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कविता

अपना वनवास

सुमेर सिंह शैलेश


पत्‍थरों से भरी मुट्ठियाँ हैं यहाँ
बिजलियों से भरा पूरा आकाश है
आज अपना है क्‍या? कल को होगा भी क्‍या?
सोचकर मौन सारा ही इतिहास है।
 
आदमी की तरह आदमी है नहीं,
जिंदगी उससे कोसों हुई दूर है
आवरण और हैं आचरण और हैं,
व्‍यूह में वह फँसा कितना मजबूर है
घर में रहते हैं हम अजनबी की तरह
राम से भी कठिन अपना वनवास है।
 
झूठ के हौसले सच पे भारी हुए
देखिए तो बिका सबका ईमान है
अपना घर अपनी संस्‍कृति सभी बेचकर
कितना ऊँचा उठा आज इनसान है
जो समुंदर हुए भूलते ही गए
इस घर में कहाँ तक बिछी प्‍यास है।
 
टूटता ही गया सिलसिला प्‍यार का
आपसी नेह के ऐसे लाले पड़े
बेलियों में बँटे टोलियों में बँटे
जाने कैसी व्‍यवस्‍था के पाले पड़े
इस तरह से लुटे हैं हमारे सपन
कौन आए बचाए जो विश्‍वास है।
 


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