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        श्री रामलीला 
        
        
        भारतेंदु हरिश्चंद्र 
         
         
         
        अतिरोचक गद्य और पद्य में श्री राम जी की बाल लीला। 
        भारत भूषण भारतेन्दु श्री हरिश्चन्द्र कृत 
         
         
         
         
        जिस को हिन्दी भाषा के प्रेमी तथा रसिकजनों के मनोविलास
        के लिये क्षत्रियपत्रिका सम्पादक म. कु. बाबू रामदीन सिंह ने 
        प्रकाशित किया। पटना-‘खङगविलास’ प्रेस बांकीपुर।
        चंडीप्रसाद सिंह ने मुद्रित किया। 1904 
         
         
         
         
        पद : हरि लीला सब विधि सुखदाई। 
        कहत सुनत देखत जिअ आनत देति भगति अधिकाई ।। 
        प्रेम बढ़त अघ नसत पुन्यरति जिय मैं उपजत आई। 
        याही सों हरिचन्द करत लुति नित हरि चरित बड़ाई ।। 1 ।। 
         
        गद्य : आहा! भगवान की लीला भी कैसी दिव्य और धन्य पदार्थ है कि कलिमल 
        ग्रसित जीवों को सहज ही प्रभु की ओर झुका देती है और कैसा भी विषयी जीव 
        क्यौं न हो दो घड़ी तो परमेश्वर के रंग में रंग ही देती है। विशेष करके धन्य 
        हम लोगों के भाग्य कि श्रीमान् महाराज काशिराज भक्त शिरोमणि की कृपा से सब 
        लीला विधिपूर्वक देखने में आती है। पहले मंगलाचरण होकर रावण का जन्म होता 
        है फिर देवगण की स्तुति और बैकुण्ठ और क्षीरसागर की झाँकी से नेत्रा 
        कृतार्थ होते हैं। फिर तो आनन्द का समुद्र श्री रामजन्म का महोत्सव है जो 
        देखने ही से सम्बन्ध रखता है कहने की बात नहीं है।  
        कवित्त : राम के जनम मांहि आनंद उछाह जौन सोई दरसायो ऐसी लीला परकासी है। 
        तैसे ही भवन दसरथ राज रानी आदि तैसो ही आनन्द भयो दुख निसि नासी है।। 
        सोहिलो बधाई द्विज दान गान बाजे बजै रंग फूल बृष्टि चाल तैसी निकासी है। 
        कलिजुग त्रोता कियो नर सब देव कीन्हें आजु कासीराज जू अजुध्या कीनी कासी है 
        ।। 2 ।। 
        फिर श्री रामचन्द्र की बाललीला, मुण्डन कर्णवेध जनेउ शिकार खेलना आदि ज्यों 
        का त्यों होता है देखने से मनुष्य भव दुख मूल से खोता है। फिर विश्वामित्र 
        आते है संग में श्री राम जी को को सानुज ले जाते हैं। मार्ग में ताड़िका 
        सुबाहु का वध और फिर चरण रेणु से अहिल्या का तारना। अहा! धन्य प्रभु के 
        पदपद्म जिसके स्पर्श से कहीं मनुष्य पारस होता है देवता बनता है कहीं पत्थर 
        तरता है। इस प्रभु की दीन दयाल पर श्री मन्महाराज की उक्ति।  
        दोहे : हम जानी तुम देर जो, लावत तारनमांहि। 
        पाहन हू तें कठिन गुनि, मो हिय आवत नाहिं ।। 
        तारन मैं मो दीन के, लावत प्रभु कित बार। 
        कुलिस रेख तुब चरन हू, जो मम पाप पहार ।। 
        कवि की उक्ति। 
        मो ऐसो को तारिबो, सहज न दीनदयाल। 
        आहन पाहन बज्रहू, सों हम कठिन कृपाल ।। 
        परम मुक्तिहु सों फलद, तुअ पद पदुम मुरारि। 
        यहै जतावन हेत तुम, तारी गौतम नारि ।। 
        एहो दीनदयाल यह, अति अचरज की बात। 
        तो पद सरस वमुद्र लहि पाहन हूं तरि जात ।। 
        कहा पखनहंु ते कठिन, मो हियरो रघुबीर। 
        जो मम तारन मैं परी, प्रभु पर इतनी भीर ।। 
        प्रभु उदार पद परसि जड़, पाहन हूं तरि जाय। 
        हम चैतन्य कहाइ क्यौं, तरत च परत लखाय ।। 
        अति कठोर निज हिय कियो, पाहन सों हम हाल। 
        जामैं कबहूं मम सिरहू, पद रज देहि दयाल ।। 
        हमहूं कछु लघु सिल न जो, सहजहिं दीनी तार। 
        लगि है इत कछु बार प्रभु, हम तौ पाप पहार ।। 
        फिर श्री रामचन्द्र जी सानुज जनकनगर देखने जाते हैं। पुरनारियों के मन नैन 
        देखते ही लुभाते हैं। 
        कवित्त : कोऊ कहै यहै रघुराज के कुंअर दोऊ कोऊ ठाढ़ी एक टक देखै रूप घर मैं। 
        कोऊ खिरकीन कोऊ हाट बाट धाई फिरै बावरी ह्नै पूछै गए कौन सी डगर मैं ।। 
        हरीचन्द झूमै मतवारी दृग मारी कोऊ जकी सी ठगी सी थकी सी कोऊ खरी एकै थर 
        मैं। लहर चढ़ी सी कोऊ जष्हर मढ़ी सी भई कहर पड़ी है आजु जनक सहर मैं ।। 12 ।। 
        फिर श्री राम जी फुलवारी में फूल लेने जाते हैं। उस समय फुलवारी की रचना, 
        कुंजो की बनावट कल के भौरों का नाचना, और चिड़ियों का चहकना यह सब देखने ही 
        के योग्य है। 
        इतने में एक सखी जो कंुजों में गई तो वहाँ रामरूप देखकर बावली हो गई। जब 
        वहां से लौटकर आई तो और सखियाँ पूछने लगीं। 
        कवित्त : कहा भयो कैसी है बनावै किन देह दसा छन ही में काहे बुधि सबही 
        नसानी सी। अबहीं तो हंसति हंसति गई कुञजन मैं कहा तित देख्यौ जासों ह्नै 
        रही हिरानी सी ।। हरीचन्द काहू कछु पढ़ि कियो टोना लागी ऊपरी बलाय कैं रही 
        है बिख सानी सी। आनन्द समानी सी जगत सों भुलानी सी लुभानी सी दिवानी सी 
        सकानी सी बिकानी सी ।। 13 ।। 
        यह सुनकर वह सखी उत्तर देती है। 
        सवैया : जाहु न जाहु न कुञजन मैं उत नांहि तौ नाहक लाजहि खोलि हौ। देखि जौ 
        लैहो कुमारन कों अबहीं झट लोक की लोकहि छोलि हौ ।। भूलि है देह दसा सगरी 
        हरिचन्द कछू को कछू मुख बोलि हौ। लागि हैं लोग तमासे हहा बलि बावरी सी ह्नै 
        बंजारन डोलि हौ ।। 14 ।। 
        कवित्त : जाहु न सयानी उत बिरछन मांहि कोऊ कहा जानै कहा दोय झलक अमन्द है। 
        देखत ही मोहि मन जात नसै सुधि बुधि रोम रोम छकै ऐसो रूप सुख कन्द है ।। 
        हरीचन्द देवता है सिद्ध है छलावाहै है सहावा है कि रत्न है कि कीनो दृष्टि 
        बन्द है। जादू है कि जन्त्रा है कि मन्त्रा है कि तन्त्रा है कि तेज है कि 
        तारा है कि रवि है कि चन्द है ।। 15 ।। 
        वहाँ से दूसरे दिन श्री रामचन्द्र धनुष यज्ञ में आते हैं और उनका सुन्दर 
        रूप देखकर नर नारी सब यही मनाते हैं। 
        कवित्त : आए हैं सबन मन भाए रघुराज दोऊ जिन्हैं देखि धीर नाहिं हिअ मांहि 
        धरि जाय। जनक दुलारी जोग दूलह सखी है एई ईस करै राउ आज प्रनहिं बिसरि जाय 
        ।। हरीचन्द चाहै जौन होइ एई सिअ बरैं जो जो होई बाधक विधाता करै मरि जाय। 
        चाटि जाहिं घुन याहि अबहीं निगोरो बटपारो दई मारो धनु आग लगै जरि जाय ।। 16 
        ।। 
        जब धनुष के पास श्रीरामजी जाते हैं तब जानकी जी अपने चित्त में कहती हैं। 
        सवैया : मो मन मैं निहचै सजनी यह तातहु ते प्रन मेरी महा है। सुन्दर स्याम 
        सुजान सिरोमनि मो हिअ मैं रमि राम रहा है ।। रीत पतिव्रत राखि चुकी मुख 
        भाखि चुकी अपुनो दुलहा है। चाप निगोड़ो अवै जरि जाहु चढ़ो तो कहा न चढ़ौ तो 
        कहा है ।। 17 ।। 
        लोगों को चिन्तित देख श्री रामचन्द्र जी धनुष के पास जाते हैं और उठाकर दो 
        टुकड़े करके पृथ्वी पर डाल देते हैं। बाजे और गीत के साथ जय-जय की धुन आकाश 
        तक छा जाती है। 
        कवित्त : जनक निरासा दुष्ट नृपन की आसा पुरजन की उदासी सोक रनिवास मनु के। 
        बीरन के गरब गरूर भरपूर सब भ्रम आदि मुनि कौसिक के तनु के ।। हरीचन्द भय 
        देव मन के पुहुमि भार बिकल विचार सबै पुरनारी जनु के। संका मिथिलेस की सिया 
        के उर सूल सबै तोरि डारे रामचन्द्र साथै हर धनु के ।। 18 ।। 
        धनुष टूटते ही जगत जननी जानकी जी जयमाल लेकर भगवान को पहिनाने चलीं उसकी 
        शोभा कैसे कही जाय। 
        कवित्त : चन्दन की डारन मैं कुसुमित लता कैधौं पोखराज साखन मैं नव रत्न जाल 
        है। चन्द्र की मरीचिन मैं इन्द्रधनु सोहै कै कनक जुग कामा मधि रसन रसाल है 
        ।। हरीचन्द जुगल मृनाल मैं कुमुद बेलि मूंगा की छरी मैं हार गूथ्यौ हीर लाल 
        है। कैधौं जुग हंस एकै मुक्तमाल लीने कै सिया जू करन महं चारु जयमाल है ।। 
        19 ।। 
        सवैया : टूटत ही धनु के मिलि मगल गाइ उठीं सगरी पुरबाला। लै चलीं सीतहि राम 
        के पास सबै मिलि मन्द मराल की चाला ।। देखत ही पिय को हरिचन्द महा मुद 
        पूरित गात रसाला। प्यारो ने आपुने प्रेम के जाल सी प्यारे के कण्ठ दई 
        जयमाला ।। 20 ।। 
        बस चारों ओर आनन्द ही आनन्द हो गया। 
        फिर अयोध्या से बारात आई यहाँ जनकपुर में सब ब्याह की तैयारी हुई। वैसी ही 
        मण्डप की रचना वैसा ही सब सामान। 
        श्री रामचन्द्र दूल्हा बन कर चारों भाई बड़ी शोभा से ब्याहने चले। मार्ग में 
        पुर बनिता उनको देख कर आपुस में कहने लगीं। 
        कवित्त : एई अहैं दसरथ नन्द सुखकन्द तारी गौतम की नारी इनहीं ने मारी 
        राछसनि। कौशला के प्यारे अति सुंदर दुलारे सिया रूप रिझवारे प्रेमी जनन के 
        प्रान धनि ।। सुन्दर सरूप नैन बाँके मद छाके हरिचन्द घुघुराली लटैं लटकैं 
        अही सी बनि। कहा सबै उझकि बिलोकी बार बार देखो नजरि न लागै नैन भरि कै 
        निहारौ जनि ।। 21 ।। 
        सवैया : एई हैं गौतम नारि के तारक कौसिक के मख के रखवारे। कौसला नन्दन नैन 
        अनन्दन एई हैं प्रान जुड़ावन हारे ।। प्रेमिन के सुखदैन महा हरिचन्द के 
        प्रानहुं ते अति प्यारे। राजदुलारी सिया जू के दुलह एई हैं राघव राज दुलारे 
        ।। 22 ।। 
        मण्डप में पहुँच कर सब लोग यथास्थान बैठे। महाराज जनक ने यथा विधि कन्या 
        दान दिया। जै जै की धुनि से पृथ्वी आकाश पूर्ण हो गया ।। 
        सवैया : बेदन बिधि सों मिथिलेस करी सब ब्याह की रीति सुहाई। मंत्रा पढ़ैं 
        हरिचन्द सबै द्विज गावत मगल देव मनाई ।। हाथ मैं हाथ के मेलत ही सब बोलि 
        उठे मिलि लोग लुगाई। जोरी जियो दुलहा दुलही की बधाई बधाई बधाई ।। 23 ।। 
        मौर लसैं उत मौरी इतै उपमा इकहू नहिं जातु लही है। केसरी बागो बनो दोउ के 
        इत चन्द्रिका चारु उतै कुलही है ।। मेंहदी पान महावर सों हरिचन्द महा सुखमा 
        उलही है। लेहु सबै दृग को फल देखहु दूलह राम सिय दुलही है ।। 24 ।। 
        विधि सो जब ब्याह भयो दोउ को मनि मण्डप मगगल चावर भे। मिथिलेस कुमारी भई 
        दुलही नव दूलह सुंदर सांवर भे ।। हरिचन्द महान अनन्द फल्यों दोउ मोद भरे जब 
        भांवर भे। तिनसों जग मैं कछू नाहिं बनी जे न ऐसी बनी पैं निछावर भे ।। 25 
        ।। 
        फिर जेवनार हुई! सब लोग भोजन करने को बैठे। स्त्रियां ढोल मंजीरा लेकर गाली 
        गाने लगीं। 
        सुन्दर श्याम राम अभिरामहिं गारी का कहि दीजै जू। अगुन सगुन के अनगन गुनगन 
        कैसे कै गनि लीजै जू ।। मायापति माया प्रगटावन कहत प्रगट स्रुति चारी। जो 
        पति पितु सिसु दोउ मैं व्यापत ताहि लगै का गारी। मात पिता को होत न निरनय 
        जात न जानी जाई। जाके जिय जैसी रुचि उपजै तैसिय कहत बनाई ।। अज के दशरथ 
        सुने रहै किमि दसरथ के अज जाये। भूमिसुता पति भूमिनाथ सुत दोउ आप सोहाये ।। 
        धन्य धन्य कौसिल्या रानी जिन तुम सो सुत जायो। मात पिता सों बरन बिलच्छन 
        श्याम सरूप सोहायो ।। कैकै की जो सुता कैकेई ताको सुकृत अपारा। भरतहि पर 
        अतिहि रुचि जाकी को कहि पावै पारा ।। नाम सुमित्र परम पवित्र चारु चरित्रा 
        रानी। अतिहि विचित्रा एक साथ जेहि द्वै सन्तति प्रगटानी ।। अति विचित्रा 
        तुम चारहु भाई कोउ साँवर कोउ गोरे। परी छांह कै औरहि कारन जिय नहिं आवत 
        मोरे ।। कौसलेस मिथिलेस दुहुन में कहौ जनक को प्यारे। कौसल्यासुत 
        कौसलपतिसुत दुहूँ एक की न्यारे ।। चरु सों प्रगटे कै राजा सों यह मोहि देहु 
        बताई। हम जानी नृप बृद्ध जानि कछु द्विज गन करी सहाई ।। तुमरे कुल की चाल 
        अलौकिक बरनि कछु नहिं जाई। भागीरथी धाई सागर सों मिलि अनंद बढ़ाई। सूर बंस 
        गुरु कुलहि चलायो छत्री सबहि कहाहीं। असमञजस को बंस तुम्हारो राघव संसय 
        नाहीं ।। कहलौं कहौं कहत नहि आवै तुमदे गुन गन भारी। चिरजीओ दुलहा अरु 
        दुलहिन हरीचंद बलिहारी ।। 26 ।। 
        फिर आनंद से बरात विदा होकर घर आई। रानियों ने दुलहा दुलहिन को परछन करके 
        उतारा। महाराज दशरथ ने सब का यथा योग्य आदर सत्कार किया। अब हम भी श्री जनक 
        लली नव दुलही की आरती करके बालकांड की लीला पूर्ण करते हैं ।। 
        आरती कीजै जनक लली की। राम मधुप मन कमल कली की ।। रामचंद्र मुख चंद्र चकोरी 
        अंतर सांवर बाहर गोरी। सकल सुमंगल सुफल फली की। पिय दृग मृग जुग बंधन डोरी। 
        पीय प्रेम रस रासि किसोरी पिय मन गति बिश्राम थली की ।। रूप रासि गुन निधि 
        जग स्वामिनि प्रेम प्रबोन राम अभिरामिनि सरबस धन हरिचंद अली की ।। 27 ।। 
        अथ अयोध्या कांड की लीला प्रारंभ हुई। करुणा रस का समुद्र उमड़ चला। श्री 
        रामचंद्र जी के बनवास का कैकेयी ने बर मांगा। भगवान बन सिधारे राजा दशरथ ने 
        प्राण त्यागा। 
        दोहा 
        बिनु प्रीतम तृन सम तज्यौ, तन राखी निज टेक 
        हारे अरु सब प्रेम पथ, जीते दसरथ एक ।। 28 ।। 
        नगर में चारों ओर श्री रामजी का बिरह छा गया। जहाँ सुनिए, लोग यही कहते थे 
        ।। 
        पद : राम बिनु पुर बसिए केहि हेत। धिक निकेत करुणानिकेत बिनु का सुख इत बसि 
        लेत ।। देत साथ किन चलि हरि की उत जियत बादि बनि प्रेत। हरीचंद उठि चलु 
        अबहूं बन रे अचेत चित चेत ।। 29 ।। 
        रामचंद्र बिनु अवध अंधेरो ।। कछु न सुहात सियाबर बिनु मोहि राज पाट घर घेरो 
        ।। अति दुख होत राजमंदिर लखि सूनो सांझ सवेरो। डूबत अवध विरह सागर मैं का 
        आवै बनि बेरो ।। पसु पंछी हरि बिनु उदास सब मनु दुख कियो बसेरो। हरीचंद 
        करुनानिधि केसव दै दरस दिन फेरो ।। 30 ।।  
        राम बिनु वादहि बीतत सासैं। धिक सुत पितु परिवार राम जै बिनु हरि पद रति 
        नासैं ।। धिक अब पुर बसिबो गर डारें झूठ मोह की फासैं। हरीचंद तित चलु जित 
        हरि मुखचंद मरीचि प्रकासै ।। 31 ।। 
        राम बिनु अवध जाइ का करिए। रघुबर बिनु जीवन सों तौ यह भल जौ पहिलेहि मरिए 
        ।। क्यौं उत नाहक जाई दुसह बिरहानल मैं नित जरिए। हरीचंद वन बसि नित हरि 
        मुख देखत जगहि बिसरिए ।। 32 ।। 
        राम बिन सब जग लागत सूनो। देखत कनक भवन बिनू सिय पिय होत दुसह दुख दूनो ।। 
        लागत घोर मसान हुं सों बढ़ि रघुपुर राम बिहूनो। कवि हरिचंद जनम जीवन सब धिक 
        धिक सियबर ऊनो ।। 33 ।। 
        जीवन जो रामहि संग बीतै। बिनु हरि पद रति और बादि सब जनम गंवावत रीतै ।। 
        नगर नारि धन धाम काम सब धिक धिक बिमुख जौन सिय पीतै। हरी चंद चलू चित्राकूट 
        भजु भव मृग बाधक चीतै ।। 34 ।। 
        फिर भरत जी अयोध्या आए और श्री रामचंद्र जी की फेर लाने को बन गए। वहाँ उन 
        की मिलन रहन बोलन सब मानों प्रेम की खराद थी। वास्तव में जो भरत जी ने किया 
        सो करना बहुत कठिन है। जब श्री रामचंद्र जी न फिरे तब पावरी ले कर भरत जी 
        अयोध्या लौट आए। पादुका को राज पर बैठा कर आप नंदिग्राम में बनचय्र्या से 
        रहने लगे। यह भरत जी की आरती कर के अयोध्या कांड की लीला पूर्ण हुई ।। 
        आरति 
        आरति आरति हरन भरत की सीय राम पद पंकज रत की। 
        धर्म धुरंधर धीर बीर बर राम सीय जस सौरभ मधुकर सील सनेह निबाह निरत की।। 
        परम प्रीति पग प्रगट लखावन निज गुन गन जन अघ बिद्रावन परतछ पीय प्रेम मूरत 
        की। बुद्धि विवेक ज्ञान गुन इक रस रामानुज संतन के सरबस हरीचन्द प्रभु विषय 
        विरत की ।। 35 ।। 
         
         
  
        
         
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