26/11 के रचयिता ज़की उर रहमान लखवी (55) की रिहाई से किसी को आश्चर्य नहीं
होना चाहिए। आश्चर्य इस बात पर हो सकता है कि वह इतने लंबे अरसे तक जेल में
कैसे रहा? संभवतः यह अमरीकी दबाव था जिसने पाकिस्तानी सरकारों, एजेंसियों और
अदालतों को लगभग विवश कर रखा था कि वे लखवी को जेल में ही रखें। हालाँकि
पाकिस्तानी पंजाब सरकार ने उसे जमानत देने के लाहौर हाईकोर्ट फैसले को सुप्रीम
कोर्ट में चुनौती दी है पर इस मामले में बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जानी
चाहिए। लखवी का जेल में रहना भी सिर्फ मनोवैज्ञानिक बाधा था क्योंकि वहाँ उसे
सेटेलाईट फोन, कंप्यूटर तथा टी.वी. जैसी सारी सुविधाएँ उपलब्ध थीं जिनके
माध्यम से उसका अपने काडर तथा आई.एस.आई. में बैठे आकाओं से सीधा संपर्क बना
हुआ था। कई बार सी.आई.ए. के एजेंटों ने जेल के अंदर उसकी बातचीत रिकार्ड भी की
और पाकिस्तानी सरकार से समय-समय पर अपना विरोध भी दर्ज कराया पर सब कुछ
बेनतीजा रहा।
लखवी को समझने के लिए हमें राष्ट्रपति जरदारी के वक्तव्य को याद करना चाहिए जो
उन्होंने 26/11/2008 को बंबई पर आतंकी हमले के फौरन बाद दिया था। कई दिनों तक
बंबई हमलों में पाकिस्तानी हाथ को सिरे से नकारने के बाद, जब जीओ टी.वी. जैसे
पाकिस्तानी चैनल ने ही, यह साबित कर दिया कि हमलों के दौरान पकड़ा गया अकेला
जिंदा आतंकी क़स्साब पाकिस्तान के फरीदकोट में पला बढ़ा है और उसका परिवार वही
रहता है, जरदारी ने वह ऐतिहासिक बयान दिया जिसमें कहा गया कि हमलों में
पाकिस्तान के नॉन स्टेट ऐक्टर्स अर्थात् गैर सरकारी तत्वों का हाथ हो सकता है।
पाकिस्तान में स्टेट ऐक्टर्स और नॉन स्टेट ऐक्टर्स की विभाजक रेखा बहुत धुंधली
है। मसलन क्या सेना और उसकी खुफिया एजेंसी राज्य से बाहर है? यह सवाल दुनिया
के किसी भी मुल्क में पूछना हास्यास्पद समझा जा सकता है पर पाकिस्तान में आप
पूछ सकते हैं। यह पाकिस्तान में ही संभव है कि सुप्रीम कोर्ट में चल रहे किसी
मुकदमें में सरकार और सेना एक-दूसरे के विरोधी हलफ़नामें लगाएँ और रक्षा
मंत्रालय अपने हलफ़नामें में कहे कि सेना उसके नियंत्रण में नहीं है। ऐसा
राजदूत हक्कानी प्रकरण में हो चुका है। यह भी पाकिस्तान में ही संभव है कि फौज
की आधिकारिक प्रवक्ता इंटर सर्विसेस पब्लिक रिलेशन अपने देश के प्रधानमंत्री
के कथन का सार्वजनिक रूप से खंडन करे। फिर हम पाकिस्तानी फौज को स्टेट एक्टर
कहें या नॉन स्टेट एक्टर? जाहिर है कि कोई भी राज्य खुले आम यह स्वीकार नहीं
कर सकता कि उसकी सेना नॉन स्टेट एक्टर है अतः सबसे सरल उपाय है कि सेना कुछ
नॉन स्टेट एक्टर निर्मित करे तथा अपने एजेंडे पर चलने के लिए उन्हें जरूरी
प्रशिक्षण तथा संसाधन मुहैय्या कराये और किसी अप्रिय स्थिति में इस बात से
इंकार कर दे कि उसका विवादित संगठन से कोई संबंध है। अपनी पूर्वी सीमा पर भारत
तथ पश्चिमी सीमा पर अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तानी सेना ने कई संगठन खड़े किए
हैं।
1990 के दशक में हिजबुल मुजाहिदीन, हरकतुल अंसार, जैशे मोहम्मद तथा लश्करे
तायबा कुछ ऐसे ही संगठन हैं जिन्हें आइ.एस.आई ने पाल-पोस कर बड़ा किया है।
इनमें लश्करे तायबा सबसे ताकतवर और प्रभावशाली संगठन बन कर उभरा है। इसके पितृ
संगठन जमातुद्दावा का मुख्यालय लाहौर से कुछ ही मील दूर मुरीदके में है और
इसका मुखिया हाफ़िज़ सईद अमेरिका द्वारा आतंकी घोषित किए जाने के बावजूद
पाकिस्तान के विभिन्न शहरों में खुले आम आग उगलता घूमता है। हाल ही में
जमातुद्दावा का एक बड़ा इज्तमा लाहौर में हुआ जिसमें लाखों लोगों ने भाग लिया
और सरकार ने उनके लिए स्पेशल ट्रेने चलाई। इसी जमातुद्दावा का आपरेशनल कमांडर
है लखवी। लश्करे तायबा कश्मीर में पाकिस्तानी फौज की विस्तारित टुकड़ी की तरह
काम करता है और शेष भारत में 26/11 जैसी कार्यवाही भी उसकी जिम्मेदारियों में
है। क़स्साब के बयान तथा हमलावरों के बीच हुए वार्तालाप के इंटरसेप्शन से यह
निर्विवाद रूप से साबित हो गया कि जिन दस हमलावरों ने 26/11/2008 को मुंबई पर
हमला किया था उनका चयन हाफ़िज़ सईद और लखवी ने ही किया था तथा उनके लिए
प्रशिक्षण और हथियार लश्कर ने उपलब्ध कराये थे। बाद में अमेरिका में पकड़े गए
हेडली ने भी इस बात की पुष्टि की कि आई.एस.आई. के कहने पर ही उसने मुंबई के उन
स्थानों को चिह्नित करने का काम किया था जहाँ लखवी के चेलों को कहर बरपाना था।
मुंबई आपरेशन के दौरान लखवी हमलावर आतंकियों से लगातार बात करता रहा था और
भारतीय खुफिया एजेंसियों ने उनके दरमियान चलने वाला वार्तालाप रिकार्ड भी किया
था और इसी रिकार्डिंग की वजह से अमेरिका जैसे मुल्क घटना में पाकिस्तानी हाथ
मानने को मजबूर हुए थे। पर पाकिस्तानी सरकार और अदालतों के लिए इस अकाट्य सबूत
का भी कोई अर्थ नहीं है, यहाँ तक कि बातचीत में लखवी की उपस्थिति प्रमाणित
करने के लिए उसकी आवाज का नमूना भी भारतीय जाँच एजेंसियों को नहीं उपलब्ध
कराया गया।
16 दिसंबर 2014 में पेशावर आर्मी पब्लिक स्कूल के बच्चों के नृशंस हत्याकांड
के बाद प्रधानमंत्री शरीफ ने कहा था कि अब वे अच्छे या बुरे तालिबान का फर्क
नहीं करेंगे और यह आशा बंधी थी कि शायद हाफ़िज़ सईद या लखवी जैसों पर कोई
कार्यवाही होगी पर जैसा होता आया है इस बार भी सेना ने उन्हें कुछ नहीं करने
दिया। उलटे लखवी जेल से छूट गया। अब तो एक ही उम्मीद बची है कि अंकल सैम
पाकिस्तान का हाथ मरोड़े और उसे कार्यवाही करने के मजबूर करे। आखिर 26/11 के
मुंबई हमले में अमेरिकी नागरिक भी तो मारे गए थे और बीच-बीच में वह लखवी को
भारत या अमेरिकी अदालतों में पेश करने की माँग भी करता रहा है। अंततः क्या
होता है इसके लिए कुछ दिन और इंतजार करना पड़ेगा।