाज में दमनमूलक सत्ता के नए रूपों का
निर्माण किया है। इन रूपों में केंद्रीकरण, भौतिकवादी जीवन शैली और
संस्कृति-उद्योगों का विस्तार मुख्य हैं। वर्चस्व के ये रूप मनुष्य को नगण्य बना देते हैं,
कला को मास कल्चर का अंग बना लेते हैं और साहित्य का अवमूल्यन
करते हैं। एक और चीज घटित होती है, भाषा मुख्यत: सत्ता का खिलौना बन जाती है।
वह बाजार या राजनीति के संकेतों में ढलने लगती है। इसी तरह कल्पना में उपनिवेश
बनने लगते हैं। इसमें संदेह नहीं कि आधुनिकीकरण के बिना विकास संभव नहीं है।
यह उत्तर-औद्योगिक समाज की एक अनिवार्य घटना है। ऐसे परिवेश में विलक्षण है कि
अज्ञेय जैसे कवियों ने आधुनिकीकरण को आलोचनात्मक निगाह से देखा और चाहा कि
मनुष्य की महत्ता न गिरे, समाज में 'व्यक्ति' का विलोप न हो, अनुभव की महत्ता समझी
जाए और साहित्यिकता की रक्षा हो।
अज्ञेय निजी सच के कवि नहीं हैं। उनकी कविता सब की कविता नहीं हो सकी है, पर
वह उतनी निजी भी नहीं है। इधर कविता का निजीकरण करनेवाले कुछ कवि अज्ञेय को निजी
सच के कवि के रूप में पेश करते हैं। निजीकरण कभी भी खुलापन नहीं है। यह
उद्योग, इतिहास की विरासत और शिक्षा का हो या साहित्य का। निजीकरण और खुलापन दो चीजें
हैं। अज्ञेय के पास नि:संदेह एक 'मैं' है, वैयक्तिकता है, पर उनकी कविता व्यक्तिगत
नहीं है। इसलिए 'बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए' जैसी चीजें लिखनेवाले जब
अज्ञेय का निजीकरण करते हैं, वे नहीं जानते कि गिद्ध का कोई पिंजड़ा नहीं होता। हर
निजीकरण अपने साथ एक बहिष्कारपरकता लाता है। निजीकरण समावेशिक नहीं होता।
दरअसल, अज्ञेय ने 'व्यक्ति' के रूप में जो कुछ सोचा, आत्मबोध को महत्व दिया और
साहित्यिकता के लिए संघर्ष किया -- उसकी मानवीय अंतर्ध्वनियों को समझने की
जरूरत है।
अज्ञेय में एक 'व्यक्ति' था, पर वह व्यक्ति-संवेदना के संस्कार की बात करते थे। वह
मानवीय संवेदना की संकीर्णता और कृत्रिमता से मुक्ति चाहते थे। संकीर्णता
एक हिंसा है, कृत्रिमता भी हिंसा है। दोनों एकरूपता की ओर ले जाती हैं। दोनों ही
'सृजनात्मकता' और 'विविधता' की शत्रु हैं। यह अधिक कहने की जरूरत नहीं है कि
अज्ञेय 'सृजनात्मकता' और 'विविधता' पसंद करते थे। वैश्वीकरण का दौर भी
सृजनात्मकता और विविधता का भक्षक है। अज्ञेय का सृजनात्मकता से प्रेम सर्वविदित है।
वह विविधता को कितना पसंद करते थे, यह सप्तक के कवियों के चयन में देखा जा
सकता है। इनमें सिर्फ उनके हमदम और हमराही नहीं हैं। अज्ञेय के निजी जीवन में कम
विविधता नहीं है। उन्होंने विभिन्न छोर के देशों की यायावरी की। वह देश में भी
कहाँ-कहाँ नहीं घूमे। उन्होंने कितने ही जीव-जंतुओं, वन के पेड़-पौधों और
प्रकृति की चीजों से रिश्ता बनाया। इन सब का साक्ष्य उनकी कविताएँ हैं।
हमारी मनुष्यता, आधुनिकता और जनतंत्र का एक लक्षण यह है कि हम 'दूसरे' को जो
हमराही नहीं हैं, हमसे सहमत नहीं हैं, हमारे परिवार-जाति-धर्म के नहीं हैं,
हमजीव नहीं हैं, उनसे हम कितना खुला रिश्ता बनाते हैं। अज्ञेय के जीवन और साहित्य
को देख कर बेखटके कहा जा सकता है कि वह एक उदारवादी भारतीय बुद्धिजीवी हैं।
वह अहंजर्जर '´मैं' के नहीं, एक उदार, संवेदनशील और सार्वभौम 'मैं' के कवि हैं। आज
हम चारों तरफ ऐसे लोग देख सकते हैं, जिनमें अहंजर्जर 'मैं' भरा हुआ है। इस
वातावरण में अज्ञेय की कविता पढ़ना एक भिन्न अनुभव दे सकता है। यह हमारे मन
में भारतीय परंपरा के एक व्यापक प्रेम की उर्वरता ला सकता है।
एक समय अज्ञेय का काफी विरोध हुआ, क्योंकि जनता की मुश्किलों और जन
आंदोलनों के 50-60 के उन कठिन दशकों में वह इन सब से विमुख थे। उन्होंने एक आभिजात्य धारण
कर रखा था। उस दौर में उनसे टकरा कर ही कई साहित्यिक प्रवृत्तियाँ अस्तित्व में आ
सकती थीं, जो आईं। उनका विरोध उनकी शक्ति का द्योतक था। आज अज्ञेय को उनके
विरोधी भी इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि वैश्वीकरण और सामुदायिक कट्टरवाद के दौर
में मानवीय सृजनशीलता और बुनियादी बौद्धिक स्वतंत्रता गहरे संकट में हैं,
बल्कि 'व्यक्ति' की जगह तेजी से 'झुंड' लेता जा रहा है। उस 'व्यक्ति' का तेजी से
विलोप हो रहा है, जिसे अज्ञेय बचाना चाहते थे। स्थितियों में आए नए
परिवर्तनों की वजह से अज्ञेय के संबंध में धारणा बदल रही है और आधुनिकता की
भूमिका को अधिक व्यापकता से जाँचने की जरूरत महसूस की जा रही है।
अज्ञेय यथार्थवादी लेखक नहीं थे, पर वह समाज-विमुख लेखक भी न थे। किसी को यह
माँग नहीं करनी चाहिए कि सभी कवि जीवन की समस्याओं को एक ही ढंग से उठाएँ और एक
ही कोण से उठाएँ। यदि अज्ञेय की कविताओं में जीवन का स्पंदन है, तो उनमें जीवन
की समस्याओं की अनुगूँज जरूर किसी न किसी रूप में होगी। यह उत्सुकता हो सकती
है कि उनकी कविताओं में जीवन की कौन-सी समस्याएँ व्यक्त हुई हैं। हर उस कवि की
संवेदना पर, जिसके आत्मबोध या 'स्व' में खुलापन है, जीवन की समस्याओं का
प्रभाव पड़ता है। ऐसा हर कवि जीवन की समस्याओं के बीच से ही जन्मी अनुभूतियों
को शब्द देता है। अज्ञेय की काव्यानुभूतियाँ किसी न किसी गहन मानवीय समस्या से
उपजी हैं। हम हिंदी के नव्य-रूपवादी कवियों की बंद अनुभूतियों में जीवन की किसी
समस्या की अनुगूँज नहीं पाते, जबकि अज्ञेय की शब्द को ले कर चिंता भी जीवन की
गहरी चिंता है।
अज्ञेय सामाजिक होने की जगह अपने स्वयंरचित संसार में खड़े दिखाई देते हैं, पर वह
उस सभ्यता से लड़ रहे थे जो व्यक्ति से उसकी सृजनात्मक कल्पना, मानवीय
संवेदना और सौंदर्यबोध छीन रही थी। हम अपने समय में देख रहे हैं कि चारों तरफ
निजीकरण का वातावरण गर्म है और सूचना-क्रांति के युग में निजता पर छाता संकट भी
बहस में है। देश के एक बड़े उद्योगपति रतन टाटा की कारपोरेट लॉबीदार नीरा राडिया
से अधिक मुनाफे के लिए चोरी-छिपे लेन-देन की फोन पर हो रही बात टेप हो गई।
रतन टाटा की ओर से कहा गया कि यह प्राइवेसी भंग करने का मामला है। प्रश्न उठता
है कि क्या अज्ञेय की निजता ऐसी ही जगह थी, जहाँ चोरी-छिपे घृणित सौदे होते
थे। रतन टाटा जैसे व्यक्तियों की प्राइवेट लाइफ मूल्यहीनता का क्रीड़ांगन है, जबकि
अज्ञेय की आत्मीय निजता बाहर के आघातों से बचने और मूल्य-पुनर्गठन की जगह
है। उनके जीवन संसार में अपने 'व्यक्ति' को खोना और 'सेल्फिश' होना दो चीजें नहीं
है। उनका 'व्यक्ति', उनकी निजता या उनका 'स्व' एक अधिक स्वाधीन, अधिक सुंदर
और अधिक सच्चे विश्व की आकांक्षा है। वह अपनी एक कविता 'लौटे यात्री का
वक्तव्य' में दिखाते हैं कि आधुनिक युग में किस तरह स्वाधीनता, सुंदरता और सच्चाई
जैसी मूल्यवान चीजें छिपती जा रही हैं और ओछी चीजें सजधज के साथ छा रही हैं :
सभी
जगह
जो
मूल्यवान
है
सकुचा
रहता
है
अदृश्य
,
सीपी
के
मोती-सा
जो
मिलता
नहीं
बिना
सागर
में
डूबे
सभी
जगह
जो
छिछला
है
,
ओछा
है
नकली
कीमखाब
पर
सजा
हुआ
बैठा
है
लकदक
चौंधाता
आँखों
को
अज्ञेय भौतिकवादी सभ्यता और इसकी पूँजीवादी प्रणाली से अपने तरीके से मुठभेड़
करते हैं। उन्हें जीवन की समस्याएँ विचलित करती हैं। अज्ञेय के बारे में उनकी
दो-चार कविताओं या उनके आत्मोन्मुख व्यक्तित्व के आधार पर किसी समय
जल्दबाजी में धारणाएँ बनीं और प्रचारित हुईं। उनकी कविताओं में सांप्रदायिकता और युद्ध का
बार-बार विरोध है और पश्चिम के अंधानुकरण की आलोचना है। उपर्युक्त कविता में ही अज्ञेय कहते हैं,
जिसकी मुट्ठी में ताकत
है / उसका भेजा है
एक ओर भेड़िए /
दूसरी पर मर्कट का। भेड़िए-सी हिंसा और बंदर-सा
अंधानुकरण आज भी सत्ता से चालित दिमाग की दो प्रधान
खूबियाँ हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अज्ञेय ने सत्ता के सिक्के को पहचाना
था। यही सिक्का बाजार में चल रहा था और मनुष्य नगण्य होता जा रहा था।
अज्ञेय मनुष्य की नगण्यता से घनघोर एतराज के कवि हैं। यही वजह है कि वह भीड़,
छिछलापन, सत्ता, हिंसा और अंधानुकरण देख कर बार-बार विचलित होते हैं। उनकी
उदासीनता इन्हीं चीजों से है। यह उदासीनता उन्हें उनके उदारवादी, गरिमावान और
ताजातरीन 'मैं' के पास रखती है। बहुत-से कवि कविता में प्रयोगशील, पर जीवन में
रूढ़िवादी होते हैं। अज्ञेय ऐसे नहीं थे :
जो
अनासक्त
हैं
,
जिन्हें
स्वयं
कुछ
नहीं
किसी
से
लेना
है
क्या
दोगे
?
कितना
दोगे
-
-
दे
सकते
हो
--
मुझे
नहीं
जग
भर
को
जीवन
भर
को
प्यार
?
भारतीय मध्य वर्ग की खूबी है कि वह लेना ही लेना जानता है, देना नहीं जानता।
अज्ञेय जीवन बीमा, सुख-संपत्ति के संचय और जयजयकार से अनासक्त थे। उनकी कोई
नियमित बड़ी आय नहीं थी। वह प्रश्न उठा रहे थे -- बहुत लिया, क्या दे भी सकते हो ? मुक्तिबोध भी मध्य
वर्ग की बौद्धिक पतनशीलता देख कर उस पर सवाल दागते हैं,अब
तक क्या किया / जीवन
क्या जिया !! बहुत-बहुत
ज्यादा लिया / दिया
बहुत-बहुत कम / मर गया
देश, अरे जीवित
रह गए तुम। मध्य वर्ग
क्रूरता और लोभ से भरता जा रहा था। आधुनिकता का एक लक्षण है, यह प्रश्न उठाती
है। आधुनिकता खुद आधुनिकता पर प्रश्न उठाती है।
अज्ञेय नागर रुचि की भाषा में लिखते हुए भी 'नागरिक समाज' से संवाद करना नहीं
चाहते। वे चट्टान, समुद्र, फूल, कौवा, सूर्य, कार्तिक की पूर्णिमा, पेड़-पौधों,
वन से संवाद करते हैं। वे उसी जगह से संवाद करना चाहते हैं, जहाँ सत्ता का कोई
चिह्न न हो। वहाँ सन्नाटा भले हो, पर सूनापन न हो। इस तरह अज्ञेय के लिए
प्रकृति उनके जीवन का आँगन बन गई। उन्हें सौंदर्य से साक्षात्कार में ही स्वतंत्रता
दिखी और निर्मल अपनापन मिला। भले यह क्षण भर का साक्षात्कार हो :
मैंने
देखा
एक
बूँद
सहसा
उछली
सागर
के
झाग
से
रँग
गई
क्षण भर
ढलते
सूरज
की
आग
से
मुझको
दीख
गया
:
सूने
विराट
के
सम्मुख
हर
आलोक-छुआ
अपनापन
है
उन्मोचन
नश्वरता
के
दाग
से
कवि द्रष्टा होता है। स्रष्टा को पहले द्रष्टा होना पड़ता है। कविता का जन्म ही कुछ
देखने से हुआ है। वाल्मीकि ने पहले कुछ देखा था। अज्ञेय 'एक बूँद' कविता
में पहले कहते हैं, मैंने देखा, फिर प्रकृति की वस्तुओं के पार जा कर
लिखते हैं, मुझको दीख गया । कवि सामने की दृष्टिगोचर वस्तुओं को
देखता है और उन वस्तुओं के पार भी अपनी कल्पना से जाता है। छायावादी कवियों की
तुलना में अज्ञेय का प्रकृति से सरोकार भिन्न है। छायावाद में प्रकृति की
वस्तुएँ कल्पना में अधिक रँग जाती थीं और वे प्राय: खो जाती थीं। वहाँ सुबह, साँझ,
नदी की लहर, झरने, पर्वत को कवि अपनी अनुभूतियों की ओट में डाल देता था।
अज्ञेय की कविता में प्रकृति उनके 'मैं' को ओट में डाल देती है। प्रकृति कवि के
अनुभवों की दीप्ति के बावजूद अपने पूरे सौंदर्य के साथ आती है। यहाँ सुबह
सुबह होती है, समुद्र समुद्र होता है, सूर्य सूर्य होता है। अज्ञेय बार-बार प्रकृति के करीब
जाते हैं, ताकि यह अपना सौंदर्य बिखेर कर उनके 'मैं' को अपनी ओट
में ले ले, व्यक्ति के मन से अहं की कलौंस मिटा दे - ले, मैं खोल देता हूँ
कपाट सारे। इसका अर्थ है, वह कल्पना की राह से प्रकृति की वस्तुओं के पार
भी जाते हैं और छोटे-छोटे यूटोपिया रचते हैं।
अज्ञेय समुद्र के समान विराट ही नहीं, बूँद के समान छोटी चीज भी देखते हैं। वह एक
बूँद के उछलने और क्षण भर के लिए सूर्य की किरणों से उसके रँग जाने का अमर
सौंदर्य देखते हैं। इसके अलावा, वह उछली बूँद को प्रेम के रूपक में ढाल देते हैं।
निश्चय ही अज्ञेय की मानवीय संवेदना का प्रधान स्रोत प्रेम है। इसे वह कई
नामों से पुकारते हैं -- स्नेह, प्रीति, अपनापन, सिहरन, आत्मिक वासना, हृदय का
आलोक, अंत:स्पंदन, वेदना, ललक, समर्पण, अपना सबकुछ न्यौछावर करना, अकुलाहट,
सन्नाटे की गूँज। यही सब तो प्रेम है, जो महानगर-सभ्यता में दुर्लभ है। यह प्रेम
हमेशा आत्मनिवेदन के शिल्प में व्यक्त होता है। अज्ञेय के साहित्य में
बौद्धिक स्वतंत्रता और प्रेम, इन दो चीजों का सबसे अधिक महत्व है। प्रेम करना स्वतंत्र
होना है। यह हिंसा और कृत्रिमता और इन दोनों से भरे अहंकार से मुक्त
होना है। यह मनुष्यता का अब तक का सबसे बड़ा मूल्य है, जिसका प्राचीन समय से
ही कवियों ने कभी भी सत्ता के साथ खड़ा हो कर नहीं, हमेशा प्रतिपक्ष में रह कर गान
किया और इसके लिए आहुति भी दी।
क्या किस्म-किस्म की हिंसा और उपभोक्ता समाज की कृत्रिमता मनुष्य की दुनिया से
प्रेम को हमेशा के लिए मिटा देगी या प्रेम को 'वस्तु' बना देंगी ? अज्ञेय
'सूने विराट के सम्मुख' क्यों कहते हैं ? इस भौतिकवादी विराट में इतना सूनापन क्यों
है ? यह सूनापन इसलिए है कि सबकुछ है, आलोक-छुआ अपनापन नहीं है। वर्तमान
सभ्यता में चारों तरफ वीरता और श्रृंगार के हिंसात्मक दृश्य हैं। भौतिक बल प्रदर्शन हो
या ज्वेलरी, कॉस्मेटिक्स और फैशन के कपड़ों से बढ़ता श्रृंगारवाद, ये
आधुनिक मन की बढ़ती विपन्नता के लक्षण हैं।
अज्ञेय का 'बाहर' जितना उजड़ा हो, उनका मन उदात्त सौंदर्यानुभवों से भरा है। उनमें आधुनिक मनोरुग्णता की
जगह जीवन के प्रति गहरी आस्था है -- फिर छनेंगे हम /
जमेंगे हम / कहीं फिर
पैर । यह भारी विनाश के बाद भी
'नदी के द्वीप' (1949) का व्यक्त होनेवाला संकल्प है। उनकी सहसा उछली एक बूँद हो
या झरता पत्ता, ये नश्वरता के दाग से मुक्त दिखते हैं और आस्था के सूचक
हैं। यदि संसार में जीवन का स्पंदन है, न कभी प्रेम खत्म होगा, न हरापन मिटेगा
और न सौंदर्य चुकेगा।
एक चीज यह भी उभर कर आती है कि जीवन की अविच्छिन्न निरंतरता पर ही काल
की अविच्छिन्न निरंतरता टिकी है। कविता हो या देश-काल, ये जीवन से ही बनते हैं। अज्ञेय
की कविता में जीवन की बहुत अधिक उपस्थिति है, भले उसमें राजनीतिक संघर्ष की
वैसी आवाजें न हों, जो उनके समय में थीं।
पिकासो ने कहा था कि कला एक झूठ है, जिससे हमें पता चलता है कि सच क्या है।
वह प्रसन्नता के क्षणों में मुखौटों से खेला करता था और अपने से सवाल किया करता
था, क्या मैं यह हूँ?, क्या मैं यह हूँ? वह भीतर-बाहर कुछ तलाश करते हुए काफी
भटकते-अटकते एक जवाब तक पहुँचता था। आज यह बताना बल्कि घोषित करना आसान है कि
मैं यह हूँ -- हिंदू हूँ, मुसलमान हूँ, दलित हूँ, स्त्री हूँ, मराठी हूँ, अमेरिकन हूँ, आदिवासी
हूँ। अज्ञेय इतनी जल्दी फैसला नहीं कर पाते थे। वह मानवतावादी
थे। वह 'मैं हूँ' से 'मैं कल्पना कर रहा हूँ या या 'मैं आधुनिक जीवन का पुनराविष्कार
कर रहा हूँ' तक जाते थे। उनकी धारणा थी, मेरे स्वातंत्र्य में दूसरे की
स्वतंत्रता की कामना निहित है। मेरे प्रेम में दूसरे का प्रेम और मेरे निषेध में दूसरे की
निषेध भावना निहित है। उनका 'मैं' विशिष्ट हो कर भी एक अखंडता और
अंतर्वैयक्तिता से भरा है। अज्ञेय यह महसूस करते थे कि अपनी हर साँस के साथ
दूसरे की हर साँस को भी 'दिला सकेंगे और अधिक सहजता, अनाकुल उन्मुक्ति और गहरा
उल्लास।' वह 'मैं´ में बंद नहीं थे। उनका 'मैं´ एक गरिमापूर्ण वैयक्तिक इकाई है,
अनुभूति की राह से 'अन्य' से जुड़ा।
अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' (1961) उनकी सबसे महत्वपूर्ण कविता है। उनका इसके
मिथकीय चरित्र प्रियंवद से एक गहरा साहित्यिक तादात्म्य स्थापित हुआ है। क्या मैं
ओछा तिनका हाथ में लिए हारिल हूँ, क्या नदी का द्वीप हूँ? क्या मैं सहसा उछली
एक बूँद हँ? क्या मैं प्रियंवद हूँ? 'असाध्य वीणा' अज्ञेय को अन्य कविताओं से
ज्यादा खोलती है। इसलिए इस पर विस्तार से विचार की जरूरत है। केशकंबली प्रियंवद
नगर से दूर गुफा में रहता है। मुझे अचानक निर्मल वर्मा की कहानी 'कौव्वे और
काला पानी' (1982) की याद आ रही है। इसमें सहजी बाबा शहर का अपना घर छोड़
कर एक पहाड़ी गुफा में रहने लगते हैं। वे दोनों जगहों का अंतर बतलाते है, 'वहाँ
दूसरों के लिए मेरा कोई मतलब न था।...यहाँ दूसरे नहीं हैं।' अर्थात 'दूसरे' का कोई
बोध नहीं है। प्रियंवद का लक्ष्य सिर्फ असाध्य वीणा को साधना ही नहीं है,
सत्ता-केंद्रिक आधुनिकतावादी परिवेश का सामना करना भी है। वह अपने 'मैं' और
पृथ्वी के बीच हर दीवार पहले ही तोड़ चुका होता है। इसलिए वह सफलतापूर्वक सामना
करता है।
अज्ञेय की कविताएँ शुरू में प्रगीतात्मक थीं। बाद में उन्होंने मितकथन का रास्ता चुना।
उन्होंने कम शब्दोंवाली छोटी छंदमुक्त कविताएँ ज्यादा लिखीं। इसका
अर्थ है, वह जानते हैं कि एक-एक शब्द का कितना महत्व है और यह किस तरह
मानव अस्तित्व का द्योतक है। शब्दों के बीच की मुखर नीरवताओं को वही जान सकता है, जो
हर शब्द के प्रति जिम्मेदार हो। यही वजह है कि कुछ लंबी कविताएँ लिखने के बावजूद
अज्ञेय ने कहा, 'वह ढंग दूसरा है, और कहूँ कि वह ढंग मेरा नहीं है।' अज्ञेय
को अपनी लंबी कविताएँ आगे चल कर ज्यादा अपनी नहीं लगीं।
'असाध्य वीणा' सुव्यवस्थित कथात्मक पृष्ठभूमिवाली एकमात्र लंबी कविता है, जो
कलात्मक अखंडता की दृष्टि से परिपूर्ण है। अज्ञेय की अन्य लंबी कविताओं में
'असाध्य वीणा'-सी कलात्मक अखंडता नहीं है। वे एक शीर्षक दे कर टुकड़ों में
अलग-अलग दृश्य, घटना या अनुभूति पर लिखी गई हैं। बिना किसी पुरावृत्तांत के लंबी
कविता लिखना एक समय आधुनिकतावादियों के लिए चुनौती रहा है। संभवत: इसीलिए
अज्ञेय ने कथा का सहयोग ले कर बाद में 'आर्फेउस' के अलावा कोई लंबी कविता नहीं
लिखी। उनकी अन्य लंबी कविताएँ स्वतंत्र अनुभूति-खंडों की श्रृंखला में हैं, उदाहरण के
तौर पर शरणार्थी, ओ नि:संग ममेतर, सागर मुद्रा, नंदा देवी। इन सभी से
'असाध्य वीणा' का ढाँचा अलग है।
अज्ञेय की कविताओं में कविता और जीवन का वैसा विभाजन नहीं है जैसा कि मान
लिया गया है। साहित्य में आधुनिकता इतनी अतिवादी नहीं हो सकती थी कि जिंदगी से एकदम
विमुख हो जाए। 'असाध्य वीणा' की ही तरह उनके अंतिम दौर की लंबी कविताओं में
एक है 'आर्फेउस', जो ग्रीक मिथक पर आधारित है। दोनों में समानता यह है कि उनमें
समान रूप से संगीत की महिमा है। 'आर्फेउस' की एक लाइन है, संगीत / वही एक
अमरत्व है।' इसमें भी कहा गया है, 'स्मृति ही संगीत है।' अज्ञेय के लिए स्मृति
निश्चय ही उस इतिहास से अलग है, जो एक युद्धभूमि बनता जा रहा था। वह संगीत को हमेशा महत्व देते हैं,
मुझे उस तक पहुँचना है / अपने संगीत की भुजा फैला कर /
वह आए तो उसी भुजा में बँधी आएगी । 'मार्फेउस' में कहा गया है, मुझे गाना
है क्योंकि मुझे
प्राण फूँकने हैं । अज्ञेय ने कविताएँ क्यों लिखीं ?
अज्ञेय कोई संगीतकार न थे, पर उनकी कविता में बार-बार संगीत आता है। कुछ
गुनगुनाने का दृश्य आता है। वह जीवन को संगीत की आँखों से देखते हैं। आज पॉश शैक्षिक
संस्थानों के उत्सवों में रॉक म्यूजिक बैंड की जैसी धूम है और जैसा आधुनिक पागलपन
दिखाई देता है, उससे बिल्कुल भिन्न है अज्ञेय के संगीत का मिजाज। आज शोर ही
संगीत है। आधुनिक जीवन में बढ़ता शोर, विघटन और हिंसा देख कर बहुत तल्खी से
अज्ञेय महसूस करते होंगे कि नए जमाने में सबसे ज्यादा जरूरत हार्मोनी की है।
'असाध्य वीणा' आधुनिक शोर, विघटन और हिंसा के युग में हार्मोनी की कविता है।
आधुनिक कवियों ने युद्ध का हमेशा विरोध किया। अज्ञेय को एक शांतिवादी कवि के रूप
में याद किया जा सकता है। उन्होंने सवाल उठाया - युद्ध क्यों? भारत-पाक
युद्ध के वक्त की एक कविता है 'युद्ध विराम' । इसमें युद्ध रोकने की बात के साथ यह भावना है, हमें
अब भी चिकनी लगती / संगीत की धार से /
हल के फाल की चम । अज्ञेय का युद्ध जैसी चीजों के प्रतिपक्ष में खड़ा होना
एक खास अर्थ रखता है, जबकि
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वे फौज की सेवा में थे। ऐसा कवि जो सांप्रदायिकता, युद्ध
और हिंसा का विरोधी हो, यह जरूर चाहेगा कि स्मृति अपने साथ गोला-बारूद
ले कर नहीं, संगीत ले कर आए।
अज्ञेय के लिए इतिहास समस्या है। वह राष्ट्रवाद के संकट की ओर इशारा करते हैं,
जिस ओर उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांतकारों की अलग तरह से नजर गई है। वह कहते हैं,
'हम सनातन काल से ही 'वसुधैव कुटुंबकम्' माननेवाले मानवतावादी रहे, लेकिन
वास्तव में 'उदार चरित हम नहीं थे।' न जिन परिस्थितियों में हमारे इस राष्ट्रवाद का
नया दौर आरंभ हुआ, वे परिस्थितियाँ ही उदारता का पोषण करनेवाली थीं, बल्कि
बीसवीं सदी के आरंभ के साथ पाश्चात्य विचारों की खाद से पनपनेवाले राष्ट्रवाद में
दीक्षित हो कर कदम उठाते ही हम यह देखने और सीखने को बाध्य हुए कि 'राष्ट्रशक्ति
उदारता की शक्ति नहीं है, बल्कि संकीर्णता की शक्ति है।' (साहित्य
प्रवृत्तियों की सामाजिक पृष्ठभूमि)। इतिहास राष्ट्र की सत्ता का ही आधुनिक प्रतिबिंब
है। इस संबंध में कुछ दूसरे लेखक भी सतर्क करते रहे हैं। अज्ञेय
विज्ञान की परंपरा से आ कर कवि बने थे, पर उन्होंने उत्तर-औद्योगिक समाज में
विज्ञान को भी यह कहते हुए प्रश्नांकित किया कि वैज्ञानिक प्रगति मनुष्य को 'एक
नीतिविहीन अथवा अतिनैतिक (क्योंकि यांत्रिक) समाज में रहनेवाला 'नैतिक जीव' बना
रहा है।' बीसवीं सदी की इन चिंताओं को नजर में रखे बिना अज्ञेय के
आधुनिकताबोध का तात्पर्य स्पष्ट नहीं हो सकता।
'असाध्य वीणा' में वीणा दुनिया के भौतिक-राजनीतिक जीवन से अलग चीज नहीं है।
असाध्य वीणा एक विराट देश-काल में वज्रकीर्ति की जीवन भर की हठ साधना से बनी है।
यह मिथकीय किरीटी तरु से बनी है। कवि कल्पना से किरीटी तरु कृष्ण के विराट
रूप-सा हो जाता है - धरती, आकाश और पाताल को समेटता। वैसे भी भारतीय परंपरा में
वृक्ष जीवन की समग्रता का रूपक है। किरीटी तरु के कंधों पर बादल सोते हैं। उसकी
छाया में वनचर आराम करते हैं। उसकी शीतल जड़ें वासुकि नाग पर टिकी हैं। मूल
चीनी लोक कथा में उसकी जगह ड्रैगन है। किरीटी तरु के संपूर्ण शब्द-चित्र से मनुष्य
जाति के उस प्राचीन जीवन का बोध होता है, जिससे हो कर हम आज आधुनिक युग तक
पहुँचे हैं। मुश्किल है कि इतने विकास के बावजूद आधुनिकता साधे नहीं सध रही है।
राजा के सभी कलावंत असफल हो चुके हैं। 'असाध्य वीणा' में राजा का 'मेरे
कलावंत´ की श्रेणी में हम ऐसे सभी कलाकारों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों,
तकनीकविदों और विशेषज्ञों को शामिल कर सकते है, जो किसी न किसी रूप
में सत्ता का अंग होने की वजह से आत्मदर्प से भरे है :
मेरे
हार
गए
सब
जाने-माने
कलावंत
सबकी
विद्या
हो
गई
अकारथ
,
दर्प
चूर
,
कोई
ज्ञानी
गुणी
आज
तक
इसे
न
साध
सका
अब
यह
असाध्य
वीणा
ही
ख्यात
हो
गई
एक लंबी कविता की रचना के पीछे कई प्रेरणाएँ काम करती हैं। इसलिए ऐसी कविता
को, खासकर 'असाध्य वीणा' को किसी एक अर्थ में नहीं बाँधा जा सकता। इस कविता की कई
व्याख्याएँ हुई हैं। इसमें ऐसे दोष भी निकाले गए हैं कि पेड़ के कोटर में भालू कैसे बस
सकते हैं, कोटर में तो पक्षी बसते हैं। हमारे सामने मुख्य समस्या कविता
के अर्थपूर्ण संगीतात्मक प्रवाह, नाटकीयता और शब्दों के बीच की नीरवताओं को
समझने की है। ऐसी कविताओं में अर्थ की परछाइयों को पहचानते समय अकसर कवि के
अभिप्राय को एक चौकोर व्याख्या में बाँध दिया जाता है। यह व्याख्या कविता से किसी
खुले साहित्यिक इंटरैक्शन की देन नहीं होती, बल्कि एक ऐसी कलात्मक या
राजनीतिक अवधारणा से संचालित होती है, जो संकीर्ण हो सकती है। 'असाध्य वीणा' को
अनुभूति की वैयक्तिकता की देन, व्यक्तित्व की खोज, आधुनिक परिवेश के साथ
समझौते का सूचक, हिंदू चेतना की उपज, ऐसा ही बहुत कुछ कहा गया है, जबकि इसे
आधुनिकीकरण के 'क्रिटीक' के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।
हर्बर्ट मार्क्यूज ने 'वन डाइमेंशनल मैन' (1964) में बताया है कि औद्योगिक समाज
किस तरह अपने लोभनीय उपकरणों से मानवीय अंत:करण को वस्तु-उन्मुख बना देता है,
मूल्यों की जगह भौतिक जरूरतें प्रधान हो जाती हैं। एक ऐसा तकनीकी बुद्धिवाद
विकसित होता है, जो आदर्शवादी संस्कृति का निषेध करता है। शांति और सत्ता,
स्वतंत्रता और सत्ता, इरॉस और सत्ता एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं। सत्ता हर
अच्छाई को खा जाना चाहती है। बीसवीं सदी में आधुनिकीकरण उत्पादक भूमिका के साथ
विध्वंसात्मक भूमिका भी निभा रहा था। 60-70 के दशक की केंद्रीय चिंता यह थी कि
मनुष्य एकायामी होता जा रहा है। वह यांत्रिक होता जा रहा है और 'वस्तु' में
बदल रहा है। इसलिए 'असाध्य वीणा' के प्रियंवद का मानवीय अंतर्जगत और संपूर्ण
चराचर सृष्टि को महत्व देना वस्तुत: उस इतिहास, बुद्धिवाद और यंत्रीकरण का निषेध
है, जो मनुष्य का शत्रु होता जा रहा था। यह ज्ञान को महज तकनीकी ज्ञान न मान कर
उसे मानवीय तर्कों और मूल्यों से जोड़ने की कोशिश भी कही जा सकती है।
प्रियंवद सच्चा स्वर-साधक था। वह सबसे पहले राजा के इस कथन का विनम्रतापूर्वक
प्रत्याख्यान करता है कि वह कोई कलावंत या स्वरसिद्ध है -- 'कलावंत नहीं,
शिष्य, साधक हूँ।' उसने वाद्य उठा कर गोद में रख लिया और उस पर मस्तक टेक
दिया। वह मौन था, 'मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा -- / नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा
था।' उसका मौन 'वस्तुओं' के बीच 'मूल्यों´ के लिए जगह बनाना है। यह निरी चुप्पी
नहीं है, क्योंकि हम प्रियंवद को विशाल किरीटी तरु से आंतरिक संवाद करता हुआ
पाते हैं। वह संवाद तभी कर पाता है, जब अपने अहं का विसर्जन कर आत्मलीन होता
है। वीणा प्रियंवद की गोद में नहीं है, खुद प्रियंवद वीणा और इसके माध्यम से
किरीटी तरु और अखंड चराचर सृष्टि की गोद में मोद भरे बालक-सा बैठा है। वह दूसरे
कलावंतों की तरह सिद्ध नहीं है, साधनावस्था में है। उसे न कोई अहं है और न उस
पर इतिहास, बुद्धिवाद और यांत्रिक नैतिकता का दबाव है। आधुनिक कलावंतों की तरह
वह टाइम को पैसे में नहीं आँकता, बल्कि टाइम की गहराई में जाता है। उसके लिए
'टाइम इज मनी´ का कोई अर्थ नहीं है -- आया, परफार्म किया, डालर लिया और चल
दिया! प्रियंवद एक भिन्न तरह का कला-साधक है। इसलिए जब वीणा पर झुके काफी समय बीत
गया, बात-बात पर समय देखनेवाले कलाप्रेमी एक अपरिचित दृश्य देख कर सोचते हैं, सभा चकित थी --
अरे, प्रियंवद क्या
सोता है ?
प्रियवंद का संबंध सीधे किरीटी तरु के उस विराट संसार से स्थापित हो रहा था, जो
विरुद्धों में सामंजस्य से बना था। ये भिन्नताएँ ही हैं, जिनमें सौंदर्य और
अर्थ होता है, अन्यथा आज जिस म्यूजिक को ग्लोबल कहा जा रहा है, वह पश्चिम का
पॉप म्यूजिक है। संगीत में ऐसा कुछ नहीं हो सकता जो ग्लोबल हो, क्योंकि कोई भी
विश्व संगीत हमेशा भिन्नताओं में एकात्मता स्थापित करके ही बन सकता है। 'असाध्य
वीणा' में अनगिनत संगीतात्मक रूप हैं, जो सुंदर जीवन दृश्य बनाते हैं। इस
दृश्यमान संसार में खद्योत और झिल्ली-दादुर एक साथ हैं। विद्युत-भरी वर्षा की
पट-पट और रात में महुए का चुपचाप टपकना एक साथ है। पर्वतीय गाँव के उत्सव-ढोलक
की थाप और हाथियों का चिंघाड़ एक साथ है। ओस-बूँद की ढरकन और चट्टानों का टूट
कर गिरना एक साथ है। वहाँ सायँ-सायँ है तो मृगों की चौकड़ियों की मधुर लय भी है।
वहाँ साधारण और उदात्त दोनों हैं और उनमें अखंडता है। किरीटी तरु की अनहद
नादमय संसृति एक अलग जीवन के चित्र लाती है। वहाँ भिन्नताएँ हैं, विशिष्टताएँ हैं
और एक अखंडता भी है। प्रियंवद प्रकृति की इसी विराट संसृति में तल्लीन होता है।
यह ध्यान में रखना होगा, इस संसृति में पर्वतीय गाँव के आम लोग शामिल हैं :
ओ
विशाल
तरु
!
शत-सहस्र
पल्ल्वन
पतझरों
ने
जिसका
निज
रूप
सँवारा
कितनी
बरसातों
कितने
खद्योतों
ने
आरती
उतारी
दिन
भौंरे
कर
गए
गुंजरित
रातों
में
झिल्ली
ने
अनथक
मंगल-गान
सुनाए
***
हाँ
,
मुझे
स्मरण
है
बदली-कौंध-पत्तियों
पर
वर्षा-बूँदों
की
पट-पट
घनी
रात
में
महुए
का
चुप-चाप
टपकना
चौंके
खग-शावक
की
चिहुँक
शिलाओं
को
दुलराते
वन-झरने
के
द्रुत
लहरीले
जल
का
कल-निदान
कुहरे
में
छन
कर
आती
पर्वती
गाँव
के
उत्सव-ढोलक
की
थाप।
***
मैं
नहीं
,
नहीं
!
मैं
कहीं
नहीं
!
ओ
रे
तरु
!
ओ
वन
!
ओ
स्वर
-
संभार
!
नाद-मय
संसृति
!
आ
,
मुझे
भुला
;
***
तू
उतर
बीन
के
तारों
में
अपने
को
गा
अपने
से
गा -
अपने
खग-कुल
को
मुखरित
कर
यहाँ महज प्रकृति नहीं है, एक संसृति है। एक पूरा संसार है, जहाँ पर्वत, नदी-नाले,
पशु-पक्षी, ग्रामीण लोगों का जीवन सभी मिल कर एक संगीत बनाते हैं। संगीत
खुद एक अनथक यायावर है, जो भौगोलिक, भाषायई, राजनीतिक और सांस्कृतिक
सीमारेखाओं को तोड़ देता है। इस संसार में 'स्थानीय' और 'वैश्विक' का विभाजन नहीं होता।
प्रियंवद के लिए संगीत जितना आत्मदर्शन है, उतना ही विश्व-दर्शन भी। वह खुद संसार
के जल, मिट्टी, चट्टान, लोक जीवन, तर्क, सत्य और मानवता से बना है। आज यह
देख कर अच्छा लग सकता है कि प्रियंवद एक उदासीन, आत्मलिप्त या आत्ममगन
व्यक्ति नहीं है। वह अपने 'मैं की स्वभूमि´ को बचा कर संपूर्ण संसृति से अपना रिश्ता
जोड़ता है। वह साधारण और महत्तर दोनों को अपनाता है।
अज्ञेय 'असाध्य वीणा' में आधुनिकीकरण के बरक्स संगीत को एक रूपक बना देते हैं।
वह संगीत से आधुनिक जीवन का एक ऐसा यूटोपियन संसार रचते हैं, जिसमें अहं,
कटुता, द्वेष, हिंसा, खुदगर्जी और यांत्रिकता नहीं है। उन्हें जो समाज में नहीं मिला, वह
उन्होंने प्रकृति के संगीत में खोजा, कहना चाहिए, उसका स्वप्न देखा।
हम जानते हैं, प्रकृति अंतर्विरोधों से भरी जगह है, जहाँ इतिहास की तरह अस्तित्व के
लिए अंधा हिंसक संघर्ष होता है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।
इतिहास, बुद्धिवाद और टेक्नोलॉजी प्रकृति पर विजय हासिल कर उसका स्वामी बनना
चाहते हैं। ये निश्चय ही मनुष्य के भौतिक अभाव कम करते हैं, आधुनिकीकरण लाते
हैं, स्वतंत्रता लाते हैं, पर व्यक्ति के अंतर्जगत को खोखला भी करते जाते हैं। इतिहास
प्रकृति का निषेध है, पर इतिहास प्रकृति से ज्यादा बेहतर जगह नहीं बन
पाया, क्योंकि उसका संचालक एक ऐसा बुद्धिवाद है, जो अब महज तकनीकी बुद्धिवाद में
सीमित है।
'असाध्य वीणा' का संगीत जीवन से विच्छिन्न नहीं है। उसकी जड़ें उस किरीटी तरु में
हैं, जो एक विविधतापूर्ण जीवन संसार का रूपक है। इस कविता में जीवन की इतनी
विविधता है और सौंदर्य के इतने रूप हैं कि ये आधुनिकीकरण द्वारा लाई जा रही
एकरूपता के सामने चुनौती-से दिखते हैं। प्रियंवद द्वारा अनुभव किए जा रहे संसार
की खूबी है कि यह विविधता के बावजूद अंतर्विरोधों से मुक्त है। ऐसा लगता है कि
कबीर की उलटबाँसी 'ठारे सिंह चरावै गाई' एक जादुई यथार्थ की तरह उपस्थित है।
विविधता में अखंडता एक बड़ी समस्या है, खासकर भारत जैसे देशों के संदर्भ में।
प्रियंवद एक सृजनशील कलाकार है। उसका संगीत यह संदेश देता है कि यदि सृजनशीलता
है, तो विविधता समस्या नहीं है। सृजनशीलता हो तो कट्टरवाद भी नहीं होगा। इसलिए
मनुष्य जीवन में सृजनशीलता जरूरी है और इसके लिए बौद्धिक स्वतंत्रता जरूरी है।
'असाध्य वीणा' में साधारण प्रकृति वर्णन नहीं है। प्रकृति संसृति के महानाद के साथ है।
यह 'दूसरी प्रकृति' है। यह कवि के भीतर की स्वयंरचित प्रकृति है, जहाँ
बुद्धि विरुद्धों के बीच सामंजस्य का एक भिन्न नतीजा ले आती है। यह बुद्धि अहं,
भेदभाव और यांत्रिकता को मिटा कर एक अभिनव वातावरण बनाती है। आधुनिकता ने एक
समय तर्कबुद्धि (रीजन) को धर्म, समाज, राजनीति, विज्ञान सारी चीजों के केंद्र में
स्थापित कर दिया था। अज्ञेय आधुनिकता की इस देन से विमुख नहीं हैं। वह
सिर्फ तकनीकी बुद्धिवाद और 'रेशनल एनिमल' की अवधारणा का विरोध करते हैं। हम
देख सकते हैं कि वह 'रेशनलिटी' को मनुष्यता के बड़े उद्देश्यों से जोड़ना चाहते
हैं। उनकी 'रेशनलिटी' मानवीय अंत:करण का संहार करनेवाली नहीं है, उसे समृद्ध
करनेवाली है। इस 'रेशनलिटी' को एक जगह विवेक के रूप में उपस्थित करते हुए अज्ञेय
कहते हैं, 'विवेक के सामर्थ्य भर जो मुझे सत्य दिखता है, उस पर आचरण करना
चाहता हूँ और उसके लिए जो दंड मिलता है, उसे भोगने के लिए तैयार हूँ।' (केंद्र और
परिधि)। आधुनिकता का एक तकाजा है मतादर्श के लिए दंड भोगने को हमेशा तैयार
रहना, जबकि उत्तर-आधुनिक आदमी का लक्ष्य है मतादर्श बेच कर मजा खरीदना।
निश्चय ही अज्ञेय 'असाध्य वीणा' में किरीटी तरु के मिथकीय लोक में ले जा कर
वस्तुत: यूटोपिया की रचना कर रहे होते हैं, जो तर्कातीत है। हर मिथक एक लोक
विश्वास पर आधारित होता है, वह तर्कातीत होता है, पर उसमें कोई एक सार्वभौम सच
की अनुगूँज होती है। 'असाध्य वीणा' का मिथकीय लोक आधुनिकीकरण के संकट के
परिदृश्य में प्रेम, भेद में अभेद और जीवन के अकृत्रिम उल्लास का जो संदेश देता है,
वह नि:संदेह बुद्धि-प्रसूत है, यह सच्चे आधुनिक विवेक की देन है।
अज्ञेय के व्यक्ति-स्वातंत्र्य का अर्थ बौद्धिक स्वतंत्रता है, जिसके बिना मानवीय
सृजनात्मकता संभव नहीं है। उन्होंने 'स्मृति लेखा' में कहा है कि प्रेमचंद
ने नैतिक मानव को अपने साहित्य का विषय बनाया है। वह यह बात प्रेमचंद की
सराहना में नहीं कहते हैं, उनकी सीमा उजागर करने के लिए कहते हैं। वह नैतिक मानव की
जगह स्वातंत्र्यकामी मानव की अवधारणा ले कर चल रहे थे। आधुनिकतावादी लेखक
'नैतिक' और 'अनैतिक' की जगह 'वैयक्तिक' को प्रधानता देते हैं। समाज की जगह व्यक्ति
ज्यादा महत्वपूर्ण विषय हो जाता है। साहित्य प्रातिनिधिक की जगह आत्मसंदर्भात्मक
हो जाता है। ऐसे खास समय में अज्ञेय जैसे लेखकों का जो साहित्य आया, उसे आज
किस तरह देखा जाए, यह एक समस्या है। उनकी प्रयोगशील कविताओं ने एक समय
विचारोत्तेजना पैदा की थी और वे नकारी भी गई थीं। आज इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए,
यदि कहा जाए कि उनमें समाज व्यवस्था की एक न एक स्तर से आलोचना है। यह
आलोचना व्यक्ति की अनुभूतियों के स्तर से है। व्यक्ति आधुनिकीकरण के निर्मम,
भेदभावमूलक और यांत्रिक परिवेश में अपनी पहचान खोने लगा था। वह अपने 'आत्म'
स्तर पर ही कुछ सोच और सृजन कर पा रहा था। इस मामले को एक सामाजिक परिघटना के रूप
में पहचानना चाहिए। हम देख रहे हैं कि सामुदायिक झुंड और बाजार में 'व्यक्ति'
विलुप्त हो गया है, जबकि आज उसकी बेहद जरूरत है।
अज्ञेय को इतिहास 'राख का ढेर' और एक निर्मम स्थान लगता है। वह इतिहास को
नहीं, स्मृति को चुनते हैं। उनका स्मृति से दोहरा रिश्ता है। वह एक कारागार है और
वह सुरंग भी है। अज्ञेय ने 'अरे यायावर रहेगा याद' और 'एक बूँद सहसा उछली' जैसे
संस्मरण ग्रंथ लिखे हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि स्मृतियों से उन्हें
परहेज है और उन्होंने इनका सृजनात्मक उपयोग नहीं किया है। वह इतिहास के सिर्फ
अनुक्रम और तर्कवाद को अस्वीकारते हैं, क्योंकि इसे एकायामी, एकरेखीय और
निर्धारणवाद की कठोरता से भरा पाते हैं। वह इतिहास को राष्ट्रीय आत्मछवि के रूप में
नहीं देख पाते, क्योंकि 'राष्ट्र' उन्हें धीरे-धीरे एक कठोर जगह में
बदलता दिखता है। वह वर्तमानता को सबसे अधिक महत्व देते हैं। इसलिए उनकी
स्मृति में वे ही दृश्य हैं, जो अपूर्व जगमगाते क्षण में कीलित हो गए हों। पेड़ से
झरता पत्ता नीचे न गिर कर एक हरी डाल पर अटक जाता है। यह एक अंत है, पर
एक ऐसी प्रक्रिया भी है, जिसमें अंत नहीं है। यह बिंब अज्ञेय को बड़ा प्रिय था --
झरना
:
झरता
पत्ता
हरी
डाल
से
अटक
गया
अज्ञेय की कविता में चीजें उनकी मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों में ढल कर आती
हैं। हर रूप एक स्वतंत्र इकाई है, पर हर रूप का दूसरे रूप से एक लयात्मक
संबंध है। इतिहास और भविष्य भी कवि-संवेदना की निजी संरचना में उपस्थित होते हैं,
वे स्वतंत्र चीजें नहीं हैं। इसलिए अनुभूति की तत्क्षणता का बहुत ज्यादा
महत्व है। यह व्यक्ति-स्वातंत्र्य को महत्व देना है। अज्ञेय के लिए अर्थ सागर में नहीं,
मछली में है, इसकी जिजीविषा में है। इसी के बल पर मछली सागर के अनंत
परिवेश में जीती है और उसे जानना चाहती है। उसकी सारी गति सागर में है, इसके
बाहर उसका अस्तित्व नहीं है। इसलिए उसके जीवन का निजी अर्थ भी अंतहीन सागर के
भीतर है। उसके होने का अहसास सागर ही देता है - देता है सीमाहीन
अवकाश / जानने का हमारी
गति को । यह अज्ञेय के व्यक्ति-मन की 'मछली´ है,
जो आधुनिक परिवेश में जी रहे मध्य वर्ग की अकुलाहट को व्यक्त करती है।
अज्ञेय की कविता में एक दार्शनिक टोन है, भले वह कविता को दर्शन में नहीं पहुँचाते।
आधुनिक लेखकों के लिए स्मृति एक बड़ी समस्या रही है -- किसे चुनें और किसे छोड़ें।
एक वैयक्तिक स्मृति है और एक राष्ट्रीय स्मृति है। व्यक्ति की सारी
स्मृतियाँ वैयक्तिक नहीं होतीं। इसी तरह एक तरफ विकृत स्मृति है, दूसरी तरफ
स्मृति-ध्वंस है। अज्ञेय 'संवत्सर' (1978) में लिखते हैं, 'सांस्कृतिक
स्मृति-भ्रंश के कारण हमारे अनुभव का क्षेत्र संकुचित और हमारा अनुभव शिथिल और
निर्जीव होता जाता है। यह जानी हुई बात है कि स्मृति का विघटन बुद्धि और
व्यक्तित्व के नाश का कारण बनता है।' यही वजह है कि 'असाध्य वीणा' में प्रियंवद
बार-बार दोहराता है, 'मुझे स्मरण है ... मुझे स्मरण है ! ' इसका यह अर्थ नहीं
है कि अज्ञेय पुनरुत्थानवादी हैं। इसके विपरीत वह बुद्धिपरकता को महत्व देते हैं। वह
सनातनता की तलाश करते हुए स्मृति की विकृति का प्रश्न उठाते हैं,
'स्मृति की विकृति का एक पहलू है काल की प्रतीति का असंतुलन।।' स्मृति में विकृति
काल के एकाधिक आयामों के एक साथ अनुभव की अक्षमता का नतीजा है। मनुष्य का
कोई भी सच्चा अनुभव एकायामी या एककोणीय नहीं हो सकता। कालबोध सीमित या
एकायामी हो जाने पर मनुष्य की स्मृति संकुचित, विकृत या सांप्रदायिक होगी। अज्ञेय एक
तीसरी चीज कहते हैं, 'इतिहास के आधार पर काल का पुनर्निर्माण नहीं किया जा
सकता। (वही)। वह मानते हैं, 'इतिहास केवल एक चक्की रह गया है, जिसमें अतीत को
निर्विवेक ढंग से पीसा जा रहा है।' 'असाध्य वीणा' में स्मरण को, स्मृति को इतना
महत्व देने का एक अर्थ है 'इतिहासवाद की निरर्थकता स्थापित करना, आज के
संदर्भ में भले वह सामुदायिक इतिहासवाद ही क्यों न हो।
आधुनिकीकरण का एक दूसरा निर्मम रूप पूँजीवाद का उत्थान, औद्योगिक विकास और
यंत्रीकरण है। इसे ले कर एक समय वे यूरोपीय बुद्धिजीवी भी काफी चिंतित थे, जो
मार्क्सवादी न थे। यह सही है कि उनका झुकाव 'परिवर्तन' की तरफ न हो कर 'संकट'
को उजागर करनेवाले कलात्मक बौद्धिक प्रयोगों की तरफ था। वे इन प्रयोगों के जरिए
अमानवीय आधुनिकीकरण से अपनी असहमति व्यक्त करते थे। हम जानते हैं कि आज
साइबर संसार ने उत्तर-आधुनिक जीवन को पहले से अधिक अमानवीय, यांत्रिक और अतिपरिपक्व
बना दिया है और एक वैकल्पिक सभ्यता की जरूरत बढ़ा दी है।
अज्ञेय आधुनिकीकरण के निर्मम रूपों का विरोध करते हुए पश्चिम के प्रति कितना
खुला रुख रखते हैं, यह उनका यात्रा वृत्तांत 'एक बूँद सहसा उछली' पढ़ कर पता चल
सकता है। उनका मिजाज सार्वदेशिक है। वह भारतीय सनातनता और पश्चिमी खुलेपन
को परस्पर विरोधी चीजों के रूप में नहीं देखते। उन्होंने 'यूरोप की अमरावती : रोमा'
में पश्चिमी सभ्यता के संकट को पहचाना। उन्हें इटली घूमते हुए पश्चिम का आदमी
कुछ ऐसा लगा -- अंगारे-सा, भगवान-सा अकेला । उनके वर्णन में ऊष्मा,
आवेग के साथ अनुभव का तीखापन भी है। पश्चिमी देशों की अधिक यात्रा के कारण
वह अधिक नजदीक से आधुनिकीकरण का अत्याचार देखते हैं, 'मशीन ऐसा हावी हो गई है कि
वह व्यक्ति को ही कुचल दे रही है। वह अपने को अधिकाधिक नगण्य पाता हुआ दौड़
रहा है, दौड़ रहा है और दौड़ता हुआ भी क्रमश: और नगण्य होता जा रहा है। अस्तित्ववाद
के नाम पर यूरोप में जो कुछ आया, सब स्वस्थ नहीं था, पर जो स्वस्थ था, उसके
मूल में इसी अकिंचनत्व का साहसपूर्ण साक्षात्कार था और मानव की इस परिस्थिति से
उबरने के मार्ग की खोज।' (संवत्सर) अज्ञेय पश्चिमी चिंतकों में सार्त्र की जगह कार्ल
यास्पर्स को अपने अधिक नजदीक पाते हैं, जिसने यह कह कर आधुनिक मनुष्य की
निस्सहायता का चित्र खींचा था कि उसके पास वरण की स्वतंत्रता नहीं है।
आज के समय में आदमी की नगण्यता बढ़ी है। वह आज कुछ भी चुनने के लिए
बाजार का पहले से अधिक गुलाम है। यह नहीं कहा जा सकता कि 'असाध्य वीणा' में इस स्थिति से
उबरने का कोई स्पष्ट मार्ग है। उसमें एक चीज जरूर है, प्रियंवद दूसरे कलावंतों की
तरह हारने की जगह अपनी पहचान की खोज करता है। वह एक कोशिश करता है। वह
इतिहास के दर्प, 'टाइम इज मनी' की विचारधारा और उत्तर-औद्योगिक यांत्रिकता से
अपने को बचाता है। वह अपनी सांस्कृतिक आत्मा के नगर की विराटता को पहचानना
चाहता है। आधुनिक जमाने में दो किस्म की आधुनिकताएँ थीं -- सर्वग्रासी आधुनिकता
और संरक्षणशील आधुनिकता। हम देखते हैं कि प्रियंवद का आत्मबोध या अस्मिताबोध
आधुनिकीकरण के उस जटिल समय में एक प्रतिरोध है। वह कुछ बचाना चाहता है।
अज्ञेय ने प्रश्न किया, 'क्या यह अनिवार्य है कि हम जैसे-जैसे काल को पहचानते चलें,
वैसे-वैसे सनातन को गँवाते चलें ?' (वही) । प्रियंवद विविधता और अखंडता में रिश्ता
पैदा कर असाध्य वीणा को ही नहीं साधता, बल्कि सनातन को भी पुनरुपलब्ध करता
है। यह आधुनिकता को मानवीय बनाने की जरूरत बताना हुआ। यह समस्या का
यथार्थवादी समाधान नहीं है, पर 'सेल्फ-अवेयरनेस' का चिह्न जरूर है। अज्ञेय ने 'स्मृति
लेखा' में प्रेमचंद पर लिखते हुए कहा था, 'साहित्यकार विपरीत परिस्थितियों में पूरे
समाज की जागृत आत्मा का काम करता है।' अज्ञेय का साहित्य आधुनिक चेतना के
अंतर्विरोध का उद्घाटन करता है, यह समझने की जरूरत है।
आधुनिकीकरण ने राज्य संगठन को मजबूत बनाया, राज्य और जनता के बीच दूरी पैदा
की। राज्य सत्ता का केंद्र बनता गया एवं औजार भी। यह राजनीतिक वजन से भारी होता
गया। 'असाध्य वीणा' में हम पाते हैं कि वीणा के सहसा झनझना उठने के बाद राजा
पर व्यापक असर पड़ा। यह साधारण संगीत न था। प्रियंवद के अनस्पर्श छुअन ने सिर्फ
वीणा को नहीं, एक अखंड संसृति को ध्वनित कर दिया था। इस संगीत से जैसे मनुष्य
जाति के सांस्कृतिक अचेतन का कोई महान आद्यबिंब व्यक्त हो रहा हो। यह आत्मबोध
था, मानो मनुष्य की सामाजिक चेतना की परतों में छिपा अविभाज्य महामौन गा रहा हो,
अवतरित हुआ संगीत
स्वयंभू / जिसमें होता है
अखंड ब्रह्मा का
मौन / अशेष प्रभामय । इस संगीत ने युग पलट दिया :
राजा
जागे
. . .
राज-मुकुट
सहसा
हलका
हो
आया
था
,
मानो
हो
फूल
सिरिस
का
ईर्ष्या
,
महदाकांक्षा
,
द्वेष
,
चाटुता
सभी
पुराने
लुगड़े
से
झर
गए
,
निखर
आया
था
जीवन-कांचन
धर्म-भाव
से
जिसे
निछावर
वह
कर
देगा
राजमुकुट का हलका होना तंत्र का जन में बँट जाना है। यह उस जनतंत्र के ढकोसले का
मिटना है जहाँ ईर्ष्या, द्वेष, असीमित महत्वाकांक्षा और चाटुकारिता ही
राजनीतिक मूल्य हैं। महसूस किया जा सकता है कि आधुनिक युग में राजनीति के
जीवन पर ज्यादा छा जाने की वजह से, जीवन में जीवन को थोड़ा भी बचाना निरंतर मुश्किल
हो गया । राजनीति को जीवन के हर कोने में न घुसने देने की राजनीति अब नहीं है।
वीणा के संगीत से राजनीति के सभी बुरे तत्व लुगड़े से झर गए। जीवन का सोना तप
कर निखर आया। इस जगह धर्म भाव वस्तुत: एक उच्चतर मूल्य बोध है, यह किसी
सांप्रदायिक अर्थ में नहीं है। हर अन्वेषण एक परिवर्तन है। अज्ञेय का अन्वेषण मनोजगत
में परिवर्तन है। वह मनोजगत का महत्व स्थापित करना चाहते हैं। दुनिया तेजी से
बदल रही है। आदमी का मन कितना बदल रहा है ? यह प्रश्न कम महत्वपूर्ण नहीं है।
रानी पर भी वीणा के संगीत का असर हुआ। उसे इसका अहसास हो गया कि उसकी ज्वेलरी, कृत्रिम भौतिक
इच्छाएँ सब अंधकार के कण
हैं ये / आलोक एक / प्यार
अनन्य ! / उसी
की विद्युल्लता घेरती
रहती है रस-भार
मेघ को ।' विद्युत और बादल का अनन्य हो जानेवाला प्रेम ही
अज्ञेय का चरम जीवन मूल्य है। उनके लिए प्रेम
एक सृजनशील आत्मविस्तार है। यह एक संगीत में अपने को खो देना है। यह
'कृत्रिमता' की जगह 'गहनता' को चुनना है। आधुनिक समाज तेजी से दमन और हिंसा की जगह बनता
जा रहा है, 'असाध्य वीणा' का संगीत हर तरह के आतंकवाद से मुक्ति का आश्वासन
बनता है। यह देखने की चीज है कि इस संगीत का सभी पर अलग-अलग असर पड़ा, जिस तरह
कविता हर पाठक पर अलग-अलग असर डालती है।
वीणा का संगीत इकहरा नहीं है, अनेकरूपात्मक है। अज्ञेय जब इसका चित्र खींचते हैं,
कविता और जीवन के बीच बहुत दूरी नहीं रह जाती। यह कहीं बटुली में बहुत
दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू है। नागार्जुन की यह पंक्ति देखिए, दाने
आए घर के
अंदर बहुत दिनों
के बाद । यह कहीं जाल में फँसी मछली की तड़पन
है, कहीं नभ में उड़ती चिड़िया की चहक है, कहीं लंगर पर कसमसा रही नौका पर
लहरों की अविराम थपकियाँ हैं। यह कहीं मंडी में ग्राहकों की स्पर्धा भरी बोलियाँ
हैं, तो कहीं लुहार द्वारा लोहे पर चोट है। यह कहीं जीवन की पहली अँगड़ाई है, कहीं
मृत्यु है। मृत्यु भी एक संगीत है। इस तरह कई जगहों के स्वर से यह संगीत
बना है। इसके विस्तार को देखते हुए नहीं लगता कि अज्ञेय किसी रहस्यमय संगीत की
बात कर रहे हैं। यही लगता है कि वे अपने समय की अराजक व्यवस्था में एक सहज,
उन्मुक्त और प्रेम-भरे जीवन की कामना कर रहे हैं। यह सृष्टि और समाज के भीतर
जो भी सारमय छिपा-दबा-शब्दहीन है, उसका अन्वेषण है। राजा का, सत्ता का अभिवादन
के लिए बढ़ा हाथ रोकता हुआ प्रियंवद कहता है --
श्रेय
नहीं
कुछ
मेरा
:
मैं
तो
डूब
गया
था
स्वयं
शून्य
में
-
वीणा
के
माध्यम
से
अपने
को
मैंने
-
सब
कुछ
को
सौंप
दिया
था
-
सुना
आपने
जो
वह
मेरा
नहीं
,
न
वीणा
का
था
:
वह
तो
सब कुछ
की
तथता
थी
महाशून्य
वह
महामौन
अविभाज्य
,
अनाप्त
,
अद्रवित
,
अप्रमेय
जो
शब्दहीन
सब
में
गाता
है
गौर करने की बात है कि अज्ञेय 'असाध्य वीणा' को अपनी मुख्य शैली की कविता नहीं
मानते थे। वह इसे उसी तरह हाशिए पर रखते थे, जिस तरह 'शेखर : एक जीवनी' को रखा
था। उन्हें अपनी छोटी कविताएँ पसंद थीं। इस लंबी कविता में विराट से विराट की
आवाज के साथ लघु से लघु की आवाज को समेटते हुए जो उदात्तता है, वह एक समय अवसाद
से भरे अज्ञेय को बहुत नजदीक की चीज नहीं लगती होगी। इस कविता में साधना की,
प्रयत्न की महत्ता है, जबकि अज्ञेय ने आम तौर पर अपने को स्वयंसिद्ध मान लिया
था। इसके अलावा, एक अन्य उल्लेखनीय बात यह है कि 'असाध्य वीणा' में
आधुनिकताबोध की पीड़ा से अधिक आधुनिकताबोध का उल्लास है। आधुनिकीकरण की आलोचना के बरक्स यह
उल्लास भले यूटोपियन अर्थ रखता हो, फिर भी भिन्नताओं में एकात्मता के अन्वेषण
के संदर्भ में उसका महत्व समझा जाना चाहिए। यदि 'असाध्य वीणा' को ले कर एक
संगीतात्मक काव्य नृत्य बने, क्योंकि कविता एक पाठ के अलावा किसी बिंदु पर
'परफॉर्मेंस' भी है, ऐसा नृत्य कई अर्थ खोल सकता है।
अज्ञेय के आत्मान्वेषण की सीमा यह है कि उसमें कहीं भटकन नहीं है। वह हमें
उद्विग्न नहीं करता, बल्कि 'कंफोर्टेबल' लगता है। हमें मंजिल का पता चलता है, पर
यह कहीं स्पष्ट नहीं होता कि कवि किस राह से चला था और उसे कैसे-कैसे कड़वे-मीठे
अनुभवों या बाधा-विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उसने अपना निजी जीवन लगभग
रहस्यमय बना कर रखा। आत्मजीवनी जैसा कभी कुछ नहीं लिखा, कभी कुछ ज्यादा
नहीं खोला। कवि जैसे पाए हुए जीवन सत्य को ही बार-बार खोजता है, वह अपनी काव्यानुभूति
में कोई बड़ा प्रस्थान करता दिखाई नहीं देता। यह जरूर है कि अज्ञेय ने यह आवश्यक
समझा कि वह अपने पूर्ववर्ती कवियों, यहाँ तक कि समकालीनों से भी संवेदना और
शैली के स्तर पर अलग दिखें। उनके बारे में कहा जाता है कि वह अनुभूति की
अद्वितीयता के कवि हैं। उनका अनुभव इस अर्थ में अद्वितीय है कि न पहले इसका अस्तित्व
था और न आगे होगा। यह 'व्यक्ति' को महत्ता देना हुआ, खासकर उसकी
सृजनात्मकता को।
कई बार कला अपना लक्ष्य आप होती है। यह देखना होगा कि वह अपने लक्ष्य तक
पहुँचनेवाली राहों को खुला रखती है या नहीं। यदि राहें खुली हैं, उस कला में जीवन की
ओर बढ़ने की संभावना हो सकती है। ऐसी कला कलावाद से बाहर झाँकती है, क्योंकि
वह रूपाकार भर नहीं होती, वह एक जीवनानुभूति भी होती है। 'असाध्य वीणा' के संगीत
का जीवन से अविच्छिन्न संबंध है। दरअसल, आधुनिक लेखकों पर भी सामाजिक
जीवन की घटनाओं का असर रहा है। हम आज देखते हैं, यदि आदमी बुरा है, भ्रष्ट है, उसकी
तुरंत एक लॉबी बन जाती है। वह सच्चा है तो अकेला हो जाता है। इस समाज में कई
बार सच्चा होना अकेला होने का ही एक तरीका है। मनुष्य का अकेलापन एक आधुनिक
सच्चाई है। सवाल है, वह अकेलेपन में क्या चाहता है -- क्या अकेलापन ही ?
अज्ञेय बाहरी जगत की अमानवीयता से टकरा कर अपने 'आत्म' (सेल्फ) के नए रूप की
कल्पना करते हैं, ताकि बाहर की अमानवीय घटनाओं से जन्मी पीड़ा से स्वतंत्र हुआ जा
सके। आधुनिक समाज में विषमता, हिंसा, सामाजिक अन्याय और जीवन की यांत्रिकता
है। इनके विरुद्ध संघर्ष में उतरना एक सामाजिक चेतना-संपन्न व्यक्ति का लक्ष्य
होना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को लग सकता है कि अज्ञेय 'असाध्य वीणा' में एक नकली मनोराज्य बना कर शांत
हो गए, प्रिय पाठक !
यों मेरी वाणी भी /
मौन हुई । यह एक सामाजिक घटना है कि ईमानदार व्यक्ति
को राजनीति कई बार दृश्य से बाहर फेंक देती है। उसे साइड कर दिया जाता है।
सामाजिक बदल की राजनीति में भी आत्मपरकता, चालाकी या क्रूरता आ सकती है, अब इससे
इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसी घड़ी में काफी लोग अपने को अकेला महसूस करते
हैं। सवाल है, इस अकेलेपन के प्रति सम्मोहन है या व्यक्ति क्रिटिकल है और दुनिया के
जीवन से आंतरिक स्तर पर ही सही एक रिश्ते का अनुभव करता है।
अज्ञेय की कविता महानगरीय जीवन में निरंतर अधिक अकेले होते जा रहे लेखक की
कविता है। कवि इस अकेलेपन से उपजी निस्संगता के दर्द का अनुभव करता है। इस दर्द
में ही वह प्रेम करता है, प्रकृति की सुंदरताएँ देखता है, यायावरी करता है और
अप्रदूषित लोक जीवन में संभावनाओं की तलाश करता है। एक महानगरीय कवि की रचनाओं
में लोक शब्दों का बहुतायत से आना एक अर्थ रखता है। यह दिखावा या सायास नहीं
है। 'असाध्य वीणा' में तत्सम-बहुलता के समानांतर चीन्हे, अँधियारा, लुगड़ी,
फुलसुँघनी, ढोल-थाप, पाला, मोमाकी जैसे कई शब्द हैं। अज्ञेय कार्तिक की पूर्णिमा को
'कातकी पूनो' कहते हैं। इस तरह एक आभिजात्यवादी दायरा बनाने के बावजूद वह
जमीन की मिट्टी के प्रति निहायत बेरुखे नहीं हैं। यह भी घटित होता है कि कुछ नया
या भिन्न कहने के लिए अज्ञेय इतने उत्साहित हो उठते हैं कि मौन हो जाते हैं,
'क्या जरूरी है दिखाना तुम्हें वह जो दर्द / मेरे पास है?'
क्या 'रोमांटिसिज्म' बहुत बुरी चीज है ? समाज में जब तक सामंती रूढ़ियाँ और बंधन
हैं, रोमांटिसिज्म की सार्थकता है। यह चिंताजनक है कि वर्तमान समय में
'कंज्यूमरिज्म' ने 'रोमांटिसिज्म' की जगह ले ली है। अज्ञेय यायावर थे। आज के यात्री
पर्यटक हैं, वह भी पैकेज टूर के। कहीं पर्वत शिखर को देखते हुए 'मौन' हो
गए और सन्नाटा बुनने लगे तो टूरिस्ट बस छूट जाएगी। रोमांटिसिज्म अज्ञेय की
ताकत है। यह धारणा सही नहीं है कि अज्ञेय से हिंदी की गैर-रोमांटिक कविता की
शुरुआत होती है। वह पोस्ट-रोमांटिसिज्म के कवि हैं, फिर भी रोमांटिसिज्म का 'उदात्त'
उनके अन्वेषण का एक मुख्य विषय है। उनका मन अस्तित्ववाद के 'ऊलजलूल' की
जगह रोमांटिसिज्म के 'उदात्त' में रमता है। यही वजह है कि वह आधुनिकता की यंत्रणा झेलते हुए अपने
जीवन की तुलना सिगरेट से नहीं करके अगरबत्ती से करते हैं,अपने निवेदन
का धुआँ बन / अपनी
अगरबत्ती-सा मैं
चुक जाऊँगा । अस्तित्ववाद से उन्होंने मानवीय नगण्यता की
पीड़ा से जन्मा 'निषेध' लिया। इतिहास, औद्योगिक सभ्यता और
राज्य सत्ता की अमानवीयताओं का निषेध। वह इस बिंदु पर जरूर रोमांटिसिज्म से
आगे बढ़े। उनके भीतर थोड़ा-बहुत जो टैगोरीय मिजाज था, वह इस जगह टूटता है। ऐसे
बुद्धिजीवियों का यह विश्वास रहा है कि एक अणु-तुल्य निषेध भी उथलपुथल मचाता है
और संसार की नई सृष्टि में योगदान देता है। यह विश्वास अस्तित्व की चेतना
को ताकत देता है। यह खतरों के सामने जाने का साहस पैदा करता है।
एक समय द'गाल के शासन में सार्त्र अत्याचार के विरोध में युवाओं के साथ पेरिस की
सड़कों पर उतर आए थे। अज्ञेय के पास आपातकाल के दौर में 'चुप की दहाड़' थी। यह
जरूर कहा जा सकता है कि वह तानाशाही के राजनीतिक शिविर में कभी नहीं गए।
यह भी एक वास्तविकता है कि अज्ञेय ने टी.एस. इलियट की चर्चा फिजूल छेड़ी, क्योंकि
'निर्वैयक्तिकता' का आदर्श उनसे कविता में भी नहीं निभ सकता था।
युग बदल रहा था। अज्ञेय एक महत्वूर्ण प्रस्थान थे। उन्होंने लोकप्रिय मिथकों से कोई
सरोकार नहीं रखा और अपने अलग मिथक रचे। इनमें कुछ निजी, रहस्यमय या भव्य
थे, फिर भी उनका संबंध आत्मसचेत करनेवाली आधुनिकता से था। उनके लिए सारा
पुराना बेकार न था, जिस तरह सारी आधुनिक चीजें सार्थक नहीं थीं। वह आधुनिकीकरण से
गुजरते नए विश्व में 'व्यक्ति' का खोते जाना देख रहे थे, पर इसे खुद खोना नहीं
चाहते थे। वह व्यक्ति की सृजनात्मकता में उसकी स्वाधीनता देखते थे और इतिहास
या राजनीति की जैसी हालत थी, अकेलेपन में ही मानवीय अखंडता और गरिमा का
एहसास करते थे। वह ऐसा दौर था, जब कविता खुद एक संसार थी। कविता एक जादुई जगह थी और
कवि एक अनोखा द्रष्टा ही नहीं, स्वप्नों को धरती पर लानेवाला स्रष्टा भी था। अज्ञेय
जब अपने कवित्व के शिखर पर थे, उन्होंने इसका एहसास कराया कि धर्म,
इतिहास और राजनीति की विकृतियों के बावजूद कविता अब भी एक सुंदर जगह है,
जहाँ शब्द 'व्यक्ति' को बचाते हैं और स्वाधीनता का बोध देते हैं।
|