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        कबीर 
        के दोहे   
        लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।  
        कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥  
         
         
        बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।  
        राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥  
         
        यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।  
        लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥  
         
         
        अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।  
        के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥  
         
         
        इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।  
        लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥  
         
         
        अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।  
        जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥  
         
         
        सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।  
        और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥  
         
         
        जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।  
        मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥  
         
         
        कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।  
        बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥  
         
         
        सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे ।  
        दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥  
         
         
        परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ ।  
        सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥  
         
         
        पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ ।  
        लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥  
         
         
        हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान ।  
        काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥  
         
        जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ ।  
        धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥  
         
         
        पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई ।  
        आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥  
         
         
        दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ ।  
        हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥  
         
         
        भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।  
        मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥  
         
         
        कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ ।  
        एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥  
         
         
        कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।  
        नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥  
         
         
        कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।  
        गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥  
         
         
        कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत ।  
        जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥  
         
         
        जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।  
        कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥  
         
         
        पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।  
        सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥  
         
         
        कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।  
        कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥  
         
        भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि ।  
        हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥  
         
         
        परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।  
        खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥  
         
         
        परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।  
        दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥  
         
         
        ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।  
        ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥  
         
         
        कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।  
        नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥  
         
         
        कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।  
        राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥  
         
         
        स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।  
        राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥  
         
         
        इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।  
        स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥  
         
         
        ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।  
        उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥  
         
         
        कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।  
        लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥  
         
         
        कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई ।  
        दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥  
         
        कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार ।  
        पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥  
         
         
        तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ ।  
        रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥  
         
         
        चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि ।  
        फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥  
         
         
        कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम ।  
        कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥  
         
         
        सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।  
        तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥  
         
         
         
         
         
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 हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।  
        मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥  
          
        कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।  
        पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥  
         
         
        कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।  
        सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥  
         
        त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।  
        जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥  
         
         
        कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।  
        सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥  
         
         
        कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।  
        सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥  
         
         
        करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।  
        जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 308 ॥  
         
         
        कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।  
        बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 309 ॥
         
         
         
        मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।  
        राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 310 ॥
         
         
         
        पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।  
        सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 311 ॥
         
         
         
        जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।  
        पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 312 ॥
         
         
         
        काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।  
        दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 313 ॥  
         
         
        प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।  
        तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 314 ॥  
         
         
        सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।  
        जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 315 ॥
         
         
         
        खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।  
        देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 316 ॥  
         
         
        साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।  
        जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 317 ॥  
         
         
        तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।  
        कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 318 ॥  
         
         
        जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।  
        सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 319 ॥  
         
         
        जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।  
        राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 320 ॥  
         
         
        कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।  
        हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 321 ॥
         
         
         
        मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।  
        दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 322 ॥
         
         
         
        मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।  
        वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 323 ॥  
         
         
        मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।  
        साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 324॥  
         
        कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ ।  
        दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥  
         
         
        उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।  
        धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 325 ॥  
         
         
        जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।  
        पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 326 ॥  
         
         
        जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।  
        ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 327 ॥
         
         
         
         
        कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।  
        जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 328 ॥  
         
         
        माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।  
        ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 329 ॥  
         
        मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।  
        कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 330 ॥  
  
        कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।  
        नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 331॥  
         
         
        कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।  
        राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 332 ॥  
         
         
        कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।  
        जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 333 ॥  
         
        हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।  
        ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 334 ॥  
         
        काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।  
        बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 335॥  
         
         
        पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।  
        पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 336 ॥
         
         
         
        आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।  
        जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 337 ॥  
         
         
        कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।  
        विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 338 ॥
         
         
         
        कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।  
        कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 339 ॥  
         
         
        मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।  
        जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 340॥  
        
        कबीर -5  
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