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कहानी

पतित

पांडेय बेचन शर्मा उग्र


'आज मैं जब छत पर तुम्‍हारी धोती डालने के लिए गई थी तब एक मुसलमान मुझे देखकर इशारेबाजी कर रहा था।' पति के वक्षस्‍थल में उसी तरह अपना सिर छिपाए हुए पद्मा ने कहा, 'मुझे उसकी सूरत देखकर... उफ... अब भी जब उसकी याद आती है तो छाती धड़कने लगती है!'

अलसाए हुए रमानाथ के मुँह से एक 'हूँ' से अधिक और कुछ न निकला। पद्मा ने पति की नींद में बाधा डालना उचित नहीं समझा, परंतु उस दिन उसकी कोई कहानी बिना सुने ही रमानाथ निद्रा के विश्राम-मंदिर में बेधड़क घुस जाना चाहते थे, इस अनधिकार प्रवेश के लिए उन्‍हें क्षमा करना भी उसने उचित नहीं समझा। जहाँ दो स्‍वार्थ आपस में झगड़ने लगते हैं, वहाँ उदारता स्‍वार्थ के सूक्ष्‍म विचारों को सौंप दी जाती है। पद्मा भी स्‍वार्थ का लालच न छोड़ सकी। उसने पति का कंधा हिलाकर पूछा, 'क्‍या सो गए? ...मेरी कहानी?' रमानाथ ने बिना आँखें खोले ही कहा, 'हूँ... सुनता हूँ... कहो... फिर - ' पद्मा हँस पड़ी। उसकी खिलखिलाहट से जागने के बजाय रमानाथ पर एक और मोह का पर्दा पड़ गया, सुख की नींद सोने के लिए जैसे डाक्‍टर ने दो औन्‍स गैलीसिया पिला दी हो। पति को इस तरह वीतराग देखकर उन्‍हें जगाने के लिए पद्मा ने भी जिद पकड़ी, उसने फिर कंधा हिलाकर कहा, 'इस तरह बेखबर सोते हो, अगर चोर आ जाएँ तो?' रमानाथ ने 'हूँ, ...फिर?' कहकर करवट बदली। पद्मा निराश हो गई। उस मुसलमान की लोलुप दृष्टि का ध्‍यान नहीं छोड़ सकी। उस दृष्टि का अर्थ भी वह समझ गई थी, इसलिए उसे और शंका हो रही थी।

एकाएक दरवाजे पर जोर से धक्‍का लगा। इसी तरह लगातार दो तीन धक्‍के लगे। कमजोर दरवाजा टूट गया। आवाज सुनते ही पद्मा की रहस्‍य-प्रियता दूर हो गई। उसने जोर से झटका देकर पति को जगाया। रमानाथ के उठते ही उठते कई लोग उस कमरे में घुस गए। पद्मा पर नजर पड़ते ही एक ने कहा, देखते क्‍या हो, यही तो है। कहने भर की देर थी, तीन-चार आदमियों ने पद्मा को पकड़ लिया। पद्मा उस समय अपने पति से इस तरह लिपट गई थी मानो उसके हृदय में ही वह अपने छिपने की जगह खोज रही थी। रमानाथ की नींद छूट गई थी, वे उठकर खड़े हो गए थे और आश्‍चर्य में ऐसे डूबे हुए थे कि इस सत्‍य घटना को भी वे एक स्‍वप्‍न की तरह देख रहे थे, उन्‍होंने आत्‍मरक्षा करने का कोई प्रयत्‍न नहीं किया, न उन्‍हें सँभलने का समय ही मिला। स्‍वप्‍न के विकार को सत्‍य का रूप मिलने से पहले ही बदमाशों ने पद्मा को उनके हृदय से छीन लिया! उसने करुणा भरी दृष्टि से पति से सहायता की प्रार्थना की, परंतु सब विफल हो गया। रमानाथ को जैसे काठ मार गया। वे उस जगह से हिल भी न सके।

2

'मुहल्‍ले में शोरगुल सुनकर मेरी आँखे खुल गईं।' वीरेंद्र ने कहा, 'कितनी देर हुई? जल्‍दी कहो, कितनी देर हुई पद्मा को ले गए?'

रमानाथ का सर्वांग जैसे जकड़ गया हो। कुछ बोल न सके। शून्‍य दृष्टि से सिर्फ एक दफे वीरेंद्र को देखा।

वीरेंद्र ने फिर कहा, 'देखते क्‍या हो रमा, कहते क्‍यों नहीं? किधर ले गए? खिड़की से या सदर से? अजीब आदमी हो, बोलो?'

रमानाथ की माँ पास ही खड़ी थी। उसने धीमे स्‍वर से कहा, 'वह जाने ही की थी, चली गई, ऐसी चंचल थी, हमारे कुल में कभी दाग न लगा था - वह भी लगा गई! अब उसका नाम लेते हो हमारे ही घर में?'

रमानाथ की माँ की ऐसी बातें सुनकर वीरेंद्र आश्‍चर्य में पड़ गए। वे कुछ देर चुपचाप खड़े रहे, क्‍या किया जाए, कुछ स्थिर न कर सके। तब तक रमानाथ की माँ ने फिर कहा, 'जाओ भैया, घर जाओ, जो होना था सो तो हो ही गया। यही है कि कुछ खर्च करना पड़ा। मैंने इससे पहले ही कहा था कि पढ़ी-लिखी बहू घर का कलंक होगी, आखिर वही हुआ!'

डपटकर वीरेंद्र ने कहा, 'तुमसे यह सब कौन पूछता है, मैं पूछता हूँ, डाकू गए किधर से?'

रमानाथ की माँ ने कहा, सदर दरवाजा तोड़कर आए थे - क्‍यों रमा? खिड़की खुली है, उसी रास्‍ते गए होंगे! वीरेंद्र ने देखा, खिड़की खुली थी। उन्‍होंने घर जाकर पहले अपने छोटे भाई को थाने में खबर देने के लिए भेजा, फिर अपना रिवॉल्‍वर भरकर और कुछ गोलियाँ साथ लेकर रमानाथ की खिड़की के रास्‍ते पद्मा को ढूँढ़ने के लिए चले।

रात के चार बज चुके होंगे, किसी-किसी पेड़ से रह रहकर चिड़ियों का चहकना सुनकर वीरेंद्र को ऊषा की सूचना मिलने लगी थी। जिस रास्‍ते से वीरेंद्र जा रहे थे वह रास्‍ता एक बहुत बड़े बगीचे के भीतर से गया था। कुछ दूर बढ़ने पर उन्‍होंने कुछ लोगों को आपस में बातचीत करते सुना, हृदय में आशा का संचार होने लगा, लंबे कदम बढ़ते गए, जब फासला बहुत थोड़ा रह गया तब देखा, वह दृश्‍य उन्‍हीं के हृदय की तरह पवित्र था। वीरेंद्र को विचार करने का समय नहीं मिला, वे उसी वक्‍त जबकि एक पशु दूसरे से कह रहा था, 'नहीं मानती तो जबरन - नसीर - जबरन - पहले तुम।'

पद्मा के मुँह में कपड़ा ठूँस दिया गया था, हाथ बाँधे हुए थे। उसकी प्रार्थना आँसुओं की धारा में बह रही थी, क्षमा चितवन में मिली हुई थी। ...एक ओर विनय थी, दूसरी ओर लालसा का नग्‍न रूप। एक ओर करुणा, दूसरी ओर उपेक्षा का वीभत्‍स रूप! वीरेंद्र और न देख सके। नसीर को आगे बढ़कर पद्मा का हाथ पकड़ते हुए देखते ही उन्‍होंने ललकार कर कहा, 'बस हाथ छोड़ दे अगर अपनी जान की खैर चाहता है।' नसीर डर गया। उसने पद्मा का हाथ छोड़ दिया। उसके मन की चंचलता देखकर जान पड़ा, वह भागना चाहता है। परंतु साथियों की ओर निहारकर वह ज्‍यों का त्‍यों खड़ा ही रहा। वीरेंद्र की ललकार से उसके साथी भी चौंक पड़े थे। परंतु वीरेंद्र को अकेला देख, वे भागे नहीं। भय का रूप, उन्‍हें अकेला देख, क्रोध में बदल गया था। वीरेंद्र को देख नसीर ने कहा, 'मियाँ खुरशीद! इस पर नजर रखो, कहीं भाग न जाए, हम इसके सामने अपना काम करते हैं, देखें यह हमारा क्‍या बिगाड़ लेता है, फिर इसे भी किए का मजा चखाएँगे।'

पद्मा पास ही, रास्‍ते की बगल में, पंखहीन पक्षी की तरह पड़ी थी। पद्मा ने वीरेंद्र को देखा। वीरेंद्र ने भी पद्मा की दुर्दशा देखी। उस समय पद्मा अपने बँधे हाथों से वीरेंद्र को प्रणाम कर रही थी। वीरेंद्र पद्मा के पास तक बढ़ गए। नसीर अली को उन्‍होंने कसकर एक लात जमाई। नसीर अली सामने ढेर हो गए। वीरेंद्र ने पहले पद्मा के मुँह का कपड़ा निकाला, फिर उन हाथों को, जिन्‍होंने अपनी बंधन दशा में भी उन्‍हें प्रणाम किया था, खोलने लगे।

नसीर धूल झाड़कर जब उठे और वीरेंद्र को पद्मा के बंधन खोलते देखा तो उन्‍होंने एक दफे अपने साथियों की ओर नजर दौड़ाई, फिर वीरेंद्र को दुरुस्‍त करने के लिए अपना डंडा सँभाला। उनके साथियों ने ऐसा ही कुछ इशारा किया था।

वीरेंद्र डरे नहीं। वे धोती की गाँठ खोलते ही रहे। जब वे हाथ खोल चुके तब देखा, नसीर अपने डंडे का वार कर चुका था। रिवॉल्‍वर निकालकर उसे चलाने से पहले डंडे ही का वार बैठता था, इसलिए वे फुर्ती से कुछ कदम आगे - नसीर की ओर बढ़ गए। डंडा लगा, पर चोट जरा भी नहीं आई, मूठ के पास का ही कुछ हिस्‍सा देह में छू गया था, निशाना हट जाने से वार खाली गया।

नसीर और उसके साथियों का उस समय वीरेंद्र पर उतना ध्‍यान न था जितना पद्मा पर। पद्मा की ओर एक साथ ही तीन चार आदमी, उसे पंजे से निकलते देख, बढ़ गए थे। वीरेंद्र को रिवॉल्‍वर निकालने का काफी समय मिला। जब नसीर दोबारा उसके हाथ बाँधने की तैयारी कर रहा था उस समय वह खड़ी वीरेंद्र की ओर ताक रही थी।

अचानक एक आवाज हुई। कुछ धुआँ आँखों के आगे छा गया। जब देखा तो नसीर मुँह के बल पड़ा था, उसके साथी भाग गए थे।

3

पुलिस के सामने वीरेंद्र ने सच-सच बयान किया। पद्मा के भी बयान लिखे गए। उसने आदि से अंत तक, जैसा उस पर बीता था, कहा। न कहीं अतिरंजना थी, न अकारण आक्षेप। जिस समय उसके बयान लिखे जा रहे थे, उस समय उसके पति को भी पुलिस की आज्ञा से वहाँ हाजिर रहना पड़ा था। अंत में जब पुलिस ने रमानाथ से पूछा, 'क्‍या तुम्‍हारे सामने ही तुम्‍हारी स्‍त्री को डाकू उठा ले गए थे?' तब रमानाथ ने, पास ही खड़े हुए पंडित गदाधर की ओर जो गाँव के मुखिया थे, निहारा। उस समय पुलिस का वह प्रश्‍न सुनकर बड़े आग्रह से पद्मा अपने पति को देख रही थी। गदाधर ने आँख के इशारे रमानाथ को रहने से इनकार कर जाने की युक्तिपूर्ण सलाह देकर पास ही खड़े एक कांस्‍टेबल से हँस-हँसकर बातें करने लगे।

रमानाथ घर में न रहने की सफाई देते हुए कहने लगे - 'नहीं साहब, मैं गदाधरजी के यहाँ था, मेरा न्‍योता था, (गदाधर चौंककर सँभल गए, परंतु दृष्टि से तब भी भय दूर न हुआ था) जब वहाँ से घर आया - उस समय रात के 2 बज गए होंगे - तब देखा, दरवाजा टूटा पड़ा है और मेरी स्‍त्री घर में नहीं है, माँ से पूछा तो उन्‍होंने बतलाया कि कुछ लोग दरवाजा तोड़कर पद्मा को ले गए।'

पद्मा को अपनी जाग्रत दशा का भ्रम हो रहा था। वह उन बातों को सुनकर भी उन पर विश्‍वास न कर सकती थी। उसने न जाने एक किस तरह की आशा और भय के भावों से पति को देखा, उसके ओंठ काँप रहे थे, सिर में चक्‍कर आने लगा, कुछ बोलने के लिए जी तड़फड़ा रहा था, परंतु कुछ बोल नहीं सकी। भिक्षा की दृष्टि से पति को देखा। रमानाथ ने आँखें फेर लीं, उन आँखों की घृणा पर पद्मा को विचार करने का समय नहीं मिला। उसका शरीर इतना दुर्बल हो गया था कि घृणा से चोट खाकर उसे मूर्च्‍छा आ गई। वीरेंद्र बगल में ही खड़े थे, रमानाथ की कापुरुषता वे खूब ध्‍यान लगाकर देख रहे थे। पद्मा के प्रति उनका मौन दुव्‍यर्वहार भी उनकी सजग आँखों से छिपा नहीं था। पद्मा जब गिरने लगी - तब वीरेंद्र ने उसे थामकर अच्‍छी तरह उसका बदन ढँककर वहीं लिटा दिया। फिर रमानाथ से कहा, 'रमा! तुम इतने बड़े पशु हो, मुझे नहीं मालूम था।' रमानाथ, भेड़ के बच्‍चे की तरह पुलिस अफसर का मुँह ताकने लगा। उसने वीरेंद्र से डपटकर कहा, 'जब तक कोई बात कही न जाए तब तक तुम्‍हें कुछ बोलने का अधिकार नहीं है।' गदाधर ने हाथ जोड़कर कहा, 'हाँ हुजूर, ये ऐसे गँवार हैं कि अफसरों के सामने भी बेअदबी करते हैं।' इतना कहकर वे गाँववालों की ओर ताकने लगे - दृष्टि में उतना ही उत्‍साह था जितना परीक्षा पासकर लेने पर किसी विद्यार्थी के पास होता है। उन्‍हें हाथ जोड़े देख रमानाथ ने भी हाथ जोड़ लिए, गाँव के जिन लोगों ने किसी दूसरी चिंता में पड़कर उनकी सहकारिता नहीं की थी, उन्‍होंने भी चौंककर अपराधी की तरह हाथ जोड़ लिए।

बड़ी देर तक जाँच होती रही। पद्मा और रमानाथ के बयान एक दूसरों से नहीं मिले। रमानाथ के पक्ष में गाँव भर के लोगों ने गवाही दी। वीरेंद्र के पक्ष में कोई न खड़ा हुआ। वीरेंद्र गिरफ्तार कर लिए गए। पद्मा को भी गिरफ्तार करना पुलिस अफसर ने उचित समझा।

दूर खड़े गदाधर एक कांस्‍टेबल से कुछ बातचीत कर रहे थे। उसने लौटकर थानेदार से कुछ कहा। सुपरिंटेंडेंट के चले जाने पर थानेदार साहब वीरेंद्र और पद्मा को थाने में ले गए, रमानाथ से फिर कुछ भी नहीं पूछा।

4

मुकदमे से वीरेंद्र छूट गए हैं। पद्मा पहले ही छोड़ दी गई थी। वीरेंद्र की मदद वहीं के सी.आई.सी. विभाग के इंस्‍पेक्‍टर अब्‍दुल गनी ने की थी। उन्‍होंने जाँच करके डाकुओं के अत्‍याचार और वीरेंद्र के प्राण संकट के समय गोली चलाने के यथेष्‍ट प्रमाण दिए थे।

वीरेंद्र के छूटकर गाँव आने पर आज कई दिनों के बाद गाँव के कुछ माननीय लोगों ने पंचायत करने के उद्देश्‍य से घर-घर बुलावा भेजा है। पंचायत छन्‍नूलाल के शिवालय में होगी। गाँव के अधिकांश लोग वीरेंद्र के आचरणों पर असंतुष्‍ट हैं। इसी विषय पर विचार होगा। वीरेंद्र को भी बुलावा भेजा गया है, हाँ, पद्मा को भी वहाँ हाजिर होने के लिए उसके पति के नाम से बुलावा भेजा गया है। उसे वहाँ जाकर समाज के सामने अपनी सच्‍चरित्रता के प्रमाण देने पड़ेंगे। पंचायत शाम को होगी।

धीरे-धीरे शिवालय में आदमियों का जमाव होने लगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य आदि शिवालय के चबूतरे के ऊपर बैठे थे और शूद्र चबूतरे के नीचे बैठे थे, गमछे से दोनों घुटने बाँधे हुए। वह उनकी आरामकुर्सी थी। समय से दो घंटे पहले ही गदाधर मिश्र आ गए थे। ऐसे कामों में उन्‍हें समय पर ध्‍यान नहीं रखना पड़ता था, समय को ही उन पर ध्‍यान रखना पड़ता था। गाँव के लोग इसलिए उनकी बड़ी तारीफ करते थे और इन्‍हीं सब बातों से वे गाँव के एक सच्‍चे हितैषी और धर्मात्‍मा समझे जाते थे। कहते हैं, जब वे जगन्‍नाथजी के दर्शन करने गए थे - जिंदगी भर में यही उनकी गाँव से बाहर विदेश की यात्रा थी - तब गाड़ी पर उन्‍होंने पानी नहीं पिया।

समय होने पर उन्‍होंने रमाकांत अवस्‍थी से कहा, 'बैठे अखबार पढ़ रहे हो, चलकर देखो तो रमानाथ क्‍यों देरी कर रहे हैं और उधर से वीरेंद्र को भी एक आवाज लगा देना, हाँ, सुनो।' - रमाकांत से कानोंकान कहा, 'और वीरेंद्र से कहना, उन्‍हें भी लेते आएँ जिनके लिए हवालात हो आए।'

5

सब आए। पद्मा नहीं आई। उसके बिना पंचायत के लोगों का रंग ही फीका पड़ लगा। कितने ही लोग तो उसकी उस दीन दशा में भी उसे देखकर अपने नेत्र सफल करने के लिए गए थे। रमानाथ गदाधर के पास बैठे हुए थे। वीरेंद्र चबूतरे के नीचे खड़े, गदाधर के प्रश्‍नों का उत्तर देते जाते थे, पर दृष्टि उनकी अखबार पर थी। गदाधर ने कहा, 'माना कि तुम सच्‍चे हो और तुम्‍हारा उद्देश्‍य बुरा नहीं था, तुम रमा की स्‍त्री को छुड़ाने के लिए ही गए थे, परंतु अब वह समाज की दृष्टि में पतित हो चुकी है, अब अगर उसे अपने घर में रखोगे तो हम लोग तुम्‍हें भी समाजच्‍युत कर देंगे।'

वीरेंद्र - 'यह मैं बहुत पहले ही से जानता हूँ। मुझे इसका भय न दिखाइए। गदाधरजी, आप अपने समाज को लेकर रहिए। मेरे लिए और संसार के लिए निराश्रय स्त्रियों की रक्षा करना ही सबसे बड़ा धर्म है, फिर वह तो मेरे एक मृत मित्र की विधवा है - मेरी बहन है... क्‍यों रमा?'


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