| कबीर 
        के दोहे सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
 सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
 
 
 संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
 लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥
 
 
 मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
 भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥
 
 
 दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
 येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥
 
 
 सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
 ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥
 
 
 आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
 हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥
 
 
 आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
 शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥
 
 
 यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
 कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥
 
 
 कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
 सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥
 
 
 साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
 इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥
 
 
 साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
 डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥
 
 
 सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
 जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥
 
 
 आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
 जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥
 
 
 साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
 बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥
 
 
 सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
 कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥
 
 
 हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
 कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥
 
 
 साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
 विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥
 
 
 सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
 ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥
 
 
 चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
 ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥
 
 
 बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
 बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥
 
 
 साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
 बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
 
 
 तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
 सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥
 
 
 जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
 गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥
 
 
 शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।
 क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥
 
 
 गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
 कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥
 
 
 पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
 तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥
 
 
 गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
 कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥
 
 
 मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
 तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥
 
 
 भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
 बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥
 
 
 कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
 मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥
 
 
 बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
 मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥
 
 
 फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
 साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥
 
 
 बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
 दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥
 
 
 धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
 गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥
 
 
 घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
 बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥
 
 
 उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।
 कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥
 
 
 अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
 जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
 
 
 माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
 तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥
 
 
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 माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥
 उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥
 
 
 आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
 यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥
 
 
 सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
 कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥
 
 
 अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
 कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥
 
 
 अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
 उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
 
 
 
 कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय ।
 दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥
 
 
 एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
 कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥
 
 
 कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।
 सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥
 
 
 मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।
 कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥
 
 
 साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।
 कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
 
 
 साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।
 संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥
 
 
 साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।
 कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥
 
 
 गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।
 मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥
 
 
 संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।
 कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥
 
 
 भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।
 सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥
 
 
 तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।
 काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥
 
 
 काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।
 काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥
 
 
 कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।
 मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥
 
 
 मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।
 कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥
 
 
 ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।
 ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
 साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।
 पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
 
 
 ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।
 संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥
 
 
 जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।
 जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥
 
 
 दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।
 कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥
 
 
 जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।
 ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥
 
 
 प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।
 जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥
 
 
 कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।
 विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥
 
 
 सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।
 गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥
 
 
 तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।
 तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
 
 
 मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।
 ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥
 
 
 लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।
 अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
 
 
 साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
 कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥
 
 
 संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
 लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥
 
 
 तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
 संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥
 
 
 साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
 ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥
 
 
 संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
 साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥
 
 
 चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
 ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥
 
 
 सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
 मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥
 
        कबीर -9  |