भारतीय जीवन-पद्धति में गुरु का अप्रतिम स्थान है। ज्ञान को सर्वोकृष्ट
मानने वाली इस परंपरा में गुरु के बिना कुछ भी लभ्य नहीं है। शायद दुनिया में
भारत एकमात्र देश है, जिसकी परंपरा इतिहास और संस्कृति में चाहे जितना
परिवर्तन आया हो, गुरु के स्थान एवं उसकी मान्यता में कोई विचलन नहीं दिखाई
देता। यद्यपि यह भी सच है कि आधुनिक युग में स्वयं गुरु के स्वरूप एवं उसकी
क्रियात्मकता में अंतर आया है। किंतु समाज में विविध प्रकार के आदर्शों की
च्युति के बाद भी गुरु का स्थान द्वितीय है।
भारत के प्राचीनतम ज्ञात इतिहास से विचार कर, गुरु या आचार्य को देवता माना
गया है। स्मृतियों में तो गुरु को पिता से भी श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि
ऐसे जीव को, जो आहार, निद्रा, भय, मैथुन इत्यादि पाशविक प्रवृत्तियों के चलते
पशु से भिन्न नहीं है को, ज्ञान के आलोक से प्रकाशित कर धर्म मूल्य से
समन्वित कर मनुष्य बनाता है।
भारत की सनातन धारा में स्पष्टत: परिलक्षित होने वाली आगमिक और नैगमिक दोनों
परंपराएं गुरु-केंद्रित हैं। यह भी कहा जा सकता है गुरु तत्त्व का ज्ञान भारत
का ज्ञान है और आगम परंपरा में गुरु का महत्त्व ही नहीं है अपितु इस धारा के
समस्त ग्रंथ गुरु-महिमा और उसके स्वरूप का अत्यंत विस्तृत वर्णन प्रस्तुत
करते हैं। निगम की परंपरा में जहाँ गुरु एक बार सत्य का दर्शन कराकर शिष्य
को सत्य के उस मार्ग पर चलने के लिए उत्प्रेरित करता है। वहीं आगमिक परंपरा
में जीवन की अविकसित स्थिति से ऊपर उठाते हुए आत्म-विकास और पूर्णता को
प्राप्त करने के लिए निरंतर पथ-प्रदर्शक और सहायक की आवश्यकता होती है। आगम
का यह मार्ग अनुभवसिद्ध एवं तर्कसिद्ध है, क्योंकि जगत के पदार्थों अर्थात
भौतिक विषयों एवं भौतिक पद संबंधों का ज्ञान भी गुरु की अपेक्षा करता है। जिसे
भूल और प्रयत्न विधि से भी सीखा जा सकता है। जिस व्यवहार को पशु सहज
प्रवृत्ति से ही प्राप्त कर लेते हैं, उसे भी सीखने के लिए मनुष्य को गुरु
की आवश्यकता होती है, तो अपूर्णताओं को अतिक्रांत कर, उनका विलोप कर,
आत्मपूर्णता की स्थिति बिना गुरु के कैसे प्राप्त होगी।
स्वरूपत: मनुष्य जो हैं उसकी उसे स्मृति नहीं होती। अविद्याजन्य
संस्कारों के कारण वह आत्मविस्मृति का शिकार रहता है। अविद्या के नाश और
विद्या के प्रकाशमय जगत में प्रवेश के लिए गुरु आवश्यक है। वह पाशविक अनुभव
के धरातल से चैतसिक अनुभूति के स्तर तक समुन्नत करने का साधन है। आगमसार
ग्रन्थ में गुरु के इस स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि गुरु
शब्द का 'गकार' सिद्धि देने वाला, रकार पाप का दहन करने वाला है और 'उकार'
स्वयं शंभू है। अर्थात् ज्ञान और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले
पापों का नाश गुरु ही करता है। वह मात्र नाश ही नहीं करता बल्कि भौतिक एवं
आध्यात्मिक सिद्धियों का प्रदाता भी है। यह सभी नहीं कर सकते, अत: गुरु होने
की योग्यता भी है, शर्तें भी। नवचक्रेश्वरतन्त्र में कहा गया है कि पिण्ड,
पद, रूप और रूपातीत इस सबको जो सम्यक ढंग से जानता है वही गुरु कहा जाता है।
अर्थात् मात्र भौतिक या केवल आध्यात्मिक ज्ञान वाला गुरु नहीं हो सकता। गुरु
होने के लिए आवश्यक है कि वह इन सबको जानता हो, न केवल जानता हो अपितु सम्यक
रूप से जानता हो। रूद्रयामल, मुण्डमाला इत्यादि ग्रन्थों में गुरु, मन्त्र
और देवता इन तीनों को एकाकार बताया गया है, मुण्डमालातन्त्र में तो गुरु को
देवताओं के पितामह के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है।
गुरु का महत्त्व भारतीय परंपरा में मात्र तांत्रिक और वैदिक साधना तक सीमित
नहीं रहा है अपितु संत परंपरा में भी इसका पर्याप्त महत्त्व है। कबीरदास की
बानी तो जन-जन जानता है कि 'बलिहारि गुरु आपनो गोविंद दियो बताय'। काशी के ही
अघोर सन्त बाबा किनाराम ने गुरु की महिमा बताते हुए कहा कि गुरु चारों वेद
हैं, वही अग्नि, पवन, जल, धरती, आकाश इत्यादि पंचमहाभूत भी है। अर्थात् गुरु
सभी का मूल है, सभी प्रकार के शूलों का हरण करने वाला है। यह नित्य अमल और
अपने शिष्य को पावन पद को देने वाला है।
यह गुरु ही है जो गोविंद तक पहुँचाता है इसलिए वह आध्यात्मिक अभ्युदय का
साधन है। ज्ञान के उदय के साथ गुरु ही गुरु गोविंद हो जाता है। सकल संशयों की
निवृत्ति उसके प्रति सर्वविध समर्पण से ही संभव है। इसलिए गुरु से किसी प्रकार
की वंचना उचित नहीं है। स्कन्दपुराण के उत्तर खण्ड में गुरु-तत्त्व के
स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिसके सत्य होने पर ही जगत् की
सत्ता है, जिसके प्रकाश से सब कुछ प्रकाशित होता है, जिसके आनंद होता है, उस
गुरु को प्रणाम है। संक्षेपत: यह कहा जा सकता है कि गुरु-तत्त्व के प्रकाशित
होने से ही जगत प्रकाशित होता है और जागतिक वस्तुओं का ज्ञान तथा जगत में
अभ्युदय की प्राप्ति होती है। साथ ही जगत् की सीमा का अतिक्रमण कर वह परम
नि:श्रेयस की अवाप्ति भी कराता है।
भारतीय परंपराक्रम में अध्यात्म-विद्या की साधना में ही गुरु का महत्त्व
नहीं है, अपितु ज्ञान की भौतिक साधना भी गुरु-केंद्रित है। इसलिए आचार्य को
देवता कहा गया है। स्मृतिकारों ने अक्षरमात्र प्रदात्ता को योनि संबंधों में
श्रेष्ठ माने जाने वाले संबंधों से श्रेष्ठकर स्वीकार किया है। मनु ने कहा
है कि पिता गार्हपत्याग्नि है, माता दक्षिणाग्नि है तथा गुरु आहवनीयाग्नि है।
जिस प्रकार तीनों अग्नियों में आहवनीयाग्नि श्रेष्ठ है, उसी प्रकार गुरु इन
तीनों में श्रेष्ठ है।
यह श्रेष्ठता मात्र श्रद्धा पर आधारित नहीं है। इसके लिए शर्तें हैं, जो गुरु
इन शर्तों को पूरा करता है वहीं श्रद्धा का पात्र है। इसकी चर्चा शारदातन्त्र
एवं विश्वसारतन्त्र में विस्तुत रूप से प्राप्त होती है। सभी शास्त्रों
में वर्णित शर्तों को संक्षेप रूप में प्रस्तुत किया जाए तो कहा जा सकता है
कि जो सभी शास्त्रों में दक्ष तथा सर्वशास्त्रार्थविद्, जितेन्द्रिय,
सत्यवादी, शान्तमानस, सर्वकर्मपरायण, गृहस्थ, निरोगी, निरहंकार तथा
विकाररहित है, वही गुरु होने के योग्य है।
गुरु भी शिक्षा तथा दीक्षा के भेद से दो प्रकार के हैं। दीक्षा-गुरु वहीं हो
सकता है जिसमें सत्तर्क की प्रतिष्ठा हो गई हो अर्थात् जिसमें संस्कारित
विकल्पों का प्रादुर्भाव हो गया है। सत्तर्क ही भावना है, भावना का अर्थ है
भूत-अभूत सभी अर्थों का स्फुट भावन। यह भावना ही निर्जीव अक्षरों में चेतना
को उद्भूत करती है और भौतिक ज्ञान भी चैतसिक हो उठता है। किंतु शिक्षा-गुरु का
दायित्व सत्-असत् का विवेक, ग्राह्य-अग्राह्य का भेद ज्ञान कराना मात्र है।
तन्त्रों में उसे असद् गुरु तथा स्मृतियों में आचार्य कहा गया है। आचार्य वह
है जिसे ज्ञान है यद्यपि उसके साथ उसकी एकाकारिता नहीं है। वह जानता है और
बताता भी है, किंतु वहाँ तक पहुँचा नहीं सकता। जगत की सीमा से परे, पदों एवं
संबंधों से ऊपर नहीं ले जा सकता। परिणामत: वह मन में बंधन को तोड़ने की इच्छा
और साहस तो उत्पन्न कर देता है, तोड़ नहीं पाता। सब कुछ बताकर वह
विद्या-स्नान कराता है और समावर्तन का उपदेश करता है। इस उपदेश के साथ उसे
स्नातक घोषित करता है। साथ ही आचरण के पक्ष को लेकर वह सावधान भी करता है कि
हमारा जो सच्चरित्र है, वही तुम्हारें लिए अनुकरणीय है, अन्य नहीं।
गुरु के महत्त्व को आज के संदर्भों में भी समझना होगा। दोनों ही प्रकार के
गुरु जिनका शास्त्रीय स्वरूप विवेचित किया गया है उसकी आज के संदर्भों में
परीक्षा करनी होगी। क्योंकि आज जो लोक को ग्राह्य है, स्वीकार्य है, वही
धर्म है। शास्त्र-शुद्ध होते हुए भी लोक-विरूद्ध होने पर आचरण योग्य नहीं
होता। जो लोक की उपेक्षा करता है, वह निंदा का पात्र होता है। अत: आधुनिक
शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में शिक्षा गुरु अर्थात् आचार्य एवं धर्मोपासना
के वर्तमान संदर्भों में विचार करें तो ध्यान में यह रखना आवश्यक है कि
परंपरा के क्रम में आचार्य वही है जो सकल वेदराशि अर्थात् ज्ञान का संकल्प और
सरहस्य अध्यापन करें। एकदेशीय अध्यापक पण्यजीवी अध्यापक आचार्य न होकर
उपाध्याय है। यही कारण है कि महाभारत में सांदीपनि विद्या में, प्रताप में
न्यून होने के बाद भी द्रोण की अपेक्षा आदरणीय एवं पूज्य हैं। सांदीपनि का
शिष्य कृष्ण कहीं उनके विरोध में खड़ा नहीं होता। वह गुरु को प्रसन्न करने
के लिए मृत्यु के समान भयंकर पात्र्चजन्य से भी युद्ध करता है और कभी संधि
नहीं करता, पात्र्चजन्यों के क्षेत्र में ही द्वारिका की स्थापना के बाद भी
नहीं। जबकि पण्यजीवी द्रोण के शिष्य गुरु-दक्षिणा देकर उससे मुक्त हो जाते
हैं और गुरु के धुर विरोधी द्रुपद से संबंध जोड़ते हैं, उससे मित्रता करते
हैं। इसके निहितार्थ को आधुनिक संदर्भों में देखना होगा। वृत्ति के लिए
अध्यापन कर्म करने वाला आचार्य नहीं हो सकता क्योंकि वह वृत्तिदाता की शर्तों
के अधीन है। वह राज्य या ऐसी किसी भी संस्था जिससे वित्तपोषित है, उसके
विरूद्ध सोच भी नहीं सकता। वह हस्तिनापुर के खूँटे से बँधा हुआ द्रोण के समान
है, चाहे उस पर पाण्डु बैठा हो या दृष्टि और विवेक दोनों से विहीन
धृतराष्ट्र, जिनकी दासता को स्वीकार करना है। उसे सत् के पक्ष में खड़े होने
का साहस नहीं होता। वह स्वयं भी उस दुर्योधन से अलग मन:स्थिति में नहीं होता,
जो धर्म को जानता है किन्तु प्रवृत्ति नहीं है, जो पाप को जानता है किंतु
निवृत्ति नहीं है।
महाभारत और उसके बाद का अधिकांश इतिहास ऐसे ही उपाध्यायों का इतिहास है। फिर
भी जब चाणक्य जैसा आचार्य चंद्रगुप्त को उपनीतकर अध्यापित करता है तब
परिवर्तन होता है। जब कोई समर्थ रामदास शिवा को दीक्षित करता है, तब अन्याय
के विरूद्ध, तामसिक वृत्तियों के विरूद्ध निर्णायक संघर्ष प्रारंभ होता है।
परवर्ती काल में अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति ने शिक्षा-गुरु को सत्ता के
क्रीतदास के रूप में परिवर्तित कर दिया। परिणामत: सत्ता के लिए आवश्यक शिक्षा
ही शैक्षिक संस्थानों का तथा भौतिक उपलब्धियाँ अध्यापक का आदर्श बनीं।
शिष्य की सकल शैक्षिक योग्यता नौकरी की प्राप्ति बन गई। अंग्रेजों की यह
व्यवस्था उनके लिए आवश्यक थी, इसलिए उन्होंने इस व्यवस्था को बढ़ाया,
पनपाया। स्वतंत्र भारत में उसे परिवर्तित करना आवश्यक था। किंतु सत्ता के
सहज स्वभाव के अनुरूप होने के कारण अध्यापक का सर्वथा परतंत्र रूप ही हमें
भी अच्छा लगा और हमनें भी उसे बढ़ाया और अब तो शिक्षा को व्यापार की श्रेणी
में ला खड़ा कर दिया गया है।
दीक्षा-गुरु के संदर्भों में विचार करें तो ध्यान में आएगा कि सनातन परंपरा
पूर्ववर्ती के साथ उत्तरवर्ती के सातत्य की परंपरा है। मंत्रद्रष्टा ऋषियों
से लेकर सन्तों की वाणी तक सभी जगह एक गुरुक्रम परिलक्षित होता है। अर्थात्
शिष्य को साधना और उपासना के उसी मार्ग की दीक्षा दी गई जो, गुरु को उसकी
गुरु-परंपरा से प्राप्त थी। इसलिए तुलसीदास नई भाषा में धर्म का उपदेश देते
हुए स्पष्ट रूप से उद्घोष करते हैं कि मैं जो कह रहा हूँ, वह नाना पुराण
निगमागम सम्मत है। भाषा नई है किंतु आधार पुराने हैं, परंपरा से प्राप्त
हैं। शायद इसीलिए विद्रोही तेवर रखने वाले अघोर संत बाबा किनाराम भी गुरुक्रम
को वेदों के मूर्तिमान रूप में ग्रहण करते हैं। यही सांप्रदायिक दीक्षा का
शास्त्रीय क्रम है। इसमें युग और व्यक्ति के परिवर्तन के साथ मूल्यों की
नित्यता बरकरार रहती है। संप्रदाय का अर्थ ही है जो पीछे से लेकर आगे की
पीढ़ी को दिया जाए।
समकालीन संदर्भों में विचार करें तो गुरु या आचार्य के स्थान पर गुरुतम का
विस्तार दिखाई देता है। फलत: आध्यात्मिक जगत में भी भौतिक उपलब्धि को दिलाने
वाले गुरु चमकने लगे। यद्यपि इस क्षेत्र में राज्य का न होने से सत् मार्ग पर
समायोजित करने वाले लोगों का भी अभाव नहीं है। प्रबल भौतिक प्रभाव के बाद भी
विवेकानंद, रामतीर्थ और ऐसे न जाने कितने गुरुओं, संतों के प्रयास चलते रहे
हैं। किंतु यह क्षेत्र भी राजसत्ता के प्रभाव से सर्वथा अछूता नहीं है।
राजसत्ता के संबंधों एवं संबंधों के आधार पर, चाकचिक्य के द्वारा
प्रभामण्डल का विस्तार तथा जनसमूह को भ्रमित करने की कोशिशें इस युग का
यथार्थ हैं।
इस स्थिति में परिवर्तन तभी संभव है, जब सनातनता के वास्तविक अर्थ को समझा
जाए। यानि नींव पुरानी निर्माण नया, कथ्य पुराना भाषा और तर्क नए, प्रविधि
नूतन संस्कृति चिर पुरातन के भाव को स्वीकार कर दीक्षा और शिक्षा दोनों ही
क्षेत्रों में गुरु को सनातन परंपरा में स्थिर किया जाए ।