पाकिस्तान में पिछले पखवारे दो महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं जो सरलीकृत रूप से
देखने में अलग लगेंगी पर एक-दूसरे से इस तरह जुड़ी हुई हैं कि उन पर साथ बात
करना ही उचित होगा। 16 दिसंबर 2014 को हुए आर्मी पब्लिक स्कूल पेशावर के
बच्चों पर हमले की बरसी के कुछ ही दिनों बाद 20 जनवरी 2016 को पेशावर से कुछ
दूर चारसादा की बाचा खान यूनिवर्सिटी में घुसकर दहशतगर्दों ने दो दर्जन
छात्रों और अध्यापकों को मार डाला। अभी पाकिस्तानी सरकार और सुरक्षा तंत्र इस
भयानक हादसे से निपट ही रहे थे कि सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीफ ने घोषणा कर दी
कि वे किसी तरह का सेवा विस्तार स्वीकार नहीं करेंगे।
किसी दूसरे मुल्क में, जहाँ फ़ौजी तानाशाही नहीं है इस खबर का शायद कोई खास असर
नहीं पड़ता पर पाकिस्तान समाज में फौज की जो विशिष्ट हैसियत है, उसमें
स्वाभाविक था कि जरनल के बयान पर तूफ़ान मच जाता और वही हुआ भी।
पाकिस्तान दुनिया का अकेला लोकतंत्र होगा जिसमें प्रधानमंत्री सहयोगी
मंत्रियों और सैनिक/असैनिक अधिकारियों के साथ बैठक करते हैं तो उनकी बगल की
कुर्सी पर सेनाध्यक्ष होता है - यहाँ तक कि रक्षामंत्री भी सामने की कतार में
चौथे पाँचवें क्रम पर हो सकता है। यह पाकिस्तान में ही संभव है कि रक्षा
मंत्रालय सुप्रीमकोर्ट में हलफनामा दे कि उसका सेना पर कोई नियंत्रण नहीं है।
इसी लिए पाकिस्तान आने वाला हर राष्ट्राध्यक्ष प्रधानमंत्री शरीफ के साथ
सेनाध्यक्ष शरीफ से भी मुलाकात तय करता है और अफगानिस्तान जैसे देशों के
प्रधानमंत्री तो जनरल के दफ्तर में जाकर मिलते हैं।
यह एक खुला रहस्य है कि अमेरिका, अफगानिस्तान या भारत के संबंध में नीतियों पर
अंतिम मुहर इस्लामाबाद में नहीं रावलपिंडी में लगती है। इस्लामाबाद में
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अपने मंत्रिमंडल या सलाहकारों की मदद से उपरोक्त के
संबंध में जो फैसले लेते हैं वे लागू तभी होते हैं जब उनका अनुमोदन रावलपिंडी
का सेना मुख्यालय या जी.एच.क्यू. कर देता है। भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का
दर्जा प्रतिबद्ध होने के बावजूद नवाज शरीफ की सरकार लागू नहीं दे सकी है
क्योंकि जी.एच.क्यू. ने इस पर वीटो लगा रखा है। 26/11 के मुंबई हमलों के बाद
आसिफ जरदारी की सरकार सार्वजनिक रूप से घोषणा करने के बाद भी अपने आई.एस.आई.
चीफ को भारत नहीं भेज सकी थी।
इसलिए पिछले हफ़्ते जब सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ ने घोषणा की कि वे सेवा विस्तार
स्वीकार नहीं करेंगे तो इसे किसी सामान्य सूचना के तौर पर नहीं लिया गया।
अव्वल तो इस घोषणा के लिए यह उपयुक्त समय नहीं था क्योंकि जनरल राहिल शरीफ के
रिटायरमेंट में अभी भी दस महीने बाकी हैं।
दूसरे इस समय जनरल राहिल शरीफ अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। तमाम
पाकिस्तानी अख़बारों और पत्रिकाओं के सर्वेक्षणों की माने तो वे आज पाकिस्तान
की सबसे लोकप्रिय शख़्सियत हैं और अपने अस्तित्व की एक विकट लड़ाई लड़ रहे देश
में बहुत सारे लोग उन्हें आशा की अंतिम किरण के रूप में भी देख रहे हैं। फिर
ऐसा क्या हुआ कि सेवा निवृत्ति के दस महीने पहले ही उन्हें घोषित करना पड़ा कि
वे सेवा विस्तार नहीं स्वीकार करेंगे? अभी कुछ ही दिनों पहले तो उन्होंने दावा
किया था कि 2016 पाकिस्तान में दहशतगर्दी के खात्मे का साल होगा। हालाँकि साल
की शुरुआत में ही कई ऐसी बुरी घटनाएँ हुई जिनसे एक बार फिर पाकिस्तान बदतर दौर
में लौटता दिखाई दिया। खासतौर से फाटा, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में
सुरक्षा बलों पर हमले बढ़े हैं। कराची भी पूरी तरह शांत नहीं हो पा रहा है। यह
जरूर है कि आँकड़ों की माने तो दहशतगर्दी के ग्राफ़ में तेज गिरावट आई है पर
इसके लिए जान माल की जो कीमत चुकानी पड़ रही है उसे कोई भी राष्ट्र लंबे समय तक
नहीं चुका सकता।
कहीं ऐसा तो नहीं कि राहिल शरीफ को लगने लगा है कि 15 जून 2014 को शुरू हुआ
आपरेशन ज़र्ब-ए-अज्ब समय बीतने के साथ अपनी धार और उपयोगिता खोता जा रहा है।
तीस हजार सैनिकों और वायुसेना की सक्रिय भागीदारी से शुरू हुए आपरेशन
ज़र्ब-ए-अज्ब को प्रारंभिक सफलताएँ तो खूब मिलीं और कई बार ऐसा लगने भी लगा कि
शायद पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जीत जाएगा पर हर असफलता के बाद दहशतगर्द
फिर से सक्रिय होकर पाकिस्तानी समाज के किसी ऐसे मर्मस्थल पर हमला कर देते हैं
कि पूरा देश बिलबिला उठता है और फ़ौजी कामयाबी धरी की धरी रह जाती है।
पाकिस्तान के सुरक्षा विश्लेषकों के अनुसार जनरल शरीफ को आपरेशन ज़र्ब-ए-अज्ब
से जो कुछ हासिल करना था उसे वे पा चुके हैं और अब उनके गिरावट का दौर शुरू
होने जा रहा है। उनकी नियति भी उनके पूर्वाधिकारी जनरल कियानी सी होने जा रही
है। अपने करियर के शुरुआती दो साल कियानी ने आपरेशन राह ए रास्त और आपरेशन राह
ए निजात के जरिए सफलता की सीढ़ियाँ जरूर चढ़ी पर तीसरा साल शुरू होते होते
बैटिल फटीग ने उन्हें धर दबोचा और वे धीरे-धीरे थकते गए। रही सही कसर उनके
सेवा विस्तार ने पूरी कर दी। वे एक अलोकप्रिय और असफल सेनानायक के तौर पर मंच
से विदा हुए। जनरल शरीफ इसी से बचना चाहते हैं। पर क्या वे बच पाएँगे?
फ़ौजियों के मन में सिविल या नागरिक को लेकर एक खास तरह का अपमान बोध होता है।
यह भारतीय सेना के अधिकारियों के मन भी है। काफी हद तक हीनता की भावना से उपजी
चेतना सिविल को अक्षम, भ्रष्ट और निर्णय लेने में असमर्थ मानती है। भारत में
तो यह मामला स्वतंत्रता बाद ही सुलट गया था जब जवाहरलाल नेहरू ने बौद्धिकता
में अपने से बहुत पिछड़े जरनैलों से सिविल की अधीनता स्वीकार करा ली पर जिन्ना
की मौत के बाद बौद्धिक रूप से दरिद्र और मूलत: सामंती प्रवृत्ति के पाकिस्तानी
नेतृत्व शुरू से ही फ़ौजी वर्दी की चमक दमक और अनुशासन से आक्रांत रहा। फ़ौजी
तानाशाहियों की नींव तो उसी दिन पड़ गई जब सेनाध्यक्ष अय्यूब खान को देश का
रक्षा मंत्री (1954) भी नियुक्त कर दिया गया। आज नागरिक प्रशासन के लिए सबसे
बड़ी चुनौती फ़ौजी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. को भी सैनिक शासन ने नहीं बल्कि
राजनैतिक नेतृत्व ने 1948 में बनाया था जब अभी सैनिक तख्ता पलट की आहटें भी
नहीं सुनाई दे रही थीं। इस तरह एक कमतर नागरिक नेतृत्व ने स्वयं ही सेना के
मुँह में खून लगाया था।
श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त सैनिक नेतृत्व सबसे अधिक किसी चीज से डरता है तो वह
है नाकामयाबी। जनरल राहिल शरीफ के सामने भी यही दुविधा है। अच्छा होगा कि
ज़र्ब-ए-अज्ब की नाकामयाबी की सार्वजनिक घोषणा के पहले ही वे मंच से कूच कर
जाएँ।