हरिऔध् ग्रंथावली-7
गद्य खंड : आलोचना

  

  

संपादक

तरुण कुमार

  

  

  

    

  

    

 

प्रकाशन संस्थान

नयी दिल्ली-110002

प्रकाशक

प्रकाशन संस्थान

4268-B/3, अंसारी रोड, दरियागंज

नयी दिल्ली-110002

   

   

   

   

   

   

   

   

   

   

मूल्य : 7500.00 रुपये (सात खंड)

प्रथम संस्करण : सन् 2010

ISBN : 81-7714-368-9

आवरण : जगमोहन सिंह रावत

 

          

          

          

          

          

          

          

          

          

          

          

 

 

शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032

मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032


अनुक्रम

 

 

पुस्तक और पुस्तक की भूमिकाएँ

    कबीर वचनावली की मुखबंध शीर्षक भूमिका  15

    'बोलचाल' की 'बातचीत' शीर्षक भूमिका      81

    विभूतिमती - ब्रजभाषा                 246

    'आधुनिक कवि' (5) की 'दो - चार बाते। ' शीर्षक भूमिका 287

स्फुट

    अभिभाषण                         301

    राष्ट्रभाषा                          353

    कवि कौन है?                       358

    वेदान्तवाद                          367

    रामायण में हिन्दू - संस्कृति            387

    तुलसीदास का महत्तव                407

    कृष्ण - गीतावली                    424

    'नीहार' का 'परिचय'                   434

    हिन्दी के मुसलमान कवि की प्रस्तावना    436

    'सरस सुमन' की भूमिका               439

    धारतीमाता                         440

    पति - सेवा                         443

परिशिष्ट

    'सन्दर्भ - सर्वस्व'                    453


 

खंड-7

 

 

हरिऔधा हिन्दी की भाषिक और साहित्यिक परम्परा को गहराई से आत्मसात् करने वाले रचनाकार थे। स्वभावत: वे हिन्दी भाषा और साहित्य के समग्र विकास को निरूपित करते हैं। छठे खंड में हम उसे देख चुके हैं। अपने आलोचना लेखन के जरिए उन्होंने ब्रजभाषा काव्य और खड़ीबोली बोलचाल में लिखे गये काव्य को प्रतिष्ठित करने के भी भरपूर प्रयास किए। उनके ब्रजभाषा-काव्य का शिखर 'रसकलस' है। इसकी सुविस्तृत भूमिका को हम पहले खंड में देख चुके हैं। 'बोलचाल' नामक अपने खड़ीबोली-काव्यग्रंथ की भी उन्होंने लंबी-चौड़ी भूमिका लिखी थी। उसके महत्तव को देखते हुए उन्होंने उसका पुस्तकाकार स्वतंत्रा प्रकाशन भी 'बोल-चाल की भाषा और मुहावरा' नाम से करवाया। इसीलिए उसे स्वतंत्रा आलोचनात्मक पुस्तक मानकर ग्रंथावली के इस आलोचना-खंड में शामिल करना उपयुक्त समझा गया।

    उनकी आलोचनात्मक चेतना का कायदे का परिचय सबसे पहले उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक 'कबीर वचनावली' की प्रशस्त भूमिका से मिलता है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से 1926 में इसका प्रकाशन हुआ था। दो वर्ष बाद सभा से ही बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा सम्पादित 'कबीर ग्रंथावली' प्रकाशित हुई। लंबे अर्से बाद फिर माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित 'कबीर ग्रंथावली' प्रकाश में आयी। कहा जा सकता है कि कबीर सम्बन्धाी पाठालोचन और अधययन को केन्द्र में लाने का काम हरिऔधा जी ने किया। तब वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अधयापन-कार्य कर रहे थे। कबीर भी काशी के थे। कहा जाता है कि अपनी विद्रोही धाार्मिक चेतना के कारण अंत समय में वे काशी को छोड़कर मगहर चले आये थे। लेकिन 'आदिग्रंथ' से 'बहुत बरख तप कीया काशी, मरन भया मगहर को बासी' जैसी कबीर की पंक्तियों को उध्दृत करते हुए वे कहते हैं कि 'इससे क्या सूचित होता है? यही कि कबीर साहब को किसी घोर धाार्मिक विरोधावश काशी छोड़नी पड़ी थी।' काशी ने तुलसीदास को भी कम परेशान नहीं किया था।

    मूलत: 'बीजक' और 'साखी' के 'चौरासी अंग की साखी' अंश को आधाार बनाकर हरिऔधा ने 'वचनावली' तैयार की। इसमें उन्होंने अन्य संग्रहों को भी सामने रखा। इन्हें देखते हुए वे कहते हैं कि 'इन ग्रंथों की अधिाकांश कविता साधाारण है। सरस पद्य कहीं-कहीं मिलते हैं। हाँ, जहाँ कबीर साहब पूरबी बोल-चाल और चलते गीतों में अपने विचार प्रकट करते हैं, वहाँ की कविता निस्संदेह अधिाक सरस है।' पद्यों में छंदोभंग की चिंत्य स्थिति की चर्चा करते हुए वे आगे कहते हैं, 'कबीर साहब के ग्रंथों का आदर कविता दृष्टि से नहीं; विचार दृष्टि से है। उन्होंने अपने विचार दृढ़ता और कट्टरपन के साथ प्रकट किए हैं। उनमें स्वाधाीनता की मात्राा भी अधिाक झलकती है।' हरिऔधा-कबीर के 'कट्टरपन' और 'स्वाधाीनता की अधिाक मात्राा' की यथास्थान आलोचना करते हैं। उनका यह निष्कर्ष भी धयानाकर्षक प्रतीत होता है कि 'जिस प्रभु की कल्पना कबीर साहब ने की है, वह वैष्णव विचार-परम्परा से ही प्रसूत है, वह वैष्णव धार्म के एकेश्वरवाद का रूपांतर मात्रा है।' करीब अस्सी-पच्चासी साल पहले व्यक्त किए गये ये विचार क्या परर्िवत्तिात परिस्थितियों में फिर से विचारणीय नहीं?

    1928 ई. में 'बोलचाल' के प्रकाशन से 'प्रियप्रवास' से नितांत भिन्न खड़ीबोली-काव्यभाषा का परिचय मिलता है। इसमें ऊपर जिस भूमिका का और बाद में उसके पुस्तकाकार प्रकाशन का जिक्र आया है, वह हरिऔधा की उस चिन्ता से जुड़ा है जो खड़ीबोली काव्यभाषा के उन्नायकों की स्वाभाविक चिन्ता कही जा सकती है। 'जब हिन्दी साहित्य पर ऑंख डाली तो उसमें मुहावरे की कोई पुस्तक न दिखलाई पड़ी। खड़ीबोली की कविता के फलने-फूलने के समय किसी ऐसी पुस्तक का न होना भी मुझे बहुत खटका।...इसलिए मैंने सोचा कि मुहावरों पर ही एक पुस्तक लिखूँ।' इसके लिए उन्हाेंने बाल से तलवे तक शरीर के विभिन्न अंगों से जुड़े मुहावरों को लेकर हजारों चौपदों की रचना की। बोलचाल की भाषा में रचना के बाद उन्होंने बोलचाल की भाषा के बारे में विचार करते हुए कहा कि 'बोलचाल की हिन्दी, सरल हिन्दी और ठेठ हिन्दी में अन्तर है।' ठेठ हिन्दी से उनका आशय तद्भव शब्दों से जुड़ी हिन्दी से है। भारतेन्दु ने हिन्दी के विभिन्न नमूने पेश किए थे। इसकी चर्चा करते हुए वे ठेठ हिन्दी से बोलचाल की हिन्दी को अलगाते हैं। उनका मानना है कि जहाँ ठेठ हिन्दी हिन्दी के चार शब्द-òोतों में से प्रधाानत: और अन्तत: तद्भव से जुड़ी है; वहाँ बोलचाल वाली हिन्दी में तद्भव के साथ उर्दू-फारसी ही नहीं अन्य विदेशज लोकप्रचलित शब्दों का भी सहज समावेश है। इसलिए उनका मानना है कि 'जिस ठेठ हिन्दी में अन्य भाषाओं का प्रचलित शब्द भी तद्भव शब्दों के साथ स्वतन्त्राापूर्वक व्यवहृत होता है, उसी को बोलचाल की भाषा कहा जा सकता है।' सरल हिन्दी उनकी दृष्टि में उस हिन्दी को कहेंगे जिसमें तद्भव शब्दों के साथ थोड़े संस्कृत के शब्द भी शामिल होते हैं। बोलचाल की हिन्दी को प्रश्रय दिया जाना हरिऔधा की दृष्टि में जरूरी था। क्योंकि इसके बिना न तो हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास सम्भव था, और न ही हिन्दी-उर्दू के बढ़ते विभेद को दूर किया जाना ही। इसके साथ वे इस भाषावैज्ञानिक सत्य के भी कायल थे कि 'जो भाषा बोलचाल की भाषा से बिल्कुल दूर हो जाती है, वह काल पाकर लोप हो जाती है और उसका स्थान वह भाषा ग्रहण कर लेती है, जो बोलचाल की अधिाक समीर्पवत्तिानी होती है।' इस भाषावैज्ञानिक सत्य का संस्कृत से अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है? निश्चय ही हरिऔधा जी की इस दूरंदेशी का कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता। आज सारे बाधाा-विघ्नों के बावजूद यदि हिन्दी फल-फूल रही है तो भाषा-संबंधाी ऐसी सजग सोच का ही उसमें योगदान है।

    उन्होंने यह महसूस किया कि उर्दू में जो चुस्ती है, उसका एक बहुत बड़ा कारण उसका मुहावरों से अभिन्न रूप से जुड़ा होना है। उर्दू की चुस्ती के साथ उसकी रवानगी उन्हें आकृष्ट करती थी। वे हिन्दी को भी उर्दू की तरह जानदार बनाने के हिमायती थे। इसी बृहत्तार परिप्रेक्ष्य में न केवल 'बोलचाल' की उनकी कविताओं को बल्कि उसकी बृहत्तार भूमिका को देखा जाना चाहिए।

    1940 में उनकी एक और छोटी-सी पुस्तक का प्रकाशन होता है-'विभूतिमती-ब्रजभाषा' का। जिन उद्देश्यों की परिपूर्ति के लिए 'रसकलस' (1931) के ब्रजभाषा-काव्य के साथ उसकी बृहदाकार भूमिका का प्रकाशन हुआ था, कमोबेश उसी की पूर्ति के लिए प्रस्तुत पुस्तक की भी रचना हुई। दरअसल ब्रजभाषा बनाम खड़ीबोली हिन्दी काव्यभाषा का विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा था। इस विवाद में खड़ीबोली के कुछ कट्टर समर्थकों के द्वारा एक तो ब्रजभाषा को वर्तमान समय में काव्यभाषा मानने से ही इनकार किया जाता था तो कुछ के द्वारा ब्रजभाषा-काव्य पर एक-से-एक आक्षेप किए जाते थे। इन आक्षेपों में ब्रजभाषा की अतिशय शृंगारप्रियता से जुड़ी कथित अश्लीलता के आक्षेप के साथ उसके विषय-संकोच का आक्षेप भी शामिल था। 'रसकलस' की उक्त भूमिका में इसी के निराकरण का प्रयास है। प्रस्तुत पुस्तक भी 'ब्रजभाषा के वैभव को हिन्दी-जगत में प्रदर्शित करने, इसपर उठनेवाले निर्मूल आक्षेपों का निराकरण करने और इसके गौरव को देदीप्यमान बनाने के उद्देश्य से लिखी गयी है। इसमें उन्होंने नवीनता की झोंक में प्राचीनता की पूर्णत: उपेक्षा किए जाने को अश्रेयस्कर करार दिया। इस क्रम में उन्होंने प्राचीनता और नवीनता के परस्परपूरक रिश्ते का सफलतापूर्वक उद्धाटन किया है।

    इसके साथ हरिऔधा यह भी मानते हैं कि भावुकता और बुध्दिमत्ताा-'दोनों के साहचर्य से ही कला पूर्णता को प्राप्त करती है।' यहाँ भावुकता ब्रजभाषा-काव्य  तो बुध्दिमत्ताा खड़ी बोली-काव्य से संदर्भित है। वस्तुत: प्राचीनता और नवीनता तथा भावुकता और बौध्दिकता के सन्दर्भ में उनके द्वारा उठाए गये प्रश्न आज भी विचारणीय हैं। अतिशय शृंगारिकता और तज्जनित स्थूलता-अश्लीलता के आक्षेप पर विचार करते हुए उनका कहना है कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्रजभाषा-काव्य में श्रेष्ठ भक्तिकाव्य भी शामिल हैं। उसमें ऐसे भी काव्य हैं जिनमें 'वीर रस और प्रसाद गुणर् मूत्तिामंत' हैं। जहाँ उसमें संकीर्णता, कामुकता और विलासिता का अतिशय समावेश है, वहाँ उसे अवश्य आलोचना का विषय होना चाहिए। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्रजभाषा में श्रेष्ठ शृंगार-काव्य भी पर्याप्त मात्राा में उपलब्धा है। और जैसे जीवन में शृंगार और प्रेम के महत्तव को नकारा नहीं जा सकता, वैसे ही काव्य में भी। ऐसे में उनका यह प्रश्न आज भी उपयुक्त जान पड़ता है कि 'विष के भय से साहित्य समुद्र के रत्नों का त्याग समुचित होगा?' ऐसे रत्नों को पुस्तक में पर्याप्त उदाहरणों के माधयम से सामने लाया गया है। वस्तुत: हरिऔधा उन विरले साहित्यकारों में थे जो एक साथ ब्रजभाषा और खड़ी बोली के सिध्दहस्त कवि थे। वे खड़ी बोली की वर्तमान अर्थवत्ताा के साथ ब्रजभाषा-काव्य की विगत महत्ताा को भी ऑंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे। काव्यभाषा ही नहीं, भावबोधा के स्तर पर भी उनमें परम्परा और परिवर्तन, प्राचीनता और नवीनता का विलक्षण मणिकांचन संयोग था। अकारण नहीं है कि वे रचनात्मक स्तर पर एक साथ खड़ीबोली और ब्रजभाषा को समृध्द करते हैं। वे कभी एक-दूसरे को विरोधा की दृष्टि से देखते ही नहीं थे। 'प्रियप्रवास' और 'रसकलस' के रचयिता के रूप में हरिऔधा जी की कीर्ति चिरस्थायी है।

    हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की 'आधाुनिक कवि' शृंखला के पाँचवें कवि के रूप में हरिऔधा हमारे सामने आए। 1947 में प्रकाशित उस शृंखला में उन्होंने खड़ीबोली काव्य को भाषा के प्रकृत पथ पर लाने की वकालत करते हुए और उसे बनावटी और गढ़ी हुई भाषा बनाने से बचने पर जोर देते हुए 'दो-चार बातें' शीर्षक से एक भूमिका लिखी। इसमें कमोबेश वही बातें कही गयी हैं जो 'बोलचाल' की भूमिका से बनी पुस्तक में कही गयी हैं। आमतौर पर जहाँ दूसरे कवियों ने शृंखला में आकर अपने कवि को प्रातिनिधिाक रूप में पेश करना चाहा, वहीं हरिऔधा जी ने इसमें खड़ीबोली काव्य के अपने विविधा पक्षों में से केवल बोलचाल की हिंदी से जुड़े काव्य को सामने रखा। ऐसा इसलिए कि राष्ट्रभाषा के रूप में खड़ीबोली के विकास के प्रति उनकी ममता थी और शायद वे यह भी समझ रहे थे कि रचनात्मक रूप से भी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बहुत उपयोगी नहीं रहनेवाली है। ग्रंथावली के प्रस्तुत खंड में उक्त भूमिका को शामिल किए जाने के साथ उनके कुछ निबन्धाों को 'स्फुट' शीर्षक के अन्तर्गत शामिल किया गया है। इनमें सबसे पहले हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के 1922 ई. के दिल्ली-अधिावेशन में सभापति के आसन से दिया गया अभिभाषण है जिसे सम्मेलन से ही प्रकाशित 'सभापतियों के अभिभाषण' भाग-2 से यहाँ संकलित किया गया है। इसमें कही गयी बातों का उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास से जुड़ी पुस्तक में (भाषण्ा की औपचारिकताओं से जुड़े अंश को छोड़कर) प्राय: शब्दश: समावेश कर लिया है। फिर भी अभिभाषण की शैली ही नहीं; उसके ऐतिहासिक महत्तव को धयान में रखते हुए उसे प्रस्तुत खंड में शामिल किया जाना समीचीन जान पड़ा। 1943 ई. में हरिऔधा जी की 'सन्दर्भ-सर्वस्व' नाम की पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। इसमें उनके कुल 18 लेख हैं। अनेक लेख उनकी 'हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का विकास' नामक पुस्तक के ही अंश-रूप हैं। बाकी संबध्द लेख यहाँ शामिल किए गये हैं। ऐसे लेखों के अंत में कोष्ठक के अन्तर्गत पुस्तक के नाम का उल्लेख भी कर दिया गया है।

    ग्रंथावली के प्रस्तुत खंड में एक लंबा लेख 'रामायण में हिन्दू-संस्कृति' नाम से शामिल है जो हमें 'हरिऔधा शती स्मारक ग्रंथ' से उपलब्धा हुआ है। इसका प्रकाशन हरिऔधा जी की 101वीं जयंती के अवसर पर 1966 ई. में हुआ था। इसी 'ग्रंथ' से तीन अन्य लेखकों-कवियों की पुस्तकों की हरिऔधा जी द्वारा लिखी भूमिका या प्रस्तावना को भी शामिल किया गया है। इनमें महादेवी वर्मा के प्रसिध्द काव्य-संग्रह 'नीहार' का परिचय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 'सन्दर्भ-सर्वस्व' और 'स्मारकग्रंथ' से ली गयी सामग्री को एक तारतम्य में यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। सम्भव है, तत्कालीन पत्रा-पत्रिाकाओं को ख्रगालने के क्रम में कुछ और सामग्री उपलब्धा हो जाएँ। ऐसे में उसे आगे के संस्करण में शामिल किया जा सकता है।

    हरिऔधा जी के आलोचनात्मक लेखन और उसके वैविधय के साथ उनकी सुस्पष्ट, प्रांजल और तर्कपूर्ण समझ और भाषा का साक्षात्कार यहाँ पाठकों को प्रीतिकर होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

-तरुण कुमार


 

 

 

 

 

 

कबीर वचनावली की मुखबंध शीर्षक भूमिका

 

 

परिचय

           कबीर साहब एक पंथ के प्रवर्तक थे। उनकी बहुत-सी साखियाँ और भजन इस प्रांत के लोगों को स्मरण हैं। साखियाँ प्राय: कहावतों का काम देती हैं; भजन मन्दिरों, समाजों और सत्संगों के अवसरों पर गाये जाकर लोगों को परमार्थ का पाठ पढ़ाते हैं। इसलिए उनसे कौन परिचित नहीं है? सभी उनको जानते हैं। किन्तु जानना भी कई प्रकार का होता है। वे सन्त थे, उन्होंने अच्छे-अच्छे भजन कहे, कबीर पन्थ को चलाया, एक जानना यह है। और एक जानना यह है कि उनकी विचार-परम्परा क्या थी, वह कैसे उत्पन्न हुई, किन सांसारिक घटनाओं और कार्य-कलापों में पड़कर वह पल्लवित हुई, किन संसर्गों और महान वचनों के प्रभावों से विकसित बनी। इन बातों का ज्ञान जितना हृदयग्राही और मनोरम होगा, उतना ही वह अनेक कुसंस्कारों और निर्मूल विचारों के निराकरण का हेतु भी होगा। अतएव पहली अभिज्ञता से इस दूसरी अभिज्ञता का महत्तव कितना अधिाक होगा, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। इस ग्रन्थ में संगृहीत पदों और साखियों में आप जिन विचारों को पढ़ेंगे, जिन सिध्दान्तों का निरूपण देखेंगे, उनके तत्तवों को उस समय और भी उत्तामता से समझ सकेंगे, जब आप यह जानते होंगे कि उनका रचयिता कैसा हृदय रखता था, और किन सामयिक घटनाओं के घात-प्रतिघात में पड़कर उसका जीवन-òोत प्रवाहित हुआ था। कविता या रचना कविहृदय का प्रतिबिम्ब मात्रा है। उसमें वह अपने मुख्य रूप में प्रतिबिंबित रहता है; इसलिए कविता का यथातथ्य मर्म समझने के लिए रचयिता के हृदयसंगठन का इतिहासपाठ बहुत उपयोगी होता है। हृदय संगठन का इतिहास जीवनघटना से सम्बध्द है, अतएव यह बहुत उपयुक्त होगा, यदि मैं इन समस्त बातों का निरूपण इस ग्रन्थ के आदि में किसी प्रबन्धा द्वारा करूँ। निदान अब मैं इसी कार्य में प्रवृत्ता होता हूँ।

जन्म और बाल्यकाल

    रेवरेड जी. एच. बेस्कट, एम. ए., वर्तमान प्रिंसिपल कानपुर क्रिश्चियन कॉलेज ने 'कबीर ऐंड दी कबीरपंथ' नाम की एक पुस्तक अंग्रेजी भाषा में लिखी है। यह पुस्तक बड़ी योग्यता से लिखी गयी है और अभिज्ञताओं एवं विवेचनाओं का आगार है। उक्त सज्जन इस ग्रन्थ के पृष्ठ 3 में लिखते हैं-''यदि हम केवल उन्हीं कहानियों पर धयान देते हैं, जिनमें ऐतिहासिक सचाई है, तो हम पर ये सब बातें स्पष्टतया प्रकट नहीं होतीं कि कबीर का जन्मस्थान कहाँ है, वे किस समय उत्पन्न हुए, उनका नाम क्या था, बचपन में वे कौन धार्मावलंबी थे, किस दशा में थे, उनका विवाह हुआ था या वे अविवाहित थे और कितने समय तक कहाँ-कहाँ रहे। यह सत्य है कि उनके नाम पर बहुत-सी कथा-वार्ताएँ कही जाती हैं। परन्तु चाहे वे कितनी ही मन बहलानेवाली क्यों न हों, उन लोगों की आवश्यकताओं को कदापि पूरा नहीं कर सकतीं, जो वास्तविक समाचार जानने के इच्छुक हैं।''

    श्रीयुत बाबू मन्मथनाथ दत्ता, एम.ए. कलकत्ताा निवासी ने अंग्रेजी में 'प्रॉफेट्स ऑफ इण्डिया' नाम का एक सुन्दर ग्रन्थ लिखा है। उसका उर्दू अनुवाद बाबू नारायण प्रसाद वर्मा ने 'रहनुमायाने हिन्द' के नाम से किया है। ग्रन्थ के पृष्ठ 223 के निम्नलिखित वाक्य में भी हम ऊपर के अवतरण की ही प्रतिधवनि सुनते हैं-'' उनकी सवानेह उमरी एक मुख की इसरार है। हम उनके दौराने जिन्दगी के हालत से बिल्कुल वाकिफ नहीं हैं।''

    परन्तु मेरी इन सज्जनों के साथ एकवाक्यता नहीं है क्योंकि प्रथम तो आगे चलकर श्रीयुत बेस्कट महोदय स्वयं निम्नांकित वाक्य लिखते हैं, जिसका दूसरा टुकड़ा उनके प्रथम विचार का कियदंश में बाधाक है-''आजतक जितनी कहानियाँ कही गयी हैं, उनसे ज्ञात होता है कि कबीर काशी के रहनेवाले थे। यह बात स्वाभाविक है कि उनके हिन्दू शिष्य जहाँ तक हो सके, उनका अपने पवित्रा नगर से सम्बन्धा दिखलाने की इच्छा करें। परन्तु दोनों बीजक और आदि ग्रन्थ से यह बात स्पष्ट है कि उन्होंने कम-से-कम अपना सारा जीवन काशी में ही नहीं व्यतीत किया।''

क.ए.क. पृष्ठ 18, 19

    दूसरे, जिस बात को कबीर साहब स्वयं स्वीकार करते हैं, उसमें तर्क-वितर्क की आवश्यकता क्या? उनके निम्नलिखित पद उनका काशी निवास होना स्पष्ट सिध्द करते हैं-

    तू बाम्हन मैं काशी का जुलाहा, बूझहु मोर गियाना।

    आदि ग्रन्थ, पृ. 262

    'सकल जनम, शिवपुरी गँवाया। मरति बार मगहर उठि धााया'

    आदि ग्रन्थ, पृ. 177

    'काशी में हम प्रगट भये हैं रामानंद चेताये'

    कबीर शब्दावली, द्वितीय भाग, पृ. 61

    मैं समझता हूँ कि यह बात निश्चित-सी है कि पुनीत काशीधााम कबीर साहब का जन्मस्थान, उनकी माता का नाम नीमा और पिता का नाम नीरू था। दोनों जाति के जोलाहे थे। कहा जाता है कि वे इनके औरस नहीं पोष्य पुत्रा थे। नीरू जब अपनी युवतीप्रिया का द्विरागमन कराकर गृह को लौट रहा था, तो मार्ग में उसको काशी के अंकस्थित लहरतारा के तालाब पर एक नवजात सुन्दर बालक पड़ा हुआ दृष्टिगत हुआ। नीमा के कलंकभय से भीत हो मना करने पर भी नीरू ने उस नवजात शिशु को ग्रहण किया और वह उसे घर लाया। वही बालक पीछे इन दयामय दम्पती द्वारा परिपालित होकर संसार में कबीर नाम से प्रसिध्द हुआ।

    यह किसका बालक था, लहरतारा के तालाब पर कैसे आया, इन कतिपय पंक्तियों को पढ़कर स्वभावत: यह प्रश्न हृदय में उदय होता है। इसका उत्तार कबीर पंथ के भावुक विश्वासी विद्वान् इस प्रकार देते हैं कि संवत् 1455 की ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमा को जब कि मेघमाला से गननतल समच्छन्न था, बिजली कौंधा रही थी, कमल खिले थे, कलियों पर भ्रमर गूँज रहे थे, मोर, मराल, चकोर कलरव करके किसी के स्वागत की बधााई गा रहे थे, उसी समय पुनीत काशीधााम के तरंगायमान लहरतारा तालाब पर एक अलौकिक घटना हुई; और वह अलौकिक घटना इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं थी कि उक्त तालाब के अंक में विकसे हुए एक सुन्दर कमल पर आकाश-मण्डल से एक महापुरुष उतरा, महापुरुष वही कबीर बालक था, जिसने कुछ घड़ियाँ पीछे पुण्यवती नीमा की गोद और भाग्यवान् नीरू का सदन समलंकृत किया।

    उक्त प्रश्न का एक और उत्तार दिया जाता है, किन्तु वह बहुत ही हृदयद्रावक है। वह अधा:पतित हिन्दूसमाज से उत्पीड़ित, भयातुरा एक दु:खमयी विधावा की व्यथामयी कथा है। वह उस खिन्नमना, भग्नहृदया, अभागिनी, ब्राह्मणबाला की वार्ता है, जिसके उपयोगी अंक से कबीर जैसा लाल गिरकर एक ऐसे स्थान में जा पड़ा कि जहाँ से उसकी परम हृदयोल्लासिनी ज्योतिर्माला फिर उसकी ऑंखों तक न पहुँची। तब भी मैं उसे एक प्रकार से भाग्यवती ही कहूँगा, क्योंकि उसका लाल किसी प्रकार सुरक्षित तो रहा। परमभाग्यहीना है यह हिन्दूजाति और नितान्त ही कुत्सितकपाला है वह आर्यबाला, जिसके न जाने कितने एक से एक सुन्दर लाल कुप्रथा के कुचक्र में पड़कर अकाल ही इस धाराधााम से लुप्त हो जाते हैं और अपनी उस गमनीय आलोकमाला के विकीर्ण करने का अवसर नहीं पाते, जो पतनशील हिन्दूसमाज का न जाने कितना अंधाकार शमन करने में समर्थ होती। आह! कहते हृदय दग्ध होता है कि तो भी हिन्दू जाति वैसी ही निश्चल, निस्पंद है; वैसी ही विवेकशून्य और किंकर्तव्यविमूढ़ है; आज पाँच शतक बीत जाने पर भी उसकी मोहनिद्रा वैसी ही प्रगाढ़ है। कब उसकी यह समाजधवंसिनी मोहनिद्रा विदूरित होगी, ईश्वर ही जाने।

    कहते हैं कि स्वामी रामानंद जी के सेवा में एक दिन उनका अनुरक्त एक ब्राह्मण उपस्थित हुआ। उसके साथ उसकी विधावा पुत्राी भी थी। जिस समय इस संकोचमयी विधावा ने विनीत होकर उक्त महात्मा के श्रीचरण कमलों में प्रण्ााम किया, उस समय अचानक उनके श्रीमुख से निकला- पुत्रावती भव। काल पाकर यह आशीर्वचन सफल हुआ और विधावा ने एक पुत्रा जना। परन्तु लोकलज्जावश, हिन्दू समाज की रोमांचकारी कुप्रथा के निंदनीय आतंकवश, यह सशंकिता विधावा अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अपनी इस प्यारी संतान को त्याग देने के लिए बाधय हुई। कुछ घड़ी पीछे लहर तालाब की हरी शान्तिमय भूमि में इसे जोलाहा दम्पती ने पाया, यह प्रसंग भी आप लोगों को अविदित नहीं है।

    इन दो उत्तारों में से मुझे दूसरा उत्तार युक्तिसंगत और प्रामाणिक ज्ञात होता है। पहले उत्तार को श्रध्दा; विश्वासवाले कबीरपंथी ही या उन्हीं के से विचार के कुछ लोग मान सकते हैं, परन्तु दूसरा उत्तार सर्वमान्य और ऐतिहासिक है। उसको विजातीय और विधार्मी भी स्वीकार कर सकता है। यह कोई नहीं कहता कि कबीर साहब नीमा और नीरू के औरस पुत्रा थे; और जब वे इनके औरस पुत्रा नहीं माने जाते, तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि किसी अन्य की संतान थे। और जब उनका अन्य की संतान होना निश्चित है, तो हमको बिना किसी आपत्तिा के दूसरा उत्तार ही स्वीकार करना पड़ेगा। कहा जा सकता है कि दूसरे उत्तार में भी स्वामीजी की आशीर्वाद की एक अस्वाभाविक वार्ता सम्मिलित है; किन्तु इस अंश का मुख्य घटना के साथ कोई विशेष सम्बन्धा नहीं है। यह अंश निकाल देने पर भी वास्तविक घटना की स्वाभाविकता में अन्तर नहीं आता। मुझे ज्ञात होता है कि ब्राह्मण विधावा के कलंकभंजन अथवा कबीर साहब की जन्मकथा को गौरवमयी बनाने के लिए ही स्वामी जी की आशीर्वाद सम्बन्धिानी वार्ता का इस घटना के साथ संयोग किया गया है।

    कबीर साहब के बाल्यकाल की बातें किसी ग्रंथ में कुछ लिखी नहीं मिलतीं। कबीरपंथियों के ग्रंथों में इतना लिखा अवश्य मिलता है कि वे बाल्यकाल ही से धार्मपरायण और उपदेशनिरत थे। जनसाधाारण के सम्मुख वे मुझे उस समय दिखलाई पड़ते हैं, जब उनको सुधा-बुधा हो गयी थी और जब वे तिलक इत्यादि लगाकर राम नाम जपने में लीन हो रहे थे। यह भी लिखा मिलता है कि इसी समय उनसे कहा गया कि तुम निगुरे हो; इसलिए जब तक तुम कोई गुरु न कर लोगे, तब तक तिलक मुद्रा देने अथवा राम राम जपने से पूरे फल की प्राप्ति न होगी। यह एक हिन्दू विचार है। इसमें एक अच्छे पथप्रदर्शक से अभिलषित मार्ग में सहायता ग्रहण करने के सिध्दान्त की ओर संकेत है। कथन है कि कबीर साहब पर लोगों के इस कहने का प्रभाव पड़ा और उन्हें गुरु करने की आवश्यकता समझ पड़ी। ये बातें भी यही प्रकट करती हैं कि जिस काल की ये घटनाएँ हैं, उस समय कबीर सुबोधा हो चुके थे और बाल्यावस्था उत्ताीर्ण हो गयी थी।

मंत्राग्रहण

    कबीर साहब हिन्दू थे या मुसलमान, वे स्वामी रामानंद जी के शिष्य थे, या किसी मुसलमान फकीर के चेले सूफी, इस विषय में 'कबीर ऐंड दी कबीर पंथ' के दूसरे अधयाय में उसके विद्वान् रचयिता ने एक अच्छी विवेचना की है। मैं उनके कुल विचारों को यहाँ नहीं उठा सकता; परन्तु उनके मुख्य स्थानों को उठाऊँगा और इस बात की मीमांसा करूँगा कि उनके विचार कहाँ तक युक्तिसंगतहैं।

    उक्त ग्रन्थ के 25-26 पृष्ठ में एक स्थान पर उन्होंने लिखा है-'खजीनतुल अस्फिया'1 में कहा गया है कि 'शेख कबीर जोलाहा, शेख तकी के उत्ताराधिाकारी और चेले थे। वह अपने समय के महापुरुष और ईश्वरवादियों के नेता थे। उन्होंने सूफियों के विसाल (ईश्वरमिलन) नामक सिध्दान्त की शिक्षा दी और फिराक (वियोग) के सम्बन्धा में चुप रहे। यह भी कहा जाता है कि वे पहले मनुष्य हैं जिन्होंने परमेश्वर और उसकी सत्ताा के विषय में हिन्दी में लिखा। वे बहुत-सी

1. यह पुस्तक मौलवी गुलाम सरवर की बनाई हुई है और 1868 ई. में लाहौर में छपी थी।

हिन्दी कविताओं के रचयिता हैं। धाार्मिक सहनशीलता के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ने उन्हें अपना नेता माना। हिन्दुओं ने उन्हें भगत कबीर और मुसलमानों ने पीर कबीर कहा।''

    इसके आगे चलकर उनका दूसरा अधयाय प्रारम्भ होता है। उसमें उन्होंने इस ऊपर लिखे विचार की ही पुष्ट की है। पहले वे कहते हैं-

    ''संस्कृत के नामी विद्वान् विलसन साहब, जिनकी खोज के लिए प्रत्येक भारतवर्षीय धाार्मिक विचारों का जिज्ञासु अंग्रेज धान्यवाद रूपी ऋण से दबा है, लिखते हैं कि यह बात विचार-विरुध्द है कि कबीर एक मुसलमान थे, यद्यपि यह असम्भव नहीं है। मैलकम साहब की इस अनुमति का कि वे सूफियों में से थे, विलसन साहब अधिाक आदर नहीं करते। बाद के लेखकगण एक ऐसे विद्वान् पुरुष की सम्मति मान लेने में ही सन्तुष्ट रहे हैं और इनकी निष्पत्तिा को उन्होंने निश्चित की हुई सत्य बात की भाँति स्वीकार कर लिया है।''

क.ऐ.क., पृष्ठ 29

    इसके अनंतर नाभा जी के प्रसिध्द छप्पय इत्यादि का अनुवाद देकर, जिसमें यह कहा गया है कि 'कबीर साहब ने वर्णाश्रम धार्म और षट्दर्शन की कानि नहीं मानी'। उन्होंने यह बतलाया है कि कबीर साहब ने किस प्रकार झाँसी निवासी शेख तकी का शिष्यत्व स्वीकृत किया। तदुपरान्त वे यह कहते हैं-

    ''हमने सम्भवत: पूरी तौर पर इस बात को सिध्द कर दिया है कि यह असम्भव नहीं है कि कबीर मुसलमान और सूफी दोनों रहे हों।...मगहर में उनकी कब्र है जो मुसलमानों के संरक्षण में रहती आयी है। किन्तु यह बात आश्चर्यजनक है कि एक मुसलमान हिन्दी साहित्य का जन्मदाता हो। परन्तु इसको भी नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दुओं ने भी फारसी कविता लिखने में प्रतिष्ठा पाई है। फिर, कबीर साधाारण योग्यता और निश्चय के मनुष्य नहीं थे। इनके जीवन का उद्देश्य यह था कि अपनी शिक्षाओं को उन लोगों से स्वीकृत करावें, जो हिन्दी भाषा द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकते थे।''

कबीर एंड कबीर पंथ, पृ. 44

    कबीर साहब का मुसलमान होना निश्चित है। उन्होंने स्वयं स्थान-स्थान पर जोलाहा कहकर अपना परिचय दिया है। जब जन्मकाल ही से वे जोलाहे के घर में पले थे, तो उनका दूसरा संस्कार हो नहीं सकता था; उनके जी में यह बात समा भी नहीं सकती थी कि मैं हिन्दू सन्तान हूँ। नीचे के पदों को देखिए। इनमें किस स्वाभाविकता के साथ वे अपने को जोलाहा स्वीकार करते हैं-

    छाँड़े लोक अमृत की काया जग में जोलह कहाया।

कबीर बीजक, पृ. 605

कहैं कबीर राम रस माते जोलहा दास कबीरा हो।

प्रथम ककहरा, चरण 15

जाति जुलाहा क्या करै हिरदे बसे गोपाल।

कबिर रमैया कंठ मिलु चुकै सरब जंजाल।

आदि ग्रंथ, पृष्ठ 737, साखी 82

    किन्तु वे सूफी और शेख तकी के चेले थे, यह बात निश्चितरूप से स्वीकृत नहीें की जा सकती। श्रीयुत बेस्कट ने अपने ग्रन्थ में जितने प्रमाण दिखलाए हैं, वे सब बाहरी हैं। कबीर साहब के वचनों अथवा उनके ग्रन्थों से उन्होंने कोई प्रमाण ऐसा नहीं दिया जो उनके सिध्दान्त को पुष्ट करे। बाहरी प्रमाणों की अपेक्षा ऐसे प्रमाण कितने मान्य और विश्वसनीय हैं, यह बतलाना व्यर्थ है। कबीर साहब कहते हैं-

भक्ती लायर ऊपजी, लाये रामानंद।

परगट करी कबीर ने, सात दीप नौ खंड।

चौरासी अंग की साखी, भक्ति का अंग।

काशी में हम प्रगट भये हैं रामानंद चेताये।

कबीर शब्दावली, द्वितीय भाग, पृ.61

काशी में कीरति सुन आई, कबीर मोहि कथा बुझाई।

गुरु रामानंद चरण कमल पर धाोबिन1 दीनी वार।

कबीर-कसौटी, पृ. 5

    कबीर साहब के ये वचन ही पर्याप्त हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि वे स्वामी रामानंद के शिष्य थे। तथापि मैं कुछ बाहरी प्रमाण दूँगा।

    धार्मदास जी कबीर साहब के प्रधाान शिष्य थे। वे कबीर-पंथ की एक शाखा के आचार्य भी हैं। वे कहते हैं-

1. धाोबिन अर्थात् माया।

काशी में प्रगटे दास कहाये नीरू के गृह आये।

रामानँद के शिष्य भये, भवसागर पंथ चलाये।

कबीर-कसौटी, पृ. 33

    फारसी की एक तवारीख दबिस्ताँ में मुहसिनफनी कश्मीरवाला, जो अकबर के समय में हुआ है, लिखता है-

    ''कबीर जोलाहे और एकेश्वरवादी थे। कोई आधयात्मिक पथदर्शक मिले, इस इच्छा से वे हिन्दू साधाुओं एवं मुसलमान फकीरों दोनों के पास गए; और अन्त में जैसा कहा गया है रामानंद के शिष्य हुए।''-कबीर ऐंड कबीर पंथ, पृष्ठ37

    इन बातों के अतिरिक्त यदि कबीर साहब की रचनाओं को पढ़िए, तो वे इतनी हिन्दूभावापन्न मिलेंगी, कि उन्हें पढ़कर आप यह स्वीकार करने के लिए विवश होंगे कि उन पर परम शास्त्रापारंगत किसी महापुरुष का प्रभाव पड़ा था। कबीर साहब अशिक्षित थे, यह बात उनके समस्त जीवनीलेखक स्वीकार करते हैं। अतएव उनके लिए ज्ञानार्जन का मार्ग सत्संग के अतिरिक्त और कुछ न था। यदि वे मुसलमान धार्माचार्यों द्वारा प्रभावित होते, तो उनकी रचनाओं में अहिंसावाद और जन्मांतरवाद का लेश भी न होता। जो हिंसावाद मुसलमानी धार्म का प्रधाान अंग है, उस हिंसावाद के विरुध्द जब वे कहने लगते हैं, तब ऐसी कड़वी और अनुचित बातें कह जाते हैं जो एक धार्मोपदेशक के मुख से अच्छी नहीं लगतीं। क्या हिंसावाद का उन्हें इतना विरोधाी बनानेवाला मुसलमानी धार्म या सूफीसम्प्रदाय हो सकता है? उनका सृष्टिवाद देखिए। यह वही हैं जो पुराणों में वर्णित हैं। उनकी रचनाओं में हिन्दूशास्त्राों और पौराणिक कथाओं एवं घटनाओं के परिज्ञान का जितना पता चलता है, उसका शतांश भी मुसलमानी धार्मसम्बन्धाी उनका ज्ञान नहीं पाया जाता। जब वे किसी अवसर पर मुसलमान धार्म पर आक्रमण करते हैं, तब उन्हीं ऊपरी बातों को कहते हैं, जिनको एक साधाारण हिन्दू भी जानता है। किन्तु हिन्दू धार्मविवेचन के समय उनके मुख से वे बातें निकलती हैं, जिन्हें शास्त्राज्ञ विद्वानों के अतिरिक्त दूसरा कदाचित ही जानता हो। इन बातों से क्या सिध्द होता है? यही कि उन्होंने किसी परम विद्वान् हिन्दू महात्मा के सत्संग द्वारा ज्ञानार्जन किया था और स्वामी रामानंद के अतिरिक्त उस समय ऐसा महात्मा कोई दूसरा नहीं था।

    एक बात और है। वह यह कि हम उनके प्रामाणिक ग्रन्थों में कहीं-कहीं ऐसा वाक्य पाते हैं, जो उनको हिन्दुओं का पक्षपाती बताते हैं या मुसलमान जाति पर उनकी घृणा प्रकट करते हैं, और जिन्हें मुसलमान धार्माचार्य का शिष्य कभी नहीं कह सकता। नीचे के पदों को पढ़िए-

''सुनत कराय तुरुक जो होना, औरत को का कहिए।

अरधा शरीर नारि बखानै, ताते हिन्दू रहिए।''

कबीर बीजक, पृष्ठ, 363, शब्द 84

कितो मनावै पायँ परि, कितो मनावैं रोइ।

हिंदू पूजैं देवता तुरुक न काहुक होइ।

कबीर बीजक, साखी 187, पृष्ठ 593

    मैंने अब तक जो कुछ कहा उससे इसी सिध्दान्त पर उपनीत होना पड़ता है कि कबीर साहब स्वामी रामानंद के शिष्य थे। किन्तु उनके मन्त्राग्रहण की वार्ता से मैं सहमत नहीं हूँ। भक्तमाल और उसी के अनुसार दूसरे ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि गुरु करने की इच्छा उदित होने पर कबीर साहब ने स्वामी रामानंद को गुरु करना विचारा। किन्तु यवन होने के कारण वे स्वामी रामानंद जी तक नहीं पहुँच सकते थे। अतएव उनसे मन्त्रा ग्रहण करने के लिए उन्होंने दूसरी युक्ति निकाली। स्वामी रामानंद शेष रात्रिा में गंगास्नान के लिए नित्य मणिकर्णिका घाट पर जाया करते थे। एक दिन उसी समय कबीर साहब घाट की सीढ़ियों में जाकर पड़ रहे। जब स्वामी जी आए, तब सीढ़ियों से उतरते समय उनका पाँव कबीर साहब पर पड़ा। वे कुलबुलाए। स्वामी जी ने जाना कि मनुष्य के ऊपर पाँव पड़ा, इसलिए वे बोल उठे 'राम राम!!'' कबीर साहब ने इसी राम शब्द को मन्त्रास्वरूप ग्रहण किया; और उसी दिन से काशी में अपने को स्वामी रामानंद का शिष्य प्रकट किया।

    बतलाया गया है कि उनके माता पिता और कुछ लोगों को वंश-मर्यादा-प्रतिकूल कबीर साहब की यह क्रिया अच्छी न लगी; इसलिए उन लोगों ने जाकर स्वामी जी को उलाहना दिया। स्वामी जी ने उनको बुलवाया और पूछा-कबीर! हमने तुझे मन्त्रा कब दिया? कबीर साहब ने कहा-और लोग तो कान में मंत्रा देते हैं; परन्तु आपने तो सिर पर पाँव रखकर मुझे राम नाम का उपदेश दिया। स्वामी जी को बात याद आ गयी, उठकर हृदय से लगा लिया, और कहा कि निस्सन्देह तू इसका पात्रा है। गुरु शिष्य का यह भाव देखकर लोगों को फिर कुछ कहने का साहस नहीं हुआ।

    स्वामी रामानंद असाधाारण आधयात्मिक शक्तिसम्पन्न महापुरुष थे। जो रामावत सम्प्रदाय इस समय उत्तारीय भारत का प्रधाान धार्म है, वह उन्हीं की लोकोत्तार मेधाा का अलौकिक फल है। उस राम मन्त्रा से सर्वसाधाारण को परिचित करानेवाले यही महोदय हैं; जो हिन्दू जाति के मोक्षपथ का अभूतपूर्व संबल हैं, जिनके सुयश गान से कबीर साहब के साम्प्रदायिक ग्रन्थ मुखरित हैं, गुरु नानक का विशाल आदि ग्रन्थ गौरवान्वित है, दादू ग्रन्थावली पवित्राीकृत है, और अन्य कितनी ही साम्प्रदायिक पुस्तकमालाएँ प्रशंसित और सम्मानित हैं। कुछ लोग ऊँचे उठे, बहुत कुछ चिन्ताशीलता का परिचय दिया, तनधाारी राम से सम्बन्धा तोड़ा, किन्तु वे इस राम शब्द की ममता न छोड़ सके। इस महात्मा के आधयात्मिक विकास की वहाँ पराकाष्ठा होती है, जहाँ वे सोचते हैं, प्रवहमान मरुत, सुशीतल जल और सूर्यदेव की ज्योतिर्माला तुल्य भगवद्भक्ति पर प्रत्येक मानव का समान अधिाकार है। भारतवर्ष के उत्तार काल में वे पहले महात्मा हैं, जो नितांत उदार हृदय लेकर सामने आते हैं और उसी सहृदयता से जाट, नाई, जोलाहे और चमार को अंक में ग्रहण करते हैं, जिस प्यार से किसी सजातीय ब्राह्मण बालक को वे हृदय से लगाते हैं। ऑंख उठाकर देखिए, किसकी शिष्यमंडली में एक साथ इतने महात्मा और मत-प्रवर्तक हुए, जितने कि इस महानुभाव के सदुपदेश आलोक से आलोकित सत्पुरुषों में पाए जाते हैं। जब इस महात्मा की पूत कार्यावली पर दृष्टि डालते हैं और फिर सुनते हैं कि उनके सन्निकट कोई मनुष्य जोलाहा होने के कारण नहीं पहुँच सका, तो हृदय को बड़ी व्यथा होती है। यदि रैदास चमार उनके द्वारा अंगीकृत हुआ तो कबीर जोलाहा कैसे तिरस्कृत हो सकता था? वास्तविक बात यह है कि इन कथाओं के गढ़ने वाले संकुचित विचार के कतिपय वे ही अदूरदर्शी जन हैं, जिनके अविवेक से प्रतिदिन हिन्दूसमाज का Ðास हो रहा है। मुझे इन कथाओं को स्वीकार करना युक्ति-संगत नहीं ज्ञात होता। मैं महसिन फनी के इस विचार से सहमत हूँ कि ''आधयात्मिक पथप्रदर्शक मिले, इस इच्छा से कबीर साहब हिन्दू साधाुओं एवं मुसलमान फकीरों दोनों के पास गये और अन्त में स्वामी रामानंद के शिष्य हुए।''

           जो लोग मणिकर्णिका घाट की घटना ही को सत्य मानते हैं, उनसे मैं कोई विवाद नहीं करना चाहता; किंतु इतनी विनीत प्रार्थना अवश्य करता हूँ कि इस घटना को लक्ष्य कर जो मनीषी स्फीतवक्ष से 'पुनंतु मां ब्राह्मण पादरेणव:' वाक्य पर गर्व करते हैं, उनकी मनीषिता केवल गर्व करने में ही पर्यवसित होती है, अथवा वे इस वाक्य के मर्मग्रहण की भी कुछ चेष्टा करते हैं। प्रतिवर्ष सहòों हिन्दू हमारे समाज अंक को शून्य करके अन्य धार्म की शरण ले रहे हैं। प्रतिदिन हिन्दू धार्म माननेवालों की संख्या क्षीण होती जा रही है। क्या उसके विषय में उनका कुछर् कत्ताव्य नहीं है? क्या धार्म से च्युत होते हुए प्राणियों की संरक्षा में पुण्य नहीं है? क्या कुलगौरव, मान-मर्यादा, वर्णाश्रम धार्म का संरक्षण ही सत्कर्म है? क्या नित्य स्वधार्म-परित्याग-परायण अधा:पतित जातियों का समुध्दार सत्कर्म नहीं है? यदि है तो कितने महोदय ऐसे हैं जिन्होंने आत्मत्यागपूर्वक निर्भीक चित्ता से इस मार्ग में पदविन्यास किया है? पदरेणु की बात जाने दीजिये, मैं पूछता हूँ कि कितने लोगों का हृदय इतना पुनीत है, शरीर इतना पुण्यमय है, स्वयं आत्मा इतनी पवित्राीभूता है कि जिनके स्पर्श से अपावन भी पावन हो जाता है? जब हम स्वयं अपावन को छूकर आज अपवित्रा होते हैं, तो हमको 'पुनंतु मां ब्राह्मण-पादरेणव:' वाक्य मुख पर लाते हुए लज्जित होना चाहिए। यदि नहीं, तो एक आत्मोत्सर्गी महापुरुष की भाँति कार्यक्षेत्रा में अवतीर्ण होना चाहिए। और यह दिखला देना चाहिए कि स्वामी रामानंद का आधयात्मिक बल अब भी भारतवासियों में शेष है, अब भी अपावन को पावन बनाने की बलवती शक्ति उनमें विद्यमान है, भारत वसुंधारा अभी ऐसे अलौकिक रत्नों से शून्य नहीं हुई है।

संसार-यात्राा

    कबीर साहब अपने जीवन का निर्वाह अपना पैतृक व्यवसाय करके ही करते थे, यह बात उनके सभी जीवनी लेखकों ने स्वीकार की है। उनके शब्दों में भी ऐसे वाक्य बहुत मिलते हैं कि 'हम घर सूत तनहिं नित ताना' इत्यादि जिनसे उनका यही व्यवसाय करके अपना जीवन बिताना सिध्द होता है। इस विषय में उनका एक बड़ा सुन्दर सबद है; उसे नीचे लिखता हूँ-

मुसि मुसि रोवै कबीर की माय,

ए बालक कैसे जीवहिं रघुराय,

तनना बुनना सब तज्यो है कबीर,

हरि का नाम लिखि लियो शरीर।

जब लग तागा बाहउँ बेही,

तब लग बिसरै राम सनेही।

ओछी मति मेरी जात जुलाहा,

हरि का नाम लह्यो मैं लाहा।

कहत कबीर सुनहु मेरी माई,

हमारा इनका दाता एक रघुराई।

आदि ग्रंथ, पृष्ठ 285

    किन्तु इनके विवाह और संतानोत्पति के विषय में मतांतर है। कबीरपंथ के विद्वान् कहते हैं कि लोई नाम की स्त्राी उनके साथ आजन्म रही, परन्तु उससे उन्होंने विवाह नहीं किया। इसी प्रकार कमाल उनके पुत्रा और कमाली उनकी पुत्राी के विषय में भी वे लोग विचित्रा बातें कहते हैं। उनका कथन है कि ये दोनों अन्य की सन्तान थीं, जो मृतक हो जाने के कारण त्याग दिए गये थे; परन्तु कबीर साहब ने उनको पुन: जिलाया और पाला; इसीलिए ये दोनों उनकी सन्तान करके प्रख्यात हुए। यह कदाचित् वे लोग इसलिए कहते हैं कि कबीर साहब ने स्त्राीलिंग को बुरा कहा है। यथा-

नारि नसावै तीन गुन, जो नर पासे होय।

भक्ति मुक्ति निज धयान में, पैठि सकै नहिं कोय।

नारी की झाँई परत, अंधाा होत भुजंग।

कबिरा तिनकी कौन गति जो नित नारी के संग।

चौरासी अंग की साखी, कनक-कामिनी का अंग।

    किंतु कबीर साहब ने अपना विवाह होना स्वयं स्वीकार किया है। यथा-

नारी तो हम भी करी, जाना नाहिं बिचार।

जब जाना तब परिहरी, नारी बड़ा बिकार।

चौरासी अंग की साखी, कनक-कामिनी का अंग।

           भ्रमण करते हुए एक दिन कबीर साहब भगवती भागीरथी कूलस्थित एक बनखंडी वैरागी के स्थान पर पहुँचे। वहाँ एक विंशति वर्षीया युवती ने आपका स्वागत किया। वह निर्जन स्थान था। परन्तु कुछ काल ही में वहीं कुछ साधाु और आए। युवती ने साधाुओं को अतिथि समझा, उनका शिष्टाचार करना चाहा, अतएव वह एक पात्रा में दूधा लाई। साधाुओं ने उस दूधा को सात पनवाड़ों में बाँटा। पाँच उन लोगों ने स्वयं लिया, एक कबीर साहब को और एक युवती को दिया। कबीर साहब ने अपना भाग लेकर पृथ्वी पर रख दिया, इसलिए युवती ने कुछ संकोच के साथ पूछा-आपने अपना दूधा धारती पर क्यों रख दिया? आप भी और साधाुओं की भाँति उसे कृपा करके अंगीकार कीजिए। कबीर साहब ने कहा-देखो, गंगा पार से एक साधाु और आ रहा है। मैंने उसी के लिए इस दूधा को रख छोड़ा है। युवती कबीर साहब की यह सज्जनता देखकर मुग्धा हो गयी और उसी समय उनके साथ उनके घर चली आई। पश्चात् इसी के साथ कबीर साहब का विवाह हुआ। इसका नाम लोई था। यह बनखंडी वैरागी की प्रतिपालित कन्या थी। इसे वैरागी ने अचानक एक दिन जाÐवीकूल पर पड़ा पाया था। कमाली और कमाल इसी की संतान थे।

शील और सदाचार

    एक दिन कबीर साहब ने एक थान बुनकर प्रस्तुत किया और बेचने की कामना से वे उसे लेकर घर से बाहर निकले। अभी कुछ दूर आगे बढ़े थे कि एक साधाु ने सामने आकर कहा-बाबा कुछ दे! कबीर साहब ने आधाा थान फाड़ दिया। उसने कहा-बाबा, इतने में मेरा काम न चलेगा। कबीर साहब ने दूसरा आधाा भी उसको अर्पण किया और आप प्रसन्न बदन घर लौट आए।

    एक दिन कबीर साहब के यहाँ बीस पच्चीस भूखे फकीर आए। उस दिन उनके पास कुछ न था, इसलिए वे घबराए। लोई ने कहा-यदि आज्ञा हो तो मैं एक साहूकार के बेटे से कुछ रुपये लाऊँ। उन्होंने कहा-कैसे! स्त्राी ने कहा-वह मुझ पर मोहित है। मैं पहुँची नहीें कि उसने रुपया दिया नहीं। कबीर साहब ने कहा-किसी तरह काम चलाना चाहिए। लोई साहूकार के बेटे के पास पहुँची, रुपया लाई और रात में मिलने का वादा कर आई। दिन खाने खिलाने में बीता, रात हुई, सब ओर ऍंधोरा छा गया, झड़ बाँधाकर मेह बरसने लगा, रह रहकर हवा के झोंके जी कँपाने लगे। किन्तु कबीर साहब को चैन न था, वे सब जान चुके थे। उन्होंने सोचा-जिसकी बात गयी उसका सब गया, इसलिए वे पानी और हवा से न डरे। कम्मल ओढ़ाकर उन्होंने स्त्राी को कंधो पर लिया और साहूकार के घर पहुँचे। साहूकार का लड़का तड़प रहा था। उसको आया देख वह खिल उठा। किन्तु जब उसने देखा कि न तो उसके पाँव कीचड़ से भरे हैं और न कपड़ा भींगा है, तो चकित हो गया और बोला-तुम कैसे आई? लोई ने कहा-मेरे पति मुझे अपने कंधो पर चढ़ाकर लाए हैं। यह सुनकर साहूकार के लड़के के जी में बिजली कौंधा गयी, उजाले के सामने ऍंधिायारा न ठहर सका। वह लोई के पाँवों पर गिर पड़ा और बोला-आप मेरी माँ हैं। कबीर साहब ने मेरी ऑंखें खोलने के लिए ही इस कठिनाई का सामना किया है। इतना कहकर वह घर से बाहर निकल आया और कबीर साहब के पाँवों से लिपट गया तथा उसी दिन से उनका सच्चा सेवक बन गया।

    श्रीमान् बेस्कट लिखते हैं कि ''कबीर साहब के वर्णित जीवन चरित में एक प्रकार का काव्य का-सा सौन्दर्य पाया जाता है''1। यह बात सत्य है कि मेरी प्रवृत्तिा इन दो प्रसंगों के अतिरिक्त किसी तीसरे प्रसंग को लिखने को नहीं होती। आप लोग इन दो कथानकों से ही उनके शील और सदाचार के विषय में बहुत कुछ अवगत हो सकते हैं।

धार्मप्रचार

    भागीरथी के तट की बातें लिखकर 'रहनुमायाने हिन्द' के रचयिता लिखते हैं 'रामानंद कबीर के वशरे से कुछ आसारे सआदत देखकर उन्हें अपने मठ में ले आये और वह उसी रोज वाजाब्ता रामानंद के मजहब में दाखिल हो गए। मगर हम यह नहीं बता सकते कि वह कब तक अपने गरोह की इताअत व पैरवी में साबित-कदम रहे। गालिबन् मुरशिद की बफात के बाद उन्हाेंने अपने मजहब का वाज व तलकीन शुरू की।'' मेरा भी यही विचार है। उनका उपदेश देने का ढंग निराला था। सम्भव है कि वे कभी-कभी यों भी लोगों को उपदेश देते रहे हों, किंतु अधिाकतर वे अपने विचारों को सीधाी-सादी बोलचाल की भाषा में भजन बनाकर और उन्हेें गाकर प्रकट करते थे। उनके भजनों को देखिए, उनकी रचना अधिाकांश प्रचलित गीतों के ढंग की है।

    वे स्वयं कहते हैं-

बोली हमारी पूर्व की, हमें लखा नहिं कोइ।

हमको तो सोई लखै, घर पूरब का होइ।

मसि कागद तो छुयो नहिं, कलम गही नहिं हाथ।

चारिहु जुग महात्म्य तेहि, कहि कै जनायो नाथ।

कबीर बीजक, साखी 177, 181

    उनके धाार्मिक सिध्दान्त क्या थे और वे लोगों को किस बात की शिक्षा देते थे, इस बात का वर्णन मैं अन्त में करूँगा। यहाँ केवल यह प्रकट करना चाहता हूँ कि संसार में जो लोग मुख्य योग्यता के होते हैं, उनमें कुछ आकर्षिणी

1. देखो, कबीर ऐंड द कबीर पंथ, पृष्ठ 29

शक्ति अवश्य होती है। कबीर साहब में भी यह शक्ति थी। उनके भावमय भजनों को सुनकर और उनके शील और सदाचरण से प्रभावित होकर उनके समय में ही अनेक लोग उनके अनुगत हो गए। इनमें अधिाकतर हिन्दुओं की ही संख्या है, मुसलमानों के हृदय पर उनका अधिाकार नहीं हुआ। किसी-किसी राजा पर भी उनका प्रभाव पड़ा, चाहे यह प्रभाव केवल एक साधाु या महात्मामूलक हो, या धार्ममूलक।

विरोधाी दल

    यह सत्य है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों धार्म के नेताओं से अंत में उनका विरोधा हो गया। क्यों हो गया, इसके कारण स्पष्ट हैं। हिन्दू धार्म के नेताओं को एक अहिन्दू का हिन्दू, धार्मोपदेशक रूप से कार्यक्षेत्रा में आना कभी प्रिय नहीं हो सकता था; इसलिए उन लोगों का कबीर साहब का कट्टर विरोधाी हो जाना स्वाभाविक था। हिन्दू आचार्य का शिष्यत्व ग्रहण करने और मुसलमान होकर हिन्दू सिध्दान्तों के अनुगत और प्रचारक हो जाने के कारण मुसलमान धार्म के नेताओं से भी उनका वैमनस्य हो गया। परिणाम इसका यह हुआ कि उन्हाेंने दोनों धार्मों के नेताओं पर कठोरता के साथ आक्रमण किया और उद्दंड स्वभाव होने के कारण उन पर बड़ी कटूक्तियाँ कीं, उनके धार्मग्रन्थों को भला-बुरा कहा। फिर विरोधा की आग क्यों न भड़कती। निदान इस विरोधा के कारण उनको अनेक यातनाएँ भोगनी पड़ीं। किंतु उनमें वह दृढ़ता मौजूद थी, जो प्रत्येक समय के धार्मप्रचारकों में पाई जाती है। इसलिए अनेक कष्ट सहकर भी वे अपने सिध्दान्त पर आरूढ़ रहे और उनकी इसी निश्चलता ने उनको सर्वसाधाारण में समादृत बनाया। उस समय सिकन्दर लोदी उत्तारीय भारत में शासन करता था! शेख तकी (जो एक प्रभावशाली और मान्य व्यक्ति थे) और दूसरे मुसलमानों के शिकायत करने पर बादशाह की क्रोधााग्नि भी भड़की और उन्होंने कबीर साहब को कुछ कष्ट भी दिया; किन्तु अन्त में उन्हें फकीर होने के कारण छुटकारा मिल गया।

    कबीर साहब को धार्मप्रचार में जिन आपदाओं का सामना करना पड़ा, उनको उनके अनुयायियों ने बहुत रंजित करके लिखा है। यद्यपि उनका अधिाकांश अस्वाभाविक है, परन्तु आप लोगों की अभिज्ञता के लिए मैं उनका दिग्दर्शन मात्रा कराऊँगा।

    कहा जाता है कि शाह सिकन्दर ने पहले उनको गंगा में और बाद को अग्नि में डलवा दिया, किन्तु वे दोनों स्थानों से जीवित निकल आए। इसके उपरान्त उनके ऊपर मस्त हाथी छोड़ा गया; परन्तु वे उसके सामने शार्दूल होकर प्रगट हुए। मस्त हाथी भागा और उनका बाल भी बाँका न हुआ। कबीर साहब के एक शब्द में भी इसमें की एक घटना का वर्णन है।

गंगा गुसाँइनि गहिर गम्भीर, जँजिर बाँधा कर खरे कबीर।

मन न डिगै तन काहे को डेराइ, चरन कमल चित रह्यो समाइ।

गंग की लहर मेरी टूटी जँजीर, मृगछाला पर बैठे कबीर।

कह कबीर को उसंग न साथ, जल थल राखत हैं रघुनाथ।

आदि ग्रन्थ, पृष्ठ 626

अंतिम काम

    कबीर साहब की परलोकयात्राा के विषय में यह अति प्रसिध्द बात है कि उस समय वे काशी छोड़कर मगहर चले गये थे। बस्ती के जिले में मगहर एक छोटा-सा ग्राम है, जिसमें अब तक उनकी समाधिा है। यहाँ वर्ष में एक बार साधाारण मेला भी होता है। कबीर पंथ के अनुयायी कुछ मुसलमान मिलते हैं तो यहीं मिलते हैं। कबीर साहब काशी छोड़कर अन्त समय क्यों मगहर चले आए, इसका उत्तार वे स्वयं अपने निम्नलिखित शब्दों में देते हैं-

लोगो तुम ही मति के भोरा।

ज्यों पानी पानी में मिलिगो, त्यां ढुरि मिल्यो कबीरा।

ज्यों मैथिल को सच्चा बास, त्योंहि मरण होय मगहर पास।

मगहर मरै मरन नहिं पावै, अंत मरै तो राम लजावै।

मगहर मरै सो गदहा होई, भल परतीत राम सों खोई।

क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।

जो काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा।

कबीर बीजक, शब्द 103

ज्यों जल छोड़ि बाहर भयो मीना,

पुरुष जन्म हौ तप का हीना।

अब कहु राम कवन गति मोरी,

तजिले बनारस मति भई थोरी।

सकल जनम शिवपुरी गँवाया,

मरति बार मगहर उठि धााया।

बहुत बरख तप कीया काशी,

मरन भया मगहर को बासी।

काशी मगहर सम बीचारी,

ओछी भगति कैसे उतरै पारी।

कह गुरु गज शिव सम को जानै,

मुआ कबीर रमत श्री रामै।

आदि ग्रंथ, पृष्ठ 177

    जहाँ इन शब्दों से कबीर साहब की विचित्रा धाार्मिक दृढ़ता सूचित होती है, वहाँ दूसरे शब्द के कतिपय आदिम पदों से उनका दु:खमय आन्तरिक क्षोभ भी प्रकट होता है और उनके संस्कार का भी पता चलता है। मनुष्य जब किसी गूढ़ कारणवश अपनी अत्यन्त प्रिय आंतरिक वासनाओं की पूर्ति में असमर्थ होता है, तो जैसे पहले वह हृदयोद्वेग से विह्नल होकर पीछे दृढ़ता ग्रहण करता और कोई अवलंब ढूँढ़कर चित्ता को बोधा देता है, दूसरे शब्द में कबीर साहब के हृदय का भाव ठीक वैसा ही व्यंजित हुआ है। इससे क्या सूचित होता है? यही कि कबीर साहब को किसी घोर धाार्मिक विरोधावश काशी छोड़नी पड़ी थी। भक्ति-सुधाा बिन्दु-स्वाद नामक ग्रंथ (पृष्ठ 840) के इस वाक्य को देखकर कि 'श्री कबीर जी संवत् 1549 में मगहर गए। वहीं से संवत् 1552 की अगहन सुदी एकादशी को परमधााम पहुँचे' यह विचार और पुष्ट हो जाता है, क्योंकि यह वाक्य यह नहीं बतलाता कि मरने के केवल कुछ दिन पहले कबीर साहब मगहर में आए।

    कबीर साहब मुसलमान के घर पले थे, मुसलमानों फकीरों से व्यवहार करते थे, इसलिए उनमें मुसलमान की ममता होना स्वाभाविक है। वे एक हिन्दू आचार्य के शिष्य थे, राम नाम के प्रचारक और उपदेशक थे, अतएव हिन्दू यदि उन्हें अपना समझें तो आश्चर्य क्या? निदान यही कारण है कि उनका परलोक हो जाने पर रुधिारपात की सम्भावना हो गयी। काशिराज वीरसिंह उनके शव को दग्ध और बिजलीखाँ पठान समाधिास्थ करना चाहता था, अतएव तलवार चल ही गयी थी कि एक समझ काम कर गयी। शव की चद्दर उठाई गयी तो उसके नीचे फूलों का ढेर छोड़ और कुछ न मिला। हिन्दुओं ने इसमें से आधाा लेकर जलाया और उसकी राख पर समाधिा बनाई। यही काशी का कबीरपंथियों का प्रसिध्द स्थान कबीरचौरा है। मुसलमानों ने दूसरा आधाा लेकर वहीं मगहर में उसी पर कब्र बनाई जो अब तक मौजूद है। कबीरपंथियों के ये दोनों पवित्रा स्थानहैं।

    कबीर कसौटी (पृष्ठ 54) में लिखित मरने के समय के इस वाक्य से कि 'कमल के फूल और दो चद्दर मँगवाकर लेट गए' फूल का रहस्य समझ में आता है। कबीर साहब ने जब शव के लिए तलवार चल जाने की संभावना देखी, तो उन्होंने ही अपने बुध्दिमान् शिष्यों द्वारा दूरदर्शिता से ऐसी सुव्यवस्था की कि शरीरांत होने पर शव किसी को न मिला। उसके स्थान पर लोगों ने फूलों का ढेर पाया, जिससे सब झगड़ा अपने आप मिट गया। कहा जाता है कि गुरु नानक के शव के विषय में ठीक ऐसी ही घटना हुई थी।

ग्रंथावली

    कबीर साहब ने स्वयं स्वीकार किया है कि ''मसि कागद तो छुयो नहिं कलम गही नहिं हाथ। चारिहुँ जुग माहात्म्य तेहि कहिकै जनायो नाथ''। इसलिए यह स्पष्ट है कि कबीर साहब ने न तो कोई पुस्तक लिखी, न उन्हाेंने कोई धार्मग्रंथ प्रस्तुत किया। कबीर सम्प्रदाय के जितने प्रामाणिक ग्रंथ हैं, उनके विषय में कहा जाता है कि उन्हें कबीर साहब के पीछे उनके शिष्यों ने रचा। यह हो सकता है कि जिन शब्दों या भजनों में कबीर नाम आता है, वे कबीर साहब के रचे हुए हों, जो शिष्यों द्वारा पीछे ग्रन्थस्वरूप में संगृहीत हुए हों, परन्तु यह बात सत्य ज्ञात होती है कि अधिाकांश ग्रंथ कबीर साहब के पीछे उनके शिष्यों द्वारा रचे गये हैं। प्रोफेसर बी.बी.राय, जो एक क्रिश्चियन विद्वान् हैं, अपने 'सम्प्रदाय' नामक उर्दूग्रंथ के पृष्ठ 63 में लिखते हैं-

    ''जहाँ तक मालूम होता है, कबीर ने अपनी तालीमी बातों को कमलबन्द नहीं किया। उसके बाद उनके चेलों ने बहुत-सी किताबें तसनीफ कीं। यह किताबें अकसर गुत्फगू की सूरत और हिन्दी नजम में लिखी गयीं। काशी के कबीरचौरे में इस सम्प्रदाय को मशहूर और पाक किताबों का मजमूआ पाया जाता है, जिसे कबीरपंथी लोग 'खास ग्रंथ' कहते हैं''। प्रसिध्द बंगाली विद्वान् बाबू अक्षयकुमार दत्ता भी अपने 'भारतवर्षीय उपासक सम्प्रदाय' नामक बँगला ग्रंथ (प्रथम भाग, पृष्ठ 49) में यही बात कहते हैं-

    ''ए सम्प्रदायेर प्रामाणिक ग्रन्थ समुदाय कबीर शिष्यदिगेर आर ताहार उत्तार कालवत्तर्ाी गुरुदिगेर रवित बलिया प्रसिध्द आछे।''

    श्रीमान् बेस्कट कहते हैं-''ज्ञात होता है कि कबीर की शिक्षाएँ मौखिक थीं, और वे उनके पीछे लिखी गयीं। सबसे पुराने ग्रंथ, जिनमें उनकी शिक्षाएँ लिखी गयीं, बीजक और आदि ग्रन्थ हैं। यह भी सम्भव है कि इनमें से कोई पुस्तक कबीर के मरने से पचास वर्ष पीछे तक न लिखी गयी हो। यह विचारना कठिन है कि वे ठीक उन्हीं शब्दों में लिखी गयी हैं, जो कि गुरु के मुख से निकले हैं। और यह बात तो और भी कठिनता से मानी जा सकती है कि उनमें और शब्द नहीें मिला दिए गये हैं।''

कबीर ऐंड दी कबीर पंथ, पृ. 46

    'खास ग्रंथ' में निम्नलिखित इक्कीस छोटी-बड़ी पुस्तकें हैं।

    1-सुखनिधाान-इस ग्रंथ के रचयिता 'श्रुतगोपालदास' हैं। कबीर पंथ की द्वादश शाखाओं में से कबीरचौरा स्थान की शाखा के ये प्रवर्तक हैं। सुखनिधाान समस्त ग्रंथों का कुंचिका स्वरूप, बोधासुलभ और सुप्रसन्न शब्दों में लिखित है। पठद्दशा की चरमावस्था प्राप्त हुए बिना किसी को इस ग्रंथ के पढ़ने की व्यवस्था नहीं दी जाती। इस ग्रंथ में 8 अधयाय हैं; और धार्मदास और कबीर साहब के प्रश्नोत्तार रूप में ब्रह्म, जीव, माया इत्यादि धाार्मिक विषयों का इसमें निरूपण है।

    2-गोरखनाथ की गोष्ठी-इस ग्रंथ में महात्मा गोरखनाथ के साथ कबीर साहब का धाार्मिक वार्तालाप है।

    3-कबीर पाँजी, 4-बलख की रमैनी, 5-आनंद राम सागर-ये साधाारण ग्रंथ हैं। इनके विषय में कहीं कुछ विशेष लिखा नहीं मिला।

    6-रामानंद की गोष्ठी-इस ग्रंथ में स्वामी रामानंद के साथ कबीर साहब का धाार्मिक वार्तालाप है।

    7-शब्दावली-इसमें एक सहò धाार्मिक शब्द हैं, किन्तु वे क्रमबध्द नहीं हैं, इसमें छोटी-छोटी धाार्मिक शिक्षाएँ हैं।

    8-मंगल-इसमें एक सौ छोटी कविताएँ हैं।

    9-वसंत-इसमें वसंत राग के एक सौ धार्मसंगीत हैं।

    10-होला-इसमें होली के दो सौ गीत हैं।

    11-रेखता-इसमें एक शत रेखते हैं, किन्तु उनमें छन्दोभंग बहुत हैं।

    12-झूलन-इसमें अनेक धाार्मिक विषयों पर पाँच सौ गीत हैं।

    13-कहरा-इसमें कहरा चाल के पाँच सौ भजन हैं।

    14-हिंदोल-इसमें नाना प्रकार के द्वादश भजन हैं जिनमें नैतिक और धाार्मिक शिक्षाएँ हैं।

    15-बारहमासा-इसमें बारह महीनों पर धाार्मिक संगीत हैं।

    16-चाँचर-इसमें चाँचर चाल के गीतों में नाना प्रकार के भजन और शब्द हैं।

    17-चौंतीसी-इसमें हिन्दी भाषा के तैंतीस व्यंजनों और चौंतीसवें ¬कार में से एक-एक को प्रत्येक पद्य के आदि में रखकर धाार्मिक कविता की गयी है। कुल 34 पद्य हैं।

    18-अलिफनामा-इसमें फारसी अक्षरों की धाार्मिक व्याख्या है।

    19-रमैनी-इसमें कबीर पंथ के सिध्दान्तों का शब्दों में विस्तृत वर्णन है। स्वधार्म प्रतिपादन और परधार्म खंडन पंथ के सिध्दान्तानुसार किया गया है। कूटशब्द भी इसमें पाए जाते हैं।

    20-साखी-इसमें पाँच सहò दोहे हैं, जो पंथ में साखी नाम से पुकारे जाते हैं। इन दोहों में अनेक प्रकार की नीति और धार्म की शिक्षाएँ हैं। चौरासी अंग की साखी इसी के अन्तर्गत है। इस ग्रंथ की कतिपय साखियाँ बड़ी ही सुन्दरहैं।

    21-बीजक-इस ग्रंथ में 654 अधयाय हैं। इसको कबीरपंथी लोग बहुत मानते हैं। बीजक दो हैं पर उन दोनों में बहुत अन्तर नहीं है। कबीरपंथी कहते हैं कि उनमें जो बड़ा बीजक हैं, उसे स्वयं कबीर साहब ने काशिराज से कहा था; दूसरे बीजक को भग्गूदास नामक कबीर के शिष्य ने संग्रह किया है। यह दूसरा बीजक है। इसमें स्वमत प्रतिपादन की अपेक्षा धार्मों पर आक्रमण और आक्षेप ही अधिाक हैं। यह भग्गूदास भी कबीरपंथ की द्वादश शाखाओं में से एक शाखा का प्र्रवत्ताक है। इसके परंपरागत शिष्य धानौती नामक ग्राम में रहते हैं।

    श्रीमान् बेस्कट कहते हैं-'बीजक कबीर साहब की शिक्षा का प्रामाणिक ग्रंथ मान लिया गया है। यह सम्भवत: 1570 ई. में या सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुन द्वारा नानक की शिक्षा आदि ग्रंथ में लिखे जाने के बीस वर्ष पहले लिखा गया था। बहुत से वचन जो आदि ग्रंथ में कबीर के कथित माने जाते हैं, बीजक में भी पाए जाते हैं।''

क.ऐ.क., पृष्ठ 7

    एक दूसरे बीजक की कई छपी आवृत्तिायाँ हैं। उनमें से दो, जो अधिाक प्रसिध्द हैं, सटीक हैं। एक के टीकाकार रीवाँ के महाराज विश्वनाथसिंह और दूसरे के नागझारी जिला बुरहानपुर निवासी कबीरपंथी साधाु पूरनदास हैं, जो सन् 1870 ई. में जीवित थे। बैप्टिस्ट मिशन, मुँगेर के रेवरेंड प्रेमचन्द ने भी इसकी एक आवृत्तिा कलकत्तो में सन् 1880 ई. में छपाई थी। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त आगम और बानी इत्यादि भिन्न-भिन्न नामों की कुछ और स्फुट कविताएँ भी पाई जाती हैं।

    श्रीमान् बेस्कट ने अपने ग्रंथ में कबीर पंथ के 84 ग्रंथों के नाम लिखे हैं। इन ग्रंथों में कबीर कसौटी और कबीर मनसूर आदि आधाुनिक ग्रंथों के भी नाम हैं, जिनका रचनाकाल अर्ध्दशताब्दी से कम है। इसके अतिरिक्त उन्होंने तीन सटीक बीजकों को भी पृथक्-पृथक् गिना है। चौरासी अंग की साखी जो एक ग्रंथ है, उसके सत्संग का अंग, समदरसी का अंग, आदि बारह अंगों की साखियों को अलग-अलग लिखकर उनको बारह पुस्तकें माना है, इसी से उनकी नामावली लम्बी हो गयी है। उसमें मूसाबोधा, महम्मदबोधा, हनुमानबोधा आदि कतिपय ऐसे ग्रंथों के नाम हैं, जो सर्वथा कल्पित हैं; क्योंकि उक्त महोदयों और कबीर साहब के समय में कितना अंतर है, यह विद्वानों को अविदित नहीं है। उन्होंने अमरमूल आदि दो एक प्राचीन ग्रंथों का नाम भी अपनी सूची में लिखा है और सुखनिधाान आदि कई ऐसे ग्रंथों के नाम भी लिखे हैं, जो उक्त 21 ग्रंथों के अन्तर्गत हैं।

    प्रोफेसर एच.एच. विलसन ने अपने 'रिलिजन आफ दी हिंदूज' नामक ग्रंथ के प्रथम खंड, पृष्ठ 76-77 में कबीर साहब के निम्नलिखित ग्रंथों के ही नाम लिखे हैं। यह कहना कि ये ग्रंथ उक्त 21 ग्रन्थों के ही अन्त:पाती हैं, बाहुल्य मात्रा है।

    1-आनंद रामसागर, 2-बलख की रमैनी, 3-चाँचर, 4-हिंडोला, 5-झूलना, 6-कबीरपाँजी, 7-कहरा, 8-शब्दावली।

    प्रशंसित महाराज रीवाँ ने अपनी टीका में कबीर साहब विरचित निम्नलिखित ग्रंथों के नाम लिखे हैं; और इनमें से प्राय: शब्द और साखियों को उध्दाृत करके प्रमाण दिया है। किंतु ज्ञात होता है कि इन ग्रंथों की गणना 'खास ग्रंथ' में नहीं है; क्योंकि ये उनके अतिरिक्त हैं।

    1-निर्भय ज्ञान, 2-भेद सार; 3-आदि टकसार, 4-ज्ञान सागर, 5-भवतरण।

    मुझे कबीर साहब के मौलिक ग्रंथों में से केवल दो ग्रंथ मिले, एक बीजक और दूसरा चौरासी अंग की साखी। इनके अतिरिक्त बेलवेडियर प्रेस की छपी कबीर शब्दावली, चार भाग, ज्ञानगुदड़ी व रेखते और साखी संग्रह नाम की पुस्तकें भी हस्तगत हुईं। बेलवेडियर प्रेस की स्वामी 'राधाास्वामी मत' के हैं। इस मतवाले कबीर साहब को अपना आदि आचार्य मानते हैं; इसलिए इस प्रेस की छपी पुस्तकों के बहुत कुछ प्रामाणिक होने की आशा है। उन्होंने भूमिका में इस बात को प्रकट भी किया है। गुरु नानक सम्प्रदाय के 'आदि ग्रन्थ' में भी कबीर साहब के बहुत से शब्द और साखियाँ संग्रहीत हैं। मैंने उक्त दो मौलिक और इन्हीं सब संग्रहीत ग्रन्थों के आधाार पर अपना संग्रह प्रस्तुत किया है।

    इन ग्रन्थों की अधिाकांश कविता साधाारण हैं। सरस पद्य कहीं-कहीं मिलते हैं। हाँ, जहाँ कबीर साहब पूरबी बोलचाल और चलते गीतों में अपने विचार प्रकट करते हैं, वहाँ की कविता निस्सन्देह अधिाक सरस है। किन्तु छन्दोभंग इन सब में इतना अधिाक है कि जी ऊब जाता है। जहाँ-तहाँ कविता में अश्लीलता भी है। कोई-कोई कविताएँ तो इतनी अश्लील हैं कि मैं यहाँ उठा तक नहीं सकता। यदि आप लोग ऐसी कविताएँ देखना चाहें, तो नमूने के लिए साखी संग्रह के पृ. 148 का छठा, पृ. 175 का 26, 27, 28 और पृ. 182 का अन्तिम दोहा देखिए। उनकी कविता में असंयतभाषिता भी दृष्टिगत होती है। वे कहते हैं-

बोली एक अमोल है जो कोई बोलै जानि।

हिये तराजू तौलि कै तब मुख बाहर आनि।

कबीर बीजक, पृ. 623

साधाु भया तो क्या भया जो नहिं बोल विचार।

हतै पराई आतमा लिये जीभ तलवार।

कबीर बीजक, पृ. 131

साधाु लच्छन सुगुनवंत गंभीर है बचन लौलीन भाखा सुनावै।

फूहरी पातरी अधाम का काम है राँड़ का रोवना भाँड़ गावै।

ज्ञानगुदड़ी, पृ. 32

    किंतु खेद है कि जब वे विरोधा करने पर उतारू होते हैं, तब इन बातों को भूल जाते हैं। यह दोष उनकी कविता में प्राय: मिलता है। नमूने के लिए साखी संग्रह पृ. 187 का दोहा 19, 20 और ज्ञानगुदड़ी तथा रेखते नामक ग्रंथ का रेखता 60 देखिए। मैंने इस प्रकार की कविताओं से अपने संग्रह को बचाया है और जहाँ शब्दों के हेर-फेर या Ðस्व-दीर्घ करने से काम चल गया, वहाँ छन्दोभंग भी नहीं रहने दिया है।

    कबीर साहब के ग्रंथों का आदर कविता दृष्टि से नहीं, विचार दृष्टि से है। उन्होंने अपने विचार दृढ़ता और कट्टरपन के साथ प्रकट किए हैं। उनमें स्वाधाीनता की मात्राा भी अधिाक झलकती है।

    इन ग्रन्थों में बहुत से कूट शब्द हैं। कबीर साहब का उलटा प्रसिध्द है। चूहा बिल्ली को खा गया, लहर में समुद्र डूब गया, प्राय: ऐसी उल्टी बातें आपको इन्हीें शब्दों में मिलेंगी। इन शब्दों का लोगों ने मनमाना अर्थ किया है। ऐसे शब्दों का दूसरा अर्थ हो ही क्या सकता है। प्राय: लोगों को आश्चर्य में डालने के लिए ही ऐसे शब्दों की रचना होती है। मैं समझता हूँ कि कबीर साहब का भी यही उद्देश्य था। उन्होंने ऐसे शब्द बनाकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है; क्योंकि धार्म का गूढ़ रहस्य जानने के लिए संसार उत्सुक है। ऐसे दो शब्द नीचे लिखे जाते हैं-

देखो लोगों हरि की सगाई; माय धारै पुत धिाय संग जाई।

सासु ननद मिल अदल चलाई, मादरिया गृह बेटी जाई।

हम बहनोई राम मोर सारा, हमहिं बाप हरि पुत्रा हमारा।

कहै कबीर हरी के बूता, राम रमे ते कुकुरी के पूता।

कबीर बीजक, पृ. 393

देखि देखि जिय अचरज होई, यह पद बूझै बिरला कोई।

धारती उलटि अकासहिं जाई, चींटी के मुख हस्त समाई।

बिन पवनै जहँ पर्वत उड़े जीव जंतु सब बिरछा बुड़ै।

सूखे सरवर उठैं हिलोल, बिन जल चकवा करै कलोल।

बैठा पंडित पढ़ै पुरान, बिन देखे का करैं बखान।

कह कबीर जो पद को जान, सोई संत सदा परमान।

कबीर बीजक, पृ. 394

    विद्वान् मिश्रबन्धाुओं ने 'मिश्रबन्धाुविनोद' के प्रथम भाग में कबीर साहब के ग्रंथों और उनकी रचना के विषय में जो कुछ लिखा है, वह नीचे अविकल उध्दाृत किया जाता है-

    ''इस समय तक भाषा और भी परिपक्व हो गयी थी। महात्मा कबीरदास ने उसका बहुत बड़ा उपकार किया। इन्होंने कोई पचास ग्रंथ बनाए, जिनमें से 46 का पता लग चुका है।''

-पृष्ठ 113

    ''कविता की दृष्टि से इनकी उल्टवाँसी बहुत प्रशंसनीय है। इनकी रचना सेनापति श्रेणी की हैं। इन्होंने खरी बातें बहुत उत्ताम और साफ-साफ कही हैं और इनकी कविता में हर जगह सचाई की झलक दीख पड़ती है। इनके ऐसे बेधाड़क कहने वाले कवि बहुत कम देखने में आते हैं। कबीर जी का अनुभव खूब बढ़ा-चढ़ा था और इनकी दृष्टि अत्यंत पैनी थी। कहीं-कहीं उनकी भाषा में कुछ गँवारूपन आ जाता है। पर उसमें उद्दंडता की मात्राा अधिाक होती है।''

    ''इनके कथन देखने में तो साधाारण समझ पड़ते हैं, परन्तु उनमें गूढ़ आशय छिपे रहते हैं। इन्होंने रूपकों, दृष्टांतों उत्प्रेक्षाओं आदि से धार्म संबंधाी ऊँचे विचारों एवं सिध्दान्तों को सफलतापूर्वक व्यक्त किया है।''

-पृ. 252, 253

कबीर पंथ

    इस पंथवाले युक्तप्रान्त और मधय भारत में अपनी संख्या के विचार से अधिाक हैं, पंजाब, बिहार और दक्षिण प्रांत में भी कहीं-कहीं ये लोग पाए जाते हैं। यद्यपि इनकी संख्या अन्य भारतवर्षीय सम्प्रदायों की अपेक्षा बहुत थोड़ी है; तथापि इनमें निम्नलिखित द्वादश शाखाएँ हैं-

    1-श्रुत गोपालदास-इनके परम्परागत शिष्य काशी के कबीरचौरा, मगहर की समाधिा और जगन्नाथ एवं द्वारका के मठों पर अधिाकार रखते हैं। यह शाखा अपर शाखाओं की अपेक्षा प्रतिष्ठित मानी जाती है। दूसरी शाखावाले इसको प्रधाान मानते हैं।

    2-भग्गूदास-इनके परम्परागत शिष्य धानौती नामक गाँव में रहते हैं।

    3-नारायणदास4-चूड़ामणिदास-ये दोनों धार्मदास नामक एक बनिए के बेटे थे, जो कबीर साहब के एक धानी शिष्य थे। धार्मदास जबलपुर के पास बंधाो नामक एक गाँव में रहते थे। बहुत दिनों तक उनके वंश के लोग वहाँ के मठ के महंत होते रहे। परन्तु नारायणदास के वंश में अब कोई न रहा। इधार चूड़ामणि वंश के एक महंत ने एक कुचरित्राा स्त्राी रख ली; इसलिए वह वंश भी अब गद्दी से उतार दिया गया। 1

 

1. कबीर पंथ की द्वादश शाखाओं के विषय में यहाँ जो कुछ लिखा गया है, बट्ट बंगाल के प्रसिध्द विद्वान् अक्षयकुमार दत्ता के ग्रंथ भारतवर्षीय उपासक सम्प्रदाय, (देखो, इस ग्रंथ का प्रथम भाग, पृष्ठ 64, 65, 66,) और प्रोफेसर बी. बी. राय के ग्रंथ 'सम्प्रदाय' (देखो, पृष्ठ 74, 75, 76) के आधाार पर लिखा गया है। इन शाखाओं के विषय में मुझको एक लेख कबीर धार्मनगर, जिला रायपुर (मधयप्रदेश) निवासी कबीरपंथी साधाु युगलानंद बिहारी का मिला है। उसको भी मैं नीचे अविकल उध्दाृत करता हूँ-''मधयप्रदेश, बिहार, युक्तप्रांत, गुजरात और काठियावाड़ में कबीरपंथियों की संख्या विशेष है। हाँ, पंजाब, महाराष्ट्र, मैसूर, मद्रास इत्यादि प्रान्तों में ये लोग थोड़े पाए जाते हैं।

   ''इनमें अनेक शाखाएँ वर्तमान हैं, जिनमें धार्मदास के पुत्राों में से-

   (1) वचन चूड़ामणि के वंशज की शाखा ही प्रधाान है। इस समय इनका मुख्य स्थान कबीरधार्मनगर, जिला रायपुर, सी.पी. में है। धार्मदास और कबीर के प्रश्नोत्तार में मिले हुए ग्रंथों में कालीवंशी के नाम जिस प्रकार लिखे हैं, उन्हीं नामों से अब तक इस शाखा का क्रम बराबर चला आता है। इस समय इस शाखा के तेरहवें आचार्य श्री पं. दयाराम साहब गद्दी पर वर्तमान हैं।

   ''इस शाखा में पूर्वनिर्मित नियम के अनुसार आचार्य के ज्येष्ठ पुत्रा के अतिरिक्त कोई दूसरा आचार्य पद नहीं पा सकता; इसलिए इसमें सबको एक ही आचार्य के अधाीन रहना पड़ता है। कबीरपंथियों में इस समय इसी शाखा की प्रधाानता है। इसके बराबर उन्नत (इस समय) कोई दूसरी शाखा नहींहै।''

   (2) नारायणदास-धार्मदास के बड़े पुत्रा थे, गुरु की अवज्ञा करने से पिता के द्वारा त्याज्य हुए थे; तथापि उनका भी पंथ चलता है। पहले ये लोग बांधावगढ़ में रहते थे; किन्तु वचन चूड़ामणि के

    5-जग्गूदास-कटक में इनकी गद्दी है और इनके शिष्य उसी ओर हैं।

    6-जीवनदास-इन्होंने सत्तानामी सम्प्रदाय स्थापित किया। कोटवा, जिला गोंडा में इनका स्थान है। इस स्थान के अधिाकार में सात आठ और गद्दियाँ हैं।

    7-कमाल-ये बंबई नगर में रहते थे। इनके चेले योगी होते हैं। जनश्रुति है कि कमाल कबीर के पुत्रा थे। कबीर साहब का निम्नलिखित दोहा स्वयं इसका प्रमाण है।

बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।

हरि का सुमिरन छोड़ के घर ले आया माल।

-आदि ग्रंथ, पृष्ठ 738

    8-टकसाली-यह बड़ौदा के निवासी थे और वहीं इनका मठ है।

    9-ज्ञानी-यह सहसराम के निकटवर्ती मझनी ग्राम में रहते थे। इसी के आसपास उनकी कुछ शिष्यमंडली है।

    10-साहेबदास-ये कटक में रहते थे। इनके चेले और कबीरपंथियों की अपेक्षा कुछ निराली शिक्षा और विलक्षणता रखते हैं; इसलिए मूलपंथी कहलातेहैं।

    11-नित्यानंद, 12-कमलानंद-ये दोनों दक्षिण में जा बसे और उधार ही इन्होंने अपनी शिक्षा का प्रचार किया।

    इनके अतिरिक्त हंसकबीर, दानकबीर और मंगलकबीर नामक कबीरपंथियों की और कतिपय शाखाएँ हैं।

    1901 की जनसंख्या (मर्दुमशुमारी) की रिपोर्ट में कबीर-पंथियों की संख्या 843171 लिखी गयी है। मैं समझता हूँ, कुछ न्यूनाधिाक यही संख्या ठीक है। इनमें अधिाकांश नीच जाति के हिन्दू हैं; उच्च वंश के हिन्दू नाम मात्रा हैं। गुरु भी इस पंथ के अधिाकांश नीच वर्ण के ही हैं। त्यागी और गृहस्थ इनमें भी हैं; पर गृहस्थों की ही संख्या अधिाक है। ये सब हिन्दू धार्म के ही शासन में हैं, और

 

   वंशजों के समान विशेष नियम नहीं होने से इनमें कई आचार्य हो गए। इस शाखा के लोग परस्पर विरोधा के कारण बांधावगढ़ छोड़कर भिन्न-भिन्न स्थानों में; रहकर गुरुआई करते हैं।

   (3) जागू पंथी-इनकी गद्दी बिहार प्रांत के मुजफ्फरपुर जिले के सब डिवीजन हाजीपुर के निकट बिद्दुपुर नामक ग्राम में है। इस पंथ में यही स्थान प्रधाान माना जाता है। यह ओ.टी. रेलवे का स्टेशनहै।

   (4) सत्यनामी पंथ-इस नाम के तीन पंथ चलते हैं। 1-कोटवा (अवधा में,) 2-फर्रुखाबाद में; ये लोग साधाु के नाम से प्रसिध्द हैं। 3-मधयप्रदेश के छत्ताीसगढ़ में भंडारा नामक स्थान में इसमें प्राय: चमार ही होते हैं।

उसी की रीति और पध्दति को बर्तते हैं; यहाँ तक कि अनेक ऐसे हैं जो हिन्दू देवी-देवताओें तक को पूजते हैं। त्यागी निस्सन्देह अपने को हिन्दू धार्म के सिध्दान्तों से अलग रखते हैं; और वे हिन्दू धार्म के क्रियाकलाप में नहीं फँसना चाहते; किन्तु यत: उनका यह संस्कार बना है कि वे हिन्दू हैं, इसलिए वे अनेक अवसरों पर हिन्दू क्रियाकलाप में फँसे भी दृष्टिगत होते हैं। परन्तु यह सत्य है कि कबीरपंथी साधाु हिन्दू समाज से एक प्रकार पृथक् से रहते हैं, उसमें उनकी यथेष्ट प्रतिपत्तिा नहीं। इनका अपर हिन्दू धार्म सम्प्रदायों से कुछ वैमनस्य और द्वेष-सा रहता है।

धार्मसंकट

    कबीर साहब का धार्मसिध्दान्त क्या था, मैं समझता हूँ, यह अभ्रान्त रीति से नहीं बतलाया जा सकता। मैं इसकी मीमांसा के लिए तत्पर होकर धार्मसंकट में पड़ गया हूँ। उनके सिध्दान्तों के जानने के साधान उनकी शब्दावली और साखियाँ हैं; परन्तु वे हम लोगों तक वास्तविक रूप में नहीं पहुँचतीं। यह बतलाना भी कठिन है कि कौन शब्द उनका रचा है, कौन नहीं। श्रीमान् बेस्कट का निम्नलिखित वाक्य, जिसे मैं ऊपर लिख आया हूँ, आप लोग न भूले होंगे।

    ''यह विचारना कठिन है कि वे ठीक उन्हीं शब्दों में लिखी गयी हैं, जो गुरु के मुख से निकले हैं। और यह बात तो और भी कठिनता से मानी जा सकती है कि उनमें और शब्द नहीं मिला दिए गये हैं।''

    एक दूसरे स्थान पर वह कहते हैं-

    ''कम से कम यह बात मानने के लिए हमको कोई स्वत्व नहीं है कि कबीर की शिक्षा वही शिक्षा है कि जिसको कबीरपंथ के महंत आजकल देते हैं।''

-कबीर एेंड दी कबीरपंथ, पृष्ठ 46

    इन वाक्यों से क्या सिध्द होता है? यही कि उनकी रचनाओं में बहुत कुछ काटछाँट हुई है और अब तक हो रही है। जो बीजक ग्रंथ आजकल अधिाकता से प्रचलित है, और जो कबीरपंथ का सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है, वह भागूदास का प्रस्तुत किया हुआ है। इस भागूदास के विषय में रीवाँ नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह लिखते हैं-

    ''भागूदास बीजक लै भागे हैं, सो बघेलवंश विस्तार में कबीर जी ही कहि दियो है-

भागूदास कि खबरि जनाई। लै चरणामृत साधाु पियाई।

कोउ आव कह कलि जरि गयऊ। बीजक ग्रंथ चोराय लै गयऊ।

सतगुरु कह वह निगुरा पंथी। कहा भयो लै बीजक ग्रंथी।

चोरी करि वह चोर कहाई। काह भयो बड़ भक्त कहाई।''

-कबीर बीजक, पृष्ठ 26

    जिस भागूदास की यह व्यवस्था है, उसके हाथ में पड़कर बीजक की क्या दशा हुई होगी, इसे ईश्वर ही जाने। आगे चलकर महाराज ने लिखा है कि इसका वास्तव में नाम तो भगवानदास था, पर इस प्रकार पुस्तक लेकर भागने से ही कबीर साहब ने इसका नाम भागूदास रखा। इन बातों से बीजक की प्रामाणिकता में कितना सन्देह होता है, इस बात का उल्लेख व्यर्थ है।

    प्राय: कबीरपंथियों से सुना जाता है कि कबीर साहब के ग्रन्थों में जो वेदशास्त्रा अथवा अवतारों के विरुध्द बातें पाई जाती हैं, या असंगत भाव से खंडन और आक्षेप देखा जाता है, वास्तव में वह उनके किसी शिष्य की ही करतूत है। जो हो, परन्तु भागूदास की कथा इस विचार को दृढ़ करती है। कबीर साहब की परलोकयात्राा के पश्चात् ग्रंथों के संग्रहीत होने से इस प्रकार का अवसर हाथ आना असम्भव नहीं। यहाँ तक सन्देह होता है कि जब कबीर साहब के समय में ग्रंथ संग्रहीत हुए ही नहीं थे, तो भागूदास किस ग्रंथ को ले भागे। परन्तु सोचने की बात है कि यदि कुछ शब्द पहले संग्रहीत न होते, तो ग्रंथ प्रस्तुत कैसे होते। ज्ञात यह होता है कि कागज के नाना टुकड़ों पर अथवा अशृंखला अवस्था में जो लेख इत्यादि थे, उन्हीं को लेकर भागूदास भागे।

    एक कबीरपंथी संत की गुरुभक्ति आपने सुनी। अब एक पूरनदास नामक साधाु की लीला देखिए। आपने कबीर बीजक पर टीका लिखी है। इस टीका में आपने कबीर साहब के इस वाक्य को कि ''मनु मुरीद संसार है गुरु मुरीद कोई साधा'' सिध्द कर दिया है। श्रीमान् बेस्कट कहते हैं-''यह बात कि कबीर जोलाहा और एकेश्वरवादी थे, अबुलफजल ने भी मानी है कि जिसके प्रतिकूल किसी ने कुछ नहीं कहा''1 परन्तु कदाचित् उन्हें यह ज्ञात नहीं हुआ कि पूरनदास ने उनके प्रतिकूल कहा है। आपने बीजक की टीका लिखकर और उसके शब्दों का मनमाना अर्थ करके यह प्रतिपादित कर दिया है कि कबीर साहब एकेश्वरवादी नहीं, किन्तु कुछ और थे। कुछ प्रमाण लीजिये-

''साखी-अमृत केरी मोटरी सिर से धारी उतार।

जाहि कहौं मैं एक है सो मोहि कह दुइ चार। 122

1. देखो कबीर ऐंड दी कबीर पंथ, पृष्ठ 68

    टीका गुरुमुख-इस संसार ने विचार की मोटरी सिर से उतार धारी, कोई विचार करता नहीं, जाको मैं कहता हूँ कि एक जीव सत्य है, और सब मिथ्या भ्रम है, सो मेरे को दुइ चार कहता है-एक ईश्वर, एक जीव, दो ब्रह्मा, विष्णु महेश और देवी-देवता ये बताते हैं।'

-सटीक बीजक, पूरनदास, पृष्ठ, 584

''साखी-पाँच तत्व का पूतरा युक्ति रची मैं कीव।

मैं तोहि पूछों पंडिता शब्द बड़ा की जीव। 82

    टीका मायामुख-पाँच तत्तव का पूतरा युक्ति से रचि के मैंने पैदा किया, जीव पुतले मैंने पैदा किए, इस प्रकार वेद में माया ने कहा, सोई सब पंडित लोग भी कहते हैं।

    गुरुमुख-ताते गुरु पूछते हैं कि पंडित तुमने वेद का शब्द माना, और कहने लगे कि ब्रह्म बड़ा कि ईश्वर बड़ा जाने सब संसार पैदा किया, परन्तु अपने हृदय में विचार के देखो कि शब्द बड़ा कि जीव। अरे जो जीव न होता तो वेद आदिक नाना शब्द कौन पैदा करता और ब्रह्म, ईश्वरादि अधयारोप कौन करता। ताते जीव ही सब ते बड़ा जाने, सब ही को थापा। शब्द, ब्रह्म आदि उपाधिा सब मिथ्या जीव की करतूत, जीव सबका करनेवाला आदि।''

-सटीक बीजक, पूरनदास, पृष्ठ 424

    जिस राम शब्द के विषय में श्रीमान् बेस्कट कबीर साहब की यह अनुमति प्रकट करते हैं-

    ''कबीर साहब का विचार है कि दो अक्षर का शब्द राम इस संसार में उस एक अनिर्वचनीय सत्य का सबसे अधिाक निकटवर्ती है।

-कबीर ऐंड दी कबीरपंथ, पृष्ठ 75

    उसके विषय में पूरनदास की कल्पना सुनिए-

काला सर्प सरीर में खाइनि सब जग झारि।

विरले ते जन बाँचिहैं रामहि भजै बिचारि। 101

    इस साखी के रामहिं भजै बिचारि, का अर्थ उन्होंने यह किया है-''इस जगत में जाको विचाररूपी अमृत प्राप्त भया, ते सर्प के जहर से बचे। एक राम ऐसा जो वेद ने अन्वय किया था, सो उससे बचे, भाग के न्यारे हुए।'' = सटीक बीजक पूरनदास, पृष्ठ 468'भजै' के वास्तविक अर्थ के स्मरण करने या गुणानुवाद गाने के स्थान पर उन्हाेंने भाजना अर्थात् भागना किया है। काशी छोड़कर मगहर जाने का जो प्रसिध्द और ऐतिहासिक शब्द कबीर साहब का है, जरा उसके कतिपय शब्दों का अर्थ देखिए। ''त्योंहि मरन होय मगहर पास'' इसका अर्थ सुनिए। ''मग कहिए रास्ता, हर कहिए ज्ञान, सो मगहर ज्ञान मार्गता में मरन होय, लौलीन होय'' (पृष्ठ 245)''अंतै मरै तो राम लजावै'' का अर्थ वे यों करते हैं-''जहाँ से जीव का स्फुरण हुआ सो अधिाष्ठान छोड़कै अंतै जो नाना प्रकार की स्वर्ग भोगादि वासना अथवा जगत आदि मोहवासना में जो मरा, सो बन्धान में परा। राम कहिए जीव और लज्जा कहिए बन्धान (पृष्ठ 235)'' निदान इसी प्रकार उन्होंने समस्त ग्रन्थ का अर्थ उलट दिया है। इस प्रसिध्द गुरुमुख शब्द को उन्होंने मायामुख बना दिया है; अर्थात् गुरु की कही हुई बात को माया का कहा हुआ बतलाया है। यों ही शब्द के चार चरणों में से कहीं यदि एक चरण को मायामुख बनाया है, तो दूसरे को गुरुमुख, कहीं तीसरे को मायामुख और चौथे को गुरुमुख। कहीं पूरा शब्द गुरुमुख, कहीें आधाा, कहीें तिहाई! कहीं पूरा शब्द मायामुख, कहीं चौथाई, कहीं केवल एक चरण। मायामुख और गुरुमुख ही नहीं, जीवमुख आदि की कल्पना भी शब्दों में की गयी है। उन्हें वाच्यार्थ से, कवि के भाव से, अन्वय से, शब्दों के उचितार्थ से कुछ प्रयोजन नहीं। वे किसी न किसी प्रकार प्रत्येक शब्द और साखी को अपने विचार के अनुकूल कर लेते हैं, कबीर साहब के लक्ष्य की कुछ परवाह नहीं करते। जहाँ इस प्रकार खींचातानी है, वहाँ कबीर साहब के सिध्दान्त का ज्ञान दुरूह क्यों न होगा?

    बेलवेडियर प्रेस में मुद्रित 'ज्ञानगुदड़ी व रेख्ता' नाम की पुस्तक की भूमिका के प्रथम पृष्ठ में लिखा गया है-

    ''पर कितने ही पद पुराने प्रामाणिक हस्तलिखित ग्रन्थों में ऐसे भी हैं जिनमें राम नाम की महिमा गाई गयी है। इस नाम का मतलब औतारस्वरूप श्रीरामचंद्रजी से नहीं है, बल्कि ब्रह्मांड की चोटी (शून्य) धाुन्यात्मक शब्द 'राँ' से है''

    श्रीमान् बेस्कट भी यही लिखते हैं-

    ''ऐसे वाक्यों के राम शब्द से कबीर का अभिप्राय परब्रह्म से है, न कि विष्णु के अवतार से। क्योंकि वे बीजक में लिखते हैं कि सत्य गुरु ने कभी दशरथ के घर में जन्म नहीं लिया।''1

 

1. देखो, कबीर ऐंड दी कबीरपंथ, पृष्ठ 4। 

    ऐसा विचार होने पर भी हम देखते हैं कि कबीर साहब के शब्दों में से पौराणिक नामों के निकालने की चेष्टा प्रथम से ही होती आयी है, और अब भी हो रही है। कुछ प्रमाण भी लीजिये-

    गुरु नानक साहब का आदि ग्रंथ साढ़े तीन सौ वर्ष का प्राचीन है। यह ग्रंथ रामावतों का नहीं है कि उसमें साग्रह राम शब्द रखने की चेष्टा की गयी हो, वरन् वाह गुरु जाप करनेवालों का है। वह प्रामाणिक कितना है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। उसमें कबीर साहब के निम्नलिखित दोहों में राम शब्द पाया जाता है-

कबीर कसौटी राम का झूठा टिकै न कोय।

राम कसौटी सो सहै जो मर जीवा होय।पृ. 735

सपनेहूँ बरड़ाइ कै जेहि मुख निकसै राम।

वाके पग की पानही मेरे तन को चाम।पृ.736

कबीर कूकर राम को मोतिया मेरा नाउँ।

गले हमारे जेवरी जहँ खींचैं तहँ जाउँ।

    वेलवेडियर प्रेस में छपी 'साखीसंग्रह' नामक पुस्तक में इन दोहों में राम के स्थान पर 'नाम' पाया जाता है (देखो, पृष्ठ 21 का 12, 96 का 33, 158 का 10 दोहा)। ऐसे ही उक्त प्रेस की छपी पुस्तकों में प्राय: हरि के स्थान पर गुरु, राजा राम के स्थान पर 'परमपुरुष' इत्यादि नाम पाए जाते हैं। सम्भव है कि जिस प्रति से उन्होंने अपना संग्रह छापा है, उसी में ऐसा पाठ हो। परन्तु ऐसी चेष्टा होती आयी है, यही मेरा कथन है। उक्त दोनों में राम शब्द से जो भाव और वाच्यार्थ की सार्थकता एवं सुन्दरता है, वह नाम शब्द से नहीं। तथापि राम शब्द रखना उचित नहीं समझा गया, इसका कारण अवतार सम्बन्धाी नामों से घृणा छोड़ और क्या हो सकता है।

    केवल अवतारों के नामों का ही परिवर्तन नहीं मिलता, मुझे वाक्यों, शब्दों और भजनों अथवा साखियों के पदों एवं चरणों में भी न्यूनाधिाक्य और अन्तर मिला है। एक शब्द को मैं तीन स्थानों से उठाता हूँ। आप उसमें हुए परिवर्तनों को देखिए-

गाउ गाउ री दुलिहनी मंगलचारा।

मेरे गृह आये राजाराम भतारा।

नाभि कमल में वेदी रच ले ब्रह्मज्ञान उच्चारा।

राम राइ सो दूलह पायो अस बड़ भाग हमारा।

सुर नर मुनि कौतुक आये कोटि तैंतीसो जाना।

कह कबीर मोहिं व्याहि चले हैं पुरुष एक भगवाना।

-आदिग्रंथ, पृष्ठ 261

दुलहिन गावो मंगलचार। हमरे घर आयो राम भतार।

तन रति करि मैं मन रति करिहौं पाँचो तत्तव बराती।

रामदेव मोहिं ब्याहन ऐहैं मैं जोबन मदमाती।

सरिर सरोवर वेदी करिहौं ब्रह्म वेद उचारा।

रामदेव सँग भाँवरि लैहों धानि धानि भाग हमारा।

सुर तैंतीसो कौतुक आये मुनिवर सहस अठासी।

कह कबीर हम ब्याहि चले हैं पुरुष एक अबिनासी।

-कबीर बीजक, पृष्ठ 431

दुलहिन गावो मंगलचार। हम घर आये परमपुरुष भरतार।

तन रति करि मैं मन रति करिहौं पाँचों तत्तव बराती।

गुरुदेव मेरे पाहुन आये मैं जोबन में माती।

सरीर सरोवर बेदी करिहौं ब्रह्मा वेद उचार।

गुरुदेव सँग भाँवरि लैहों धान धान भाग हमार।

सुर तैंतीसो कौतुक आये मुनिवर सहस अठासी।

कह कबीर हम ब्याहि चले हैं पुरुष एक अबिनासी।

-कबीर शब्दावली, प्रथम भाग, पृष्ठ 9, 10

    इस प्रकार विरुध्दाचरण; शब्द, वाक्य और अर्थों में लौटफेर; अवतार सम्बन्धाी नामों के बहिष्कार इत्यादि का प्रभूत प्रमाण होते हुए भी श्रीमान् बेस्कट कहतेहैं-

    ''फिर भी इस बात का विश्वास करने के लिए दलीलें हैं कि कबीर की शिक्षाएँ धाीरे-धाीरे अधिाकतर हिन्दू आकार में ढल गयी हैं'

-कबीर ऐंड दी कबीरपंथ, पृष्ठ 46

    उनका यह कथन कहाँ तक युक्तिसंगत है, इसको विद्वान् लोग स्वयं विचारें।

धार्मसिध्दांत

    जो हो, चाहे कबीर की शिक्षाएँ अधिाकतर हिन्दू आकार में धाीरे-धाीरे ढल गयी हों, चाहे अहिंदू भावापन्न हो गयी हों, परन्तु प्राप्त रचनाओं को छोड़कर उनके धार्मसिध्दान्तों के निर्णय का दूसरा मार्ग नहीं है। यह सत्य है, जैसा कि श्रीमान् बेस्कट लिखते हैं कि-

    ''उनकी शिक्षाओें का स्पष्टीकरण चुनी बातों में से भी चुनी बातों के आधाार पर अवश्य ही सदोष होगा; और यह भी सम्भव है कि वह भ्रान्त बनावे, यदि वह उनके समस्त सिध्दान्तों की व्याख्या समझी जाए।''

-कबीर ऐंड दी कबीर पंथ, पृष्ठ 47

    किन्तु यह भी वैसा ही सत्य है कि प्राप्त रचनाओं में से मौलिक और कृत्रिाम रचनाओं को पृथक् करना अत्यन्त दुर्लभ, वरन् असम्भव है। उनमें परस्पर विरुध्द विचार इस अधिाकता से हैं कि उनके द्वारा किसी वास्तविक सिध्दान्त का अभ्रान्त रूप से निर्णय हो ही नहीं सकता। हाँ, इस पंथ का अवलम्बन किया जा सकता है कि इन रचनाओं में जो विचार व्यापक भाव से बारंबार प्रकट और प्रतिपादित किए गये हैं, उन्हें मुख्य और उसी विषय के दूसरे विचारों को गौण मान लिया जाए। पक्व और अपक्व अवस्था में विचारों में अन्तर हुआ करता है। अनुभव, ज्ञान उन्मेष और वयस मनुष्य के विचारों को बदलते हैं। कबीर साहब इस व्यापक नियम से बाहर नहीं हो सकते; इसलिए उनके विचारों में भी अन्तर पड़ जाना असम्भव नहीं। निदान इसी सूत्रा की सहायता से मैं कबीर साहब के धार्मसिध्दान्तों के निरूपण का प्रयत्न करता हूँ।

    मेरा विचार है कि कबीर साहब एकेश्वरवाद, साम्यवाद, भक्तिवाद, जन्मांतरवाद, अहिंसावाद और संसार की असारता के प्रतिपादक एवं मायावाद, अवतारवाद, देववाद, हिंसावाद, मूर्तिपूजा, कर्मकांड, व्रत उपवास, तीर्थयात्राा और वर्णाश्रम धार्म के विरोधाी हैं। वे हिन्दुओं और मुसलमानों के धार्मग्रन्थों और धार्मनेताओं के कट्टर प्रतिवादी हैं और प्राय: इनके धर्मयाजकों पर बुरी तौर से आक्रमण करते हैं। कहीं-कहीं इस आक्रमण की मात्राा इतनी कलुषित और अश्लील है, जो समुचित नहीं कही जा सकती।

    हमने कबीर साहब को ऊपर 'एकेश्वरवाद' का प्रतिपादक कहा है, किन्तु उनका एकेश्वरवाद कुछ भिन्न है। उनका प्रभु विलक्षण है। उनके मुहाविरे के अनुसार एकेश्वर शब्द ठीक नहीं है; क्योंकि उनका प्रभु ईश्वर, ब्रह्म, परब्रह्म, निर्गुण, सगुण; सबके परे है। इस प्रभु को वे एक स्थानविशेष 'सत्यलोक' का निवासी मानते हैं और उसके लक्षण वे ही बतलाते हैं, जो वैष्णव ग्रंथों में सगुण ब्रह्म के बतलाए गये हैं। वे कहते हैं कि वह सत्य गुरु के प्रसाद से केवल भक्ति द्वारा प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उसकी प्राप्ति का और कोई साधान वे नहीं बतलाते।

(देखो, शब्द 16-24)

    वे उसका परिचय प्राय: राम शब्द द्वारा देते हैं; किन्तु अपनी रचनाओं में हरि, नारायण, सारंगपानी, समरथ, कर्ता, करतार, ब्रह्म, पारब्रह्म, निरच्छर सत्यनाम, मुरारि इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी उसके लिए करते हैं। अपना रखा हुआ उसका 'साहब' नाम उन्हें बहुत प्यारा है। इस ग्रन्थ के अधिाकांश पद्य इसके प्रमाण हैं।

    साम्यवाद, अहिंसावाद, जन्मांतरवाद, भक्तिवाद और संसार की अनित्यता का निरूपण उन्होंने सर्वत्रा किया है। इस ग्रंथ के साम्यवाद, उद्बोधान, उपदेश और चेतावनी मिथ्याचार और संसार की असारता शीर्षक पद्यों में आप इन सिध्दान्तों का उत्ताम रीति से प्रतिपादन देखेंगे।

    अवतारवाद के विषय में उनकी अनुमति आप इस ग्रंथ में शब्द 4-5 में देखेंगे। और भी स्थानों पर उनको अवतारवाद का विरोधा करते देखा जाता है; तथापि ऐसे शब्द भी मिलते हैं जिनमें अवतारवाद का प्रतिपादन है। निम्नलिखित शब्दों को देखिए-

    प्रहलाद पठाये पढ़न शाल। संग सखा बहु लिये बाल। मोको कहा पढ़ावसि आल जाल। मोरी पटिया लिख देहु श्री गोपाल। नहिं छोड़ों रे बाबा राम नाम। मोहि और पढ़न सों नहीं काम। काढ़ि खरग कोप्यो रिसाय। तुझ राखनहारा मोहिं बताय। प्रभु खंभ तें निकसे कर बिसराय। हरनाकस छेद्यो नख बिदार। ओइ परम पुरुष देवादि देव। भगत हेत नरसिंघ भेव। कह कबीर को लखै न पार। प्रहलाद उधाारे अनिक बार।

-आदि ग्रंथ, पृष्ठ 653

    राजत कौन तुम्हारे आवै। ऐसो भाव बिदुर का देख्यो वह गरीब मोहिं भावै। हस्ती देख भरम ते भूलो श्रीभगवान न जाना। तुमरो दूधा बिदुर को पानी अमृत कर मैं माना। खीर समान साग मैं पाया गुन गावत रैनि बिहानी। कबीर को ठाकुर अनँद बिनोदी जाति न काहु की मानी।

-आदिग्रंथ, पृष्ठ 596

        दर माँदे टाढ़े दरबार। तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसन दीजै खोल किवार। तुम धान धानी उदार तियागी òवनन सुनियत सुजस तुम्हार। माँगो काहि रंक सब देखों तुम ही ते मेरो निस्तार। जय देव नामा विप्र सुदामा तिन कौ किरपा भइ है अपार। कह कबीर तुम समरथ दाता चार पदारथ देत न बार।

-आदि ग्रंथ, पृष्ठ 462

    इसके अतिरिक्त उनके पद्यों में सैकड़ों स्थानों पर रघुनाथ, रघुराय, राजाराम, गोबिन्द, मुरारि इत्यादि अवतार सम्बन्धाी नामों का प्रयोग उनको अवतारवाद का प्रतिपादक बतलाता है। किन्तु जिस दृढ़ता और व्यापक भाव से वे अवतारवाद का विरोधा करते हैं, उसे देखकर मैं उनके विरोधामूलक विचार को ही मुख्य और दूसरे विचार को गौण मानता हँ। एक और प्रकार से समाधाान किया जाता है। वह यह कि जब वे परमात्मा का निरूपण करने लगते हैें, तब उस आवेश में अवतारों को साधाारण मनुष्य-सा वर्णन कर जाते हैं; किन्तु जब स्वयं प्रेम में भरकर अवतारों के सामने आते हैं तब उनमें ईश्वर भाव ही प्रकट करते हैं। यह बात स्वीकार भी कर ली जाए, तो भी इस विचार में गौणता ही पाई जाती है।

    मायावाद, देववाद, हिंसावाद, मूर्तिपूजा, कर्मकांड, व्रत उपवास, तीर्थयात्राा, वर्णाश्रम धार्म के अनुकूल कुछ कहते उनको कदाचित् ही देखा जाता है। वे इन विचारों के विरोधाी हैं। इस ग्रंथ की माया प्रपंच और मिथ्याचार शीर्षक शब्दावली पढ़िए; उस समय आपको ज्ञात होगा कि किस प्रकार वे इन सिध्दान्तों की प्रतिकूलता करते हैं।

विचारपरंपरा

    श्रीमान् बेस्कट कहते हैं कि संभवत: कबीर पंथ हमको एक ऐसा धार्म मिलता है, जिस पर हिन्दू, मुसलमान और ईसाई इन तीनों धार्मों का थोड़ा प्रभाव पड़ाहै। 1

    परन्तु जब मैं देखता हूँ कि कबीर साहब को ईसाई मजहब का ज्ञान तक नहीं था, तब यह बात कैसे स्वीकार की जा सकती है कि उनके पंथ पर ईसाई मत का भी कुछ प्रभाव पड़ा है। भारत के परम प्रसिध्द बौध्द धार्म से भी कुछ अभिज्ञ नहीं थे; क्योंकि वे इस धार्म का भी किसी स्थान पर कुछ वर्णन नहीं करते हैं। वे जब चर्चा करते हैं, तब दो राहों की चर्चा करते हैं और कहते हैं कि कर्ता ने यही दो राहें चलाई। यदि वे कोई तीसरी राह जानते, तो उसका नाम भी अवश्य

1. देखो कबीर ऐंड दी कबीरपंथ, प्रिफेस, पंक्ति 19-22

लिखते। इसके अतिरिक्त वे और अवसरों पर भी इन्हीं दो राहों को सामने रखकर अपने चित्ता का उद्गार निकालते हैं; अन्य की ओर उनकी दृष्टि भी नहीं जाती। निम्नलिखित वचन इसके प्रमाण हैं-

    ''करता किरतिम बाजी लाई। हिन्दू तुरुक दुइ राह चलाई।''

-कबीर बीजक, पृष्ठ 391

''संतों राह दोउ हम डीठा। हिंदू तुरुक हटा नहिं मानै स्वाद सबन को मीठा।'

-कबीर बीजक, पृष्ठ 210

    ''अरे इन दोउन राइ न पाई। हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई। कहैं कबीर सुनो भाई साधाो कौन राह ह्नै जाई।'

-कबीर शब्दावली, प्रथम भाग, पृष्ठ 48

    अब रहे हिन्दू और मुसलमान धार्म। पहले मैं यह देखूँगा कि कबीर पंथ, वैष्णवधार्म की एक शाखा मात्रा है और उसी की विचारपरंपरा और विशाल हिन्दू धार्म के सिध्दान्त उसमें ओतप्रोत हैं, या क्या? तदुपरान्त मुसलमान धार्म के प्रभाव की भी मीमांसा करूँगा।

    1908 ईसवी में धार्मेतिहास की सार्वजनिक सभा में श्रीमान् ग्रियर्सन साहब ने 'भागवत धार्म' पर एक प्रबन्धा पढ़ा था। उसका सारमर्म 'प्रवासी' नामक बँगला पत्रा के दशम भाग, प्रथम खंड, पृष्ठ संख्या 538, 539 में प्रकाशित हुआ है। उस सारमर्म में 'भागवत धार्म' के निम्नलिखित सिध्दान्त बतलाए गये हैं-

    1-भगवान एक हैं, उन्हीं से विश्व चराचर उत्पन्न हुआ है। अपना विशेष आदेश पालन करने के लिए उन्होंने कतिपय देवताओं को बनाया। किन्तु जब इच्छा होती है तो, प्रयोजन होने पर पृथ्वी का पाप मोचन करने के लिए वे स्वयं धारा में अवतीर्ण होते हैं। भगवान् को पितृ रूप में स्वीकार करने के लिए भारतवर्ष भागवतों का ऋणी है।

    2-इस धार्मवाले एक मात्रा उस भगवान् की ही भक्ति करते हैं। इस धार्म का यही एक विशेषत्व है। इस प्रकार सगुण ईश्वर की उपासना भागवतों से ही भारतवर्ष ने सीखी है।

    3-प्रत्येक आत्मा ही परमात्मा से प्रसूत है। जो प्रसूत हुई है, वह अनन्त काल तक स्वतन्त्रा रहेगी और उसका बार-बार जन्म होगा। किसी कर्म या ज्ञान के द्वारा नहीं, केवल भक्ति के द्वारा जन्मपरिग्रह रुकता है। उस समय मुक्त आत्मा अनन्त काल तक भगवान् के चरणाश्रय में रहती है। इस प्रकार भारत को भागवतों ने ही आत्मा के अमरत्व की दीक्षा दी है।

    4-भगवान् के निकट सभी आत्माएँ समान हैं। मुक्तिलाभ के लिए केवल उच्च जाति वा शिक्षित श्रेणी ही विशेष रूप से अधिाकारी है, यह ठीक नहीं। समाज के लिए जातिभेद मंगल-कारक हो सकता है; परन्तु भगवान की दृष्टि सभी पर समान है। भगवान को पिता स्वीकार कर लेने से स्वभावत: समस्त मानवों के प्रति भ्रातृभाव अंगीकृत हुआ। भारत ने इसे भी भागवतों से ही पाया।

    अब इन सिध्दान्तों के साथ कबीर साहब के एकेश्वरवाद, साम्यवाद, भक्तिवाद, जन्मांतरवाद और अहिंसावाद को मिलाइए, देखिए कहीं कुछ अन्तर है। पहले जो मैं कबीर साहब के एकेश्वरवाद की व्याख्या कर आया हूँ, वह दूसरों को कुछ उलझन पैदा कर सकती है। परन्तु वैष्णव उस एकेश्वरवाद से भली-भाँति परिचित हैं। समस्त रामोपासक वैष्णव रामचन्द्र को साकेतलोक का निवासी बतलाते हैं। साकेतलोक और उसके निवासी का वैष्णव वैसा ही वर्णन करते हैं; जैसा कबीर साहब ने सत्यलोक और उसके निवासी का किया है। प्रमाण लीजिये और अद्भुत साम्य अवलोकन कीजिए-

अयोधया च परब्रह्म सरयू सगुण: पुमान्।

तन्निवासी जगन्नाथ: सत्यं सत्यं वदाम्यहम्। 1

अयोधयानगरी नित्या सच्चिदानंदरूपिणी।

यद्दशांशेन गोलोक: वैकुंठस्थ: प्रतिष्ठित:। 2

-वसिष्ठसंहिता (कबीर बीजक, पृ. 4)

    कबीर पंथ और संत मतवाले अपने 'साहब' को चैतन्य देश का धानी कहते हैं। वसिष्ठसंहिता में भी साकेतलोक का लक्षण यही लिखा है-

यत्रा वृक्ष-लता-गुल्म-पत्रा-पुष्प-फलादिकम्।

यत्ंकिचित् पक्षिभृंगादि तत्सर्वं भाति चिन्मयम्।

-कबीर बीजक, पृष्ठ 28

    साकार, निराकार, परब्रह्म के परे रामचन्द्र जी को वैष्णव भी मानते हैं। आनंदसंहिता के निम्नलिखित श्लोकों को देखिए-

स्थूलं चाष्टभुजं प्रोक्तं सूक्ष्मं चैव चतुर्भुजम्।

परातु द्विभुजं रूपं तस्मादेतत् त्रायं त्यजेत्।

आनंदो द्विभुज: प्रोक्तोर् मूत्ताýर्ामूत्ता एव च।

र्अमूत्तास्याश्रयोर् मूत्ता परमात्मा नराकृति:।

-कबीर बीजक, पृष्ठ 33

    महारामायण में श्रीरामचन्द्र को सत्यलोकेश ही लिखा है-

वाङ्मनो गोचरातीत: सत्यलोकेश ईश्वर:।

तस्य नामादिकं सर्वं रामानाम्ना प्रकाश्यते।

-कबीर बीजक, पृष्ठ 248

    एक स्थान पर कबीर साहब ने भी कह दिया है कि उनका स्वामी 'साकेत' निवासी है। नीचे के पदों को देखिए-

जाय जाहूत में खुद खाविंद जहँ वहीं मक्कान 'साकेत' साजी।

कहै कबीर ह्नाँ भिश्त दोजख थके वेद कीताब काहत काजी।

-कबीर बीजक, पृ. 267

    इसलिए जिस प्रभु की कल्पना कबीर साहब ने की है, वह वैष्णव विचार परम्परा ही से प्रसूत है, वह वैष्णव धार्म के एकेश्वरवाद का रूपांतर मात्रा है।

    जब वैष्णव धार्म का यही विशेषत्व है कि वह एक मात्रा भगवान् की ही भक्ति करता है (देखो, सिध्दांत 2) और जब श्रीमद्भागवत को उच्च कंठ से यह कहते सुनते हैं-

वासुदेवंपरित्यज्य योऽन्यदेवमुपासते।

तृषितो जाद्दवीतीरे कूपं खनति दुर्मति:।

    जब वह यही कहता है कि किसी कर्म वा ज्ञान के द्वारा नहीं केवल भक्ति के द्वारा जन्मपरिग्रह रुकता है (देखो, सिध्दान्त 3) और जब भक्ति की महिमा यों गाई जाती है-

हरिभक्ति बिना कर्म न स्याध्दीशुध्दिकारणम्।

न वा सिध्दयेद् विवेकादि न ज्ञानं नापि मुक्तता।

तो मायावाद, बहुदेववाद, कर्मकांड, व्रत-उपवास, तीर्थयात्राा आदि आप ही उपेक्षित हो गए। चतुर्थ सिध्दान्त के अनुसार-

    ईश्वर की कृपादृष्टि के सबके समान अधिाकारी हो जाने, और एक परमात्मा की संतान होने के कारण सब को भ्राता मान लेने पर, और भागवत के मुख से यह सुनकर कि ''विप्राद्विषट् गुणयुतारविंदनाम पादारविंदविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम्'' वर्णाश्रम धार्म भी अप्रधाान हो जाता है। अहिंसावाद के विषय में गीता का यह गंभीर नाद श्रुतिगत होता है-'अहिंसा परमो धार्म:' अतएव कबीर साहब के सब सिध्दान्त लगभग वे ही पाए गए, जो वैष्णव धार्म के हैं। निदान इस बात को प्रोफेसर वी.वी. राय भी स्वीकार करते हैं-

    ''अगर्चे इवादत के बारे में हिन्दुओं के और और सम्प्रदायों के साथ कबीरपंथियों का कुछ भी तअल्लुक नहीं है, ताहम हिन्दू मजहब से उनके मजहब के निकलने का काफी सबूत मिलता है। उनकी और पौराणिक वैष्णवों की तालीमात नतीजन् अनकरीब एकसों हैं''। (सम्प्रदाय, पृ. 69, 70)। कबीर साहब की शिक्षा में दो बातें तो ऐसी हैं जिनका वैष्णव धार्म से कोई सम्बन्धा नहीं, वरन् उनकी यह शिक्षा उस धार्म के प्रतिकूल है। ये दोनों बातें अवतारवाद और मूर्तिपूजा की प्रतिकूलता हैं। अवतारवाद के अनुकूल ही उनकी शिक्षा में कुछ वचन मिलते भी हैं, और इसमें कोई सन्देह नहीं कि गौण रूप से वे इसे स्वीकार करते हैं; परन्तु मूर्तिपूजा के वे कट्टर विरोधाी हैं। मेरा विचार यह है कि उनका यह संस्कार मुसलमान-धार्म-मूलक है। वैदिक काल से उपनिषद् और दार्शनिक काल पर्यंत आर्यधार्म में भी कहीं अवतारवाद और मूर्तिपूजा का पता नहीं चलता, पौराणिक काल में ही इन दोनों बातों की नींव पड़ी है। अतएव यदि ऊँचे उठा जाए, तो कहा जा सकता है कि कबीर साहब ने प्राचीन आर्य धार्म का अवलंबन करके ही अवतारवाद और मूर्तिपूजा का विरोधा किया है; किन्तु यह काम स्वामी दयानंद सरस्वती का था, कबीर साहब का नहीं। अपठित होने के कारण उनको वेदों और उपनिषदों की शिक्षाओं का ज्ञान न था; इसलिए इतनी दूर पहुँचना उनका काम न था। उनके काल में पौराणिक शिक्षा का ही अखंड राज्य था, जो अवतारवाद और मूर्तिपूजा का जड़ है। इसलिए यह अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि ये दोनों बातें उनके हृदय में मुसलमान धार्म के प्रभाव से उदित हुईं।

    कबीर साहब जन्मकाल से ही मुसलमान के घर में पले थे, अपक्व वय तक उनके हृदय में अनेक मुसलमानी संस्कार परोक्ष एवं प्रत्यक्ष भाव से अंकित होते रहे। वय प्राप्त होने पर वे धार्म-जिज्ञासु बनकर देश-देश फिरे; वल्ख तक गए। उन्होंने अनेक मुसलमान धार्माचार्यों के उपदेश सुने। ऊँजी के पीर और शेख तकी में उनकी श्रध्दा होने का भी पता चलता है। इसलिए स्वामी रामानंद का सत्संग लाभ करने पर भी उनके कुछ पूर्व संस्कारों का न बदलना आश्चर्यजनक नहीं। जो संस्कार हृदय में बध्दमूल हो जाते हैं, वे जीवनपर्यंत साथ नहीं छोड़ते। अवतारवाद औरर् मूत्तिापूजा का विरोधा आदि कबीर साहब के कुछ ऐसे ही संस्कार हैं। स्वामी रामानंद की यह महत्ताा अल्प नहीं है कि उन्होंने कबीर साहब के अधिाकांश विचारों पर वैष्णव धार्म का रंग चढ़ा दिया।

स्वतंत्रा पथ

    श्रीमान् बेस्कट कहते हैं-''साधाारणत: यह बात मान ली गयी है कि समस्त बड़े-बड़े हिन्दू संस्कारों में कबीर और तुलसीदास का प्रभाव उत्तारी और मधय हिन्दुस्तान की अशिक्षित जातियों में स्थायी रूप से अधिाक है। सर विलियम हंटर ने बहुत उचित रीति से कबीरदास को पन्द्रहवीं शताब्दी का भारतीय लूथर कहाहै।''

-कबीर ऐंड दी कबीर पंथ, पृष्ठ 1

    यह बात सत्य है। वैष्णव धार्म ही संस्कारमूलक है; अतएव उस धार्म में दीक्षित होकर कबीर साहब में संस्कारप्रवृत्तिा का उदय होना आश्चर्यकर नहीं; किन्तु उनकी यह प्रवृत्तिा और बातों की अपेक्षा, हिन्दुओं और मुसलमानों को एक कर देने की ओर विशेष थी; क्योंकि उस समय की हिन्दुओं और मुसलमानों की वर्ध्दमान अशान्ति उन्हें प्रिय नहीं हुई। श्रीमान् बेस्कट लिखते हैं-

    ''कबीर की शिक्षा में हमको हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की सीमा तोड़ने का यत्न दृष्टिगत होता है।''

-कबीर ऐंड दी कबीर पंथ, प्रीफेस, पंक्ति 16 और 19

    ''कबीर ने शेख से प्रार्थना की कि वे उनको यह वर दें कि वे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच उन धाार्मिक विरोधाों को दूर कर सके; जो उनको परस्पर अलग करते हैं।''

-कबीर ऐंड दी कबीर पंथ, पृष्ठ 42

    निदान, इस प्रवृत्तिा के उदित होने पर कबीर साहब ने एक ऐसे धार्म की नींव डालनी चाही, जिसे दोनों धार्मों के लोग असंकुचित भाव से स्वीकार कर सकें, ऐसा करने के लिए उनको दो बातों की आवश्यकता दिखलाई पड़ी। एक तो इस बात की कि सब लोग उनको एक बहुत बड़ा अवतार या पैगंबर समझें, जिससे उनकी बातों का उनपर प्रभाव पड़े। दूसरे इस बात की कि वे उन धार्मपुस्तकों, धार्मनेताओं और धार्मयाजकों की ओर से उन लोगों के हृदय में अश्रध्दा, अविश्वास और घृणा उत्पन्न करें, जिनके शासन में उस काल में वे लोग थे; क्योंकि बिना ऐसा हुए उनके उद्देश्य के सफल होने की सम्भावना नहीं थी।

    निदान, प्रथम बात दृष्टि रखकर अवतारवाद के विरोधाी होने पर भी कबीर साहब ने अपने को अवतार और सत्यलोक निवासी प्रभु का दूत बतलाया, और कहा कि जिस पद पर मैं पहुँचा, आज तक कोई वहाँ नहीं पहुँचा। उन्होंने यह दावा भी किया कि केवल हमारी बात मानने से मनुष्य छूट सकता और मुक्ति पा सकता है, अन्यथा नहीं। निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं-

काशी में हम प्रकट भये हैं रामानंद चेताये।

समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये।

-कबीर शब्दावली, प्रथम भाग, पृ. 71

सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया।

-कबीर बीजक, पृ. 20

तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत।

-कबीर बीजक, पृ. 7

कहते मोहिं भयल जुग चारी। समझत नाहिं मोहिं सुत नारी।

-कबीर बीजक, पृ. 125

कह कबीर हम जुग जुग कही। जब ही चेतो तब ही सही।

-कबीर बीजक, पृ. 592

जो कोई होइ सत्य का किनका सो हम को पतिआई।

और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई।

-कबीर बीजक, पृ. 2

घर घर हम सब सों कही शब्द न सुनै हमार।

ते भव सागर डूबहीं लख चौरासी धाार।

-कबीर बीजक, पृ. 19

कहत कबीर पुकार कै सब का उहै हवाल।

कहा हमार मानै नहीं किमि छूटै भ्रमजाल।

-कबीर बीजक, पृ. 130

जंबूद्वीप के सब तुम हंसा गहिलो शब्द हमार।

दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन कै टकसार।

-कबीर शब्दावली, द्वितीय भाग, पृ. 80

जहिया किरतिम ना हता धारती हता न नीर।

उतपति परलय ना हती तब की कही कबीर।

-कबीर बीजक, पृ. 598

ई जग तो जहँड़े गया भया जोग ना भोग।

तिल तिल झारि कबीर लिय तिलठी झारै लोग।

-कबीर बीजक, पृ.632

सुत नर मुनिजन औलिया यह सब उरली तीर।

अलह राम की गम नहीं तहँ घर किया कबीर।

-साखीसंग्रह, पृ. 125

    दूसरी बात पर दृष्टि रखकर उन्होंने हिन्दू और मुसलमान धार्म के ग्रंथों की निन्दा की, उन्हें धाोखा देनेवाला बतलाया और कहा कि माया अथवा निरंजन ने उसकी रचना केवल संसार के लोगों को भ्रम में डालने के लिए कराई। इन बातों के प्रमाण नीचे के वाक्य हैं। इनसे आप उनके धार्मनेताओं की भी निन्दा देखेंगे।

जोग जज्ञ जप संयमा तीरथ व्रत दाना।

नवधाा वेद किताब है झूठे का बाना।

-कबीर बीजक, पृ. 411

हिन्दू मुसलमान दो दीन सरहद बने बेद कत्तोब परपंच साजी।

-ज्ञानगुदड़ी, पृ. 16

बेद किताब दोय फंद सँवारा। ते फंदे पर आप विचारा।

-कबीर बीजक, पृ. 269

चार वेद पट शास्त्राऊ औ दस अष्ट पुरान।

आशा दै जग बाँधिाया तीनों लोक भुलान।

-कबीर बीजक, पृ. 14

औ भूले षट् दरसन भाई। पाख्रड भेख रहा लपटाई।

ताकर हाल होय अधाकूचा। छ दरशन में जौन बिगूचा।

-कबीर बीजक, पृ. 97

ब्रह्मा विष्णु महेसर कहिये इन सिर लागी काई।

इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहुँ मुक्ति न पाई।

-कबीर शब्दावली, द्वितीय भाग, पृ. 19

सुर नर मुनि निरंजन देवा सब मिलि कीन्हा एक बँधााना।

आप बँधो औरन को बाँधो भवसागर को कीन्ह पयाना।

-कबीर शब्दावली, तृतीय भाग, पृ. 38

माया ते मन ऊपजै मन ते दस अवतार।

ब्रह्मा विष्णु धाोखे गये भरम परा संसार।

-कबीर बीजक, पृ. 650

चार बेद ब्रह्मा निज ठाना। मुक्ति का मर्म उनहुँ नहिं जाना।

हबीबी और नवी कै कामा। जितने अमल सो सबै हरामा।

-कबीर बीजक, पृ. 104, 124

    परधार्म और उसके पवित्रा ग्रंथों का खंडन करके निजधार्म स्थापन और सर्वसाधाारण में अपने को अवतार या पैगंबर प्रकट करने की प्रथा प्राचीन है; कबीर साहब का यह नया आविष्कार नहीं है। किन्तु देखा जाता है कि इस विषय में उन्होंने स्वतन्त्रा पथ अवश्य ग्रहण किया। उनकी इस स्वतन्त्राता से मुग्धा होकर 'रहनुमायाने हिंद' के रचयिता कहते हैं-

    ''उनको खुदा का फरजंद कहना बजा है। वह एक कौम या मजहब न रखते थे। उनका घर दुनिया, उनके भाई बंद बनीनवा इंसान, और उनका बाप खालिके अर्ज वो समाँ था।''

-पृष्ठ 229

    परन्तु हम देखते हैं कि वे ही 'रहनुमायाने हिन्द' के विद्वान् रचयिता हिन्दू मजहब के विषय में यह कथन करते हैं-

    ''अगर कोई शख्स हिन्दू मजहब को जानना, पढ़ना या हासिल करना चाहे, तो वह बड़े-बड़े रहनुमा, रिशी और सन्तों की तलकीन गौर से पढ़े। यह बुजुर्ग लोग खुदा के अवतार थे, उनके अकबाल वेद मुकद्दस हैं, जो आसमानी बही और रब्बानी इलहाम हैं, जो खुदा ताला में अपनी इनायत से इंसान को इनायत फरमायेहैं।''

-पृष्ठ 28

    ''यह एक जात या फिरके का मजबह नहीं है, जैसा कि अवामुन्नास का अकीदा है, बल्कि कुल बनीनवा इंसान के लिए बजा किया गया है। जिस वक्त दुखानी जहाज, रेल, तार, तिजारत और फतूहास से कुल दुनिया मिल-जुलकर एक हो जायगी, एक और रहनुमा पैदा होकर जाहिर करेगा कि हिन्दू मजहब तमाम दुनिया के इन्सानों के लिए है।''

-पृष्ठ 28

    अब आप देखिये, वे जैसे कबीर साहब को किसी कौम या मजहब का नहीं कहते, उसी प्रकार हिन्दू धार्म को किसी जाति या फिरके का नहीं बतलाते। जैसे वे बनीनवा इंसान को कबीर साहब का भाई बन्द बतलाते हैं, वैसे ही हिन्दू मजहब को बनीनवा इंसान का कहते हैं। जैसे वे कबीर साहब का घर दुनिया सिध्द करते हैं, वैसे ही हिन्दू मजहब को दुनिया के लिए निश्चित करते हैं, हिन्दू धार्म और कबीर साहब दोनों का जनक वे ईश्वर को मानते हैं। फिर कबीर साहब हिन्दू मजहब के ही तो सिध्द हुए; अर्थात् कबीर साहब का वही सिध्दान्त पाया गया, जो हिन्दू धार्म का है। वैदिक धार्म को ही वे हिन्दू मजहब कहते हैं। परन्तु कबीर साहब के जो विचार वेदों के विषय में हैं, उनको मैं ऊपर प्रकट कर आया। मैं यह मानूँगा कि कबीर साहब जब चिन्ताशीलता से काम लेते हैं और ऊँचे उठते हैं, तब सत्य बात कह जाते हैं। एक स्थान पर उन्होंने स्पष्ट कहा है-'वेद कतेब कहो मति झूठे झूठा जो न विचारै। 1 किन्तु उनका यह एकदेशी विचार है; व्यापक विचार उनका वेद और कुरान की प्रतिकूलतामूलक है। यद्यपि उन्होंने एक महान् उद्देश्य की सिध्दि के लिए यह स्वतन्त्रा पथ (अर्थात् ऐसा पथ जो हिन्दू मुसलमानों से अलग-अलग है) ग्रहण किया, किन्तु मेरा विचार है कि वह उनके महान् उद्देश्य के अनुकूल था, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि हिन्दू मुसलमानों की विभेद सीमा आज भी वैसी ही अचल-अटल है। हिन्दू मुसलमानों के लिए मगहर में अलग-अलग बनी हुई उनकी दो समाधिायाँ भी इस बात का उदाहरणहैं।

    विचार मर्यादा पूर्ण, सहानुभूति मूलक और परिमित होने से ही समादृत होता है। वह विचार कभी कार्यकारी और सुफल प्रसू नहीं होता। जिसमें यथोचित शीलता नहीं होती। मनुष्य और कटूक्तियों को किसी प्रकार सहन कर लेता है; परन्तु जब उसके ग्रंथों और धार्मनेताओं पर आक्रमण होता है, तब उसकी सहनशीलता की प्राय: समाप्ति हो जाती है। उस समय वह बहुत-सी सुसंगत और उचित बातों को भी स्वीकार नहीं करता। मिठाई से ओषधिा की कटुता ही नहीं दब जाती, कितनी अप्रिय बातें भी स्वीकृत हो जाती हैं। ऐसे अवसरों पर प्राय: लोग यह कह उठते हैं कि लोहे का मोरचा उँगलियों से मलकर नहीं दूर किया जा सकता; उसके लिए लोहे की रगड़ ही उपयोगिनी होती है। इसी प्रकार समाज की अनेक बुराइयाँ और धार्म के नाम पर किए गये कदाचार केवल प्यारी-प्यारी बातों और

1. देखो, आदि ग्रंथ, पृ. 727

मधाुर उपदेशों से ही दूर नहीं होते। उनके लिए कटूक्तियों की कषा ही उपकारिणी होती है। यदि यह बात स्वीकार भी कर ली जाए, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि बुराइयों और कदाचार के साथ भलाइयों और सदाचार की पीठ भी कषा प्रहार से क्षत-विक्षत कर दी जाए। संस्कार का अर्थ संहार नहीं है। जो क्षेत्रा संस्कारक खेत की घासों के साथ अन्न के पौधाों को भी उखाड़े देना चाहेगा, वह संस्कारक नाम का अधिाकारी नहीं। वेदशास्त्रा या कुरान में कुछ ऐसी बातें हो सकती हैं जो किसी समय के अनुकूल न हों; हिन्दू धार्म के नेताओं या मुसलमान धार्म के प्रचारकों के कई विचार ऐसे हो सकते हैं, जो सब काल में गृहीत न हो सकें; किन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वेदशास्त्रा या कुरान में सत्य और उपकारक बातें नहीं; और हिन्दू एवं मुसलमान धार्म के नेताओं ने जो कुछ कहा, वह सब झूठ और अनर्गल कहा; लोगों को धाोखे में डाला और उन्हें उन्मार्गगामी बनाया। वेद शास्त्रा या कुरान को धार्मपुस्तक न समझा जाए, हिन्दू, मुसलमान धार्माचार्यों को अपना पथप्रदर्शक न बनाया जाए, इसमें कोई आपत्तिा नहीं, किन्तु उनके विषय में ऐसी बातें कहना, जो अधिाकांश में असंगत हों कदापि उचित नहीं।

    धार्मालोचनाएँ धार्मसंगत ही होनी चाहिए, उनमें हृदयगत विकारों का विकास न होना चाहिए। वेदशास्त्रा के शासन में आज भी बीस करोड़ मनुष्य हैं; कुरान संसार के एक पंचमांश मानव की धार्मपुस्तक है। बिना उनके कुछ सद्गुण या विशेषत्व हुए उनका इतने हृदयों पर अधिाकार होना असम्भव था। कबीर साहब ने बड़े गर्व और आवेश से स्थान-स्थान पर यह कहा है कि हमारे वचन से ही मानव का उध्दार हो सकता है; हमारे शब्द ही लोगों को मुक्त करेंगे। किन्तु जो कुछ वेदशास्त्रा या कुरान में हैं, उससे उन्होंने अधिाक क्या कहा? कौन-सी नयी बात बतलाई? वे केवल आधयात्मिक शिक्षक हैं; किन्तु क्या इस पथ में भी वे उतने ही ऊँचे उठे हैं, जितने कि उपनिषद् और दर्शनकार उठ सके? जिस काल संसार में केवल अज्ञान अंधाकार था, ज्ञानरवि की एक किरण भी नहीं फूटी थी, उस काल कहाँ से यह मेघ गम्भीर धवनि हुई-

    सत्यं वद, धार्म चर, स्वाधयायान् मा प्रमदितव्यम्, मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, मा हिंस्यात् सर्वभूतानि, ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:,

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्

उतामृतत्वस्येशानो यदन्ने नातिरोहति

सर्वाशा मम मित्राम् भवंतु।

    यदि हमारा हृदय कलुषित नहीं है, यदि हममें सत्यप्रियता है, यदि हम न्याय और विवेक को पददलित नहीं करना चाहते, तो हम मुक्तकंठ से कहेंगे पवित्रा वेदों से। आज इसी धवनि की प्रतिधवनि संसार में हो रही है, आज इसी धवनि का मधाुर स्वर सांसारिक समस्त धार्म ग्रंथों में गूँज रहा है। स्वयं कबीर साहब के वचनों और शब्दों में उसी की लहर पर लहर आ रही है। किन्तु वे ऐसा नहीं समझते, वरन् रमैनी में कहते हैं कि माया द्वारा त्रिादेव और वेदादि की उत्पत्तिा केवल संसार को भ्रान्त बनाने के लिए हुई है, सत्य शब्द के लिए हमीं आये हैं (देखो कबीर बीजक, पृ. 13 और 17 के दोहे 15 और 20)। किन्तु यह उस मनुष्य के, जिसके हृदय में मस्तिष्क में, धामनियों में, रक्त की बूँदों में, चैतन्य की कलाएँ प्रतिपल दृष्टिगत हो रही हैं, इस कथन के समान है कि चैतन्य से हमारा कोई सम्पर्क नहीं, क्योंकि हम स्वयं सत्य हैं। कुरान के विषय में भी उनकी उत्ताम धाारणा नहीं; और यही कारण है कि जो जी में आया, उन्होंने इन ग्रंथों के विषय में लिखा। किन्तु शास्त्रा कहता है-

धार्म: यो बाधाते धार्मं स न धार्म: कुधार्मं तत्।

धार्माविरोधाी यो धार्म: स धार्म: सत्यविक्रम:।

    जो धार्म किसी धार्म को बाधाा पहुँचाता है, वह धार्म नहीं है, कुधार्म है। जो धार्म अपर धार्म का अविरोधाी है, सत्य पराक्रमशील धार्म वही है। आज दिन संसार में शान्ति फैलाने के कामुक इसी पथ के पथी है; थियोसोफिकल सोसाइटी का यही महामन्त्रा है। अतएव अनेक अंशों से उसको सफलता भी हो रही है। हिन्दू धार्म स्वयं, इस महामन्त्रा के ऋषि, और चिरकाल से उसका उपासक है। यही कारण है कि इसके विभिन्न विचारों के नाना सम्प्रदाय हिन्दुत्व के एक सूत्रा में आज भी बँधो हैं।

    किसी-किसी का विचार है कि कबीर साहब अपठित थे, उन्होंने वेद शास्त्रा उपनिषदों को पढ़ा नहीं, कुरान के विषय में भी वे ऐसे ही अनभिज्ञ रहे, इसलिए उन्होंने इन ग्रंथों के माननेवालों के आचार-व्यवहार को जैसा देखा, वैसे ही उनके विषय में अनुमति प्रकट की। किन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं। कबीर साहब चिन्ताशील पुरुष थे। वे यह भी समझ सकते थे कि सब मतों के सर्वसाधाारण और महान् एवं मान्य पुरुषों के आचार व्यवहार में अन्तर हुआ करता है। उनके नेत्रा के सामने ही उसी समय में हिन्दुओं में स्वामी रामानंद और मुसलमानों में शेख तकी जैसे महापुरुष मौजूद थे। फिर यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि उन्हाेंने उक्त धार्मग्रन्थों के माननेवालों के आधाार पर ही उन ग्रन्थों के प्रतिकूल लिखा। मेरा विचार यह है कि उन्होंने एक नवीन धार्मस्थापना की लालसा से ही ऐसा किया।

स्वाधाीन चिन्ता

    यह भी कहा जा सकता है कि कबीर साहब स्वाधाीन चिन्ता के पुरुष थे। उन्होंने समय का प्रवाह देखकर धार्म और देश के उपकार के लिए जो बातें उचित और उपयोगिनी समझीं, उनको अपने विचारों पर आरूढ़ होकर निर्भीक चित्ता से कहा। उन्हाेंने अपने विचारों के लिए कोई आधाार नहीं ढूँढ़ा किसी ग्रंथ का प्रमाण नहीं चाहा। उन्होंने सोचा कि जो बात सत्य है, वास्तविक है, उसकी सत्यता और वास्तविकता ही उसका प्रधाान आधाार है। उसके लिए किसी ग्रंथ विशेष का सहारा क्या? उनके जी में यह बात भी आयी कि जिन वेदशास्त्राों और कुरान का आश्रय लेकर हिन्दू-मुसलमान धार्मयाजक नाना कदाचार कर रहे हैं, उन्हीं को उन कदाचारों का विरोधा करने के लिए अवलम्ब बनाना कदापि युक्तिसंगत नहीं; वरन् उनके विरुध्द आन्दोलन मचाना ही उपकारक होगा। निदान उन्होंने ऐसा किया। झूठे संस्कारों के वश लोग नाना क्रियाकांड में फँसे हुए थे, आडंबरमूलक नाना आचार व्यवहार को धार्म समझ रहे थे, उनके द्वारा वे साँसत तो भोगते ही थे, वंचित भी हो रहे थे। उनसे यह बात नहीं देखी गई। उन्हाेंने उनके विरुध्द अपना प्रबल स्वर ऊँचा किया; बड़े साहस के साथ केवल अपने आत्मबल के सहारे उनका सामना किया। उनका सत्य व्यवहार, उनका दृढ़ विचार ही इस मार्ग में उनका सच्चा सहायक था। उनको किसी प्राचीन धार्मग्रंथ की सहायता थी ही नहीं। फिर वे क्यों किसी धर्मग्रंथ का मुख देखते? मीठी बातेें तो वह करता है जिसका कुछ स्वार्थ होता है, जो डरता है, जो प्रशंसा अथवा मान का भूखा रहता है। जो इन बातों से कुछ सम्बन्धा नहीं रखता, वह ठीक बातें कहेगा, वे चाहे किसी को भली लगें या बुरी, उसको इसकी चिन्ता ही क्या? धार्मधवजियों को जो कुछ कहा जाए, सब ठीक है। वह इस योग्य नहीं कि उनसे शिष्टता के साथ बर्ताव किया जाए। अनेक धाार्मिक और सामाजिक कुसंस्कार सीधाी-सादी और प्यार की बातों से दूर नहीं होते। उनके लिए जिह्ना को तलवार बनाना पड़ता है; क्योंकि बिना ऐसा किए कुसंस्कारों का संहार नहीं होता। ये ऐसी प्रत्यक्ष बातें हैं, जो सर्वसम्मत हैं। इसके लिए किसी धार्मग्रंथ का आश्रय अपेक्षित नहीं।

    ये बड़ी ही प्यारी और श्रुतिमनोहर बातें हैं। प्राय: धार्म-संस्कारकों के कार्यों का अनुमोदन करने के लिए ऐसी ही बातें कही जाती है। मैं भी इनको उचित सीमा तक मानता हूँ, परन्तु सर्वांश में नहीं। जो आत्मनिर्भरशील संस्कारक या महात्मा हैं, उनका पद बहुत ऊँचा है। परन्तु उनको यह पद उत्पन्न होते ही नहीं प्राप्त हो जाता। माता, पिता, महात्मा जनों और विद्वानों के संसर्ग, नाना शास्त्राों के अवलोकन और सांसारिक घटनाओं के घात-प्रतिघात के निरीक्षण से शनै: शनै: प्राप्त होता है। धार्म की लहरें संसार में व्याप्त हैं; परन्तु वे किसी आधाार से हृदय में प्रवेश करती हैं। प्रकृति अपरिमित ज्ञान का भण्डार हैं, पत्तो-पत्तो में शिक्षापूर्ण पाठ हैं, परन्तु उनसे लाभ उठाने के लिए अनुभव आवश्यक है। अग्नि में दाहिका शक्ति है, पत्थर में हम उसे अविकसित अवस्था में पाते हैं। वह विकसित होती है, किन्तु किसी आधाार से। धार्म की लहरें संसार में व्याप्त हैं, परन्तु उनके अंशों के उद्भावनकर्ता भी हैं। पृथ्वी आज भी घूमती है, पहले भी घूमती थी और आगे भी घूमती रहेगी। उसमें आकर्षिणी शक्ति पहले भी थी, अब भी है, आगे भी रहेगी। परन्तु इन बातों का आविष्कार करके संसार को लाभ पहुँचानेवाले भास्कराचार्य इत्यादि आर्य विद्वान् अथवा गैलीलियो और न्यूटन हैं? क्या इन आविष्कारों का संसार को कृतज्ञ न होना चाहिए? जिन आधाारों से अग्नि का विकास होता है, क्या वे उसके उपकारक अथवा उपयोगी नहीं? इसी प्रकार वह विचारपरंपरा कि जिससे किसी आत्मनिर्भरशील महात्मा की आत्मा विकसित होती है, क्या अनादरणीय और अमाननीय है? क्या वे ग्रंथ, जिन्होंने संसार को सबसे प्रथम उस विचारपरंपरा से अभिज्ञ किया, इस कारण निन्दा के योग्य हैं कि उनके नाम से कई स्वार्थी आत्माएँ कदाचार और मिथ्याचार में प्रवृत्ता रहें? यदि वे निन्दा के योग्य हैं, तो सत्य का अपलाप हुआ या नहीं? वास्तविकता उपेक्षिता हुई या नहीं? और क्या ऐसा करना किसी महान् आत्मा कार् कत्ताव्य है? कोई आत्मनिर्भरशील महात्मा यदि अपने सिध्दान्तों के प्रचार के लिए ऐसे ग्रंथों की सहायता ग्रहण करे, तो उसका आर्यपथ और विस्तृत होगा, उसको सुकरता छोड़ दुरूहता का सामना न करना पड़ेगा। परन्तु यदि उसकी अप्रवृत्तिा हो, तो वह ऐसा नहीं भी कर सकता है। परन्तु उसका यह कर्तव्य कदापि न होगा कि एक असंगत बात के आधाार पर या यों ही वह उनकी निन्दा करने लगे, और उन्हें कुत्सित ठहरावे। आडंबरों के बहाने धार्मत्याग नहीं, आडंबर में पड़े धार्म का उध्दार ही सदाशयता है। यदि कोई शस्त्रा के सहारे आत्मघात कर ले, तो क्या उससे शस्त्रा की उपयोगिता अगृहीत हो जानी चाहिए? यदि नहीं, तो वेदशास्त्रा की निन्दा का क्या अर्थ? स्वाधाीन चिन्ता का तो यह दुरुपयोग मात्रा है।

    झूठे संस्कारों, आडंबरमूलक आचार-व्यवहारों और प्रवंचना के तो शास्त्रा स्वयं विरोधाी हैं, किन्तु वे समझते हैं कि घाव के लिए मरहम की भी आवश्यकता है। अतएव वे संयत हैं। वे जानते हैं कि वही कठोरता प्रभाव रखती है, जो सहानुभूतिमूलक हो। जहाँ हृदय कार् ईष्या-द्वेष ही कार्य करता है, वहाँ अमृत भी विष बन जाता है। अतएव वे गंभीर हैं। कदाचार और अपकर्म एक साधाारण मनुष्य को भी निन्दित बना देते हैं। फिर धार्मयाजकों और धार्मनेताओं को वे निन्दनीय क्यों न बनावेंगे? उनके लिए कदाचारी और कुकर्मी होना और भी लज्जा की बात है, क्योंकि जो प्रकाश फैलानेवाला है, यदि वही ऍंधेरे में ठोकर खा-खा कर गिरे, तो वह दूसरों के लिए उजाला क्या करेगा? शास्त्रा भी इसको समझते हैं, इसलिए मुक्तकंठ से कहते हैं-

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इद्रियार्थान् विमूढात्म मिथ्याचार: स उच्यते।

न शरीरमलत्यागान्नरो भवति निर्मल:।

मानसे तु मले त्यक्ते भवत्यंतस्सुनिर्मल:।

सर्वेषामेव शौचानामान्त: शौचं परं स्मृतम्।

योऽन्त:शुचिर्हि स शुचि: समृद्वारिशुचि: शुचि:।

नक्तं दिनं निमज्याप्सु कैवर्तु: किमु पावन:।

शतशोपि तथा स्नात: न शुध्द: भावदूषित:।

पठका: पाठकाश्चैव ने चान्ये शास्त्राचिंतका:।

सर्वे व्यासनिनो मूर्खा य: क्रियावान् स पंडित:।

वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमांश्च तपांसि च।

न विप्रभावदुष्टस्य सिध्दिं गच्छति कर्हिचित्।

न गच्छति बिना पानं व्याधिारोपवशब्दत:।

बिना परीक्षानुभवं ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते।

    मनुष्य का जीवनसमय थोड़ा है, संसार के रहस्य नितांत गूढ़ हैं, ज्ञातव्य बातों की सीमा नहीं, मनुष्य केवल अपने अनुभव पर निर्भर रहकर अनेक भूलें कर सकता है; अतएव उसको अपने पूर्वज महानुभावों के अनुभवों से काम लेना पड़ता है, उनके सद्विचारों से लाभ उठाने की आवश्यकता होती है। वेद शास्त्रा इत्यादि ऐसे ही अनुभवाें और सद्विचारों के संग्रह तो हैं। यदि उनसे कोई लाभ उठाना चाहे तो लाभ उठा सकता है, न उठावे उसकी इच्छा, इसकी कोई शिकायत नहीं। परन्तु उसको यह कहने का अधिाकार नहीं कि ये समस्त शास्त्रा ही मिथ्याचारों के आधाार है।

    मिष्टभाषण, शिष्टता, मितभाषिता, गंभीरता, शालीनता, ये सद्गुण हैं; इनकी आवश्यकता जितनी अपने लिए है, उतनी औरों के लिए नहीं। मैं यह मानने के लिए प्रस्तुत नहीं कि धार्मप्रचारक का धार्म प्रचार में कोई स्वार्थ नहीं होता। यह दूसरी बात है कि वह धार्मप्रचार और लोकोपचार ही को अपना स्वार्थ मानता है; पर आत्मसंबंधाी न होने के कारण उसका यह भाव परमार्थ अवश्य कहलाता है। परन्तु स्मरण रहे कि स्वार्थ के लिए मिष्टभाषिता इत्यादि की जितनी आवश्यकता है, उससे कहीं अधिाक इनकी आवश्यकता परमार्थ के लिए है। जहाँ चक्रवर्ती नृपाल की शस्त्राधाारा कुंठित हो जाती है, वहाँ महापुरुष का एक मधाुर वचन ही काम कर जाता है। मैं चिरसंचित कुसंस्कार दूर करने के लिए ओजस्वी और तीव्र भाषण की आवश्यकता समझता हूँ, परन्तु दुर्वचन और असंयतभाषिता की नहीं, क्योंकि ये आदर्श पुरुष के अस्त्रा नहीं। बिना क्रोधा हुए दुर्वचन मुख से निकलते नहीं, असंयत भाषण होता नहीं, किंतु क्रोधा करना महापुरुषों का धार्म नहीं। इसके अतिरिक्त मिथ्याचारी एवं कदाचारी का कलुषित आत्मा होना सिध्द है, कलुषित आत्मा दया का पात्रा है, क्रोधा का पात्रा नहीं है।

    महात्मा सुकरात एक दिन अपनी शिष्य मण्डली के साथ राजमार्ग से होकर कहीं जा रहे थे कि उनके सामने से एक मदांधा धानिक पुत्रा निकला, और अकड़ता हुआ बिना कुछ शिष्टाचार प्रदर्शन किए चला गया। यह बात उनकी शिष्यमंडली को बुरी लगी और उन्हें क्रोधा आया। इस पर सुकरात ने कहा-इसमें क्रोधा करने की क्या बात है? यह बतलाओ, यदि सड़क पर तुमको कोई लँगड़ा मिलता और पाँव सीधो न रखता, तो क्या तुम लोग उस पर क्रोधा करते? लोगों ने कहा-नहीं, वह तो लँगड़ा होता। रोग से उसका पाँव ठीक नहीं, फिर वह पाँव सीधो कैसे रखता, वह तो दया का पात्रा है। सुकरात ने कहा-इसी प्रकार धानिक पुत्रा भी दया का पात्रा है, क्योंकि उसकी आत्मा मलिन है और उसे मद जैसे कुरोग ने घेर रखा है।

    उपदेश के समय चैतन्यदेव को दो मुसलमानों ने एक घड़े के टुकड़े से मारा। उनका सिर फट गया और रुधिार धाारा से शरीर का समस्त वस्त्रा भींग गया। परन्तु उन्हें क्रोधा नहीं आया। वे प्यार के साथ आगे बढ़े, और उन दोनों को गले से लगाकर बोले-''तुम लोग तो सबसे अधिाक दया और उपदेश के अधिाकारी हो; क्योंकि औरों से तुम लोगों को उनकी अधिाक आवश्यकता है।'' वे दोनों उनका यह भाव देखकर इतने मुग्धा और लज्जित हुए कि तत्काल शिष्य हो गये और काल पाकर उनके प्रधाान शिष्यों में गिने गए।

    धार्मग्रंथों को बुरा कहना, आडंबरों की ओट में धार्मसाधान की सुन्दर पध्दतियों की भी निंदा करना स्वाधाीन चिन्ता नहीं है। मानवों की मंगल कामना से, उपकार की इच्छा से, उनमें परस्पर सहानुभूति और ऐक्य सम्पादन एवं भ्रातृभाव उत्पादन के लिए, उन्हें सत्पथ पर आरूढ़ और सद्भावों अथच सुद्विचारों से अभिज्ञ करने के अर्थ धार्म अथवा मजहबों की सृष्टि है। 'तुम लोग परस्पर सहानुभूति और ऐक्य रखो, एक-दूसरे को भाई समझो, सत्पथ पर चलो, सद्विचारों से काम लो, इतना कहने से ही काम नहीं चलता। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ पध्दतियाँ, नियम और पर्व-त्योहार भी, देशकाल और पात्रा का विचार करके बनाने पड़ते हैं; क्योंकि ये ही सहानुभूति और ऐक्य इत्यादि के साधन होते हैं। ये मनुष्य-बुध्दि से ही प्रसूत हैं, अतएव इनमें न्यूनता और अपूर्णता हो सकती है; परन्तु इन साधाारण दोषों के कारण ये सर्वथा त्याज्य नहीं कहे जा सकते। यदि धार्म की आवश्यकता है, तो इनकी भी आवश्यकता है। स्वाधाीन चिन्ता का यह काम है कि आवश्यकतानुसार वह उनको काटती-छाँटती रहे, ठीक करती रहे, संकीर्ण स्थानों को विस्तृत बनाती रहे। उसका यह काम नहीं है कि उनको मटियामेट कर दे और उनके स्थान पर कोई उससे निम्न कोटि की पध्दति इत्यादि भी स्थापन न करके समाज को उच्छृंखल कर दे। कोई कहते हैं कि किसी धार्म या मजहब की आवश्यकता ही क्या? किन्तु यह बात कहने के समय पूरी चिन्ताशीलता का परिचय नहीं दिया जाता। सदाचार, ईश्वर, विश्वास और शील की आवश्यकता मनुष्य मात्रा को है। जो ईश्वरविश्वासी नहीं हैं, उदार और सत्शील का समादर वे भी करते हैं, वरन् दृढ़ता से करते हैं। मजहब इन्हीें बातों की शिक्षा तो देते हैं! फिर मजहब की आवश्यकता क्यों नहीं? धार्म के सार्वभौम सिध्दान्त सब मजहबों में पाए जाते हैं; क्योंकि उन सबका उद्गम स्थान एक है। तारतम्य होना स्वाभाविक है; परन्तु सब मजहबों में वे इतनी मात्राा में मौजूद हैं कि मनुष्य उनके द्वारा सदाचार इत्यादि सीख सके। देशाचार, कुलाचार, अनेक सामाजिक रीति-रस्म, सदाचार इत्यादि बाहरी आवरण मात्रा हैं। उसकी आवश्यकता एकदेशीय है। अनेक दशाओं में वे उपेक्षित हो जाते हैं; किन्तु धार्म के सार्वभौम सिध्दान्त मनुष्य मात्रा के लिए आवश्यक हैं, और ऐसी अवस्था में कोई विद्वान् या महात्मा यह नहीं कह सकता कि मेरा कोई धार्म नहीं। वास्तविक बात तो यह है कि संसार की कोई वस्तु बिना धार्म के नहीं है। हम लोग वैदिक मार्ग को इसीलिए धार्म के नाम से अभिहित करते हैं। मजहब और रिलिजन संज्ञाएँ इतनी व्यापक नहीं हैं। वैदिक धार्म में अधिाकारी भेद है इसलिए यह पात्रा के अनुसार धार्म की व्यवस्था करता है। साथ ही यह भी कहता है-

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्ताश्चिकीर्षुर्लोक - संग्रहम्।

केवलं शास्त्रामाश्रित्य नर् कत्ताव्यो विनिर्णय:।

युक्तिहीनविचारेण धार्महानि: प्रजायते।

युक्ति-युक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि।

अन्य तृणमिव त्याज्यमप्युक्तं पर्जिंन्मना।

अनन्तशास्त्राम् बहुवेदितव्यम् स्वल्पý  कालोबहवý विघ्ना:।

यत् सारभूतम् तदुपाश्रितव्यम् हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमिश्रम्।

    स्वाधाीन चिंता यही तो है! एक धार्म होने के कारण ही वेदशास्त्रा के सिध्दान्त उदार हैं। इसी से वह कहता है कि प्राणीमात्रा मोक्ष का अधिाकारी है। किसी समाज, देश या मजहब का मनुष्य क्यों न हो, जिसमें सदाचार है, धार्मपरायणता है, ईश्वर विश्वास है, वह अवश्य मुक्त होगा। वह समझता है कि परमात्मा घट-घट में व्याप्त है, अन्तर्यामी है; यदि उसे कोई राम, हरि, इत्यादि शब्दों में उद्बोधान न करके गॉड या अल्लाह इत्यादि शब्दों से उद्बोधान करता है, तो क्या परमात्मा उसकी भक्ति को अगृहीत करेगा? उनको चाहे जिस नाम से पुकारे, यदि सच्चे प्रेम से भक्ति-गद्गद-चित्ता से पुकारेंगे, तो वह अवश्य अपनावेगा। यदि कोई सत्य बोलता है, परोपकार करता है, सदाचारी है, परदु:खकातर है, लोकसेवापरायण है, धार्मात्मा है, तो परमात्मा उसे अवश्य अंक में ग्रहण करेगा। उससे यह न पूछेगा कि तू हिन्दू है या मुसलमान, या किश्चियन या बौध्द या अन्य। यदि वह ऐसा करे, तो वह जगत्पिता नहीं, जगन्नियंता नहीं, विश्वात्मा नहीं, सर्वव्यापक नहीं, न्यायी नहीं। जिसका सिध्दान्त इसके प्रतिकूल है; उसका वह सिध्दान्त किसी मुख्य उद्देश्य का साधाक हो सकता है; परन्तु वह उदार नहीं है, व्यापक नहीं है, अनुदार, अपूर्ण और अव्यापक है। हिन्दू धार्म उस पर आक्रमण नहीं करता। वह जानता है कि भगवान् भुवनभास्कर के अभाव में दीपक भी आदरणीय है। संसार को मुग्धा करता हुआ वह जगत्पिता की ओर प्रवृत्ता होकर उच्च कंठ से यही कहता है-

'रुचीनां वैचित्रयात् कुटिलऋजुनानापथयुषां।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णवमिव।''

    साथ ही एक पवित्रा ग्रंथ से यह धवनि होती है-

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान्स्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानर्ुवत्तान्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।

    स्वाधाीन चिंते, तेरा मुख उज्ज्वल हो, तुझसे ही प्रसूत तो ये सद्विचार हैं। इससे उच्च स्वाधाीन चिन्ता क्या है, मैं यह नहीं जानता।

संत मत

    संत मत क्या है? तत्तवज्ञता। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-''मधाुकर सरिस संत गुनग्राही', 'संत हंस गुन गहहिं पय, परिहर बारि बिकार'। इसी की प्रतिधवनि हम मौलाना रूम के इस शेर में सुनते हैं-''मन जे कुरऑं मग्ज रा बरदाश्तम्। उस्तखाँ पेशे सगाँ अंदाख्तम्-मैंने कुरान से मगज ले लिया और हव्ी कुत्ताों के सामने डाल दी। ऑंख वाले के लिए पेड़ का एक पत्ताा भेदों से भरा है।'' जिसमें विवेक बुध्दि नहीं, उसके लिए संसार के समस्त धार्मग्रंथों में भी कुछ सार नहीं। धार्म के साधानों को आडंबर कहकर हम उनसे घृणा कर सकते हैं। परन्तु तत्तवज्ञ की दृष्टि उसके तत्तव को नहीं त्याग सकती। विवेकशील कीचड़ में पड़े रत्न को भी ग्रहण करते हैं। कीचड़ में लिप्त होने के कारण उसे अग्राह्य नहीं कहते।

    कबीर साहब ने एक शब्द में (देखो, शब्द 194) कहा है कि जिनके जी नाम नहीं बसा है, उनके पुस्तक पढ़ने, सुमिरनी लेने, माला पहनने, शंख बजाने, काशी में बसने, गंगाजल पीने, व्रत रखने, तिलक देने से क्या होगा? ऐसे शब्द को पढ़कर लोग यह समझते हैं कि इनमें पुस्तक पढ़ने इत्यादि का खंडन है। किन्तु वास्तव में ये शब्द खण्डनात्मक नहीं हैं। इसी शब्द को देखिए। इसमें कहा है कि जिनके जी में नाम नहीं बसा है, अर्थात् परमात्मा की भक्ति करना या धार्म करना जिनका उद्देश्य नहीं है, उनके पुस्तक इत्यादि पढ़ने से क्या होगा? सिध्दान्त यह कि पुस्तक पढ़ना, माला पहनना, सुमिरनी लेना इत्यादि धार्म के साधान हैं। धार्म के उद्देश्य से यदि इनको धार्म साधान के स्थान पर अधार्म का साधान बना दिया जाए, इनके द्वारा लोगों को ठगा जाए, छलप्रपंच किया जाए, पेट पाला जाए, तो इन कर्मों के करने से क्या होगा? समस्त हिन्दू शास्त्राों का यही सिध्दान्त है, कबीर साहब भी ऐसे शब्दों में यही कहते हैं। शब्द 188 तथा 196 धयानपूर्वक पढ़िए। किन्तु वे कभी-कभी ऐसा भी कह जाते हैं कि 'जोग जज्ञ जप संयमा तीरथ व्रत दाना' झूठे का बाना है, परंतु यह उनका गौण विचार है। यदि योग का खंडन उनको अभीष्ट होता, तो व्यापक भाव से इसे परमात्मा की प्राप्ति का साधान वे न बतलाते (देखो, शब्द 28-32)। इसी प्रकार शील, क्षमा, उदारता, सन्तोष, धौर्य इत्यादि शीर्षक दोहावली में आप संयम और दान आदि का गुणगान देखेंगे। इन सब विषयों में कबीर साहब की विचारपरंपरा सर्वांश में हिन्दूभावापन्न है। किन्तु चौरासी अंग की साखी में उन्होंने 'तीरथ व्रत का अंग' और 'मूरत पूजा का अंग' शीर्षक देकर इन सिध्दान्तों का खंडन किया है। उनको स्फुट रीति से हिन्दू मुसलमानों के कतिपय छोटे-मोटे धार्मसाधानों पर भी आक्रमण करते देखा जाता है। मैं इनमें से कतिपय विषयों को लेकर देखना चाहता हूँ कि वास्तव में इनमें कुछ तत्तव है या नहीं। यह कहा जा सकता है कि कबीर साहब ने हिन्दू मुसलमानों के अनेक सिध्दान्तों में से जिनमें अधिाक तत्तव देखा, उनको ग्रहण कर लिया, शेष को छोड़ दिया। इस विषय में उन्होंने तत्तवज्ञता ही का परिचय तो दिया है। किन्तु निवेदन यह है कि उन्होंने उनको छोड़ा ही नहीं, उनका खंडन भी किया है, उनको निस्सार बतलाया है। अतएव मैं यही देखना चाहता हूँ कि वास्तव में उनमें कुछ सार या तत्तव है या नहीं। तीर्थ के विषय में वे कहते हैं-

तीरथ गये ते बहि मुये जूड़े पानी न्हाय।

कह कबीर संतो सुनो राक्षस ह्नै पछिताय।

तीरथ भई विख बेलरी रही जुगन जुग छाय।

कविरन मूल निकंदिया कौन हलाहल खाय।

-कबीर बीजक, पृ. 601, 602

    क्या वास्तव में तीर्थ जाने से राक्षस होना पड़ता है? क्या वास्तव में वह विषबेलि है? क्या उनका सेवन हलाहल खाना है? क्या कबीरपंथियों की भाँति उसकी जड़ ही काट देनी चाहिए? किंतु हम देखते हैं कि 'कबीरन' ने भी उसकी जड़ नहीं काटी। काशी का कबीरचौरा और मगहर कभी तीर्थस्थान नहीं थे, किन्तु कबीरपंथियों ने ही आज इन्हें तीर्थस्थान बना दिया। क्यों? इसलिए कि एक में उनके गुरु का जन्मस्थान है; और दूसरे में उनके तमोमय हृदय को ज्योतिर्मय बनानेवाले किसी महापुरुष का स्मृतिचिद्द है। वहाँ आज भी उनके सम्प्रदाय के विज्ञानी और विचारवान् पुरुष समय-समय पर पधाारते रहते हैं, जिनसे उनके पंथ का जीवन है। वहाँ पहुँचने पर प्राय: उनके सत्संग का सौभाग्य प्राप्त होना है, जिससे हृदय का कितना तम विदूरित होता है और पहुँचने वालों को वे अवसर प्राप्त होते हैं, जो उन्हें घर बैठे किसी प्रकार न प्राप्त होते। वे वर्ष में एक बार उस पंथ के महात्माओं के मिलने के केन्द्र हैं, जो एकत्रा होकर न केवल विचार परिवर्तन करते हैं, वरन् अपने पंथ को निर्दोष बनाने के विषय में परामर्श करते हैं, और यह सोचते हैं कि किस प्रकार उसको समुन्नत और सुशृंखल बनाया जाए। ऐसे अवसर पर जनसाधाारण को और उनके पंथ के लोगों को उनके द्वारा जो लाभ पहुँचता है, वर्ष में फिर कभी वैसा अवसर हाथ नहीं आता। इनमें कौन-सी बात बुरी है कि जिसके लिए इन स्थानों के उत्पन्न करने की आवश्यकता समझी जाए, या इनको विष हलाहल कहा जाए? सम्पूर्ण तीर्थों का उद्देश्य यही तो है? किसी महान् उद्योग या धार्मसंघट्ट का कार्य उस समय तक कदापि उत्तामता से नहीं हो सकता, जब तक कि उसके लिए कुछ स्थान प्रधाान केन्द्र की भाँति न नियत किए जाएँ। तीर्थ ऐसे ही स्थान तो हैं! संसार में कौन जीवित जाति और सप्राण धार्म है, जो अपने उन्नायकों और पथप्रदर्शकों की जन्मभूमि अथवा लीलाक्षेत्रा या तपस्थान को आदर सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता? उनकी सजीवता और सप्राणता की जड़ उसी वसुंधारा की रज तो है। फिर उनमें उनको प्रतिष्ठाबुध्दि क्यों न होगी? जिस दिन यह प्रतिष्ठाबुध्दि उनके हृदय से लुप्त होगी, उसी दिन उनकी सजीवता और सप्राणता लोकांतरित होगी; क्योंकि उनमें परस्पर ऐसा ही घना सम्बन्धा है। यदि इसमें देशाटन की उपकारिता मिला दी जाए, तो उसका महत्तव और भी अधिाक हो जाता है। फिर तीर्थों के रसातल पहँचाने का क्या अर्थ, तीर्थ के उद्देश्यों के समझने में जनसमुदाय का भ्रान्त हो जाना सम्भव है; तीर्थों का कतिपय अविवेकियों के अकांड तांडव से कलुषित और कलंकित हो जाना भी असम्भव नहीं; परन्तु इन कारणों से तीर्थों को ही नष्ट कर देना समुचित नहीं; अन्यथा संस्कारों की समाज को आवश्यकता ही क्या? शास्त्रा यह समझते हैं कि-

तपस्तीर्थं क्षमातीर्थं तीर्थमिंद्रियनिग्रह:।

सर्वभूतदयातीर्थं धयानतीर्थमनुत्तामम्।

एतानि पंचतीर्थानि सत्यं षष्ठं प्रकीर्तितम्।

देहे तिष्ठन्ति सर्वस्य तेषु स्नानं समाचरेत्।

दानं तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमुच्यते।

ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थý प्रियवादिता।

ज्ञानं तीर्थं धाृतिस्तीर्थं तपस्तीर्थमुदाहृतम्।

तीर्थानामपि तत्ताीर्थं विशुध्दिर्मनस: पर:।

-महाभारत

स स्नात: सर्वतीर्थेषु स सर्वमलवर्जित:।

तेन क्रतुशतैरिष्टं चेतो यस्य हि निर्मलम्।

-काशीखंड

    वे यह भी जानते हैं-

भ्रमन् सर्वेषु तीर्थेषु स्नात्वा तेषु पुन: पुन:।

निर्मलो न मनो यावत् तावत् सर्वं निरर्थकम्।

यथेन्द्रवारुणं पक्वं मिष्टं नैवोपजायते।

भावादुष्टस्तथा तीर्थे कोटिस्नातो न शुध्दयति।

-देवीभागवत।

    तथापि व्यासस्मृति का यह वचन है-

नृणां पापकृतां तीर्थे पापस्य शमनं भवेत्।

यथोक्तफलदं तीर्थं भवेच्छुध्दात्मना नृणाम्।

    यह है भी यथार्थ बात। जो शुध्दात्मा है, तीर्थ का यथोक्त फल उन्हीं को मिलता है। परन्तु पापी जन का पाप भी तीर्थ में शमन होता है। पापियों को वहाँ सत्संग का, ज्ञानार्जन का, विचार-परिवर्तन का अवसर मिलता है; इसलिए उनके पाप की निवृत्तिा क्यों न होगी? किन्तु भाव दुष्ट न होना चाहिए। तीर्थ में तीर्थ करने के उद्देश्य से जाना चाहिए, फिर फल की प्राप्ति क्यों न होगी? हाँ, जिसकी चित्तावृत्तिा ही पाप की ओर हो, उसको लाभ कैसे होगा? ऐसे पुरुष के लिए कोई भी सद्वस्तु उपकारक नहीं हो सकती। जल संसार का जीवन है। उसे यदि कोई अनुचित रीति से पीकर अथवा व्यवहार करके प्राण दे दे, तो इसमें जल का क्या दोष! उसके ऐसा करने से जल निंदनीय नहीं ठहराया जा सकता। प्रत्येक पदार्थ का उचित व्यवहार ही श्रेयस्कर होता है। तीर्थ के विषय में भी यही बात कही जा सकती है और यही तत्तवज्ञता है।

    अब मूर्तिपूजा को लीजिये। कबीर साहब कहते हैं-

पाहन पूजे हरि मिलैं तो मैं पुजूँ पहार।

ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार।

पाहन केरी पूतरी करि पूजा करतार।

वाहि भरोसे मत रहो बूड़ो कालीधाार।

-साखीसंग्रह, पृष्ठ 183

    अब मैं यह देखूँगा कि क्या वास्तव में मूर्तिपूजा में कुछ तत्तव नहीं है? मुसलमान धार्म का अनुसरण ही कबीर साहब ने इस विषय में किया है। इसलिए पहले मैं इस विषय में कुछ प्रतिष्ठित और मान्य मुसलमानों की सम्मति यहाँ लिखूँगा। हजरत मिर्जा मजहर जानेजानाँ दिल्ली निवासी कथन करते हैं-

    ''दरहकष्ीकत बुतपरस्ती ईहा मुनासिबते व अकष्ीदा कुफ्फार अरब नदारद कि ईंहा बुताँरामुत्तासर्रिंफ ओ मुअस्सिर बिल्जात मीगुफतन्द न आलये तसर्रुफष् इलाही। ईहां रा खुदाए जश्मीन मीदानंद ओखुदाय ताला रा खुदाय अस्मान ओई शिर्क अस्त।''

    -अलबशीर, जिल्द 6, नवम्बर 39, सफहा 7, मतबूआ 27 सितंबर सन् 1904 ई.।

    ''वास्तव में इनकी मूर्तिपूजा अरब के काफिरों के विश्वास से कोई सम्बन्धा नहीं रखती। वे मूर्तियों को स्वयं व्यापक और शक्तिमान कहते हैं, न कि ईश्वरोपासन का साधान (जैसा कि हिन्दुओं का विचार है)। वे इनको पृथ्वी का ईश्वर मानते हैं, और परमेश्वर को आकाश का, यही द्वैत है।

    मसनवी गुलशनेजार में महमूद शविस्तार ने कहा है-

    'अगर मुसलमान दरअसल बुत की माहियत समझ सकता, तो उसके लिए इस बात का जानना मुश्किल नहीं था कि बुतपरस्ती भी सधा मजहब है।''

    -आर्यगजट जिल्द 10, नं. 19, सफहा 6, मतबूअ 10 मई, सन् 1906

एक पत्थर चूमने को शेख जी काबा गए।

जौक हर बुत काबिले बोसा है इस बुतखाने में।

-जौक।

न देखा दैर में तो क्या हरम में देखेगा।

वह तेरे पेश नजर याँ नहीं तो वाँ भी नहीं।

दुई का पर्दा उठा दिल से और ऑंख से देख।

खुदा के नूर को हुस्ने बुताँ के परदे में।

-जफर।

    अब कुछ अन्य अनुमतियों को भी देखिए। श्रीमान् ग्रियर्सन साहब अपने धार्मेतिहास में लिखते हैं-

    ''हिन्दुओं में बहुदेववाद और मूर्तिपूजा है; किन्तु वह उनके गम्भीरतर धार्म मत का आवरण मात्रा है।

-प्रवासी, दशम भाग, पृष्ठ 538

    बाबू मन्मथनाथ दत्ता एम.ए., एम.आर.ए.एस. लिखते हैं-

    ''दरख्त को उसके फलों से पहचानते हैं। हमने जब उन आदमियों में 'जिन्हें बुतपरस्त कहा जाता है' वह शराफत, वह खुलूस इरादत और रूहानी इश्क देखा, जो और कहीं नहीं पाया जाता, तो खुद अपने दिल में सवाल किया-''-क्या गुनाह से नेकी पैदा हो सकती है?''

    ''हिन्दुओं के मजहब का अस्ल उसूल हकशिनासी है। खुदाशिनासी से इंसान खुदा हो जाता है। लिहाजाबुत, सनमखाना, कलीसा, किताबें इंसान की मुईं और उसके रूहादी लड़कपन की मददगार है। इन्हीं के जरिए से वह आगे तरक्की करता जावेगा।''

-रहनुमायाने हिंद, पृ. 18, 19

    हमको यहाँ मूर्तिपूजा का प्रतिपादन नहीं करना है। हमने इन वाक्यों को यहाँ इसलिए उठाया है कि देखें, हिन्दुओं कीर् मूत्तिापूजा में औरों को कुछ तत्तव दृष्टिगत होता है या नहीं। मूर्तिपूजा हिन्दुओं का प्रधाान धार्म नहीं है-

उत्तामं ब्रह्मसद्भावो मधयमं धयानधाारणा।

स्तुतिप्रार्थनाधामाज्ञेया बाह्यपूजाधामाधामा।

    ब्रह्म सद्भाव उत्ताम, धयानधाारणा मधयम, स्तुति प्रार्थना अधाम, और बाह्यपूजा अर्थात् किसी मूर्ति इत्यादि को सामने रखकर उपासना करना अधामाधाम है। भागवत ऐसा परम वैष्णव ग्रंथ कहता है-''प्रतिमा अल्पबुध्दीनाम्'' ''सर्वत्राविजितात्मनाम्''। प्रतिमाअल्पबुध्दियों के लिए है, क्योंकि विजितात्माओं के लिए परमात्मा सर्वत्रा है। प्रतीक उपासना का आभास वैदिक और दार्शनिक काल में मिलता है; किन्तु प्रतिमा पूजा बौध्द काल और उसके परवर्ती काल से हिन्दुओं में केवल समाज की मंगलकामना से गृहीत हुई है। जो और साधानाओं द्वारा परमात्मा की उपासना नहीं कर सकता, उसके लिए ही प्रतिमा पूजा की व्यवस्था है। यदि विद्वानों और ज्ञानियों को प्रतिमा पूजन करते देखा जाता है, तो उसका उद्देश्य लोकसंरक्षण मात्रा है; क्योंकि बुध्दिभेद, सर्वसाधाारण को भ्रान्ति कर सकता है। भारतवर्ष के धार्मनेताओं ने हिन्दू धार्म के प्रधाान और व्यापक सिध्दान्तों पर आरूढ़ होकर सदा इस बात की चेष्टा की है कि धार्मांधाता से किसी तत्तव का तिरस्कार न हो। यदि कोई कार्य सद्बुध्दि और सदुद्देश्य से किया जाता है, तो उस पर उन्होंने बलात् दोषारोपण करना उचित नहीं समझा। वे समझते थे कि संसार में समस्त मानव ही समान विचार के नहीं हैं। वे देखते ही थे कि बुध्दि का तारतम्य स्वाभाविक है; इसीलिए उन्हाेंने अधिाकारी भेद स्वीकार किया। उन्होंने उन सोपानों को नहीं तोड़ा जो ऊँचे चढ़ने के साधान हैं, किन्तु यह अवश्य देखा कि किस सोपान पर चढ़ने का अधिाकारी कौन है। उन्होंने विभिन्न विचारों, नाना आचार-व्यवहारों और अनेक उपासना पध्दतियों का सामंजस्य स्थापित किया, अनेक में एक को देखा, विरोधा में अविरोधा की महिमा दिखलाई, और दूसरों की अभावमयी वृत्तिा को भावमयी बना दिया। उनको अनेक कंटकाकीर्ण पथों में चलना पड़ा, उनके सामने अनेक भयंकर प्रवाह आए, उन्होंने सामयिक परिवर्तनों की रोमांचकारी मूर्तियाँ देखीं, उन्होंने अनार्यों की अभद्र कल्पनाएँ अवलोकन कीं, किन्तु सबका सहानुभूति के साथ आलिंगन किया, और सबमें उसी सर्वव्यापक की सत्ताा स्थापित की। असाधाारण प्रतिभावान् विद्वान् श्रीयुत बाबू रवीन्द्रनाथ ठाकुर ब्रह्मसमाजी हैं, प्रतिमापूजक नहीं; किन्तु वे क्या कहते हैं, सुनिए-

    ''विदेशी लोग, जिसे मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती कहते हैं, उसे देखकर भारतवर्ष डरा नहीं। उसने उसे देखकर नाक-भौं नहीं सिकोड़ी। भारतवर्ष ने पुलिंदशबर व्याधा आदि से भी बीभत्स सामग्री ग्रहण करके उसे शिव (कल्याण) बना लिया है-उसमें अपना भाव स्थापित कर दिया है-उसके अन्दर भी अपनी आधयात्मिकता को अभिव्यक्त कर दिखाया है। भारत ने कुछ भी नहीं छोड़ा; सबको ग्रहण करके अपना बना लिया।''

-सरस्वती भाग 15, खंड 1, सं. 6, पृ. 309

    यही तो तत्तवज्ञता है, यही तो धाार्मिकता है। कबीर साहब किसी मुल्ला को मसजिद में बाँग देते देखते हैं, तो कहते हैं-

काँकर पाथर जोरि के मसजिद लई चुनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहिरा हुआ खोदाय।

    परन्तु क्या मुल्ला के बाँग देने का यही अभिप्राय है कि वह समझता है कि खुदा बिना गला फाड़कर चिल्लाए उसकी प्रार्थनाओं को न सुनेगा? यह तो उसका अभिप्राय नहीं है। उसकी बाँग का तो केवल इतना ही अर्थ है कि वह बाँग द्वारा अपने सहधर्मियों को ईश्वरोपासना का समय हो जाने की सूचना देता है, और उनको ईश्वर की आराधाना के लिए सावधाान करता है। फिर उस पर यह व्यंग्य करना कि क्या खुदा बहरा है जो वह यों चिल्लाता है, कितना असंगतहै।

    परमहंस रामकृष्ण का पवित्रा नाम भारत में प्रसिध्द है। आप उन्नीसवीं शताब्दी के भारतभूमि के आदर्श महात्मा थे। सुविख्यात विद्वान और दार्शनिक श्रीयुत मैक्समूलर ने एक स्थान पर कहा है-''यदिं कहीं एक धाारा में ज्ञान और भक्ति का समान रूप से विकास दृष्टिगत हुआ, तो परमहंस रामकृष्ण में''। ऐसे महापुरुष पर बाँग का अद्भुत प्रभाव होता था। जब कभी इस महात्मा के कानों में, पवित्रा गिरिजाघरों के उपासनाकालिक घंटों की लहर, या पुनीत मन्दिरों में धवनित शंखों का निनाद या पाक मसजिद से उठी मुल्ला की बाँग पड़ती, तो इस प्रबलता से उनके हृदय में भक्ति का उद्रेक होता कि राह चलते समाधिा लग जाती। क्यों ऐसा होता? इसलिए कि उनको उस धवनि, निनाद और बाँग में ईश्वरप्रेम की एक अपूर्वधाारा मिलती।

    कबीर साहब कहते हैं-

हिंदू एकादसि चौबिस रोजा मुसलिम तीस बनाए।

ग्यारह मास कहो किन टारौ ये केहि माँहि समाए।

पूरब दिशि में हरि को बासा पश्चिम अलह मुकामा।

दिल में खोज दिलै में देखो यहै करीमा रामा।

जो खोदाय मसजिद में बसत है और मुलुक केहि केरा।

-क.बी., पृ. 388

    हिन्दुओं की चौबीस एकादशी और मुसलमानों के तीस रोजा का यह अर्थ नहीं है कि ऐसा करके वे शेष ग्यारह महीनों को व्यर्थ सिध्द करते हैं। यदि कोई बराबर तीन सौ साठ दिन अपना धार्म कृत्य नहीं कर सकता, या यदि कुछ ऐसे धार्म कृत्य हैं जो लगातार तीन सौ साठ दिन नहीें हो सकते, अतएव उनके लिए यदि कुछ विशेष दिन नियत किए जाएँ, तो क्या यह युक्ति-संगत नहीं? यदि हिन्दू पूर्व मुख और मुसलमान पश्चिम मुख बैठकर उपासना करता है, तो इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वह परमात्मा का धयान हृदय में नहीं करना चाहता, वह पूर्व या पश्चिम मुख बैठकर यही तो करता है? उपासना काल में उसे किसी मुख बैठना ही पड़ेगा। फिर यदि उसने कोई मुख्य दिशा उपासना को सुलभ करने के लिए नियत कर ली, तो इसमें क्षति क्या? मसजिद, मन्दिर या गिरिजा बनाने का यह अर्थ नहीं है कि ऐसा करके सर्वस्थलनिवासी परमात्मा की व्यापकता अस्वीकार की जाती है, उपासना की सुकरता ही उनके निर्माण्ा का हेतु है। जो सर्वव्यापक भाव से उपासना नहीं कर सकता, उसके लिए स्थान विशेष नियत कर देना क्या अल्पज्ञान है? धार्मकृत्यों के पुनीत दिनों को छोड़ दीजिए, उपासना के लिए कोई समय या पध्दति न नियत कीजिए, मसजिद, मन्दिर, गिरिजाघरों को तुड़वा डालिए, देखिए देश और समाज का कितना उपकार होता है? वास्तवमें इन बातों में कुछ तत्तव है, तभी यह प्रणाली सर्वसम्मत है। व्यासदेव कहते हैं-

रूपं रूपविवर्जितस्य भवतो धयानेन यदुकल्पितम्।

स्तुत्या निर्वचनीयताखिलगुरो दूरीकृता यन्मया।

व्यापित्वý निराकृतं भगवतो यत्ताीर्थयात्राादिना।

क्षंतव्यं जगदीश तद्विकलता दोषत्रायं मत्कृतम्।

    हे परमात्मन्! तुम अरूप हो, परन्तु धयान द्वारा मैंने तुम्हारे रूप की कल्पना की, स्तुति द्वारा तुम्हारी अनिर्वचनीयता दूर की, तीर्थयात्राा करके तुम्हारी व्यापकता निराकृत की, अतएव तुम इन तीनों विकलता (अस्वाभाविक या असंपूण्र्ाता) दोषों को क्षमा करो। किन्तु इतना ज्ञान होने पर भी उन्होंने धयान किया, स्तुति और तीर्थयात्राा की, तब तो क्षमा माँगने की आवश्यकता हुई। क्यों? इसलिए कि उपासना का मार्ग यही है। धयान धाारण भी सदोष, स्तुति प्रार्थना भी सदोष, मूर्तिपूजा भी सदोष, फिर परमात्मा की उपासना कैसे हो? आप कहेंगे कि उपासना की आवश्यकता ही क्या? ब्रह्म सद्भाव ही ठीक है, जो कि उत्ताम और निर्दोष है। परन्तु ब्रह्म सद्भाव दस पाँच करोड़ मनुष्यों में भी किसी एक को होता है; फिर शेष लोग क्या करें? वही धयान धाारणा, स्तुति प्रार्थना आदि उनको करनी ही पड़ेगी, चाहे वह सदोष हो परन्तु इसी क्रिया द्वारा उनको परमपुरुष की प्राप्ति होगी। अधयापक रेखागण्0श्निात की शिक्षा के लिए खड़ा होकर एक रेखा खींचता है, और एक बिन्दु बनाता है, और कहता है-देखो यह एक बड़ी रेखा है, और यह एक बिन्दु है परन्तु वास्तव में रेखा और बिन्दु की परिभाषा के अनुसार न तो वह रेखा है और न वह बिन्दु। किन्तु उसी कल्पित रेखा और बिन्दु के आधाार से शिष्य अन्त में रेखागणित शास्त्रा में पारंगत होता है। इसी प्रकार कल्पित धार्मसाधानों से परमात्मा की प्राप्ति होती है। जैसे उस सदोष रेखा और बिन्दु का त्याग करने से कोई रेखागणित नहीं सीख सकता, उसी प्रकार धार्म के कल्पित साधानों का त्याग करने से, चाहे वह किसी अंश में सदोष ही क्यों न हो, कोई परमात्मा को प्राप्त नहीें कर सकता और यही तत्तवज्ञता है।

    धार्मग्रंथों और धार्मसाधानों के बन्धान से स्वतन्त्राता-प्रदान-मूलक विचार प्यारा लगता है, क्योंकि मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्राताप्रिय है। वह बन्धान को अच्छी तरह ऑंख से नहीं देखता। जहाँ तक उसको बन्धान छिन्न करने का अवसर हाथ आवे, उतना ही वह आनंदित होता है। किन्तु बन्धान ही समाज और स्वयं उसकी आत्मा और शरीर के लिए हितकर है। वह आहार-विहार में ही उच्छृंखलता ग्रहण करके देखे; क्या परिणाम होता है। जैसे राजनियमों का बन्धान छिन्न होने पर देश में विप्लव हो जाता है, उसी प्रकार धार्मनियमों का बन्धान टूटने पर आधयात्मिक जगत् में विप्लव उपस्थित होता है। अतएव धार्मग्रंथों और धार्मसाधानों को बंधान कहकर उनसे सर्वसाधाारण को मुक्त करने की उत्कंठा से उसके तत्तवों की ओर उनका दृष्टि आकर्षण विशेष उपकारी है।

    मेरा विचार है कि कबीर साहब अन्त में वेदान्त धार्मावलम्बी हो गये थे। इस ग्रंथ के वेदांतवाद शीर्षक शब्दों को पढ़िए। देखिए, उनमें विचार की कितनी प्रौढ़ता है। बिना पूर्णतया उस सिध्दान्त पर आरूढ़ हुए विचार में इतनी प्रौढ़ता आ नहीं सकती। प्रोफसर वी.बी. राय लिखते हैं-

    ''कबीरपंथियों की मुख्तलिफ किताबों से और आदि ग्रंथों में जो कबीर की बातों का इक्तिबास है, उनसे साफ जाहिर होता है कि कबीरपंथी तालीम वेदांती तालीम की एक दूसरी सूरत है। इस अम्र में सूफियों से भी उनको बड़ी मदद मिली, क्योंकि दोनों तालीम करीब एक-सी है।''

-सम्प्रदाय, पृष्ठ 69

    वैष्णव और वेदान्तधार्म दोनों प्रकांड वैदिक धार्म अर्थात् हिन्दू धार्म की विशाल शाखाएँ हैं। यह वही उदार और महान् धार्म है जिसने वसुंधारा के समग्र पुनीत ग्रंथों ने कतिपय व्यापक सार्वभौम सिध्दान्त का संग्रह करके अपने-अपने कलेवर को समुज्वल किया है। कबीर साहब चाहे वैष्णव हों या वेदांती चाहे संतमत के हों, चाहे अपने को और कुछ बतलावें, किन्तु वे भी उसी धार्म के ऋणी हैं, और उसी के आलोक से उन्होंने अपना प्रदीप प्रज्वलित किया।

शेष वक्तव्य

    श्रीयुत मैक्समूलर जैसे असाधाारण विदेशी विद्वान् और श्रीमती एनीबेसंट जैसी परम विदुषी विजातीय महिला ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि हिन्दूधार्म के सिध्दान्त बहुत ही उदार, व्यापक और सर्वदेशदर्शी हैं। वास्तव में जैसे ही हिन्दू धार्म के सिध्दान्त महान् और गम्भीर हैं, वैसे ही पूर्ण सार्वभौम और सार्वजनिक भी हैं। वैशेषिक दर्शन के निम्नलिखित सूत्रा जैसी व्यापक और उदात्ता परिभाषा धार्म की कहाँ मिलेगी?

यतोभ्युदयनि:श्रेयस् सिध्दि: स धार्म:

    जिससे अभ्युदय और कल्याण अथवा परमार्थ की सिध्दि हो, वही धार्म है।

    हिन्दू धार्म को छोड़कर कौन कह सकता है-

अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधौव कुटुम्बकम्।

    यह अपना अथवा पराया है, यह लघुचेतसों का विचार है; जो उदार चरित हैं, वसुधाा ही उनका कुटुंब है। क्या इससे भी बढ़कर भ्रातृभाव की कोई शिक्षा हो सकती है? हिन्दू धार्म इससे भी ऊँचा उठा, उसने भ्रातृभाव में कुछ विभेद देखा; अतएव मुक्तकंठ से कहा-'आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित:'' मनुष्य मात्रा ही की नहीं, सर्वभूत की आत्मा को जो अपनी आत्मा के समान देखता है, वही विज्ञ है। एक धार्मवाला दूसरे धार्म को बाधाा पहुँचाकर ही आत्मप्रसाद लाभ करता है; परन्तु हिन्दूधार्म इसको युक्तिसंगत नहीं समझता, वह गम्भीर भाव से कहता है-

धार्म: यो बाधाते धार्मं न स धार्म: कुधार्म: तत्।

धार्माविरोधाी यो धार्म: स धार्म: सत्यविक्रम:।

    जो धार्म दूसरे धार्म को बाधाा पहुँचाता है, वह धार्म नहीं कुधार्म है। जो धार्म दूसरे धार्म का अविरोधाी है, सत्य पराक्रमशील धार्म वही है। इतना ही नहीं, वह अपना हृदय उदार एवं उन्नत बनाकर कहता है-

रुचीनां वैचित्रयात् कुटिलऋजुनानापथयुषां।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।

    नाना प्रकार की रुचि होने के कारण ऋजु और कुटिल नाना पथ भी हैं; किन्तु हे परमात्मा! सबका गम्य तू ही है, जैसे सर्व स्थानों से जल समुद्र में ही पहँचता है। उसी के शास्त्रासमूह का विश्वप्रेम का आधाारस्वरूप यह वाक्य है-

सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:।

सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा किýद् दु:खभाग् भवेत्।

    सब सुखी हों, सब सकुशल रहें, सबका कल्याण हो, कोई दु:खभागी न हो। वही संसार के सम्मुख खड़े होकर तारस्वर से कहता है-

यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यपि चिंतयेत्।

आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।

    जो जो अपनी आत्मा के लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहो, जिसको अपनी आत्मा के प्रतिकूल समझते हो, उसको दूसरों के लिए मत करो। इतना लिखकर मैं आप लोगों का धयान कबीर साहब की शिक्षाओं की ओर आकर्षित करता हूँ। हिन्दूधार्म के उक्त विचारों की सार्थकता तभी है, जब हम लोग भी वास्तव में उनके अनुकूल चलने की चेष्टा करें। यदि हम उन विचारों को सामने रखकर केवल गर्व करते हैं और उनके अनुकूल आचरण्ा करना नहीं चाहते, तो न केवल हमलोग अपनी आत्मा को कलुषित करते हैं, वरन् लोगों की दृष्टि में अपने शास्त्राों की भी मर्यादा घटाते हैं। कबीर साहब की शिक्षाओं को आप पढ़िए, मनन कीजिए, उनके मिथ्याचार खंडन के अदम्य, और निर्भीक भाव को देखिए, उनकी सत्यप्रियता अवलोकन कीजिए, उनमें आपको अधिाकांश हिन्दू भावों की ही प्रभा मिलेगी। यदि आपकी रुचि और विचार के प्रतिकूल कुछ बातें उसमें मिलें, तो भी उसे आप देखिए, और उसमें से तत्तव ग्रहण कीजिए; क्योंकि विवेकशील सज्जनों का मार्ग यही है। नाना विचार देखने से ही मनुष्य को अनुभव होता है। कबीर साहब भी मनुष्य थे, उनके पास भी हृदय था, कुछ संस्कार उनका भी था; अतएव समय प्रवाह में पड़कर, हृदय पर आघात होने पर संस्कार के प्रबल पड़ जाने पर उनके स्वर का विकृत हो जाना असम्भव नहीं। उनका कटुबातें कहना चकितकर नहीं। किन्तु यदि आप उन्हें नहीं पढ़ेंगे, तो अपने विचारों को मर्यादापूर्ण करना कैसे सीखेंगे। वे प्रतिमापूजन के कट्टर विरोधाी हैं, अवतारवाद को नहीं मानते; परन्तु इससे क्या परमात्मा की भक्ति करना तो बतलाते हैं, आपको ईश्वरविमुख तो नहीं करते। हिन्दूधार्म का चरम लक्ष्य यही तो है। आपके कुल साधानों को वे काम लाना नहीं चाहते, न लावें परंतु जिन साधनों को वे काम में लाते हैं, वे भी तो आप ही के हैं। वह रुचिवैचित्रय है। रुचिवैचित्रय स्वाभाविक है। हिन्दूधार्म उसको ग्रहण करता है, उससे घबराता नहीं। वे वेद-शास्त्राों की निंदा करते हैं, हिन्दू महापुरुषों को उन्मार्गगामी बतलाते हैं। हिन्दू धार्मनेताओं की धाूल उड़ाते हैं, यह सत्य है। परन्तु उनके पंथवालों के साथ आप ऐक्य कैसे स्थापन करेंगे, जब तक इन विचारों को न जानेंगे। इसके अतिरिक्त जब वे वेद शास्त्राों के सिध्दान्तों का ही प्रतिपादन करते हैं, हिन्दू महापुरुषों के प्रदर्शित पथ पर ही चलते हैं, हिन्दू धार्म-नेताओं की प्रणाली का ही अनुसरण करते हैं, तब उनका उक्त विचार स्वयं एकदेशी हो जाता है और रूपांतर से आपको ही इष्टप्राप्ति होती है। विवेकी पुरुष काम चाहता है, नाम नहीं। परमार्थ के लिए वह अपमान की परवाह नहीं करता, वे मिथ्याचारों का प्रतिवाद तीव्र और असंयत भाषा में करते हैं; परन्तु उसे हमें सह्य करना चाहिए, दो विचारों से। एक तो यह कि यदि हमने वास्तव में धार्म के साधानों को आडंबर बना लिया है, तो किसी-न-किसी के मुख से हमको ऐसी बातें सुननी ही पड़ेंगी, दूसरे यह कि यदि ये अधिाकांश अमूलक हैं, तो भी कोई क्षति नहीं, क्योंकि देखिए, भगवान मनु क्या कहते हैं-

सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।

अमृतस्येव चाकांक्षेदवमानस्य सर्वदा।

    ब्राह्मण को चाहिए कि सम्मान से विष के समान बचे, और अपमान की अमृत के तुल्य इच्छा करे।

    इससे अधिाक मुझे और नहीं कहना है। आशा है, आप लोग 'कबीर वचनावली' का उचित समादर करेंगे और प्रसिध्द मासिक पत्रिाका सरस्वती, भाग 15, खंड 1, संख्या 6, पृष्ठ 307 में प्रकाशित विद्वद्वर श्रीयुत रवीन्द्रनाथ ठाकुर के निम्नलिखित वाक्य को सदा स्मरण रखेंगे।

    ''भारत की चिरकाल से यही चेष्टा देखी जाती है कि वह अनेकता में एकता स्थापित करना चाहता है, वही अनेक मार्गों को एक लक्ष्य की तरफ अभिमुख करना चाहता है। वह बहुत के बीच किसी एक को नि:संशय रूप से, अंतरतर रूप से, उपलब्धा करना चाहता है। उसका सिध्दान्त या उद्देश्य यह है कि बाहर जो विभिन्नता देख पड़ती है, उसे नष्ट करके उसके अन्दर जो निगूढ़ संयोग देख पड़ता है, वह उसे प्राप्त करे।''

-हरिऔधा

 

 

कबीर वचनावली की आधाारभूत
पुस्तकों का विवरण

  सं. नाम पुस्तक         विवरण

  1. आदि ग्रन्थ          उपनाम ग्रन्थसाहब, गुरुमुखी पुस्तक, गुरु अर्जुनदेव संग्रहीत, सन् 1903 में नवलकिशोर प्रेस में नागरी अक्षरों में मुद्रित।

  2. कबीर बीजक         हिन्दी पुस्तक-महाराज विश्वनाथ सिंह कृत टीका सहित, सन् 1907 में नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ में मुद्रित।

  3. कबीर शब्दावली (प्रथम भाग)     हिन्दी पुस्तक-स्वामी वेलवेडियर प्रेस इलाहाबाद संग्रहीत सन् 1913 में उक्त प्रेस में मुद्रित।

  4. कबीर शब्दावली (द्वितीय भाग)   हिन्दी पुस्तक-स्वामी वेलवेडियर प्रेस इलाहाबाद संग्रहीत सन् 1908 में मुद्रित।

  5. कबीर शब्दावली (तृतीय भाग)     हिन्दी पुस्तक-स्वामी वेलवेडियर प्रेस इलाहाबाद संग्रहीत सन् 1913 में मुद्रित।

  6. कबीर शब्दावली (चतुर्थ भाग)     हिन्दी पुस्तक-स्वामी वेलवेडियर प्रेस इलाहाबाद संग्रहीत सन् 1914 में मुद्रित।

  7. कबीर कसौटी         हिन्दी पुस्तक-बाबू लहनसिंह कबीर पंथी डिप्टी कंसरवेटर जंगलात कृत, सन् 1906 में श्रीवेंकटेश्वर प्रेस बम्बई में मुद्रित।

  8. कबीर ऐंड दी कबीर पंथ अंग्रेजी पुस्तक-रेवरेंड जी.एच. बेस्कट एम.ए. विरचित, सन् 1907 में क्राइस्ट चर्च मिशन प्रेस कानपुर में मुद्रित।

  9. चौरासी अंग की साखी  प्राचीन हस्तलिखित हिन्दी पुस्तक कबीरपंथी साधाु, बिहारीदास आजमगढ़ निवासी से प्राप्त।

  सं. नाम पुस्तक         विवरण

10. भारतवर्षीय उपासक सम्प्रदाय     बँगला पुस्तक-श्रीयुत अक्षय कुमार दत्ता प्रणीत, सन् 1888 में नूतन यंत्राालय कलकत्ताा में मुद्रित।

11. भक्ति सुधााबिन्दु स्वाद   हिन्दी पुस्तक-महात्मा सीताराम शरण भगवानप्रसाद विरचित, संवत् 1965-66 में हितचिन्तक प्रेस बनारस में मुद्रित।

12. मिश्रबन्धाु विनोद (प्रथम खंड)    हिन्दी पुस्तक-मिश्रबंधाु विरचित, इंडियन प्रेस इलाहाबाद में संवत् 1970 में मुद्रित।

13. रहनुमायाने हिन्दीे    उर्दू पुस्तक-श्रीयुत मन्मथनाथ दत्ता एम.ए.की अंग्रेजी पुस्तक प्रॉफेट्स ऑफ इण्डिया का अनुवाद, बाबू नारायणप्रसाद वर्मा अनुवादित अहमदी प्रेस अलीगढ़ में सन् 1904 में मुद्रित।

14. सटीक कबीर बीजक    हिन्दी पुस्तक-कबीर पंथी साधाु पूरनदास विरचित्, संवत् 1967 में श्रीवेंकटेश्वर प्रेस बम्बई में मुद्रित।

15. सम्प्रदाय            उर्दू पुस्तक-क्रििýयन विद्वान् प्रोफेसर बी. बी. राय रचित, मिशन प्रेस लुधिायाना में सन् 1916 में मुद्रित।

16. साखी संग्रह          हिन्दी पुस्तक-स्वामी वेलवेडियर प्रेस इलाहाबाद संग्रहीत, उक्त प्रेस में सन् 1912 में मुद्रित।

17. ज्ञानगुदड़ी वो रेखते    हिन्दी पुस्तक-स्वामी वेलवेडियर प्रेस इलाहाबाद संग्रहीत, उक्त प्रेस में सन् 1910 में मुद्रित।

(कबीर वचनावली)


 

 

 

 

 

 

'बोलचाल' की 'बातचीत' शीर्षक भूमिका

 

 

पाँच साल होते हैं, एक दिन अपने 'शान्तिनिकेतन' में बैठा हुआ, मैं कुछ सोच रहा था; अछूते फूल तोड़ना चाहता था; अच्छे बेल-बूटे तराशने में लगा था, किन्तु अपना-सा मुँह लेकर रह जाता था। समुद्र में डुबकी बहुत लोग लगाते हैं, परन्तु मोती सबके हाथ नहीं लगता। हलवा खाने के लिए मुँह चाहिए, आकाश के तारे तोड़ना सुलभ नहीं, परन्तु उमंगें छलाँगें भर रही थीं, बामन होकर चाँद को छूना चाहती थीं, जी में तरह-तरह की लहरें उठती थीं, रंग लाती थीं, चमकती-दमकती थीं, किन्तु थोड़ी ही देर में लोप हो जाती थीं। विचार कहता था, जो काम तुम करना चाहते हो, वह तुम्हारे मान का नहीं, बोलचाल की भाषा में कविता-पुस्तक लिख देना हँसी-खेल नहीं। इसी समय एक मक्खीचूस आ धामके। आपको कुछ चन्दा लग गया था, आप उससे अपना पिंड छुड़ाना चाहते थे। आते ही बोले; आप अपने रूई-सूत में कब तक उलझे रहेंगे, कुछ मेरी भी सुनिए। मैंने कहा, क्या सुनूँ, आप बड़े आदमी हैं, आपको कौड़ियों को दाँत से न पकड़ना चाहिए। यह सुनते ही वे अपना दुखड़ा सुनाने लगे, नाक में दम कर दिया, मैं ऊब उठा, और अचानक कह पड़ा-

''छोड़ देगा कौड़ियों का ही बना।

यह तुम्हारा कौड़ियालापन तुम्हें।''

    वे बिगड़ खड़े हुए; बोले, वाह साहब! मैं कौड़ियाला हूँ। कौड़ियाला तो साँप होता है, क्या मैं साँप हूँ। अच्छा साँप तो साँप ही सही, कौड़ियाला ही सही, साँप का यहाँ क्या काम! कौड़ियाले को अपने पास कौन रहने देगा, अच्छा लीजिये, मैं जाता हूँ, देखूँ तो कैसे मुझसे चंदा लिया जाता है, मैं एक कौड़ी न दूँगा। मैंने समझा-बुझाकर उनको सीधाा किया। वे चले गए, परन्तु मेरा काम बना गए, इस समय साँझ फूल रही थी, मैंने सोचा, इस फूलती साँझ ने ही मुझे एक अछूता फूल दे दिया। मैंने पद्य को यों पूरा किया-

        ''कौड़ियों को हो पकड़ते दाँत से।

                चाहिए ऐसा न जाना बन तुम्हें।

        छोड़ देगा कौड़ियों का ही बना।

                यह तुम्हारा कौड़ियालापन तुम्हें।''

    पद्य पूरा होने पर जी में आया, राह खुल गई, नमूना मिल गया, अब आगे बढ़ना चाहिए, यदि ऐसी ही भाषा हो और मुहावरे की चाशनी भी चढ़ती रहे, तो फिर क्या पूछना, 'आम के आम और गुठली के दाम'। निदान जी उमड़ पड़ा; और मैं जी-जान से इस काम में लग गया। मैंने सोचा, यदि सात-आठ सौ पद्य भी इस नमूने के बन जावेंगे, तो चाहे कुछ और न हो, चाहे वे किसी काम के न हों, पर मैं जो चाहता हूँ वह हो जावेगा और बोलचाल की भाषा में लिखे गये कुछ खड़ी बोली के पद्य जनता के सामने उपस्थित हो जावेंगे। जब हिन्दी साहित्य पर ऑंख डाली तो उसमें मुहावरे की कोई पुस्तक न दिखलाई पड़ी। खड़ी बोली की कविता के फलने-फूलने के समय किसी ऐसी पुस्तक का न होना भी मुझे बहुत खटका। मुहावरों की जैसी छीछालेदर हो रही है, जैसी उनकी टाँग तोड़ी जा रही है, जैसी उनके बारे में मनमानी की जाती है, वह भी कम खलनेवाली बात नहीं। इसलिए मैंने सोचा कि मुहावरों पर ही एक पुस्तक लिखूँ। ऐसा होने पर जो नमूना मेरे सामने है, उसके अनुसार काम भी होगा, और सम्भव है कि हिन्दी साहित्य की कुछ सेवा भी हो जावे। अपने इस काम के लिए मैंने बाल से तलवे तक जितने अंग हैं, उन तमाम अंगों के बहुत से मुहावरे चुने और अपना काम आरम्भ किया। काम पूरा होने में लगभग चार साल लग गये, और जहाँ सात-आठ सौ पद्यों में ग्रन्थ को पूरा होना चाहिए था, वहाँ लगभग पैंतीस सौ पद्यों में वह समाप्त हुआ। यह ग्रन्थ बोलचाल की भाषा में लिखा गया है, इसलिए मैंने इसका नाम 'बोलचाल' ही रखा है।

बोलचाल की भाषा

    बोलचाल की भाषा के बारे में कुछ लिखना टेढ़ी खीर है। जितने मुँह उतनी बातें सुनी जाती हैं। यदि यह बात सत्य न हो तो भी इसमें सन्देह नहीं कि इस विषय में एक मत नहीं है। बोलचाल की भाषा की परिभाषा भिन्न-भिन्न है। अथवा यों कहिए कि इस विषय में मान्य लोगों के सिध्दान्त एक-से नहीं हैं। बोलचाल की भाषा से वह भाषा अभिप्रेत है, जो बोली जाती है, अथवा जिसे सर्वसाधाारण बोलते हैं। यदि इस कसौटी पर कसें तो वर्तमान हिन्दी गद्य-पद्य की अधिाकांश रचना ऐसी भाषा में की गयी मिलेगी, जिसे बोलचाल की भाषा नहीं कह सकते; उर्दू के विषय में भी यही कहा जा सकता है। यह विचार आधाुनिक नहीं चिरकाल से चला आता है। जिस समय हिन्दी और उर्दू का नामकरण हुआ, और इन दोनों ने लिखित गद्य भाषा का रूप धाारण किया, उसके कुछ समय उपरान्त ही इस विचार का भी सूत्रापात हुआ। कविवर लल्लूलाल, पण्डितप्रवर सूरत मिश्र, राजा लक्ष्मणसिंह, राजा शिवप्रसाद और बाबू हरिश्चन्द्र की हिन्दी की शैली भिन्न-भिन्न है। प्रत्येक ने हिन्दी के स्वरूप की कल्पना अपनी-अपनी रुचि के अनुसार की है, किन्तु प्रत्येक का आदर्श बोलचाल ही था। आज दिन पश्चिमोत्तार-प्रान्त, राजस्थान, बिहार और मधयदेश में हिन्दी की विजयवैजयन्ती फहरा रही है, फिर भी वह 'अनेक रूप रूपाय' है। जो लिखता है वह बोलचाल की ही भाषा लिखता है परन्तु फिर भी प्रणाली में भिन्नता है। श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सितम्बर, सन् 1924 की 'सरस्वती' में एक लेख लिखा है, उसमें एक स्थान पर आप लिखते हैं-

    यह कविता बोलचाल की हिन्दी में है-

''यदपि सतत मैंने युक्तियाँ कीं अनेक।

तदपि अहह तूने शान्ति पाई न नेक।

उड़कर तुझको मैं ले कहाँ चित्ता जाऊँ।

दुखद जलन तेरी हाय कैसे मिटाऊँ।''

    किन्तु क्या यह बोलचाल की हिन्दी है? मेरा विचार है कि किसी प्रान्त में अब तक सर्वसाधाारण यदपि, सतत युक्तियाँ, अहह, दुखद नहीं बोलते। ऐसी अवस्था में जिस पद्य में ये शब्द आये हैं, उसको बोलचाल की भाषा का पद्य नहीं कह सकते, सरल हिन्दी का पद्य भले ही कह लें। बोलचाल की हिन्दी, सरल हिन्दी और ठेठ हिन्दी में अन्तर है। क्या अन्तर है, इसका मैं निरूपण करूँगा। सरल हिन्दी और ठेठ हिन्दी का मतलब समझ लेने से ही बोलचाल की हिन्दी का स्वरूप अवगत होगा। सम्भव है कि जो विचार मैं प्रकट करना चाहता हूँ वह सर्वसम्मत न हो, उसमें भी मीन-मेख हो, परन्तु इससे क्या? अपना विचार प्रकट करके ही मैं दूसरे सज्जनों को मीमांसा का अवसर दे सकता हूँ। मीमांसा होने पर ही तथ्य बात ज्ञात होगी।

ठेठ हिन्दी

    'ठेठ हिन्दी का ठाट' की भूमिका में ठेठ हिन्दी की परिभाषा मैंने यह निश्चित की है-

    ''जैसा शिक्षित लोग आपस में बोलते-चालते हैं भाषा वैसी ही हो, गँवारी न होने पावे। उसमें दूसरी भाषा अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेजी इत्यादि का कोई शब्द शुध्द रूप या अपभ्रंश रूप में न हो। भाषा अपभ्रंश-संस्कृत शब्दों से बनी हो, और यदि कोई संस्कृत शब्द उसमें आवे भी तो वही जो अत्यन्त प्रचलित हो, और जिसको एक साधाारण जन भी बोलता हो।''

    इस विषय में श्रीमान् जी.ए. ग्रियर्सन साहब क्या लिखते हैं, वह भी देखने योग्य है। 'अधाखिला फूल' की प्राप्ति स्वीकार करते हुए आप अपने 17 जुलाई सन् 1905 के पत्रा में लिखते हैं-

 ¹ ठेठ हिन्दी क्या है?

    ठेठ हिन्दी संस्कृत की पौत्राी है, हम यह कह सकते हैं कि संस्कृत की पुत्राी प्राकृत और प्राकृत की पुत्राी ठेठ हिन्दी है।

 

            ¹ What is Theth Hindi?

           Theth Hindi is a grand-daughter of Sanskrit. We may say that the daughter of Sanskrit is Prakrit, and the daughter of Parkrit is Theth Hindi.

           Like any other language Hindi borrows words from other languages when it has no word to represent the meaning of an idea which it wishes to express. It usually borrows such words from Sanskrit.

           Every Theth word, i.e. every word which is a daughter of Prakrit, is called Tadbhava (तद्भव)। Every word borrowed from Sanskrit, and which is not a daughter of Prakrit, and which is therefore not Theth, is called Tatsama (तत्सम)।

           There is no objection to using tatsama words, provided there is no tadbava word available. Thus pap (पाप) is a tatsama, and as there is no tatbhava word which exactly means the same as पाप; पाप may be used. But when there are two words, one tadbava (i.e theth), and the other tatsama, the tadbhava word should be used. For instance for 'hand' we have tadbhava 'hath (हाथ), and tatsama 'hast' (हस्त)। Then, as these two words mean the same thing, hath should always be used and not hast.

           It should be remebered that every tatsama word is a borrowed one. It is borrowed from the grand-mother of Hindi. If I make a practice of borrowing often from my relatives and friends I will be ruined. So if Hindi makes a practice of borrowing frequently from

    अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी भी दूसरी भाषाओं से शब्द ग्रहण करती है। जब वह किसी विशेष विचार को प्रकट करना चाहती है, और देखती है कि उसके पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं, उस समय वह प्राय: आवश्यक शब्द संस्कृत से उधाार लेती है।

    प्रत्येक ठेठ शब्द अर्थात् प्रत्येक वह शब्द जो कि प्राकृत-प्रसूत है, तद्भव कहलाता है। संस्कृत से उधाार लिया हुआ प्रत्येक शब्द जो किप्राकृत से उत्पन्न नहीं है, और इस कारण ठेठ नहीं है, तत्सम कहलाता है। यदि तद्भव शब्द न

 

its relation when it is not absolutely necessary to do so Hindi will be ruined. For this reason I am strongly of opinion that Hindi writers should employ theth (i.e tadbhava) words as much as possible, because they are part of the nature (सार) of Hindi, and should employ borrowed Sanskrit (तत्सम) words as little as possible. I am glad to see that you have shown how successfully this can be done.

           It should be remarked that the test of employing a word should always be this:–

Is it tadbhava?

           The test should not be

           Is it tatsama?

           The reason for this is that there are a great many tadbhava words which are the same as the corresponding Sanskrit ones. Thus:–

           Sanskrit                              वनं

           Prakrit                                वणं

           Tadbhava (Theth Hindi)     वन

           Here the tatsama word would also be वन (or cu), but बन is also good Theat Hindi, because बन is not only Sanskrit, but is also a grand-daughter of Sanskrit. It is quit common that Devadatt's grandson should also be called Devadatt, and so also it is the case in Hindi.

           Here are some other forms.

           Sanskrit                 Prakrit               Tadbhava         Tatsama.

           (Theth Hindi)

      túल:        जंगलो      जंगल      जúy (or जंगल)

     विलास:       विलासो     विलास     विलास (or बिलास)

     सार:         सारो        सार        सार

     एक:         एक्को       एक        एक

     समर:        समरो       समर       समर

     गुण:         गुणो        गुन गुण    (or गुन)

           So also may be others.

           It is therefore necessary to know Prakrit, and I would strongly recommend every person who wishes to improve Hindi should study prakrit. which is the mother of Hindi. If you know the mother, you can describe the daughter.

''माय गुन गाय पिता गुन घोड़।

बहुत नहीं तो थोड़हि थोड़।''

मिलते हों तो तत्सम शब्द के प्रयोग करने में कोई आपत्तिा नहीं, 'पाप' तत्सम है। ठीक-ठीक इस अर्थ का द्योतक कोई तद्भव शब्द नहीं है। अतएव यथास्थान पाप का प्रयोग किया जा सकता है। किन्तु जहाँ एक ही अर्थ के दो शब्द हैं, एक तद्भव (अर्थात् ठेठ) दूसरा तत्सम, वहाँ पर तद्भव शब्द का ही प्रयोग होना चाहिए। 'हाथ' के लिए तद्भव शब्द 'हाथ' और तत्सम शब्द 'हस्त' है, अतएव 'हस्त' के स्थान पर 'हाथ' का प्रयोग होना ही संगत है।

    यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रत्येक शब्द उधाार लिया हुआ है। यह उधाार हिन्दी को अपनी दादी से लेना पड़ता है। यदि मैं अपने सम्बन्धिायों तथा मित्राों से प्राय: ऋण लेने की आदत डालूँ तो मैं विनष्ट हो जाऊँगा। इसी प्रकार यदि हिन्दी उस अवस्था में भी जब कि उसके लिए ऋण लेना नितान्त आवश्यक नहीं है, ऋण लेने का स्वभाव डालती रही तो वह भी विनष्ट हो जावेगी। इस कारण मैं बलपूर्वक यह सम्मति देता हूँ कि हिन्दी के लेखक जहाँ तक सम्भव हो ठेठ शब्दों (अर्थात् तद्भव शब्दों) का प्रयोग करें, क्याेंकि वे हिन्दी के स्वाभाविक अंग अथवा अंशभूत साधान हैं। उधाार लिये हुए संस्कृत (तत्सम) शब्दों का जितना ही कम प्रयोग हो, उतना ही अच्छा। मैं यह देखकर प्रसन्न हूँ कि आपने यह कर दिखाया कि कितनी सफलता के साथ ऐसा किया जा सकता है। मैं यह प्रकट कर देना चाहता हूँ कि शब्दों के प्रयोग करने की कसौटी यह है कि हम देखें कि यह शब्द तद्भव है, न यह कि तत्सम-कारण इसका यह है कि बहुत से तद्भव ऐसे हैं जो कि ज्यों-के-त्यों वैसे ही हैं, जैसे कि संस्कृत में हैं। जैसे-

    संस्कृत  प्राकृत   तद्भव (ठेठ हिन्दी)

    वनं     वणं    वन

    यहाँ तत्सम शब्द भी वन (या बन) है, परन्तु बन भी अच्छा ठेठ हिन्दी शब्द है, क्योंकि वन केवल संस्कृत ही नहीं है, वरन् संस्कृत से प्राकृत में होकर आया हिन्दी शब्द है। यह बिल्कुल साधाारण बात है कि देवदत्ता का पौत्रा भी देवदत्ता ही कहा जावे, और यही बात हिन्दी के विषय में भी कही जा सकती है।

नीचे कुछ अन्य रूप भी दिए जाते हैं।

    संस्कृत: प्राकृत    तद्भव (ठेठ हिन्दी) तत्सम

     túल:   जंगलो   जंगल          जúल या जंगल

    विलास: विलासो   विलास         विलास या बिलास

    सार:   सारो     सार           सार

    एक:    एक्को    एक           एक

    समर:   समरो    समर          समर

    गुण:   गुणो,    गुन           गुण या गुन

    इसी तरह से और भी बहुत से शब्द हैं। अतएव प्राकृत का जानना आवश्यक है, और मैं प्रत्येक मनुष्य को जो कि हिन्दी की उन्नति करना चाहता है, यह सम्मति भी दूँगा कि वह प्राकृत का अधययन करे, क्योंकि वह हिन्दी की माता है। यदि आप जननी को जानते हैं तो लड़की को अच्छी तरह समझ सकते हैं।

''माय गुन गाय पिता गुन घोड़।

बहुत नहीं तो थोड़हि थोड़।''

    इस लेख को पढ़कर आप यह समझ गये होंगे कि मैंने जो ठेठ हिन्दी की परिभाषा लिखी है, लगभग उसके विषय में वही विचार डॉक्टर साहब के भी हैं। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की 'हिन्दी भाषा' नाम की एक पुस्तक है, उसमें उन्होंने बारह प्रकार की हिन्दी भाषा लिखी है, उसका उदाहरण भी दिया है। उसके कुछ शीर्षक ये हैं-

    1-जिसमेें संस्कृत के बहुत शब्द हैं,

    2-जिसमें संस्कृत के शब्द थोड़े हैं,

    3-जो शुध्द हिन्दी है,

    4-जिसमें किसी भाषा के शब्द मिलने का नियम नहीं है,

    5-जिसमें फारसी शब्द विशेष हैं, इत्यादि।

    इनके उदाहरण नीचे दिए जाते हैं।

नम्बर-1

           'अहा! यह कैसी अपूर्व और विचित्रा वर्षाऋतु साम्प्रत प्राप्त हुई है। अनवर्त आकाश मेघाच्छन्न रहता है, और चतुर्दिक् कुझ्झटिका-पात से नेत्रा की गति स्तम्भित हो गयी है, प्रतिक्षण अभ्र में चंचला पुंýली स्त्राी की भाँति नर्तन करती है।'

नम्बर-2

    'सब विदेशी लोग घर फिर आए, और व्यापारियों ने नौका लादना छोड़ दिया, पुल टूट गए, बाँधा खुल गए, पंक से पृथ्वी भर गई, पहाड़ी नदियों ने अपने बल दिखाए, बहुत वृक्ष समेत कूल तोड़ गिराए। सर्प बिलों से बाहर निकले, नदियों ने मर्यादा भंग कर दी, और स्वतन्त्रा स्त्रिायों की भाँति उमड़ चलीं।'

नम्बर-3

    'पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आए, क्या उस देस में बरसात नहीं होती, या किसी सौत के फन्द में पड़ गए। कहाँ तो वह प्यार की बातें, कहाँ एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी भी न भिजवाना। हा! मैं कहाँ जाऊँ, कैसी करूँ, मेरी तो ऐसी कोई मुँहबोली सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊँ, कुछ इधार-उधार की बातों से ही जी बहलाऊँ!'

नम्बर-4

    'ऐसी तो ऍंधोरी रात उसमें अकेली रहना, कोई हाल पूछने वाला भी पास नहीं, रह-रह कर जी घबड़ाता है, कोई खबर लेने भी नहीं आता, कौन और इस विपत्तिा में सहाय होकर जान बचाता।'

नम्बर-5

    खुदा इस आफष्त से जी बचाए, प्यारे का मुँह जल्द दिखाए, कि जान में जान आए। फिर वही ऐश की घड़ियाँ आवें, शबोरोजश् दिलवर की सुहबत रहे, रंजोगम दूर हो, दिल मसरूर हो।'

    अन्त में आप लिखते हैं-

    ''हम इस स्थान पर वाद नहीं किया चाहते, कि कौन भाषा उत्ताम है, और वही लिखनी चाहिए। पर हाँ, मुझसे कोई अनुमति पूछे तो मैं यह कहूँगा कि नम्बर 2 और 3 लिखने के योग्य हैं।''

    नमूने जो ऊपर दिए गये हैं, उनके देखने से ज्ञात होगा कि नम्बर 2 सरल हिन्दी है जिसमें कि थोड़े संस्कृत शब्द हैं अर्थात् जिसमें तत्सम शब्द कम हैं, और नम्बर 3 ठेठ हिन्दी है जिसमें बिल्कुल तद्भव शब्द हैं, और इन्हीं दोनों को उक्त महोदय ने लिखने योग्य बतलाया है। कहना नहीं होगा कि शुध्द शब्द और ठेठ शब्द का एक ही अर्थ है और ऐसी अवस्था में भारतेन्दुजी ने भी एक प्रकार से ठेठ हिन्दी की परिभाषा शब्द-विन्यास द्वारा वही की है, जो मैं ऊपर कर आयाहूँ।

ठेठ हिन्दी और बोलचाल की भाषा

    अब प्रश्न यह होगा कि क्या ठेठ हिन्दी बोलचाल की भाषा कही जा सकती है? मेरा विचार है, नहीं, कारण बतलाता हूँ सुनिए। जिन प्रान्तों की भाषा आजकल हिन्दी कही जाती है, उन सब प्रान्तों में सैकड़ों फषरसी, अरबी, तुर्की, अंग्रेजश्ी इत्यादि के कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनको सर्वसाधाारण बोलते हैं, और जिनको एक-एक बच्चा समझता है। अतएव हिन्दी भाषा के बहुत से तद्भव शब्दों के समान वे भी व्यापक और प्रचलित हैं, ऐसी अवस्था में उनको हिन्दी भाषा का शब्द न समझना, और उनका प्रयोग हिन्दी लिखने में न करना युक्तिमूलक नहीं। ऐसे प्रचलित अथवा व्यवहृत शब्दों के स्थान पर हम कोई संस्कृत का पर्यायवाची शब्द लिख सकते हैं; परन्तु वह सर्वसाधाारण को बोधागम्य न होगा, कुछ शिक्षित लोग उसको भले ही समझ लें, अतएव यह कार्य भाषा की दुरूहता का हेतु होगा। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे शब्द भी हमको मिलेंगे, जिनके यथार्थ पर्यायवाची शब्द हमारे पास हैं ही नहीं। हाँ, कई शब्दों द्वारा हम उनका भाव अलबत्ताा प्रकट कर सकते हैं, किन्तु यह व्यवहार तो प्रथम व्यवहार से भी अनुपयोगी होगा। अतएव ऐसे शब्दों से बचना अथवा उनके प्रयोग में आनाकानी करना हिन्दी भाषा के स्वरूप को जटिल बनाना और उसे संकुचित और संकीर्ण करना होगा।

    नीचे एक वाक्य लिखता हूँ। आप उसके द्वारा मेरे कथन की मीमांसा कीजिए, उसकी कसौटी पर मेरे कथन को कसिए, उस समय आपको ज्ञात होगा कि मेरा कथन कहाँ तक युक्तिसंगत है।

    ''आज मैं कचहरी से आ रहा था, एक चपरासी मुझे राह में मिला, उसने कहा-आप से तहसीलदार साहब नाराज हैं, आपने अपनी माल-गुजशरी अब तक नहीं जमा की, इसलिए वे बन-बिगड़ रहे थे। आप चले जाइए तो शायद मान जावें, नहीं तो समन जश्रूर काट देंगे।''

    इस वाक्य में राह, नाराजश्, शायद और जश्रूर के स्थान पर मार्ग, अप्रसन्न, स्यात् और अवश्य हम लिख सकते हैं परन्तु भाषा सर्व-साधाारण को बोधागम्य न होगी। कचहरी, चपरासी, तहसीलदार साहब, मालगुजशरी, जमा, समन का पर्यायवाची कोई उपयुक्त शब्द हमारे पास नहीं है। हाँ, गढ़ा हुआ शब्द अथवा वाक्य उनके स्थान पर लिखा जा सकता है, किन्तु उसका परिणाम असुविधाा, कष्ट-कल्पना और भाषा की महाजटिलता छोड़ और कुछ न होगा, वरन् वाक्य का समझना ही असंभव हो जायेगा।

    हम नित्य, अलबत्ताा, लात, जूता, नर्म, गर्म, या रेल, तार, डाक, लालटेन इत्यादि शब्द बोलते हैं, जिनको सभी समझ लेते हैं, फिर उनके प्रयोग में क्यों संकोच किया जावे। जब ये सब शब्द हिन्दी के तद्भव शब्द के समान ही व्यापक और प्रचलित हैं, तो हिन्दी लिखने में उनका यथास्थान प्रयोग अवश्य होना चाहिए, इससे सुविधाा तो होगी ही, हिन्दी का विस्तार भी होगा। जिस ठेठ हिन्दी में अन्य भाषाओं का प्रचलित शब्द भी तद्भव शब्दों के साथ स्वतन्त्रातापूर्वक व्यवहृत होता है, उसी को बोलचाल की भाषा कहा जा सकता है। इसका नमूना बाबू हरिश्चन्द्र की नम्बर 4 की भाषा है, किन्तु उन्होंने उसको लिखने योग्य नहीं माना, यही उनकी स्वतन्त्रा सम्मति है।

    बाबू साहब ने नं. 4 की भाषा को लिखने योग्य क्यों नहीं माना, इसका एक कारण है। जिस समय का यह लेख है, उस समय कुछ ऐसा प्रवाह बह रहा था, कि हिन्दी के कुछ धाुरन्धार लेखक एक ओर तो फारसी, अरबी इत्यादि के शब्दों का 'बायकाट', कर रहे थे और दूसरी ओर उर्दू के प्रसिध्द लेखक हिन्दी को फारसी, अरबी और तुर्की शब्दों से भर रहे थे, कुछ लोगों का मधयपथ था; परन्तु उनकी संख्या थोड़ी थी। हिन्दी लेखकों में राजा लक्ष्मणसिंह और बाबू हरिश्चन्द्र स्वयं और उनके दूसरे सहयोगी प्रथम पथ के पथिक थे। दूसरा मार्ग सभी उर्दू लेखकों का था, तीसरी राह पर राजा शिवप्रसाद और उन्हीं के विचार के दो एक सज्जन चल रहे थे। अतएव अनुमान यह होता है कि बाबू साहब को अपना पक्ष पुष्ट करने के लिए उक्त विचार प्रकट करना पड़ा था, किन्तु उनका आचरण सर्वथा इसी के अनुसार नहीं था। उन्होंने इस प्रकार की हिन्दी भी लिखी और स्वतन्त्राता से लिखी है। नम्बर 1 की हिन्दी को भी उन्हाेंने लिखने योग्य नहीं बतलाया है, किन्तु उनकी अधिाकांश रचना इसी भाषा में है। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि नं 4 की भाषा को लिखने योग्य न बतलाना, एक ऐसा साधाारण अमनोनिवेश है जिसको प्रमाणकोटि में नहीं ग्रहण किया जा सकता।

हिन्दुस्तानी भाषा की उत्पत्तिा

    जिस समय हिन्दी-उर्दू का झगड़ा चल रहा था और एक ओर वह संस्कृत-गर्भित हो रही थी, और दूसरी ओर फषरसी-अरबी शब्दों से लबरेजश्, उस समय एक तीसरी भाषा की उत्पत्तिा हुई, उसका नाम हिन्दुस्तानी है। हिन्दुस्तानी भाषा का जन्मदाता मैं उन लोगों को कह सकता हूँ, जो उक्त दोनों विचारों के विरोधाी थे और जो लिखित भाषा को बोलचाल की हिन्दी के अनुकूल अथवा निकटवर्ती रखना चाहते थे। राजा शिवप्रसाद इसी विचार के थे। यह मैं ऊपर लिख चुका हूँ। उनके अतिरिक्त काशीपत्रिाका के संचालकगण और कुछ दूसरे लोगों का भी यही सिध्दान्त था। कुछ इन लोगों की भाषाओं के नमूने देखिए-

    ''हम पहले भाग के आरम्भ में लिख आये हैं कि क्या ऐसे भी मनुष्य हैं, जो अपने बापदादा और पुरुखाओं का हाल न सुनना चाहें और उनके समय में लोगों का चालचलन, व्यवहार क्या था, बनज-व्यापार कैसा था, राजदरबार में किस ढब से बरता जाता था, और देश की क्या दशा थी, इन सब बातों के जानने की इच्छा न करें।

-राजा शिवप्रसाद (इतिहास तिमिरनाशक, 3 भाग, पृष्ठ 1)

    ''फ्रांस में एक पादरी साहेब गाडीनाट नामी रहते थे, जिनका नाम वहाँ वालों ने मक्खीचूस रखा था। उनके पास कैसा ही मुफष्लिस मुसीबत का मारा आदमी क्यों न जाए, वह एक कौड़ी भी न देते थे। अपने अंगूर के बागों का उम्दा इन्तिजाम करके उन्होंने बहुत-सी दौलत जमा की। रीमस् शहर के बाशिन्दे जहाँ पादरी साहब रहते थे, उनसे नफष्रत करते और हमेशा उनके साथ हिकारत से पेश आते थे।''

-हिन्दी भाषा में प्रकाशित काशीपत्रिाका के एक लेख से (पृष्ठ 44)

    ये दोनों अवतरण हिन्दुस्तानी भाषा के हैं, किन्तु फिर भी इनमें भिन्नता है। राजा शिवप्रसाद के लेख में संस्कृत तत्सम शब्द आये हैं, किन्तु काशीपत्रिाका के लेख में कहीं नहीं आए। राजा साहब के लेख में फारसी, अरबी शब्द आये हैं, परन्तु कम, आवश्यकता के अनुसार। काशीपत्रिाका के लेख में वे अधिाकता से आये हैं। फिर भी अन्य उर्दू लेखकों की भाषा से इसमें सरलता और सादगी है। कुछ अवतरण प्रचलित हिन्दी और उर्दू के भी देखिए, उनसे आप अनुमान कर सकते हैं कि हिन्दुस्तानी भाषा में और उनमें क्या अन्तर है।

    ''कवि की दृष्टि उल्लास से भरकर पृथ्वी से स्वर्ग और स्वर्ग से पृथ्वी तक घूमती है, और जैसे-जैसे कल्पना अलक्ष्य को लक्ष्य करती है, वैसे-वैसे कवि उन्हें रूप देता है, और जिनका अस्तित्व तक नहीं, उन्हें वह नाम रूप देकर संसार में ला देता है।

-कालिदास और भवभूति, (पृष्ठ 121)

    ''शाहा ने देहली के कारोबार के लिए अलफषजश् ख़ास मुस्तेमल थे, मसलन पानी को आबहयात खाने को ख़ास: सोने को सुख़फष्रमाना, शाहजादों के पानी को आबे ख़ास्स: और इसी तरह हजशरों इस्तिलाही अलफषज थे।''

    ''इन बातों पर और ख़सूसन उनके शेरों पर तहजश्ीब ऑंख दिखाती है, मगर क्या कीजिए एशिया की शायरी कहती है कि यह मेरी सफषई जश्बान और तर्रारी का नमक है, पस मुवर्रिख़ अगर ख़सूयित जश्बान को न जशहिर करे तो अपने फर्ष्ज में कषसिर है या बेख़बर।''

-आबहयात (पृष्ठ 139-140)

    आपने अन्तर देख लिया, दिन-दिन अन्तर बढ़ता जाता है। आजकल दोनों भाषाएँ और दुरूह हो गयी हैं। ज्यों-ज्यों वे दुरूह हो रही हैं, बोलचाल की भाषा से दूर पड़ती जा रही हैं। जो नमूने हिन्दी-उर्दू के ऊपर दिखलाए गये हैं, उनको देखकर आप समझ सके होंगे कि इन दोनों से हिन्दुस्तानी भाषा बोलचाल के कितना समीप है। इसलिए आजकल हिन्दुस्तानी भाषा में लिखने-पढ़ने की फिर पुकार मच रही है। दो उद्देश से,-एक तो यह कि हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाना है, लोगों का विचार है कि जब तक बोलचाल की भाषा में हिन्दी न लिखी जावेगी, उस समय तक वह राष्ट्रीय भाषा न हो सकेगी। दूसरे यह कि हिन्दी उर्दू का विभेद जो दिन-दिन बढ़ता जाता है, उसे दूर करना है, जिसमें वह वैमनस्य नष्ट हो सके, जो दोनों भाषाओं का लिखित रूप विभिन्न होने के कारण प्रतिदिन बढ़ रहा है। एक और बात है। वह यह कि जो भाषा बोलचाल की भाषा से बिलकुल दूर हो जाती है, वह काल पाकर लोप हो जाती है और उसका स्थान वह भाषा ग्रहण कर लेती है, जो बोलचाल की अधिाक समीपवर्तिनी होती है। क्यों ऐसा होता है? इसका उत्तार बाबू दिनेश चन्द्र सेन बी.ए. ने अपने बंगभाषा और साहित्य संज्ञक ग्रन्थ (पृ. 14-15) में दिया है। आप लोगों के अवलोकन के लिए उसका अनुवाद नीचे दिया जाता है-

    ''लिखित भाषा और कथित भाषा में कुछ व्यवधाान होता है, किन्तु इस व्यवधाान की सीमा है। उसका अतिक्रम होने से लिखित भषा मर जाती है, और उसके स्थान पर कथित भाषा कुछ विशुध्द होकर लिखित भाषा में परिणत हो जाती है। लिखित भाषा उत्तारोत्तार उन्नत होकर शिक्षित सम्प्रदाय के क्षुद्र गण्डीर में सीमाबध्द होती है, और क्रमश: वाक्य पल्लवित करने की इच्छा और शब्दों की श्रीवृध्दि की चेष्टा से लिखित भाषा जनसाधाारण की अनधिागम्य हो पड़ती है। उस समय भाषा-विप्लव आवश्यक हो जाता है। जब संस्कृत के साथ कथित भाषा का इसी प्रकार प्रभेद हुआ, तब कथित पालिभाषा कुछ विशुध्द होकर लिखित भाषा बन गई। जब फिर प्राकृत के साथ कथित भाषा का प्रभेद अधिाक हो गया तोर् वत्तामान गौड़ी भाषा कुछ परिष्कृत होकर लिखित भाषा में परिणत हुई। व्याकरण शिशु और अज्ञ लोगों की वाणी का शासन करता है, किन्तु इसीलिए वह चिरप्रवाहशील भाषा की गति को स्थिर नहीं कर सकता। व्याकरण युग-युग में भाषा का पदांक स्वरूप बनकर पड़ा रह जाता है। भाषा जिस पथ से चल पड़ती है, व्याकरण उसका साक्षीमात्रा है। विलुप्त माहेश व्याकरण के उपरान्त पाणिनि, उनके पश्चात् वररुचि, पुरन्दर, यास्क, और इन लोगों के बाद रूपसिध्दि, लंकेश्वर, शाकल्य, भरत, कोहल, भामह, वसन्तराज, मार्कण्डेय, मौद्गलायन, शिलावंश इत्यादि ने व्याकरण की रचना की है। पूर्ववर्ती काल में जो भाषा का दोष कहकर कीर्तित हुआ, परवर्ती काल में व्याकरण्ा ने उसी को भाषा का नियम कहकर स्वीकृत किया। इसीलिए पाणिनि का नियम अग्राह्य करके भी महावंश और ललित-विस्तर शुध्द परिगणित हुए, और वररुचि का नियम अस्वीकार करके भी चन्दबरदाई की रचना निन्दनीय नहीं हुई। समय के विषय में जिस प्रकार प्रात:, संधया, रात्रिा-भाषा के सम्बन्धा में उसी प्रकार संस्कृत, प्राकृत, बंगला वा हिन्दी-पूर्ववर्ती अवस्था के रूपान्तर मात्रा हैं।''

    हिन्दी भाषा के लिए अभी यह समय उपस्थित नहीं है, परन्तु दिन-दिन वह बोलचाल से दूर पड़कर उस समय के निकट पहुँच रही है, यह कुछ लोगों का विचार है। अतएव इस दृष्टि से भी कुछ लोग उसको सरल बनाकर उसका उध्दार करना चाहते हैं। और ऐसे ही विचारवालों की सृष्टि हिन्दुस्तानी भाषा है।

प्रचलित हिन्दी की दुरूहता

    इस अवसर पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि हिन्दी भाषा के उत्तारोत्तार दुरूह और अधिाक संस्कृतगर्भित होने का कारण क्या है? क्या वह स्वयं प्रवृत्ता होकर ऐसी बनाई जा रही है, या स्वभावतया ऐसी बन रही है, अथवा उर्दू की स्पध्र्दा के कारण किम्वा उससे हिन्दी की भिन्नता प्रतिपादन के लिए, यह प्रणाली गृहीत हुई है? मेरा विचार है कि हिन्दी स्वभावतया कुछ आवश्यकताओं और कुछ सामयिक प्रान्तीय भाषाओं के सहयोग सेर् वत्तामान रूप में परिण्ात हो रही है। इस समय जो सर्वत्रा प्रचलित हिन्दी भाषा है और जो पूर्ण व्यापक है वह पश्चिमोत्तार प्रान्त, मधयहिन्द, बिहार, पंजाब, सिंधा और राजस्थान के हिन्दी शिक्षितों में समान रूप से समझी और लिखी-पढ़ी जाती है। जितने हिन्दी के दैनिक, मासिक, साप्ताहिक, अर्ध्द-साप्ताहिक, पाक्षिक अथवा त्रौमासिक पत्रा आजकल किसी प्रान्त से निकलते हैं, उन सबों की भाषा यही प्रचलित हिन्दी है। अधिाकांश ग्रन्थ इसी भाषा में निकल रहे हैं। अनेक पारिभाषिक शब्द, हिन्दुओं का धाार्मिक भाव, उनका संस्कृत-प्रेम, भाव प्रकट करने की सुविधाा, उसका अभ्यास और प्रचार, सामयिक रुचि, और नाना विचार-प्रवाह इस क्षेत्रा में कार्य कर रहे हैं और उच्च हिन्दी भाषा अथवा संस्कृतगर्भित हिन्दी को प्रश्रय दे रहे हैं। हिन्दी ही के लिए नहीं, सभी प्रान्तिक भाषाओं के लिए यह बात कही जा सकती है। सभी प्रान्त आजकल संस्कृत शब्दों के व्यवहार में अग्रसर हैं, और इसका बहुत बड़ा प्रभाव एक दूसरे पर पड़ रहा है। कुछ उदाहरण देखिए-

    बंगला-''इतिहासे वर्णित समयेर मधये भारत शासनेर न्याय सुबृहत् ओ सुमहान कार्य अन्य कोन राज्यशक्तिर हस्ते समर्पित हयनाइ।''

    मराठी-''ज्ञात कालांतीत कोणत्याही संस्थानच्या किंवा साम्राज्याच्या इतिहासांत घडून न आलेली अपूर्व कामगिरि आमच्या हातून निर्विघ्न पणें तड़ीस जाण्यास।''

    गुजराती-''कोई पण वखतना राज्यकत्तर्ाा तथा प्रजाने सौंपवा माँ आवेलाँ महाभारत काम पूरा करवाने जे डहापण अने परस्पर नी लागणी नी जरूरछे ते परम कृपालु परमात्मा नी कृपा थी मजबूत बने एवी छेवटे मारी प्रार्थनाछे।''

    नेपाली-''त्यों सर्व-रक्षक भगवान लाइ समझेर आपस्को प्रेमभाव लाइ रक्षा गरून, कारण यो हो कि इनै बाट यौटा यस्तो सुन्दर काम फत्तो गर्नु परे कोछ, जस्तो बुध्द समय को कुनै राज्य या साम्राज्य का राजार प्रजाले अझ सम्म गरिआयाका छन।''

    तैलंगी-''ए कालमुनंदुन जरगनि मा गोप्प, गंभीर मैनटुवंटि वो पुनु राज्य मेलुवारु कुन्नुवारि प्रजलकुन्नु बुंडु, योक गोप्य गंभीर मैन पनिनि प्रसिध्दमुगा चेयुटकु कावलसिनवलयुनु तेलिवियुन्नु देबुडु मा किच्चु गाका।''

    मलयालम्-''मनुष्यन् स्वभावेन एकमत्य ते आवश्य प्पे टुन्नु जीवत् अद्वितीय परमात्मा विण्टे अंशमा कुन्नु कारणं परमात्मा विनान वृथावित्।''

    उड़िया-  ''बरु महारण्य दुर्गम बनेरे कुटि बनाइ रहइ।

          लवण विहीने कुत्सित अन्नकुवरु भोजन करइ।

          वरु भल पट पिन्धिावा कुनाहि पाइ सहे दु:खतर।

          किन्तु के वो प्रभो कराउतु नाँहि परसेवा कष्टकर।

    सिंधाी:-''पर जे कदी घटि जी विक्तेन उन प्रान्त लाइका हानि न आहे बल्कि लाभुइ आहे। छोत उन खेपहिं जे साधाारणु लिपिअजे वदिले हिक सर्वांग सुन्दर ए सर्वप्रिय लिपि प्राप्त थी पोंदी।''

    पंजाबी- ''राणीं आइके पास खसम दे बैठीदिया मन धार अनुराग।

          मिटर तो सिर उठा चन्द्रविच वेख रैह्याँ हैं नदी तड़ाग।

          साइन्स नूँ मन विच विचार के लड़ रैह्याँ हैं खूब अकलें।

          तीमी पास मंजे ते बैठी वेख रही हैं घूर शकलें।''

    कनाड़ी-''आदेर ई तरद हीन स्थिति यन्तु सुधाारि सुबुदु नम्म मुख्यवाद कर्तव्य बागिदे। तम्म मनस्सि तल्लिजनि सिद विचार गलन्नु वेरे व्यक्तिय मेले प्रकटि सुबुदु भाषेय मुख्योद्देश वागिदे।''

    तमिल-''दर्शनम् समयम् मतम् एण्ड्र इम्यूण्ड्रू शोर्हलुम् ओरूलै पुणर्तुमवै। दर्शनमेन्वदर्कुप्यो दुबाहक् काक्षियेन् बदुप्येरु लायिनुम् पोलवे पेरियोरमेय्यरि विनाल अरिन्दविषयमेन् बदुपट्रि।''-देवनागर

    लगभग भारतवर्ष में बोली जानेवाली समस्त प्रधाान भाषाओं का नमूना मैंने आपके सामने उपस्थित कर दिया, आप देखेंगे कि सभी भाषाओं में संस्कृत शब्दों का प्रयोग अधिाकता से हो रहा है। जो तमिल, कनाड़ी और मलयालम् स्वतन्त्रा भाषाएँ हैं, अर्थात् आर्य भाषा से प्रसूत नहीं हैं, उनमें भी संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। कारण वही है जिसको मैंने ऊपर बतलाया है। उन भाषाओं को कोई स्पध्र्दा उर्दू से नहीं है, फिर वे क्यों संस्कृतगर्भित हैं? दूसरा कोई कारण नहीं, उक्त कारण ही कारण है। जब आर्य सभ्यता का चित्राण होगा, धाार्मिक सिध्दान्तों का निरूपण किया जावेगा, उनके कार्यकलाप का उध्दरण होगा, उस समय अवश्य भाषा संस्कृत गर्भित होगी, क्योंकि संस्कृत भाषा ही वह उद्गमस्थान है, जहाँ से कि इन विचारों और भावों का òोत प्रवाहित होता है। इसके अतिरिक्त आज भी हिन्दुओं में संस्कृत भाषा का प्रेम है। प्रत्येक पठित हिन्दुओं में से अधिाकांश कुछ-न-कुछ संस्कृत का ज्ञान रखते हैं, अतएव अवसर आने पर संस्कृत के प्रवचनों, वाक्यों और आदर्श ग्रन्थों के श्लोकों द्वारा वह अपनी रचनाओं को अवश्य सुसज्जित और अलंकृत करते हैं। अनेक अवस्थाओं में वे संस्कृत के प्रमाणभूत वाक्यों और श्लोकों को उध्दाृत करने के लिए भी बाधय होते हैं, क्योंकि मान्य ग्रन्थों के उध्दाृत वाक्य ही उनके लेखों को प्रामाणिक बनाते हैं। अतएव इन दशाओं में भी भाषा बिना संस्कृतगर्भित हुए नहीं रहती। गद्य लिखने में शैली की रक्षा, भाषा-सौन्दर्य वाक्यविन्यास-पटुता और उसकी रोचकता भी कम वांछनीय नहीं होती और ये सब हेतु इतने सबल हैं कि प्रान्तिक समस्त भाषाएँ संस्कृतगर्भित हैं और इसी सूत्रा से हिन्दी भी संस्कृतगर्भित है। ये ही कारण हैं कि उर्दू भाषा भी फारसी और अरबी से भरी है, और भरी रहेगी, क्योंकि वह मुसलमानों की मुख्य भाषा है और मुसलमानों का धाार्मिक और सामाजिक सम्बन्धा उक्त दोनों भाषाओं से वैसा ही है जैसा कि हिन्दुओं का संस्कृत से। आप हिन्दी भाषा के किसी अवतरण को उठाकर प्रान्तिक भाषाओं के ऊपर के अवतरणों से मिलाइए तो उनमें बहुत कुछ साम्य मिलेगा, किन्तु उर्दू के किसी अवतरण से मिलाइएगा तो शब्द-विन्यास के विषय में दोनों में बड़ा अन्तर मिलेगा। कारण इसके स्पष्ट हैं।

    जब प्रान्तिक भाषाओं और संस्कृतगर्भित हिन्दी के साम्य पर विचार किया जाता है तो यही सूचित होता है कि ऐसी ही हिन्दी का प्रचार यदि हो सकता है तो समस्त प्रान्तों में हो सकता है, क्योंकि हिन्दी के तद्भव शब्दों की अपेक्षा उसके तत्सम शब्द वहाँ आसानी से समझे जा सकते हैं। अनेक सज्जन इस विचार के हैं भी। मैंने 'प्रियप्रवास' को जो ऐसी हिन्दी में लिखा उसका कारण यही विचार है। इसका प्रमाण भी मुझको मिला। जितना प्रचार 'प्रियप्रवास' का अन्य प्रान्तों में हुआ, मेरे किसी ग्रन्थ का नहीं हुआ। इसी कारण 'प्रियप्रवास' की शैली का समर्थन भी हुआ। कुछ प्रमाण लीजिये। माडर्नरिव्यू-सम्पादक एक बंग विद्वान् हैं। वे प्रियप्रवास की आलोचना करते हुए लिखते हैं-

    ''हम आपकी शैली का अनुमोदन करते हैं, सरल न होने पर भी उसके विषय के लिए यही शैली योग्य है।''

    हिन्दी भाषा के प्रसिध्द कवि पण्डित लोचनप्रसाद पाण्डेय अपने 6-5-15 के पत्रा में लिखते हैं-

    ''अभी 26, 27 दिनों तक बाहर प्रवास में था, 10-12 दिनों तक वामण्डा (उड़ीसा) के विद्या-रसिक महाराज का अतिथि था। वहाँ राजा साहब एवं उनके यहाँ के प्रसिध्द-प्रसिध्द साहित्यसेवीगण, पुरी से आये हुए कई एक संस्कृत के धाुरन्धार पण्डित-सबोंने प्रियप्रवास की कविता सुनकर आपकी लेखनी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। विशेष-विशेष स्थान पर तो वे बहुत ही मुग्धा हुए। कुछ अंश जो ''संस्कृत कवितामय कहे जा सकते हैं, उन्हें खूब रुचे।''

    इन बातों पर दृष्टि डालने से यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि हिन्दी भाषा के राष्ट्रीय बनाने के लिए उसका सरल स्वरूप होना ही चाहिए। तथापि अधिाकांश लोग इसी विचार के हैं। हों, किन्तु उनका विचार कार्य रूप में परिणत नहीं हुआ। हिन्दी का व्यापक रूप संस्कृतगर्भित भाषा ही है। मेरा विचार है कि उल्लिखित कारणों और प्रान्तिक भाषाओं के साहचर्य से यह रूप रहेगा, और स्थायी होगा।

सरल हिन्दी भाषा

    प्रचलित हिन्दी भाषा के विषय में अब तक जो कहा गया, उसके सत्य होने पर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सर्वसाधाारण, बालक और स्त्रिायों के बोधा का विचार करके उसका एक सरल रूप होना भी आवश्यक है। अब भी सरल रूप प्रचलित है। आजकल जो उपन्यास लिखे जा रहे हैं, उनमें से अधिाकांश की भाषा सरल हिन्दी है। जो पत्रा और पत्रिाका अथवा पुस्तकें बालक-बालिकाओं और स्त्रिायों के लिए इन दिनाें निकल रही अथवा लिखी जा रही हैं, उनमें भी अधिाकतर सरल हिन्दी का ही प्रयोग होता है। प्रत्येक भाषा में दोनों प्रकार की भाषा में लिखे गये ग्रन्थ पाए जाते हैं। वाल्मीकि-रामायण और महाभारत, अष्टादश पुराणों में श्रीमद्भागवत एवं शेष सप्तदश पुराणों की भाषा में बड़ा अन्तर है। लघुत्रायी और बृहत्त्रायी की भाषा में भी ऐसी ही भिन्नता है। उर्दू और फषरसी के ग्रन्थों में भी यही बात पाई जाती है। उर्दू के शायरों में दबीर और अनीस इसके उदाहरण हैं; फारसी में फिरदौसी और हाफिज के कलामों में ऐसा ही विभेदहै।

    मनुष्य की स्वाभाविक रुचि भी ऐसी ही हैं, किसी को सरलता प्रिय होती है किसी को जटिलता। कोई सीधाी-सादी बातें कहता है, छोटे-छोटे वाक्यों में अपना विचार प्रकट करता है, कोई लच्छेदार बातें नमक-मिर्च लगाकर कहता पसन्द करता है। किसी का ममत्व गूढ़ और दुर्बोधा शब्दों का प्रयोग विद्वत्ताा प्रकट करने के लिए करता है तो दूसरे की सहृदयता सहज-बोधा कोमल शब्दों में अपना भाव प्रकट करने के लिए बाधय होती है। इसके अतिरिक्त लेखन-क्षमता, भाषाधिाकार, अभ्यास, विचार-सरणि की अपक्वता और आवश्यकता भी यथावसर आड़े आती है और भाषा की दुरूहता और सरलता का कारण होती है। हिन्दी विद्वानों की दूरदर्शिता से हिन्दी में दोनों प्रणाली चिरकाल से गृहीत हैं। भारतेन्दु ने उच्च हिन्दी तो लिखी ही है, सरल हिन्दी भी लिखी है। राजा लक्ष्मणसिंह ने अपनी भाषा में फषरसी, अरबी के शब्दों का क्वचित् व्यवहार करने का धयान रखकर भी, सरल हिन्दी लिखने में सफलता पाई है और बड़ी ही मनोहर भाषा लिखी है। यही बात हिन्दी भाषा के अन्य प्राचीन प्रतिष्ठित गद्य-लेखकों के विषय में भी कही जा सकती है।

           प्रयोजन यह कि दोनों प्रकार का हिन्दी का प्रचार पहले से होता आया है। अब भी यह मार्ग बन्द नहीं है और न बन्द होना चाहिए। सरल हिन्दी लिखने में फारसी और अरबी के सर्वसाधाारण में प्रचलित शब्दों का व्यवहार स्वच्छन्दता से होना चाहिए; ऐसे ही अंग्रेजी अथवा अन्य भाषा के प्रचलित शब्दों का भी। इस प्रकार की भाषा ही, यदि उसमें संस्कृत के अप्रचलित शब्द सम्मिलित न हों, हिन्दी उर्दू का सम्मिलन केन्द्र हो सकती है। जो भाषा केवल हिन्दी के तद्भव शब्दों द्वारा लिखित होगी। वह ठेठ हिन्दी होगी; किन्तु समय का प्रवाह उसके अनुकूल नहीं है। यह भाषा शुध्द हिन्दी का आदर्श उपस्थित करने के लिए लिखी जा सकती है, परन्तु सर्वसाधारण अथवा बोलचाल की भाषा वह नहीं हो सकती और न उसके व्यापक अथवा प्रचलित भाषा के रूप में गृहीत होने की आशा है। इस भाषा में एक ग्रन्थ ''रानी केतकी की कहानी'' इन्शाअल्लाह खाँ की लिखी हुई है, और ''ठेठ हिन्दी का ठाठ'' ¹  एवं 'अधाखिलाफूल' नाम के दो ग्रन्थ मेरे लिखे हैं। इनका आदर्श न गृहीत हुआ न आगे गृहीत होने की आशा है; क्योंकि जनसाधाारण में जो विभिन्न भाषाओं के शब्द प्रचलित होकर हिन्दी भाषा के तद्भव शब्दों के समान ही व्यापक हैं, उनका त्याग नहीं हो सकता। आवश्यकताओं के कारण जो अन्य भाषाओं के शब्द जनसाधाारण के अभ्यस्त हैं, जिह्नाग्रवर्ती हैं, किसी भाव अथवा वस्तु के यथार्थ बोधा के साधन हैं, उनसे उन्हें विरत करने की चेष्टा जिस प्रकार सुविधााओं के शिर पर पदाघात करना और असंभवता से युध्द करने के लिए प्रस्तुत होना है, उसी प्रकार बोलचाल की भाषा में से उन शब्दों के बहिष्कार का प्रयत्न करना निष्फल प्रयास छोड़ और कुछ न होगा।

हिन्दी भाषा का वर्गीकरण

    जो कुछ अब तक लिखा गया है, उससे आशा है यह स्पष्ट हो गया कि बोलचाल की हिन्दी सरल हिन्दी, और ठेठ हिन्दी क्या है। इसी प्रकार यह भी ज्ञात हो गया कि उच्च हिन्दी अथवार् वत्तामान व्यापक हिन्दी किसे कहते हैं। उनका वर्गीकरण इस प्रकार होगा-

    1-ठेठ हिन्दी अर्थात् वह हिन्दी भाषा जो केवल तद्भव शब्दों द्वारा लिखी गयी हो और जिसमें संस्कृत के अप्रचलित तत्सम शब्द और अन्य भाषा के कोई शब्द न हों।

    2-बोलचाल की भाषा अर्थात् वह ठेठ हिन्दी जिसमें अन्य भाषा के वे शब्द भी हों, जो कि सर्वसाधाारण के बोलचाल में हों, और जो हिन्दी के तद्भव शब्दों के समान ही व्यापक हों।

 ¹  जहाँ से यह ग्रंथ प्रकाशित है, वहीं से ये दोनों पुस्तकें तथा 'प्रियप्रवास' भी छपा है।

    3-सरल हिन्दी भाषा अर्थात् वह ठेठ हिन्दी अथवा बोलचाल की हिन्दी जिसमें कुछ थोड़े से अप्रचलित संस्कृत तत्सम शब्द भी सम्मिलित हों और जो एक प्रकार से सर्वसाधाारण को बोधागम्य हो।

    4-उच्च हिन्दी अथवा संस्कृत-गर्भित हिन्दी अर्थात् वह सरल हिन्दी भाषा जिसमें संस्कृत शब्दों की अधिाकता और तद्भव शब्दों से तत्सम शब्दों का बाहुल्यहो।

    पूर्व उल्लिखित बाबू हरिश्चन्द्र की नम्बर 1 की भाषा पहिले प्रकार की, नम्बर 4 की भाषा दूसरे प्रकार की, नम्बर 2 की भाषा तीसरे प्रकार की और नम्बर 3 की भाषा चौथे प्रकार की हिन्दी का उदाहरण है।

    बोलचाल की अथवा हिन्दुस्तानी भाषा के बहुत अच्छे उदाहरण आजकल की 'रीडरों' में मिलते हैं। कुछ उदाहरण लीजिये-

    ''यह सुनकर कि रानी केकयी उदास बैठी हैं, राजा दशरथ को बड़ी चिन्ता हुई, वह उसी दम रानी के पास गए। देखा कि रानी धारती पर पड़ी हुई तड़प रही हैं, अच्छे-अच्छे कपड़े और गहने उतारकर फेंक दिए हैं, और उनकी जगह पुराने-धाुराने कपड़े पहन रखे हैं।''

    ''पिघली हुई चर्बी और सोडे का पानी एक बडे बर्तन में फेंटा जाता है, इसके बाद उसको दो या तीन दिन तक इतना औंटते हैं कि सोडे से चर्बी की सूरत बदल जाती है और साबुन बन जाता है, लेकिन यह न समझना कि साबुन बनकर तैयार हो गया।''-'बाल वाटिका'

    अपने आबेहयात में हजश्रत आजाद ने एक स्थान पर बहुत ही अच्छी बोलचाल की हिन्दी लिखी है, कुछ पंक्तियाँ उसकी भी देखिए-

    ''बरसात का समा बाँधाते हैं तो कहते हैं-सामने से काली घटा झूमकर उठी, अब धाुऑंधार है, बिजली कौंदती चली आती है, सियाही में सारस और बगुलों की सफेद-सफेद कतारें बहारें दिखा रही हैं। जब बादल कड़कता है, और बिजली चमकती है, तो परिन्दे कभी दबक कर टहनियों में छिप जाते हैं, कभी दीवारों से लग जाते हैं, मोर जुदा चिघाड़ते हैं, पपीहे अलग पुकारते हैं, मुहब्बत का मतवाला चमेली के झुरमुट में आता है, तो ठंढी-ठंढी हवा लहक कर फुहार भी पड़ने लगती है, मस्त होकर वह वहीं बैठ जाताहै।''

    'रीडर' की भाषा ऐसी है कि उसको हिन्दीवाले हिन्दी और उर्दूवाले उर्दू कह सकते हैं, आबेहयात के अवतरण की भाषा भी ऐसी ही है। इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि यह बोलचाल की भाषा है, ऊपर जो कसौटी भाषा के कसने की मैंने बतलाई है उससे भी इस प्रकार की भाषा ही बोलचाल की भाषा सिध्द होती है, अतएव मेरा विचार इसी प्रकार की भाषा को बोलचाल की भाषा स्वीकार करता है। परिवर्तनों में बड़ी क्षमता है; मनुष्य का विचार बलवान है, ये दोनों जिस कार्य के करने में लग जाते हैं उसको करके छोड़ते हैं। समय क्या करावेगा यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु आजकल इस भाषा की ओर विशेष प्रवृत्तिा है। सरल हिन्दी भाषा में और इसमें थोड़ा ही अन्तर है, दोनों में ही तद्भव शब्द अधिाक हैं, ऐसी अवस्था में इस भाषा का प्रबल हो जाना असम्भव नहीं। उच्च हिन्दी के विषय में अपना विचार मैं पहिले लिख आया हूँ। चाहे जो हो, किन्तु जब तक हिन्दी भाषा का अस्तित्व रहेगा उस समय तक उच्च हिन्दी का भी लोप न होगा। दोनों ही प्रकार की भाषा कार्यक्षेत्रा में अपना कार्य करती रहेंगी, उच्च हिन्दी भाषा में मैं प्रियप्रवास की रचना कर चुका था। उक्त बातों पर दृष्टि डाल कर मेरी यह कामना हुई कि मैं बोलचाल की हिन्दी में भी एक कविता ग्रन्थ लिखूँ, इस भाषा में कोई साहित्य ग्रन्थ मुझे दिखलाई भी नहीं पड़ा; अतएव 'बोलचाल' नामक ग्रन्थ लिखने की मैंने चेष्टा की। अपने विचारानुसार मैंने बोलचाल की हिन्दी ही में इस ग्रन्थ को लिखा है। मुझे सफलता कहाँ तक हुई है, यह नहीं कह सकता, इसको समय अथवा कोई भाषा-मर्मज्ञ बतलावेगा।

कविता की भाषा

    मैं ऊपर लिख आया हूँ कि मैंने 'बोलचाल' की भाषा में कविता की है; यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि क्या बोलचाल की भाषा में कविता की जा सकती है? और यदि की जा सकती है तो उसमें पद्य की साहित्यिक विशेषताएँ गृहीत होंगी या नहीं? और यदि गृहीत होेंगी तो वह बोलचाल की भाषा कहला सकेगी या क्या? इन बातों की मीमांसा करने के पहिले मैं विचार करूँगा कि कविता किसे कहते हैं? कविता का लक्षण क्या है? कवि-कृति को ही कविता या काव्य कहते हैं। कविता और काव्य दोनों अन्योन्याश्रित शब्द हैं। यदि यह कहा जावे कि कवितासमूह का नाम काव्य है तो भी कोई आपत्तिा नहीं। कविता अथवा कविता-समूह दोनों की परिभाषा लगभग एक है। कवि शब्द से ही दोनों की उत्पत्तिा है। 'कुङ्' धाातु से जिसका अर्थ 'शब्द' है, 'कवि' शब्द बनता है। यहाँ शब्द से रमणीय अथवा रमणीयार्थवाचक शब्द अपेक्षित है। रसगंगाधारकार कहते हैं-''रमणीयार्थप्रतिपादक-शब्द: काव्यम्'', साहित्यदर्पण्ाकार की काव्यपरिभाषा यह है-''वाक्यं रसात्मकं काव्यम्''। एक दूसरे विद्वान् की सम्मति यह है-''लोकोत्तारानन्ददाता प्रबन्धाो काव्यनामभाक्'', साहित्यदर्पणकार ने रमणीयता का यह अर्थ किया है,-''रमणीयता च लोकोत्ताराधादजनकज्ञानगोचरता।'' वेबस्टर साहब कहते हैं-''उपयुक्त भाषा में सुन्दर और उच्च विचारों का समावेश ही कविता है।'' ¹  चेम्बर्स साहब का यह कथन है-''मधाुर शब्दों में कल्पना और भावप्रसूत विचारों को प्रकट करने की कला को कविता कहते हैं। ''

    इन वाक्यों से क्या पाया जाता है; यही न कि जिस वाक्य के शब्द रसात्मक, रमणीय, उपयुक्त, सुन्दर, मधाुर और आनन्ददायक हों; वही कविता है। इसलिए कविता के शब्दों का इन गुणों से युक्त होना आवश्यक है। यह व्यापक विचार है और इसमें वास्तवता है। बोलचाल की भाषा में और लिखित भाषा में प्राय: अन्तर होता है। चाहे यह गद्य हो या पद्य। पद्य में यह अन्तर और अधिाक हो जाता है। 'कोमल कान्त पदावली' दोनों ही का धार्म है, किन्तु कविता का विशेष। 'बंगभाषा व साहित्य' के रचयिता लिखते हैं-

    ''बोधा होता है, आदिम हिन्दू जो भाषा बोलते थे, वेद में ठीक वैसी ही भाषा व्यवहृत हुई थी, किन्तु इसके बाद भाषा के श्रीवृध्दिसाधान की चेष्टा और व्याकरण का सूत्रापात होने से कविता और लिखित भाषा स्वतन्त्रा हो पड़ी। यही कारण है कि वाल्मीकि-रामायण की भाषा कथित भाषा नहीं मानी जा सकती। जब कालिदास 'बालेन्दु-वक्र-पलाश-पर्ण' का वर्णन करते थे, अथवा जयदेव 'मदनमहीपतिकनकदण्ड रुचि केशर-कुसुम' लिखते थे तो उन लोगों ने उस भाषा का प्रयोग नहीं किया, यह स्पष्ट है। अब भी बंगभाषा के कितने कविमुख से 'विद्युत्' अथवा 'मेघेर डाक' कह कर लेखनी द्वारा इरम्मद और 'जीमूत मन्द्र' की सृष्टि करते हैं। इसीलिए मैं कहता हूँ कि लिखित और कथित भाषा में एक प्रकार का प्रभेद है, और यह सर्वदा रहेगा।''

-बंगभाषा व साहित्य, पृष्ठ 14

    'बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वं' वाक्य द्वारा जिस महाकवि बाण का गौरव गान किया गया है वे अपनी कमनीया 'कादम्बरी' को अभी समाप्त नहीं कर पाए थे कि कालकवलित होने का समय सामने आया। कवि को मर्मव्यथा हुई। उनकी कामनावेलि म्लान हो गई, पल्लवित आशा-लता के समूल उन्मूलित होने का उपक्रम

*  Poetry is the embodiment in appropriate language of beautiful or high thought.

 † Poetry is the art of expressing in melodious words the thought which are the creations of feeling and imagination.

हुआ। वे खिन्न हुए। अपने शास्त्रा-पारंगत चिरंजीवी कुमारों को स्मरण किया। जिस समय वे सेवा में सादर उपस्थित हुए, वे विह्नल हृदय से बोले-''आत्मा वै जायते पुत्रा:'' की सार्थकता करनी होगी। मेरी कामना ही नहीं अधाूरी 'कादम्बरी' पूरी करनी होगी। श्रध्दालु सन्तानों ने आज्ञा स्वीकार की। अतएव परीक्षा का समय उपस्थित हुआ। परीक्षक ने सामने के एक सूखे पेड़ को दिखलाकर योग्य पुत्राों से कहा-इसका वर्णन करो; बड़े पुत्रा ने कहा-'शुष्कोवृक्षस्तिष्ठत्यग्रे', दूसरे पुत्रा ने कहा-''नीरस-तरुरिह विलसति पुरत:।'' उस मरणासन्न दशा में भी वृध्द के अधार पर एक सन्तोषमयी आनन्दरेखा आविर्भूत हुई। उन्होंने दूसरे पुत्रा को ग्रन्थ समाप्त करने की आज्ञा दी। आप देखें, प्रथम पुत्रा के कथन की भाषा बिल्कुल बोलचाल की भाषा है, किन्तु उसे अस्वीकार किया गया और कथन की उस दूसरी भाषा को स्वीकार किया गया, जो बोलचाल से बहुत दूर है। कारण वही 'कोमल-कान्त पदावली' है, कादम्बरी गद्य ग्रन्थ है। उसकी भाषा का यह प्रसंग है, पद्य की भाषा के लिए तो यह सांगोपांग सार्थक है।

    'प्रवासी' बंग-भाषा का एक प्रसिध्द मासिक पत्रा है। उसका अग्रहायण सन् 1316 की संख्या में 'काव्य और कविता' नामक एक लेख है (पृष्ठ 617, 618)। उसमें अंग्रेजी भाषा के ख्यातनामा महाकवि टेनीसन के विषय में एक कथानक है। एक दिन मार्किन कवि लाङ्फेलो उनसे मिलने आए। टेनीसन ने उनके मनोरंजन की चेष्टा की। एक घण्टे तक बात-चीत की; किन्तु अश्लील और असुन्दर भाषा में; लाङ्फेलो अति मार्जित रुचि के मनुष्य थे। उन्हाेंने मुख से कुछ नहीं कहा, किन्तु अत्यन्त विरक्ति के साथ विदा ग्रहण की। इस बात को जब उभय पक्ष के किसी बन्धाु ने टेनीसन को बतलाया, तब टेनीसन ने लाङ्फेलो को एक पत्रा लिखा और क्षमा-प्रार्थना की; वह पत्रा अब भी मौजूद है। उसमें उन्होंने लिखा कि ललित शब्द चयन करते-करते और शब्दार्थों का सूक्ष्म तारतम्य विचार करके कविता लिखते-लिखते मैं थक गया था। इसलिए वैचित्रय और मन बहलाने के लिए मैं आपसे अमार्जित (ग्रामीण) भाषा में बातचीत करने को बाधय हुआ। यह प्रसंग भी यही बतलाता है कि कविता के लिए ललित-शब्द-चयन आवश्यक है।

    कवीन्द्र रवीन्द्र की 'विचित्रा-प्रबन्धा' नामक एक पुस्तक है। उसके पृष्ठ 206 में वे लिखते हैं:-

    ''पद्य गद्य की अपेक्षा अधिाक कृत्रिाम होता है, उसमें मनुष्य की सृष्टि अधिाक होती है। उसमें अधिाक रंग देना पड़ता है और अधिाक यत्न भी करना पड़ता है। हम लोगों के हृदय में जिस विश्वकर्मा का निवास है, जो हमारे अन्तर के निभृतसृजनकक्ष में बैठकर, नाना गठन, नाना विन्यास, नाना प्रयास, नाना प्रकाश-प्रसारण-चेष्टा में सर्वथा संलग्न है, पद्य में उन्हीं के निपुण हस्त का कारुकार्य (कारीगरी) अधिाक होता है। यही उनका प्रधाान गौरव है। अकृत्रिाम भाषा, जल-कल्लोल की, अकृत्रिाम भाषा पल्लवमर्मर की होती है, किन्तु जहाँ मन है, वहाँ बहुयत्नरचित कृत्रिाम भाषा पाई जावेगी।''

    यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि कविता की भाषा क्यों कृत्रिाम हो जाती है, क्यों उसके लिए 'कोमल कान्त-पदावली' की आवश्यकता होती है? क्या सर्वसाधाारण की बोलचाल में कविता नहीं हो सकती? 'बंगभाषा व साहित्यकार' लिखते हैं कि ''बोधा होता है, आदिम हिन्दू जो भाषा बोलते थे, वेद में ठीक वैसी ही भाषा व्यवहृत हुई थी।'' यदि यह सत्य है तो अब अकृत्रिाम भाषा में रचना क्यों नहीं होती? इसका उत्तार उनके लेख ही में मौजूद है। और कारण भी इसके ऊपर बतलाए जा चुके हैं, तथापि इस विषय में विशेष लिखना उचित नहीं जान पड़ता है।

बोलचाल की भाषा में कविता

    कविता वास्तव में हृदय का उच्छ्वास अथवा आनन्दांगुलिविलोड़ित हृत्तान्त्राी के मधाुरनाद का शाब्दिक विकास है। यह स्वाभाविकता है कि जिस समय मनुष्य के हृदय में आनन्द-उद्रेक होता है, उस समय अनेक अवस्थाओं में केवल वह कण्ठधवनि द्वारा ही उस आनन्द का प्रदर्शन करता है। किसी-किसी अवस्था में उसके मुख से कुछ निरर्थक शब्द निकलते हैं, और वह उन्हीं के द्वारा अपने हृदयोल्लास की परितृप्ति करता है। कभी वह सार्थक शब्दों को कहने लगता है, और उनको इस प्रकार मिलाता है कि उसमें गति उत्पन्न हो जाती है, और वे छन्द का स्वरूप धाारण कर लेते हैं-बालकों को, उन बालकों को, जो खेल-कूद में मग्न अथवा उछल-कूद में तल्लीन होते हैं, हम इस प्रकार का वाक्य-विन्यास करते देखते हैं, जिसका स्वरूप सर्वथा कविता का-सा होता है। उसमें शब्दानुप्रास और अन्त्यानुप्रास तक पाया जाता है। गोचारण के समय हृदय पर सामयिक ऋतुपरिवर्तन-जनित विकासों, तरुपल्लव के सौन्दर्यों, खगकुल के कलित कलोलों, श्यामल तृणावरणशोभित-प्रान्तरों, कुसुमचय के मुग्धाकर माधाुर्य और वर्षाकालीन जलदजाल का लावण्य देखकर मूर्खों के मुख से श्री आमोद-सिक्त ऐसे वाक्य सुने जाते हैं, जो स्वाभाविकता होने पर भी हृदय हरण करते हैं, और जिनमें एक प्रकार का संगठन होता है। ऐसे अवसरों पर किसी सुबोधा विद्वान् अथवा भावुक के हृदय से जो इस प्रकार के वाक्य निकलेंगे अवश्य वे सुन्दर, सुगठित और अधिाक मनोहर होंगे, यह निश्चित है। छन्दों अथवा कविता का आदिम सूत्रापात इसी प्रकार से हुआ ज्ञात होता है।

    यह भी नहीं कहा जा सकता कि केवल चित्ता के आनन्द-उद्रिक्त होने पर ही ऐसा होता है; चित्ता के क्षुब्धा, आकुल, सकरुण अथवा इसी प्रकार की किसी दूसरी दशा के वश होने पर भी मुख से ऐसे शब्द निकल सकते हैं, और वे किसी छन्द या कविता में परिणत हो सकते हैं। वाल्मीकि-रामायण का यह प्रसिध्द श्लोक-

''मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधाी: काममोहितम्।''

    ऐसी अवस्थाओं में से एक अवस्था का ही परिणाम है, यह बात सर्वजन-विदित है। यदि इस प्रकार के वाक्य, विशेष अवस्थाओं में मुख से निकल सकते हैं तो वे अवश्य बोलचाल की ही भाषा में निकल सकते हैं, और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि बोलचाल की भाषा में कविता नहीं हो सकती। वैदिक मन्त्राों की रचना आदिम काल की है, अर्थात् उस समय की है जब न तो कविता का सूत्रा-पात हुआ था और न छन्द का; और इसलिए उनके सर्वसाधाारण के बोलचाल में रचित होने का अनुमान किया जाता है। वैदिक ऋषियों के पास भी मानव-हृदय ही था। वह भी सांसारिक विचित्रा अद्भुत और मनोमुग्धाकर पदार्थों अथवा भव-विभूतियों को अवलोकन कर उसी प्रकार प्रभावित हो सकता था, जिस प्रकार आज भी मानव-हृदय होता है। अतएव वैदिक मन्त्राों की रचनाओं का स्वाभाविक और अकृत्रिाम होना युक्तिसंगत है। सम्भव है कि कुछ कालोपरान्त अधिाक मन्त्राों के आविर्भाव होने के समय कुछ भाषा परिमार्जित हो गयी हो, और छन्दोगति भी निश्चित हो गयी हो, किन्तु आदिम मन्त्राों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता। अब भी बोलचाल की भाषा में रची गयी सुन्दर रचनाएँ मिलती हैं। प्रान्तिक अनेक भाषाएँ ऐसी हैं जिनमें कोई साहित्य नहीं है। किन्तु उनमें रची गयी बोलचाल की सुंदर कविताएँ मौजूद हैं। ये अत्यन्त स्वाभाविक होने पर भी मनोमुग्धाकारिणी हैं। अनेक प्रचलित गीत इसी प्रकार के हैं। अनेक कविताएँ भी ऐसी हैं। कुछ नमूने देखिए-

''हरे हरे केसवा हरु रे कलेसवा, तोरा के रटत महेसवा रे।

तोरै नाम जपत बा पुजत बा, सब से प्रथम गनेसवा रे।

जल बरसैला धाान सरसैला, सुख उपजैला मघवा रे।

प्रागदास प्रहलदवा के कारन, रघवा ह्नै गैलैं बघवा रे।''-प्रागदास

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बनिया क सखरज ठकुर क हीन। बयद क पूत ब्याधा नहिं चीन।

पंडित चुपचुप बेसवा मइल। कहै घाघ पाँचो घर गइल।-घाव

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जातबा मीत डगर बन्द गुसैंया होइ जाय।

राह चहुँ ओर सेंती भूलभुलैयाँ होइ जाय।-मौलबी मूसा

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भौं चूमि लेइला केहू सुन्दर जे पाइला।

हम ऊ हई जे ओठे पै तरवार खाइला।-तेगअली

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मुखवा निहारै तनमन तो पै वारै गोरी आठो छन रहैला हजूर।

अपने हथन तोर बरवा सँवारे बलबिरवा तो भयल बा मजूर।

दुखवा के बतिया नगिचवौ न आवै गोइयाँ हँसी खुसी रहैला हमेस।

बजुवा सरकि कर कँगना भयल सुनि प्यारे क गवनवाँ बिदेस। 1

 

तलवा झरैले कँवल कुम्हलैले हंस रोवै बिरह बियोग।

रोवत बाड़ीं सरवन कै माता के काँवर ढोइहैं मोर।

रसवा के भेजलीं भँवरवा के सँगवाँ रसवा ले ऐले हा थोर।

एतनई रसवा में केकरा के बँटबों सगरी नगरी हित मोर। 2।-बलबीर

    बलिया हिन्दी प्रचारिणी स्वागतसमिति के सभापति पण्डित बलदेव उपाधयाय एम.ए. अपने अभिभाषण (पृष्ठ 22) में इन बिरहों के विषय में लिखते हैं-

    ''वे बिरहे, जो हृदय में उमंग आने पर आपही आप अपठित मनुष्य के मुख से निकल पड़ते हैं, और जिनके निवासस्थान जनसाधाारण के उत्साह पूर्ण हृदय हैं, भोजपुरी के माधाुर्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।''

    ''आप बिरहे की इस प्रशंसा से न तो घबड़ाइये और न इसके सुनने से ही नाक-भौ सिकोड़िये। इसी देश में क्यों, अन्य पश्चिमी देशों में भी इसी प्रकार के साहित्य का प्रचुर प्रचार है। अंग्रेजी भाषा में इस चलती जीती जागती कविता को 'बेलेड पोइट्री' के नाम से पुकारते हैं। वहाँ साहित्यिक लोगों ने इसके समुचित संरक्षण के लिए अत्यन्त प्रयत्न किया है।''

    मई सन् 1923 की 'सरस्वती' में 'हिन्दी-साहित्य का आदिकाल' शीर्षक एक लेख है। उसमें एक स्थान पर (पृष्ठ 471) यह विचार प्रकट किया गया है-

    ''इस साहित्य की पहिली विशेषता यह है कि यह सर्वसाधाारण की भाषा में निर्मित होता है, अनादि काल से मनुष्यों की एक भाषा है, जो सर्वथा जीवित रहती है, उसका स्थान विद्वानों के कोष में नहीं, सर्वसाधाारण की अक्षय निधिा में है, विद्वानाें के कोष में भाषा स्थिर हो जाती है, परन्तु सर्वसाधाारण की अक्षय में भाषा चिर नवीन बनी रहती है।''

    स्वाभाविक अथवा सर्वसाधाारण की भाषा के विषय में उल्लिखित अवतरणों में जो विचार प्रकट किए गये हैं, उससे उसका महत्तव प्रकट होता है। जो कविताएँ ऊपर चलती भाषा की उध्दृत की गयी हैं, उनकी सजीवता और सरसता एवं उनका प्रवाह देखिए, वे कितनी प्रसादमयी और हृदयहारिणी हैं; यह आपने स्वयं अनुभव भी किया होगा। क्या इनमें भाव नहीं है? क्या इनमें वह आकर्षणी शक्ति नहीं है जो बलात् सहृदय-हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है? क्या इनका प्रसादगुण प्रासादिक नहीं? यदि है तो क्यों है? जो कविता स्वाभाविक हृदयोद्गार है क्या वास्तविक कविता वही नहीं है? हृदय पर प्रभाव डाल-डालकर स्वत: प्रवृत्ता न होने पर उसको बलात् प्रवृत्ता करके जो कविता की जाती है वह भी कोई कविता है? वह तो कहने-सुनने को ही कविता होती है। कारण का गुण कार्य में होता है, जो कविता स्वाभाविक हृदय-उल्लास से प्रसूत होती है, आनन्द-उद्रेक का परिणाम होती है, उमंगमय मानस का मुकुर होती है, क्या वह चित्ता को उल्लासित, आनन्द-उद्रिक्त और उमंगित न करेगी? जिस समय हृदय किसी रस से प्लावित होता है, उस समय वह उस रसका निर्झर बन जाता है। जितना ही सबल रसप्लावन होगा, उतना ही सबल उसका आविर्भाव और प्रभाव होगा। ऐसे हृदय को तरल-तरंगायित सुधाा-सरोवर, उत्तााल-तरंग-माला-संकुल-जलधिा, मन्द-मलयानिल- आन्दोलित कल्पतरु, प्रबल प्रभंजन-प्रकंपित-सरिता-प्रवाह, मार्तण्ड-प्रखर-प्रताप- तप्त-मरुस्थल, वात्या-विताड़ित-उद्यान, विकचकुसुमचय-विलसित-नन्दन-कानन, निबिड-घनाच्छन्न-गगन, दावादग्धा-विपिन, महाभयंकर श्मशान, सब कुछ कह सकते हैं। हृदय का कल्लोल, उसका भावस्फुरण, उसका रस-प्रवाह, उसकी विमुग्धाता, उसकी तल्लीनता, उसकी भावुकता, उसका उच्छ्वास, उसका विलास, जितनी सुन्दरता, सहृदयता और सरसता से प्रस्फुटित होगा, उतना ही दूसरों के हृदयों पर प्रभाव डालने में समर्थ होगा। शब्दसमूह जितने रससिक्त होंगे, भाव प्रकाश की शक्ति जितनी ही उच्च होगी, प्रतिभा जितनी ही उदात्ता होगी, उतनी ही अधिाक कार्यकारिणी और विमोहक होगी। समस्त मनुष्यों के हृदय का उपादान एक है। प्रकृति भिन्न होने पर भी बहुत-सी बातों में समान होती है। यही कारण है कि एक का प्रफुल्ल हृदय दूसरे के हृदय को प्रफुल्ल करता है, और एक का विदीर्ण होता चित्ता दूसरे के चित्ता को विदीर्ण कर देता है। करुणरस-प्लावित-हृदय-प्रसूत कविता का किसी के हृदय में करुण-रस का संचार कर देना, और वीर-रस-सिक्त- मानस-संभूत रचना का दूसरों के मानस में वीर-रस का उद्रेक करना, स्वाभाविक है। यही बात अन्य रसों के विषय में भी कही जा सकती है। ऐसी दशा में भाषा का प्रश्न गौण हो जाता है, कहा भी है-

''उक्ति-विसेसो कब्बो भासा या होइ, सा होइ।''

''बात अनूठी चाहिए भासा कोई होय।''

    यह देखा जाता है कि जहाँ भाव की रमणीयता मिल जाती है, वहाँ शब्द पर उतना धयान नहीं दिया जाता। संतों की वाणियों का समादर भाव-प्राधाान्य के कारण ही होता है। क्योंकि शब्द-संपत्तिा उनमें प्राय: अल्प होती है।

बोलचाल की कविता में साहित्यिक विशेषता

    अब तक जो कुछ मैं लिख आया, उससे यह स्पष्ट हो गया कि बोलचाल की भाषा में सरस और मनोमोहक रचना हो सकती है। उदाहृत पद्यों के पठन से भी यह बात सिध्द होता है। जो कारण मैंने बतलाये हैं, उन्होंने भी इस विचार को पुष्ट किया है। इतना होने पर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जिस रचना में अनुप्रास है और जो छन्दोबध्द है वह यथातथ्य बोलचाल की भाषा नहीं है, उसमें कुछ-न-कुछ कृत्रिामता अवश्य है। कारण इसका यह है कि छन्दोगति की रक्षा के लिए प्रथम तो बोलचाल के अनुसार उसमें व्याकरण-नियमानुकूल शब्द-संस्थान प्राय: नहीं होता। दूसरे अनुप्रास उसकी स्वच्छन्द गति और स्वाभाविकता में बाधाा डाले बिना नहीं रहता। साधाारण बोलचाल में भी जब हम बात गढ़ने लगते हैं, अथवा उसमें नमक-मिर्च लगाते हैं तो वह सीधाी-सादी बात नहीं रह जाती, उसमें भी कुछ कवित्व आ जाता है। बात कब गढ़ी जाती है या उसमें नमक-मिर्च कब लगाया जाता है, जब उसको हृदयग्राही बनाना होता है, अथवा उसके द्वारा किसी के मन को मुग्धा करना होता है। उस समय भी हम ऐसा करते हैं, जब हम यह चाहते हैं कि किसी का चित्ता हमारी ओर आकर्षित हो, और हम उसको अपनी बातों में फाँस सकें। लोगों पर प्रभाव डालने, अपना मतलब गाँठने, चाल चलने, और इसी प्रकार के और कामों के लिए भी ऐसा किया जाता है। कविता का कार्य भी तो यही है। फिर यदि कविता के शब्द चुने, सुन्दर और अधिाक तुले हुए एवं संगठित होवें तो आश्चर्य क्या है! भाव को सुन्दरता, स्वाभाविकता, हृदयग्राहिता के साथ प्रकट करने और उक्ति को प्रभावमयी बनाने के लिए भी रसानुकूल शब्दयोजना की आवश्यकता होती है। अतएव भाषा की कृत्रिामता अनिवार्य हो जाती है।

    एक पुरुष ने अपनी साधाारण बोलचाल में कहा,-'का न पूरी खइहों'। दूसरे ने उत्तार दिया,-'मैं न पूरी खइहों'; उत्तार ने सुननेवालों की दृष्टि को उत्तार देनेवाले की ओर आकर्षित कर दिया। कुछ उनको कौतूहल भी हुआ। वे उत्तार सुनकर प्रसन्न भी हुए। उत्तारदाता को उन्होंने एक विशेष बुध्दिवाला पुरुष भी समझा, क्योंकि उस कथन में सुन्दरता थी, उसमें एक प्रकार का विनोद था। पहले पुरुष की बात बिलकुल साधाारण है, किन्तु दूसरे पुरुष की बात में कुछ विलक्षणता है। दोनों बातें साधाारण बोलचाल की हैं, किन्तु दूसरी में कुछ कृत्रिामता है। वह गढ़कर कही गयी है, और इसलिए उसकी ओर लोगों की दृष्टि भी आकर्षित हुई। 'कानपूरी' के मेल का 'मैनपूरी' शब्द (क्योंकि दोनों एक-एक नगर-वाचक हैं) दूसरे वाक्य को फड़का देता है; और वाक्य मुद्रालंकार का रूप धाारण कर लेता है। उसमें एक चमत्कार आ जाता है, और यही चमत्कार दूसरे वाक्य की विशेषता का कारण होता है। यदि 'मैं न पूरी खइहों' के स्थान पर 'पूरी मैं न खइहों' अथवा 'मैं पूरी न खइहों' कहा जावे तो चमत्कार न रहेगा और वाक्य साधाारण हो जावेगा। जब साधाारण चमत्कार से एक सीधाा-सादा वाक्य विलक्षण बन जाता है, तो कविता के विशेष चमत्कारों के विषय में कुछ लिखना बाहुल्य मात्रा है। इन चमत्कारों के कारण भी कविता की भाषा बोलचाल की भाषा से विलक्षण हो जाती है और कवि के अनेक सदुद्देश्यों की पूर्ति का उत्ताम साधान एवं उसकी प्रतिभा-प्रकटीकरण का सुन्दर हेतु भी बनती है।

    'मधाुर कोमल कान्त पदावली' स्वयं आकर्षक होती है। मीठे वचन की महिमा अविदित नहीं। मधाुरता कहाँ वांछनीय नहीं है, सब जगह उसकी पूछ है, प्रत्येक पुरुष उसका कामुक है। वीणा का वादन, कोकिल का कलरव, सुधाा का स्वाद, कुसुमकुल का विकास, मृदंग की धवनि, बालक का भाषण, कामिनी-कुल का आलाप, मधाुर होने के ही कारण हृदयग्राही और प्रिय होता है। फिर शब्दों के लिए उसकी आवश्यकता क्यों न होगी! सुन्दर भाव जब मधाुर कोमल कान्त पदावली के साथ होता है तो मणिकांचन योग हो जाता है। यह कितना मार्मिक कथन है कि-''है माणिक बहु मोल को हेम जटित छबि छाय।'' कवि के हृदय में जब भावस्फूर्ति होती है, जब बादलों की भाँति उसके मानस-गगन में मनोमुग्धाकर विचार उमड़ने लगते हैं, जब आनन्दोच्छ्वास से जलधिा की उत्तााल-तरंगों के समान तरंगित उमंगों से, रसों के उच्छलित प्रवाह से, उसका उर परिपूर्ण हो जाता है; उस समय के उसके अन्त:करण का वर्णन असम्भव है। वह मूक का रसास्वाद है, वह अनुभवजन्य है, कवि स्वयं उसको यथातथ्य अंकित नहीं कर सकता। न वचन में ही इतनी शक्ति है और न लेखनी में इतनी क्षमता। दोनों ही अपूर्ण हैं। वचन शब्दसापेक्ष है। लेखनी जड़ है। अपनी असमर्थता पर कवि स्वयं चकित होता है, तथापि वह अपना हृदय सामने रखता है, जितना दिखला सकता है दिखाता है। इस कार्य में उसको पदावली का ही सहारा होता है, वह जितनी ही कोमल कान्त और मधाुर होती है, उतनी ही उसको कोमल कान्त मधाुर भावों के प्रकाश करने में सहायता देती है। उसके द्वारा यदि वह सुधाासरोवर में प्रवेश नहीं करा पाता तो उसका दर्शन तो अवश्य करा देता है। यदि आकाश के मयंक को अंक में नहीं उतार देता, तो उसका परिचय अवश्य करा देता है। अथवा उसकी विमुग्धा-कारी छटा अवश्य दिखला देता है। इस समय वह उपयुक्त रसों के लिए नाना उपयुक्त शब्दों को चुनता है; और अपने मानस का चित्रापट सामने करता है। शब्द ही कवि के सर्वस्व हैं, यदि उनको वह छील-छाल न सके, उनमें काट-छाँट न कर सके, उनको ठीक-ठीक न बैठाल सके, उनको अपने रंगों में न रँग सके, तो वह कविकर्म कर ही नहीं सकता। इसलिए कवि का पथ प्रचलित बोलचाल से भिन्न हो जाना स्वाभाविक है। इस भिन्नता की भी सीमा है। जो सहृदय कवि है, वह इस सीमा को जानता है, उसका उल्लंघन वह नहीं करता; विशेष अवस्था की बात और है।

    हम आप प्राय: देखते हैं कि एक साधाारण और अपढ़ मनुष्य के भी प्रेम-सम्भाषण, अनुनय-विनय, आमोद-प्रमोद, हँसी-खेल, राग-रंग, और कलह-कोलाहल के शब्दों में अन्तर होता है। प्यार की बातों में जो लोच, जो मधाुरता होती है, वह लड़ाई-झगड़ों की बातों में नहीं होती। एक के सब शब्द सरस और मनोहर होते हैं और दूसरे के उग्र, तीव्र और उद्वेजक। किसी स्त्राी का करुण-क्रन्दन यदि हृदय हिला देता है, उसके शब्द पत्थर का हृदय भी विदीर्ण करते हैं, तो एक करालवदना बाला का वाक्यसमूह अग्नि-स्फुल्लिंग वर्षण करता है और परम शान्त हृदय में भी क्रोधााग्नि प्रज्वलित कर देता है। यदि किसी महात्मा का शान्तिमय उपदेश श्रोताओं के हृदय में पुण्यसलिला भगवती भागीरथी की धाारा प्रवाहित करता है, तो एक दुर्जन का कटु भाषण रोम-रोम को विषाक्त बना देता है, यह सब शब्द का ही चमत्कार है। शब्द हृत्तान्त्राी के निनाद हैं। हृत्तान्त्राी रसानुगामिनी और मानसिक-भाव-वशर्-वत्तिानी होती है। इन्हीं कर्मों को कवि भी अपने शब्दों द्वारा करता है। अन्तर केवल इतना ही होता है कि वह कुछ संयत, कुछ नियमबध्द, कुछ अधिाक हृदयवान् और कुछ विशेष वाक्य-विन्यास पटु होता है। क्योंकि उसका कार्यक्षेत्रा विस्तृत, उदात्ता और अधिाक भावप्रवण होता है। इतनी ही मात्राा में उसकी भाषा भी सर्वसाधाारण की भाषा से भिन्न होती है; उसे भिन्न होना भी चाहिए। कोकिल और काक दोनों ही बोलते हैं, किन्तु कोकिल के आदृत होने का कारण उसकी कलित काकली ही है। एक का प्रभाव कतिपय व्यक्तियों तक परिमित है, किन्तु दूसरे का प्रभाव समाज और देशव्यापी होता है। एक यदि पुष्करिणी का निर्माण कर देता है तो दूसरा भूतल में मंदाकिनी प्रवाहित करता है। दोनों का दो देश है, अतएव दोनों के कार्यकलाप की भिन्नता नैसर्गिक है।

कोमल कान्त पदावली की व्यापकता की सीमा

    एक विषय और विचारणीय है। वह यह कि कोमल कान्त पदावली की अर्थव्यापकता कहाँ तक है। क्या कवि प्रत्येक अवसर पर मधाुर कोमल कान्त पदावली से ही काम लेता है! क्या उसको कतिपय रसों में परुष पदावली की आवश्यकता नहीं होती! यदि होती है तो कोमल कान्त पदावली की व्यापकता की सीमा क्या है? हिन्दी कविता में तीन वृत्तिायाँ गृहीत हैं-उपनागरिका, परुषा और कोमला। इनको वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली भी कहते हैं। साहित्य-दर्पणकार ने एक वृत्तिा लाटी और मानी है। संस्कृत के कतिपय और आचार्यों ने भी इस वृत्तिा को स्वीकार किया है। साहित्यदर्पण में एक स्थान पर चारों का लक्षण यह लिखा है-

''गौड़ी डम्बरबध्दा स्याद्वैदर्भी ललितक्रमा।

पांचाली मिश्रभावेन लाटी तु मृदुभि: पदै:।''

    जिसमें आडम्बर हो उसे गौड़ी, जिसमें ललित पद हों उसे वैदर्भी, जिसमें दोनों का मेल हो उसे पांचाली और जिसमें कोमल पद हों उसे लाटी कहते हैं। स्वयं साहित्यदर्पणकार ने गौड़ी का लक्षण यह लिखा है-

''ओज: प्रकाशकैर्वर्णैर्बध्द आडम्बर: पुन:।

समास-बहुला गौड़ी... ... ... ... ...''

    ओजवाली कठिन वर्णों से युक्त अधिाक समासों से भरी रचना को गौड़ी कहते हैं। इसीलिए इसका नाम परुषा भी है। शृंगार, करुण और हास्य रस की कविता के लिए उपनागरिका; रौद्र, वीर, भयानक रस के लिए परुषा और शान्त, अद्भुत एवं बीभत्स रस के लिए कोमल उपयुक्त बतलायी गयी है। परुषा नाम ही बतलाता है कि उसमें परुष शब्द होने चाहिए। यह बात कोमल कान्त पदावली के विरुध्द है। यह अवश्य है कि कोमल कान्त पदावली अत्यन्त हृदयग्राहिण्ाी होती है। उसके पठन-पाठन में सुविधाा होती है। न तो अधिाक मुख को बनाना पड़ता है और न जिह्ना बार-बार मरोड़नी पड़ती है। वह श्रुतिकटु भी नहीं होती, किन्तु इससे यह बात सिध्द नहीं होती कि कविता के लिए परुष शब्दों की आवश्यकता नहीं। यह बात स्वीकार करने पर भी कोमल कान्त पदावली की उपेक्षा नहीं होती। मैं ऊपर कह आया हूँ कि साधाारण जन की भाषा भी अवसर पर रसानुकूल हो जाती है-उनके हृदय में जिस काल जिस रस का आविर्भाव होता है तदनुकूल ही उनका वाग्विलास होता है। ऐसी अवस्था में यह कहा जा सकता है कि जैसे प्राय: उनकी व्यावहारिक भाषा परिवर्तित होकर रसानुकूल भाषा का स्वरूप ग्रहण करती है, उसी प्रकार उसी अनुपात से रस-विशेष की भाषा को भी कविता में परिमार्जित होना पड़ता है। जब भाषा परिमार्जित हुई तो अवश्य उसमें अधिाक कर्कशता, उच्छृद्मलता, कटुता, अनियमबध्दता, न रह जावेगी। अतएव यदि वह बहुत कोमल नहीं तो बोलचाल की भाषा से कान्त अवश्य होगी। कान्त ही नहीं, एक प्रकार से उसमें साहित्यिक विशेषता भी आ जावेगी, और इस प्रकार प्रतिकूल रसों में भी कान्त पदावली की सार्थकता होगी। कुछ अंग्रेजी विद्वानों की सम्मति भी देखिए-

    अल्फ्रेड लायल कहते हैं-''किसी युग के प्रधाान भावों और उच्च आदर्शों को प्रभावोत्पादक रीति से प्रकट कर देना कविता है।'' ¹

    मिल्टन कहते हैं-''कविता सरल हो, बोधागम्य हो और भावपूर्ण हो।''

    मेकॉले कहते हैं-''शब्दों के प्रयोग की ऐसी रीति की कल्पना को कविता कहते हैं, जिससे कल्पना के ऊपर एक प्रकार के चमत्कार का प्रादुर्भाव होता है।''

      ¹   Poetry is the most intense expression of the dominant emotions and the higher ideals of the age.

      † Poetry ought to be simple, sensuous and impassioned.

     ‡   "By poetry" wrote Macaulay in his essay on Milton, "we mean the art of employing words in such a manner as to produce an illusion on the imagination."

    शेली कहते हैं-''कविता सर्वश्रेष्ठ और दृढ़तम मस्तिष्कों के श्रेष्ठ एवं सुखमय अवसरों की रचना का समूह है।''+

    मेथ्यू आरनल्ड कहते हैं-''कविता मनुष्य की वह विकासपूर्ण वाणी है जिसमें वह सत्य के अति निकट पहुँच जाता है।''×

           ड्राइडन कहते हैं-''कविता अर्थपूर्ण संगीत है'' ¹

-कालिदास और भवभूति (मनोरमा, पृष्ठ 23)

    उल्लिखित वाक्यों में सुन्दर अथवा मधाुर शब्द नहीं आया है, जिससे साधारणतया यह ज्ञात होता है कि इस विषय में मीमांसकगण भी चुप हैं, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। अल्फ्रेड लायल की प्रभावोत्पादक रीति (the most intense expression), मिल्टन का सरल और भावपूर्ण (Simple and sensuous) शब्द, मेकॉले का चमत्कार का प्रादुर्भाव (to produce an illusion) शेली का श्रेष्ठ एवं सुखमय अवसरों की रचना (the record of the best and happiest moments), मेथ्यू आर्नल्ड की विकासपूर्ण वाणी (the most perfect speech) और ड्राइडन के अर्थपूर्ण संगीत (articulate music) का संकेत क्या है? वे हमारी दृष्टि किधार खींच रहे हैं, क्या यह भी बतलाना होगा! उन लोगों के वाक्य यह स्पष्ट कह रहे हैं कि कविता की भाषा में विशेषता होनी चाहिए। और यह विशेषता इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि कवि की रचना कवित्वमय हो। कोई रचना उस समय तक कवित्वमय नहीं हो सकती जब तक कि शब्द-विन्यास विलक्षण और सुन्दर न हो। विलक्षण और सुन्दर शब्द-विन्यास की आवश्यकता सब रसों के लिए है। यह दूसरी बात है कि वीर, रौद्र और भयानक रसों में वे ओजस्वी और कुछ अकोमल हों। बंगाल के प्रसिध्द विद्वान् स्वर्गीय द्विजेन्द्र लाल राय कहते हैं:-

    ''कविता का राज्य सौन्दर्य है, वह सौन्दर्य बहिर्जगत् में भी है और अन्तर्जगत् में भी। जो कवि केवल बाहर के सौन्दर्य का ही वर्णन सुन्दर रूप से करते हैं वे कवि हैं, किन्तु जो कविजन मनुष्य के मन के सौन्दर्य का भी सुन्दर रूप से वर्णन करते हैं, वे बहुत बड़े कवि या महाकवि हैं।''

-कालिदास और भवभूति (पृष्ठ 126)

     +   Poetry is the record of the best and happiest moments of the happiest and best minds."—Shelley.

     ×   "Nothing less than the most perfect speech of man, that in which he comes nearest to being able to utter the truth."

      ¹   "Poetry is articulate music."—Dryden

    देश-सम्मानित श्रीयुत् बाबू अरविन्द घोष कविकुल-गुरु कालिदास के विषय में यह लिखते हैं-

    ''कालिदास को संस्कृत कविता-रूपी आकाश का पूर्ण चन्द्र कहना चाहिए। उन्होंने अपनी कविता में चुन-चुनकर सरल, पर सरस और प्रसंगानुरूप शब्दों की ऐसी योजना की है, जैसी कि आज तक और किसी कवि की कविता में नहीं पाई जाती। उनके वर्णन का ढंग बड़ा ही सुन्दर और हृदयस्पर्शीहै।''

              ×                    ×                      ×          ×

    ''ऑंख, कान, नाक, मँह आदि ज्ञानेन्द्रियों की तृप्ति के विषय तथा कल्पना और प्रवृत्तिा, ये ही बातें काव्य-रचना में मुख्य उपादान हैं। कालिदास ने इन सामग्रियों से एक आदर्श सौन्दर्य की सृष्टि की है। कालिदास के काव्यों में स्वर्गीय सौन्दर्य की आभा झलकती है। वहाँ सभी विषय सौन्दर्य के शासन में रखे गये हैं।''

-कालिदास और शेक्सपियर (पृ. 227, 230)

    जब हृदय किसी रस से परिमित परिमाण में प्लावित होता है, तभी उस रस की कविता मर्मस्पर्शिनी और प्रभावमयी होती है; किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है, कि भयानक, वीर और रौद्र रस की कविता के शब्दों को भी भयंकर उत्कट और उग्र होना चाहिए। शब्द-विन्यास अवश्य इस प्रकार का होना चाहिए जो इन रसों के भाव का व्यंजक हो; क्योंकि भाव प्रकट करने के लिए व्यंजना ही प्रधाान वस्तु है। प्राय: देखा जाता है कि जहाँ चेष्टा करके परुष शब्द का प्रयोग रसोद्रेक के लिए किया गया है, वहाँ परुषता ही हाथ रही, रस-व्यंजना नाम को भी नहीं हुई। इसके विपरीत उपयुक्त तुले हुए शब्दों में ऐसी रस-व्यंजना होती देखी जाती है, जिसमें भाव का चित्रा-सा खिंच जाता है। रसानुकूल और भाव के अनुसार शब्द-चित्रा आवश्यक है। शब्द-रचना और वाक्य-विन्यास प्रयोजनीय है, कठोर और कर्णकटु शब्द नहीं। भयानक रस के घोर दर्शन भूतादि विभावों से अभिभूत-हृदय भयभीत-पुरुष में जो आकुलता और उद्वेग आदि संचारीभाव और विवर्णता आदि अनुभाव उत्पन्न होते हैं, कवि-हृदय में वे सब नहीं होते। न उसके नेत्रा के सामने भयंकर विभाव ही होते हैं, किन्तु उसको इनका अनुभव होता है। वह अनुभव के अनुकूल ही अपनी लेखनी का परिचालन करता है और अपने शब्दों द्वारा अपने अनुभव पाठकों के सम्मुख उपस्थित करता है। पाठक कविकृति को पढ़ता है या किसी को सुनाता है, तो दोनों के सामने न तो वे विभाव ही होते हैं, और न उनमें तत्सम्बन्धाी अनुभाव और संचारीभाव का ही प्राकटय होता है। तथापि कवि के हृदय के समान ही उसका हृदय भी प्रत्येक बात का अनुभव करता है और कवि की शब्द-चातुरी और भावनिरूपण-शक्ति के अनुसार ही वह उसकी प्रशंसा करता, मुग्धा और आनन्दित होता है। कवि की रचना न तो उसको भयभीत करती है, न विवर्ण बनाती है, न आकुलता प्रदान करती है; वरंच इन बातों का उसे अनुभव कराती है और उसके चित्ता को अपनी ओर खींच लेती है। अनुभव करने में कवि-हृदय जितना किसी रस से अभिभूत होता है उतना ही वह दूसरे के हृदय को उस रस से प्लावित करता है-और यही कविकर्म है।

    कैसे शब्दों से कवि अपना यह कार्य करता है, इसको वह स्वयं जानता है और अपने विचार के अनुसार कार्य करता है। जो बात भयानक रस के लिए कही गयी है, वही वीर और रौद्र रस के लिए भी कही जा सकती है। यदि कवि पर स्वयं कोई ऐसी आपदा आ पड़ती है कि जिससे उसको किसी ऐसे ही रस का सामना करना पड़ता है, तो उस समय भी वह अपने ही पथ का पथिक रहता है। यदि अपनी अवस्था का उसे वर्णन करना पड़ता है, तो भी उसे वह वैसी ही भाषा में वर्णन करता है, जिसे कवि की भाषा कहते हैं। वह अपना हृदय और मर्मस्थान खोलकर दिखलाता है, किन्तु इस दिखलाने में भी उसका कवि-कर्म स्फुटित होता है। वह भयंकरता में भी सरसता की सृष्टि करता है, ओजस्विता में भी माधाुर्य का रंग देता है और रौद्र में भी मनोहरता का आह्नान करता है। वह अपने हृदय के क्षतों को दिखलाता है, किन्तु साथ ही देखनेवालों के हृदय के क्षतों की मरहम-पट्टी भी करता है। वह मर्मपीड़ा का चित्रा खींचता है, औरों को भी मर्माहत बनाता है, किन्तु उस मार्मिकता से भी काम लेता है जो उसकी मर्मज्ञता का सम्बल है। प्रयोजन यह कि ऐसे रसों में भी, जिनमें परुष शब्दों के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वह ऐसे ही मार्ग पर चलता है जो उसे सुन्दर शब्द-योजना से अलग नहीं करता। वह परुषता में कोमलता का समावेश करता है, श्रुतिकटु शब्दों के स्थान पर ही श्रुतिमधाुर शब्द रखता है और असरस प्रयोगों के साथ भी सरसता का आविर्भाव करता है। वह असंयत को संयत, अमनोहर का मनोहर, जटिल को सरल और अललित को ललित बनाता है। वह कीच में कमल खिलाता है, धाूल में से रस निकालता है, सर्प के मस्तक में मणि पाता है और पत्थर के हृदय से सलिल बहाता है। कविवर भिखारीदास ने अपने काव्यनिर्णय में वीर रस के उदाहरण में यह सवैया लिखा है-

''क्रुध्द दसानन बीस भुजानि सों लै कपि रीछ अनी सर बट्टत।

लच्छन तच्छन रत्ता किये दृग लच्छ विपच्छन के सिर कट्टत।

मारु पछारु पुकारु दुहू दल रुण्ड झपट्टि दपट्टि लपट्टत।

रुण्ड लरै भट मत्थनि लुट्टत जोगिनि खप्पर ठट्टनि ठट्टत।''

    रौद्र रस के वर्णन में निम्नलिखित कवित्ता लिखा है-

       ''देखत मदन्धा दसकन्धा अन्धा-धाुन्धा दल,

           बन्धाु सों बलकि बोल्यौ राजा राम बरिबंड।

       लच्छन बिचच्छन सँभारे रहो निज पच्छ,

           देखिहौं अकेले हौं ही अरि अनी परचंड।

       आजु अघवाऊँ इन शत्राुन के òोनितन,

           दास भनि बाढ़ी मेरे बानन तृषा अखंड।

       जानि पन सक्कस तरक्कि उठयो सक्कस,

           करक्कि उठयो कोदंड फरक्कि उठयो भुजदंड।''

    भयानक रस का यह कवित्ता है-

       ''आयो सुनि कान्ह भूल्यो सकल हुस्यारपन,

           स्यारपन कंस को न कहत सिरातु है।

       ब्याल बर पूरबो चनूर द्वार ठाढे तऊ,

           भभरि भगाय गये भीतर ही जातु है।

       दास ऐसी डर डरी मति है तहाऊँ ताकी,

           भरभरी लागी मन थरथरी गातु है।

       खर हूँ के खरकत धाकधाकी धारकत,

           भौन को न सकुरत सरकतु जात है।''

    अब कविवर पंडित चन्द्रशेखर वाजपेयी की तीन रचनाएँ तीनों रसों को देखिए-

कवित्ता-वीर रस

     ''बाजिन के ठट्ट औ गरट्ट गजराजन के,

           गाजत तराजत सुभट्ट सरसेत मैं।

     बज्जत निसान आसमान मैं गरद्द छाई,

           बोलत बिरद्द हद्द बंदी बीर खेत मैं।

     इन्द्र ज्यों उमड़ि चढ़यौ सेखर नरेन्द्रसिंह,

           अंगन उमंग बढ़ी समर सचेत मैं।

     लाली चढ़ी बदन, बहाली चढ़ी बाहन पै,

           काली सी कराली करवाली हाथ लेत मैं।

कवित्ता-रौद्र रस

     ''काटि काटि कोटिन कृपानन के जोर घोर,

            नेजे गहि रेजे लौं करेजे फारि डारिहौं।

     साजि दल प्रबल अरिन्दन के बृन्दन पै,

            मारि मारि बानन बिमानन बिदारिहौं।

     सेखर सराहै तो मैं नृपति नरेन्द्रसिंह,

            क्यों न रुण्ड मुण्ड कै मही कौ भार टारिहौं।

     डारिहौं गिरीस के गरे में माल मुंडन की,

            रुण्डित बितुण्ड झुंड सोणित मैं तारिहौं।

कवित्ता-भयानक रस

     जूझै कौन जूझ मैं अरूझै कौन आगे चलि,

            लागे लागे डोलत डरौने दसमत्थ के।

     आये रंगभूमि जे उमंग उमगाइ मन,

            मरू कै पठाये महाबीर बल जत्थ के।

     दंड ते प्रचंड होत नहूँ खंड खंड घोर,

            कसत कोदंड जोर दोरदंड गत्थ के।

     बिकल बिहाल ह्नै पराने वृध्द बाल बृन्द,

            काल ते कराल देखि लाल दसरत्थ के।

    कविकुलकलस गोस्वामी की लेखनी का लावण्य देखिए-

माखे लखन कुटिल भई भौंहैं। रदपुट फरकत नयन रिसौंहैं।''

    इस पद्य में रौद्र का कैसा सुन्दर रूप है। वीरवर सुमित्राानन्दन की बातें सुनिये-

सुनहु भानु-कुल-पंकज-भानू। कहउँ सुभाव न कछु अभिमानू।

जौं राउर अनुसासन पाऊँ। कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊँ।

काँचे घट जिमि डारउँ फोरी। सकउँ मेरु मूलक इव तोरी।

तव प्रताप महिमा भगवाना। का बापुरो पिनाक पुराना।

कमल-नाल जिमि चाप चढ़ावउँ। सत जोजन प्रमान लेइ धाावउँ।

तोरउँ छत्राक दण्ड जिमि, तव प्रताप बलनाथ।

जौं न करउँ प्रभु-पद-सपथ, कर न धारौं धानु-माथ।''

    एक चित्रा और अवलोकन कीजिए-

''तेहि अवसर सुनि सिव-धानु-भंगा। आएउ भृगु-कुल-कमल-पतंगा।

गौर सरीर भूति भलि भ्राजा। भाल बिसाल त्रिापुंड बिराजा।

सीस जटा ससि बदन सुहावा। रिस-बस कछुक अरुन होइ आवा।

भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहिं चितवत मनहुँ रिसाते।

वृषभ-कंधा उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला।

कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधो। धानु सर कर कुठार कल काँधो।

संत बेस करनी कठिन, बरनि न जाय सरूप।

धारि मुनि तनु जनु बीर रस, आयेउ जहँ सब भूप।

देखत भृगुपति भेस कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला।

    आप देखें; इन तीनों प्रकार की कविताओं में गोस्वामीजी की कविता कितनी ओजस्विनी है। उन्होंने भी वीर, भयानक और रौद्र रस का ही वर्णन किया है, किन्तु कितने सुन्दर शब्दों में और कितनी सफलता के साथ। जिस रस का उनका जो पद्य है, उस पद्य से वह रस टपका पड़ता है। भिखारीदास जी ने परुष शब्दों का अधिाक प्रयोग करके और शब्दों को गढ़ कर तथा विकृत बनाकर उनमें वीर रस अथवा रौद्र रस लाने की चेष्टा की है, किन्तु तादृश सफलता उनको नहीं मिली। शब्दों का कठोर और उद्वेजक उच्चारण एक प्रकार से उनकी कविता में अप्रीति उत्पन्न करता है। परन्तु उनसे अधिाक अपने कार्य में वाजपेयीजी को सफलता मिली है। वे उतने कठोर शब्दों का प्रयोग नहीं करते, शब्दों को अधिाक कल्पित रूप नहीं देते, उनको श्रुतिकटु भी नहीं बनाते और फिर भी अपने कार्य में सफल होते हैं।

    गोस्वामी की रचना उक्त दोनों सुकवियों से सुन्दर है। कारण क्या है! यही कि वे रुचिर शब्दों में भाव प्रकट करते हैं और वर्णित रस का सच्चा चित्रा सामने उपस्थित करते हैं। जिसको भावचित्राण की क्षमता है, वह बिना कटु और कठोर शब्दों का प्रयोग किए भी रौद्र रस अथवा वीर रस का सच्चा स्वरूप दिखला सकता है, और यही कविकर्म है। दूसरी बात यह कि इनमें से चाहे किसी कवि की कृति को हम ले लें, दास जी के ही पद्य को ले लें, तो भी उसमें कविता का सौन्दर्य पाया जावेगा, उसमें रचना-चातुरी मिलेगी, शब्दों की काट-छाँट चक्षुगोचर होगी और यह देखा जावेगा कि रस का आविर्भाव करने की चेष्टा के साथ ही सुन्दर शब्द-योजना पर भी धयान रखा गया है। जो यह बतलाती है कि प्रत्येक रस के लिए कान्त पदावली और रुचिर शब्द की आवश्यकता होती है। परुषा वृत्तिा में भी परुषता पर मनोरमता और कान्तता का रंग चढ़ा होता है। कतिपय संस्कृत पद्यों को भी देखिए-

    गौड़ी अथवा परुषा का उदाहरण साहित्यदर्पण में निम्नलिखित पद्य है-

''मन्थायस्तार्णवाम्भ: प्लुतकुहरचलन्मंदरधवान धाीर:।

कोणाघातेषु गर्जत्प्रलयघनघटान्योन्यसंघट्टचण्ड:।

कृष्णाक्रोधााग्रदूत: कुरुकुलनिधानोत्पातनिर्घातवात:।

केनास्मत्ंसिहनाद प्रतिरसितसखो दुन्दुभिस्ताडितोयम्।''

    इस पद्य में भी परुष शब्द के साथ ही सुन्दर शब्दों का विन्यास हुआ है। कवि-रचना-चातुरी तो प्रत्येक चरण में परिलक्षित है। कविवर कालिदास और विभूतिवान भवभूति की ऐसी रचनाओं में और अधिाक कोमल कान्त पदावली मिलती है, तथापि रौद्र, भयानक, अथवा वीर रस का सुन्दर चित्रा अंकित होता है। इन्दुमती के स्वयंवर में आये हुए राजाओं का युध्द अज के साथ वर्णन करते हुए कवि कुल-गुरु कालिदास लिखते हैं-

''संग्रामस्तुमुलस्तस्य पाýात्यैरþसाधानै:।

शाúर्र्कूजितविक्षेयप्रतियोधो रजस्यभूत।

पत्तिा: पदातिं रथिनं रथेशस्तुरंगसादी तुरगाधिारूढम्।

यन्ता गजस्याभ्यपतद्गजस्थं तुल्यप्रतिद्वन्द्वि बभूव युध्दम्।''

-कालिदास

किरति कलितकिझित्कोपरज्यन्मुखश्रीरविरतगुणगु)त्कोटिना कार्मुकेण।

समरशिरसि चझत्पझचूडýमूनामुपरि शरतुषारं कोप्ययं वीरपोत:। 1

मुनिजनशिशुरेक: सर्वत: सैन्यकाये नव इव रघुवंशस्या प्रसिध्द: प्ररोह:।

दलितकरिकपोलग्रंथिट(ारधाोरज्ज्वलितशरसहò: कौतुकं मे करोति। 2

आगर्जाद्ररिकुंजकुंजरघटानिस्तीर्णकर्णज्वरं,

ज्यानिर्घोषममन्ददुंदुभिरवैराधमातमुज्जृम्भयन्।

वेल्लद्भैरवरुण्डमुण्ड निकरैर्वीरो विधात्तो भुवँ-

स्तृष्यत्कालकरालवक्त्राविघसव्याकीर्णमाणमिव। 3

-भवभूति

    कैसा सुन्दर युध्द का वर्णन है! जैसा ही सुन्दर शब्द-विन्यास है वैसा ही ओज और माधाुर्य है, और वैसी ही चारु-रचना-चातुरी है। इन पद्यों के अवलोकन करने के बाद प्रत्येक सहृदय स्वयं मीमांसा कर सकता है कि वीर, रौद्र और भयानक रसों में भी सुन्दर शब्द-योजना कितनी अपेक्षित है। और ऐसी अवस्था में यही मीमांसित होता है कि कोमल कान्त पदावली की आवश्यकता सब रसों में होती है। यह दूसरी बात है कि किसी रस में कुछ ऐसे शब्द भी आवें जो उस रस के अनुकूल हों। फिर भी उसमें कविकर्म होता है, कविता की छाप फिर भी उस पर लगी होती है। सौन्दर्य की अपेक्षा कहाँ नहीं।

बोलचाल की भाषा और कवितागत विशेषता

    कवि-लेखनी की विशेषता उसकी कविता में ही निहित होती है। कविता का शब्द-विन्यास इतना परिमित होता है कि यदि उसका अनुवाद करके उसको बोलचाल का रूप दे देवें तो भी उसका वह सौन्दर्य न रह जावेगा। गीतगोविन्द के इस सरस पद्यों का अनुवाद स्वयं संस्कृत में ही उतना सुन्दर न हो सकेगा।

कुसुमविशिखशरतल्पमनल्प विलासकलाकमनीयं।

व्रतमिव तव परिरम्भसुखाय करोति कुसुमशयनीयं।

वहति च वलितविलोचनजलधरमानन कमलमुदारं।

विधाुमिव विकटविधाुन्तुददन्तदलनगलितामृतधाारं।

    साहित्यदर्पणकार का भी एक पद्य देखिए-

''लताकुंजं गुंजमदवदलिपुंजं चपलयन्।

समालिंगन्नंगं द्रुततरमनंगं प्रबलयन्।

मरुन्मंदं मंदं दलितमरविन्दं तरलयन्।

रजोवृन्दं विन्दन् किरति मकरन्दं दिशि दिशि।''

    यह वैदर्भी वृत्तिा की कविता है। उक्त ग्रन्थ के भाषातिलक में इसका अनुवाद यह है-''गुंजार करते हुए मत्ता भ्रमर-पुंजों से युक्त लताकुंज को चंचल करता हुआ, देह का आलिंगन करते अति शीघ्र अनंग को बढ़ाता हुआ, विकसित कमल को धाीरे-धाीरे कंपित करता हुआ और पुष्परज को धाारण किए हुए मन्द-मन्द चलता हुआ यह मलय समीर प्रत्येक दिशा में पुष्प-रस का प्रसार करता है।''

    आप देखें हिन्दी के इस अनुवाद में पद्य की शतांश उत्तामता नहीं है, यद्यपि लगभग उन्हीं शब्दों में यह अनुदित है। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर एक अंग्रेज विद्वान् कहता है-

    ''यदि मिल्टन और शेक्सपियर की कविता के उत्ताम से उत्ताम अंश को कम-से-कम परिवर्तन के साथ गद्य रूप में रख दें, तो यह प्रयत्न उन ओसकण के एकत्रा करने के समान होगा जो घास के ऊपर मुक्ता से दीख पड़ते हैं, किन्तु हाथ में आते ही पानी हो जाते हैं। उनका सार-तत्तव तो वही रहता है, किन्तु वह पूर्व सौन्दर्य, प्रतिभा और स्वरूप अदृश्य हो जाता है।'' ¹

मनोरमा (वर्ष 1, संख्या 7, पृ. 27)

    महाकवि कालिदास और साहित्यदर्पणकार के निम्नलिखित श्लोकों के सौन्दर्य और शब्द-विन्यास को भी देखिए-

''नवपलाशपलाशवनं पुर: स्फुटपरागपरागतपंकजम्।

मृदुलतान्तलतान्तमलोकयत् स सुरभिं सुरभिं सुमनोहरै:।

मंजुलमणिमंजीरे कलगम्भीरे विहारसरसीतीरे।

विरसासि केलिकीरे किमालि धाीरे च गंधासारसमीरे।''

    इन दोनों श्लोकों में जो सौन्दर्य अथवा कोमल कान्त पदावली किम्वा शब्दालंकार का आनन्द है, वह बोलचाल की भाषा में नहीं प्राप्त हो सकता। साहित्यदर्पणकार का दूसरा श्लोक इस भाषाधिाकार के साथ लिखा गया है कि वह संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, प्राच्य-अवन्ती, नागर और अपभ्रंश भाषाओं में एक

*   By taking the finest passages of Milton and Shakespeare, and merely putting them into prose with the least possible variation of words themselves, attempt would be like gathering up dew-drops which appear like jewels and pearls on the grass, but run into water in the hand.

समान ही रहेगा। इससे यह बात पायी जाती है कि शब्दालंकार की दृष्टि से भी कविता की भाषा बोलचाल की भाषा नहीं रह जाती, कुछ-न-कुछ अन्तर उसमें अवश्य हो जाता है। गम्भीर विषय और प्रौढ़ विचार प्रकट करने के समय भी भाषा गम्भीर और दुरूह हो जाती है। ऐसे समय भी बोलचाल की भाषा से काम नहीं चलता। प्रसिध्द अंग्रेज कवियों में वड्र्सवर्थ बोलचाल की भाषा में कविता करने का बड़ा पक्षपाती था। उसने इस सम्बन्धा में बड़ा आन्दोलन भी किया था। उसके विषय में माधाुरी वर्ष 3, खण्ड 1, संख्या 2 के पृष्ठ 165 में यह लिखाहै-

    ''अंग्रेजी में कविवर वड्र्सवर्थ ने भी बोलचाल की भाषा (Natural diction) में कविता करना अपना आदर्श रखा था। लेकिन प्रिल्यूड (Prelude) नामक काव्य में जब दार्शनिक बातें उनको कहनी पड़ीं तो भाषा गम्भीर हो गई और उनकी शैली अकस्मात् बदल गई।''

    कवि-कौमुदी के वर्ष एक की मिलित संख्या 5, 6 के पृष्ठ 180 में इसी विषय में यह लिखा है-

    ''वड्र्सवर्थ ने कविता के लिए भाषा कैसी होनी चाहिए, इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्हें अपने पहले के कुछ कवियों की कृत्रिाम भाषा पसन्द न थी। वे चाहते थे कि कविता की भाषा वही रहे जिसे सर्वसाधाारण्ा अपनी दैनिक-चर्या के समय काम में लाते हैं। उनका यह भी कहना था कि गद्य तथा पद्य की भाषाओं में कोई वास्तविक भेद नहीं है और न हो सकता है। इस प्रकार के विचारों का कुछ लोगाें ने घोर प्रतिवाद किया और स्वयं वड्र्सवर्थ भी अपने बताए नियमों का यथोचित पालन कई स्थानों पर नहीं कर सके।''

    तुलसी ग्रंथावली तृतीय खंड के पृष्ठ 279 में बाबू राजबहादुर लमगोड़ा, एम.ए. एक स्थान पर लिखते हैं-

    ''कविता के उच्च कक्षा पर पहुँचते ही शब्दों में स्वयं कुछ उत्तामता आ ही जाती है। इसीलिए वड्र्सवर्थ यद्यपि सरलताप्रेमी था, तथापि जब वह कविता के किसी उच्चस्थल पर पहुँचता है तो बिना किसी बनावट के उसके शब्दों में भी उत्तामता प्रकट हो जाती है। कालरिज ने ठीक ही कहा है कि वड्र्सवर्थ ने अपनी कविता के सिध्दान्तों को ऐसे शब्दों में व्यक्त किया है जो परिवर्तन की सीमा से बाहर हैं और इसीलिए सर्वत्रा उन्हेंं नहीं निभा सका। इसमें सन्देह नहीं कि बिना किसी बनावट के भी कवि की उत्ताम भाषा भावाभिव्यक्ति के समय साधाारण बोलचाल से स्वयं ही पृथक् हो जाती है।''

प्रस्तुत कविता की भाषा और बोलचाल

    अबतक जो निरूपण किया गया है उससे इस सिध्दान्त पर उपनीत होना होता है कि कविता की भाषा बोलचाल की भाषा से कुछ भिन्न अवश्य होती है। कहीं-कहीें यह भिन्नता अधिाक बढ़ जाती है। कविवर कालिदास और साहित्यदर्पणकार के उध्दृत श्लोक ऐसी ही भाषा के नमूने हैं। हिन्दी में भी इस प्रकार की रचनाएँ हुई हैं। कविवर पर्ािंकर का यह पद्यांश-

''गुलगुली गिलमें गलीचा हैं गुनीजन हैं,

गजक गिजा हैं और चिरागन की माला हैं।''

ऐसी ही रचना का उदाहरण है। इतना होने पर भी अनेक सहृदय कवियों ने कविता की विशेषताओं पर दृष्टि रखकर भी बोलचाल की भाषा में सुन्दर रचनाएँ की हैं। ये रचनाएँ न तो बोलचाल की भाषा से बहुत दूर पड़ गयी हैं, और न कवित्व-गुण-शून्य ही हैं। उनमें साम्य की रक्षा की गयी है, और मधयपथ ग्रहण किया गया है। मैं भी इसी पथ का पथिक 'बोलचाल' की रचना करते समय बना हूँ। मैंने 'चुभते-चौपदे' की भूमिका में ग्रन्थ की भाषा के विषय में यह लिखा है-''चौपदे बिल्कुल बोलचाल के रंग में ढले हैं, नमक-मिर्च लगने पर बात चटपटी हो जाती है; गढ़ी और सीधाी-सादी बातें भी एक-सी नहीं होतीं, चौपदे और बोलचाल की भाषा में अगर कुछ भेद है तो इतना ही।'' 'बोलचाल' के निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

''दौड़ में सब जातियाँ आगे बढ़ीं। पेट में सबके पड़ी है खलबली।

आज भी हम करवटें हैं ले रहे। खुल सकीं खोले न ऑंखें अधाखुली।

काटने से कट न दुख के दिन सके। यों पड़े कब तक रहें काँटों में हम।

आज भी जी का नहीं काँटा कढ़ा। है खटकता ऑंख का काँटा न कम।

रह गयी अब न ताब रोने की। दर दुखों का कहाँ तलक मूँदें।

कम निचोड़ी गयीं नहीं ऑंखें। ऑंसुओं की कहाँ मिलें बूँदें।

हो बुरा उन कचाइयों का जो। पत उतारे बिना नहीं रहतीं।

जब हवा आप हो गये हम तो। क्यों न मुँह पर हवाइयाँ उड़तीं।

जब कि नामरदी पड़ी है बाँट में। क्यों न तब मरदानगी की जड़ खने।

तब भला मरदानगी कैसे रहे। मँछ बनवा जब मरद अमरद बने।

है भला और क्या हमें आता। दूसरी बात और क्या होती।

हँस दिए देख सूरतें हँसती। रो दिए देख सूरतें रोती।

किसलिए इस तरह गया पकड़ा। इस तरह क्यों अभाग आ टूटा।

जायगा छूट या न छूटेगा। आजतक तो गला नहीं छूटा।

    इन पद्यों में आप इस प्रकार की पंक्तियाँ पावेंगे, जिनमें रूपान्तर से अथवा बिना रूप बदले एक ही शब्द बार-बार आया है। जैसे-

''खुल सकीं खोले न ऑंखें अधाखुली।''

×       ×       ×

''जायगा छूट या न छूटेगा।''

×       ×       ×

''आजतक तो गला नहीं छूटा।''

×       ×       ×

''हँस दिए देख सूरतें हँसती।''

×       ×       ×

''रो दिए देख सूरतें रोती।''

    यह भी बोलचाल की भाषा का ही एक रूप है। हम लोग प्राय: इस प्रकार बोलते हैं। ऐसा प्रयोग कविता को सुन्दर बना देता है, क्योंकि वह 'बोलचाल' का स्वरूप सामने खड़ा कर देता है। इसीलिए इस प्रकार का प्रयोग एक अलंकार माना गया है। इस प्रकार की रचना सब भाषाओं में पाई जाती है। फारसी में इसे 'सनअते तरसीअ' कहते हैं। संस्कृत और हिन्दी भाषा में इसको पदार्थावृत्तिा दीपक कहेंगे। कतिपय अन्य भाषा के पद्यों की भी ऐसी रचनाएँ देखिए-

तव यास्यामि यत्राासौर् वत्ताते लक्ष्मण प्रिय:।

नायोधया तं बिना योध्या सायोधया यत्रा राघव:।

अपि सुगुण! ममापि त्वत्प्रसूति: प्रसूति:।

स खलु निभृतधाीमांस्ते पिता मे पिता च।

सुपुरुष! पुरुषाणां मातृदोषो न दोषो।

वरद! भरतमार्ते पश्य तावद् यथावत्।

-महाकवि भास

इन दुखिया ऍंखियान कों सुख सिरजौई नाहिं।

देखत बनै न देखतै बिन देखे अकुलाहिं।

खरी भीर हूँ भेदि कै कितहूँ ह्नै इत आय।

फिरै दीठि जुरि दीठि सौं सबकी दीठि बचाय।

-बिहारीलाल

मुसीबत का हर यक से अहवाल कहना।

मुसीबत से है यह मुसीबत जिश्यादा।

ऐब यह है कि करो ऐब हुनर दिखलाओ।

वर्ना याँ ऐब तो सब फर्ष्दे बशर करते हैं।

-हाली

झिड़की सही अदा सही चीने जबीं सही।

सब कुछ सही पर एक नहीं की नहीं सही।

-इन्शाअल्लाह

तफरकष दर रूह हैवानी बुवद। रूह वाहिद रूह इन्सानी बुवद।

अगर नेक बूदे सरजामजश्न। जश्नारा मजश्न नाम बूदे नजश्न।

-किýत्

           "To see God is to see as God sees."

    ''ईश्वर को देखना ईश्वर के देखने को देखना है''

           Aud trust me not at all or all in all.

    ''या तो मेरा विश्वास बिलकुल न करो या बिलकुल करो''

           "In trouble to be trouble."

           "Is to have your trouble doubled."

    ''दु:ख से दु:खित होना दु:ख को दूना करना है''

    उत्ताम शब्द-विन्यास पद्य का वही है जो बिलकुल बोलचाल के अनुसार हो; अर्थात् बोलने के समय वाक्य में जिस क्रम से हम शब्द-विन्यास करते हैं, उसी क्रम से पद्यरचना में भी शब्द-विन्यास होवे।

    यह सत्य है कि छन्दोगति के कारण इस उद्देश्य में बाधाा पड़ती है, किन्तु जहाँ तक सम्भव हो इस उद्देश्य में सफल होने का प्रयत्न करना चाहिए। उर्दू-कविता में इस बात का बड़ा धयान रखा जाता है। इसको उस भाषा में 'रोजश्मर्रा' कहते हैं। जिस शाअर का रोजश्मर्रा जितना साफ होगा वह उतना ही अच्छा शाअर समझा जावेगा। यद्यपि छन्दोगति उनको भी विवश करती है, और वे कभी-कभी इस विषय में कृतकार्य नहीं होते, तथापि सफलता लाभ करने की चेष्टा की जाती है और कविता की भाषा को रोजश्मर्रा का अधिाक निकटवर्ती बनाया जाता है। हिन्दी कविता में भी यह उद्योग होना चाहिए। यथास्थान शब्द-विन्यास न होने से दूरान्वय दोष प्राय: आ जाता है। इस दोष से यथाशक्ति बचना चाहिए। कविता की भाषा जितनी ही बोलचाल के समीप होगी उतनी ही सुन्दर और बोधागम्य होगी।

    उर्दू कविता का श्लेष और साभिप्राय प्रयोग भी मार्के का होता है। उर्दू कवियों को इस विषय में कमाल है। वे उक्त बातों में इतनी योग्यता दिखाते हैं कि उनके शेर को पढ़कर जी फड़क उठता है। यह ढंग उनमें फषरसी से आया है, किन्तु उर्दू में भी पूर्णता को पहुँच गया है। फषरसी का एक शेर है-

''जुल्फे मन ख़म शुदा दर गोश सखुन मी गोयद।

मूबमू हाल परेशानिये मन भी गोयद।''

    इसका यह अर्थ है-'मेरी जुल्फष् ख़म होकर कान में मेरी परेशानी का हाल पूरा-पूरा कह रही है।' बात साधाारण है, किन्तु शब्द-विन्यास में बड़ा चातुर्य है। फषरसी के शोअरा जुल्फष् को परेशान बाँधाते हैं। अतएव उसका किसी की परेशानी का वर्णन करना कितनी भावुकतामय उक्ति है। दु:ख का अनुभवी ही दु:ख-दशा का ठीक-ठीक निरूपण कर सकता है। प्रकट में यह बात न कहकर व्यंजना द्वारा किस उत्तामता से यह भाव सूचित किया गया है, इसको प्रत्येक सहृदय समझ सकता है। यही नहीं, वह परेशानी का हाल मूबमू कहती है। 'मू' बाल को कहते हैं, 'मूबमू' कहना एक फषरसी मुहावरा है; जिसका अर्थ पूरा-पूरा कहना अथवा ठीक-ठीक कहना या बाल बराबर भी कमी न कर कहना है। मूबमू में शब्द-श्लेष है, परन्तु इतना सुन्दर है कि उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। जुल्फष् का मूबमू कहना बड़ा मार्मिक है, फषरसी में ऐसे अशआर बहुत हैं, कुछ उर्दू शेरों को भी देखिए-

''बाल चोटी के करेंगे बदनाम।

ए मुए पीछे पड़े रहते हैं।''

×         ×         ×

''य तसवीरे चेहरा उतर क्यों रहा है।

खिंचे किससे हो क्या है नकष्शा तुम्हारा।''

×         ×         ×

पड़े हैं सूरते नकष्शे कष्दम न छेड़ो हमें।

हम और खाक में मिल जायेंगे उठाने से।''

×         ×         ×

''फष्लक ने पीस के गो कर दिया सुरमा मुझ को।

मगश्र हसीनों की नजश्रों में हैं समाये हुए।''

×         ×         ×

''ऑंखें न जीने देंगी तेरी बेवफा मुझे।

इन खिड़कियों से झाँक रही है कष्जश मुझे।''

    पहिले पद्य में 'मुए' और 'पीछे पड़े रहते हैं' में श्लेष है; बाल और चोटी ने इन श्लेषों को चोटी पर पहुँचा दिया है। दूसरे पद्य के 'तसवीरे चेहरा' को देखिए, फिर 'उतर' पर उतर आइए; खिंचे और नकष्शा, का नकष्शा खींचिए; आपको स्वयं ज्ञात हो जावेगा कि कवि ने इस पद्य में कैसे बेल-बूटे तराशे हैं। तीसरे पद्य के पड़े हुए 'नकष्शे कष्दम', पर दृष्टिपात कीजिए; उसके छेड़ने और उठाने का धयान कीजिए, फिर 'ख़ाक में मिल जाने' के भाव को सोचिए, और उसके धाूल में मिल जाने और बरबाद हो जाने दोनों अर्थों का विचार कीजिए। उस समय यह ज्ञात हो जावेगा कि कवि ने इस शेर में कितनी सहृदयता से काम लिया है। चौथे और पाँचवें पद्य स्पष्ट हैं, परन्तु कैसी नाजुश्क-ख्याली है, कैसी उनमें स्वाभाविकता के साथ सरसता है, कैसा उनमें प्रसादगुण है, कैसी उनमें मार्मिकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि-

''नहि कस्तूरिकामोद: शपथेन विभाव्यते।''

×         ×         ×

''मिश्क आनस्त कि खुद विगोयद न कि अत्ताार गोयद।''

    इन पद्यों के शब्द-संस्थान को भी देखिए; बिलकुल रोजश्मर्रा है। यदि किसी स्थान पर अन्तर है तो साधाारण; दृष्टि देने योग्य नहीं; पद्य पढ़ने के समय उसका ज्ञान तक नहीं होता।

    'बोलचाल' के पद्यों में मैंने उर्दू रचना की इन सब बातों पर विशेष दृष्टि दी है और उनमें वैसा सौन्दर्य लाने की चेष्टा की है। मैंने उर्दू-पद्य के जिन सौन्दर्यों का वर्णन किया है, वे सम्पूर्ण सौन्दर्य हिन्दी अथवा संस्कृत अलंकारों के अन्तर्गत हैं। श्लेष, दीपक, मुद्रा, परिकर और परिकरांकुर अलंकारों में उनका समावेश हो सकता है। इन अलंकारों में उक्त सौन्दर्यों का अत्यन्त सूक्ष्म विवरण मिलेगा। शब्द-संस्थान का भी मैंने वैसा ही धयान रखा है। क्योंकि बोलचाल की भाषा के लिए इसकी अत्यन्त आवश्यकता है। यदि कहीं अन्तर पाया जावेगा तो साधाारण और वह भी विवशता के कारण। छन्दोगति की रक्षा छन्दोरचना में आवश्यक हो जाती है। उसका उल्लंघन नहीं हो सकता; जो कहीं अन्तर है, अधिाकांश इसी कारण से है। कहीं-कहीं अनुप्रास अथवा शब्दालंकार के कारण भी ऐसा अन्तर मिलेगा। शब्द को विशेष प्रभावमय बनाने के लिए भी ऐसा अन्तर पाया जावेगा। जब किसी शब्द पर विशेष जोर देना होता है तो बोल-चाल में भी ऐसा किया जाता है। जब हम किसी पर बिगड़ते हैं तो 'हट जाने पर' जोर देने के लिए यही कहते हैं कि 'हट जाओ, हमारी ऑंखों के सामने से' न कि हमारी ऑंखों के सामने से हट जाओ।''

    तुलसी-ग्रन्थावली, तृतीय खंड, पृष्ठ 274 में बाबू राजबहादुर लमगोड़ा,
एम.ए.-

''तासु दसा देखी सखिन पुलक गात जल नैन।

कहु कारन निज हरख कर, पूछहिं सब मृदु बैन।''

इस दोहे की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-

    ''जिज्ञासा (Curiosity) की प्रथम श्रेणी किस सौन्दर्य से सामने रखी गयी है, और कहु, का सरल प्रश्न कितना उपयुक्त है! महाकवि के कथन में शब्दों का स्थायी भी एक विशेष बात होती है। रस्किन (Ruskin) के कथनानुसार शब्द के परिवर्तन में आनन्द जाता रहता है। यदि 'कहु' का शब्द 'कारन' के पीछे हो जाता तो अस्वाभाविक होता। क्योंकि उस समय सरसता जाती रहती और प्रेम की सहजता (Spontaneity) को प्रकट न कर सकता।''

    वे एक दूसरे स्थान पर 'गिरा अनयन नयन बिनु बानी' की व्याख्या करते हुए कहते हैं-''कैसा शब्द-क्रम है कि यदि 'नयन बिनु बानी' वाले शब्द पहिले रख दिए जाएँ तो वह आनन्द ही उड़ जाए जिसका वर्णन ऊपर किया गया है। वाणी से सम्बध्द शब्द का पहिले होना इसलिए और भी उपयुक्त है कि वाणी की सहायता न करने के कारण मस्तिष्क को चिन्ता हुई। इसलिए कि पहिले उसी से सम्बध्द उत्तार की आवश्यकता थी।''

    भाव-सौन्दर्य के कारण भी कहीं-कहीं पद्य में ऐसे शब्द आ गये हैं जो बोल-चाल की भाषा के शब्द नहीं कहे जा सकते। किन्तु इनकी संख्या अत्यन्त अल्प है। कई सौ पद्यों में कठिनता से ऐसे एक-दो पद्य मिलेंगे। ऊपर लिखे पद्यों में एक स्थान पर आया है ''मूँछ बनवा जब मरद अमरद बने'' स्पष्ट अर्थ इसका यह है कि मूँछ बनवाकर मरद अमरद अर्थात् नपुंसक या हिजड़ा वा जनाना बन जावे। परन्तु श्लेष से व्यंजना यह है कि 'बिना मूँछ का लौंडा बन जावे', क्योंकि फषरसी में बिना मूँछ-दाढ़ी के लौडे को अमरद कहते हैं। निस्सन्देह यह 'अमरद' शब्द बोल-चाल का नहीं है, वरन् अन्य भाषा का अप्रचलित शब्द है, किन्तु कवितागत सौन्दर्य की रक्षा के लिए उसका प्रयोग एक मुख्य स्थल पर किया जाना, आशा है तर्क का हेतु न होगा। मेरा विचार है कि ऐसे कतिपय अप्रचलित संस्कृत के अथवा अन्य भाषा के शब्दों के प्रयोग से ग्रन्थ की भाषा बोल-चाल की ही भाषा मानी जावेगी, अन्य भाषा की न कही जावेगी। मीमांसा के समय ग्रन्थ की मुख्य भाषा देखी जाती है, कतिपय प्रयुक्त शब्द नहीं। यदि इस प्रकार के कतिपय शब्दों को लेकर किसी ग्रन्थ की भाषा निश्चित की जाने लगे तो न तो अंग्रेजी, अंग्रेजी रह जावेगी, न फषरसी-अरबी; फारसी-अरबी वरन् किसी भाषा का नामकरण ही असम्भव हो जावेगा; क्योंकि वह कौन भाषा है, जिसमें कि अन्य भाषा के कुछ शब्द सम्मिलित नहीं।

    अब तक जो कुछ लिखा गया है, उससे यह बात स्पष्ट हो गयी कि किसी भी भाषा में कविता क्यों न लिखी जावे, कविता की भाषा उसकी बोल-चाल की और गद्य की भाषा से कुछ भिन्न अवश्य हो जावेगी। अतएव इस ग्रन्थ की बोल-चाल की भाषा में यदि कवितागत कुछ पार्थक्य है, तो वह स्वाभाविक है, और उस प्रणाली के अन्तर्गत है जो सार्वभौम और व्यापक है। तथापि यह कहने का मैं साहस करूँगा कि ऐसे स्थल ग्रन्थ में बहुत अल्प मिलेंगे, उतना ही अल्प जिसे कि 'दाल का नमक' कहते हैं।

कविता-वृत्ता

    इस ग्रन्थ में अधिाकांश दो मात्रिाक वृत्ताों का प्रयोग हुआ है, इनमें से एक सत्राह और दूसरा उन्नीस मात्रााओं का है। सत्राह मात्रााओं के वृत्ता का कुल रूप 2584 और उन्नीस मात्रााओं के वृत्ता का कुल रूप 6765 होता है। सत्राह मात्रााओं का पद्य निम्नलिखित धवनि का है-

''बात कैसे बता सकें तेरी।

ऽ। ऽऽ ॥़ ॥़ ऽऽ

हैं मुहों में लगे हुए ताले।

ऽ ॥़ ऽ ॥़ ॥़ ऽऽ

बावले बन गये न बोल सके।

ऽ॥़ । ॥़ । ऽ। ॥़

बाल की खाल काढ़ने वाले।

ऽ। ऽ ऽ। ऽ॥़ ऽऽ

    उन्नीस मात्रााओं का पद्य निम्नलिखित धवनि का है।

चोट जी को जब नहीं सच्ची लगी।

ऽ। ऽ ऽ । ॥़ ऽऽ ॥़

प्रेम धाारा जब नहीं जी में बही।

ऽ। ऽऽ । ॥़ ऽ ऽ ॥़

चोचलों से नाथ रीझेगा न तब

ऽ॥़ ऽ ऽ। ऽऽऽ । ।

है गई यह बात चोटी की कही''

ऽ॥़ ॥़। ऽऽ ऽ ॥़

     सत्राह मात्रााओं के पद्य का पहिला, दूसरा और चौथा चरण उसके कुल 2584 रूपों में से 70वाँ और तीसरा 693वाँ रूप है। उन्नीस मात्रााओं के पद्य का पहला और दूसरा चरण उसके 6765 रूपों में से 1047वाँ, तीसरा चरण 5204 वाँ और चौथा 1036वाँ रूप है। यह अन्तर लघु गुरु की असमानता के कारण हुआ है जैसा कि आपको पद्यों के चरणों के नीचे लिखे लघु। गुरु ऽ चिद्दों के देखने से ज्ञात होगा।

    हिन्दी भाषा के छन्दों के रूप अनन्त होते हैं। किसी भाषा का कोई छन्द ऐसा न होगा कि जिसका अन्तर्भाव उसमें न हो जाता हो। छन्दों के सब रूप किसी काल में व्यवहृत नहीं हुए और न कभी हो सकते हैं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि छन्दों के सभी रूपों में गति अथवा धवनि नहीं होती। अनेक रूप ऐसे होते हैं, जो गद्य की भाँति पढ़े जा सकते हैं। पद्यता उनमें नाम को नहीं होती। सत्राह मात्राा के निम्नलिखित रूपों को देखिए-

न मेरी बातें मानोगे क्या?

×         ×         ×

क्या, मेरी बातें मानोगे न?

×         ×         ×

क्या मेरी बातें न मानोगे?

×         ×         ×

क्या न मानोगे मेरी बातें?

    कुछ रूप ऐसे होते हैं जिनकी धवनि समान होती है। ऊपर के पद्य इसके प्रमाण हैं। उन्नीस मात्रााओं के निम्नलिखित पद्यों को भी देखिए; चारों चरणों के चार रूप हैं किन्तु धवनि एक है-

''सब जगह जिसकी दिखाती है झलक।

॥ ॥। ॥ऽ ॥़ऽ ऽ ॥।

जान उसको जो न वे अब तक सके।

ऽ। ॥ऽ ऽ । ऽ ॥ ॥ ॥़

तो हुए बूढ़े बने पक्के नहीं।

ऽ ॥़ ऽऽ ॥़ ऽऽ ॥़

धाूप में ही बाल उनके हैं पके।''

ऽ। ऽ ऽ ऽ। ॥ऽ ऽ ॥़

    कुछ रूप ऐसे होते हैं जिनकी धवनि में भिन्नता होती है और एही भिन्न-भिन्न छन्दों का सूत्रापात करते हैं। सत्राह मात्राा का एक छन्द 'छन्द:प्रभाकर' में लिखा गया है, उसका नाम 'राम' है। ग्रन्थकार लिखते हैं कि प्रस्तार द्वारा यह छन्द नया रचा गया है। उन्होंने इस शब्द में 9 और 8 मात्राा पर विश्राम अथवा यति मानी है। उसकी गति या धवनि यह है-

''सुनिये हमारी, विनय मुरारी''

    'छन्दोमंजरीकार' ने उपजाति नाम का एक छन्द माना है, उसके दूसरे और चौथे चरण की कला उन्होंने सत्राह मानी है। उसकी गति या धवनि यह है-

    ''हरे बिहारी, तुम हो दयाला''

    'छन्द:प्रभाकर' में उन्नीस मात्रााओं के चार छन्द लिखे गये हैं-पीयूषवर्ष, सुमेरू, नरहरी और दिंडी। चारों की धवनि क्रमश: निम्नलिखित है-

पीयूषवर्ष-''सुमिर मन रघुबीर, सुख पैहै जहाँ।''

×         ×         ×

सुमेरू-''सिया के नाथ को नित, सीस नावो।''

×         ×         ×

नरहरी-''हरि सुनत भक्त की बानी, दुख भरी।''

×         ×         ×

दिंडी-''कथा बोलूँ हे मधाुर सुधाा धाारा।''

    बरवा भी उन्नीस मात्रााओं का होता है-

    यथा-

''आवति खिन ऍंगनैयाँ खिन चलि जाति।

उठि उठि गिनति तरैया, कटति न राति।''

    ऊपर मैंने जिन सत्राह या उन्नीस मात्रााओं के छन्दों की चर्चा की है, जिनमें कि बोलचाल नामक ग्रन्थ आद्योपान्त लिखा गया है। उनकी गति या धवनि हिन्दी भाषा के किसी सत्राह या उन्नीस मात्रााओं के प्रचलित छन्द की गति या धवनि से नहीं मिलती; तथापि प्रस्तार द्वारा उनका रूप मुझको ज्ञात हो गया है। अतएव उनका नामकरण करके मैं उन्हें हिन्दी-भाषा का ही छन्द कह सकता था। उर्दू अथवा फषरसी का प्रत्येक छन्द प्रस्तार द्वारा हिन्दी-भाषा का छन्द सिध्द किया जा सकता है। उक्त दोनों छन्दों की बात ही क्या! परन्तु वास्तव बात यह है कि मैंने उर्दू बÐ का अनुसरण कर उनको लिखा है, अतएव मुझको यह स्वीकार करना पड़ता है कि मैंने इन दोनों बÐों को उर्दू से लिया है। उर्दू में ये दोनों बÐ प्रचलित हैं और इनमें बहुत-सी उत्तामोत्ताम उर्दू कविताएँ लिखी गयी हैं; प्रमाण के लिए निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

    17 मात्राा-    ''तुम मेरे पास होते हो गोया।

          जब कोई दूसरा नहीं होता।''

-मोमिन

''बेखुदी ले गयी कहाँ हमको।

देर से इन्तिजशर है अपना।''

-आसी

    19 मात्राा-    ''दिल के आईने में है तसवीरे यार।

          जब जश्रा गर्दन झुकाई देख ली।''

-मीर हसन

''सुबह गुजश्री शाम होने आयी मीर।

तू न चेता औ बहुत दिन कम रहा।''

-मीर

           ''हिन्दी में उर्दू बÐों को किस नियम के साथ ग्रहण करना चाहिए।'' इस विषय पर मैं कुछ लिखना चाहता हूँ। अतएव इस उद्देश्य से भी मैं उनको उर्दू का बÐ ही मानकर आगे बढ़ता हूँ।

हिन्दी में उर्दू बÐ

    अमीर खुसरो विक्रमी चौदहवें शतक में हुए हैं। पहले-पहल हिन्दी की कविता उर्दू बÐ में इन्हीं के समय में लिखी गयी है। नीचे लिखे पद्य इसके प्रमाण हैं-

         ''सखी पिया को जो मैं न देखूँ

                  तो कैसे काटूँ ऍंधोरी रतियाँ।

         किसे पड़ी है जो जा सुनावे

                  पियारे पी को हमारी बतियाँ।''

    यह बÐ मुतकषरिब मुसम्मन मकष्बूज़असलम है-'फष्ऊल फेलुन् फष्ऊल फष्ेलुन्, फष्ऊल फष्ेलुन् फष्उल फष्ेलुन्'-इसकी धवनि है। अर्थात् फष्ऊल फष्ेलुन् (॥़। ऽऽ) चार बार आने से यह बÐ बनती है।    

    हजरत अकबर फष्रमाते हैं-

         ''कहाँ हैं हममें अब ऐसे सालिक

                  कि राह ढूँढ़ी कष्दम उठाया।

         जो हैं तो ऐसे ही रह गये हैं

                  किताब देखी कष्लम उठाया।''

    कबीर साहब ने भी कभी-कभी अपनी हिन्दी रचनाओं में उर्दू बÐों से काम लिया है। इनका समय अमीर खुसरो के 100 वर्ष बाद आता है। उनका निम्नलिखित पद्य इस बात का प्रमाण है-

''कबीरा इश्कष् का माता, दुई को दूर कर दिल से।

जो चलना राह नाजुश्क है, हमन सिर बोझ भारी क्या?''

    यह हजश्जश् मुसम्मन सालिम है। मफषईलुन् (। ऽ ऽ ऽ) को चार बार लाने से इस बÐ की धवनि बनती है। हजश्रत अकबर कहते हैं-

         ''हम ऐसी कुल किताबें,

                  कषबिले जश्ब्ती समझते हैं।

         कि जिनको पढ़के लड़के,

                  बाप को ख़ब्ती समझते हैं।''

    इन दोनोें कवियों के बाद हिन्दी साहित्य क्षेत्रा में मलिक मुहम्मद जायसी, महात्मा सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास और अवधाी एवं ब्रजभाषा के तात्कालिक अन्य सुकवियों का पदार्पण होता है। किन्तु ये लोग हिन्दी भाषा के छन्दों से ही काम लेते हैं, इनमें से किसी एक को भी उर्दू बÐों में कुछ लिखते नहीं देखा जाता। हाँ, विक्रमी अष्टादश शतक में आनन्दघन ने कुछ कविताएँ उर्दू बÐ में की है। उदाहरण यह है-

''सलोने श्याम प्यारे क्यों न आवो।

दरस प्यासी मरें तिनको जिआवो।''

    यह हजश्जश् मुसद्दस महजूश्फष् है। मफषईलुन् (। ऽ ऽ ऽ) दो बार और फष्ऊलुन् (। ऽ ऽ) एक बार लाने से इसकी धवनि बनती है। इसी बÐ में एक उर्दू शेर देखिए-

''सनम सुनते हैं तेरे भी कमर है।

कहाँ है? किस तरफष् को है? किधार है?''

-जुरअत

    विक्रमी उन्नीस शतक में सय्यद इन्शाअल्लाह खाँ ने 'कहानी ठेठ हिन्दी' नाम की एक लघु पुस्तिका लिखी। इस पुस्तिका में इन्हाेंने जो पद्य लिखे हैं, वे भी ठेठ हिन्दी में हैं, किन्तु बÐ उनकी उर्दू है; उनमें से कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

''छा गयी ठंढी साँस झाड़ों में।

पड़ गयी कूक सी पहाड़ों में।''

''अब उदयभान और रानी केतकी दोनों मिले।

आस के जो फूल कुम्हलाये हुए थे फिर खिले।''

    पहला पद्य खफष्ीफष् का है। फषइलातुन् (ऽ। ऽ ऽ) मफषइलुन् (। ऽ। ऽ) फष्ेलुन् (ऽ ऽ) इसकी धवनि है। दूसरा पद्य रमल, मुसम्मन महजूश्फष् का है। फषइलातुन् (ऽ। ऽ ऽ) को तीन बार और फषइलुन् (ऽ। ऽ) को एक बार लाने से यह बÐ बनती है। कुछ उर्दू-पद्य भी देखिए-

''जग में आकर इधार उधार देखा।

तू ही आया नजश्र जिधार देखा।''

-मीरदर्द

''रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो।

हम सखुन कोई न हो औै हम जश्बाँ कोई न हो।''

-गशलिब

    विक्रमी बीसवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में उर्दू बÐों का विशेष प्रसार हुआ है। इस प्रसार की गति आजकल बहुत द्रुत हो गयी है। इस शताब्दी के आदि में ललितकिशोरीजी ने उर्दू बÐ में बहुत-सी रचनाएँ की हैं। हिन्दी संसार में ये रचनाएँ 'रेखता' के नाम से प्रसिध्द हैं। रास-लीलाओं में इनका बड़ा आदर है। कौआली का भी लगभग यही स्वरूप है। साधाारण लोगों में इस धवनि का विशेष प्रचार है। ¹  ललितकिशोरीजी का एक पद्य देखिए-

''इस रस के पावै चसके जेहि लोक-लाज खोई।

मैं बेंचती हूँ मन के माखन को लेवै कोई।''

    इस बÐ का नाम मुजशरा मुसम्मन् अखरब है। मफष्ऊल (ऽ ऽ।) फषइलातुन् (ऽ। ऽ ऽ) दो बार आने से इस बÐ की धवनि बनती है। इसका स्वरूप हिन्दी के दिग्पाल छन्द से मिलता है। इस बÐ में कुछ उर्दू पद्यों को देखिए-

''शोरे जुनूँ हमारा आख़िर को रंग लाया।

जो देखने को आया हाथों में संग लाया।''

(बहरुल उरूज, 2-पृष्ठ)

''हर आन हम को तुम बिन इक इक बरस हुई है।

क्या आ गया जश्माना अय यार रफ्श्ता रफ्श्ता।''

-मीर

           उक्त शताब्दी के प्रथमार्धा में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र और श्रीमान् पण्डित प्रतापनारायण मिश्रजी ने उर्दू बÐों में अच्छी कविताएँ की हैं। भारतेन्दुजी का विचार है कि खड़ी बोली की कविता हिन्दी में सरस और मधाुर नहीं हो सकती। उन्होंने अपनी 'हिन्दी भाषा' नामक पुस्तक के पृष्ठ 10 में एक स्थान पर खड़ी बोली

 ¹   उर्दू का दूसरा नाम रेखता है। ज्ञात होता है कि उर्दू बÐ में लिखे जाने के कारण हो इस प्रकार की कविताओं का नाम रेखता रख लिया गया है।

की कविता (जिसका नामकरण आपने 'नई भाषा' किया है) दोहे में लिख कर अपनी सम्मति यों प्रकट की है-

    ''नई भाषा की कविता-

भजन करो श्रीकृष्ण का मिलकर के सब लोग।

सिध्द होयगा काम औ छूटेगा सब सोग।

    अब देखिए यह कैसी भोड़ी कविता है। मैंने इसका कारण सोचा कि खड़ी बोली में कविता मीठी क्यों नहीं बनती! तो मुझको सबसे बड़ा कारण यह जान पड़ा कि इसमें क्रिया इत्यादि में प्राय: दीर्घ मात्राा होती है, इससे कविता अच्छी नहीं बनती।''

    यह विचार होने के कारण जब आपने खड़ी बोली की कविता की है, तब अधिाकांश स्थानों पर काम उर्दू बÐ से ही लिया है। कुछ रचनाएँ देखिए-

        ''वह अपनी नाथ दयालुता,

                 तुम्हें याद हो कि न याद हो।

        वह जो कौल भक्तों से था किया,

                 तुम्हें याद हो कि न याद हो।

        वह जो गीधा था, गनिका वह थी,

                 वह जो व्याधा था मल्लाह था।

        इन्हें तुमने ऊँचों की गति दिया,

                 तुम्हें याद हो कि न याद हो।''

    यह कामिल मुसम्मन् सालिम है। मुतफषइलुन् (॥ ऽ॥़) को चार बार लाने से इसकी धवनि बनती है। इस बÐ में लिखी गयी यह उर्दू गश्जश्ल बहुत मशहूरहै-

        ''वह जो हमसे तुमसे कष्रार था

                 तुम्हें याद हो कि न याद हो।

        हमें याद है सब जश्रा जश्रा

                 तुम्हें याद हो कि न याद हो।''

    बाबू साहब के पद्य का आधाार यही है। श्रीमान् पण्डित प्रतापनारायण मिश्र की भी कुछ रचनाएँ देखिए-

        ''बिधााता ने याँ मक्खियाँ मारने को।

                 बनाए हैं ख़ुशरू जवाँ कैसे कैसे।

        अभी देखिए क्या दशा देश की हो।

                 बदलता है रंग आसमाँ कैसे कैसे।''

    यह मुतकषरिब मुसम्मन् सालिम है। फष्ऊलुन् (। ऽ ऽ) चार बार आने से इस बÐ की धवनि बनती है। कुछ उर्दू पद्य भी देखिए-

        जश्ेहन पर हैं उनके गुमाँ कैसे कैसे।

                 कलाम आते हैं दरमियाँ कैसे कैसे।

        न गोरे सिकन्दर न है कष्ब्र दारा।

                 मिटे नामियों के निशाँ कैसे कैसे।

-आतिश

    प्राचीन लेखकों में माननीय प्रेमघन और श्रीमान् बाबू बालमुकुन्द गुप्त की भी हिन्दी रचनाएँ उर्दू बÐों में पाई जाती हैं। मगर अब उन लोगों की रचनाओं का उदाहरण देकर मैं इस लेख को न बढ़ाऊँ। संभव है कि इस क्रम में अनभिज्ञता के कारण कुछ और नाम छूट गये हों, किन्तु इससे उद्देश्य-निरूपण में अन्तर न पड़ेगा। वर्तमान काल खड़ी बोली की रचनाओं के प्रसार का है। इस कारण आज कल अधिाकांश लोग उर्दू बÐों से काम लेने लगे हैं। प्रतिष्ठित लेखकों में उर्दू बÐों में अधिाकतर लिखनेवाले श्रीमान् पण्डित गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' और श्रीमान् लाला भगवानदीन हैं। मेरे विषय में एक स्थान पर अपनी 'कविता कौमुदी' में श्रीमान् पण्डित रामनरेश त्रिापाठी ने यह लिखा है-

    ''उर्दूवाले 'और' को '' और 'पर' को '' लिखकर भी अपना भाव प्रकट कर सकते हैं, किंतु हिन्दी में यह गुनाह माना जाता है। हिन्दी में शब्दों के रूप और उच्चारण में अन्तर नहीं होना चाहिए। नियमित सँकरे रास्ते से ही चलना चाहिए; किन्तु हर एक बार माल पूरा आना चाहिए। थोड़े माल से ग्राहकों का जी नहीं भर सकता। ऐसा करने के लिए हिन्दी के कुछ कवि उर्दूवालों का ही रास्ता पकड़ना चाहते हैं। वर्तमान कवियों में इस मत के पोषक पण्डित अयोधयासिंह उपाधयाय कहे जा सकते हैं।''

    मैंने खड़ी बोली की कविता में अधिाकतर उर्दू बÐों का प्रचार किया है; ज्ञात होता है कि यह देखकर पण्डितजी ने ऐसा लिखने की कृपा की है; किन्तु मेरे उद्देश्य को आप यथातथ्य प्रकट नहीं कर सके हैं। मेरे उर्दू बÐों में एक सज्जन ने पिंगल के दोष भी दिखलाए हैं। कुछ लोगोें ने मुझसे ये प्रश्न भी किए हैं कि उर्दू बÐें हिन्दी में किन नियमों के साथ ग्रहण की जा सकती हैं? अतएव मैं इस विषय में कुछ लिखने को बाधय हुआ।

    प्रत्येक भाषा का यह नियम है कि उसमें रस और भाव के अनुकूल कुछ छन्द अथवा वृत्ता नियत होते हैं। संस्कृत में भी रसानुकूल वृत्ताों की योजना है। कोमल और मधाुर भावों के लिए यदि मालिनी और वसन्ततिलका आदि का प्रयोग होता है तो गम्भीर और ओजमय भावों के लिए शार्दूल-विक्रीड़ित आदि से काम लिया जाता है। हिन्दी में शृंगार रस की सरस और मनोहर रचनाओं के लिए यदि मत्तागयन्द सार और बरवै गृहीत हैं तो वीर अथवा रौद्र रस के लिए कड़खा, त्रिाभंगी और वीर छन्द काम में आता है। क्यों! इसलिए कि छन्द मनोभावों के प्रकट करने के समुचित साधान हैं। जिस छन्द द्वारा जो मनोभाव यथातथ्य प्रकट होगा उस मनोभाव के व्यक्त करने के लिए वही छन्द उपयुक्त और उत्ताम समझा जावेगा। खड़ी बोली का रोजश्मर्रा और बोलचाल जिस उत्तामता से प्राय: उर्दू बÐों में लिखा जा सकता है, जितनी ओजस्विता उनमें आती है, बहुधाा हिन्दी छन्दों में नहीं। जिस सुविधाा से खड़ी बोली की क्रियाएँ उर्दू बÐों में प्राय: खपती हैं, हिन्दी छन्दों में नहीं। वे उर्दू बÐों में आकर यदि उनको सजाती हैं तो उर्दू बÐें भी उनको सुन्दर बनाने में कम सहायक नहीं होतीं। और यही कारण है कि आजकल उर्दू बÐ का प्रचार कुछ अधिाक हो गया है।

           मैं ऊपर यह दिखला आया हूँ कि हिन्दी में उर्दू बÐों का प्रचार आधाुनिक नहीं है, वरन् चिरकालिक है। कारण दूसरा कुछ नहीं, उपयोगिता मात्रा है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी में उर्दू बÐों का अधिाक प्रचार करके अनधिाकार चेष्टा की गयी है। मुख्यत: उस अवस्था में जब कि वे हिन्दी वृत्ताों के ही अन्तर्गत है। हाँ, यह अवश्य विचारणीय है कि उनका व्यवहार हिन्दी में किस रूप में होना चाहिए। अब मैं इसी विषय पर प्रकाश डालूँगा।

Ð-व्यवहार-नियम

    हिन्दी छन्दों के नियम सरल, सुबोधा और अल्प श्रमसाधय हैं। अतएव इन्हीं नियमों के साथ हमको उर्दू बÐों को भी ग्रहण करना चाहिए। उर्दू में उनका प्रचलित होना हमारे दृष्टि-आकर्षण के साधान अवश्य हैं, पर हैं वे हिन्दी वृत्ताों के ही रूपान्तर। ऐसी अवस्था में वे हिन्दी छन्दों के नियम के अन्तर्गत हैं। अतएव वे हमारे लिए उन्हीं नियमों के साथ ग्राह्य हैं। इसमें तर्क-वितर्क को स्थान नहीं। अब रही यह बात कि यदि उर्दू के नियम उनसे भी सरल, सुबोधा और उपयोगी हों तो वे क्यों न ग्रहण किये जावें! मैं इसको स्वीकार करता हूँ और अब इसी बात की मीमांसा में प्रवृत्ता होता हूँ।

    हिन्दी में सब छन्दों की मात्रााएँ नियत हैं। Ðस्व की एक मात्राा और दीर्घ की दो मात्रााएँ होती हैं। अतएव मात्राा गिनने में कोई उलझन नहीं होती। धवनि अथवा गति के लिए उदाहरण की धवनि ही पर्याप्त होती है। कुछ यति और स्थान विशेष पर लघु-गुरु के नियम हैं। बस, इतना ही। किन्तु इतना ज्ञान ही इतना पूर्ण होता है कि छन्दोरचना हो जाने पर एक मात्राा की कसर नहीं पड़ती। कभी-कभी दीर्घ को Ðस्व पढ़ना पड़ता है, परन्तु ऐसा अवसर कदाचित् ही उपस्थित होता है। अधिाकांश छन्दों में ऐसी नौबत ही नहीं आती। बहुत से प्रतिष्ठित कवि यति और स्थान-विशेष पर लघु-गुरु स्थापन के नियम को भी नहीं मानते। वे केवल उदाहरण के छन्दोगति पर ही दृष्टि रखते हैं और ऐसी अवस्था में भी निर्दोष कविता करते हैं। यति के विषय में कुछ आचार्यों की भी यही सम्मति है। छन्दोमंजरीकार लिखते हैं-

''श्वेतमण्डव्य मुख्यास्तु नेच्छन्ति मुनयो यतिम््।''

    श्वेतमाण्डव्यादि मुनि यति नहीं मानते। दीर्घ का लघु पढ़ा जाना यद्यपि प्रचलित है तथापि हिन्दी छन्दोरचना इतनी सुन्दर होती है कि ऐसा अवसर बहुत कम आता है। छन्द के प्रति चरण में ही अनेक शब्दों के तोड़ने-मरोड़ने की आवश्यकता नहीं होती। मैं रोला छन्द लेकर अपने कथन को स्पष्ट करूँगा।

    छन्द:प्रभाकर में रोला का लक्षण यह लिखा है-

''रोला की चौबीस कला यति शंकर तेरा।''

    अर्थ इसका यह हुआ कि रोला की चौबीस कला अर्थात् मात्रााएँ होती हैं, और शंकर यानी ग्यारह और तेरह पर यति होती है। इसकी टीका में ग्रन्थकार ने यह लिखा है-''अन्त में दो गुरु अवश्य चाहिए, किन्तु यह सर्वसम्मत नहीं है।'' इससे यह पाया जाता है कि अन्त में दो गुरु होने का नियम सर्वमान्य नहीं है, अतएव रोला का जो लक्षण पद्य में लिखा है वही मुख्य है। लक्षण का पद्य हमें छन्दोगति भी बतलाता है। अतएव इस गति पर धयान रख हम यति का निर्वाह करते हुए 24 मात्राा पूरी कर दें तो रोलाछन्द बन जावेगा। हमको किसी दूसरे उलझन में नहीं फँसना होगा। श्रीयुत् बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर बी.ए. ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिाका भाग 5, अंक 1 में रोला छन्द के विषय में बहुत कुछ लिखा है। उसमें एक स्थान पर 'प्राकृत पिंगल सूत्रााणि' के टीकाकार वंशीधार की यह सम्मति उन्हाेंने प्रकट की है:-

''रोलायाम् चतुर्विंशतिमात्राा: प्रतिचरणं देया इत्यावश्यकम्। तत्रा

प्रकारद्वयेन संभवति, लघुद्वययुक्तैकादशगुरुदानेन यथेच्छं गुरुलघुदानेन वा।''

    दूसरे स्थान पर 'छन्दोर्णव-पिंगलकार' कविवर भिखारीदास का यह विचार ''अनियम ह्नै है रोला'' लिखा है। इसके बाद बहुत मीमांसा करके यह निष्कर्ष निकाला है-

    ''रोला छन्द में 11 मात्रााओं पर विरति होना आवश्यक नहीं है। पर यदि हो तो अच्छी बात है।''

    निम्नलिखित प्रतिष्ठित कवियों के पद्यों से भी यही सिध्द होता है कि रोला छन्द में अन्त में दो गुरु और ग्यारह मात्रााओं पर यति होना आवश्यक नहीं है।

''ब्रह्म कमंडलमंडन भवखंडन सुरसरबस।''

        ×                      ×          ×

ऐरावतगज गिरि पवि हिमनगकंठहारकल।''

                        ×                      ×                 ×   -भारतेन्दु

''घहरत घंटा धाुनि धामकत धाौंसा करि साका।''

        ×                      ×          ×

''वारिधिा नाते ससिकलंक मनु कमल मिटावत।''

        ×                      ×          ×

''या बन की बर बानिक या बन ही बनि आवै।''

        ×                      ×          ×

''साखा दल फल फूलनि हरि प्रतिबिंब बिराजै।''

                        ×                      ×               ×               -नन्ददास

''निकर विभाकर दुति मेटत सुभ मनि कौस्तुभ अस।''

        ×                      ×          ×

''सुन्दर नन्द-कुँवर उर पर सोइ लागत उड़ु जस।''

    इन बातों के उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि हिन्दी-भाषा-छन्दों के नियमों को सुलभ और सुबोधा बनाने की बराबर चेष्टा हुई है। बन्धानों को कसने के स्थान पर ढीला किया गया है, और ऐसे मार्ग निकाले गये हैं जिनसे जटिलताओं का निराकरण हो। रोला को किसी-किसी आचार्य ने इतना मुक्त कर दिया है कि यदि 24 मात्रााएँ ही छन्दोगति का धयान करके लिख दी जावें तो रोला छन्द बन जावेगा, और रचयिता को दूसरे बन्धानों में न पड़ना होगा। अन्य छन्दों के विषय में भी इस प्रकार की बहुत-सी बातें कही और बतलाई जा सकती हैं, परन्तु यह केवल बाहुल्य मात्रा होगा। वास्तव बात यह है कि जिह्ना ही छन्दोगति की तुला है। यदि थोड़ी सावधाानी के साथ छन्द के साधाारण नियमों का धयान रखकर रचना की जावे तो दोष की सम्भावना बहुत ही कम रहती है। यह बात एक अभ्यस्त पुरुष के लिए है, शिक्षार्थी के लिए यह बात नहीं कही जा सकती। उसको कुछ काल तक प्रत्येक नियमों का पूरा अभ्यास करके अपनी रचना-शक्ति को बढ़ाना ही होगा, तभी उसको सफलता प्राप्त होगी। शिक्षार्थी के लिए ही अधिाकतर उपयोगी नियम बनाए गये हैं, कि जिनके द्वारा गन्तव्य पथ पर वह सुगमता से चल सके। हिन्दी छन्द:शास्त्रा में जहाँ एक ओर सुगमता और सहज बोधा का राजमार्ग है वहीं दूसरी ओर अनुकूल नियमों और उपयोगी परिभाषाओं की चरम सीमाहै।

    अब आइये इसी कसौटी पर उर्दू की बÐों को कसें। उर्दू में इस प्रणाली को 'तकष्तीअ' कहते हैं। दोनों भाषाओं में पद्यों की अधिाकांश रचना धवनि अथवा छन्दोगति के अनुसार होती है; भ्रम प्रमाद मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। भूल-चूक किससे नहीं होती, कभी-कभी चिर अभ्यस्त पुरुष भी मार्गच्युत हो जाता है। शीघ्रता से की गयी रचनाएँ अथवा चित्तावृत्तिा की अननुकूलता भी प्राय: छन्दों को सदोष बना देती है। ऐसी अवस्था में प्रश्न होने पर अथवा अपने चित्ता के समाधाान के लिए छन्दों को नियत गण अथवा मात्रााओं पर कसना पड़ता है। शिक्षा के समय अथवा किसी के बोधा-वर्धान के लिए भी इसकी आवश्यकता होती है। इसी क्रिया को उर्दू में तकष्तीअ और हिन्दी में जाँच अथवा परीक्षा कहते हैं। हिन्दी में यह क्रिया लघु-गुरु मात्रााओं और कतिपय उल्लिखित विशेष नियमों द्वारा होती है। उर्दू में 'तकष्तीअ' रुक्नों द्वारा की जाती है जिसके दो मूल चिद्द 'साकिन' और 'मुतहर्रिक' हैं। हिन्दी के लघु-गुरु मात्रााओं के विषय में हिन्दी-संसार को मुझे कुछ विशेष बतलाने की आवश्यकता नहीं, उसको पिंगल से अल्प परिचित जन भी भली-भाँति समझता और जानता है। यहाँ मुझको रुक्नों और 'साकिन' 'मुतहर्रिक' दो मूल चिद्दों का वर्णन करना है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि दोनों मार्गों में कौन विशेष सरल, बोधागम्य अथच उपयोगी है।

    मैं ऊपर कह आया हूँ कि हिन्दी में छन्द का उदाहृत पद्य ही उसकी धवनि अथवा गति का सूचक होता है। उर्दू में यह बात नहीं है, उसमें यह काम रुक्न करते हैं। 'बाल की खाल काढ़ने वाले' यदि इसकी धवनि उर्दूवाले को बतानी होगी तो वह ''फषइलातुन्-मफषइलुन् फष्ेलुन्'' रुक्नों द्वारा उसको प्रकट करेगा। ऐसे ही सब बÐों के लिए उसमें रुक्न नियत हैं; कभी एक ही रुक्न तीन-चार बार आकर बÐों की धवनि बतलाते हैं और कभी उनके साथ दूसरे-दूसरे रुक्न भी होते हैं। जैसे अकेले 'मफषईलुन्' को चार बार लाने से किसी बÐ का एक मिसरा बनता है, वैसे ही 'मफष््ऊल मफषईलुन्' मफष्ऊल 'मफषईलुन्' से भी किसी दूसरी बÐ का एक मिसरा बन जाता है। ये ही उर्दू बÐों की धवनियों के जनकहैं।

    अब रहा प्रश्न 'साकिन' और 'मुतहर्रिक' का। यह उर्दू में हमारी लघु-गुरु मात्रााओं का काम देते हैं, परन्तु उतने सरल और सुबोधा नहीं हैं। इनमें जटिलता है। 'पद्य-परीक्षाकार' पण्डित नारायणप्रसाद बेताब ने उनका वर्णन उक्त ग्रंथ में हिन्दी पिंगल के ढंग पर किया है; अतएव उसी ग्रंथ से उनके वर्णन को मैं यहाँ अविकल उध्दृत करता हूँ-

    ''साकिन-(1) शब्द के अन्त या मधयवर्ती स्वरहीन अक्षर (व्यंजन) को साकिन कहते हैं। उर्दू में कोई शब्द ऐसा नहीं जो साकिन से शुरू होताहो।

    (2) दीर्घ स्वर दो स्वरों के योग से बनते हैं (जैसे कि अ+अ=आ) इसलिए दो स्वरों का अन्तिम स्वर 'साकिन' होता है। दीर्घ स्वर जिन व्यंजनों में मिल जायगा वह व्यंजन गुरु हो जावेगा। गुरु की दो मात्राा होती है। जैसे जा, की, बू, से, लो, इनमें अन्तिम मात्राा को 'साकिन' जानिए।

    मुतहर्रिक-(1) , , , ऋ स्वयं मुतहर्रिक है।

    (2) जिस व्यंजन में उक्त स्वर सम्मिलित होंगे, वह भी मुतहर्रिक होगा।

    (3) जब दो साकिन समीप आ पड़ते हैं तो दूसरे को मुतहर्रिक मान लेते हैं। उदाहरण-

''किस 'बात्' पर है तेरा दिमागश् आसमान पर।

मंजिश्ल गहे फष्कीरो तवंगर 'जश्मीन्' है।''

    ''इस शेर में बात् का त् और जश्मीन् का न् वास्तव में साकिन हैं, पर साकिन के बाद आने से मुतहर्रिक का स्थान ले रहे हैं। तीन साकिन एकत्रा हो जाते हैं तो दूसरा मुतहर्रिक और तीसरा लोप हो जाता है। जैसे दोस्त, पोस्त को 'तकष्तीअ' में दोस, पोस शुमार करेंगे।''-पद्यपरीक्षा, पृष्ठ 21-22

    उदाहरण के द्वारा इस विषय को मैं और स्पष्ट करना चाहता हूँ। मिजर्श गशलिब के इस मिसरे को देखिए-

''आगे आती थी हाल दिल पर हँसी।''

    हमको इसकी 'तकष्तीअ' करनी है। इसलिए पहिले देखना चाहिए कि इसके रुक्न क्या हैं! इसके रुक्न हैं-

फष इ ला तु न् - म फष इ लु न् - फेष् लु न्

मस म मस म स म मस म म स मस म स

    अब नियम के अनुसार हमको यह देखना है कि इसमें कितने साकिन और कितने मुतहर्रिक हैं, और उनका स्थान क्या है। उक्त रुक्नों में पहिले में 'फष' 'ला' दो दीर्घ और दूसरे व तीसरे में 'फष' 'फेष्' एक-एक दीर्घ हैं। इन सबों का व्यंजनांश मुतहर्रिक और अन्तिम दीर्घांश साकिन (देखो, साकिन का नियम 2) होगा। अतएव उनके नीचे पहिले मुतहर्रिक का छोटा रूप '' और बाद को साकिन का छोटा रूप '' लिखिए। पहिले रुक्न का इ  और तुट्ठ दूसरे रुक्न का इट्ट व लुट्ठ और तीसरे रुक्न का लुट्ठ नियमानुसार मुतहर्रिक हैं (देखिए, मुतहर्रिक का नियम 1, 2)। अतएव उनके नीचे भी '' लिखिए, तीनों रुक्नों के अन्त में स्वरहीन अथवा हलन्त न् है। अतएव वह साकिन है (देखिए, साकिन का नियम1)। अतएव उन पर l लिखिए। अब केवल दूसरे रुक्न का e रह गया, वह मुतहर्रिक के नियम 2 के अनुसार मुतहर्रिक है। अतएव उसके नीचे e लिखिए। रुक्नों के कुल अक्षरों पर साकिन और मुतहर्रिक लिख गए। इसलिए अब यह देखना चाहिए कि रुक्नों में कुल संख्या साकिन व मुतहर्रिक की क्या है और उनमें कितने साकिन और मुतहर्रिक हैं और उनका स्थान क्या है! गिनने पर मालूम होगा कि कुल साकिन और मुतहर्रिक 17 हैं। उनमें से 10 मुतहर्रिक और 7 साकिन हैं। पहले, तीसरे, चौथे, छठे, आठवें, नौवें, ग्यारहवें, बारहवें, चौदहवें और सोलहवें स्थान पर मुतहर्रिक हैं और शेष स्थानों पर साकिन। अब उक्त मिसरे पर भी साकिन मुतहर्रिक के सूक्ष्म रूप ] , को उक्त नियमानुसार लिखिए। यदि उनके साकिन व मुतहर्रिक की संख्या रुक्नों की संख्या के बराबर होें और स्थान भी उनके वे ही हों तो समझिए मिसरा शुध्द है अन्यथा सदोष। नियमानुसार मिसरे पर स म लिखे गये तो उसका निम्नलिखित स्वरूप हुआ-

आ गे आ ती थी हा ल दि ल प र हँ सी

मस मस मस मस मस मस म म स म स म मस

     ^' o '' के गिनने पर ज्ञात हुआ कि उनकी कुल संख्या 20 है, और अलग-अलग मुतहर्रिक की संख्या 11 और साकिन की संख्या 9 है, जो कि रुक्नों की कुल संख्या और साकिन व मुतहर्रिक की अलग-अलग संख्या से अधिाक है। मिलाकर देखिए; दोनों के साकिन मुतहर्रिक के स्थान भी नहीं मिलते। इसलिए मिसरा अशुध्द और सदोष है।

    तो क्या मिजर्श गशलिब ऐसे उस्ताद भी मिसरा गल्त लिख गए? नहीं, यह बात नहीं है। वास्तव बात यह है कि अधिाकांश उर्दू बÐों में हिन्दी के अनेक शब्द शुध्द रूप में नहीं आते। इसलिए 'तकष्तीअ' करने के समय कुछ गुरु-लघु बना दिए जाते हैं और कुछ पूरे शब्द अधाूरे रखे जाते हैं, तब कहीं जाके पूरी पड़ती है और अरकान से उनका मिलान होता है, इस नियम के अनुसार मिसरे का निम्नलिखित रूप होगा-

आ ग आ ती थि हाल दिल प हँसी।

    आप देखें इसमें आगे का गे, ; थी, थि; और पर, i बन गया। जब नियमानुसार उनपर 'साकिन' 'मुतहर्रिक' लिखा गया तो निम्नलिखित रूप हुआ-

अ ग आ ती थि हा ल दि ल प हँ सी

मस म मस मस म मस म म स म स मस

    यह रूप साकिन मुतहर्रिक की संख्या और स्थान दोनों की दृष्टि से रुक्नों के समान है। अतएव सिध्द हुआ कि मिसरा शुध्द है। एक बात और मैं यहाँ प्रकट कर देना चाहता हूँ-वह यह कि जब दो मुतहर्रिक साथ आते हैं तो उर्दू नियमानुसार वे दीर्घ होकर प्राय: गुरु का रूप धाारण कर लेते हैं। अतएव दीर्घ वर्ण के समान ही उनके साकिन और मुतहर्रिक माने जाते हैं। इसी व्यवस्था के अनुसार ऊपर के 'दिल' और 'पहँ' दीर्घ माने गये और दीर्घ वर्ण के अनुसार उनके साकिन मुतहर्रिक का निर्णय किया गया।

    पिंगलसार के रचयिता पृष्ठ 100 में लिखते हैं-

    ''हम, तुम, कब, जब, अब, इस, उस, चल इत्यादि का वास्तविक रूप उर्दू में हम्, तुम्, कब्, जब्, अब्, इस्, उस्, चल् हैं। हल् अक्षर अपने पूर्व को गुरु करके स्वयं नष्ट हो जाता है। इस कारण दोनों लघु भी एक गुरु ही हो जायेंगे।''

    इसका भाव भी लगभग वही है, जो मैंने अभी बतलाया है। साकिन और मुतहर्रिक की जटिलताएँ आपने देख लीं, उनके नियमों की दुरूहता भी समझ ली। मैं समझता हूँ कुछ सज्जन ऊब भी गये होंगे, कुछ उसको ठीक-ठीक समझ भी न सके होंगे। अतएव स्पष्ट को और स्पष्ट करने एवम् हिन्दी-लघु गुरु के नियम की सरलता और सुबोधाता दिखलाने के लिए अब मैं हिन्दी पिंगल के अनुसार रुक्नों के ही सहारे उक्त मिसरे की शुध्दता की जाँच करता हूँ। हिन्दी में पिंगल के नियमानुसार कुल रुक्नों का यह स्वरूप होगा। नीचे मिसरा भी लिखा है-

फष इ ला तुट्ठनट्ठ म फष इ लुट्ठन्ट्ठ फष्े लुट्ठन्ट्ठ

ऽ । ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ ऽ

आ ग आ ती थि हा ल दिल पहँ सी

                  ऽ   ऽ

    ऊपर की क्रिया देखने से ज्ञात हो गया कि यह 17 मात्राा का छन्द है। संशोधिात रूप में मिसरा बिलकुल शुध्द है। पहले रुक्न के तुन् व दूसरे रुक्न के लुन् को दो लघु और फष्ेलुन् को चार लघु लिखकर भी ती, दिल् और प हँसी को मिलावें तो भी कोई अन्तर न पड़ेगा। क्योंकि छन्द मात्रिाक रूप में ग्रहण किया गया है। आप देखें लघु गुरु प्रणाली से कितना शीघ्र और कितना सुगमता से छन्द की जाँच हो गई।

नियमों की अपूर्णता

    अब हम उक्त नियमों की पूर्णता की जाँच करेंगे। साकिन के विषय में कहा गया है कि शब्द के अन्त और मधय में जो हल् वर्ण होगा वह साकिन होगा। यदि शब्द के आदि में हल् वर्ण हो तो क्या होगा? इसका उत्तार यह है कि उर्दू में कोई शब्द साकिन से प्रारम्भ नहीं होता। हिन्दी का 'प्रेम' 'स्नेह' शब्द उर्दू में 'परेम' 'सनेह' हो जावेगा, इसलिए आदि के हल् वर्ण के विषय में कुछ कहना व्यर्थ समझा गया। उर्दू के लिए यह सिध्दान्त ठीक हो सकता है, किन्तु हिन्दीवालों के यह सिध्दान्त 'अव्याप्ति' दोष से दूषित हैं। यदि हम उक्त बÐ में ही यह मिसरा लिखें 'प्रेम का पाँव चूमनेवाले' तो उर्दू के नियमानुसार प्रेम की तकष्तीअ नहीं हो सकती, क्योंकि आदि के हल् वर्ण के विषय में वह कोई नियम नहीं बनाता, और ऐसी अवस्था में हिन्दी के लिए उसकी अपूर्णता प्रकटहै।

    मुतहर्रिक के विषय में एक नियम यह है कि अ, , , ऋ ये चारों स्वर मुतहर्रिक हैं। यही नहीं, ये चारों स्वर जिस व्यंजन में मिले होंगे वे भी मुतहर्रिक होंगे। इसलिए यह सिध्द होता है कि यदि ऐसे वर्णों का नियमानुसार यथास्थान प्रयोग न होगा तो बÐ सदोष हो जावेगी। प्रयोजन यह कि ति, तु, तृ या ऐसे ही और व्यंजन जिनमें इ, , ऋ सम्मिलित हों मुतहर्रिक हैं, अतएव यदि ऐसे व्यंजनों का प्रयोग साकिन के स्थान पर होगा तो रचना दोषयुक्त हो जावेगी, क्योंकि छन्द अथवा बÐ की गति वा धवनि में अन्तर पड़ जावेगा।

    श्रीयुत बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर की सम्मति भी कुछ इसी प्रकार की है। उन्होंने प्रथम अखिल भारतीय कविसम्मेलन के प्रधाान पद से इस विषय में जो कुछ कहा है, उसके विशेषांश नीचे दिए जाते हैं-

    ''फषरसी शब्दों में कतिपय विशेष अवस्थाओं के अतिरिक्त प्राय: दो लघुवर्ण एक साथ नहीं पड़ते। इसीलिए उर्दू छन्द में, हिन्दी के दो लघुवर्ण जब एक साथ आते हैं, तो उनमें से अन्त लघु हलवत् उच्चारित होता है, जिससे उसके पूर्व का लघुवर्ण गुरु हो जाता है।''

    ''पर जब लोग यह समझ कर कि उर्दू छन्दों के किसी गुरु के स्थान पर दो लघु लाने में कोई हानि नहीं है, इकारान्त अथवा उकारान्त शब्द भी उर्दू छन्दों में लाने लगते हैं, तो उनका बिगाड़ बढ़कर लक्षित होने लगता है।''

    ''यद्यपि उर्दू के किसी-किसी छन्द में एक गुरु के स्थान पर दो लघु अथवा दो लघुओं के स्थान पर एक गुरु रख देने से उसकी लय में कोई त्राुटि लक्षित नहीं होती। जैसे उक्त छन्द में जो हरिगीतिका से मिलता है, पर अधिाकांश छन्दों में ऐसा लघु गुरु का परिवर्तन छन्द की गति बिगाड़ देता है।''

    आइए इसकी परीक्षा करें, इसको जाँचें और देखें कि वास्तव में बात क्या है! जिस मुतहर्रिक-स्थानीय व्यंजन में v सम्मिलित हो उसमें कोई झगड़ा न पड़ेगा, क्योंकि उर्दू में वह प्राय: हलन्त मान लिया जाता है। ऐसे ही '' सम्मिलित वर्ण भी बहुत थोड़े मिलेंगे, अतएव परीक्षा में ऐसे वर्णों को लेता हूँ जिनमें b अथवा m सम्मिलित हों। नीचे के पद्यों को देखिए-

    1. कौन सुंदर रुचि न चौगूनी हुई।

              ×             ×             ×

    2. हैं बुरी रुचियाँ बुराई से भरी।

              ×             ×             ×

    3. ठीक धाुनिये के धाुने रूई हुई।

              ×             ×             ×

    4. गिटकिरी जो हो न सुंदर रुचि-भरी।

              ×             ×             ×

    5. राज-मुकुटों पर लगी मोती लड़ी।

              ×             ×             ×

    6. बीज बोते ही नहीं मरुभूमि में।

              ×             ×             ×

    7. है बुरा बहुतायतों में क्यों फँसे।

              ×             ×             ×

    8. और पहुँचाते रहें ठंढक सभी।

    इन पद्यों की धवनि वही है जो ''जब जश्रा गरदन झुकाई देख ली'' की है। इसके अरकान हैं-''फषइलातुन् फषइलातुन् फषइलुन्'' अरकान पर साकिन, मुतहर्रिक लिखने से उनका निम्नलिखित रूप होगा-

      फष इ ला तुन् फष इ ला तुन् फष इ लुन्

      मस e मस मस मस e मस मस मस e मस

      ऽ । ऽ । ऽ । ऽ ॥ ऽ । ऽ

    1. कौ न सुं दर रुचि न चौ गू नी हु ई

    2. हैं बु री रुचि याँ बु रा ई से भ री

    3. ठी क धाुनि ये के धाु ने रू ई हु ई

    4. गिट कि री जो हो न सुं दर रुचि भ री

    5. रा ज मुकु टों पर ल गी मो ती ल ड़ी

    6. बी ज बो ते ही न हीं मरु भू मि में

    7. है बु रा बहु ता य तों में क्यों फँ से

    8. औ र पहुँ चा ते र हें ठं ढक स भी

    ऊपर के कोष्ठक के देखने से ज्ञात होगा कि पहले, दूसरे और चौथे पद्य के रुचि की चि और तीसरे पद्य के धाुनि की नि और पाँचवें पद्य के मुकु का कु छठे पद्य के मरु का # सातवें पद्य के बहु का हु और आठवें पद्य के पहँq का हुँ जो कि इ और उ से सम्मिलित होने के कारण मुतहर्रिक हैं, साकिन का स्थान ग्रहण करते हैं। किन्तु इससे पद्य की धवनि में कोई अन्तर नहीं पड़ा। पद्य में धवनि ही प्रधाान वस्तु है। जब वही नहीं बिगड़ी, एक मात्राा की भी कसर नहीं पड़ी, तब साकिन और मुतहर्रिक के फेर में पड़कर हम पद्य को सदोष नहीं कह सकते। और ऐसी अवस्था में उक्त नियम की अवास्तवता और अपूर्णता स्पष्ट है। एक बात और है, और वह यह कि यदि हम चि के स्थान पर ] नि के स्थान पर , कु, रु, हु, हुँ के स्थान पर क, , , हँ लिख देवें, तो उर्दू कषयदे से उनको हलन्त मानकर उन्हें साकिन मान लिया जावेगा; और तब पद्य निर्दोष हो जावेगा। विचारने का स्थल है कि हिन्दी के लिए यह नियम कहाँ तक उपयोगी है। हिन्दी-पिंगल के अनुसार नि o u अथवा चि o p इत्यादि की एक ही मात्राा है। अतएव वे दोनों अवस्थाओं में समान हैं। फिर उसमें किसी परिवर्तन की क्या आवश्यकता, यह बात भी ऐसी है जो हिन्दी के लिए उक्त नियम को अनुपयुक्त बतलाती है।

    उर्दू के लिए उक्त नियम को उपयुक्त भले ही कहा जावे, किन्तु उर्दू के जो मान्य शोअरा हैं उनको प्राय: उक्त नियम का पालन करते नहीं देखा जाता। आप सबसे पहिले अमीर खुसरो की ''जेश् हाल मिसकीं मकुन तगशफुल दुराय नयना बनाय बतियाँ' यह प्रसिध्द गश्जश्ल लीजिये। इस गश्जश्ल के छ: बन्दों के अन्त में बतियाँ, रतियाँ, पतियाँ, छतियाँ हैं। इस बÐ के अरकान हैं 'फष्ऊल-फष्ेलुन्' चार बार। अन्तिम रुक्म फष्ेलुन् है। इसके नीचे बतियाँ, इत्यादि को रखिए तो ति मुतहर्रिक साकिन का स्थान ग्रहण करती है, '(देखिए निम्नलिखित रेखांकित)' अतएव कुल की कुल गश्जश्ल सदोष हो जाती हैं, किन्तु यह मानने के लिए क्या उर्दू शोअरा तैयार होंगे! इसी गश्जश्ल के तीसरे, पाँचवें, सातवें और नौवें बन्द के अन्त में क्रमश: कोतह, तसकीं, ऑंमह और खुसरो शब्द हैं जो कि शुध्द हैं। अतएव 'बतियाँ' इत्यादि को भी उन्होंने शुध्द ही समझ कर लिखा है। उनको अशुध्द कदापि नहीं माना है। क्योंकि उससे धवनि में अन्तर नहीं पड़ता-

    फेष् लुन् फेष् लुन् फष्े लुन् फष्े लुन् फष्े लुन्

    मस मस मस मस मस मस मस मस मस मस

    बति याँ को तह तस कीं ऑं मह खुस रो

    निम्नलिखित पद्यों को भी देखिए-

    1-घड़ियाल थे रोदबार में सुस्त।

    2-बटिया है न है सड़क नमूदार।-हाली

    3-रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो।

    4-पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार।

    5-तोप खसकी तो प्रोफष्ेसर पहुँचे।-अकबर

    6-दश्त से कब वतन को पहुँचूँगा।

    7-कि छठा अब तो साल आ पहुँचा।-नासिख़

    पहले दोनों पद्य के अरकान हैं 'मफष््ऊल्, मफषइलुन्, फष्ऊलुन्' अतएव पहला रुक्न 'मफष््ऊल्' है जिसका दूसरा अक्षर साकिन है, परन्तु उक्त दोनों पद्यों का दूसरा अक्षर इकार युक्त होने के कारण मुतहर्रिक है, साकिन नहीं। तीसरे, चौथे पद्य के अरकान हैं-'फषइलातुन्, फषइलातुन्, फषइलातुन, फषइलुन्' पहिला रुक्न फषइलातुन् है, फष का व्यंजनांश मुतहर्रिक और दीर्घांश नियमानुसार साकिन है, अतएव रहिये के हि और पड़िये के ड़ि को साकिन होना चाहिए। पर दोनों मुतहर्रिक हैं। पाँचवें और सातवें पद्यों के अरकान हैं-''फषइलातुन्; मफषइलुन्, फष्ेलुन्', अतएव उनका अन्तिम रुक्न 'फष्ेलुन्' है। फष्े का द्वितीयांश साकिन है, पर पाँचवें और सातवें पद्य में उसके स्थान पर पहुँचे और पहुँचा का 'हुँ' है जो कि मुतहर्रिक हैं। छठे पद्य के अरकान वे ही हैं जो पाँचवें और सातवें के हैं। इस लिए 'मफषइलुन्' के 'लुन्' का स्थान वही है जो पद्य के पहुँ का स्थान है, न् साकिन है, अतएव हुँ को भी साकिन होना चाहिए किन्तु वह मुतहर्रिक है। अत: सब पद्य सदोष हैं, जो कि बड़े-बड़े मान्य शायरों के हैं। किन्तु धवनि शुध्द होने के कारण उन लोगों ने इधार दृष्टि नहीं दी है, और न देना चाहिए था, क्योंकि धवनि ही प्रधाान वस्तु है। जब उर्दू के शोअरा ही उक्त नियम की उपेक्षा करते आये हैं तो हिन्दी में वह नियम कैसे ग्राह्य हो सकता है। मुख्य कर उस अवस्था में जब कि उसके नियम इस विषय में पूर्ण हैं। वास्तव बात यह है कि किसी शास्त्रा का एक पारंगत विद्वान् नियम का पालक होकर भी उसका परिष्कारक होता है और स्थान विशेष तथा उपयुक्त स्थलों पर समुचित स्वतन्त्राता ग्रहण करने में भी संकुचित नहीं होता, चिरअभ्यस्त और अभ्यासपरायण में अन्तर होता है। प्रथम कभी-कभी स्वतन्त्राता ग्रहण कर उन्मुक्त पथ का पथिक बनता है और एक आदर्श उपस्थित करता है। किन्तु द्वितीय का नियमित पथ पर सतर्क होकर चलना ही उसकी सिध्दि-प्राप्ति का साधान होता है। अनेक सहृदय धवनि के सहारे ही ऐसी सुन्दर और निर्दोष कविता कर जाते हैं कि जैसी पिंगल-पथ में फूँक-फूँक कर पाँव रखने वाला भी नहीं कर सकता, एक ऐसे ही सहृदय का यह कथन है-

''शेर मी गोयम बेहजश् आबेहयात।

मन न दानम फषइलातुन् फषइलात।''

    हाली, अकबर और नासिख़ के उक्त पद्य कुछ ऐसे ही भावों के परिणामहैं।

    जिस नियम के विषय में मैं इस समय लिख रहा हूँ, उसकी उपयोगिता पर मैं एक प्रकार से और प्रकाश डालूँगा, मेरे इस ग्रन्थ में निम्नलिखित पद्य भीहैं-

    1. सिर बने चालाक परले सिरे के।

              ×                  ×                ×

    2. साथ तो कनफूल का ही रहेगा।

              ×                  ×                ×

    3. हम कहेंगे और मुँह पर कहेंगे।

      इन पद्यों के अरकान हैं-'फषइलातुन्-फषइलातुन्' फषइलुन अन्तिम

                           ऽ । ऽ

      फषइलुन् का रूप है मस म मस। किन्तु पद्यों के अर्न्तिमांश

                           । ऽ ऽ

'सिरे के', 'रहेगा' और 'कहेंगे' का रूप है, म मस मस, दूसरे स्थान पर साकिन के बजाए मुतहर्रिक और तीसरे स्थान पर मुतहर्रिक के बजाए साकिन है। इसलिए पद्य सदोष कहे जा सकते हैं, किन्तु मैं उनको सदोष नहीं मानता। उन्नीस मात्राा के छन्दों में उनका रूप क्रमश: 558वाँ, 426वाँ, 935वाँ है। उनकी धवनि भी नहीं बिगड़ती। फिर उन्हें सदोष मानने का कोई कारण नहीं। यह मैं स्वीकार करूँगा कि कभी-कभी गुरु के स्थान पर लघु और लघु के स्थान पर गुरु लिख जाने पर छन्दोगति में कुछ अन्तर पड़ जाता है। जैसा कि इनमें हुआ है, किन्तु अनेक अवस्थाओं में आचार्यों द्वारा यह स्वीकार नहीं किया गया है, क्योंकि अन्तर बहुत सूक्ष्म होता है, और उसका प्रभाव छन्दोगति पर अति सामान्य पड़ता है। मैं इसके कुछ प्रमाण दूँगा। निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

    1. उलटा जपत कोल ते भये ऋषिराउ।

              ×                    ×             ×       गो. तुलसीदास

    2. नाम भरोस नाम बल नाम सनेहु।

    कोल और नाम के स्थान पर 'लको o मना पढ़कर, देखिए, उस समय रहस्य समझ में आ जायगा; उर्दू में इस प्रकार के प्रयोग बहुत मिलते हैं।

    1. वही भी काम नहीं करती नसीहत कैसी।'

              ×                 ×                    ×

    2. 'कहीं मजश्लूम की फष्रियाद रसी काम उसका।'

                   ×                       ×                           ×

    3. 'वही इक शै है कि है अदल कहीं नाम उसका।'

                   ×                       ×                           ×

    4. 'कभी ठहराते हैं गादिश को जमाने की बुरा।'

                   ×                       ×                           ×

    5. 'कभी सरकार को कहते हैं कि है बे परवा।'

                   ×                       ×                           ×

    6. 'हुइर्र् तकलीफष् से या चैन से औकषत बसर।'

                   ×                       ×                           ×

    7. 'सगे भाई से वह छिपाता है।'-हाली

                   ×                       ×                           ×

    8. 'कही तारीख़ दुखतरे मोमिन।'-मोमिन

    ऊपर के छ: पद्यों के अरकान हैं, ''फषइलातुन् फष्इलातुन्, फष्इलातुन् फष्ेलुन्'' उनमें से आदिम रुक्न है 'फषइलातुन्' जिसके आदिम अक्षर हैं। फषइ अर्थात् मस म (ऽ।) किन्तु (वही, कहीं, कभी, हुई, हैं, म मस=। ऽ) प्रयोजन यह कि छओं पदों में दीर्घ के बाद Ðस्व चाहिए। परन्तु सबों में Ðास के बाद दीर्घ है। सातवें आठवें पद्य के अरकान हैं-

''फषइलातुन् मफषइलुन् फष्ेलुन्''

           अतएव उक्त नियमानुसार इन पद्यों के आदि में भी पहले दीर्घ तब Ðस्व होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं है। यदि कहा जावे कि 'फषइलातुन्', के स्थान पर 'फष्इलातुन्' भी हो सकता है, और ऐसी अवस्था में दीर्घ वर्णों को Ðस्व अथवा गुरु को लघु पढ़ने से ही काम चल जावेगा और पद्य में वह दोष न रह जावेगा, जो दिखलाया गया है, तो मैं यह कहूँगा कि ऐसा कहकर साधाारण दोष छिपाने के लिए महान दोष का दोषी होना होगा क्योंकि · (ये) बिलकुल गिर जावेगी, मैं इस कथन को युक्तिसंगत नहीं मान सकता। वास्तव बात यह है कि नियमों की दृष्टि से वे अशुध्द हैं; किन्तु उर्दू के उस्तादों के द्वारा ही वे लिखे गये हैं। इसका कारण क्या है? कहा जा सकता है कि भ्रम प्रमाद है। परन्तु क्या सभी पद्यों में भ्रम प्रमाद हुआ है? मौलाना हाली का जो 'काव्य-संग्रह' इण्डियन प्रेस प्रयाग में छपा है उसमें बहुत से पद्य ऐसे हैं। इसलिए मैं भ्रम प्रमाद की बात नहीं मान सकता। वास्तव बात यह है कि धवनि पर दृष्टि रखकर ये पद्य लिखे गये हैं। नियम के प्रतिकूल वे अवश्य हैं, किन्तु धवनि ने नियम पर दृष्टि डालने का अवसर नहीं दिया। अन्तर इतना सूक्ष्म है जो न होने के बराबर है। अतएव उस पर दृष्टि न जाना स्वाभाविक था। हिन्दी-पिंगल इसी स्वाभाविकता का प्रचारक है। वह नियम में बाँधाता है। किन्तु बहुत कुछ स्वतन्त्राता भी देता है। जिन पद्यों को मैंने ऊपर लिखा है; जिनका अन्तिम रूप ऽऽ यह है, वह हिन्दी पिंगल के अनुसार धवनिमूलक है। अतएव मैंने उनको ग्रहण कर लिया है। साथ ही मैंने यह भी प्रतिपादन कर दिया है कि इस प्रकार धवनिमूलक पद्यों के लिखने में उर्दू के प्रसिध्द पद्यकारों ने भी साधाारण नियमों की उपेक्षा की है। यह बात भी यही बतलाती है कि धवनि हम चाहे जहाँ से लें, किन्तु उस पर शासन हिन्दी-पिंगल का ही रहना चाहिए, मुख्यत: उस अवस्था में जब कि वे हमारे ही छन्दों के रूपान्तरहों।

छन्दोगति के अनुसार शब्दोच्चारण

    इसी स्थल पर मैं एक बात और प्रकट कर देना चाहता हूँ। वह यह कि कभी-कभी पद्य में ऐसे शब्द आ जाते हैं, जिनको छन्दोगति के अनुसार पढ़ना पड़ता है। प्रयोजन यह कि जिस प्रकार उनका उच्चारण होता है, उस प्रकार उनका उच्चारण न कर छन्दोगति की रक्षा के लिए उन्हें सँभाल कर पढ़ना पड़ता है। वाल्मीकि रामायण के निम्नलिखित श्लोकों को देखिए-

'तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।'

×        ×        ×

'इक्ष्वाकूणामतिरथो यज्वाधार्मपरो वशी।'

×        ×        ×

'पितृशुश्रूषणरता धानुर्वेदे च निष्ठिता:।'

×        ×        ×

'पुरे कोशे जनपदे बान्धावेषु सुहृत्सु च।'

×        ×        ×

'इयं सीता मम सुता सहधार्मचरी तव।'

×        ×        ×

'सा तु ताराधिापमुखी रावणेन निरीक्ष्यताम्।'

    चिद्दित वाक्यों को यदि निम्नलिखित प्रकार से पढ़ें तो छन्दोगति की पूरी रक्षा होगी-

    रामाय-णकथा, कूणाम-तिरथो, शुश्रूष रणरता, कोशेज-नपदे, सीताम-मसुता, ताराधिा-पमुखी।

    किन्तु अर्थ कुछ न होगा। अतएव इनको इस प्रकार पढ़ना चाहिए कि उच्चारण शुध्द हो, परन्तु छन्दोगति भी ठीक रहे। इस प्रकार का प्रयोग भाषा में भी मिलता है। यथा-

'कुंकुम तिलक भाल òुति कुंडल लोल।'

'सिय तुअ अंग रंग मिलि अधिाक उदोत।'

-गो. तुलसीदास

×××

सफरिन भरे रहीम सर बक बालकनहिं योग।

-रहीम

    चिद्दित वाक्यों को निम्नलिखित रीति से पढ़ा जावे तो छन्दोगति की पूरी रक्षा होगी, परन्तु अर्थ में व्याघात होगा। अतएव सँभाल के ही पढ़ना पड़ेगा।

      ''कंकुमतिल-कभाल, सियतु-अअंग, बालक नहिं''

      कुछ उर्दू के भी उदाहरण लीजिए-

    1-'थीं लोमड़ियाँ जश्बाँ निकाले।'

              ×       ×       ×

    2-'समझो ऑंखों की पुतलियाँ सबको,'

              ×       ×       ×

    3-'तो वह महकमा जिसका काजश्ी खुदा है।'

    लोमड़ियाँ को लोम-ड़ियाँ, पुतलियाँ को पुत-लियाँ और महकमा को मह-कमा पढ़ने से ही वह शुध्द रहेगी, नहीं तो सदोष हो जावेगी; किन्तु यह शुध्द उच्चारण उन शब्दों का नहीं है तथापि वे इसी रूप में गृहीत हैं। पिंगल के नियमों का पालन करके भी कभी-कभी कवि ऐसे ही झगड़ों में पड़ता है, और विवश होकर आवश्यकतावश ऐसे शब्दों का प्रयोग करने के लिए बाधय होता है। यह प्रणाली चिरप्रचलित है। और प्राय: सब भाषाओं में गृहीत है। इस प्रकार के प्रयोग से महाकवि भी नहीं बच पाए हैं। छिद्रदर्शीजन प्राय: इस प्रकार के प्रयोगों को उठाकर दिल के फफोले फोड़ते हैं और मनमानी जली-कटी सुनाते हैं; साथ ही यह भी कहते हैं कि इस प्रकार का शब्द-विन्यास कवि की असमर्थता प्रकट करता है। वे नहीं सोचते कि इस प्रकार का आचरण किसी विशेष कारण ही से कोई कवि अथवा महाकवि करता है। चाहिए कि ऐसे प्रयोगों पर गहरी दृष्टि डाली जावे और तह की मिट्टी लाई जावे। उस समय यह ज्ञात हो जावेगा कि सहòों पद्यों में समर्थता प्रकट करके कोई कवि यथाशक्य असमर्थता प्रकट करने का इच्छुक न होगा। भ्रम प्रमाद की बात दूसरी है।

    इस प्रकार के कतिपय पद्य इस ग्रन्थ में भी हैं, यथा-

    1-'ऍंतड़ियाँ क्यों निकाल लेंवें हम।'

              ×       ×       ×

    2-'कब भला मार सेंत-मेंत पड़ी।'

              ×       ×       ×

    3-'किस तरह ठीक ठीक वह होगा।'

              ×       ×       ×

    4-'खुरचते देखकर उसे खुरचन।'

              ×       ×       ×

    ऍंतड़ियाँ को ऍंत-ड़ियाँ, सेंतमेंत पड़ी को सेंतमें-तपड़ी, ठीक ठीक वह को ठीकठी-कवह खुरचते को खुर-चते पढ़ने से ही छन्दोगति शुध्द रहेगी; अतएव ऐसे पद्यों को सँभाल कर इस भाँति पढ़ना चाहिए कि शब्द शुध्द पढ़े भी जावें और छन्दोगति में भी अन्तर न पड़े। ऐसे दश-पाँच पद्य ग्रन्थ से निकाल भी दिए जा सकते थे, परन्तु इस विषय में भी कुछ कथन की आवश्यकता थी, इस चिर-प्रचलित प्रणाली पर प्रकाश डालना प्रयोजनीय था। अतएव ग्रन्थ में उनको रहने दिया गया। किन कारणों से ऐसे प्रयोग पद्यों में हुए हैं, उनको पाठक पूरा पद्य पढ़कर ही जान सकते हैं। उनके विषय में कुछ लिखना बाहुल्यमात्रा है। मुहाविरे की रक्षा करने और पद्य को अलंकृत करने के लिए ही ऐसा किया गया है। यद्यपि अन्तर अत्यन्त सूक्ष्म है, और उससे धवनि में नाममात्रा की ही कसर है, किन्तु वास्तव प्रकट करना, उपयोगी समझ कर इस विषय में इतना लिखा गया।

    यहाँ कहा जा सकता है कि च्युति, च्युति है, कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो उसके फिसलने की अनुगामिता नहीं की जा सकती। यह सच है। किन्तु यह च्युति अथवा फिसलन नहीं है। यह भावसौंदर्य अथवा किसी अभिप्रेत विषय की अभिव्यक्ति के लिए समुचित स्वतन्त्राता-ग्रहण अथवा नियमों से जकड़ी हुई छन्दोगति में किसी मनोराग के यथातथ्य प्रकट करने का सहज साधान है। तथापि यह अवश्य ग्रहणीय पथ नहीं है। अनिच्छा होने पर यह प्रणाली त्याग दी जा सकती है।

हिन्दी शब्दों पर उर्दू-छन्दों के नियम का प्रभाव

    एक विषय और कहने को रह गया, वह यह कि उर्दू के वाक्य-विन्यास पर साकिन-मुतहर्रिक का क्या प्रभाव पड़ा है। प्रयोजन यह कि साकिन-मुतहर्रिक के शासन में रहकर उर्दू रचनाओं में अन्य भाषा विशेषत: हिन्दी के शब्दों की क्या दशा हुई है। इस बात की विवेचना के लिए निम्नलिखित विषयों की आलोचना आवश्यक है-

    (1) दीर्घ वर्णों का Ðस्व अथवा गुरु का लघु उच्चारण।

    (2) अनेक पूरे लिखे सर्वनामों, कारकों और उपसर्गों का अधाूरा उच्चारण और कभी उनका अपूर्ण व्यवहार।

    (3) एक ही शब्द का विभिन्न प्रयोग।

    (4) कुछ अन्यान्य बातें।

    अब पहिले विषय को लीजिये। हिन्दी में भी कभी-कभी दीर्घ वर्णों का Ðस्व उच्चारण होता है। कवि प्रिया में आचार्य केशव की यह आज्ञा है-

''दीरघ लघु करिके पढ़ै सुखही मुख जेहि ठौर।

तेऊ लघु कर लेखिये केशव कवि सिरमौर।''

    किन्तु ऐसा अवसर बहुत कम आता है। वर्णवृत्ता में तो ऐसा प्रयोग होता ही नहीं, अधिाकांश मात्रिाक छन्द भी इस दोष से मुक्त होते हैं। केवल सवैयाओं में इसका विशेष व्यवहार देखा जाता है। कोई-कोई सवैया में भी ऐसा प्रयोग करना पसन्द नहीं करते। बात यह है कि हिन्दी में कई शब्द ऐसे हैं कि जिनमें दीर्घ वर्ण को Ðस्व की भाँति बोला ही जाता है। जैसे कोहार, लोहार, जेहि, तेहि इत्यादि। ऐसे लघु बोले जानेवाले दीर्घ चिद्दों के लिए कोई विशेष चिद्द हिन्दी में नहीं हैं। अतएव उनका उच्चारण जो नहीं जानते वे प्राय: भटक जाते हैं। इसीलिए डॉक्टर जी.ए. ग्रियर्सन ने एक वक्रचिद्द निर्माण किया था, वे कोहार के को और तेहि के ते को इस प्रकार लिखते थे-'काश्., श्.'। किन्तु उसका प्रचार नहीं हुआ। प्रचार भले ही न हो, पर कोहार, लोहार जिनकी भाषा के शब्द हैं, वे उनका उच्चारण भली-भाँति जानते हैं।

    अतएव ऐसे शब्दों के उच्चारण में तो दीर्घ को लघु नहीं करना पड़ता क्योंकि वे स्वत: उसी रूप में उच्चरित होते हैं। परन्तु कभी-कभी ऐसे दीर्घ वर्ण भी पद्यों में आते हैं जो यत्न करके लघु पढ़े जाते हैं। गोस्वामीजी के इस पद्य में कि 'तेहि अवसर सीता तहँ आई'', तेहि के 'ते' को लघु नहीं करना पड़ा है, वरन् वही उसका यथार्थ उच्चारण है। यही बात नीचे के पद्यों में भी है। इन पद्यों के साहेब और कोइलिया के हे और dkे को Ðस्व ही बोला जाता है-

''साहेब कहूँ न राम से तोसे न वसीलै-तुलसी

×       ×       ×

''भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वत ताप''-रहीम

    परन्तु निम्नलिखित पद्यों में आप देखें, दीर्घ को नियमानुसार लघु बनाया गया है। जो वर्ण चिद्दित हैं, उन्हें लघु पढ़ना होगा।

'हाँक सुनत दसकंधा के भये बंधान ढीले।'-तुलसीदास

×       ×       ×

'हरीचन्द ऐसे हि निबहैगी होनी होय lkे होय।'

'नई प्रीति नये चाहनवारे तुमहूँ नये सुजान।'

    आप देखें उक्त पद्यों में कुछ वर्णों को दीर्घ से लघु बनाया गया है, किन्तु कितनी सुविधाा के साथ। धवनि के प्रवाह में उसका ज्ञान तक नहीं होता। हिन्दी में यह प्रयोग अत्यन्त परिमित है, किन्तु उर्दू में इस प्रकार का प्रयोग बहुतायत से होता है। जहाँ हिन्दी में 100 में कठिनता से दो-एक पद्य ऐसे मिलेंगे, वहाँ उर्दू में प्रतिशत 95 पद्य ऐसे पाए जाएँगे। जहाँ हिन्दी के वर्णवृत्ता में इस प्रकार के प्रयोग का लेश भी नहीं है, वहाँ उर्दू की कोई बÐ ऐसी नहीं जो इस दोष से मुक्त हो। मिजर्श गशलिब के निम्नलिखित पद्य को देखिए-

''कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर नीम कश को।

यह खलिश कहाँ से होती जो जिगश्र के पार होता।''

    इसका शुध्द रूप है-

''कइ मेर दिल l पूछे तर तीर नीम कश को।

; खलिश कहाँ l होती t जिगश्र d पार होता।''

    इस दो बन्द के पद्य में आठ स्थान पर परिवर्तन हुआ है। शब्द का रूप कितना विकृत हो गया है, वे किस बेदर्दी से तोड़े-मरोड़े गये हैं, इसको आप लोग स्वयं समझ सकते हैं।

    यही दशा अधिाकांश उर्दू-पद्यों की होती है। और उदाहरण देना अनावश्यक है। हिन्दी और उर्दू का प्रत्येक अनुभवी विद्वान् इस बात को जानता है। आचार्य केशव कहते हैं कि जिस दीर्घ को मुख सुखपूर्वक अर्थात् आसानी से Ðस्व कर लेता है, उसको भी लघु मानना चाहिए। ऊपर के शेर में इस सिध्दान्त की सार्थकता कहाँ तक हुई है, इसको सहृदयगण स्वयं समझ सकते हैं।

अब दूसरे विषय को लीजिये। निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

    1-'यह मसायले तसव्वुफ यह तेरा बयान गशलिब।'

    2-'तुझे हम वली समझते tkे न बाद: ख्वार होता।'-गशलिब

    3-'कीजिए तसनीफष् और तालीफष् में सइये बलीगश्।'

    4-'इसमें एक अपना पसीना और लहू कर दीजिये।'

    5-'और न हो गश्र शेरो इंशा की लियाकत आप में।'

    6-'शाइरे और मुंशियों पर नुक्ताचीनी कीजिए।'

    7-'जिसको हैवाँ पर दे सकें तरजीह।'

    8-'जब पड़े उनपर गर्दिशे अफष्लाकA*-हाली

    9-'इस सादगी पर कौन न मर जाय ऐ खुदा।'

    10-'उसीको देख कर जीते हैं जिस कषफिर पर दम निकले।'-गशलिब

    11-'जल्लाद को लेकिन वह कहे जाँय कि हाँ और।'-गशलिब

    12-'वह थकते हैं और चैन पाती है दुनिया।'-हाली

    पहिले पद्य में दो यह लिखे हैं परन्तु पढ़ने में दोनों ; आता है। दूसरे पद्य का जो t पढ़ा जाता है। तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे पद्य में जितने और आये हैं वे सब केवल पढ़े जाते हैं। सातवें, आठवें, नौवें, दसवें, पद्य में पर लिखा है किन्तु i पढ़ा जाता है। ग्यारहवें और बारहवें पद्य का वह केवल o पढ़ने में आता है। इस प्रकार का प्रयोग उर्दू पद्यों में बहुत मिलेगा। अब यह, वह और पर के स्थान पर ] ] i भी लिखने लगे हैं, किन्तु tkे के स्थान पर t एवं और के स्थान पर केवल vkै लिखना अब तक प्रारम्भ नहीं हुआ है। दोनों अवस्थाओं में सर्वनामों और अव्ययों पर जो व्यावहारिक अत्याचार होता है, वह स्पष्ट है। गद्य में कभी पद्य के अनुसार न तो अव्यय और सर्वनाम पढ़े जाते हैं, और न उनका संक्षिप्त और अर्ध्द रूप ही लिखा जाता है, परन्तु पद्य में दोनों प्रकार के अशुध्द प्रयोग गृहीत हो गये हैं। यह नहीं है कि कथित सर्वनामों और अव्ययों का शुध्द व्यवहार पद्यों में नहीं होता; होता है, परन्तु अल्प। नीचे के पद्यों को देखिए इनमें उक्त सर्वनामों और अव्ययों का शुध्द प्रयोग हुआ है-

    1-'कमाते हैं वह और खाती है दुनिया।'

×       ×       ×

    2-'दौलत की हविस अस्ल गदाई है ;g'

×       ×       ×

    3-'सामान की हिर्स बेनवाई है ;g'

×       ×       ×

    4-'वीराँ है बागश् तिस पर फूली नहीं समाती।'

×       ×       ×

    5-'जाे काम है उनका यही इनआम है गोया।'-हाली

    कहा जाता है कि इस प्रकार शब्दों की काट-छाँट अथवा उनका अपूर्ण उच्चारण नियमानुकूल है, और इनको मकतूबी कहते हैं। परन्तु हिन्दी में इस प्रकार का प्रयोग सदोष माना जाता है। बहुत से नियम आवश्यकतानुसार बना लिये जाते हैं। किन्तु वे निर्दोष नहीं होते, उनका उद्देश्य-निर्वाह-मात्रा होता है। संस्कृत में भी इस प्रकार का एक नियम है, ''अपि माषं मषं कुर्यात् छन्दोभंग न कारयेत्।'' किन्तु दोनों की व्यापकता और उद्देश्य में बड़ा अन्तर है।

    अब तीसरे विषय को लीजिये। समस्त शब्दों का एक रूप और यथार्थ उच्चारण होता है। उसका उसी रूप में उच्चारण और प्रयोग उचित है। अन्यथा चरण दूषित समझा जाता है। उर्दू में इसकी पर्वा कम की जाती है। उर्दू का एक शब्द है-उम्मेद। इसको इसी रूप में लिखा जाना चाहिए, किन्तु कभी इसे 'उम्मेद' और कभी 'उमेद' लिखते हैं। निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

    1-'मुनहसिर मरने प हो जिसकी उमेद'

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    2-'नाउमेदी उसकी देखा चाहिये।'

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    3-'देखे ऐ उमेद, कीजो हम से न तू किनारा।'

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    4-'नहीं उम्मेद कि गुजश्रे किसी ख़ातिर प गिराँ।'

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    5-'वह उम्मेद क्या जिसकी हो इम्तिहा।'-हाली

    'तरह' एक शब्द है, उसको कभी 'तरह' लिखते हैं कभी 'तर्ह'। देखिए-

    1-'जो उनमें तेजश् होश हैं सौ-सौ तरह से वह।'

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    2-'कि सदा कैष्द रहें मुर्गश् खुश इलहाँ की तरह'

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    3-'जा के बिक जाँय कहीं यूसुफेष् कनऑं की तरह'

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    4-'हमारी तर्ह से होना है एक रोजश् फष्कीर।'

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    5-'नफष्स जिस तर्ह बने लायके ख़िदमत हो जाय।'

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    6-'की है मर्दों ने इसी तर्ह से दुनियाँ में गुजश्र।'-हाली

    शुध्द शब्द 'मिसी' है, फषरसी का शेर है-

'मिसी मालीदा बर लब रंग पानस्त'

    मगर इसी शब्द को कभी 'मिसी' और कभी 'मिस्सी' लिखते हैं, देखिए-

'मिसी मालीदा लब पै रंग पाँ है।'

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'तमाशा है तहे आतश धाुऑं है।'

'कबूद रंग है मिस्सी का मेरे होठ हैं लाल।'-नासिख़

    एक ही पद्य में इन्सान का दो प्रयोग देखिए-

'रब्त इन्सान से करता जो वे इन्साँ होता।'

    'जान' के प्रयोग को देखिए। मिजर्श गशलिब लिखते हैं-

'जाँ' क्यों निकलने लगती है तन से दमे सेमाअ।'

×       ×       ×

'तेरे वादे पर जिये हम तो य जान छूट जाना।'

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'जान भी दी हुई उसीकी थी।'-गशलिब

    जश्मीन को कभी जश्मीन और कभी जश्मीं, आसमान को कभी, आसमान और कभी आसमाँ, जहान को कभी जहाँ और कभी जहान लिखा जाता है। जहाँ सरफष् नहो के नियमानुसार ऐसा प्रयोग होता है, उसके विषय में मेरा कुछ वक्तव्य नहीं है। किन्तु जहाँ बÐों के बखेड़े से ऐसा प्रयोग होता है वही दूषित है। जिस स्थान पर हम गद्य में आसमान, जान, इत्यादि पढ़ते हैं वैसे ही स्थान पर पद्य में आसमाँ और जाँ इत्यादि पढ़ा जाना समुचित नहीं हो सकता; और उसी के विषय में मेरा तर्क है। इस प्रकार की जटिलता का प्रयोग बहुत नियम की जटिलता का बोधाक है। मैंने यही दिखलाने के लिए इन कतिपय पंक्तियों को लिखा है। यद्यपि उदाहरण में मैंने थोड़े शब्द दिए हैं, परन्तु ऐसे बहुत से शब्द बतलाए जा सकते हैं।

    अब चौथे विषय को लीजिये। अन्य बातें बहुत-सी लिखी जा सकती हैं। परन्तु मैं केवल एक ही बात की चर्चा यहाँ करूँगा। क्योंकि स्थान का संकोच है; लेख बहुत बढ़ गया। उर्दू में एक मात्राा की वृध्दि प्राय: अन्त में कर दी जाती है। परन्तु बÐ वही बनी रहती है। अर्थात् अन्त की एक मात्राा की वृध्दि से बÐ में कोई अन्तर नहीं होता। प्राय: किसी शेर का एक मिसरा तो बÐ के अनुसार होता है, और दूसरे मिसरे में एक मात्राा की वृध्दि हो जाती है, तथापि उसमें कोई परिवर्तन नहीं समझा जाता। यथा-

''हुए बाल गफष्लत में सर के सफेद।

उठो मीर जागो सहर हो गई।''

    पहिले मिसरे में एक मात्राा की वृध्दि नहीं मानी गई, ऐसे पद्य बहुत से दिखलाए जा सकते हैं। दो पद्य और देखिए-

    1-   'काँटा है हरएक जिगर में अटका तेरा।

हलकष है हरेक गोश में लटका तेरा।

माना नहीं जिसने तुझको जाना है जश्रूर।

भटके हुए दिल में भी है खटका तेरा।''

×       ×       ×

    2-   'मुमकिन य नहीं कि हो बशर ऐब से दूर।

पर ऐब से बचिये ताबमकष्दूर जश्रूर।

ऐब अपने घटाओ प ख़बरदार रहो।

घटने से कहीं उनके न बढ़ जाय गश्रूर।''

           पहिले पद्य में तीन चरणों की मात्राा एक है। केवल तीसरे चरण में एक मात्राा की वृध्दि हुई है। दूसरे पद्य में तीसरा चरण जितने मात्राा का है, उससे शेष तीन चरणों में एक-एक मात्राा अधिाक है। कहा जाता है कि संस्कृत श्लोकों में जैसे अन्तिम हलन्त वर्ण की गणना नहीं होती उसी प्रकार उर्दू-बÐों की अन्तिम एक मात्राा की वृध्दि, वृध्दि नहीं कही जाती। संस्कृत के वृत्ता वर्णिक होते हैं, उनमें हलन्त वर्ण अग्राह्य हो सकता है। किन्तु मात्रिाक छन्दों में इस वृध्दि का त्याग नहीं हो सकता। हिन्दी में एक मात्राा की वृध्दि से अनेक छन्द बनते हैं, और उनके अनन्त रूप होते हैं। ताटंक छन्द में एक मात्राा की वृध्दि से वीर बनता है। और वीर में एक मात्राा बढ़ाने से त्रिाभंगी हो जाता है। ताटंक का कुल रूप होता है 1346269; वीर का 2678309 और त्रिाभंगी का 3524578। आप देखें एक मात्राा की वृध्दि से लाखों की वृध्दि होती है। अतएव एक मात्राा की वृध्दि कुछ प्रभाव नहीं रखती, यह बात नहीं कही जा सकती। यह बात भी ऐसी है जो हिन्दी के लिए उर्दू बÐों के नियमों की अनुपयोगिता सिध्द करती है।

शेष वक्तव्य

    विचारणीय विषय यह था कि उर्दू बÐों के नियम यदि पिंगल के छन्दोनियम से सरल, सुबोधा और उपयोगी होवें तो वे क्यों न ग्रहण किये जावें! इस विषय की अब तक जो मीमांसा की गयी है, उससे यह स्पष्ट हो गया कि छन्दोनियम उर्दू-बÐों के नियम से कहीं सरल और सुबोधा अथच उपयोगी हैं। जितनी ही उर्दू वÐ के नियमों में जटिलता है, उतनी ही छन्दोनियमों में सुबोधाता और सरलता है। यदि बÐों के नियम बीहड़ों के पेचीले मार्ग हैं तो छन्दोनियम राजपथ हैं। मैंने उर्दू बÐ के नियमों की जाँच पिंगल-नियमों के अनुसार की है, और दोनों का मिलान भी किया है, उनका गुण-दोष भी दिखलाया है। अतएव तर्क का स्थान शेष नहीं है। तथापि यह कहा जा सकता है कि उर्दू-बÐों को उर्दू नियमों की कसौटी पर कसना चाहिए; और उसी की दृष्टि से उसके गुण दोषों का विवेचन होना चाहिए। पद्यपरीक्षाकार पृष्ठ 18 में इसी विषय पर यह लिखते हैं-

    ''तकष्तीअ करते समय आवश्यकता हो तो गुरुवर्ण को लघु मान लेते हैं। हिन्दी में भी यह छूट जारी है, परन्तु अन्तर यह है कि हिन्दीवाले-किसी-किसी छन्द में इस छूट से लाभ उठाते हैं; वर्णवृत्ताों में कदापि नहीं, और उर्दूवाले हर बÐ में। भी का भि, किसी का किसि, से का स, थे का थ, मेरी को मिरी, मेरि मिरि, इसी तरह तेरी को भी। मेरा को मेर, मिरा, मिर इसी तरह तेरा को भी। यह वे को व, वह, वो को व मानने में हानि नहीं। यह घटाना-बढ़ाना अन्धााधाुन्धा नहीं, नियत नियमानुसार है। सातों विभक्तियों के प्रत्यय गुरु से लघु होते रहतेहैं।''

    जिन नियमों के आधाार से उर्दू-शब्द-संसार में ऐसा विप्लव उपस्थित होता है, यदि वे नियम हैं तो अनियम किसे कहेंगे? उर्दू भाषा के नियामक भले ही इस प्रकार के परिवर्तन को नियत नियमानुसार समझें, परन्तु हिन्दी भाषा के आचार्यों ने उन्हें दोष माना है, यह मैं स्वीकार करूँगा कि हिन्दीभाषा में भी इस प्रकार के कुछ थोड़े से परिवर्तन होते हैं, परन्तु वे परिमित हैं, उर्दू के समान अपरिमित नहीं हैं। अंग्रेजी भाषा का 'नाइट' (Night) शब्द अंग्रेजी नियमानुसार शुध्द है किन्तु भाषा-विज्ञानविद् अवश्य उसे देखकर कहेगा कि उक्त शब्द में जी (g) एच् (h) की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उनका उच्चारण नहीं होता। लिपि की महत्ताा यही है कि जो लिखा जावे, वह पढ़ा जावे। सुवाच्य, सुबोधा और वैज्ञानिक लिपि वही है, जिनके अक्षरों का विन्यास उच्चारण अनुकूल हो, अन्यथा वह लिपि भ्रामक और दुर्बोधा होगी, और उच्चारण की जटिलता को बढ़ा देगी। यही दशा अंग्रेजी में लिखे गये 'नाइट' शब्द की है, तथापि वह शुध्द है, और नियमित है। उर्दू में लिखे गये ( , ,M कोर) शब्द को देखिए, इसका 'कूर', 'कोर', 'कवर' और 'कौर' पढ़ा जा सकता है; लिखा गया एक अर्थ में एक उच्चारण के लिए, किन्तु वह है अनेक रूपरूपाय, तथापि वह शुध्द और नियमित है। ऐसी ही अवस्था उर्दू-बÐ के नियमों की है, वे उर्दू 'तकष्तीअ' और प्रणाली से भले ही शुध्द हों, किन्तु हिन्दी नियमों की कसौटी पर कसने के बाद उनका वास्तव रूप प्रकट हो जाता है। दो समानोद्देश्यवाली वस्तुओं का मिलान करने से ही, उनका गुण-दोष उनकी महत्ताा और विशेषता विदित होती है। जिस प्रकार हिन्दी भाषा के वर्ण सहज, सुबोधा और सुवाच्य हैं; जैसे उसका शब्द-विन्यास सुनियमित और अजटिल है, वैसे ही उसके छन्दोनियम भी हैं; इसके प्रतिकूल उर्दू की दशा है। जैसे उसके हुरूफ दुर्बोधा और जटिल हैं, जैसे ही उसके शब्द-विन्यास और उच्चारण कष्टसाधय हैं। वैसे ही उसके बÐों के नियम दुस्तर, जटिल और नियमित होकर भी अनियमित हैं। अतएव हिन्दी संसार के लिए उनकी उपयोगिता अनेक दशाओं में अनुपयोगिता का ही रूपान्तर है। इन बातों पर दृष्टि रखकर उर्दू-बÐों के व्यवहार के विषय में मेरी यह सम्मति है-

    (1) आवश्यकता होने पर उर्दू-बÐों की धवनि ग्रहण की जावे। किन्तु उसका उपयोग हिन्दी के उदाहृत लक्षण पद्यों के समान किया जावे।

    (2) धवनि आधाार से गृहीत प्रत्येक उर्दू-बÐ हिन्दी-छन्दों के अन्तर्गत हैं, अतएव उसका शासन पिंगल शास्त्रा के अनुसार होना चाहिए; हिन्दी छन्दोनियम ही उसके लिए उपयोगी और सुविधाा-मूलक हो सकता है।

    (3) गृहीत उर्दू बÐों की शब्द और वाक्यरचना हिन्दी-छन्दों की प्रणाली से होनी चाहिए, उसी विशेषता के साथ कि एक मात्राा की भी कहीं न्यूनाधिाकता न हो।

    (4) यथाशक्ति शब्द-प्रयोग इस प्रकार किया जावे कि गुरु को लघु बनाने की आवश्यकता न पड़े। यदि उपयोगितावश ऐसी नौबत आवे तो वह अत्यन्त परिमित और नियमित हो।

    (5) शब्द तोड़े-मरोड़े न जावें, च्युतदोष से सर्वथा बचा जावे। उर्दू की जिन त्राुटियों का ऊपर उल्लेख हुआ है, उनसे किनारा किया जावे और निर्दोष छन्दोगति का पूरा धयान रखा जावे।

           मैंने इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर इस ग्रंथ में उर्दू-बÐों का प्रयोग किया है। जहाँ कहीं कुछ अन्तर है उसका निर्देश भी यथास्थान नाना सूत्राों से कर दिया गया है। आशा है 'बोलचाल' की उर्दू-वÐें भी अपने व्यवहार के विषय में इस ग्रन्थ द्वारा बहुत कुछ पथ-पदर्शन करेंगी। कुछ थोड़े से दूसरे प्रकार के पद्य भी कहीं-कहीं ग्रंथ में मिलेंगे। उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। वे हिन्दी के ही छन्द हैं, अतएव उनके विषय में विशेष कुछ नहीं लिखा गया।

मुहावरा

    'मुहावरा' अरबी शब्द है, यह 'हौर' शब्द से बना है, 'गश्यासुल्लुगशत' में (पृष्ठ 445) इस शब्द के विषय में यह लिखा गया है-

    ''मुहावरा बिज्जश्म मीम बफष्तेह् वाव, बा यकदीगर कलाम करदन व पासुखदादन यक दीगर-अजश्सेराह वकनजश् वगश्ैर ऑं।''

    इसका अर्थ यह है कि 'मुहावरा' के 'मीम' पर पेश और 'वाव' पर जश्बर है, अर्थ उसका परस्पर बातचीत और एक दूसरे के साथ सवाल जवाब करना है। 'फष्रहंग आसिफिष्या' जिल्द चहारुम सफष्हा 303 कालम अव्वल में 'मुहावरा' के विषय में यह लिखा गया है-

    मुहावरा-इस्म मुजश्क्कर (1) हम कलामी, बाहमगुफ्श्तगू, सवाल जवाब (2)इस्तिलाहआम, रोजश्मर्रा, वह कलमा या कलाम जिसे चन्द सकषत ने लगश्वी मानी की मुनासिबत या गश्ैरमुनासिबत से किसी ख़ास मानी के वास्ते मुख्ततस कर लिया हो। जैसे 'हैवान' से कुल जानदार मकष्सूद हैं, मगर मुहावरे में गश्ैरजश्ीउल अक्ल पर उसका इतलाकष् होता है। और जश्ीउल अक्ल को इन्सान कहते हैं (3) आदत, चसका, महारत, मश्कष् रब्त, अभ्यास जैसे मुझे अब इस बात का मुहावरा नहीं रहा।''

    अपने परम प्रसिध्द कोष (पृष्ठ 1067) में वेबस्टर साहब ने मुहावरा अर्थात् 'इडियम' के विषय में यह लिखा है-

         ¹ 1-किसी जाति-विशेष अथवा प्रान्त या समाज-विशेष की भाषा या बोली।

    2-किसी भाषा की व्याकरण-सम्बन्धाी शैली अथवा वाक्य-विन्यास का विशेष स्वरूप। भाषा का विशेष लक्षण अथवा उसका ढाँचा।

 ¹ (1)  The language proper or peculiar to a people (a tongue) or to a district or community (a dialect).

    (2)  The syntactical or structural form peculiar to any language, the genius or caste of a language.

     Idiom.–signifies the totality of the general rules of construction which characterize the syntax of a peculiar language and distinguish it from other tongues.–G.P. Marsh.

    ''किसी भाषा के उन साधाारण नियमों का समाहार जो उस भाषा की व्याकरण-सम्बन्धाी शैली की विशेषता दिखलाता और दूसरी भाषाओं से उसे अलग करता है-जी.पी. मार्श''

    3-(अ) किसी भाषा के विशेष ढाँचे में ढला वाक्य।

    (ब) वह वाक्य जिसकी व्याकरण-सम्बन्धाी रचना उसी के लिए विशिष्ट हो, और जिसका अर्थ उसकी साधाारण शब्द-योजना से न निकल सके।

    4-किसी एक लेखक की व्यंजन-शैली का विशेष रूप अथवा वाग्वैचित्रय-जैसे 'ब्राउनिंग' के दुरूह मुहावरे।  

    5-पुरुष-विशेष का 'स्वभाव-वैचित्रय

    हिन्दी शब्द-सागर (पृष्ठ 2793) में यह लिखा है-

    मुहावरा-संज्ञा पुं. (1) लक्षणा या व्यंजना द्वारा सिध्द वाक्य या प्रयोग जो किसी एक ही बोली अथवा लिखी जानेवाली भाषा में प्रचलित हो, और जिसका अर्थ प्रत्यक्ष (अभिधेय) अर्थ से विलक्षण हो। किसी एक भाषा में दिखाई पड़नेवाली असाधाारण शब्द-योजना अथवा प्रयोग। जैसे 'लाठी खाना' मुहावरा है, क्योंकि इसमें खाना शब्द अपने साधाारण अर्थ में नहीं आया है, लाक्षणिक अर्थ में आया है। लाठी खाने की चीजश् नहीं है पर बोलचाल में 'लाठी खाना' का अर्थ 'लाठी का प्रहार सहना' किया जाता है। इसी प्रकार 'गुल खिलाना' 'घर करना' 'चमड़ा खींचना' 'चिकनी चुपड़ी बातें' आदि मुहावरे के अन्तर्गत हैं। कुछ लोग इसे रोजश्मर्रा या बोलचाल भी कहते हैं (2) अभ्यास, आदत, जैसे आजकल मेरा लिखने का मुहावरा छूट गया।

    अब तक जो लिखा गया, उससे पाया जाता है, कि 'मुहावरा' का शुध्द उच्चारण 'मुहावरा' है, न कि 'मुहाविरा' 'महाविरा' आदि; जैसा कि लोग प्राय: उच्चारण करते हैं। ऊपर जो उर्दू, अंग्रेजी और हिन्दी कोषों के अंश उध्दृत किए गये हैं, उनके अवलोकन करने से यह भी ज्ञात हुआ कि, अरबी में इस शब्द

             He followed their language (the Ratin) but did not comply with the idiom of ours.–Dryden.

     (3)   (a)–"An expression confirming or appropriate to the peculiar structural form of a language. (b) An expression that is peculiar to itself in grammatical; one the meaning of which as a whole cannot be derived from the conjoined meaning of its elements.

     (4)   A form or forms of expression characteristic of an author as Browning's idiom is often difficult.

     (5)   Peculiarity. Obs. or R.

             Webster's International Dictionary, page 1067 col. 3.

का जो परिमित अर्थ है, उससे कहीं व्यापक उसका अर्थ हिन्दी और उर्दू में गृहीत है। अंग्रेजश्ी के 'इडियम' (Idiom) शब्द का अर्थ (जो कि मुहावरा का पर्यायवाची शब्द बतलाया जाता है) और भी व्यापक है। संस्कृत में 'मुहावरा' का पर्यायवाची शब्द कोई नहीं पाया जाता; जो एक दो शब्द प्रचलित किए गए, वे गृहीत नहीं हुए; कारण इसका यह है कि वे सर्वमान्य नहीं हुए। श्रीमान् पण्डित रामदहिन मिश्र अपने हाल के प्रकाशित हुए 'मुहावरे' संज्ञक ग्रन्थ (पृष्ठ 7) में लिखते हैं-

    ''संस्कृत तथा हिन्दी में इस शब्द के यथार्थ अर्थ का बोधाक कोई शब्द नहीं है। प्रयुक्तता, वाग्रीति, वाग्धाारा और भाषा सम्प्रदाय आदि शब्दों को इसके स्थान पर रख सकते हैं। हिन्दी में मुहावरे के बदले में विशेषत: वाग्धाारा शब्द का व्यवहार देखा जाता है। किन्तु मेरे विचार से मुहावरा शब्द के बदले भाषा-सम्प्रदाय शब्द का लिखना कहीं अच्छा है। क्योंकि वाग्रीति, वाग्धाारा और प्रयुक्तता, इन तीनों शब्दों का अर्थ इससे ठीक-ठीक झलक जाता है, और भाषागत अन्यान्य विषयों का आभास भी मिल जाता है।''

    यह पण्डितजी की व्यक्तिगत सम्मति है। इस अवतरण से यह भी पाया जाता है कि संस्कृत में मुहावरे शब्द का पर्यायवाची शब्द खोजा जाने लगा है, सफलता-रत्न किसके हाथ लगेगा, यह नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक मैं जानता हूँ मुहावरे के अर्थ में वाग्धाारा शब्द का प्रयोग हिन्दी में करते, पहले पहल स्वर्गीय पण्डित केशवराम भट्ट को देखा जाता है, उन्हीं की देखादेखी बिहार में कुछ सज्जन मुहावरे के अर्थ में वाग्धाारा शब्द का प्रयोग करते अब भी पाए जाते हैं, किन्तु इनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। अब तक बिहार में ही उसका व्यापक प्रचार नहीं हुआ। मुहावरा शब्द सुनकर जिस अर्थ की अवगति होती है, वाग्धाारा शब्द से नहीं होती। संस्कृत-विद्वान् वाग्धाारा शब्द सुनकर उसका 'मुहावरा' अर्थ कदापि न करेंगे, उसकी अभिधाा-शक्ति से ही काम लेंगे। इसलिए मेरा विचार है कि 'वाग्धाारा', 'मुहावरा' का ठीक पर्यायवाची शब्द नहीं है, यही अवस्था प्रयुक्तता, वाग्रीति और भाषा-सम्प्रदाय शब्दों की है। ये शब्द गढ़े हुए, अवास्तव और पूर्णतया उपयुक्त नहीं हैं, किन्तु दोनों विद्वानों का उद्योग प्रशंसनीयहै।

संस्कृत भाषा और मुहावरा

    संस्कृत भाषा में मुहावरे नहीं हैं, यह बात नहीं कही जा सकती। प्रसिध्द 'कुवलयानन्द' का अग्रलिखित श्लोक हमारी दृष्टि को संस्कृत के कई 'मुहावरों' की ओर आकृष्ट करता है-

''अरण्य रुदितं कृतं शवशरीरमुद्वतितं।

स्थलेऽब्जमवरोपितं सुचिरामूषरे वर्षितं।

स्वपुच्छमवनामितं वधिारकर्णजाप: कृत:।

धाृतोन्धामुखदर्पणो यदबुधाोजनस्सेवित:।''

    निम्नलिखित वाक्यों में भी संस्कृत 'मुहावरों' का प्रयोग सुन्दरता से किया गया है। मुहावरों के नीचे लकीर खींच दी गयी है।

    मासानेतान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा-उत्तार मेघ पद्य 112

अवशेन्द्रियचित्ताानाम् हस्तिस्नानमिवक्रिया-हितोपदेश

आ: कोप्यस्माकम्पुरतो नास्ति य एनं गलहस्तयति-हितोपदेश

किन्तु त्वं च कूपमण्डूक:-हितोपदेश

अंगुलिदाने भुजम् गिलसि-आर्यासप्तशती

तावदार्द्रपृष्ठा: क्रियन्ताम् वाजिन:-शकुन्तला नाटक

ईदृशं राजकुलम् दूरे वन्द्यताम्-कर्पूरमंजरी

    जब संस्कृत में मुहावरे पाए जाते हैं, तो हृदय में यह बात अपने आप उठती है कि इस प्रकार के प्रयोगों का नामकरण क्यों नहीं हुआ? कोई भाषा ऐसी नहीं है, जिसमें मुहावरे नहीं। जो जीवित भाषाएँ हैं, उनकी बात ही क्या, मृतक भाषाओं में भी मुहावरों का प्रयोग मिलता है। लैटिन भाषा मुहावरों से भरी है। भाषा-सम्बन्धाी कार्यों में उनके द्वारा अनेक सुविधााएँ होती हैं, और उनकी सहायता से विचारों के प्रकट करने में बहुत बड़ा सहारा मिलता है। अनेक मानसिक भाव थोड़े शब्दों में ही मुहावरों द्वारा प्रकट होते और साथ ही प्रभावजनक बनते हैं। लेख मुहावरों द्वारा चटकीले हो जाते हैं और कविता चटपटी; उनमें भाव-गाम्भीर्य भी आता है। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि संस्कृत जैसी सम्पन्न भाषा ने उसकी उपेक्षा की। जिस भाषा ने अर्थालंकार ही नहीं, शब्दालंकार तक के वर्णन में पराकाष्ठा दिखलाई है, बाल की खाल निकाली है, वह मुहावरों के विषय में मौन रही, यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। लोकोक्ति अथवा कहावत से साहित्यक्षेत्रा में मुहावरों की उपयोगिता कहीं अधिाक है; मुहावरों का कार्यक्षेत्रा भी विस्तृत है। जिन वाक्यों अथवा रचनाओं में लोकोक्तियों का प्रयोग होता है, संस्कृत साहित्य ने उसे अलंकृत माना है, और इसीलिए लोकोक्ति अलंकार की सृष्टि हुई है। लक्षण उसका यह है-

''लोकप्रवादानुकृतिर्लोकोक्तिरिति भण्यते''

    जिस पद्य में लोक-प्रवाद अर्थात् कहावत की अनुकृति होती है, उसको लोकोक्ति अलंकार कहते हैं, जैसे-

    ''साँची भई कहनावतिया अरी ऊँची दुकान की फीकी मिठाई''

    यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है, कि क्या वाग्विलास मुहावरों द्वारा अलंकृत नहीं होता! यदि होता है तो फिर क्या कारण है कि मुहावरों का प्रयोग आलंकारिक भी नहीं समझा गया? प्राय: मुहावरों का प्रयोग एक वाक्य के समान होता है, संस्कृत में ऐसे वाक्यों को लक्षणा के अन्तर्गत माना है, मेरा विचार है कि इसी कारण संस्कृत के विद्वानों ने मुहावरों की कोई अलग कल्पना नहीं की, और न उसका नामकरण ही किया। साहित्यदर्पणकार ने लक्षणा का लक्षण यह लिखा है-

''मुख्यार्थबाधो तद्युक्तो ययान्योऽर्थ: प्रतीयते।

रूढे: प्रयोजनाद्वाऽसौ लक्षणा शक्तिरर्पिता।''

    भाषा टीका में इस श्लोक का यह अर्थ लिखा गया है-

    ''लक्षणा शक्ति का निरूपण करते हैं-'मुख्यार्थेति' अभिधाा शक्ति के द्वारा जिसका बोधान किया जावे, वह मुख्यार्थ कहाता है, इसका बाधा होने पर अर्थात् वाक्य में मुख्यार्थ का अन्वय अनुपपन्न होने पर, रूढ़ि (प्रसिध्दि) के कारण अथवा किसी विशेष प्रयोजन का सूचन करने के लिए, मुख्यार्थ से संबध्द (युक्त) अन्य अर्थ का ज्ञान जिस शक्ति के द्वारा होता है, उसे लक्षणा कहते हैं। यह शक्ति 'अर्पित' अर्थात् कल्पित या अमुख्य है'''

    चन्द्रालोककार लक्षणा का लक्षण यह लिखते हैं-

''मुख्यार्थस्याविवक्षायां पूर्वाऽवाची च रूढित:।

............................वदन्ती लक्षणा मता।''

    टीकाकार इस पद्य का यह अर्थ लिखते हैं-

    ''जिस समय शब्द-शक्ति-जनित मुख्यार्थ नहीं प्रकट होता अर्थात् मुख्यार्थ अविवक्षित रह जाता है, वहाँ आपातत: लक्षणा का आश्रय लेना पड़ता है, अर्थात् लक्षण द्वारा अर्थ प्रकट होता है। इसके पूर्वा और अर्वाचीना दो भेद (रूढ़ि से) माने गये हैं।''

    काव्य-प्रभाकर (पृष्ठ 72) में लक्षणा के विषय में यह लिखा गया है-

 

लक्षणा शक्ति

दोहा

'मुख्य अर्थ के बाधाते पुनि ताही के पासु।

और अर्थ जाते बनै कहैं लक्षणा तासु।'

    उक्त ग्रन्थ में निरूढ़ि (रूढ़ि) लक्षणा का उदाहरण देकर उसका जो अर्थ किया गया है, वह नीचे दिया जाता है-

''फली सकल मन कामना लूटयो अगणित चैन।

आजु अचै हरि रूप सखि भये प्रफुल्लित नैन।''

    ''मनकामना वृक्ष नहीं है जो फले; मनकामना पूर्ण होती है। चैन कोई दृश्य वस्तु नहीं जो लूटी जावे, किन्तु उसका उपभोग अनुभव द्वारा होता है। हरि का रूप जल नहीं है, जो आचमन किया जावे, वरन् नेत्राों से देखा जाता है। नैन कोई पुष्प नहीं है जो विकसित होवे, किन्तु चित्ता प्रफुल्लित होता है।''

    भाव लेखक का यह है कि 'मनकामना फलना', 'चैन लूटना', 'हरि रूप का अचवना', नेत्राों के प्रफुल्लित होने', का जो अर्थ गृहीत हुआ है, वह मुहावरे पर दृष्टि रख कर; क्योंकि उनका अभिधाा-मूलक वह अर्थ नहीं है। इसीलिए उन्होंने उसको रूढ़ि-लक्षणा माना है।

    अपने व्यंग्यार्थ-मंजूषा में श्रीमान् लाला भगवानदीन ने रूढ़िलक्षणा के सात उदाहरण दिए हैं। पृष्ठ 11 में छठा उदाहरण देकर वे जो कुछ लिखते हैं वह नीचे दिया जाता है-

    -''नारि सिखावन करेसि न काना,'' करेसि न काना यह रूढ़ि है। इसका अर्थ है-तूने नहीं माना।''

    'कान न करना' एक मुहावरा है जिसका अर्थ है-'न सुनना'। उसी मुहावरे का इस चौपाई में प्रयोग हुआ है, जिसको रूढ़ि-लक्षणा बतलाया गया है।

    'फष्रहंग आसिफिष्या' के नम्बर 2 पर, 'वेबस्टर कोष' के नम्बर 3 ब पर और 'हिन्दी-शब्द सागर कोष' के नम्बर 1 पर मुहावरा का जो अर्थ बतलाया गया है, उसका साहित्य-दर्पण और चन्द्रालोक की लक्षणा के लक्षण से बहुत कुछ साम्य है; भाव सबके लगभग एक ही हैं। जो हिन्दी उदाहरण मैंने काव्य-प्रभाकर और व्यंग्यार्थ-मंजूषा से दिए हैं, और जो उनकी व्याख्याएँ दिखलाई हैं, उनसे भी मेरे इस विचार की पुष्टि होती है कि संस्कृत के विद्वानों ने मुहावरों को लक्षणा के अन्तर्गत माना है, और इसीलिए इस प्रकार के वाक्यों के लिए किसी दूसरे नामकरण की आवश्यकता नहीं हुई। यह मेरा निज का विचार है; मैंने यथाशक्ति उसकी पुष्टि की भी चेष्टा की है। सम्भव है कि मेरा विचार भ्रान्त हो। मुझे बड़ा हर्ष होगा यदि कोई विद्वान् सज्जन मेरे विचार का निराकरण करके तथ्य बात को प्रकट कर देंगे; और यह बतला देंगे कि संस्कृत में मुहावरा का पर्यायवाची शब्द यह है। किन्तु मैं इस विषय में सन्दिग्धा हूँ, और मेरा एक प्रकार से यह निश्चय है कि मुहावरे के इतना ही व्यापक और बहु-अर्थबोधाक शब्द शायद संस्कृत में नहीं है, यदि होता तो आज तक इस विषय में इतना अन्धाकार न रहता। ऐसी अवस्था में आवश्यकता की पूर्ति और हिन्दी-भाषा-कोष की पूर्णता के लिए दो ही बातें हो सकती हैं-

    1-यह कि 'मुहावरा' शब्द ही को ग्रहण कर लिया जावे।

    2-यह कि उसके स्थान पर कोई सर्वसम्मत संस्कृत शब्द गढ़ा जावे, अथवा कोई समानार्थक संस्कृत शब्द स्वीकार कर लिया जावे।

    पहली बात मुझको अधिाक युक्तिसंगत ज्ञात होती है, निम्नलिखित कारणोंसे-

    1-यह कि एक प्रकार से 'मुहावरा' शब्द हिन्दी-संसार में गृहीत हो गया है, 'इडियम' के स्थान पर आजकल उसी का प्रयोग हो रहा है, कोषों तक में उसे स्थान मिल गया है, ऐसी अवस्था में उसकी उपेक्षा अथवा उसका त्याग असुविधाामूलक होगा।

    2-यह कि जब अनेक अरबी, फषरसी अथवा अंग्रेजश्ी आदि अन्य भाषाओं के शब्द प्रयोजनवश गृहीत होकर हिन्दी भाषा की आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं, तो 'मुहावरा' शब्द के ही त्याग का आग्रह क्यों किया जावे, विशेष कर उस अवस्था में जब कि उतना व्यापक और अर्थबोधाक पर्यायवाची शब्द संस्कृत में पाया नहीं जाता।

           यह मेरा निज का विचार है, इसका अर्थ नहीं है कि मैं उद्योग का विरोधाी हूँ। वास्तव बात तो यह है कि संस्कृत का उपयुक्त पर्यायवाची शब्द मिल जावे तो सबसे पहले मैं उसको ग्रहण करने और मुहावरा के स्थान पर उसका प्रचार करने के लिए कटिबध्द हूँ। अन्यथा यही उचित जान पड़ता है, जिसे मैंने अभी ऊपर निवेदन किया है। 'गश्नी' 'गरीब' अरबी के क्लिष्ट शब्द हैं, किन्तु व्यवहार और उपयोगिता पर दृष्टि रखकर गोस्वामीजी ने उनको ग्रहण कर लिया, और 'गनी, गरीब, ग्राम, नर नागर' लिखते संकुचित नहीं हुए। यही बात मुहावरा के प्रयोग के विषय में कही जा सकती है।

मुहावरा शब्द की अर्थ-व्यापकता

    'फष्रहंग आसिफिष्या' में 'मुहावरा' शब्द का जो अर्थ लिखा गया है, वह बहुत व्यापक और अनेक अर्थों का द्योतक है। जिस अरबी भाषा का यह शब्द है, उसमें उसके जो अर्थ माने गये हैं, उससे कहीं अधिाक अर्थ उसके फषरसी और उर्दू में किए गये हैं। मेरा विचार है, उन्हीं पर दृष्टि रखकर 'फष्रहंग आसिफिष्याकार' ने उसके अर्थ की व्यापकता बढ़ाई है। 'हिन्दी शब्द सागर' में उसके वही अर्थ दिखलाए गये हैं, जो विशेष करके हिन्दी भाषा में प्रचलित हैं। 'इडियम' का जो अर्थ वेबस्टर साहब ने अपनी 'डिक्शनरी' में किया है, वह इन दोनों से अधिाक व्यापक, गम्भीर और विशेषार्थक है। मौलाना हाली ने 'मुहावरा' के विषय में जो कुछ लिखा है, उसे मैं नीचे लिखता हूँ; उसके देखने से प्रस्तुत विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा।

           'मुहावरा' लुगश्त (कोष) में बातचीत करने को कहते हैं, चाहे वह बातचीत अधजश्बान (भाषा-भाषियों) के रोजश्मर्रा के मुवाफिष्कष् हो या मुखालिफष् लेकिन इस्तिलाह (सांकेतिक अर्थ) में ख़ास अधजश्बान के रोजश्मर्रा या बोलचाल या बयान करने के ढंग का नाम मुहावरा है। पस यह जश्रूर है कि मुहावरा हमेशा दो या दो से जिश्यादा अलफषज (शब्दों) में पाया जावे। क्योंकि मुफष्रद लफ्श्ज (प्रत्येक शब्द) को रोजश्मर्रा या बोलचाल या असलूब बयान। (वर्णन शैली) नहीं कहा जाता। ब ख़िलाफष् लुगश्त (कोष) के कि उसका इतलाकष् (निर्देश) हमेशा (सदैव) मुफष्रद अलफषजश् पर या ऐसे अलफषजश् पर जो ब-मंजिला1 मुफष्रद (जैसे इकतीस) के हैं, किया जाता है। जैसे पाँच और सात दो लफ्श्जश् हैं जिन पर अलग-अलग लुगश्त का इतलाकष् हो सकता है मगर इनमें से हर एकको मुहावरा नहीं कहा जावेगा, बल्कि दोनों को मिलाकर जब पाँच-सात बोलेंगे तब मुहावरा कहा जावेगा। यह भी जश्रूर है कि वह तरकीब जिस पर मुहावरा होने का इतलाकष् किया जावे, कष्यासी2 न हो बल्कि मालूम हो कि अधजश्बान उसको इसी तरह इस्तेमाल करते हैं। जैसे अगर पाँच या सात, आठ या आठ सात पर कष्यास करके छ आठ या आठ छ या सात नौ बोला जावेगा, तो उसको मुहावरा नहीं कहेंगे, क्योंकि अधजश्बान कभी इस तरह नहीं बोलते। 'बिला नागश' पर कष्यास करके उसकी जगह 'बे नागश, 'हर रोजश्' की जगह 'हर दिन' आये दिन की जगह 'आये 

1-ब-मंजिला=समान। 2-कष्यासी=अनुमानित।

    रोजश्' बोलना भी मुहावरा नहीं कहा जावेगा। क्योंकि ए अलफषजश् इस तरह अधजश्बान की बोलचाल में कभी नहीं आते।''

    ''कभी मुहावरा का इतलाकष् ख़ास कर उन अफष्आल (क्रियाओं) पर किया जाता है, जो कि इस्म (संज्ञा) के साथ मिलकर अपने हकष्ीकष्ी मानों (वास्तविक अर्थों) में नहीं बल्कि मजाजश्ी मानों (लाक्षणिक वा सांकेतिक अर्थों) में इस्तेमाल होते हैं। जैसे उतारना इसके हकष्ीकष्ी मानी (वास्तविक अर्थ) किसी जिस्म (शरीर) को ऊपर से नीचे लाने के हैं। जैसे घोड़े से सवार का उतारना, खूँटी से कपड़ा उतारना, कोठे पर से पलंग उतारना। लेकिन इनमें से किसी पर मुहावरे के दूसरे मानी ठीक नहीं आते। क्योंकि इन सब मिसालों (उदाहरणों) में उतारना अपने हकष्ीकष्ी मानों (वास्तविक अर्थों) में इस्तेमाल किया गया है। हाँ 'नकष्शा उतारना', 'नकष्ल उतारना', 'दिल से उतारना', 'दिल में उतारना' 'हाथ उतारना', 'पहुँचा उतारना', यह सब मुहावरे कहलावेंगे। क्योंकि इन सब मिसालों (उदाहरणों) में उतारने का इतलाकष् (निर्देश) मजाजश्ी मानों (सांकेतिक अर्थों) पर किया गया है। खाना, इसके हकष्ीकष्ी मानी (वास्तविक अर्थ) किसी चीजश् को दाँतों से चबाकर या बिना चबाए हलकष् (गले) से उतारने के हैं। जैसे 'रोटी खाना', 'दवा खाना', 'अफष्ीम खाना', 'वगैर:। लेकिन इनमें से किसी को दूसरे मानी (अर्थ) के लिहाजश् से मुहावरा नहीं कहा जावेगा। क्योंकि इन सब मिसालों में खाना अपने हकष्ीकष्ी मानों (वास्तविक अर्थों) में इस्तेमाल किया गया है। हाँ, 'गश्म खाना', 'कष्सम खाना', 'धाोखा खाना', 'पछाड़ें खाना', 'ठोकर खाना' यह सब मुहावरे कहलावेंगे।''

    ''मुहावरे के जो मानी हमने पहले बयान किए हैं, वह आम (सामान्य) हैं, यानी दूसरा मानी भी उसमें शामिल है, लेकिन दूसरा मानी पहले मानी से ख़ास (विशेष) है। पस जिस तरकीब (व्यापार) को पहले मानों के लिहाजश् (विचार) से मुहावरा कहा जावेगा, उसको दूसरे मानों (अर्थों) के लिहाजश् से भी मुहावरा कहा जा सकता है, लेकिन यह जश्रूरी नहीं है कि जिस तरकीब (व्यापार) को पहले मानों (अर्थों) के लिहाजश् से मुहावरा कहा जावे, उसको दूसरे मानों (अर्थों) के लिहाजश् से भी मुहावरा कहा जावे। जैसे-'तीन पाँच करना' (यानी-'झगड़ा-टंटा करना') उसको दोनों मानों के लिहाजश् से मुहावरा कह सकते हैं, क्योंकि यह तरकीब अधजश्बान की बोलचाल के भी मुवाफिष्कष् है, और उसमें तीन पाँच का लफ्श्जश् अपने हकष्ीकष्ी मानों (वास्तविक अर्थों) में नहीं बल्कि मजशजश्ी मानों (सांकेतिक अर्थों) में बोला गया है। लेकिन 'रोटी खाना', या 'मेवा खाना', या पान सात या दस बारह वगैर: सिर्फ पहले मानो के लिहाजश् से मुहाविरा कष्रार पा सकते हैं, दूसरे मानों (अर्थों) के लिहाजश् से नहीं, क्योंकि यह तमाम तरकीबें अधजश्बान के मुआफिष्कष् तो जश्रूर हैं, मगर उनमें कोई लफ्श्जश् मजशजश्ी मानों (सांकेतिक अर्थों) में इस्तेमाल नहीं किया गया।''

    ''रोजश्मर्रा और मुहावरा में एक फर्ष्कष् और भी है। रोजश्मर्रा की पाबन्दी जहाँ तक मुमकिन हो, तकष्रीर1 और तहरीर2 नज्श्म3 व नसर4 में जश्रूरी समझी गयी है। यहाँ तक कि कलाम5 में जिस कष्दर रोजश्मर्रा की पाबन्दी कम होगी, उसी कष्दर वह फष्साहत6 के दर्जा से गिरा समझा जावेगा। जैसे-'कलकत्तो से पिशावर तक सात आठ कोस पर एक पक्की सराय और एक कोस पर मीनार बना हुआ था'', यह जुमला (वाक्य) रोजश्मर्रा के मुआफिष्क (अनुसार) नहीं है, बल्कि उसकी जगह होना चाहिए-''कलकत्तो से पिशावर तक सात-सात आठ-आठ कोस पर एक-एक पक्की सराय और कोस-कोस भर पर एक-एक मीनार बना हुआ था'' इसी प्रकार और भी।''

-मुकष्द्दमा शे'र व शायरी' पृष्ठ 141, 142, 143

    मौलाना हाली ने उन वाक्यों के विषय में कुछ नहीं लिखा जो शब्दयोजना के विरुध्द सांकेतिक अर्थ द्वारा भाषामर्मज्ञों अथवा सर्वसाधाारण में गृहीत हैं, जैसे 'मुँह में ताला लगा होना', 'फूटी ऑंख से न देखना', इत्यादि। उन्होंने 'तीन पाँच करना', का अर्थ झगड़ा-टंटा करना लिखकर और उसको मुहावरा मानकर रूपान्तर से इस बात को स्वीकार किया है; परन्तु जैसे अफष्आल (क्रियाओं) का उदाहरण देकर उनकी और उनकी परिभाषा लिखकर उनको मुहाविरा सिध्द किया है, उसी प्रकार वाक्य के विषय में कोई परिभाषा नहीं लिखा। यद्यपि अधिाकतर मुहावरे के अर्थ में सांकेतिक अर्थ-द्योतक वाक्य ही गृहीत होते हैं; तथापि मैं यह कहूँगा कि-मौलाना साहब ने 'मुहावरा' के विषय में जो कुछ लिखा है, उसका निचोड़ यही है, कि मुहावरा के दो रूप हैं-एक वह जिसको हम रोजश्मर्रा या बोलचाल कह सकते हैं, और दूसरा मुख्य मुहावरा जो किसी वाक्य से सांकेतिक अथवा लाक्षणिक अर्थ द्वारा विदित होता है। किसी क्रिया में स्वत: मुहावरा के रूप में गृहीत होने की शक्ति नहीं है, वह जब किसी विशेष संज्ञा के साथ मिलकर वाक्य

1. तकरीर=व्याख्यान, बातचीत। 2. तहरीर=लेखन। 3. नज्श्म=पद्य। 4. नसर=गद्य। 5. कलाम=वाक्य। 6. फष्साहत=प्रसादगुण।

में परिणत होती है, और अपना साधाारण अर्थ छोड़कर विशेष अर्थ देती है, तभी उसकी मुहावरा संज्ञा होती है, ऐसी अवस्था में प्रधाानता वाक्य ही की हुई।

    श्रीमान् पण्डित रामदहिन मिश्र ने अपने ग्रंथ में इस विषय में जो कुछ लिखा है, वह भी द्रष्टव्य है; उसको मैं नीचे उध्दृत करता हूँ।

    ''मुहावरे के विषय में कई मत मतान्तर हैं, कई लोगों ने कई रीतियों से मुहावरे का लक्षण माना है-

    1- कितने ठीक-ठीक लेख-शैली वा बोलने के ढंग को मुहावरा मानते हैं, जैसे जड़ाऊ के तरह-तरह के गहने, यहाँ 'तरह-तरह के जड़ाऊ गहने' लिखना बामुहावरा है।

    2- कोई-कोई व्याकरण-विरुध्द होने पर भी सुलेखक के लिखे होने के कारण किसी-किसी शब्द और वाक्य को बामुहावरा बतलाते हैं। जैसे 'उपरोक्त' (उपर्युक्त) 'सराहनीय' (प्रशंसनीय) 'सत्यानाश' (सर्वनाश), 'हम जब घर गये तब (हमने) लड़के को बीमार देखा।'

    3- कोई-कोई कहावत को ही मुहावरा कहते हैं, जैसे 'नौ नगद न तेरह उधाार', 'नौ की लकड़ी नब्बे ख़र्च', आदि।

    4- कोई-कोई विलक्षण अर्थ प्रकाशित करनेवाले वाक्य को ही मुहावरा कहते हैं। जैसे 'बाल की खाल निकालना', 'दाँतों में तिनका दबाना', 'आठ-आठ ऑंसू रोना', आदि।

    5- कितने भंगी-पूर्वक अर्थ-प्रकाशन के ढंग को ही मुहावरा मानते हैं-जैसे फषरसी भाषा के कवियों ने इस नयी भाषा को शाहजहानी बाजार में अनवस्था में इधार-उधार फिरते देखा, उन्हें इसकी भोली सूरत बहुत पसन्द आई, वह उसे अपने घर ले गए।''

    6- बहुतों ने शब्द वा वाक्य को भिन्नार्थ-बोधाक होने से ही मुहावरा माना है। जैसे ऑंख, (उससे जब लड़के का बोधा होता है) 'यह अन्याय कब तक चलेगा', अर्थात् अन्याय को सदा प्रश्रय नहीं मिलेगा।

    7- कोई-कोई आलंकारिक भाषा को ही मुहावरा कहते हैं, जैसे-'बसन्त बरसों परै', 'चूनरी चारु चुईसी परै', 'स्वर-लहरी आकाश में लहराने लगी', 'नेत्राों के सामने सब नाचने लगते हैं, 'तुम पराये धान पर नाचते हो', आदि।

    8- बहुत लोग विचित्रा रूप से अर्थ प्रकट करनेवाले वाक्य को मुहावरा कहते हैं। जैसे-अंग्रेजशें के राज्य में बाघ बकरी एक घाट पानी पीते हैं, अर्थात् बड़ी शान्ति है।

    9- कोई-कोई एक ख़ास अर्थ के बोधाक वाक्य को मुहावरा कहते हैं। जैसे-'लघु शंका करने जाओ', 'बाह्य भूमि को गया है', आदि।

    10-कोई-कोई एकार्थ में बध्द क्रिया आदि को मुहावरा कहते हैं, जैसे-'हाथी चिग्घाड़ता है', 'घोड़ा हिनहिनाता है', क्योंकि अगर इसमें बोलना क्रिया लगावें तो ये बामुहावरा नहीं हो सकते।

    11-कोई-कोई प्रचलित शब्द-प्रयोग को ही मुहावरा बतलाते हैं। जैसे-नैहर की जगह 'मैके', और छूँछे की जगह 'खाली' आदि।

           12-कोई-कोई किसी विषय पर प्राय: प्रयुक्त होने वाले शब्द या वाक्य लाने ही को मुहावरा कहते हैं। जैसे किसी के राज्य वर्णन में 'राम-राज्य' कह देना आदि।

-हिन्दी मुहावरे, पृष्ठ 7, 8

    पण्डितजी ने लक्षणों द्वारा जो 12 प्रकार के मुहावरे दिखलाए हैं उनमें से नम्बर 3 और 4 के प्रयोगों को छोड़, शेष समस्त का अन्तर्भाव 'रोजश्मर्रा' अथवा 'बोलचाल' में हो जाता है, अतएव उनको मुहावरे का एक अलग प्रकार मानना उचित नहीं। पण्डितजी ग्रन्थ के पृष्ठ 9 में स्वयं लिखते हैं।

    ''मुहावरे का लक्षण यह हो सकता है कि जहाँ जिस रीति से बोलचाल के शब्दों और शब्द-समूहों का ठीक-ठीक प्रयोग करना चाहिए वहाँ उसी प्रकार उनका प्रयोग करना। अर्थात् लिखने-पढ़ने तथा बोलचाल की परिपाटी के अनुकूल लिखना और बोलना।''

    ''इस लक्षण के भीतर ऊपर के जितने मत-मतान्तर हैं प्राय: सभी आजातेहैं।''

    रहे नम्बर 3 और 4 के प्रयोग। नम्बर 3 में कहावतों को मुहावरा बतलाया गया है। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ-कहावतें मुहावरे में कदापि परिगणित नहीं हो सकतीं, उनकी स्वतन्त्रा स्थिति है। मैं आगे चलकर 'मुहावरे और कहावतें' शीर्षक स्तम्भ में इस विषय को स्पष्ट करूँगा। नम्बर 4 के प्रयोग वे ही हैं, जो 'बे-मुहावरे' कहलाते हैं; जिनकी स्थिति रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल से भिन्न है; और जिनका आधाार वाक्यों का लाक्षणिक अथवा सांकेतिक अर्थ है। ऐसी अवस्था में मुहावरे के दो ही व्यापक स्वरूप स्वीकृत होते हैं, एक तो वह जिसे रोजश्मर्रा या बोलचाल कहते हैं, और दूसरा वह जो मुहावरा नाम ही से पुकारा जाता है।

    हिन्दी-शब्द-सागर में लक्षणा या व्यंजना द्वारा सिध्द-प्रयोग को मुहावरा बतला कर अन्त में यह वाक्य लिखा है-''कुछ लोग इसे रोजश्मर्रा या बोलचाल भी कहते है''किन्तु मौलाना हाली की सम्मति इसके विरुध्द है। उनका अवतरण आप लोग देख चुके हैं। वे कहते हैं कि मुहावरा का अन्तर्भाव रोजश्मर्रा हो सकता है, परन्तु मुहावरे में रोजश्मर्रे का अन्तर्भाव नहीं हो सकता। उन्हाेंने उपपत्तिायाँ दी हैं, उनकी उपपत्तिा युक्तिसंगत है। इस मतान्तर का कारण दृष्टिकोण-भेद है। वास्तव बात यह है कि हिन्दी-संसार की दृष्टि विशेषतया मुहावरों की ओर है, वह सांकेतिक अर्थ में गृहीत वाक्य ही को मुहावरा मानता है, और इसी अर्थ में यह शब्द अधिाकतर सर्वसाधाारण में प्रचलित भी है, इसीलिए उसकी दृष्टि रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल की ओर उतनी नहीं है, जितनी कि उर्दूवालों की। ऐसी अवस्था में हिन्दी-शब्द-सागर में जो कुछ लिखा गया, उचित लिखा गया। किन्तु वास्तविकता मौलाना हाली की मीमांसा में ही है, अतएव मुहावरा के जो दो व्यापक स्वरूप स्वीकृत हुए हैं, वे ही विशेष युक्तिसंगत ज्ञात होते हैं।

    फष्रहंग आसिफिष्या में इर्स्तिलाह आम (सांकेतिक प्रयोग) और रोजश्मर्रा के अतिरिक्त एक शाब्दिक प्रयोग को भी मुहावरा बतलाया है। वह कहता है कि 'हैवान' एक ऐसा शब्द है, जो प्रत्येक जीवधाारी के लिए प्रयुक्त हो सकता है, परन्तु उस भाषा के मर्मज्ञों ने यह स्वीकार कर लिया है, कि इस शब्द का प्रयोग उसी के लिए किया जा सकता है, जो बुध्दिमान नहीं है, मनुष्य के लिए उसका प्रयोग नहीं हो सकता क्योंकि वह बुध्दिमान है, इसलिए इस प्रकार के प्रयोग को भी वह मुहावरा मानता है। यह वैसा ही प्रयोग है, जैसा पं. रामदहिन मिश्र के 6 नम्बर के प्रयोग में 'ऑंख' का पुत्रा के अर्थ में गृहीत होना। यह मान लिया जावे किन्तु इसमें व्यापकता नहीं है। यदि इस प्रकार मानते चलें, तो हिन्दी भाषा के अनेक शब्दों को इस परिधिा में लाना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त ऐसे ही शब्दों को हिन्दी में 'लक्षक' कहते हैं। ऐसी अवस्था में कोई आवश्यकता नहीं मालूम होती कि इस प्रकार के शब्दों को भी मुहावरा कहकर व्यर्थ भ्रान्ति उत्पन्न की जावे। मेरा विचार है कि मुहावरा शब्द को 'वाक्य' तक ही परिमित रहना चाहिए, यही सम्मति मौलाना हाली ने भी अपने वक्तव्य में प्रकट की है। अभ्यास आदि वाचक शब्दों के अर्थ में जिस स्थल पर मुहावरा शब्द गृहीत होता है, उसके विषय में कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह वाक्य की परिधिा से बाहर है।

    वेबस्टर साहब ने अपने कोश में 'इडियम' के पाँच अर्थ लिखे हैं, उनमें से प्रथम और द्वितीय अर्थ, हिन्दी भाषा के लिए सुसंगत नहीं हैं, उतना व्यापक अर्थ 'मुहावरा' का हिन्दी में नहीं होता। हिन्दी में मुहावरा शब्द उसी अर्थ में गृहीत है, जिसका निरूपण उन्होंने अपने 3 (अ) और 3 (ब) में किया है। 3 (अ) में जो अर्थ किया गया है, वही हमारा रोजश्मर्रा और बोलचाल है, और 3 (ब) में जो अर्थ उन्होंने किया है, वही 'मुहावरा' है। चौथे अर्थ में किसी लेखक के भाव-व्यंजन शैली के विशेष रूप अथवा उसके वाग्वैचित्रय को भी मुहावरा माना है, और ब्राउनिंग के दुरूह मुहावरों का उल्लेख उदाहरण स्वरूप किया गया है। हिन्दी भाषा में इस प्रकार के वाग्वैचित्रय को मुहावरा नहीं माना जाता, उसको कवि-विशेष की शैली, अथवा उसके भाव-प्रकाशन की विभिन्न प्रणाली मानी जाती है। उसमें चमत्कार, हृदय-ग्राहिता और गम्भीरता पाई जा सकती है, उस पर उसके निजत्व की छाप लगी हो सकती है, उसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार की छटा दिखलाई पड़ सकती है, पर उस शैली अथवा प्रणाली की गणना 'मुहावरा' में नहीं हो सकती। ब्राउनिंग के कतिपय मुहावरे नीचे दिए जाते हैं, उनके समझ लेने पर प्रस्तुत विचार पर बहुत कुछ प्रकाश पडेग़ा।

'The boy with his white breast.'

    शब्दार्थ-'सफेष्द छाती का बालक'

    भावार्थ-'शुध्द हृदय का बालक'

'Filletted victim.'

    शब्दार्थ-'पुष्ट जानुवाला वलि'

    भावार्थ-'पुष्ट शरीर का वलि'

What will but felt the fleshy screen.'

    शब्दार्थ-'कौन सी ऐसी इच्छा है जिसे मांस-पिण्ड के बने शरीर को अनुभव न करना पड़ा हो।'

    भावार्थ-'किसी इच्छा ने शरीर-बन्धान का अनुभव नहीं किया।'

'What hand and brain went ever paired.'

    शब्दार्थ-'कौन से हाथ और मस्तिष्क साथ-साथ जुड़े रहे हैं।'

    भावार्थ-जो मनुष्य सोचता है वह सब कर नहीं सकता।'

    ब्राउनिंग के वाक्य और उन वाक्यों के शब्दार्थ और भावार्थ को पढ़कर उनके वाग्वैचित्रय को कौन स्वीकार न करेगा। उन्होंने भाषा के प्रयोगों और आनुषंगिक भावों के साहचर्य से जिन विचित्रा वाक्यों की उद्भावना की है, वे गम्भीर और उदात्ता हैं, किन्तु अत्यन्त जटिल हैं। उनके समझने में बहुत माथापच्ची करनी पड़ती है, फिर भी उनका अर्थ स्पष्ट नहीं होता। निम्नलिखित वाक्यों को देखिए इनका कई अर्थ किया जाता है।

           (1)   'Archers of Athens tapped by the tetli.'

           (2)   Mark within my eye its iris mystic lettered.'

    संस्कृत में महनीय-कीर्ति माघ की रचनाएँ भी जटिल हैं, उनके अनेक श्लोक ऐसे हैं, जिनका अर्थ करने में दाँतों पसीना आता है। मल्लिनाथ जैसे समर्थ टीकाकार को उनकी टीका करने में अपनी समस्त आयु लगानी पड़ी। किम्वदन्ती प्रसिध्द है-'मेघे माघे गतं वय:'। कबीर साहब के कुछ पद और कविवर सूर के दृष्टकूट भी बहुत गम्भीर और जटिल हैं, उनका अर्थ करना भी लोहे के चने चबाना है। कबीर साहब के कई एक पद तो ऐसे हैं कि उनका अर्थ करना ही झख मारना है; फिर भी भक्ति-उद्रेक से उनमें विचित्राता का अनुभव किया जाता है, और उनके अर्थ करने की चेष्टा की जाती है। एक उदाहरण लीजिये-

''ठगिनी क्या नयना झमकावै।

कबिरा तेरे हाथ न आवै।

कद्दू काटि मृदंग बनाया नीबू काटि मजीरा।

सात तरोई मंगल गावैं नाचै बालम खीरा।

भैंस पदमिनी आसिक चूहा मेढ़क ताल लगावै।

चोला पहिरि गदहिया नाचै ऊँट विसुन पद गावै।

आम डार चढ़ि कछुआ तोड़ै गिलहरि चुनि चुनि खावै।

कहै कबीर सुनो भाई साधाो बगुला भोग लगावै।''

    एक पद और देखिए-

''यहि बिरवा चीन्है जो कोय। जरा मरन रहिते तन होय।

बिरवा एक सकल संसार। पेड़ एक फूटल तिनि डार।

मधयकि डारि चारि फल लागा। साखा पत्रा गिनै को वाका।

बेलि एक त्रिाभुवन लपटानी। बाँधोते छूटै नहिं ज्ञानी।

कहैं कबीर हम जात पुकारा। पंडित होय सो लेहु बिचारा।''

    दोनों पदों में से दूसरे पद में तो अर्थ-बोधा की कुछ सामग्री है भी; किन्तु पहला पद विचित्रा है, उसका अर्थ करना पानी को मथ कर घी निकालना है, तथापि ऊटपटांग अर्थ करनेवाले मिल ही जाते हैं।

    एक पद कविवर सूरदासजी का देखिए-

''इन्द्र उपबन इन्द्र अरि दनुजेन्द्र इष्ट सहाय।

सुन्न एक जु थाप कीने होत आदि मिलाय।

उभय रास समेत दिनमनि कन्यका ए दोइ।

सूरदास अनाथ के हैं सदा राखन वोइ।''

    यह पद भी जटिल है, बहुत सिर मारने पर ही तथ्य-लाभ की आशा हो सकती है। ब्राउनिंग के वाक्य भी इसी प्रकार के हैं, प्रसंग के अनुसार उस पर गहन विचार करने ही से सिध्दि-लाभ की आशा हो सकती है।

    हिन्दी-संसार में भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से कविवर केशवदास की रचनाओं का प्रधाान स्थान है, उनके एक-एक पद्य के चार-चार, पाँच-पाँच अर्थ होते हैं। उनकी रचनाएँ इतनी पाण्डित्यपूर्ण होती हैं कि साधाारण विद्या-बुध्दि का मनुष्य उनको समझ नहीं सकता; उनका वाग्वैचित्रय भी विलक्षण है। शब्द-योजना और प्रौढ़ रचना में गम्भीरताप्रिय कविपुंगव देव का भी विशेष स्थान है, उनकी भाव-प्रकाशन शैली भी विचित्रा है। कहीं उनका शब्द-विन्यास इतना अपूर्व है कि वैसा कहीं अन्यत्रा दृष्टिगोचर नहीं होता। 'गोरो गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात', 'बिछौनन-बीच बिछी जनु बीछी', 'लाज के निगड़ गड़दार अड़दार चहूँ चौंकि चितवन चरखीन चमकारे हैं', आदि वाक्य-विन्यास कितने विलक्षण हैं। प्रयोजन यह कि यदि वाग्वैचित्रय का विचार करने लगें, तो हिन्दी-संसार के अनेक कविपुंगवों में यह विशेषता दृष्टिगोचर होगी। कोई यदि लिखता है, 'तन जोति जुन्हाई उईसी परै', 'मुखचारुता चारु चुईसी परै', तो दूसरा लिखता है, 'गिरिते गरेते निज गोदते उतारै ना', 'गुलगुली गिल में गलीचा हैं, गुनीजन हैं, गजक गिजा है, औ चिरागन की माला है' इत्यादि। प्रयोजन यह कि ब्राउनिंग-सा वाग्वैचित्रय अथवा विशेष प्रकार से भाव-व्यंजन-शैली संस्कृत और हिन्दी भाषा के अनेक लब्धाप्रतिष्ठ और मान्य कवियों की रचना में पायी जाती है, परन्तु उनको 'मुहावरा' नहीं माना जाता। दोनों भाषाओं में उनकी गणना शब्दालंकार अथवा अर्थालंकार के भीतर होती है। इसलिए वेबस्टर साहब ने चतुर्थ भेद 'मुहावरे' का जो माना है, मेरा विचार है, वह हिन्दी भाषा में गृहीत नहीं हो सकता।

    यह कहा जा सकता है कि जो सर्वमान्य प्रतिष्ठित कविवृन्द हैं; जिनकी भाषा टकसाली मानी जाती है; और जिनकी रचनाओं, वाक्य-विन्यास, और शब्द-योजना-प्रणाली को हम प्रमाण-कोटि में ग्रहण करते हैं, क्या वे लोग हमारे साहित्य-पथ के आदर्श नहीं हैं? यदि हैं तो उनके इस प्रकार के उदाहरणों और प्रयोगों को विशेषता क्यों न दी जावे? यह सत्य है, किन्तु वे ही तो रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल हैं। भाषा-तत्तवविदों और आचार्यों ने बोलचाल पर दृष्टि रखकर जो वाक्य-रचना-प्रणाली उद्भावन कर दी है, जिस प्रकार शब्द-विन्यास कर उदाहरण उपस्थित किया है, वे ही हमारे आदर्श हैं, और उसी आदर्श का नाम रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल है। जहाँ यह रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल साधाारण वाक्य से आगे बढ़कर लक्षणा अथवा व्यंजना द्वारा अपना भाव प्रकट करता है और शब्दार्थ से काम नहीं लेता, वहाँ वह मुहावरा हो जाता है। अतएव 'मुहावरा' के वही दो व्यापक स्वरूप गृहीत होते हैं, जिनका निरूपण मैं ऊपर कर आया हूँ।

    वेबस्टर साहब का पाँचवाँ लक्षण अथवा भेद शब्द तक परिमित है; वाक्य रूप में वह गृहीत नहीं होता, अतएव वह मुहावरा नहीं माना जा सकता। यदि वाक्य-स्वरूप ही में उसे ग्रहण कर लें, तो उसका अन्तर्भाव बोलचाल में ही हो जावेगा। अतएव सब प्रकार से अन्तिम निर्णय यही होता है, कि हिन्दी में मुहावरे के व्यापक स्वरूप दो ही होंगे एक रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल और दूसरा स्वयं मुहावरा।

मुहावरों का आविर्भाव

    मुहावरों की उत्पत्तिा कैसे हुई, कैसे वह फूलती-फलती और विस्तृत होती है उसके साधान क्या हैं, उसमें परिवर्तन होता है या नहीं, और यदि होता है तो किस प्रकार, अन्य भाषा से मुहावरे लिये जाते हैं या नहीं, और यदि लिये जाते हैं, तो किन नियमों के साथ-इन बातों पर प्रकाश डालना आवश्यक जान पड़ता है। अतएव मैं अब इस ओर प्रवृत्ता होता हूँ।

    1. पहली बात मुहावरों का आविर्भाव अथवा उनकी उत्पत्तिा है, वह विभिन्न कारणों और अनेक सूत्राों से होती है। मनुष्य के कार्य-क्षेत्रा विस्तृत हैं; उसके मानसिक भाव भी अनन्त हैं। घटना और कार्य-कारण-परम्परा से जैसे असंख्य वाक्यों की उत्पत्तिा होती है, उसी प्रकार मुहावरों की भी। अनेक अवसर ऐसे उपस्थित होते हैं, जब मनुष्य अपने मन के भावों को कारण-विशेष से संकेत अथवा इंगित किम्वा व्यंग्य द्वारा प्रकट करना चाहता है। कभी कई एक ऐसे भावों को थोड़े शब्दों में विवृत करने का उद्योग करता है, जिनके अधिाक लम्बे-चौड़े वाक्यों का जाल छिन्न करना उसे अभीष्ट होता है। प्राय: हास-परिहास, घृणा, आवेग, उत्साह आदि के अवसर पर उस प्रवृत्तिा के अनुकूल वाक्य-योजना होती देखी जाती है। सामयिक अवस्था और परिस्थिति का भी वाक्य-विन्यास पर बहुत कुछ प्रभाव पड़ता है। और इसी प्रकार के साधानों से मुहावरों का आविर्भाव होता है। अपने 'वर्डस् एण्ड इडियम' नामक ग्रंथ में श्रीमान् स्मिथ यह लिखते हैं-

         ¹ ''जिस प्रकार शब्दों के लाक्षणिक अर्थ होते हैं, ठीक उसी प्रकार बहुत से शब्द-समुदायों के भी लाक्षणिक अर्थ मिलते हैं। जिस स्थल-विशेष से उनकी उत्पत्तिा हुई है, देखा जाता है उनका व्यवहार उनके विपरीत अर्थों

 ¹   The way in which words take on metaphorical meaning is one of the best known of linguistic phenomena the same thing happens to many phrases which also acquire figurative meaning and are used for acts or circumstances more or less analogous to

    में होता है। प्राय: ये लाक्षणिक प्रयोग स्पष्ट होते हैं। पर बहुत से साधाारणतया प्रचलित मुहावरों का प्रयोग उनके उत्पत्तिा-स्थल तथा उनके आरम्भिक अर्थ के ज्ञान के बिना ही किया जाता है।''

            † ''वास्तव में कुछ ऐसे मुहावरे भी हैं, जिनका पूर्ण निश्चित विवरण देने में विशेषज्ञ भी असमर्थ हैं। इस प्रकार के असम्बध्द वाक्य-समूह हमारी भाषा के अनेक मुहावरों की विचित्राता हैं, और इस बात के परिचायक हैं कि मनुष्य-मस्तिष्क में निष्फल तथा असम्बध्द बातों का भी बहुत कुछ अंश है, एवं मनुष्य-समुदाय असंगत तथा उच्छृंखल प्रयोगों को प्यार करता और तर्क के सामने झुकने में कुछ आनाकानी करता है। जिसके परिणाम-स्वरूप कभी-कभी बन्धान-विच्छेद करके वह मुहावरेवाली भाषा का प्रयोग कर बैठता है। अपने शब्दों में स्पष्टता देने के लिए हम लोग उन्हें कुछ अर्थ देना चाहते हैं-तथापि हम लोग कभी-कभी बेमतलब के शब्दों को ही प्रधाानता देते दिखाई पड़ते हैं। ऐसा मालूम होता है जैसे वह असम्बध्दता ही कभी-कभी हमारे धयान को आकर्षित करती तथा स्पष्टता एवं सुन्दरता को बढ़ातीहै।''

         ¹ 2. ''लाक्षणिक अर्थवाले एवं व्याकरण-सम्बन्धाी मुहावरों की अधिाक संख्या साधाारण व्यवसायों तथा प्रचलित खेलों से ली गयी है। मनुष्य के प्रत्येक व्यवसायों में उससे सम्बन्धा रखनेवाली वस्तुओं तथा कठिनाइयों के वर्णन

     those which gave them birth. Often these figurative idioms are more or less transparent. But many of our most current idiomatic pharases we use with little or consciousness of their original use and signification.

(Words and Idioms, pp. 185–6)

 † Indeed, there are a number of idiomatic phrases for which even specialists have not been able to find a completely certain explanation. This expressiveness of irrelevant phrases is a curious feature of many of our idioms and seems to show that there is a certian irrelevance in the human mind, a certain love for the illegical and absurd, a reluctance to submit itself to reason, to which break losse now and then, and finds exprssion for itself in idiomatic speech. We like our words to have a meaning for we like them to be vivid; but we somtimes seem almost to perfer inappropriate meaning, as if their very irrelevance appealed to the imagination and added to their vividness and charm.

(Words and Idioms, pp. 186-187)

 ¹   Metaphorical idioms, and indeed, many Grammatical idioms also come to us in great numbers from humble occupations and popular forms of sport, each kind of human activity has its own vocabulary, its terms to describe its materials, its method, its difficulties and its aims and from these vocabularies not only words, but idiomatic phrases often make their way into the standard language. Our speech is never adequate to express the inexhaustible richness of life, with all its relaitons and thoughts, and

    के लिए अपने शब्द-समुदाय तथा उद्देश्य होते हैं। इन व्यावसायिक भाषा के केवल शब्द ही नहीं, वरन् मुहावरे तक हमारी नियमित भाषा में आ जाते हैं। हमारी नियमित भाषा शब्द-निर्माण की कठिनाइयों के कारण अन्य भाषा-निर्मित मुख्य-मुख्य व्यवहारात्मक तथा प्रचलित शब्द-समुदायों को ग्रहण कर लेती है। इसके अतिरिक्त इसका कारण यह भी है कि जीवन के प्रत्येक स्थल की अनेक बातों को उचित रूप से प्रकाश करने में वह समर्थ नहीं होता। एक यह भी कारण है कि साधाारण व्यवसाय तथा शिकार आदि में लगे हुए मनुष्यों द्वारा निर्मित मुहावरे स्पष्ट, सजीव, सुन्दर, तथा बोलचाल के उपयुक्त होते हैं और उनका आवेशमय आलाप में स्वागत किया जाता है। नाविक, शिकारी, मजश्दूर, रसोइये, कभी-कभी जशेरदार आज्ञा तथा चेतावनी देने में ऐसे शब्द-समुदायों की रचना कर डालते हैं, जो स्पष्ट तथा घरेलू होते हैं और उनके सामने की वर्तमान सामग्रियों से गृहीत होते हैं। ये आलंकारिक वाक्य-समूह उनके अन्य साथियों का धयान आकर्षित करते हैं, जो अपने व्यवसाय तथा शिकार आदि की भाषा में उनको स्थान देते हैं। शीर्घ ही इनमें से कुछ शब्द-समुदाय विशेष तथा विस्तृत अर्थों का प्रतिपादन करने लगता है। और कभी सुविधाा के लिए, कभी बातचीत में हँसी-मजशक का पुट देने के लिए भिन्न परिस्थितियों में प्रयुक्त होता है।

 

     feelings; the standard language is hampered, too, by many impediments in the always difficult process of word-formation, and is therefore ready to seize on any of the special terms which are already current, and to which it can give the wider significance it desires. Then too the idioms and happy phrases invented by people engaged in popular sports and occupations being terse, colloquial, vivid and charged with eager life, are just the kind that are sought for and welcomed in animated speech. Sailors at sea, hunters with dogs, laboureres in the fields, cooks in their kitchens, needing in some crisis a vigorous phrase of communal or warning or reprobation, have often hit on some expressive collocation of words, some vivid and homely metaphor from the objects before them; and these phrases and metaphors striking the fancy of their companions have adopted into the vocabulary of their special sport or occupation. Soon a number of these phrases are found to be capable of a wider use; often for convenience, often with a touch of humour, they come to be applied to analogous situations; a salior applies his sea phrases to the predicaments in which he finds himself on land; the fisherman (as indeed we see in the gospels) talks of life in terms of fishing, the housewife helps herself out with metaphors from her kitchen or her farmyard, the sportsman expresses himself in the idioms of his sport, the little by little the most useful of these phrases make their way by the means which have been described in a former chapter, from popular speech into the strandard language and come to be universally understood. (Words and Idioms, pp. 188-189)

    नाविक जल-सम्बन्धाी शब्द-समुदाय को स्थल-सम्बन्धाी अपनी अवस्थाओं के वर्णन में व्यवहार करता है, मछुआ जीवन-सम्बन्धाी बातें मछली मारने के शब्दों में प्रकट करता है। एक गृहस्थ स्त्राी अपने भाव-प्रकाशन में पाकशाला के शब्दों की सहायता लेती है और एक शिकारी शिकार के शब्दों में अपने भाव प्रकाशित करता है। इसी प्रकार शनै:-शनै: बहुत से भड़कदार तथा लाभदायक शब्द साधाारण बोलचाल से नियमित भाषा में चले आते हैं और सब उन्हें समझने लगते हैं।''

         ¹ 'शब्द-रचना के समान शब्द समुदाय की रचना भी मुख्यतया अशिक्षित समाज से हुई है। हमारे भड़कदार तथा सजीव शब्दों के समान, हमारी भाषा के अच्छे मुहावरे पुस्तकालय या बैठकखाने तथा चमकीले तमाशागाहों से उत्पन्न न होकर कारख़ानों, रसोईघरों, खेत तथा खलिहान आदि में निर्मित हुए हैं।''

    श्रीमान् स्मिथ ने जो कुछ अंग्रेजश्ी मुहावरों के आविर्भाव के विषय में कहा है, थोडे अन्तर से ही वे बातें हिन्दी मुहावरों के लिए भी कही जा सकती हैं। इसलिए ऊपर के अवतरणों से आशा है कि प्रस्तुत विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा। अब कुछ उदाहरणों को देकर मैं इस विषय को और स्पष्ट करूँगा।

    संस्कृत का एक मुहावरा है-'काष्ठ प्रदान'श्रीमान् जीवानन्द विद्यासागर सम्पादित पंचतंत्रा के 85 पृष्ठ में इसका प्रयोग हुआ है। प्रतप्त कौलिक अपने मित्रा रथकार से कहता है-

''यदि त्वं मां सुहृदंमन्यसे, तत: काष्ठप्रदानेन प्रसाद: क्रियताम्''

    ''यदि तुम मुझको मित्रा मानते हो तो 'काष्ठ प्रदान' करने की कृपा करो।'' विद्यासागरजी ने 'काष्ठ प्रदान' का अर्थ यह लिखा है-

    ''काष्ठप्रदानेन चितारचनेन इत्यर्थ:''

    डॉक्टर यफष् कीलहार्न पी.एच.डी. अपने पंचतंत्रा के नोट्स में (पृष्ठ 18) यह लिखते हैं-

           The offering of wood' for the preparation of funeral pile.

    ''चिता बनाने के लिए लकड़ी दीजिए'' (वा जमा कीजिए)

    गोडबोले महोदय उक्त ग्रन्थ के अपने नोट्स में (पृष्ठ 62) यह अर्थ लिखतेहैं-

 

 ¹   The phrase-making, like the word-making, faculty belongs pre-eminently to the unlettered classes, and our best idioms, like our most vivid and living words, come to us, not from the library or the drawingroom or the ''gay-pattere,'' but from the workshop, the kitchen and the farm-yard. (Words and Idioms, p. 212)

           Let a favour be done by giving (me) wood, by burning me.

    ''मुझे जलाने के लिए लकड़ी देने की कृपा कीजिए''

    तीनों अर्थों में अभिधाा शक्ति से काम नहीं लिया गया है, लक्षणा अथवा व्यंजना से ही भाव ग्रहण करने की चेष्टा की गयी है। तीनों का तात्पर्य अन्तिम संस्कार है। अन्तिम संस्कार करने के लिए चिता की आवश्यकता होती है, और चिता लकड़ी संग्रह करके बनाई जाती है, अतएव इस कार्य-परम्परा पर दृष्टि रखकर कौलिक 'काष्ठ प्रदान' शब्द का प्रयोग करता है और उसके द्वारा अन्त्येष्टिक्रिया करने की सूचना देकर यह बतलाता है कि अब मेरा अन्तिम समय समीप है। इतने भावों का द्योतक एक छोटा वाक्य 'काष्ठ प्रदान' है, इसके द्वारा मुहावरे के प्रयोग और उसके उत्पत्तिा के कारण पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। इस 'काष्ठ प्रदान' वाक्य की सार्थकता उस समय और बढ़ जाती है जब उस क्रिया का धयान किया जाता है, जो किसी मृतक के अन्तिम संस्कार के समय की जाती है। जब मृतक जल जाता है और संस्कारक्रिया समाप्तप्राय होती है, उस समय शव के साथ जानेवाले अपने-अपने स्थान से उठते हैं और कतिपय काष्ठखण्ड सहयोगसूचन और मृतक-प्रति स्नेह-प्रदर्शन के लिए चिता में डालते हैं। तत्पश्चात् स्नान करके और तिलांजलि देकर घर वापस आते हैं। मेरा विचार है कि 'काष्ठ प्रदान' मुहावरे की उत्पत्तिा इसी क्रिया को देखकर हुई है। जो अर्थ विद्वानों ने ऊपर किए हैं, वे अस्पष्ट हैं और उनके द्वारा उस मुहावरे पर उतना प्रकाश नहीं पड़ता जितना इस 'काष्ठ प्रदान' की प्रचलित परम्परा द्वारा।

    पंचतन्त्रा के पृष्ठ 23 में एक वाक्य है-'अर्ध्दचन्द्रम् दत्वा निस्सारित:' अर्धाचन्द्र देना, एक मुहावरा है, इसका अर्थ है-गरदनिया देना, अथवा गला पकड़ कर बाहर निकाल देना। विद्यसागर महाशय इसका अर्थ यह करते हैं-

''अर्ध्दचन्द्र: गलहस्त इत्यर्थ:''

    और व्याख्या यों करते हैं-

''अर्ध्दचन्द्रस्य अर्ध्दचन्द्राकारकरस्य दानेन'' (सरल पंचतन्त्रा, पृ. 29)

    गोडबोले महोदय अपने अंग्रेजश्ी नोट्स में इसका यह अर्थ बतलाते हैं-

    अर्ध्दचन्द्र:-The bent into a semicircle like the crescent of the moon for the purpose. of seizing, चन्द्रार्ध्द: means literally 'the half moon' and figuratively to sieze between the thump and the forefinger (both stretched out). P. 36-37. (पंचतन्त्रा)

    ''हाथ को बालचन्द्र की भाँति गला पकड़ने के लिए अर्ध्द वृत्तााकार रूप में परिणत करना।''

    ''इसका शब्दार्थ आधाा चन्द्रमा है, जिसका व्यंग्यार्थ यह है कि ऍंगूठा और तर्जनी दोनों को गला पकड़ने के लिए (अर्ध्दचन्द्राकार) फैलाना।'

    प्रयोजन यह कि गरदनिया, देने के लिए जब हम किसी का गला पकड़ते हैं, तो हाथ के ऍंगूठे और तर्जनी के फैलने पर उसके मधय का आकार अर्धाचन्द्र का-सा हो जाता है। अतएव यह स्पष्ट है कि 'अर्ध्दचन्द्र देना' मुहावरे की उत्पत्तिा इसी आधाार से हुई।

    'दाँतकाटी रोटी' एक मुहावरा है, जिनमें परस्पर बड़ी घनिष्ठता और एकान्त प्रीति होती है, उनके लिए इस मुहावरे का प्रयोग होता है।

    विशेष सम्बन्धा होने पर भारतीय हिन्दू एक-दूसरे का स्पर्श किया हुआ भोजन ग्रहण करते हैं, साथ बैठकर खाना भी साधाारण बात नहीं। अपनी थाली में किसी बड़े प्यारे को ही खिलाया जाता है। ऐसे कोई मिलेंगे जो एक-दूसरे के दाँत की काटी रोटी खा सकते हों, ऐसा वे ही लोग करेंगे जिनकी आत्मीयता अथवा प्रेम की पराकाष्ठा हो गयी हो। इसी बात पर दृष्टि रखकर 'दाँतकाटी रोटी' मुहावरे की उद्भावना हुई है।

    'दाँत निकालना' भी एक मुहावरा है। इसका अर्थ है-दीनता दिखलाना, गिड़गिड़ाकर किसी वस्तु के लिए प्रार्थी होना। हम लोग बराबर देखते हैं कि जब कोई भूखा मनुष्य, अथवा कोई अर्थी जन किसी से अन्न की अथवा किसी दूसरी वस्तु की दीन बनकर प्रार्थना करता है, तो उस समय उसके दाँत निकल आते हैं। इसी को लक्ष्य कर 'दाँत निकालना' मुहावरे की सृष्टि हुई है।

    श्रीमान् स्मिथ ने अनेक मुहावरों के आविर्भाव के विषय में जो कुछ लिखा है, उसका कुछ अंश भी प्रस्तुत विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए यहाँ उध्दाृत किया जाता है-

         ¹ ''शिकार, शिकरी कुत्तो तथा घोड़ों से हमारी बोलचाल की भाषा में बहुत से शब्द आ गये हैं, अन्य सभी पशुओं की अपेक्षा घोड़े तथा कुत्ताों से लिये गये मुहावरे अधिाक हैं-

 

 ¹   From the chase, from hounds and horses, many phrases have come to enrich our colloquial speech, and of all animals the dog and the horse play largest parts in idiom.

(Words and Idioms. p. 195).

           ''To rain cats and dogs."

    शब्दार्थ-'बिल्ली और कुत्तो बरसना'

    भावार्थ-'मूसलाधाार पानी बरसना'

           "To lead a cat and dog life."

    शब्दार्थ-'बिल्ली और कुत्तो का-सा जीवन बिताना'

    भावार्थ-'तुच्छ जीवन व्यतीत करना।'

     +''ये दो मुहावरेदार प्रयोग दो पालतू पशुओं (कुत्तो और बिल्ली) की परम्परागत शत्राुता का संकेत करते हैं''-

           "To show the white feather."

    शब्दार्थ-'सुफेद पंख दिखलाना'

    भावार्थ-'हार मानना'

                 †  † ''इस मुहावरे की उत्पत्तिा मुर्गों की लड़ाई पर दृष्टि रखकर हुई है, क्योंकि शिकारी पक्षियों में श्वेत पंख का होना पालन-पोषण में त्राुटि होने का द्योतक है।''

           "To lick into shape."

    ''चाटकर आकार देना''

           "Unlicked cub."

    ''बिना चाटा हुआ बच्चा''

     f''इनकी उत्पत्तिा इस यूरोपीय दन्तकथा के आधाार से हुई है कि रीछ इसी प्रकार अपने बच्चों के आकार की रचना करते हैं।''

           "To hide ones head in the sand."

    ''बालू में अपने शिर को छिपाना''

        ff''इसकी उत्पत्तिा घबड़ाए हुए शुतुर्मुर्ग के आचरण से हुई है।''

           "Crocodile's tears."

    ''घड़ियाल के ऑंसू''

 

+  Refer to the traditional enimity between these two domestic animals. (Words and Idioms, p. 200).

 †  †            A white feather in the tail of a game bird being a sign of bad breeding. (Words and Idioms, p. 202).

f  Are drived from the notion of European folklore that bears give form to their cubs in this manner.

ff        'Is from the supposed behaviour of embarrassed ostriches.'

           +-×''इसकी उत्पत्तिा कोवेनान्टर्स के समय से हुई, जब राजकीय रक्तवर्ण के विरुध्द नील वर्ण को ही उन्होंने अपने लिए स्वीकार किया।''

मुहावरों का आविर्भाव और मूल भाषा एवं अन्य भाषा

    मुहावरों का आविर्भाव कैसे होता है, उसके क्या हेतु और साधान हैं, इसका उल्लेख मैं थोड़े में कर चुका। अब मैं यह दिखलाऊँगा कि किस प्रकार वे मूल भाषा अथवा अन्य भाषा के आधाार से किसी भाषा में प्रचलित हो जाते हैं। पहले मूल भाषा को लीजिये। चलती भाषाओं में बहुत से ऐसे मुहावरे मिलते हैं, जो कहीं से प्रसूत जान पड़ते हैं, किन्तु वास्तव में वे अनेक परिवर्तनों के परिणाम होते हैं, और उनका अस्तित्व मूल भाषा में मिलता है। अतएव किसी भाषा के मुहावरों के आविर्भाव का प्रथम क्षेत्रा मूल भाषा है। हिन्दी भाषा के अनेक मुहावरे संस्कृत मुहावरों के अनुवाद ज्ञात होते हैं, किन्तु वास्तव में वे अनुवाद नहीं हैं। संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश; और अपभ्रंश से हिन्दी में आये हैं। कुछ ऐसे मुहावरे नीचे लिखे जाते हैं; किसी-किसी का प्राकृत रूप भी लिख दिया गयाहै।

  संस्कृत मुहावरे               हिन्दी मुहावरे

  कर्णे लगति चैकस्य प्राणैरन्यो वियुज्यते     कान लगना

  पदं मूर्धिन समाधात्तो केसरी मत्तादन्तिन:    शिर पर पाँव रखना

  अधाुना मन्मुखमवलोकयसि     मुँह देखना

  पदमेकं चलितुं न शक्नोति      पगभर न चल सकना

  शिरस्ताडयन् प्रोवाच            शिर पीट कर कहना

  घासमुष्टिमपि न प्रयच्छति      मूठी भर घास

  कश्चित् तस्य ग्रीवायां लगति     गले लगना

  कर्णमुत्पाटयामि ते            कान उखाड़ना

  तत्रा कतिचिद्दिनानि लगिष्यति (पंचतंत्रा) वहाँ कुछ दिन लगेंगे

नगरगमनस्य मन: कथमपि न करोति (शकुन्तला नाटक) मन न करना

  संस्कृत             प्राकृत          हिन्दी

  न खलु दृष्ट मात्रास्य तवा(ं           ण क्खु दिट्ठमेतस्य    

  समारोहति           तुह अ( समारोहदि

 

+   'Come from the belife that crocodiles shed tears while eating human beings.' (Words and Idioms, p. 234).

×   'Comes from the times of the Covenanters, who adopted blue as their colour in contradistinction to the royel red.' (Words and Idioms, p. 221).

  संस्कृत          प्राकृत           हिन्दी

  अन्यथावश्यं सिंचतं मे              अणहा अवस्सं सिंचधा   

  तिलोदकम्        तिलोदअं(शकुन्तलानाटक)

  जला×जलिर्दीयते    जलंजली दिज्जदि   जलांजलि देना

  भणोत् उन्मुद्रितया जिह्नया          भणउम्मुद्दिआये जीहाये   खुली जीभ से

  तद्दीयते पिशुनलोक  तादिज्जये पिसुणलोअ   कहना

  मुखेषु मुद्रा        मुहेसु मुद्दा (कर्पूरम×जरी) मुँह पर मोहर लगाना

    किस प्रकार मूलभाषा के मुहावरे शनै: शनै: परिवर्तित होकर तत्प्रसूत प्रचलित भाषाओं में व्यवहृत होते हैं, यह बात ऊपर के वाक्यों पर विचार करने से भलीभाँति हृदयंगम होगी। मुहावरों के आविर्भाव के इतिहास में सबसे पहले यही प्रणाली सामने आती है, जितने हेतु मुहावरों के आविर्भाव के हैं, उन सबमें मैं इसको प्रधाान मानता हूँ। इसके बाद उन मुहावरों का स्थान है, जो किसी अन्य भाषा से गृहीत होते हैं। ऐसे मुहावरे मुख्य रूप में अल्प मिलते हैं, अधिाकांश वे पूर्ण अनुवादित किम्वा अर्ध्द-अनुवादित रूप में देखे जाते हैं। भिन्न-भिन्न जातियों के साहचर्य, परस्पर आदान-प्रदान, जेता और विजित जाति के विविधा सम्बन्धा-सूत्राों से जैसे बहुत से व्यावहारिक वाक्य, विचार, आदर्श और नाना सिध्दान्त एक भाषा के दूसरी भाषा में प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार कुछ मुहावरे भी। अपेक्षित भाव का अभाव, माधाुर्य की न्यूनता और लेखनशैली की वांछित हृदयग्राहिता भी एक 'असमृध्दा भाषा' को दूसरी समृध्द भाषा से मुहावरे ग्रहण करने के लिए विवश करती है। यद्यपि एक भाषा के मुहावरे का अनुवाद दूसरी भाषा में प्राय: नहीं हो सकता, फिर भी यथासम्भव यह कार्य किया जाता है। श्रीमान् स्मिथ लिखतेहैं-

         ¹ ''अंग्रेजी भाषा में स्वाभाविक व्यवहार से कुछ शब्द-समुदायों की रचना हो गयी है, जिनका यदि हम अन्य भाषाओं में अनुवाद करना चाहें, तो हमें भाव-द्योतक शब्द-समुदाय ही देना पड़ेगा। यदि हम शाब्दिक अनुवाद करेंगे तो सफल न हो सकेंगे। वास्तविक मुहावरे के जाँचने की कसौटी अनुवाद है, कहीं-कहीं शब्दश: अनुवाद करने में साधाारण-समुदाय के भी मुहावरे-द्योतक भाव नष्ट हो जाते हैं।''

 ¹   "Our speech is full of habitual phrases, which, if translated into a foreign languge, must be rendered in some equivalent phrase, not in a word-for-word translation. This test of a translation is a good touchstone of idiom. Even the simple phrasal collocation would lose its idiomatic force in a word-for-word translation." (Words and Idioms, pp. 176-177)

            † ''अन्य भाषाओं के अधिाकतर मुहावरों का अनुवाद यदि हम अपनी भाषा में ठीक-ठीक कर लेवें तो भी इससे उसकी पूर्ति न होगी; उस समय तक जब तक कि उन्हें अपनी भाषा के प्रयोगों के अनुसार न बना लें।''

    तथापि यह स्वीकार करना पड़ता है, मुहावरों का भावानुवाद तो होता ही है, शाब्दिक अनुवाद भी होता है, और अधिाकतर होता है। जहाँ मुहावरों के पूर्ण अथवा अर्ध्द-शाब्दिक अनुवाद से काम चल जाता है, वहाँ भावानुवाद की ओर दृष्टि जाती ही नहीं। शाब्दिक अनुवाद में असफलता होने पर भावानुवाद की शरण ली जाती है। श्रीमान् स्मिथ स्वयं एक स्थान पर लिखते हैं-

         ¹ ''बाइबिल के अंग्रेजश्ी अनुवादों का अंग्रेजश्ी भाषा पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। कई शताब्दियों तक इंग्लैण्ड में कोई पुस्तक इतनी अधिाक नहीं पढ़ी गई, जितनी बाइबिल। बहुत से शब्द और मुहावरे, जो बहुधाा हेब्रू और ग्रीक शब्दों के अक्षरश: अनुवाद हैं-हमारी भाषा में सम्मिलित कर लिये गये हैं''

    गुणग्रहिता योग्यता-लाभ की कुंजी है, रत्नचय का संग्रह समृध्दता का प्रधाान उपकरण है। सद्वस्तु की आकांक्षा सफलता-लाभ का साधान है और कुसुमचयन सौंदर्यप्रियता की सामग्री। उन्नत जातियों में इन गुणों का विकास पूर्ण रूप में पाया जाता है; वे उनसे लाभ उठाते हैं, और जीवन के उपयोगी साधानों को इनके द्वारा अलंकृत करते रहते हैं, अंग्रेजश् जाति भी एक समुन्नत जाति है, इसीलिए उनमें भी इस प्रकार के गुणों का विकास उचित मात्राा में पाया जाता है। यही कारण है कि उनकी मातृभाषा को हम उपयोगी उपकरणों से सुसज्जित पाते हैं, और उसमें अन्य भाषाओं के बहुत से सुन्दर मुहावरे, रत्न-समान जगमगाते मिलते हैं। इन रत्नों को उन लोगों ने अनेक स्थानों से संग्रह किया है, और अपनी भाषा में उनको उचित स्थान दिया है। कहीं वे मुख्य रूप में पाए जाते हैं, कहीं उनमेंउचित परिवर्तन मिलता है। अपने 'वड्र्स ऐण्ड इडियम' नामक ग्रंथ में मिस्टर स्मिथ ने इसका बड़ा विस्तृत वर्णन किया है। उसके विशेष अंशों को यदि मैं इस भूमिका

 

 † "With the greater number of foreign idioms, however a literal translation will not suffice; they must be re-embo-died in the run and rhythm of our speech, given a metallic ring to make them current, and stamped perhaps for this purpose with another image. (Words and Idioms, p. 402)

 ¹   The immense influence on our language of the English translations of the Bible has often been remarked on; for centuries the Bible has been the book which has been most read and most quoted in England; not only many words, but many idiomatic phrases (often the literal translations of Hebrew or Greek idioms) have been added to. our language from its pages. (Words and Idioms, p. 223)

में उठा पाता, तो उससे आप लोगों का विशेष मनोरंजन होता, किन्तु स्थान-संकोच के कारण मैं ऐसा न कर सका। अंग्रेजश्ी में किस उदारता से अन्य भाषाओं के मुहावरे ग्रहण किए गये हैं, और उसमें कितनी व्यापकता है; मिस्टर स्मिथ इस विषय में यह कहते हैं-

         ¹ ''हमारी भाषा में अनुवादित मुहावरों के अतिरिक्त लैटिन, फ्रेंच तथा इटली के ऐसे मुहावरों की भी अधिाक संख्या है, जिन्हें हमने ज्यों-का-त्यों बिना अपनी भाषा का रूप दिए ही ले लिया है।''

    फ्रेंच के निम्नलिखित मुहावरे ऐसे हैं, जो बिना किसी परिवर्तन के ज्यों-के-त्यों अंग्रेजश्ी में ले लिये गये हैं-

           Vice Versa                     Coup'detat                tite-a-tete

    विपरीत क्रम से  राजनीतिक चाल   दो मित्राों की बातचीत

           Mutatis Mutandis—

    आवश्यक परिवर्तन के उपरान्त

    अनुवादित रूप में निम्नलिखित मुहावरे फ्रेंच से अंग्रेजश्ी में आये हैं। उनकी अनुवाद-प्रणाली क्या है? और किस प्रकार भाव के आधाार पर उनकी सृष्टि हुई है, ये बातें उनके शब्दार्थ और भावार्थ पर विचार करने से भली-भाँति हृदयंगम हो सकती हैं-

  फ्रेंच वाक्य  अंग्रेजश्ी वाक्य         अंग्रेजश्ी वाक्य  भावार्थ

  शब्दार्थ सहित                      का शब्दार्थ

     'Faired' unc          'To kill two          एक पत्थर से दो   'एक साधान

     pierre duex           birds with            चिड़ियों को    द्वारा दो

     coups'.                  one stone.'          मारना'       कार्य

  एक पत्थर से                         होना'

  दो चिड़ियों को                    

  मारना

 

*    In addition to the idioms which have been translated into English, there are a large number of Latin, French, and even Italian idioms which we have borrowed without assimilating them in any way. (words and Idioms, p. 248).

  फ्रेंच वाक्य  अंग्रेजश्ी वाक्य         अंग्रेजश्ी वाक्य  भावार्थ

  शब्दार्थ सहित                      का शब्दार्थ

     'Porter aux           'To praise            'आकाश तक   'प्रशंसा का

     unes'.                     to                          प्रशंसा        पुल

  'आकाश तक the skies.'            करना'        बाँधाना'

  ढो ले जाना'

     'Faire fausee        'To take the        'ठीक मार्ग    'पथभ्रष्ट

     route'.                    wrong                  u

  गश्लत रास्ता turning'.               ग्रहण करना'   होना'    

  पकड़ना'    

     'Rix entre              'To laugh             'आस्तीन के बीच   'छिपकर

     cuiretchain'.         between the        में हँसना'     हँसना'

  'चमड़े और मांस        Sleeves?                              

  के बीचमेंहँसना'        

 

    हिन्दी भाषा में किस प्रकार अन्य भाषा के मुहावरे यथातथ्य अथवा अनुवादित हो कर आये हैं, अब मैं उनके उदाहरण दूँगा। उर्दू भाषा कोई अन्य भाषा नहीं, वह हिन्दी भाषा का रूपान्तर मात्रा है, उसमें अरबी और फषरसी के अनेक मुहावरे मुख्य रूप में अधिाकता से प्रयुक्त होते हैं। शुध्द हिन्दी में भी इस प्रकार के प्रयोग होते हैं, परन्तु कम। मौलाना आजशद अपने 'आबेहयात' नामक पुस्तक के पृष्ठ 41 में लिखते हैं-

    ''एक जश्बान (भाषा) के मुहावरे को दूसरी जश्बान में तरजुमा (अनुवाद) करना जायजश् (उचित) नहीं, मगर इन दोनों जश्बानों (फषरसी और उर्दू) में ऐसा इत्तिाहाद (प्रेम) हो गया है, कि यह फर्ष्क भी उठ गया और अपने कारआमद (उपयोगी) ख़यालों को अदा करने के लिए दिलपिजश्ीर (हृदयग्राही) और दिलकश (मनोहर) और पसन्द (प्रिय) मुहावरात जो फषरसी में देखे गये, उन्हें कभी बजिन्स और कभी तरजुमा करके ले लिया गया है।''

    दिल दादन-फषरसी मुहावरा है। अर्थ है,--'आशिकष् होना'। मीर साहब इस मुहावरा को इसी रूप में यों बाँधाते हैं-

'ऐसा न हो दिलदाद: कोई जाँ से गुजश्र जाय',

    तरदामन-फषरसी मुहावरा है। शब्दार्थ है 'पुरगुनाह' (पापी)। मीरदर्द साहब कहते हैं-

'तरदामनी प शेख हमारी न जाइयो।

दामन निचोड़ दूँ तो फिरिश्ते वजूश् करें।''

    चिरागेश् सहरी-फषरसी मुहावरा है। शब्दार्थ है,-'प्रभातदीप', भावार्थ है; 'कुछ क्षण का मेहमान', (मरणोन्मुख)। मीर साहब कहते हैं-

'टुक मीर जिगश्र सोख्ता की जश्ल्द ख़बर ले।

क्या यार भरोसा है चिरागेश् सहरी का।''

    'पुम्बा दहन' और 'दराजश् जश्बान' तथा 'चिरागेश् मुरदा' भी फषरसी के मुहावरे हैं। 'पुम्बा दहन' का शब्दार्थ है 'तूल पूरित मुख', भावार्थ है;-'कम बोलनेवाला''दराजश् जश्बान' का अर्थ है-'लम्बी जीभवाला', भावार्थ है;-'बकबक करनेवाला', (बे अदब)। 'चिरागेश् मुरदा' का अर्थ है,-'मृत प्रदीप'; भावार्थ है;-'बुझा हुआ दीया'

    जशैक कहते हैं-

'शीशये मैकी यह दराजश् जश्बानA

उस प है यह सितम कि पुम्बादहाँ।'

×        ×        ×

'शमामुर्दा के लिए है दमे ईसा आतिश।

सोजिश्शे इश्क से जिन्दा हों मुहब्बत के कतील।''

    ऊपर के शे'रों में फषरसी मुहावरे शुध्द रूप में ही गृहीत हुए हैं; उनमें कोई परर्िवत्तान नहीं हुआ है। उर्दू शे'रों में इस प्रकार के प्रयोगों का आधिाक्य है। हिन्दी रचनाओं में भी इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं-

'हमचश्माें में किया क्यों मुझे ऐ मेरे प्यारे रुसवा।'

×      ×      ×      ×

'जीस्त नहीं है सरासर बस सर गरदानी है यह।  -फूलोंकागुच्छा

                  ×      ×      ×      ×       (हरिश्चन्द्र)

'है जिश्न्दा दर गोर वह जिसको मरने का आजशर नहो।'

×      ×      ×      ×

'वहीं दौड़ उठ के पियाद:पा तुम्हें याद हो कि न याद हो।'

×      ×      ×      ×

'यहाँ तो जाँ बलब है जब से सावन की चढ़ाई है।'

    जिन वाक्यों पर लकीर खिंची है, वे सब शुध्द फषरसी मुहावरे हैं, और अपने मुख्य रूप में ही ऊपर के पद्यों में प्रयुक्त हैं। पूर्ण अथवा अर्ध्द अनुवाद के रूप में भी हिन्दी में बहुत से मुहावरे अरबी और फषरसी से गृहीत हैं। जिनमें फषरसी मुहावरों का शुध्द रूप में प्रयोग हुआ है; 'आबेहयात', से मैंने ऊपर ऐसे उर्दू पद्यों को उठाया है, उसी ग्रन्थ से कुछ अनुवादित मुहावरों के पद्यों को भी नीचे लिखताहूँ।

    फषरसी के मुहावरे         हिन्दी अनुवाद

    'बर आमदन'             'बर आना'

    'बसर आमदन'            'बसर आना'

    उदाहरण-

    सौदा-

'इस दिल के तुफेआह से कब शोला बर आए।

अफष्ई को यह ताकष्त है कि उससे बसर आए।

  फषरसी मुहावरे     हिन्दी अनुवाद    भावार्थ

  'दर आमदन'      'दर आना'       'घुस आना'

                                'मार डालना'

  'पैमाना पुर करदन' 'पैमाना भरना'    'समाप्ति पर होना'

                                'आपे से

  'अजश् जामा बेरूँ शुदन'            'जामा से बाहर होना' बाहर होना'

  'दिल अजश् दस्त   'हाथ से दिल     'वे अख्तिायर

  रफतन'          जाता रहना'      हो जाना'

    उदाहरण-

जौकष्-

'याँ तक न दिल आजशर ख़लायकष् हो कि कोई।

'मलकर लहू मुँह से सफेष् महशर में दर आए'

×          ×          ×

सौदा-

'साकष्ी चमन में छोड़ के मुझको किधार चला।

'पैमाना मेरी उम्र का जशलिम तू भर चला'

जौकष्-

'कब सबा आयी तेरे कूचे से अय यार की मैं।

जो हुबाबे लबे जू जामा से बाहर न हुआ।'

×                  ×             ×             ×

    सौदा-

'हाथ से जाता रहा दिल देख महबूबाँ की चाल।'

    ये उदाहरण ऐसे हैं जिनमें पूर्ण अनुवाद नहीं हुआ है; फषरसी मुहावरे का कोई न कोई शब्द उनमें मौजूद है। एक उदाहरण ऐसा देखिए जिसमें पूरे मुहावरे का अनुवाद है। 'अर्क अर्क शुदन' एक फषरसी मुहावरा है; उसका अनुवाद 'पानी- पानी हो जाना' किया गया है-जौकष् का एक शे'र है-

'आग दोजश्ख की भी हो जाएगी पानी-पानीA

जब ये आसी अरके शर्म में तर जायेंगे।'

    ''पोस्त कशीदन'' भी फषरसी का मुहावरा है, उसका पूरा अनुवाद 'खाल खींचना' है। इसी प्रकार के और मुहावरे भी बतलाए जा सकते हैं। कितने मुहावरे ऐसे हैं, जो फषरसी मुहावरों के पूरे अथवा अधाूरे अनुवाद नहीं हैं, उनकी उत्पत्तिा फषरसी और हिन्दी शब्दों के सहयोग से स्वाभाविक रीति से हुई है। ऐसे कुछ मुहावरे नीचे लिखे जाते हैं-

    'हवा बाँधाना', 'हवा हो जाना', 'हवा बतलाना', 'हवा खाना,' 'मुँह पर हवाइयाँ छूटना', 'तूफान बाँधाना', 'खबर लेना', 'आसमान सर पर उठाना' आदि।

    हिन्दी में इस प्रकार के मुहावरे बहुत हैं। इनकी उत्पत्तिा बोलचाल के आधाार से आवश्यकता के अनुसार हुई है, अतएव ये व्यापक हैं, और इनका प्रचार भी बहुत अधिाक है। ये सर्वसाधाारण में समझे भी जाते हैं। किन्तु अनुवादित होकर जो मुहावरे आये हैं, उनका व्यवहार प्राय: सुशिक्षित समाज तक परिमित है। सत्य बात तो यही है कि किसी भाषा के मुहावरे का दूसरी भाषा में अनुवाद होना, प्राय: असम्भव है। 'तरदामनी', 'पुम्बा दहन', 'दराज जबान', चिरागे सहरी', आदि मुहावरे जो अपने मुख्य रूप ही में गृहीत हुए हैं, यदि उनका शाब्दिक अनुवाद करके रख दिया जावे, तो हिन्दी में वे उन भावों के द्योतक न होंगे, जिन भावों के द्योतक वे फषरसी में हैं। 'चिरागे सहरी' का अनुवाद हम 'प्रभात-प्रदीप' कर दें, तो उसका अर्थ 'प्रात:-काल का दीप' तो हो जायेगा, किन्तु उसका भावार्थ 'मरणोन्मुख' अथवा 'कुछ क्षण का मेहमान' समझा जाना दुस्तर होगा। कारण यह है कि इस अर्थ में हिन्दी में 'प्रभात-प्रदीप' का प्रयोग नहीं होता। एक भाषा से दूसरी भाषा में शाब्दिक अनुवाद तभी सम्भव होगा जब दोनों के वाक्यों में अभिधाा-शक्ति से काम लिया गया हो। कहीं-कहीं भाषा-शैली की भिन्नता के कारण इसमें भी व्याघात उपस्थित होता है। ऐसी अवस्था में जिन मुहावरों में लाक्षणिक अर्थों की ही प्रधाानता होती है, उनके शाब्दिक अनुवाद का उद्योग हास्यास्पद क्यों न होगा। यही कारण है कि इस कार्य को असम्भव बतलाया जाता है। ऊपर के उदाहरणों से यह बात और स्पष्ट हो गई। ऍंगरेजी भाषा में जो इस प्रकार के मुहावरे ग्रहण किए गये हैं, उनमें भी वांछित सफलता नहीं हुई है। श्रीमान् मिस्टर स्मिथ लिखते हैं-

         ¹ ''एडिसन के कथनानुसार मिल्टन ने हेब्रू, ग्रीक तथा लैटिन भाषा के प्रयोगों द्वारा भी ऍंगरेजी भाषा की वृध्दि की है, और उसे सम्पन्न बनाया है, परन्तु वे प्रयोग हमारी भाषा में मिल-जुल नहीं गये हैं। ये एक प्रकार की साहित्यिक विचित्राताएँ अथवा पाण्डित्य-प्रदर्शन के विनोद हैं, इन्हें हम अपने मुहावरेदार प्रयोगों को समृध्द बनाते नहीं पाते।''

    इस कथन में बहुत कुछ सत्यता है, मैं इससे अधिाकांश सहमत हूँ। एक भाषा के मुहावरे का अनुवाद सफलता के साथ दूसरी भाषा में तभी हो सकता है, जब उनमें भाव अथवा विचार का साम्य होता है। क्रियापदों की बात और है, क्योंकि उनमें अभिधाा-शक्ति ही से प्राय: काम लिया जाता है, इसके अतिरिक्त उनका प्रयोग प्राय: अपने रूप ही में होता है, थोडे अन्तर से अन्य भाषा की क्रिया का स्वरूपमात्रा दे दिया जाता है, इसलिए उनमें उतनी अस्पष्टता नहीं आती,

 

*   Milton, as Addison pointed out. raised his language, and added to the richness of its texture, by a daring use of Hebrew and Greek and Latin constructions, but none of these have been woven into the texture of the language—they are literary curiosities pedantic fecilities. rather than enrichments of our idiomatic speech. (words and Idioms, pp 247-248)

जितनी कि उन मुहावरों के अनुवाद में आती है जिनका कि प्रयोग लाक्षणिक होता है। ऐसे मुहावरों का अनुवाद तभी सुसंगत होगा, जब या तो उसके भावार्थ का अनुवाद किया जावे, अथवा वह ऐसा मुहावरा हो, जो अनुवाद करने पर अन्य भाषा के मुहावरों का अधिाकांश स्वरूप ग्रहण कर लेवे; किम्वा उसके प्रचलित मुहावरों में मिलजुल जावे, अन्यथा श्रीमान् स्मिथ के कथनानुसार वह साहित्यिक विचित्राता अथवा विनोदमात्रा होगा।

    'बर आमदन', 'बसर आमदन', 'दर आमदन' का अनुवाद 'बर आना', 'बसर आना', 'दर आना', करना यद्यपि हिन्दी भाषा में नवीन क्रियाओं का आविर्भाव करना है, किन्तु उनमें अर्थ का कोई भेद नहीं है, वरन् फषरसी क्रियाओं की हिन्दी बनाई गयी है; क्रियाएँ रूपान्तर मात्रा हैं-अतएव उनमें अधिाक जटिलता नहीं है, वाक्य के अन्य शब्दों की सहायता से थोड़ा विचार करने पर उनका अर्थ ज्ञात हो सकता है। किन्तु 'पैमाना पुरकरदन' का अनुवाद 'पैमाना भरना' उतना सरल नहीं है, उसमें जटिलता भी उससे अधिाक है। क्योंकि दोनों का सम्बन्धा लाक्षणिक अर्थ से है। जो फषरसी नहीं जानता, और उसके मुहावरों से अभिज्ञ नहीं है, वह अभिधाा शक्ति से उसका अर्थ पैमाने का भरना ही करेगा; 'मार डालना' अर्थ कदापि न करेगा। हाँ, उर्दू के कवि यथावसर उसका लाक्षणिक अर्थ ही करेंगे, और वे लोग इसी अर्थ में प्राय: उसका प्रयोग करते भी हैं। हिन्दी में अब तक व्यापक रूप में यह मुहावरा गृहीत नहीं है, इससे इस अनुवाद की जटिलता स्पष्ट है। 'पैमाना' शब्द निकाल कर यदि उसके स्थान पर 'नपना' हिन्दी शब्द रख दिया जावे, तब तो वह इतना जटिल हो जावेगा कि उसका लाक्षणिक अर्थ हो ही न सकेगा। इसीलिए मुहावरे का अर्ध्द-अनुवाद ही हुआ है, और इसी से अपने लाक्षणिक अर्थ के लिए वह बहुत कुछ सुरक्षित है। फषरसी के अधिाकांश मुहावरे उर्दू में अर्ध्द-अनुवादित होकर ही गृहीत हुए हैं, और इसी से उनके लाक्षणिक अर्थ ग्रहण में सुविधाा होती है।

    'अजश्जामा बेरूँ शुदन', और 'दिल अजश्दस्त रफ्तन' का अनुवाद हुआ है, 'जामे से बाहर होना', और 'दिल का हाथ से जाता रहना'। हिन्दी में इस ढंग के दो मुहावरे हैं,-'आपे से बाहर होना' और 'मन का हाथ न रहना'। जो इन दोनों मुहावरों का अर्थ है, वही दोनों अनुवादित मुहावरों का अर्थ है। अतएव ये दोनों मुहावरे हिन्दी में घुल-मिल गये हैं और समान रूप से हिन्दी-उर्दू दोनों में व्यवहृत होते हैं। यद्यपि ये दोनों शाब्दिक अनुवाद ही हैं, फिर भी इनमें जटिलता नहीं आई, और लाक्षणिक अर्थ भी सुरक्षित रहा, कारण वे ही हैं, जिनका उल्लेख मैं ऊपर कर आया हूँ। पैमाना भरना से इन दोनों का अनुवाद अच्छा है इसीलिए उससे इनकी व्यापकता भी अधिाक है।

मुहावरों का भावानुवाद और बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव

    उर्दू में ऐसे मुहावरे बहुत कम हैं जिनका आश्रय भावानुवाद है। कारण इसका यह है कि अधिाकतर फषरसी मुहावरे ज्यों के त्यों उसमें ले लिये गये हैं-जहाँ अनुवाद की आवश्यकता हुई, वहाँ इस प्रकार से उसका सफल शब्दानुवाद किया गया कि भावानुवाद पर दृष्टि डालने की नौबत ही नहीं आई। फिर भी भावानुवाद का अभाव नहीं है। फषरसी का एक मुहावरा है,-'सौसने दहजबाँ'। सौसन एक फूल है, मुहावरे में उसको दहजबाँ बाँधाते हैं। 'दहजबाँ' का अर्थ है-'दस-जीभ-वाला'। फूल की पंखड़ियों को देखकर यह कल्पना की गयी है। रुबा कहते हैं-

'खोला बहार ने जो कुतुबखानए चमन।

सौसन ने दस वरक का रिसाला उठा लिया।'

    यहाँ दस वरक की कल्पना दह-जबान पर दृष्टि रखकर ही की गयी है। यद्यपि इस वर्णन में आलंकारिकता है, और यह मुहावरे का अनुवाद मुहावरे के रूप में नहीं हुआ है, किन्तु यह तो स्पष्ट है कि दह-जबान का भाव-ग्रहण करके ही दह वरक की सृष्टि हुई है। इसी प्रकार भाव-ग्रहण द्वारा मुहावरे की रचना भी हुई है। हजश्रत मीर लिखते हैं-

'हो नजात उसकी बेचारा हमसे भी था आशना'

    इस बन्द पर मौलाना आजशद का यह नोट है-

    ''बेचारा हमसे भी आशना था, बऐनहूँ तरजुमा फषरसी मुहावरे का है कि-'बेचारा माहम आशना बूद', उर्दू में 'हमारा आशना' कहते हैं''

    आप देखें यहाँ शाब्दिक अनुवाद के स्थान पर भावानुवाद को प्रधाानता दी गयी है और उसी को शुध्द उर्दू मुहावरा माना गया।

    यदि उर्दू में ज्यों का त्यों फषरसी मुहावरों के ग्रहण करने की प्रणाली न चल पड़ती तो अधिाकांश मुहावरों की सृष्टि भावानुवाद द्वारा ही होती। अनेक मुहावरे फषरसी के ऐसे हैं कि जिनका शब्दानुवाद हो ही नहीं सकता, इसी विवशता के कारण प्राय: फषरसी के मुहावरे यथातथ्य उर्दू में गृहीत मिलते हैं। कुछ प्रमाण लीजिये-

''किसी का कब कोई रोजश्े सियह में साथ देता है।

कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्साँ से।''

×         ×         ×

''रहा टेढ़ा मिसाले नैशे कजश्दुम।

कभी कजफह्म को सीधाा न पाया।''

    इन शेरों में दो मुहावरे आये हैं, पहले में 'रोज़े सियह', और दूसरे में 'कजफष्ह्म'। ये दोनों मुहावरे अपने-अपने शेरों की जान हैं। उनसे शेरों की भाव-गम्भीरता और आलंकारिकता बहुत बढ़ गयी है। यदि इन मुहावरों को अपने स्थान से हटा दें, और वैसे ही भाव-द्योतक मुहावरे उनके स्थान पर रख दें तो शेरों का सौन्दर्य्य बहुत कुछ नष्ट हो जावेगा, और उनकी आलंकारिकता जाती रहेगी। 'रोजे सियह,' एक फषरसी मुहावरा है, उसका शब्दार्थ है,-'काला दिन'; भावार्थ है,-'बुरे दिन''रोज़े सियह' मुहावरे से ही, तारीकी (ऍंधोरे) में साया का इन्सान (मनुष्य) से जुदा रहने का जो दृष्टान्त दिया गया है, उसकी ठीक-ठीक सार्थकता होती है; साभिप्राय प्रयोग का स्वरूप भी झलक जाता है। इस 'रोजे सियह' के स्थान पर यदि 'काला दिन' शब्दानुवाद करके रख दें, तो इस वाक्य से उक्त मुहावरे का अर्थ ही बोधा न होगा, यदि भावानुवाद करके 'बुरे दिन' लिख दें तो, भाव तो समझ में आ जावेगा, परन्तु 'रोजे सियह' मुहावरे की विशेषताएँ नष्ट हो जावेंगी। इसलिए कवि ने फषरसी मुहावरे को ही ज्यों का त्यों रख दिया, उसके किसी अनुवाद से काम चलाने का उद्योग उसने नहीं किया। यदि कोई इस शेर का ठीक-ठीक अनुवाद करना चाहे तो हिन्दी में उसका वैसा सुन्दर अनुवाद हो ही न सकेगा। कामचलाऊ अनुवाद होगा, और ऐसी अवस्था में 'रोजे सियह' के स्थान पर 'बुरे दिन' का प्रयोग करना पड़ेगा। यह निस्सन्देह भावानुवाद है, किन्तु इस प्रकार के अनुवाद को सफल अनुवाद नहीं कहा जा सकता। किसी भाषा के मुहावरों के भावानुवाद प्राय: इसी प्रकार के होते हैं।

    दूसरे शेर का 'कजफष्ह्म' मुहावरा भी इसी प्रकार का है। कज़दुम (बिच्छू) के नैश (डंक) के टेढे होने से 'कजफष्ह्म' मुहावरे का बहुत बड़ा सम्बन्धा है। कजफष्ह्म का शब्दार्थ है,-'टेढ़ी-समझवाला'; इसलिए बिच्छू के डंक से उसका पूरा साम्य है, और इसी कारण शेर, भाव और शब्द-विन्यास दोनों बातों में बहुत बढ़ गया है। यदि इसके 'कजफष्ह्म' वाक्य को निकाल दीजिये, और भावानुवाद करके कोई वाक्य उस स्थान पर रख दीजिये तो सारा कवित्व ही नष्ट हो जावेगा। हिन्दी में 'कजफष्ह्म' को 'उलटी समझवाला', अथवा 'उलटी समझ का मनुष्य' कहेंगे। विचारने की बात है कि 'कज' के स्थान पर 'उलटा' शब्द का प्रयोग करके हम कहाँ तक शेर के भावों की रक्षा कर सकेंगे। यदि न कर सकेंगे, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि इस मुहावरे का यथातथ्य अनुवाद हिन्दी में नहीं हो सकता, और यह बात सही है। ऐसे अवसरों पर हम भावानुवाद से काम लेकर कार्य्य-निर्वाह कर सकते हैं, किन्तु मुहावरों की विशेषताओं को खो बैठते हैं।

    सब भाषाओं में कुछ ऐसे मुहावरे मिलते हैं, जो एक-दूसरे का प्रतिबिम्ब जान पड़ते हैं। मनुष्यों के हृदय बहुत-सी बातों से एक-दूसरे की समानता रखते हैं। घटना-चक्र में पड़कर प्राय: सब जाति और देशों के मनुष्य किसी-किसी विषय को एक ही ढंग से सोचते-विचारते और मनन करते हैं। मानवों के दु:ख-सुख से प्रभावित मानस-विकारों में भी कम समानता नहीं मिलती। अनेक अवस्थाओं में निरीक्षण-प्रणाली भी एक ही होती है। इसलिए अनेक देशों के अनेक मुहावरों में भी साम्य मिलता है, क्योंकि विचार-परम्परा ही उनकी जननी है। इस प्रकार के मुहावरों का शाब्दिक और भावानुवाद दोनों सरल होता है, और उनमें उन कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता, जिनकी चर्चा मैंने अभी की है।

    फषरसी का एक मुहावरा है,-'गोशकरदन', जिसका भावार्थ है-'सुनना'। सौदा लिखते हैं-

''कब इसको गोशकरे था जहाँ में अह्ल कमाल'',

    हिन्दी में ठीक ऐसा ही मुहावरा है 'कान करना'। कुछ लोगों का विचार है कि फषरसी के 'गोशकरदन' मुहावरे से ही इसकी उत्पत्तिा है, किन्तु यह सत्य नहीं है। जिस समय उर्दू भाषा का जन्म भी नहीं हुआ था, जब वह विचार में भी नहीं आयी थी, उसके दो सौ वर्ष पहले गोस्वामी तुलसीदासजी इस मुहावरे का प्रयोग करते हैं, और अपनी रामायण में लिखते हैं-

''नारि सिखावन करेसि न काना।''

    फषरसी का एक मुहावरा 'दरीदादहन' है; ठीक ऐसा ही हिन्दी का मुहावरा 'मुँहफट' है। फषरसी और हिन्दी के निम्नलिखित मुहावरों में भी बहुत कुछसाम्यहै-

    फषरसी मुहावरा       हिन्दी मुहावरा

    'ख़ुशम न मीआयद'    'मुझे अच्छा नहीं लगता'

    'ख़ाक बर सर करदन'  'सिर पर धाूल डालना'

    'अस्कशोई करदन'     'ऑंसू पोंछना'

    कुछ इस प्रकार के ऍंगरेजी मुहावरे भी देखिए-

           ‘To throw dust in                        'ऑंख में धाूल झोंकना'

           some one’s eyes’.

           ‘Crapes are sour.’                       'अंगूर ही खट्टे हैं'  

           ‘To slay the slain.’                      'मरे को मारना'

    कुछ    ऐसे मुहावरे भी हैं, जिनका शब्दार्थ तो नहीं मिलता किन्तु भावार्थ मिल जाता है। यद्यपि वे एक-दूसरे का अनुवाद नहीं होते, किन्तु भावसाम्य के कारण एक-दूसरे का प्रतिबिम्ब ज्ञात होता है।

    फषरसी का एक मुहावरा है 'चशमकजदन'; जौक लिखते हैं-

''लब पर तेरे पसीने की बूँद अय अकीके लब।

चशमकजनी करे हैं सुहेले यमन के साथ।''

    'चशमकजदन' का वही अर्थ है, जिसको हिन्दी में 'कटाक्ष करना' कहते हैं। भावार्थ दोनों का एक है, किन्तु शब्दार्थ में अन्तर है। फषरसी में 'अज जाँ गुजश्तन' का वही भावार्थ है जो 'जी पर खेल जाने' का है। 'अज जाँ गुजश्तन' का शब्दार्थ है-'जान से गुजर आना'। जफर का शेर है-

    'वहाँ जावे वही जो जान से जाए गुजर पहले।'

    शब्दार्थ में अन्तर होने पर भी 'अज जाँ गुजश्तन' और 'जी पर खेल जाना' दोनों का भावार्थ एक है। निम्नलिखित मुहावरों के शब्दार्थ में भी अन्तर है किन्तु भावार्थ उनका एक है-

  फषरसी मुहावरे    शब्दार्थ       हिन्दी मुहावरे

  जबाँदराजी       जबान (जीभ) का   जीभ चलाना

                लम्बा होना

  लब कुशादन      होंठ खोलना    मुँह खोलना

  इस ढंग के ऍंगरेजी मुहावरे भी हैं। देखिए-

  ऍंगरेजी मुहावरे    शब्दार्थ       हिन्दी मुहावरे

     ‘To wear one’s heart       'अपने आस्तीन 'कलेजा काढ़कर

     on one’s sleeve.’              पर दिल रखना' दिखाना'

     ‘Something at the            'तह में कुछ होना'  'दाल में काला

     bottom.’                                                                  होना'

  ऍंगरेजी मुहावरे    शब्दार्थ       हिन्दी मुहावरे

     ‘To rain cats and             'कुत्ताा बिल्ली 'मूसलधाार पानी

     dogs.’                                 बरसना'       बरसना'

     ‘To make an ass of.’       'एक गदहा     'गदहा बनाना'

                बनाना'

    मुहावरों को इस प्रकार का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव स्वाभाविक है, ये चेष्टा द्वारा अनुदित नहीं है, अतएव मुहावरों के आविर्भाव के कारणों में इनको स्थान नहीं मिल सकता। मुहावरों के आविर्भाव के दो ही विशेष कारण ज्ञात होते हैं। एक चलती भाषा अथवा पूर्वतन भाषा के आधाार से परम्परा उनकी सहज उत्पत्तिा, दूसरा अन्य भाषा के मुख्य रूप में अथवा शब्दानुवाद किम्वा भावानुवाद द्वारा उनका ग्रहण। प्रामाणिक पुरुषों और लब्धाप्रतिष्ठ विद्वानों के विशेष प्रकार के वाक्य भी काल पाकर के मुहावरे में परिगणित हो जाते हैं। कोई-कोई ऐसे वाक्यों को भी एक कारण मानते हैं, किन्तु मेरा विचार है कि इसका अन्तर्भाव प्रथम कारण में हो जाता है, क्योंकि तात्कालिक प्रचलित भाषा ही उसकी प्रसूति का कारण है, चाहे यह कार्य्य पुरुष-विशेष के कारण ही क्यों न हो। प्रथम कारण का जहाँ निरूपण है, वहाँ आप लोग यह पढ़ आये हैं कि साधाारण पुरुषों का विशेष वाक्य भी जब अधिाकतर व्यवहार में आ जाता है, तो वह भी मुहावरा बन जाता है। ऐसी अवस्था में किसी विशेष पुरुष का कोई बहुव्यापक वाक्य यदि मुहावरे में गृहीत हो जाए तो क्या आश्चर्य! अन्तर इतना ही है कि साधाारण मनुष्यों के वाक्यों का प्रचार बोलचाल द्वारा होता है, और विद्वज्जनों का प्राय: पुस्तकों द्वारा। किन्तु काल पाकर यह पुस्तक का वाक्य भी बहुत कुछ लोगों की जिह्ना पर चढ़ जाता है, और साहित्य-पुस्तकों में भी व्यवहृत होने लगता है। उसी समय वह भी मुहावरों में परिगणित हो जाता है। दोनों की उत्पत्तिा का आधाार प्रचलित भाषा ही है, इसलिए विद्वज्जनों के विशेष वाक्यों को भी प्रथम कारण के अन्तर्गत मानना ही उचित जान पड़ता है। श्रीमान् स्मिथ के निम्नलिखित विचारों से भी इसी सिध्दान्त की पुष्टि होती है-

         ¹  ''बाइबिल के बाद ऍंगरेजी भाषा के मुहावरों की शरीर-वृध्दि करने में सबसे समृध्द साहित्यिक अवलम्ब शेक्सपियर के नाटक हैं।''

*   After the Bible, Shakespeare’s plyas are, as we might expect, the richest literary source of English idioms.’’ (Words and Idioms, p. 227).

            † ''यद्यपि शेक्सपियर की पुस्तकों के द्वारा ये सब शब्द हम तक पहुँचे हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शेक्सपियर द्वारा ही उनका निर्माण हुआ है। उसकी पुस्तकें साधाारण बोलचाल के बहुत से प्रयोगों से भरी हुई हैं, ‘Out of joint’ शब्द का प्रयोग शेक्सपियर ने 'हैमलेट' नामक नाटक में किया है, परन्तु शेक्सपियर के तीन सौ वर्ष पूर्व की पुस्तक में भी इसका पता लगता है''

    वेबस्टर साहब ने विशिष्ट विद्वानों के इस प्रकार के वाक्यों को एक प्रकार का अलग मुहावरा माना है। ऐसी अवस्था में जिन दो कारणों का निर्देश मैंने ऊपर किया है, उनके अतिरिक्त एक तीसरा कारण मुहावरों के आविर्भाव का यह भी माना जा सकता है; किन्तु मेरी इसमें असम्मति है, कारण ऊपर लिख चुका हूँ।

मुहावरे और कहावतें

    प्राय: मुहावरों और कहावतों का अन्तर समझने में भूल की जाती है। वास्तव में कहावत और मुहावरे एक नहीं हैं, दोनों में भेद है, और दोनों के नियम अलग-अलग हैं। मिस्टर स्मिथ लिखते हैं-

         ¹ ''कुछ कहावत तथा कहावतों के शब्द भी हमारी बोलचाल की भाषा में घुल-मिल गये हैं, इन्हें भी शायद हम मुहावरा मान सकते हैं।''

    उन्होंने कुछ ऐसी कहावतों को उदाहरण-स्वरूप लिखा भी है-उनमें से दो नीचे लिखी जाती हैं-

           ‘‘Two heads are better than one.’

    शब्दार्थ-'एक शिर से दो शिर अच्छे हैं।'

    भावार्थ-'एक आदमी के सोचने से दो आदमी का सोचना अच्छा है।'

           ‘No fool like an old fool.’

    शब्दार्थ-'पुराने मूर्ख की भाँति कोई मूर्ख नहीं है।'

    भावार्थ-'प्रत्येक मूर्ख की मूर्खता में उसका निज का संस्कार होता है।'

 † ‘‘While, however, these expressions are familiar to use us from Shakespeare’s writings. it by no means follows that they are all of his invention; his plays are full of tags from popular speech; the idiom, ‘‘out of joint,’’ has been found three hundred years before the date of Hamlet.’’ (Words and Idioms, p. 229)

*   Certain proverbs and proverbial phrases are also so firmly embedded in our colloquial speech that they may perhaps, without stretching the definition too far, be regarded as English idioms.’’ (Words and Idioms, p. 176)

    पहले तो उनका उध्दाृत वाक्य ही सन्दिग्धा है; वे लिखते हैं,-''शायद हम इन्हें भी मुहावरा मान सकते हैं'' इस वाक्य से क्या पाया जाता है? यही न कि ऐसी कहावतों और वाक्य-समुदाय को वे असन्दिग्धा भाव से मुहावरा मानने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि उन्होंने उदाहरण में जिन मुहावरों का उल्लेख किया है, उनमें मुहावरों के लक्षण नहीं पाए जाते। यह बात मैं हिन्दी के नियमों पर दृष्टि रखकर कहता हूँ, ऍंगरेजी सिध्दान्त के अनुसार कोई मीमांसा करने के लिए स्थान का संकोच है। इस विषय में श्रीमान् स्मिथ की सन्दिग्धाता ही हमारे लिए पर्य्याप्त है। प्रयोजन यह कि ऍंगरेजी भाषा में असन्दिग्धा भाव से कोई कहावत मुहावरा नहीं मानी जा सकती। ऐसी अवस्था में कहावत और मुहावरों की भिन्नता स्पष्ट है।

    मेरा विचार है, मुहावरों के वाक्य, काल, पुरुष, वचन और व्याकरण के अन्य अपेक्षित नियमों के अनुसार यथासम्भव बदलते रहते हैं, किन्तु कहावतों के वाक्यों में यह बात नहीं पाई जाती, वे एक प्रकार से स्थिर होते हैं। मुहावरों का प्रयोग जैसे असंकोच भाव से साधाारण वाक्यों में होता है, वैसे कहावतों का नहीं, उनके लिए विशेष वाक्य प्रयोजनीय होते हैं। लाक्षणिक अर्थ के विषय में दोनों में बहुत कुछ समानता है, किन्तु दोनों की परिवर्तनशीलता और स्थिरता में बड़ा अन्तर है, और ये ही विशेष बातें एक को दूसरे से अलग करती हैं।

    एक हिन्दी मुहावरा है,-'मुँह बनाना,' धाातु के समान व्याकरण नियमानुसार इसके अनेक रूप बन सकते हैं। यथा-'मुँह बनाया,' 'मुँह बनाते हैं', 'मुँह बनावेंगे' 'मैं मुँह बनाऊँगा', 'उन्होंने मुँह बनाना छोड़ दिया', 'उसका मुँह बनता ही रहा'-आदि। कहावतों में यह बात नहीं पाई जाती। एक कहावत है,-''अंधाी पीसे कुत्तो खायँ'' जब रहेगा तब इसका यही रूप रहेगा। अन्तर होने पर वह कहावत न रह जावेगी, उसके अर्थ-बोधा में भी व्याघात होगा। किसी से कहिए-'अन्धाी पीसती है कुत्तो खाते हैं' या यों कहिए,-'अन्धाी पीसेगी कुत्तो खायेंगे' तो पहले तो वह समझ ही न सकेगा कि आप क्या कहते हैं। यदि समझ जावेगा तो नाक भौं सिकोड़ेगा और आपके प्रयोग पर हँसेगा। कारण यह है कि कहावतों का रूप निश्चित है, और उसके शब्द प्राय: निश्चित रूप ही में बोले जाते हैं।

    'मुँह बनाना' का जैसे अनेक रूप बन सकता है, उसी प्रकार विविधा वाक्यों में उसका प्रयोग भी हो सकता है। किन्तु एक स्थिर वाक्य, 'अन्धाी पीसे कुत्तो खाएँ' का प्रयोग किसी विशेष प्रकार के वाक्य के साथ ही होगा। यही बात प्राय: अन्य मुहावरों और कहावतों के लिए भी कही जा सकती है।

    अन्य भाषाओं के कुछ मुहावरों और कहावतों को लेकर मैं अपने कथन की पुष्टि करूँगा। इस प्रकार के कुछ उदाहरण हिन्दी के प्रामाणिक पद्य-लेखकों के भी उपस्थित करूँगा।

    संस्कृत का एक मुहावरा है,-'मुखमवलोकनम्'; इस मुहावरे का हिन्दी रूप है-'मुँह देखना'। उक्त मुहावरे के दो विभिन्न प्रयोग देखिए-

'क्रव्यमुख: चतुरकमुखमवलोकयति,

×       ×       ×

'पिशितं भक्षयित्वा अधाुना मन्मुखमवलोकयसि'

    कुछ संस्कृत मुहावरों के विभिन्न प्रयोग और देखिए-

'मुखदर्शनम्' 'मुँह दिखलाना'

    प्रयोग-

''कथं सापप्ल्या मित्रााणां च मुखम् दर्शयिष्यामि''

''भो: कृतघ्न मा मे त्वं स्वमुखम् दर्शय''

    संस्कृत मुहावरा-'अरण्यरुदनम्'; हिन्दी मुहावरा-'जंगल में रोना' इसके तीन विभिन्न प्रयोग देखिए-

    1-'अरण्यरुदितोपमम्'.................पंचतन्त्रा

    2-'अरण्ये मया रुदितमासीत्'..............शकुन्तला नाटक

    3-'अरण्यरुदितं कृतं'....................कुवलयानन्द

    उक्त संस्कृत मुहावरों की परिवर्तनशीलता आपने देखी। अब मैं संस्कृत की दो कहावतों को नीचे लिखता हूँ। इनको भी देखिए; इनका प्रयोग जहाँ होगा, इसी रूप में होगा; अन्तर की उसमें सम्भावना ही नहीं-

    1-'हस्तकंकणं किं दर्पणे प्रेक्ष्यसे'

    2-'शीर्षे सर्पो देशान्तरे वैद्य:'

    प्रथम कहावत का हिन्दी रूप है 'हाथ के कंगन को आरसी क्या!' दूसरे का प्राकृत रूप है-'सीसे सप्पो देसन्तरे वेज्जो'। आपने देखी कहावतों की अपरिवर्तनशीलता। कहीं-कहीं कहावतों में ही परिवर्तन होता है, किन्तु विशेषकर पद्यों में ही, और वह भी बहुत साधाारण; उस परिवर्तन में उनकी विशेषता सुरक्षित रहती है। दो पद्यों को देखिए-

    1-'हाथ के कंगन को कहा आरसी'

    2-'ऊँची दुकान की फीकी मिठाई'

    इन दोनों पद्यों में से प्रथम में 'क्या' के स्थान पर 'कहा' हो गया है; दूसरे में 'ऊँची दुकान फीका पकवान' कहावत के 'पकवान' के स्थान पर 'मिठाई' अनुप्रास के झमेले से हुई और उसी सूत्रा से फीका, 'फीकी' बन गया, और अक्षरों की पूर्ति के लिए बीच में 'की' आ गई। किन्तु यह परिवर्तन कितना साधाारण है, इसको आप लोग स्वयं समझ सकते हैं।

    कतिपय उर्दू प्रयोगों को भी देखिए-

    'अजश्सरे चीजश्े गुजश्श्तन'-फषरसी मुहावरा है। भावार्थ है-'दस्तबरदार होना' अथवा 'किनारा कर लेना'-'किसी चीज से गुजर जाना'। सय्यद इन्शाँ लिखतेहैं-

'खोदा के वास्ते गुजश्रा मैं ऐसे जीने से।'

                        ×                      ×                      ×

'पहले जबतक न दो आलम से गुजश्र जायेंगे।

तू अपने शेवये जौरो जफषसे मत गुजरे।'

                        ×                      ×                      ×          -जौकष्

आपसे हैं गुजर गये कब के।

-दर्द

    'अजश् जाँ 'गुजश्श्तन'-फषरसी मुहावरा का 'जान से गुजश्र जाना' शब्दार्थ और 'जान पर खेल जाना' भावार्थ है। इसके भिन्न-भिन्न प्रयोग देखिए-

'ऐसा न हो दिलदादा कोई जाँ से गुजश्र जाए'

×           ×           ×

'अब जी से गुजश्र जाना कुछ काम नहीं रखता'

'वहाँ जावे वही जो जान से जाए गुजश्र पहले।'

-जफष्र

    उर्दू कविता में प्रयुक्त कुछ हिन्दी मुहावरों को देखिए-

    'कलेजा थामना'-हिन्दी मुहावरा है, उर्दू में 'कलेजा थामना' अथवा 'दिल थामना' दोनों लिखते हैें। इसके विभिन्न प्रकार के प्रयोग देखिए-

'दिले सितमजश्दा को हमने थाम थाम लिया-मीर

×        ×              ×

'दिल को थामा उनका दामन थाम के।'

×        ×              ×             

'बात करता हूँ कलेजा थाम के' -दागश्

    'सर झुकाना'-हिन्दी मुहावरा है। कुछ उसके प्रयोग ये हैं-

'ख़ुदा के आगे ख़िजालत से सर झुका के चले।'-अनीस

×            ×            ×

'अदना से जो सर झुकाए आला है वह।'-दबीर

×            ×            ×

'दुश्मन के आगे सर न झुकेगा किसी तरह।'-दाग

    'मुँह फेरना'-हिन्दी मुहावरा है। उसके विभिन्न व्यवहार-

'कोई उनसे कहे मुँह फेर कर क्यों कत्ल करते हो।'-आतिश

×            ×            ×

'न फेरो उससे मुँह आतिश जो कुछ दरपेश आ जावे।'

×            ×            ×

'पड़ा तीर दिल पर जो मुँह तूने फेरा।'-अमीर

×            ×            ×

'हाय मुँह फेर के जशलिम ने किया काम तमाम।'-आसी

    'ऑंखें बिछाना'-हिन्दी मुहावरा है। इसके भी दो प्रयोग देखिए-

'निगाहों की तरह वह शोख़ फिरता है जो मुहफिष्ल में।

कफेष् पा के तले महवे जमाल ऑंखें बिछाते Sa A - अमीर

'ऑंखें बिछाए हम तो उर्दू की भी राह में।

पर क्या करेें कि तू है हमारी निग़ाह में। ' - दाग़

    कुछ हिन्दी कविता के प्रयोगों को भी देखिए -

    मुहावरा -      'उर लाय ले ना' अथवा 'उर लावना'

'राम लखन उर लाय लये हैं'    'गीतावली'

×                                   ×                   ×                    - तुलसीदास

'सनेह सों सो उर लाय लयाे है। '

×                                   ×                   ×

'जब सिय सहित बिलोकि नयन भरि राम लखन उर लैहौं' - तुलसीदास

    मुहावरा - 'गलानि - गरना'

'अंब अनुज गति लखि पवनज भरतादि गलानि गरे हैं। '

                           ×            ×            ×  'गीतावली'

'सुकृत संकट पप्यो जात गलानिन गप्याे। '   - तुलसीदास

×            ×            ×

'गरत गलानि जानि सनमानि सिख देति। '

    मुहावरा - 'रुख लिये रहना'

'सासु जेठानिन सों दबती रहै लीने रहै रुख त्यों ननदी को। '

        ×            ×            ×         - हरिश्चन्दz

'हरिचन्द तो दास सदा बिन मोल को बोलै सदा रुख तेरो लिए'

    मुहावरा - 'चबाव करना'

'अब तो बदनाम भई ब्रज में घरहाई चबाव करौ तो कराै। '

        ×            ×            ×         - हरिश्चन्द्र

'जो सपनेहू मिलैं नन्दलाल तो सौतुख मैं ए चबाव करैं। '

    मुहावरा - 'गरे परना'

'या मैं न और को दोख कछू सखि चूक हमारी हमारे गरें परी'

        ×            ×            ×         - हरिश्चन्द्र

'हेरिबो हमारो तो हमारे गरे परिगो। '

        ×            ×            ×

'रहै गरे परि, राखिए तऊ हीय पर हार' - बिहारी

    मुहावरा - 'मूँड़ चढ़ाना'

'मुँह लाए मूड़हि चढि+ अंतहु अहिरिनि तोहि सूधाी करि पाई - तुलसीदास

×            ×            ×

'मूँड़ चढ़ाए हूँ, रहै परो पीठ कच भार' - बिहारी

    इन उदाहरणों से उन नियमों की पूरी पुष्टि हो गयी जिनको मैंने मुहावरों की विशेषता बतलाई थी। यह बात कहावतों में नहीं पाई जाती। अधिाकांश मुहावरों के अन्त में क्रियापद धाातुचिद्द के साथ मिलता है, इस कारण उनका नाना रूप व्याकरण नियमानुसार होता रहता है; कहावतें भी इस प्रकार की मिलती हैं, पर कम। अनेक महाकवियों और देश - कालज्ञ लोकप्रिय सुजनों की कविताएँ और रचनाएँ भी कहावत का काम देती हैं, और वे भी कहावतों में ग्रहण कर ली गयी हैं, जैसे - 'होइहैं सोइ जो राम रचि राखा', 'जो जस करै सो तस फल चाखा'; इत्यादि। इसलिए उसमें नान्त क्रियापद का प्राय: अभाव है। नीचे कुछ कहावतों को उदाहरण के लिए लिखता हूँ। उनसे इस सिध्दान्त पर बहुत कुछ प्रकाश पडेग़ा।

    'ऑंख के अन्धो गाँठ के पूरे', 'आधाा तीतर आधाा बटेर', 'इन तिलों तेल नही। ', 'ईश्वर की माया कहीं धाूप कहीं छाया', 'करिया अक्षर भैंस बराबर'; इत्यादि।

    ऐसी भी कुछ कहावतें हैं, जिनके अन्त में क्रियापद हैं, उनको भी देखिए; किन्तु वे प्राय: अपरर्िवत्तानीय हैं।

    'चमड़ी जाए दमड़ी न जाय', 'खरबूजश देख कर खरबूजा रंग पकड़ता है', 'पेट खाए ऑंख लजाए'; आदि।

    नान्त क्रियापद - वाली कहावतें भी मिलती हैं, उनका स्वरूप भी व्याकरणानुसार कभी - कभी बदलता है, किन्तु मुहावरों के इतना नहीं। प्राय: ऐसी ही कहावतों में मुहावरों की भ्रान्ति होती है, किन्तु उनके वाक्यों की अधिाकांश स्थिरता उनको मुहावरों से अलग कर देती है। कुछ ऐसी कहावतें नीचे लिखी जाती हैं -

    'जिस पत्ताल में खाना उसी में छेद करना', 'ओखली में सिर देना', 'कान पूँछ न हिलाना'; आदि।

    मुहावरों के समान कहावतों के शब्द भी कभी - कभी पद्यों में बदलते हैं। किन्तु प्राय: उनका वास्तविक रूप उनमें मौजूद रहता है। उदाहरण लीजिए -

''हाय सखी इन हाथन सों अपने पग आप कुठार मैं दीनो। '' - हरिश्चन्द्र

            ××××

''पाँव कुल्हाड़ा देत हैं मूरख अपने हाथ'' - वृन्द

    कहावत है, - 'अपने हाथ से अपने पाँव में कुल्हाड़ा मारना'। दोनों पद्यों में शब्दान्तर अवश्य है, किन्तु कहावत का मुख्य रूप अक्षुण्ण है।

    एक विशेष बात मुहावरों और कहावतों में अन्तर की यह पायी जाती है कि सम्पूर्ण कहावतों का अन्तर्भाव लोकोक्ति अलंकार में हो जाता है। कहावतों का प्रयोग मिलते ही, पद्य लोकोक्ति अलंकार का मान लिया जाता है। मुहावरों के लिए यह नियम नहीं है; वे लक्षणा और व्यंजना पर अवलम्बित हैं, अतएव लगभग कुल अलंकार मुहावरों में आ जाते हैं। शब्दालंकार भी मुहावरों में मिलते हैं, किन्तु कहावत में उनका आधिाक्य है। स्वभावोक्ति, ललित, गूढ़ोक्ति अलंकारों के अतिरिक्त मुहावरों में उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों की भरमारहै।

    अग्रलिखित पद्यों को देखिए; इनमें लोकोक्तियों का प्रयोग है, अतएव ये पद्य लोकोक्ति अलंकार के माने जावेंगे। इस प्रकार के पद्यों में यदि दूसरा अलंकार मिलेगा भी, तो वह गौण माना जावेगा।

'एक जो होय तो ज्ञान सिखाइए कूप ही में यहाँ भाँग परी है',

'तेरी तो हाँसी उनैं नहिं धाीरज नौ घरी भद्रा घरी में जरै घर',

'इहाँ कोहँड़ बतिया कोउ नाही। ', 'का बरखा जब कृषी सुखानी',

'घर घर नाचैं मूसरचन्द', 'घरकी खाँड़ खुरखुरी लागै, बाहर का गुड़ मीठा',

    'जिसकी लाठी उसकी भैंस'; इत्यादि।

    कुछ मुहावरों का अलंकारत्व देखिए -

    उपमा - 'ऑंख की पुतली, 'ऑंख का तारा', 'कलेजे की कोर'

    अत्युक्ति - 'आसमान के तारे उतारना', 'आग बोना', 'ऑंख से चिनगारी निकलना', 'आग बबूला होना', 'उँगली पर नचाना', 'खडे बाल निगलना'

    पदार्थावृत्तिा दीपक - 'आठ - आठ ऑंसू रोना', 'बाल - बाल बीनना'

    स्वभावोक्ति - 'बाल का खिचड़ी होना', 'ऑंख लाल होना', 'होठ काँपना', 'कलेजा धाड़कना', 'गोल - गोल बातें कहना'; आदि।

    अब तक जो कुछ लिखा गया, आशा है उससे मुहावरा और कहावत की विशेषताओं पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ा, विशेष लिखना बाहुल्य होगा।

मुहावरों का शब्द - संस्थान तथा शब्द - परिवर्तन

    श्रीमान् 'मेक - मारडी' ने अपने 'इंगलिश इडियम' नामक ग्रन्थ में एक स्थान पर यह लिखा है -

         ¹ ''चिर - प्रयोग के कारण मुहावरे स्थिर हो गये हैं, उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता''

    किसी अंश में यह कथन सत्य है, सर्वांश में यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। मुहावरों का शब्द - संस्थान ही नहीं बदलता, उसके शब्द भी बदल जाते हैं। किन्तु इसके कुछ नियम हैं। गद्य में इस प्रकार का परिवर्तन कम मिलता है, वरन् प्राय: होता ही नहीं, किन्तु पद्यों में इस प्रकार का परिवर्तन अधिाकतर देखा जाता है। वाक्य के शब्दों का संस्थान भाव - विकास का आधाार होता है, उसके अनुसार व्याकरण - संगत स्थिति की रक्षा अनेक अवस्थाआें में नहीं होती। क्रुध्द होकर जिस समय कोई कहता है, - ''लगा दो उसको दो लात'', ''पकड़ लो उसका कान'', ''निकाल दो उसको घर में से''; उस समय, यह स्पष्ट है कि वह

*   ‘‘But long usage has fixed the idiomatic expression in each case, and from the idiom we may not swerve.’’ (English Idioms and how to use them. Chap. I, p. 15)

व्याकरण के नियमों की रक्षा नहीं करता। इसी प्रकार पद्य के नियमों की रक्षा के लिए प्राय: मुहावरों का शब्द - संस्थान भी बदल दिया जाता है, उनमें साधाारण कतर - ब्योंत भी की जाती है, और आवश्यक परिवर्तन भी होता रहता है। इस प्रकार का शब्द - परिवर्तन कुछ विशेष कारणों से होता है, किन्तु उतना ही जितना प्रयोजनीय होता है। कभी - कभी शब्द - परिवर्तन इतना अधिाक हो जाता है, कि एक मुहावरा दूसरे का अनुवाद मालूम होता है। इन सब बातों का प्रमाण मैं दूँगा। पहले मुहावरों का शब्द - संस्थान देखिए -

^^तद्दीयताम् द्रागेतस्य चन्द्रार्ध्द:'' - पंचतन्त्रा

^^अरण्ये मया रुदितमासीत्''

''अन्यथावश्यं सिच्चतं मे तिलोदकम्''

^^तद्दीयते पिशुनलोकमुखेषु मुद्रा''

^^मुष्टि ग्राह्यम् च मधयम्'' ,,

    चन्द्रार्ध्द: दीयताम्, मुद्रा दीयताम्, अरण्ये रुदितम्, सिच्चतं तिलोदकम्, मुष्टि ग्राह्यम् मध्यम् मुहावरे हैं; किन्तु उनका शब्द - संस्थान ऊपर की पंक्तियों में यथास्थान नहीं है, अन्य शब्द भी बीच - बीच में हैं - जैसे दीयताम् और चन्द्रार्ध्द: के मधय में 'द्रागेतस्य'; दीयते और मुद्रा के बीच में 'पिशुनलोकमुखेषु'; मुष्टि ग्राह्यम् और मधयम् के बीच में '' आदि; अतएव यह स्पष्ट है कि मुहावरों के शब्दों का प्रयोग यथास्थान और यथानियम नहीं हैं। यह बात प्रत्येक भाषा में पायी जाती है। अन्य भाषाओं का उदाहरण देने के लिए स्थान का संकोच है, उर्दू और हिन्दी भाषा के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं, आशा है उनसे बहुत कुछ प्रकाश प्रस्तुत विषय पर पडेग़ा।

    1. 'बहार आयी चमन होता है मालामाल दौलत से।

      निकाला चाहते हैं जश्र गिरह गुंचों ने खोली है' - अमीर

×          ×          ×

    2. 'झाड़ती हैं कौन से गुल की नजश्रA

      बुलबुलें फिरती हैं क्याें तिनके लिए। ' - अमीर

×          ×          ×

    3. 'तेगषेखंजर से न झगड़ा सरो गर्दन का चुकाA

      चल दिए मोड़ के मुँह फैसला करने वाले। ' - अमीर

×          ×          ×

    4. 'दिल लगी दिल लगी नहीं नासेह।

      तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं। ' - दागष्

×          ×          ×

    5. 'खुलते नहीं हैं राज जो सोजश्े निहाँ के हैं।

      क्या फूटने के वास्ते छाले जुबाँ के हैं ' - दागष्

×          ×          ×

    6. 'हाथ निकले अपने दोनों काम के।

      दिल को थामा उनका दामन थाम के। ' - दाग़

    7. 'जहाँ लग गयी कारगर हो गई।

      मेरी आह तेरी नजश्र हो गई। ' - दागष्

    8. 'जब पडे उन पै गर्दिशे अफष्लाक।

      अपनी आसाइशों प डाल दे ख़ाक' - दागष्

    ऊपर के पद्यों में जिन वाक्यों पर लकीर खींच दी गयी है, उनमें कुछ तो ऐसे हैं, जो उलट कर लिखे गये हैं, जैसे - 'होता है माला - माल', 'मोड़ के मुँह', 'खुलते नहीं हैं राज', 'फूटने के वास्ते छाले' और 'डाल दे खाक'; इत्यादि।

    कुछ ऐसे हैं, जिनके बीच में दूसरे वाक्य आ गये हैं, जैसे - 'गिरह और खोली है' के बीच में 'गुंचों ने', 'झाड़ती हैं और नजर' के बीच में 'कौन से गुल की', 'झगड़ा और चुका' के बीच में 'सरो गर्दन का', 'दिल को और लगी ही' के बीच में 'अमी'; इत्यादि।

    सातवें शे'र में 'लग गई', पहले मिसरे में, और 'नजर' दूसरे मिसरे में है। इससे क्या पाया जाता है? यही कि मुहावरों का शब्द - संस्थान स्थिर नहीं होता; वाक्यों के समान उनका स्थान पद्य में आवश्यकतानुसार बदलता रहता है। कतिपय हिन्दी भाषा के पद्यों को भी देखिए -

'क्यों न मारै गाल बैठो काल डाढ़नि बीच'

'बाहर बजावैं गाल भालु कपि काल बस' - गीतावली

'गरैगी जीह जो कहौं और को हौ। '

'लियो छड़ाइ, चले कर मीजत, पीसत दाँत गये रिस रेते'

'द्वार द्वार दीनता कही काढ़ि रद] परि पाहूँ* - विनयपत्रिाका

×          ×          ×

'आए उधाो फिरि गये ऑंगन डारि गये गर फाँसी*

'षटपद करी सोऊ करि देखी हाथ कछू नहिं आए*

'मधाुबन बसत आस दरसन की जोइ नैन मगहार' - सूरदास

×         ×         ×

'तो लखि मो मन जो लही सो गति कही न जाति।

'ठोड़ि - गाड़ गड़यो तऊ उड़याै रहत दिन - राति। '

'दृग उरझत टूटत कुटुम जुरत चतुर - चित प्रीति।

परति गाँठि दुरजन - हियें दई नयी यह रीति। ' - बिहारीलाल

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'नहिं तो हँसी तुम्हारी ह्नै है। '

'तहँ को बिघन बनै कछु कहि कै एहि डर धारकत छाती। ' 'प्रेम फुलवारी'

'हेरि चुकी बहु दूतिन को मुख थाह सबनकी लीनी। - हरिश्चन्द्र

    जिन वाक्यों पर लकीर ख्रिची हुई है, उन सब वाक्यों में शब्द - संस्थान यथास्थान नहीं हैं; किसी - किसी वाक्य में मुहावरे के शब्दों के बीच में अन्य वाक्य भी हैं। कविवर बिहारीलाल के पहले दोहे में 'मन' पहले चरण में हैं और उसके व्यापार तीसरे और चौथे चरण में हैं। इससे भी मुहावरों के शब्द - संस्थान के विषय में यही निश्चित होता है कि वह प्रयोजनानुसार पद्य में बदलता रहता है। विशेष अवस्थाओं में गद्य में भी।

मुहावरों का शाब्दिक न्यूनाधिाक्य

    मुहावरों की शाब्दिक स्थिरता के विषय में यह भी कहा जाता है कि वह जितने शब्दों का होता है, उसमें न्यूनाधिाक्य नहीं होता। यदि उसमें न्यूनाधिाक्य किया जाता है, तो वह नियम - विरुध्द बन जाता है। मुहावरों के शब्द परिमित होते हैं, इसलिए उनका परिमित रहना ही अपेक्षित है। जब इसमें व्याघात होगा, तब मुहावरा, मुहावरा न रह जावेगा; साधाारण वाक्य बन जावेगा। जिनकी दृष्टि इस विशेषता पर नहीं होती, प्राय: उन पर मुहावरे का उचित ज्ञान न होने का लांछन लगाया जाता है। मुशायरों में मैंने देखा है कि ऐसे अवसरों पर बड़ी ले - दे मचती है और चूकनेवाले को बेतरह बनाया जाता है। फिर भी यह स्वीकार करना पडेग़ा, कि पद्य में इस नियम की रक्षा कभी - कभी नहीं होती। कुछ उदाहरण लीजिए -

    'मुँह लाल करना', एक मुहावरा है। इसी रूप में इसका प्रयोग होना उचित है। अग्रलिखित शे'र में 'सौदा' ने इसका ठीक प्रयोग किया है -

'बराबरी का तेरे गुल ने जब ख़याल किया।

सबा ने मार थपेड़ा मुँह उसका लाल किया'

    किन्तु नीचे लिखे गये शेर में उसका शुध्द प्रयोग नहीं हुआ। 'मीर' ने मुहावरे के वाक्य के साथ 'खूब' बढ़ाकर नियम का पालन नहीें किया।

'चमन में गुल ने जो कल दाविये जमाल किया।

जमाल यार ने मुँह उसका ख़ूब लाल किया। '

    'कलेजा थाम लेना' या 'दिल थाम लेना', मुहावरा है; 'दिल थाम थाम लेना', कोई मुहावरा नहीं है; परन्तु 'मीर' अपने एक शेर में इसका प्रयोग करते हैं -

'दिले सितमजश्दा को हमने थाम थाम लिया। '

    इस प्रकार का प्रयोग संस्कृत और हिन्दी में भी मिलता है; कुछ उदाहरण देखिए -

''मासानेतान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा'' - मेघदूत

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''सहस्व कतिचिन्मासान् मीलयित्वा बिलोचने'' - काव्य प्रभाकर

    पहले पद्य का 'लोचने' दूसरे पद्य में 'बिलोचने' हो गया है; यद्यपि यह साधाारण अन्तर है, तथापि इस बात का प्रमाण है कि मुहावरों में शाब्दिक न्यूनाधिाक्य भी होता है।

^^फरकि सअंग भये सगुन, कहत मनो मग मुद मंगल छायो। ''

''दसमुख तज्यो दूधा माखी ज्यों आपु काढ़ि साढ़ी लई। ''

''बन्धाु अपमान गुरु ग्लानि चाहत गरन''

^^फरकन लगे सअंग कि दिसि दिसि मन प्रसन्न दुख दसा सिरानी। '' - तुलसीदास

''पै तौलौं जौलौं रावरे न नेकु नयन फेरे''

''नीचजन मन ऊँच जैसो कोढ़ में की खाज'' - विनयपत्रिाका

''भामिनि भयेहु दूधा की माखी'' - रामायण

''हाथ झार जस चलै जुआरी'' - पद्मावत

''चले जुआरी दोउ हथझार'' - ग्रन्थसाहब

        ×           ×              ×

''बडे पेट के भरन मैं है रहीम दुख बाढ़ि।

याते हाथी हहरिकै दये दाँत द्वै काढ़ि ' - रहीम

''जब जब वै सुधिा कीजिए तब तब सब सुधिा जाहिँ। '' - बिहारी

''हरीचन्द पै केहि हित हम सों तुम अपनो मुख मोङयो। ''

''निज चबाव सुनि औरो हरखत करत न कछु मन मैल। '' - हरिश्चन्द्र

    ऊपर के पद्यों में से दो पद्यों में 'फरकि सुअंग' और 'फरकन लगे सुअंग', इन दो मुहावरों का प्रयोग हुआ है। मुहावरा, 'अंग फरकना' है; अतएव दोनों पद्यों में अंग के साथ 'सु' का प्रयोग असंगत है, वह अधिाक है।

    एक पद्य में 'दूधा माखी' का प्रयोग है, और दूसरे में 'दूधा की माखी' का। 'दूधा की माखी', शुध्द प्रयोग है। 'दूधा माखी' में 'की' की न्यूनता है।

    तीसरे पद्य में 'ग्लानि' के साथ 'गुरु' का, पाँचवें पद्य में 'नयन' के साथ 'नेकु' का, दये दाँत द्वै काढ़ि' में 'द्वै' का, 'सब सुधिा - जाहिँ में 'सब' का, 'कछु मन मैल' में 'कछु' का प्रयोग अधिाक है। क्योंकि मुहावरा 'गलानि गरना', 'नयन फेरना', 'दाँत काढ़ देना', 'सुधा जाना' और 'मन मैला' करना है। इसलिए इनके साथ अन्य शब्दों का प्रयोग संगत नहीं।

    मुहावरा है - 'कोढ़ की खाज' - अतएव इस वाक्य में जो 'मे। ' का प्रयोग छठे पद्य में हुआ है, वह छन्दोभंग की रक्षा के लिए ही हुआ है। मुहावरे की दृष्टि से उसमें 'मे। ' की कोई आवश्यकता नहीं। 'दोउ हथझार' के स्थान पर 'हाथ झार' प्रयोग ही संगत है, जैसा कि 'पद्मावत' का प्रयोग है। नौवें पद्य में 'द्वै' शब्द अधिाक है।

    वास्तव बात यह है कि पद्य - रचना के समय छन्दोभंग का विचार अथवा पादपूर्ति की चिन्ता सर्वदा पद्यकार के सिर पर सवार रहती है, इसलिए पद्यकार प्राय: ऐसे कार्य्य करने के लिए विवश होता है, जो नियमानुकूल नहीं होते। इसी झमेले में पड़कर वह शब्दों को भी तोड़ता - मरोड़ता, और कभी - कभी भावों का भी सर्वनाश कर बैठता है। ऐसी अवस्था में यदि मुहावरे उसके हाथों में पड़कर सुरक्षित न रहें और उनमें शाब्दिक न्यूनाधिाक्य होता रहे तो कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु ऐसा क्वचित् होता है। अधिाकांश पद्यों में मुहावरों का स्वरूप यथातथ्य मिलता है, और उनमें वे अविकृत रूप में ही पाए जाते हैं। हाँ, यह अवश्य स्वीकार करना पडेग़ा कि गद्यों में मुहावरे जितना सुरक्षित रहते हैं, उतना पद्यों में नहीं। गद्यों में भी मुहावरों का स्वरूप बदलता है, जैसे - 'चुराओ ऑंख चुराओ' - इत्यादि। किन्तु ऐसा अवसर विशेष अवस्थाओं में ही आता है। उदाहृत वाक्य इसका प्रमाण है, जिसका 'चुराओ' शब्द चुराने पर जोर देने के लिए ऑंख के पहले भी आया है। कुछ ऐसे पद्य भी देखिए जिनमें मुहावरे शुध्द रूप में व्यवहृत हैं -

'वह दिल लेके चुपके से चलते हुए।

यहाँ रह गये हाथ मलते हुए। '

×          ×          ×

'न इतराइए देर लगती है क्या।

जमाने को करवट बदलते हुए। '

×          ×          ×

'करे वादा पर वादा वह हम को क्या।

ये चकमे ये फिकरे हैं चलते हुए। '

×          ×          ×

'जरा दागष् के दिल पर रक्खो तो हाथ।

बहुत तुमने देखे हैं जलते हुए। '

        ×          ×          ×

'सहर को दर प जाता हूँ तो फरमाते हैं अन्दर से।

अभी सो कर उठे हैं हाथ मुँह धाोते हैं आते हैं। ' - अमीर

×          ×          ×

'ओंठगी चनन केवरिया जौहौं बाटA

उड़गै सोन चिरैया पंजर हाथ' - रहीम

'क्यौं बसियै क्यौं निबहियै नीति नेह - पुर नाहिँ।

लगालगी लोयन करैं, नाहक मन बँधिा जाहिँ ।   

×          ×          ×     - बिहारीलाल

'कब को टेरत दीन रट होत न स्याम सहाय।

तुमहूँ लागी जगत - गुरु जगनायक जग - बाय'

'देव जू जो चित चाहिए नाह तो नेह निबाहिए देह हप्यो परैA

जो समझाइ सुझाइए राह कुमारग मैं पग धाोखे धाप्यो परैA

नीके मैं फीके ह्नै ऑंसू भरो कत ऊँची उसास गरो क्यों भप्यो परै।

रावरो रूप पियो ऍंखियान भप्यो सो भप्यो उबप्यो सो ढप्यो परै। '

        ×          ×          ×

'अबहिँ उरहनो दै गई, बहुरो फिरि आई।

सुनु मैया तेरी सौं करौं, याकी टेव लरन की, सकुच बेंचि सी खाई। '

×          ×          ×

'या ब्रज में लरिका घने, हौंही अन्याई।

मुँह लाए, मुँड़हिँ चढ़ी अन्तहुँ अहिरिनि तोहिँ सूधाी कर पाई। ' - तुलसीदास

    इन पद्यों में जिस शुध्दता के साथ मुहावरों का प्रयोग हुआ है, सच्चा आदर्श वही है। विवशतावश मुहावरों के शब्दों में जो न्यूनाधिाक्य होता है, वह अच्छा नहीं समझा जाता, वह मान्य भी नहीं होता, इसलिए पद्यों का इस प्रकार का प्रयोग प्रमाण - कोटि में गृहीत नहीं हो सकता। कवि - कर्म्म की जटिलताओं के कारण कोई त्राुटि क्षम्य हो सकती है, किन्तु त्राुटि छोड़ वह और कुछ नहीं हो सकती। कवि - कर्म्म इतना गहन है कि वह सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकता, किन्तु इस कारण किसी दोष को गुण नहीं कहा जा सकता, मेरा विचार है कि मुहावरे के शब्दों में न्यूनाधिाक्य उचित नहीं; ऐसा होने पर मुहावरे की विशेषता लांछित होती है। शब्द - संस्थान में अन्तर पड़ने पर मुहावरे का स्वरूप अक्षुण्ण रहता है, उसमें कुछ व्यतिक्रम भर हो जाता है, किन्तु मुहावरे के शब्दों में न्यूनाधिाक्य होने पर उसकी प्रामाणिकता सन्दिग्धा होती है, जो संगत नहीं। आदर्श अथवा मान्य कविगण का प्रयोग शिरोधाार्य्य होता है, वही अन्धाकारमय प्रदेश का प्रदीप है, किन्तु उनका व्यापक प्रयोग ही ग्राह्य है, अव्यापक प्रयोग नहीं। अनेक स्थान पर किए गये शुध्द प्रयोग के सामने एक स्थान पर किया गया अशुध्द प्रयोग मान्य नहीं हो सकता। मत - भिन्नता स्वाभाविक है; आचाय्र्यों का पथ भिन्न हो सकता है, किन्तु प्रमाणभूत प्राय: अधिाक सम्मति ही होती है। इस सिध्दान्त पर दृष्टि रखकर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मुहावरों के शब्दों का न्यूनाधिाक्य नियमानुकूल नहीं।

    इस अवसर पर यह प्रकट कर देना आवश्यक है, कि जो मुहावरा सूक्ष्म होकर अथवा कट - छँटकर छोटा हो जाता है और व्यवहार में आ जाता है, वह इस नियम में नहीं आता। 'दाँतकाटी रोटी', एक मुहावरा है; जिस अर्थ में इस मुहावरे का प्रयोग होता है, उसी अर्थ में केवल 'दाँत काटी' का प्रयोग भी होता देखा जाता है। यह रूप मुख्य मुहावरे का संक्षिप्त रूप है, और उसी प्रकार संगत है, जैसे अनेक वाक्यों और नामों का संक्षिप्त रूप।

मुहावरों का शाब्दिक परिवर्तन

    अब इस विषय पर प्रकाश डालना और शेष रहा कि मुहावरों के शब्दों का परिवर्तन होता है या नहीं। मुहावरों के अनुवाद के विषय में मैं पहले बहुत कुछ लिख आया हूँ, परिवर्तन और अनुवाद में अन्तर है। अनुवाद एक भाषा से अन्य भाषा में होता है, किन्तु परिवर्तन भाषा की परिधिा के भीतर ही हुआ करता है। परिवर्तन का अर्थ यह है कि 'मुँह बनाना' के स्थान पर 'बदन बनाना' अथवा 'आनन बनाना' लिख सकते हैं या नहीं? प्रयोजन यह कि मुँह को बदल कर उसके स्थान पर 'बदन' अथवा 'आनन' रख दें, तो 'मुँह बनाना' मुहावरा सुरक्षित रहेगा या नहीं? उसके भावार्थ में व्याघात होगा या नहीं? अब हम इसी विषय की मीमांसा में प्रवृत्ता होते हैं।

    प्रत्येक मुहावरा शब्दों तक परिमित होता है, उसके शब्द रूढ़ होते हैं, इसलिए अपरिवर्तनीय होते हैं। ये मुहावरे के शब्द जिस भाव के द्योतक होते हैं, वे भाव उन्हीं शब्दों तक नियमित होते हैं, क्योंकि उनका सम्बन्धा उन्हीं शब्दों में गृहीत हुए हैं, और चिरकाल से साहित्य अथवा बोलचाल में उसी रूप में प्रचलित हैं। वे एक प्रकार के शाब्दिक संकेत हैं, जो कतिपय विशेष शब्दों से सम्बन्धा रखते हैं। वे उन पारिभाषिक शब्दों के समान होते हैं, जो परिवर्तित होने पर मुख्य अर्थों के बाधाक बन जाते हैं। इसीलिए मुहावरों के शब्दों का परिवर्तन नियम - विरुध्द माना जाता है। फिर भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं, जिनमें मुहावरों के शब्द बदले दृष्टिगत होते हैें। इसके विशेष कारण हैं, मैं उन कारणों का उल्लेख करूँगा।

    मूल भाषा के अनेक मुहावरे तत्प्रसूत भाषाओं में परिवर्तित रूप में पाए जाते हैं, वे अनुदित से ज्ञात होते हैं, किन्तु वास्तव में वे अनुदित नहीं होते; वे चिरकालिक क्रमिक परिवर्तन के परिणाम होते हैं। किसी मूल भाषा से सम्बन्धा रखेनवाली इस प्रकार की कई भाषाओं में जब एक ही मुहावरा विभिन्न शब्दों में पाया जाता है, तो प्राय: यह अनुमान होने लगता है, कि इनमें से कोई एक किसी दूसरे का अनुवाद है। परन्तु वास्तव में वह अनुवाद नहीं होता, वह अपने - अपने शब्दों में मूल भाषा के मुहावरे का क्रमागत रूपान्तर होता है। ऐसे रूपान्तर - भूत मुहावरों में जो शब्द - भिन्नता होती है, उसकी गणना परिवर्तन में नहीं हो सकती, अतएव परिवर्तन के प्रमाण में इस प्रकार के रूपान्तर - भूत मुहावरे गृहीत नहीं हो सकते। परिवर्तन का प्रमाण हमको एक भाषा की परिधिा के भीतर ही खोजना चाहिए। आशा है इस प्रकार के प्रमाण बहुत कम मिलेंगे, और यदि मिलेंगे तो किसी विशेष हेतु से मिलेंगे, इसलिए इसी सिध्दान्त को स्वीकार करना पड़ता है कि मुहावरे के शब्दों का परिवर्तन नहीं होता।

    हिन्दी - उर्दू पद्यों में अनेक मुहावरों के शब्द बदले पाए जाते हैं। हिन्दी में ही खड़ी बोली की कविता अथवा गद्य में जिस रूप में मुहावरे लिखे जाते हैं, ब्रजभाषा अथवा अवधाी में वे मुहावरे उस रूप में नहीं मिलते, उनमें शाब्दिक परिवर्तन पाया जाता है, ऐसी अवस्था में यह कहा जा सकता है कि मुहावरों के शब्दों का परिवर्तन होता है। यह उचित तर्क है, मैं उसकी विवेचना करूँगा। मैं ऊपर कह आया हूँ कि मूल भाषा से तत्प्रसूत भाषाओं में जो मुहावरे क्रमश: रूपान्तरित होकर आते हैं, वे परिवर्तन - कोटि में गृहीत नहीं हो सकते। क्योंकि वे चिरकालिक क्रमश: व्यवहार का परिणाम होते हैं, इसलिए वे स्वयं मुहावरे होते हैं, परिवर्तन अथवा अनुवाद नहीं। संस्कृत का मुहावरा 'जला×जलिर्दीयते' प्राकृत में 'जलंजली दिजदि' हुआ; हिन्दी में 'जल - ऍंजुली देना' बन गया। यह न तो अनुवाद है और न परिवर्तन। अपभ्रंश भाषा का एक दोहार्ध्द है -

    ''महि वीढह सचराचरह जिण सिर दिण्हा पाय'' - नागरी प्रचारिणी पत्रिाका

    इसका 'सिर दिण्हा पाय' ही हिन्दी का 'सिर पर पाँव देना' है। किन्तु हिन्दी का यह मुहावरा न तो अनुवाद है, न उसमें शाब्दिक परिवर्तन हुआ है, वरन् दूसरा पहले के क्रमश: विकास का ही फल है। इसलिए इस प्रकार के मुहावरे शाब्दिक परिवर्तन के अन्तर्गत नहीं हैं। हिन्दी के निम्नलिखित पद्यों को देखिए; इनमें स्पष्ट शाब्दिक परिवर्तन हुआ है -

'तुम जनि मल मैलो करो लोचन जनि फेरो'

'द्वार द्वार दीनता कही काढ़ि रद परि पाहूँ। '

'करत नहीं कान बिनती बदन फेरे'

'मैं तो दियो छाती पवि। '

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'देखो काल कौतुक पिपीलकनि पंख लागो' - गीतावली

'है तव दसन तोरिबे लायक। ' - रामायण

'नयन ये लगि कै फिर न फिरे। ' - हरिश्चन्द्र

    मुहावरा है - 'ऑंख फेरना'हिन्दी का एक कवि कहता है,श् 'साईं ऍंखियाँ फेरियाँ बैरी मुल्क जहान', उर्दू का एक मिसरा है - 'ऑंख फेरी जिस घड़ी फिर काहे का नाता रहा','ऑंख फेरो' के स्थान पर गोस्वामी जी ने 'लोचन फेरो' लिखा है। वे 'नयन फेरे' भी लिखते हैं - 'पै तौलौं जौलौं रावरे न नेकु नयन फेरे'। इन प्रयोगों में मुहावरे के शब्दों का परिवर्तन स्पष्ट है। निम्नलिखित पंक्तियों को भी देखिए -

    मुहावरों का वास्तविक रूप    पद्यों का प्रयोग

    'दाँत काढ़ना' वा 'निकालना'   'रद काढ़ि'

    'मुँह फेरना'               'बदन फेरे'

    'पत्थर कलेजे पर रखना'     'दियो छाती पवि'

    'चींटी को पंख निकलना' वा 'लगना'  'पिपीलकनि पंख लागो'

    'दाँत तोड़ना'              'दसन तोरिबे'

    'ऑंख लगना'             'नयन लगना'

    हिन्दी के अधिाकतर मुहावरे तद्भव शब्दों ही में पाए जाते हैं। व्यवहृत तत्सम अथवा अन्य भाषा के प्रचलित शब्दों से भी हिन्दी के मुहावरे बने हैं, परन्तु उनकी संख्या थोड़ी है। जो तत्सम अथवा अन्य भाषा के शब्द तद्भव शब्दों के समान ही व्यापक हैं, उन शब्दों का मुहावरों में पाया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि हिन्दी भाषा के अंगभूत वे भी हैं। किन्तु अप्रचलित संस्कृत शब्दों का हिन्दी मुहावरों में प्राय: अभाव है। गोस्वामी जी के 'रद काढ़ि' का 'रद', 'बदन फेरे' का 'बदन', 'पिपीलकनि पंख लागो' का 'पिपीलिका', 'दसन तोरिबे' का 'दसन' शब्द इसी प्रकार का है। सर्वसाधाारण में इन शब्दों का प्रचार नहीं है, इसलिए मुहावरों में इनका प्रयोग नहीं हो सकता। किन्तु गोस्वामी जी ने ऐसा किया है, कारण पद्य के बन्धानों की गहनता है। यदि इन वाक्यों में अभिधाा - शक्ति से काम लिया गया होता, वे लक्षणा अथवा व्यंजनामूलक न होते, तो साधाारण वाक्य माने जा सकते थे। किन्तु वे मुहावरे के रूप में ही व्यवहृत हैं, अतएव उनका शब्दान्तर चिन्तनीय हो जाता है। 'बदन फेरना' और 'दसन तोरना' का प्रयोग 'गीतावली' और 'विनयपत्रिाका' में भी हुआ है, यथा -

'सुनु सुग्रीव साँचहूँ मो पर फेरयो बदन बिधााता। ' - गीतावली

''तौ तुलसिहिं तारिहौ विप्र ज्यों दसन तोरि जमगन के'' - विनयपत्रिाका

    'दसन' के स्थान पर पद्य में निर्दोष भाव से 'दाँत' का प्रयोग हो सकता था, किन्तु नहीं किया गया। इससे यह कहा जा सकता है कि इसमें शब्दान्तर नहीं है, वरन् प्रकृत रूप में ही इसका प्रयोग हुआ है, किन्तु यह ठीक नहीं। मैं ऊपर दिखला आया हूँ, गोस्वामी जी 'ऑंख फेरना' के स्थान पर 'लोचन फेरना' और 'नयन फेरना' दोनों लिखते हैं; यदि हो सकता है, तो मुहावरे के रूप में एक ही प्रयोग ठीक हो सकता है, दोनों नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य उदाहरण भी ऐसे हैं, जिनमें गोस्वामी जी को शाब्दिक परिवर्तन करते देखा जाता है। 'सिर धाुनना'; एक मुहावरा है; गोस्वामी जी इस मुहावरे को शुध्द रूप में भी लिखते हैं, और उसमें आवश्यकतानुसार शाब्दिक परिवर्तन भी कर देते हैं; जैसे -

'काल स्वभाव करम विचित्रा फल दायक सुनि सिर धाुनि रहौं। '

'सिर धाुनि धाुनि पछितात मींजि कर' - विनयपत्रिाका

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'बरज्यो न करत कितो सिर धाुनिए। ' - कृष्ण गीतावली

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'कोमल सरीर गभीर वेदन सीस धाुनि धाुनि रोवहीं। ' - रामचरित मानस

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'बार बार कर मींजि सीस धाुनि गीधाराज पछिताई। ' - गीतावली

    तीन पद्यों में 'सिर' का प्रयोग है; दो पद्यों में 'सिर' के स्थान पर 'सीस' का। 'हाथ मलना'; एक मुहावरा है; गोस्वामी जी इसे कभी 'कर मींजना' लिखते हैं, कभी 'हाथ मींजना'। ऊपर दूसरे और पाँचवें पद्य में 'कर मींजना' का प्रयोग आप देख चुके हैं; नीचे के पद्य में 'हाथ मींजना' का प्रयोग देखिए।

'तौ तू पछितैहैं मन मींजि हाथ। - विनयपत्रिाका

    'कलेजे से लगाना' अथवा 'कलेजे लगाना'; मुहावरा है; इसके प्रयोग को देखिए।

'सरल सुभाय भाय हिय लाये। '

'लिये उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति वारि। - तुलसीदास

'कौसल्या निज हृदय लगाई। '

    मेरा विचार है कि 'रद काढ़ि', 'बदन फेरे', 'दसन तोरि' आदि में शाब्दिक परिवर्तन ही हुआ है, वे मुख्य रूप में प्रयुक्त नहीं है। 'पिपीलिका' शब्द कठिन संस्कृत शब्द है, चींटी के स्थान पर इसका प्रयोग, मुख्यत: मुहावरे में कभी संगत नहीं है, किन्तु छन्दोगति की रक्षा के लिए ही उसका प्रयोग किया गया है। 'रद काढ़ि' भी ऐसा ही प्रयोग है। 'बदन फेरे' और 'दसन तोरि' के विषय में मैं इतना और लिख देना चाहता हूँ कि कबीर साहब की रचना में भी 'मुँह फेरना' मुहावरे का प्रयोग मिलता है, जो गोस्वामी जी से सौ वर्ष पहले हुए हैं; यथा -

'हौं वारी मुँह फेर पियारे। करवट दे मों को काहे को मारे। ' - ग्रन्थ साहब

    इसलिए यह अवश्य है कि आवश्यकतावश गोस्वामी जी ने 'मुँह' के स्थान पर ''बदन'' का प्रयोग किया है। 'दाँत' शब्द का प्रयोग करते और मुहावरे को शुध्द रूप में लिखते भी गोस्वामीजी को देखा जाता है; यथा -

'तापर दाँत पीसि कर मींजत को जानै चित कहा ठई है। '

 - विनयपत्रिाका

    इस पद्य में 'दाँत पीसना' मुहावरे का शुध्द प्रयोग है। गोस्वामी जी ने यहाँ मुहावरे की रक्षा की है, जिससे पद्य में जोर आ गया है। 'पीसि' के साहचर्य्य' से यहाँ 'दसन' का प्रयोग अनुप्रास की दृष्टि से सुन्दर होता, किन्तु रसानुकूल ने होता, इसीलिए जी ने 'दाँत' शब्द का प्रयोग ही इस पद्य में किया। 'दसन तोरिबे' का प्रयोग भी ऐसा ही है, यद्यपि उसमें मुहावरे की रक्षा नहीं हुई।

    'दियो छाती पवि', विचित्रा प्रयोग है। अभिधाा द्वारा इसका कुछ अर्थ नहीं होता, व्यंजना द्वारा इसका वही अर्थ होता है, जो अर्थ 'कलेजे पर पत्थर रखने' का है। मेरा विचार है, इसी मुहावरे के आधाार से उक्त मुहावरे की सृष्टि गोस्वामी जी ने की है, उसमें प्रत्यक्ष प्रौढ़ोक्ति है, शाब्दिक परिवर्तन तो इतना अधिाक है कि मुख्य मुहावरे की छाया तक उसमें नहीं मिलती। उसको एक स्वतन्त्रा मुहावरा भी कहा जा सकता है, जिसके आचार्य्य स्वयं गोस्वामी जी हैं। ऐसी अवस्था में उसको शाब्दिक परिवर्तन की परिधिा से बाहर मानना होगा। 'बज्र की छाती करना', एक मुहावरा है; यह मुहावरा भी इस मुहावरे का आधाार हो सकता है।

           'नयन ए लगि कै फिर न फिरे'; यह रचना बाबू हरिश्चन्द्र की है। इसमें 'ऑंख' के स्थान पर 'नयन' का प्रयोग हुआ है। 'ऑंख लगना' मुहावरा है; 'बिहारीलाल' लिखते हैं - 'ऑंखिन ऑंख लगी रहै ऑंखैं लागत नाहिँ'; किन्तु हरिश्चन्द्र ने इस पद्य में मुहावरे की रक्षा नहीं की है। आवश्यकतावश 'ऑंख' को 'नयन' से बदल दिया है, यह स्पष्ट शाब्दिक परिवर्तन है।

प्रान्तिक शब्द - विभेद परिवर्तन नहीं होता

    इस स्थल पर यह प्रकट कर देना भी युक्तिसंगत जान पड़ता है, कि हिन्दी भाषा के अनेक मुहावरे ऐसे हैं, जो प्रान्तिक भाषाओं की दृष्टि से एक - दूसरे का अनुवाद मालूम होते हैं, अथवा जिनमें शाब्दिक परिवर्तन पाया जाता है। किन्तु वास्तव में न तो वे अनुवाद होते हैं, और न उनमें शाब्दिक परिवर्तन होता है, वरन् वे क्रमागत विकास का परिणाम होते हैं, और अपनी प्रान्तिकता का परिच्छद धाारण किए हमारे सम्मुख आते हैं। उनमें से प्रत्येक की स्वतन्त्रा सत्ताा होती है। एक ही मुहावरे के ब्रजभाषा, अवधाी और खड़ी बोली में जो विभिन्न रूप मिलते हैं, वे ही इसके प्रमाण हैं। कुछ उदाहरण लीजिए -

'राम नाम जपे जैहै जिय की जरनि'

'द्वार द्वार हीनता कहि काढ़ि रद परि पाहूँ। '

 - विनयपत्रिाका

×              ×              ×

'सूधाो पाँय न महिँ परत सोभा ही के भार। '

''मूँड़ चढ़ायेहूँ रहै परयौ पीठि कच भार।

'रहै गरें परि राखियै तऊ हियें पर हार। ''

            ×                ×                                  ×    - बिहारीलाल

'मुँह लाए मूँडहिँ चढ़ी अन्तहुँ अहिरिनि तोहिँ सूधाी कर पाई। '

''मूड़ मारि हिय हारिकै हित हेरि हहरि। ' - तुलसीदास

×              ×              ×

'मधाुबन बसत आस दरसन की नयन जोहि मग हारे।

'अवधिा गनत इकटक मग जोहत तब एती नहिँ झूखी। ' - सूरदास

×              ×              ×

'अब मैं कब लौं देखूँ बाँट। ' - हरिश्चन्द्र

×              ×              ×

'नाथ कृपा ही को पन्थ चितवत दीन हौं दिन राति। ' - विनयपत्रिाका

    उल्लिखित पद्यों में जो मुहावरे आये हैं, उन पर लकीर खींच दी गयी है; खड़ी बोलचाल में उनका प्रयोग किस रूप में होगा, यह नीचे दिखाया जाता है -

    पद्य के मुहावरे      खड़ी बोलचाल के रूप

    'जिय की जरनि'      'जी की जलन'

    'परि पा'            'पाँव पड़ कर'

    'सूधाो पाँय न परत'  'सीधाा पाँव नहीं पड़ता'

    'मूँड़ चढ़ाए'          'सिर चढ़ाए'

    'गरें परि'            'गले पड़ कर'

    'मुँह लाए'           'मुँह लगाए'

    'मूँड़हिँ चढ़ी'          'सिर पर चढ़ी'

    'मूँड़ मारि'           'सिर मार कर'

    'जोहि मग'          'राह देख कर'

    पद्य के मुहावरे      खड़ी बोलचाल के रूप

    'मग जोहत'          'राह देखते'

    'देखूँ बाट'           'राह देखूँ'

    'पंथ चितवत'         'राह देखना'

    पद्य के मुहावरे अवधाी और ब्रजभाषा के हैं। खड़ी बोली में उनका व्यवहार जिस रूप में होता है, वह भी बतलाया गया। मेरा विचार है, कि इनमें से कोई एक दूसरे का अनुवाद नहीं है, और न इनमें शाब्दिक परिवर्तन हुआ है। दोनों ही स्वतन्त्रा हैं, और उनकी अलग सत्ताा है। मूल उनका एक है, किन्तु उनका विभिन्न रूप प्रान्त के अनुसार है। जिस प्रान्त का जिस प्रकार का शब्द - प्रयोग अथवा उच्चारण था, उसी के अनुसार उसकी परिणति है। इसमें मत - भेद हो सकता है, किन्तु मेरा विचार यही है। क्यों? यह मैं बतलाता हूँ।

    निम्नलिखित मुहावरों को देखिए -

    पद्य के मुहावरे       खड़ी बोली के रूप

    'जिय की जरनि'       'जी की जलन'

    'परि पा'             'पाँव पड़ कर'

    'सूधाो पाँय न परत'   'सीधाा पाँव नहीं पड़ता'

    'गरें परि'             'गले पड़ कर'

    'मुँह लाए'            'मुँह लगाए'

    भाव - प्रकाशन, व्यंजना, और शब्द - विन्यास में ये दोनों प्रकार के मुहावरे प्राय: एक हैं; इनमें यदि है तो थोड़ा प्रान्तिकता का ही अन्तर है। ब्रज प्रान्त का 'जिय' दिल्ली प्रान्त में 'जी' हो जाता है, ब्रज प्रान्त में '' एवं '', के स्थान पर प्राय: '' का उच्चारण होता है। पा, पाय, पाव, एक ही हैं। उर्दू, फषरसी और कभी - कभी हिन्दी में भी 'पाय' के स्थान पर केवल 'पा' का प्रयोग होता है। पापोश, पाज़ेब, पालागन, इसके प्रमाण हैं। खड़ी बोली की क्रिया प्राय: दीर्घान्त और ब्रज भाषा की प्राय: लघ्वन्त होती है, खड़ी बोली में पूर्वकालिक क्रिया का चिद्द, कर, के आदि हैं, ब्रज भाषा में यह कार्य्य Ðस्व '' से ही चल जाता है। 'पड़ना' धाातु की पूर्वकालिक क्रिया का रूप खड़ी बोली में 'पड़कर' होगा, ब्रज भाषा में वह केवल 'परि' होगा। ''कार हो जावेगा ''कार और उसमें Ðस्व ''कार मिलकर पूर्व कालिक क्रिया का काम देगी। 'मुँह लाए' और 'मुँह लगाए' की क्रियाओं का अन्तर भी साधाारण है। इसलिए यह स्पष्ट है कि दोनों प्रकार के मुहावरों में यदि अन्तर है तो प्रान्तिकता का; और यह स्वाभाविक है। वह इस बात का भी सूचक है, कि वास्तव में एक - दूसरे के अनुवाद नहीं हैं, और न उनमें किसी उद्देश्य से शाब्दिक परिवर्तन हुआ है, वरन् एक स्वरूप ही देश - सम्बन्धाी विशेष कारणों से दो लिबासों में है।

    कुछ मुहावरे ऐसे भी हैं, जिनमें शाब्दिक परिवर्तन हुआ ज्ञात होता है। जैसे - 'मूड़ चढ़ाए', 'मूँड़हिँ चढ़ी, 'मूँड़ मारि'। इन मुहावरों में 'सिर' के स्थान पर 'मूँड़' का प्रयोग हुआ मालूम होता है, किन्तु वास्तव में यह बात नहीं है। सर्व साधाारण में आज भी इन मुहावरों में मूड़ का ही प्रयोग होता है। ब्रज भाषा अथवा अवधाी की जितनी कविताओं में इस प्रकार के मुहावरों का व्यवहार हुआ है, उनमें से अधिाकांश में 'मूँड़' का ही प्रयोग मिलता है। गोस्वामी जी यदि 'मूँड़हिँ चढ़ी' अथवा 'मूँड़ मारि' लिखते हैं, तो सौ सवा सौ वर्ष बाद इन्हीें प्रयोगों को इसी रूप में कविवर बिहारीलाल भी करते हैं। एक जगह वे लिखते हैं, - 'मारौं मूँड़ पयोधिा', इसका भी वही रंग है। इससे क्या पाया जाता है! यही कि इनमें शाब्दिक परिवर्तन नहीं है, वरन् बोलचाल के अनुसार उनका स्वाभाविक रूप यही है। उदाहृत मुहावरों के सब शब्द तद्भव हैं, तत्सम एक भी नहीं; इससे भी उनकी स्वाभाविकता की पुष्टि होती है। कविता - गत बन्धानों के कारण जो इस प्रकार के प्रयोग होते हैं, उनमें एकदेशीयता होती है, वे व्यापक नहीं होते। वे प्रयोगकर्ता तक ही प्राय: परिमित होते हैं, दूसरे कवियों को उस प्रकार का प्रयोग करते नहीं देखा जाता, अर्थात् उनकी पुनरावृत्तिा नहीं होती, अकस्मात् की बात दूसरी है। बोलचाल में भी उनका पता नहीं चलता, कारण यह है कि वे कवि के स्वतन्त्रा प्रयोग होते हैं। इन बातों पर विचार करने से यही पाया जाता है, कि 'मूँड़ चढ़ाए' आदि मुहावरे गढ़े नहीं, वरन् बोलचाल से ही प्रसूत हैं।

    कोमल कान्त पदावली के आचार्य्य जयदेवजी एक स्थान पर लिखते हैं, - 'रचयति शयनं सचकितनयनं पश्यति तव पन्थानम्'; 'पश्यति तव पन्थानम्', का अर्थ हुआ, 'तुम्हारा राह देखती है''राह देखना' भी एक मुहावरा है, क्योंकि उसका अर्थ 'प्रतीक्षा करना' है, 'पथ को देखना' नहीं। गोस्वामी जी इस मुहावरे को एक स्थान पर इस रूप में लिखते हैं - 'नाथ कृपाही को पन्थ चितवत दीन हौं दिन राति'। सूरदासजी इस मुहावरे को 'मग जोहना' के रूप में लिखते हैं, - 'नयन जोहि मग हारे', 'अवधिा गनत इकटक मग जोहत'; इसके प्रमाण हैं। रहीम ख़ानख़ाना लिखते हैं - 'आेंठगी चनन केवरिया जोहौं बाट'; बाबू हरिश्चन्द्र कहते हैं - 'अब मैं कब लौं देखूँ बाट'। एक मुहावरे का इतना विभिन्न रूप भ्रामक है, यदि उसको वाक्य मान लिया जावे, तो सब झगड़ा तै हो जाता है, किन्तु  वास्तव में वह वाक्य नहीं है, मुहावरा है; क्योंकि उसका अर्थ व्यंजना अथवा लक्षण द्वारा होता है, अभिधाा - शक्ति द्वारा नहीं। सत्य बात यही है 'बाट जोहना' ब्रज भाषा का एक मुहावरा है। आजकल यह मुहावरा हिन्दी गद्य में भी प्रचलित है। गोस्वामी जी का, 'पन्थ चितवत' और सूरदास जी का 'मग जोहना' उसके रूपान्तर अवश्य हैं, किन्तु उनका आधाार बोलचाल है। वे शब्दान्तरित अथवा गढे नहीं हैं। जयदेव जी के संस्कृत वाक्य से गोस्वामीजी के वाक्य का मेल हो सकता है, किन्तु 'पन्थ चितवत' गोस्वामी जी का निर्माण नहीं है, वास्तव में उसका सम्बन्धा बोलचाल से है, आज भी अवधा प्रान्त में उसका व्यवहार देखा जाता है। 'मग जोहना' भी ऐसा ही वाक्य है। इसलिए यह भिन्नता स्वाभाविक है; इसका आधाार शाब्दिक परिवर्तन नहीं। मेरा विचार है कि ऐसे मुहावरों को भी शाब्दिक परिवर्तन के अन्तर्गत न मानना चाहिए। बाबू हरिश्चन्द्र का 'बाट देखूँ' अवश्य विचारणीय है। ब्रजभाषा - रूप उसका ''बाट देखौ। '' होना चाहिए, किन्तु बाबू साहब ने अपने वाक्य को यह रूप नहीं दिया। यह भ्रम, प्रमाद अथवा छापे की अशुध्दि हो सकती है, तो भी यह विचार करना पडेग़ा कि ब्रजभाषा में ''बाट देखौ। ' से 'बाट जोहौ। ' और खड़ी बोली में 'बाट देखूैँ' से 'राह देखूँ' लिखना अच्छा होगा, क्योंकि ऐसी अवस्था में दोनों में स्वाभाविकता होगी।

    श्रीमान् बाबू श्यामसुन्दरदास अपने 'हिन्दी भाषा का विकास' नामक ग्रन्थ में एक स्थान पर यह लिखते हैं -

    'प्राचीन समय में यमुना और गंगा की उपत्यका में दो प्रकार की प्राकृतें बोली जाती थीं - एक शौरसेनी प्राकृत थी जो पश्चिम में बोली जाती थी और दूसरी मागधाी थी, जो पूर्व में बोली जाती थी। इन दोनों प्राकृत भाषाआें की प्रचार - सीमा के बीच में वह स्थान पड़ता है, जो अवधाी की सीमा के अन्तर्गत आता है। यहाँ ऐसी भाषा का प्रचार था, जो कुछ तो शौरसेनी से मिलती थी, और कुछ मागधाी से। बोलचाल की भाषा को अर्धामागधाी नाम दिया गया है। इसी प्राचीन अर्धामागधाी की स्थानापन्न अवधाी भाषा है, कुछ विद्वानों ने पूर्वी हिन्दी, नाम भी दिया है। ''

    ''अवधाी के भी दो रूप मिलते हैं, एक पश्चिमी दूसरा पूर्वी। पश्चिमी अवधाी लखनऊ से कन्नौज तक बोली जाती है, अतएव ब्रज भाषा की सीमा के निकट पहुँच जाने के कारण उसका इस पर बहुत प्रभाव पड़ा है, और वह उससे अधिाक मिलती है। '' - पृष्ठ 63, 64

    इन अवतरणों से यह पाया जाता है कि ब्रज भाषा और खड़ी बोली दोनों शौरसेनी से उत्पन्न हैं, अर्थात् दोनों की जननी शौरसेनी है। ब्रजभाषा (शौरसेनी) का प्रभाव अवधाी पर बहुत कुछ बतलाया गया है, विशेष कर पश्चिमी अवधाी पर। ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का आधाार शौरसेनी प्राकृत का अपभ्रंश है, ब्रजभाषा के नाते अवधी पर भी उसका बहुत कुछ प्रभाव है। इससे यह स्पष्ट है कि इन बोलियों में जो मुहावरे आये हैं, वे अधिाकांश शौरसेनी अपभ्रंश पर ही अवलम्बित हैं। और ऐसी अवस्था में उनके मुहावरों का प्राय: एक होना स्वाभाविक है। जहाँ यह सत्य है, वहाँ यह भी सत्य है कि प्रत्येक मुहावरे अपनी बोलियों के आकार में ही विकसित हुए हैं, और इसीलिए वे उसी रूप में पाए जाते हैं। ऐसी दशा में यह कहना संगत न होगा कि उनमें शाब्दिक परिवर्तनहुआ है, या उनमें से एक दूसरे का अनुवाद है। और यही मुझको प्रतिपादन करनाथा।

उर्दू का शाब्दिक परिवर्तन

    उर्दू के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती, उसमें बहुत शाब्दिक परिवर्तन मिलता है। जिस प्रकार फषरसी के बहुत से मुहावरे उर्दू में सम्मिलित कर लिए गये हैं, उसी प्रकार हिन्दी के बहुत से मुहावरों के शब्दों को बदल कर उनको उर्दू का रूप दे दिया गया। यदि कहा जावे कि इस परिवर्तन का आधाार भी बोलचाल है, क्याेंकि उर्दू बोलनेवाली जनता भी तो है। तो इसका उत्तार यह है, जिस प्रकार बहुत से फषरसी के मुहावरे साहित्यिकों द्वारा उर्दू में बिना सर्वसाधाारण अथवा उर्दू बोलनेवाली की बोलचाल का धयान किए हुए सम्मिलित किए गये हैं, उसी प्रकार हिन्दी के अनेक मुहावरों के शब्दों को भी फषरसी के शब्दों से बदल दिया गया है। प्रमाण इसका यह है कि आज भी फषरसी के जो कठिन शब्द उर्दू बोलनेवाली जनता के व्यवहार में नहीं हैं, वे शब्द भी हिन्दी मुहावरों में हिन्दी शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त पाए जाते हैं, और ऐसे वाक्यों का उर्दू साहित्यिकों द्वारा मुहावरे के स्वरूप में व्यवहार किया जाता है। दूसरी बात यह कि नियम - विरुध्द होने पर भी उर्दू कवियों को एक मुहावरे को दो - दो रूप में प्रयोग करते पाया जाता है। यदि हिन्दी का कोई मुहावरा बोलचाल के आधाार पर परिवर्तित होकर उर्दू में सम्मिलित हो गया है, तो उसका व्यवहार उसी रूप में होना चाहिए, किन्तु यह नहीं होता; उर्दू में उसका व्यवहार तो होता ही है, आवश्यकता पड़ने पर उस मुहावरे का हिन्दी रूप भी काम में लाया जाता है, और इस प्रकार सुविधाा के अनुसार दोनों का व्यवहार होता रहता है। यह शाब्दिक परिवर्तन छोड़ और कुछ नहीं होता। कविता की सुविधााओं का सम्पादन ही उसका उद्देश्य कहा जा सकता है। यह मैं स्वीकार करूँगा कि पद्य में होते - होते उसका व्यवहार गद्य में भी होने लगता है, किन्तु इससे भी शाब्दिक परिवर्तन का ही पक्ष पुष्ट होता है, क्योंकि यदि हिन्दी को फषरसी - शब्दमय बनाना इष्ट न होता, तो गद्य में उसके उर्दू रूप लिखने की क्या आवश्यकता थी! क्याेंकि पद्य के समान उसमें कोई बन्धान होता ही नहीं। इन्हीं विचारों से मैं इस सिध्दान्त पर पहुँचा हूँ कि उर्दू में अधिाकांश हिन्दी मुहावरों के शब्दों मेें जो परिवर्तन देखा जाता है वह शब्दिक परिवर्तन होताहै।

    मैंने जो कुछ कथन किया है, उसका उदाहरण भी आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ। हिन्दी का एक मुहावरा है - 'बिजली गिरना' या 'गिराना'। अकबर लिखते हैं -

    'गिरा कीं चुपके चुपके बिजलियाँ दीनी अकषयद पर। '

    अमीर लिखते हैं - 'आशिकों के दिल पै गिरती हैं हजारों बिजलियाँ। '

    अकबर लिखते हैं - 'जिसका ख़याल बर्कष् गिराता है होश पर। '

    अन्तिम शेर में भी ऊपर के शेरों के समान 'बिजली गिराता है' लिखना चाहिए था, किन्तु बिजली के लिए स्थान नहीं था, इसलिए 'बर्कष् गिराता है' लिखा गया है। 'बर्कष्' ऐसा शब्द है, जिसे साहित्यिकों को छोड़कर अन्य उर्दू बोलनेवाले कदाचित् ही बोलते हैं, फिर भी उसका प्रयोग किया गया है। गालिब का शेरहै -

'इश्क पर जोर नहीं, है यह वह आतिश गालिब।

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने। '

    'आग लगाना' और 'आग बुझाना' हिन्दी मुहावरा है। 'आतिश लगाना या 'आतिश बुझाना' मुहावरा नहीं है। फिर भी गालिब ने ऊपर के शेर में ऐसा ही प्रयोग किया है, कारण - पद्यगत संकीर्णता है। बोलचाल पर दृष्टि रखकर यह प्रयोग कदापि नहीं हुआ, मेरा मतलब किसी के घर की बोलचाल से नहीं, सर्वसाधाारण की बोलचाल से है। 'आग लगाना' का ठीक प्रयोग देखिए। आतिश लिखते हैं -

^^लगाती आग बिजली की चमक है ख़ानये तन में। ''

    फषरसी का एक मुहावरा है 'अजश् जाँ गुजश्तन' - उर्दू के शाअरों ने इस मुहावरा को उर्दू में दाख़िल कर लिया है। 'जश्फर' कहते हैं -

'वहाँ जाए वही जो जान से जाए गुजश्र पहले। '

    इस मुहावरे को 'मीर' ने यों बाँधाा है -

'अब जी से गुजर जाना कुछ काम नहीं रखता। '

    'अजश् जाँ गुजश्श्तन' अर्थात् 'जान से गुजर जाना'; अर्थ है - 'जी पर खेल जाना'। जश्फर ने मुहावरे को अपने पद्य में ठीक बाँधाा है, किन्तु मीर ने 'जान' को बदल कर 'जी' कर दिया है। यद्यपि 'जी से गुजश्र जाना' कोई मुहावरा नहीं हैं, फषरसी के शब्दों के अनुसार 'जान से गुजश्र जाना' ही ठीक है। किन्तु 'जान' का पर्यायवाची शब्द 'जी' है, इसलिए मीर ने पद्य के बन्धान में पड़कर 'जी से गुजर जाना' लिखा। यहाँ स्पष्ट शाब्दिक परिवर्तन है।

    हिन्दी मुहावरा है - 'कलेजा थामना'नीचे के पद्यों में इस का शुध्द प्रयोग हुआ है -

'रह गया बस नाम लेते ही कलेजा थाम के। ' - जुरअत

'बात करता हूँ कलेजा थाम के। ' - दागष्

    अब इसका परिवर्तित प्रयोग देखिए -

'दिले सितम जश्दा को हमने थाम थाम लिया। ' - मीर

'दिल को थामा उनका दामन थाम के। ' - दागष्

    इन पद्यों में 'कलेजे' को 'दिल' से बदल दिया गया है। मुसहफी का शेरहै -

      'जी ही जी' बीच बहुत शाद हुआ करती है। '

    दागश् लिखते हैं -

      'ऐ दागश् दिल ही दिल में घुले जब से इश्क में। '

    मुसहफी का 'जी ही जी' दागश् का 'दिल ही दिल', हो गया। जुरअत लिखतेहैं -

'हाथ हम अपने कलेजे पर धारे फिरते है। '

    दागश् कहते हैं -

'जश्रा दागश् के दिल पर रक्खो तो हाथ'

    'कलेजे पर हाथ रखना' मुहावरा है, दोनों पद्यों का परिवर्तन स्पष्ट है। हिन्दी - शब्दसागर कोश को उठाकर आप देखें; और 'जी' 'जान', 'दिल' और 'कलेजे' के मुहावरों को मिलावें, तो अधिाकांश मुहावरे दोनों के एक पाए जाएँगे। 'जी' के मुहावरे के 'जी' को बदल कर 'जान' रख दीजिये, तो अनेक 'जी' के मुहावरे 'जान' के मुहावरे बन जावेंगे; इसी प्रकार 'कलेजे' के मुहावरे 'दिल' के मुहावरे हो जावेंगे। नीचे कुछ ऐसे उर्दू पद्य मैं लिखता हूँ जिनमें इतना अधिाक स्पष्ट परिवर्तन है कि उसमें तर्क का स्थान नहीं। उर्दू का मुहावरा ही आपको बतला देगा कि उसका हिन्दी मुहावरा क्या है। तथापि उनका मुख्य स्वरूप भी मैं आपको बतलाऊँगा।

    दागश् -         ''दिल टूट जायेगा किसी उम्मेदवार का।

         गश्श खाके दागश् यार के कष्दमों प गिर पड़ा। ''

                            ×                        ×                      ×

    हाली -          ''ऐ शबे माहेताब तारों भरी।

         अपने आशाइशों प डाल दे ख़ाक। ''

                            ×                        ×                      ×

    अकबर -        'फाँकिए ख़ाक आप भी साहब हवा खाने गए। '

                            ×                        ×                      ×

    ज़ामिन -        'करूँ ख़िदमत मैं ऑंखों से बिठालूँ चश्म पर पहले। '

                            ×                        ×                      ×

    अकबर -        'लेकिन मजाल क्या जो नजश्र से नजश्र मिले। '

                            ×                        ×                      ×

    इन्शा -         'ज़बाँ भी खैंच लेना तुम अगर मुँह से फुग़ाँ निकले। '

                            ×                        ×                      ×

    नासिख़ -        'दिल धाड़कता है जुदाई की शबे तार न हो। '

                            ×                        ×                      ×

    नूह - 'बुलबुल को कोई समझा दे क्यों ख़ून के ऑंसू रोती है। '

    दागश् के शेरों में 'दिल' की जगह 'जी' और 'कष्दमो। ' के स्थान पर 'पाँवो। '; हाली के शेरों में 'शब' के स्थान पर 'रात' और 'ख़ाक' के स्थान पर 'धाूल', अकबर के पहले शेर के 'ख़ाक' के स्थान पर 'धाूल' दूसरे शेर में 'नजश्र' के स्थान पर 'ऑंख'; ज़ामिन के 'चश्म', इन्शा की 'जश्बाँ', नासिख के 'दिल' और नूह के 'खून' के स्थान पर क्रम से ऑंख, जीभ, कलेजा, और लहू लिखिए; उस समय मुहावरों का मुख्य रूप आप पर प्रकट हो जावेगा। ये शाब्दिक परिवर्तन विशेष उद्देश्य और पद्यों की उलझनों के कारण हुए हैं। ऐसे और बहुत से परिवर्तन बतलाए जा सकते हैं, किन्तु जितने प्रमाण दिए गये हैं, वे पर्याप्त हैं।

    यदि कहा जावे कि ये वैसे ही शाब्दिक परिवर्तन हैं, जैसे - ब्रजभाषा के 'बाट जोहना' और 'मग जोहना, आदि; तो मैं कहूँगा यह ठीक नहीं; उनका आधाार सर्वसाधाारण की बोलचाल है, किन्तु उर्दू मुहावरों के परिवर्तित शब्दों के पास सर्वसाधाारण के बोलचाल की सनद नहीं है। फिर भी मैं यह कहता हूँ कि उदाहृत मुहावरों में यदि इस प्रकार के कुछ मुहावरे हैं तो निकाल दिए जावें। उनके निकाल दिए जाने पर भी कुछ मुहावरे ऐसे बचते हैं, जिनमें शाब्दिक परिवर्तन स्वीकार करना होगा। मेरा वक्तव्य केवल इतना ही है कि उर्दू में कुछ मुहावरे हिन्दी से इस प्रकार के लिये गये हैं, कि उनमें शाब्दिक परिवर्तन हुआ है। मैंने कुछ ऐेसे हिन्दी भाषा के पद्यों को भी दिखलाया है, जिनमें शाब्दिक परिवर्तन होना स्वीकार करना पडेग़ा। मैंने कुछ पद्य गोस्वामी जी के व एक पद्य बाबू हरिश्चन्द्र का उदाहरण में दिया है। गोस्वामी जी हिन्दी संसार के सर्वमान्य और सर्वप्रधाान महाकवि हैं, बाबू हरिश्चन्द्र का स्थान आधाुनिक कवियों में सबसे ऊँचा है; अतएव इन लोगों की कविताओं के उदाहरणों को ही मैंने पर्याप्त समझा है। और भी हिन्दी के महाकवियों और आचाय्र्यों के उदाहरण भी उपस्थित किए जा सकते हैं, किन्तु यह विस्तार मात्रा होगा। हिन्दी का कोई कवि, महाकवि या आचार्य्य ऐसा नहींहै, कि जो आवश्यकता होने पर पद्यगत मुहावरों में शाब्दिक परिवर्तन न करता हो, अतएव ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, किन्तु व्यर्थ विषय - कलेवर - वृध्दिसंगतनहीं।

अन्तिम निष्पत्तिा

    प्रस्तुत विषय यह था कि मुहावरों में शाब्दिक परिवर्तन नहीं होता, किन्तु हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के मान्य और प्रतिष्ठित कवियों की पद - रचना में मुहावरों का शाब्दिक परिवर्तन पाया गया। मेरा विचार है पद्यगत यह शाब्दिक परिवर्तन प्रमाणकोटि में गृहीत नहीं हो सकता। कविकर्म्म ही दुरूहता के कारण कवि को अनेक स्थानों पर नियमोल्लंघन करना पड़ता है, उनका यह नियमोल्लंघन निरंकुशता ही कही गयी है, कभी प्रमाणकोटि में गृहीत नहीं हुई। मुहावरों का शाब्दिक परिवर्तन भी ऐसा ही है, इसलिए उसको भी प्रमाणकोटि में ग्रहण नहीं किया जा सकता। गद्य की ही प्रणाली को हम आदर्श मान सकते हैं, क्योंकि उसका पथ मुक्त होता है, और गद्य में कभी भी शाब्दिक परिवर्तन मुहावरों में नहीं किया जाता, इसलिए सिध्दान्त यही होता है कि मुहावरों में शाब्दिक परिवर्तन न होना चाहिए। यह मैं स्वीकार करूँगा कि उर्दू गद्य में यह विशेषता सर्वथा सुरक्षित नहीं होती, किन्तु उसका अधिाकांश प्रयोग ही हमारे पक्ष को पुष्ट करता है, क्योंकि किसी उद्देश्य - विशेष से कथंचित् किया गया कोई कार्य्य सर्वसंगत सिध्दान्त के सामने मान्य नहीं हो सकता, चाहे वह गद्य - सम्बन्धाी हो वा पद्य - सम्बन्धाी। कहा जा सकता है कि वर्तमान हिन्दी अथवा उर्दू गद्य का प्रचार हुए अभी एक शतक भी नहीं हुआ, ऐसी अवस्था में उसका आदर्श प्रमाणकोटि में नहीं आ सकता। मैं कहूँगा कि क्यों नहीं आ सकता! किसी आदर्श को लेकर ही तो दोनों गद्यों का आविर्भाव हुआ, फिर आदर्श मान्य क्यों नहीं? खड़ी बोली का नामकरण चाहे जब हुआ हो, किन्तु इस बोली का अस्तित्व नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता। अस्तित्व होने पर ही नामकरण हो सकता है, इसके अतिरिक्त खड़ी बोली की प्राचीन रचनाओं का अभाव नहीं है। 'खुसरो' बहुत प्राचीन कवि हैं, वे कबीर साहब और हमारे समस्त हिन्दी के प्रतिष्ठित आचाय्र्यों के पहले के हैं। उनकी हिन्दी - रचनाओं में सुन्दर खड़ी बोली का आदर्श मिलता है, कुछ प्रमाण लीजिये -

''बात की बात ठठोली की ठठोली।

मरद की गाँठ औरत ने खोली। ''

×    ×    ×

''चार अंगुल का पेड़ सवा मन का पत्ताा।

फल लगे अलग अलग पक जाए इकट्ठा। '

×    ×    ×

''एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।

बिना परों वह उड़ गया बाँधा गले में सूत। '

×    ×    ×

''नई की ढीली पुरानी की तंग।

बूझो तो बूझो नहीं चलो मेरे संग। ''

×    ×    ×

''दानाई से दाँत उस पर लगाता नहीं कोई।

सब उसको भुनाते हैं पर खाता नहीं कोई।

    देखिए, कैसी सुन्दर मुहावरेदार हिन्दी है, फिर कैसे कहें कि वर्तमान खड़ी बोली की हिन्दी अथवा उर्दू - गद्य का कोई आदर्श नहीं। अवश्य आदर्श है; और मेरा विचार है कि मुहावरों के प्रयोग के लिए उक्त दोनों भाषाओं का गद्य ही आदर्श है। उनमें मुहावरों के शब्दों का परिवर्तन नहीं होता, अतएव मैं इसी सिध्दान्त को स्वीकार करने के लिए विवश हूँ कि मुहावरों में शाब्दिक परिवर्तन न होना चाहिए। यदि मुहावरों में स्वतन्त्रा भाव से शाब्दिक परिवर्तन होने लगेगा, तो मुहावरों का विशेषत्व नष्ट हो जावेगा और वह साधाारण वाक्य बन जायेगा।

मुहावरों की उपयोगिता

    श्रीमान् स्मिथ लिखते हैं -

         ¹ ''शब्दों के अतिरिक्त भाषा की सौन्दर्य्यवृध्दि के लिए अन्य बातों की भी अपेक्षा होती है - वे परम आवश्यक हैं - इनको हम मुहावरा कह सकते हैं। ''

    एक दूसरे स्थान पर वे लिखते हैं -

            † ''मुहावरे हमारी बोलचाल के लिए जीवन की चमकती चिनगारी स्वरूप तथा स्फूर्ति हैं। वे भोज्य पदर्थों की उस जीवनप्रदायिनी सामग्री (Vitamins) के समान हैं, जो उनको सुस्वादु तथा लाभप्रद बनाती हैं। मुहावरों से शून्य भाषा या लेखनशैली अमधाुर, शिथिल तथा असुन्दर हो जाती है। ''

         ¹ ''विज्ञानवेत्तााओं, पाठशाला के अधयापकों तथा लकीर के फष्कीर व्याकरणके आचार्यों द्वारा मुहावरों के प्रयोग कम आदर से देखे जाते हैं परन्तु अच्छे लेखक उन्हें प्यार करते हैं। क्योंकि वास्तव में वे भाषा के जीवन एवं आत्माहैं। ''

    ''मुहावरों को कविता की सहोदरा के समान हम मान सकते हैं, क्योंकि कविता के ही समान हमारे भावों को जीवित अनुभावों के रूप में वे प्रकाशित करते हैं। ''

    मौलाना हाजी लिखते हैं -

 

*   ‘‘There is another element of enrichment which is of greater importance.’’

     ‘‘This element is composed of what we call idioms.’’ (Words and Idioms, p. 167).

      † ‘‘Idioms are little sparks of life and energy in our speech; they are like, those substances called vitamins which make our food nourishing and wholesome; diction deprived of idiom soon becomes tasteless, dull, insipid, This is why an infusion of foreign idiom is better than no idiom at all.’’

*   ‘‘Idiom is held in little esteem by men of science, by-schoolmasters, and old-fashioned grammarians, but good writers love it, for it is, in truth, ‘‘the life and spirit of language.’’ It may be regarded as the sister of poetry, for like poetry it retranslates our concepts into living experiences.’’ (Words and Idioms, pp.276—277).

    ''मुहावरा अगर उम्दा तौर से बाँधाा जावे तो बिला शुबहा पस्त शेर को बलंद और बलंद को बलंदतर कर देता है। ''

    ऊपर की पंक्तियों में मुहावरों का जो महत्तव बतलाया गया है, उससे उनकी उपयोगिता प्रकट है। जितने मुहावरे होते हैं, वे प्राय: व्यंजनाप्रधाान होते हैं। हिन्दी शब्दसागर के प्रणेताओं ने भी यह बात मानी है। यह स्वीकृत है कि साधाारण वाक्य से उस वाक्य में विशेषता होती है, और वह अधिाक भावमय समझा जाता है, जिसमें लक्षणा अथवा व्यंजना मिलती हैं। ऐसे वाक्यों में भावुकता विशेष होती है, और अनेक भावों का वह सच्चा दर्पण भी होता है। उसमें थोडे शब्दों में बहुत अधिाक बातें होती हैं, और अनेक दशाओं में वह कितने मानसिक भावों का सूचक होता है। यही कारण है कि आचाय्र्यों ने व्यंजना को काव्य (कवितामय वाक्य - समूह) की आत्मा माना है। 'प्रतापरुद्रीय' ग्रन्थकार लिखते हैं -

'शब्दार्थौ मूर्तिराख्यातौ जीवितं व्यंग्यवैभवम्।

हारादिवदलंकारास्तत्रा स्युरुपमादय:। ''

    काव्य की मूर्ति शब्द और अर्थ हैं। व्यंग्य, जीवन और उपमा आदिक हारादि के समान उसके आभूषण हैं।

    साहित्यदर्पणकार ने व्यंजनों को जो महत्तव दिया है, वह भी साधाारण नहीं। वे लिखते हैं -

''वाच्यातिशायिनि व्यंग्ये धवनिस्तत् काव्यमुत्तामम्''

    जिस व्यंग्य में वाच्य से विशेषता हो वह धवनि है, धवनि - मूलक काव्य उत्ताम समझा जाता है। 'अप्पय दीक्षित' भी उस व्यंजना को धवनि कहते हैं, जिसमें वाच्य से विशेषता होती है। यथा -

''यत्रा वाच्यातिशायि व्यंग्यं स धवनि:''

    यह धवनिमूलक व्यंजना ही अधिाकतर मुहावरों का आधाार होती है, ऐसी अवस्था में उनकी उपयोगिता अप्रकट नहीं। 'प्रतापरुद्रीय' ग्रन्थ के कत्तर्ाा ने अलंकारों पर भी व्यंजना को प्रधाानता दी है। व्यंजना का जिसमें अधिाक विकास हो, उसी काव्य को साहित्य - दर्पणकार ने उत्ताम माना है। फिर व्यंजना - सर्वस्व मुहावरों की उपादेयता समर्थित क्यों न होगी? जब हम कहते हैं, 'तुम बाल की खाल निकालते हो', तो यही नहीं प्रकट करते कि वह असाधय साधान में लगा हुआ है, या ऐसा कार्य्य कर रहा है जो कष्टसाधय है, वरन् इस वाक्य के कहने के साथ, बाल के स्वरूप, उसकी बारीकी, उसकी खाल का अनस्तित्व, उसके उतारने की चेष्टा की निष्प्रयोजनीयता, कार्य्यकत्तर्ाा की असमर्थता, और उसकी अनुचित प्रवृत्तिा आदि सभी की सूचना अत्यन्त गुप्त रीति से हम उसको देते हैं, और इस प्रकार एक छोटे से वाक्य से बहुत बडे वाक्य का कार्य्य लेते हैं। यह उपयोगिता थोड़ी नहीं। जब किसी कार्य्य की दुरूहता से घबड़ाकर कोई कहता है कि इसका करना 'टेढ़ी खीर' है, तो यही नहीं सूचित करता कि मुझसे यह कार्य्य नहीं हो सकता, यदि उसको इतना ही कहना होता, तो सीधो यह वाक्य ही वह कह देता, उसको 'टेढ़ी खीर' न बनाता। जब उसने उसको टेढ़ी खीर बनायी, तो अवश्य उसने इस संकेतवाक्य द्वारा उन सब जटिलताओं को श्रवणकत्तर्ाा के सामने रखा, जिसका सम्बन्धा इस छोटे से वाक्य के साथ है। अनेक ऐसे पुरुष भी इस मुहावरे का प्रयोग करते देखे जाते हैं, जो इस मुहावरे से सम्बन्धा रखनेवाले कथानक को नहीं जानते। परन्तु उनको यह ज्ञात है कि इस मुहावरे का प्रयोग कैसे अवसर पर होता है। उनका यह ज्ञान ही उनके लिए पर्याप्त होता है और वही उनके समस्त मानसिक भावों को श्रोता पर प्रकट कर देता है। सबकी आत्मा किसी कार्य्य में अपनी असमर्थता प्रकट करने में संकुचित होती है, सभी यह चाहते हैं कि यदि असमर्थता प्रकट ही करनी पडे, तो इस प्रकार प्रकट की जावे, जिसमें कलंक बहुत कुछ अस्पष्ट हो। इसलिए वह ऐसा ही वाक्य कहना चाहता है, जो उसके भाव को प्रकट भी कर दे और कलंक से उसका बहुत कुछ सुरक्षित भी रखे। 'टेढ़ी खीर', वाक्य किसी कार्य्य में असफलता - प्राप्त पुरुष के लिए ऐसा ही है। वह उसके मनोभाव को प्रकट भी कर देता है, और उसके लांछन पर उस कार्य्य की दुरूहता का परदा भी डाल देता है। मुहावरों की उपादेयता इसी प्रकार की है, वे अनेक मानसिक भावों को थोडे में प्रकट कर देने के साधान, और प्राय: आन्तरिक अनेक उलझनों के निराकरण के हेतु होते हैं। मिस्टर स्मिथ एक स्थान पर इस विषय में अपने विचार इस रूप में प्रकट करते हैं -

         ¹ ''वे मनोभाव जो विचार - नियम के विद्रोही हैं, जो कल्पना के बदले प्रतिकृति को, व्याकरण के बदले शब्द - रचना की स्निग्धाता को और तर्क के बदले स्फूर्ति को उत्ताम समझते हैं, यद्यपि तर्क की कसौटी पर नहीं कसे जा सकते

 

*   ‘‘This element of thought which is rebellious to the laws of thought, which prefers images to abstraction, energy to logic, terseness to grammar—it is precisely this illogical but living sense of things which looks out at us through the idiomatic loopholes in national language. (Words and Idioms, p. 276)

    तो भी वे वस्तुओं का वह सजीव परिज्ञान हैं, जो यथार्थ भाषा के मुहावरा रूपी झरोखों से झलक जाते हैं। ''

    हिन्दी - संसार मुहावरो की उपयोगिता से अनभिज्ञ नहीं, वह चिरकाल से उनका प्रयोग करता आता है। प्राचीन कवियों और आधाुनिक अनेक गद्य - लेखकों द्वारा भी वह आदृत है। किन्तु खड़ी बोली के कवियों की यथोचित दृष्टि अभी मुहावरों के प्रयोग पर नहीं पड़ी है, मुझे विश्वास है, यह उपेक्षा बहुत दिन न रहेगी। यदि खड़ी बोली की कविता को मधाुर बनाना हमें इष्ट है; यदि कर्कश शब्दावली से उसको बचाना है, यदि बोलचाल के रंग में उसे रँगना है, यदि उसको प्रसादमयी, सम्पन्न, एवं हृदयहारिणी बनाने की इच्छा है, तो हमको मुहावरों का आदर करना होगा और उनके उचित प्रयोग से उसकी शोभा बढ़ानी होगी। साथ ही रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल का भी पूर्ण धयान रखना होगा। मुहावरों के उपेक्षित होने पर भाषा में उतना विप्लव नहीं होता, जितना उस समय होता, जब बोलचाल का प्रयोग करने में असावधाानी की जाती है। मुहावरों का अशुध्द प्रयोग भाषा को सदोष बनाता है, किन्तु रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल का अयथार्थ व्यवहार उसके मूल पर ही कुठाराघात करता है। वह भाषा का जीवन है, उसके नाश से भाषा स्वयं नष्ट हो जाती है। बोलचाल का ठीक - ठीक प्रयोग न होना वाक्य को दुर्बोधा भी बनाता है।

    आजकल प्राय: यह चर्चा सुनी जाती है कि खड़ी बोली हिन्दी कविता, उर्दू भाषा जैसी सुन्दर और हृदयग्राहिणी नहीं होती। इस कथन में बहुत कुछ सत्यता है, कारण यह है, बोलचाल अथवा रोजश्मर्रा और मुहावरों पर जितना उर्दू कवियों का अधिाकार है, जिस सुन्दरता से वे इनका प्रयोग अपनी कविताओं में करते हैं, खड़ी बोली के कवियों को, न वह अधिाकार ही प्राप्त है, न वह योग्यता ही। उनकी दृष्टि भी जैसी चाहिए वैसी इधार नहीं, इसलिए उन्हें उर्दू कवियों जैसी सफलता भी नहीं मिलती। नीचे के उर्दू पद्यों को देखिए, इनको रोजश्मर्रा और मुहावरों ने कितना हृदयग्राही और सुन्दर बना दिया है - इनमें कैसा प्रवाह है और कितनी सरसता!

    अनीस -         ''मिला जिन्हें उन्हें उफतादगी से औज मिला।

          उन्होंने खाई है ठोकर जो सर उठाके चले।

          अनीस दम का भरोसा नहीं ठहर जाओ।

          चिराग़ लेके कहाँ सामने हवा के चले। ''

                             ×                        ×                       ×

    दबीर -          ''याँ शोर, वहाँ गुल, इधार आई, उधार आई।

          वह चमकी, वह तड़पी, वह छुपी, वह नजर आई।

          वह तेग गयी खोद में वह सर में दर आई।

          गर्दन से बढ़ी सीना लिया ता कमर आई।

          सिन उसका घटा था जो दिलेराना बढ़ा था।

          मुँह की वही खाता था जो मुँह उसके चढ़ा था। ''

                             ×                        ×                       ×

    नसीम -         ''जाँ निकल जावेगी तन से ऐ नसीम।

          गुल को बूए गुल हवा बतलाएगी। ''

                             ×                        ×                       ×

    सबा - ''उठ गये हैं नसीम जिस दिन से।

          ऐ सबा वह हवाय बागश् नहीं। ''

                             ×                        ×                       ×

    अमीर -         ''लाश पर इबरत यह कहती है अमीर।

          आए थे दुनिया में इस दिन के लिए। ''

                             ×                        ×                       ×

    हसन -          ''चल दिल उसकी गली में रो आवें।

          कुछ तो दिल का गुबार धाो आवें।

          गो अभी आये हैं यह है जी में।

          फिर भी टुक उसके पास हो आवें।

          गो ख़फष सब हुआ करें पर हम।

          एक जश्रा उसको देख तो आवें। ''

                             ×                        ×                       ×

    दाग़ - ''तुमने हमसे बदले गिन गिन के लिए।

          हमने क्या चाहा था इस दिन के लिए।

          फैसला हो आज मेरा आप का।

          यह उठा रक्खा है किस दिन के लिए। ''

    मुहावरा के विषय में मौलाना हाली की सम्मति ऊपर उठा चुका हूँ, रोजश्मर्रा के विषय में वे क्या कहते हैं, वह भी सुनिए -

    ''नज्म हो या नसर (पद्य हो या गद्य) दोनों में रोजश्मर्रा की पाबन्दी जहाँ तक मुमकिन हो निहायत ज़रूरी है''

    ''मुहावरा को शेर में ऐसा समझना चाहिए, जैसे कोई ख़ूबसूरत अजशे (सुन्दर अंग) बदन इन्सान (मनुष्य - शरीर) में। और रोजश्मर्रा को ऐसा जानना चाहिए जैसे तनासुब आजा (अवयव - संगठन) बदन इन्सान (मनुष्य - शरीर) में। जैसे बगैर तनासुब आजा के किसी ख़ास (मुख्य) अजशे (अवयव) की ख़ूबसूरती (सुन्दरता) से हुस्न बशरी (मानस - सौन्दर्य्य) कामिल (पूर्ण) नहीं समझा जाता, उसी तरह बगैर रोजश्मर्रा की पाबन्दी के महजश् (केवल) मुहावरों के जा बेजा रख देने से शेर में कुछ खूबी (उत्तामता) पैदा नहीं हो सकती। '' - मुकद्दमा शेर व शायरी, पृष्ठ - 144

    मीर अनीस उर्दू के प्रतिष्ठा - प्राप्त शायरों में हैं। मरसिया कहने में वे अपने समय के अद्वितीय थे। आज तक उनके जैसा करुणरस का आचार्य्य उर्दू संसार में उत्पन्न नहीं हुआ। जिस समय वे अपनी कविता पढ़ते, जनता पर जादू - सा करते। मौलाना शिबली ने 'मवाजिना अनीस व दबीर' नाम की एक पुस्तक लिखी है, इसमें उन्होंने प्रधाानता का सेहरा अनीस के सर पर ही बाँधाा है। क्यों? इसलिए कि उनकी भाषा में रोजश्मर्रा और मुहावरों की ही अधिाकता होती थी। वे लिखतेहैं -

    ''जो अलफाज (शब्द - समूह) और जो ख़ास तरकीबें (मुख्य प्रयोग) अह्लजश्बान (भाषा - भाषियों) की बोलचाल में जिश्यादा मुस्तमल (व्यवहृत) और मुतदावल (गृहीत) होती हैं, उनको रोजश्मर्रा कहते हैं। रोजश्मर्रा अगर्चे एक जुदाग ना वस्फ (भिन्न गुण) समझा जाता है। लेकिन दरहकीकत (वास्तव में) वह फसाहत (प्रसादगुण) ही का एक फर्द खास (अंग विशेष) है। यह जाहिर है कि आम बोलचाल में वही लफ्ज (शब्द) जबान पर आवेंगे जो सदा साफ और सहल हाें। और अगर उनमें कुछ सक्ल (क्लिष्टता) और गिरानी (गहनता) भी हो तो रात - दिन की बोलचाल और कसरत इस्तेमाल (अधिाक व्यवहार) से वह मँज कर साफ हो गये हों। ''

    ''रोजश्मर्रा के लिए फसीह (प्रसादगुण - सम्पन्न) होना लाजिम (आवश्यक) है। मीर अनीस के कलाम में निहायत कसरत (बहुत अधिाकता) से रोजश्मर्रा और मुहावरा का इस्तेमाल (व्यवहार) पाया जाता है, इस पर उनको नाजश् (गर्व) भी था। '' - मवाजिश्ना अनीस व दबीर, पृष्ठ - 31

    अनीस के अतिरिक्त अमीर, दागश् आदि उर्दू भाषा के जो अत्यन्त प्रसिध्द और मान्य कवि हैं, उन सबकी रचनाओं में भी रोजश्मर्रा और मुहावरों की अधिाकता पायी जाती है। मीरहसन का 'सेहरुल्बयान' और नसीम का 'गुलजार नसीम' ऐसी मसनवियाँ हैं, जो उर्दू में अपना जोड़ नहीं रखतीं। जिसने इनको एक बार पढ़ा है, वह उनकी शतमुख से प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। कहा जा सकता है, इसका भेद क्या है? दूसरा कोई भेद नहीं, यही भेद है कि उनमें मुहावरों और रोज़मर्रा की वह बहार है, जो देखने से काम रखती है। प्रमाण भी लीजिये -

    मीरहसन साहब लिखते हैं -

''वह जोगिन भी सौ सौ तरह कर अदा।

हरेक तान में उसको लेती लुभा।

कभी तीखी चितवन से घायल किया।

कभी मीठी बातों से मायल किया।

कभी तिरछी नज़रों से मारा उसे।

कभी सीधो दिल से पुकारा उसे।

वह हरचन्द ऑंखें दिखाती रही।

पर नज़रों से दिल को लुभाती रही। ''

 - सेहरुल्बयान

    कुछ नसीम के पद्यों को भी देखिए -

''इनसाँ व परी का सामना क्या। मुट्ठी में हवा का थामना क्या।

रातों को जो गिनती थी सितारे। दिन गिनने लगी खुशी के मारे।

करती थी जो भूक प्यास बस में। ऑंसू पीती थी खा के कष्समें।

जामा से जो ज़िन्दगी के थी तंग। कपड़ों के एवज़ बदलती थी रंग। ''

 - गुलजशर नसीम

    रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल की भाषा में क्या महत्तव है, उर्दू के कविगण उसका कितना सूक्ष्म विचार करते हैं, और उसके विषय में कितने सावधाान रहते हैं, कुछ उसके उदाहरण भी देखिए। रोजश्मर्रा की पाबन्दी का प्रतिपादन करते हुए एक स्थान पर मौलाना हाली लिखते हैं -

    ''आज तक उनसे मिलने का मौका न मिला''; यहाँ 'न मिला' की जगह 'नहीं मिला' चाहिए। ''खाबिन्द के मरने से दरगोर हुई''; यहाँ 'जिन्दा दरगोर हो गई' चाहिए। ''सो गये जब बख्त तब बेदार ऑंखें हो गईं''; 'हो गईं' की जगह 'हुईं' चाहिए। ''देखते ही देखते यह क्या हुआ''; यहाँ 'क्या हो गया' चाहिए। - मुकद्दमा शेर व शायरी, पृष्ठ - 143

    मौलाना आज़ाद ने 'आबेहयात' नामक पुस्तक के 478 पृष्ठ में एक छेड़छाड़ की चर्चा यों की है -

    एक दफा शेख़ मरहूम (शेख़ इबराहीम - जशैक) ने मशायरा में एक ग़ज़ल पढ़ी, मतला यह था -

''नरगिस के फूल भेजे हैं बटवे में डाल कर।

ईमाँ यह है कि भेज दो ऑंखें निकाल कर। ''

    शाह साहब (शाह नसीर) ने कहा कि मियाँ इबराहीम! फूल बटवे में नहीं होते - यह कहो -

    'नरगिस के फूल भेजे हैं दोने में डाल कर। '

    उन्होंने कहा, दोने में रखना होता है, डालना नहीं होता; यों कहूँगा -

    'बादाम दो जो भेजे हैं बटवे में डाल कर। '

    रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल की इस सूक्ष्मता और गहनता की ओर हिन्दी भाषा के इने - गिने सुलेखकों और सुकवियों की ही दृष्टि है, अधिाकांश इस विषय में निरपेक्ष अथवा असावधाान हैं। वांछनीय यह है कि यदि अपनी भाषा को सम्मानित, सुशृंखलित और सम्पन्न बनाना है, यदि उसको राष्ट्र भाषा के प्रतिष्ठित पद पर बैठालना है, तो इस विषय में हम उर्दूवालों से पीछे न रहें।

    इन दिनों दो प्रकृति बड़ी ही प्रबल हैं - पहली यह कि अपने वाक्य - विन्यास पर भरोसा रखना और उसी को साहित्य - सर्वस्व समझना। दूसरी यह कि नये मुहावरों का आविष्कार करना अथवा ऍंगरेजी मुहावरों का अधिाक अनुवाद रख देना, और ऐसा करते समय अपनी भाषा की संस्कृति और सरणि का धयान बिल्कुल न रखना। किन्तु यह दोनों प्रकृति प्रशंसनीय नहीं। अपनी भाषा पर भरोसा रखना, बुरा नहीं; सब कवियों में यह विशेषता होती है, परन्तु रोजश्मर्रा का त्याग भी उचित नहीं, क्योंकि वही किसी कवि के वाक्यों को विशेष प्रसाद - गुण - सम्पन्न कर सकता है। रोजश्मर्रा का सहारा न लेने से प्राय: वाक्य जटिल हो जाता है, जो दुरूहता का कारण होता है। कवि का निज रचित वाक्य सुन्दर हो सकता है, किन्तु यदि उसमें रोजश्मर्रा का पुट नहीं है, तो यह भी हो सकता है कि वह यथार्थ बोधागम्य न हो। इसके अतिरिक्त यदि कहीं उसने रोजश्मर्रा की टाँग तोड़ी, तब तो चन्द्रमा के समान वह उस कलंक से कलंकित हो जाता है, जिसपर प्राय: लोगों की दृष्टि पड़ती है। मुहावरों के विषय में भी ऐसी ही बात कही जा सकती है। मुहावरे भाषा के शृंगार हैं, सुविधाा एवं सौन्दर्य्य - सृष्टि अथवा भावविकास के लिए उनका सृजन हुआ है। उनकी उपेक्षा उचित नहीं। वे उस आधाारस्तम्भ के समान हैं, जिनके अवलम्ब से अनेक सुविचार - मन्दिर का निर्माण सुगमता से हो सकता है। भाव - साम्राज्य में उनके विशेष अधिाकार हैं, उनको छोड़ हम अनेक उचित स्वत्वों से वंचित हो सकते हैं। कहा जाता है उनके प्रयोग भी कभी - कभी भाव को जटिल बना देते हैं, और वाक्य को भी बोधागम्य नहीं रखते। यदि यह सत्य है, तो नये मुहावरों की सृष्टि क्यों की जाती है, उनमें तो ये दोष और अधिाक हो सकते हैं। सच्ची बात यह है कि संसार में निर्दोष कौन पदार्थं है, साधारण दोषों के कारण महान् गुणों का त्याग नहीं हो सकता। कभी - कभी अवश्य मुहावरों के समझने में उलझन होती है, और उस समय यथातथ्य भाव - विकास भी नहीं होता। किन्तु ऐसा विशेष कर वहीं होता है, जहाँ मुहावरों का समुचित व्यवहार नहीं होता, अथवा जहाँ किसी की अनभिज्ञता उसका अर्थ समझने में समर्थ नहीं होती। इसलिए ऐसी बातें मुहावरों की उपयोगिता के विरुध्द प्रमाणकोटि में ग्रहण नहीं की जा सकतीं। अठारहवीं सदी में इंग्लैण्ड में इसी प्रकार के कई एक दोष मुहावरों पर लगाकर कुछ विद्वानों ने उनके बहिष्कार का आन्दोलन आरम्भ किया था, किन्तु यह आन्दोलन विफल हुआ, और मुहावरों की उपयोगिता ने उसको पूर्ववत् अपने प्रतिष्ठित सिंहासन पर समासीन रखा। मिस्टर स्मिथ लिखते हैं -

         ¹ ''अठारहवीं शताब्दी की रुचि ने मुहावरों को, गँवारू तथा नियमविरुध्द बतलाकर बुरा कहा है। यहाँ तक कि एडिसन ने भी गद्य में मुहावरों को स्थान देते हुए, कवियों को इसके प्रयोग करने में सावधाान किया है। डॉक्टर जानसन ने अपने कोष में मुहावरों को व्याकरण के नियमों के विरुध्द, तथा दूषित आदि विशेषणों से कलंकित कर, ऍंगरेजश्ी भाषा से उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया। ''

            † ''यद्यपि यह आक्षेप अब पुराना हो गया है, और हम लोग लाण्डर के इस विचार से सहमत हैं कि ''प्रत्येक अच्छा लेखक मुहावरों का अधिाक प्रयोग करता है, और मुहावरे भाषा के जीवन तथा आत्मा हैं, तथापि अठारहवीं शताब्दी के विचार का कुछ असर अभी तक विद्यमान है। यद्यपि हम लोग विपक्षियों के दिए हुए कारणाें का विश्वास अब नहीं करते''

 † ‘‘The taste of the eighteenth century on the whole condemned it, regarding idiomatic phrases as vulgarisms, and as offences against logic and human reason. Even Addison while employing idioms in his prose, warned poets against their use, and Dr. Johnson more ambitiously attempted to banish them from our language, often stigmatizing them as ‘‘low’’ and ‘‘ungrammatical’’ in his Dictionary’’.

*   ‘‘Although this point of view is now an obsolute one, and we should all probably agree with Landor’s saying that ‘‘every good writer has much idiom, it is the life and spirit of language", even when they have been shown to be devoid of valid ground and reason; still often leave behind a slight stigma of disapprobation’’. (Words and Idioms, p. 264)

    कुछ दिनों से एक और प्रवृत्तिा भी प्रबलभूत है, लोग अपनी अज्ञता अथवा अनभिज्ञता को स्वीकार करना पसन्द नहीं करते। उनकी कल्पित आत्ममर्यादा उनको ऐसा करने के लिए विवश करती है। अपनी असमर्थता स्वीकार करने के स्थान पर उनको 'अंगूर को खट्टा' कहना ही प्रिय है। यदि किसी विषय में उनको क्षमता नहीं है, अथवा साहित्य के किसी अंग पर वे अधिाकार नहीं रखते, तो वे उसी को कलंकित और दूषित बनाने की चेष्टा करेंगे, उसीको अव्यवहार्य्य और अप्रयोज्य बतलावेंगे, अपनी त्राुटि पर दृष्टिपात न करेंगे। यदि छन्दोज्ञान ठीक - ठीक नहीं, तो कहेंगे वर्ण और मात्रााओं की नियमबध्दता अग्राह्य है, स्वतन्त्रा विचार के लोग उन्मुक्त पथ को ही उत्ताम समझते हैं। पिंगल अथवा साहित्य के नियमों की अनुगामिता को वे दुर्बलता का चिद्द मानते हैं, उनकी स्वयं स्वीकृत सबल आत्माएँ उनका तिरस्कार करती हैं, और निज निर्माण किए हुए स्वतन्त्रा पथ पर स्वच्छन्द विचर कर ही आनन्द लाभ करती हैं। सब नवीन विचार वाले ही ऐसा कहा करते, नियमबध्दता से घबड़ाते, और उसका प्रतिपालन नहीं करना चाहते, यह बात नहीं कहीं जा सकती। उनमें भी विवेकशील और विचारमान सज्जन एवं सुकवि हैं, जो साहित्य नियमों का पूरा धयान रखते और सफलता के साथ भगवती वीणापाण्0श्निा की सेवा करते हैं। किन्तु आजकल व्यापकता इसी प्रकार के विचारों की देखी जाती है। ऐसी अवस्था में मुहावरों और रोजश्मर्रा पर वक्र दृष्टि होना स्वाभाविक है। किन्तु मैं इसको शुभ लक्षण नहीं मानता, इससे साहित्य का प्रसाद - गुण्ा नष्ट हो रहा है। और उसका सुन्दर और सज्जित मार्ग, कंटकाकीर्ण और असुन्दर बनता जाता है।

    प्राय: यह तर्क किया जाता है कि क्या रोजश्मर्रा अथवा बोलचाल के शब्द परिमित होते हैं? क्या उनमें वृध्दि नहीं होती? क्या नवीन मुहावरे नहीं बनते? यदि बनते हैं, तो इस प्रकार का तर्क कहाँ तक उचित है? उत्तार यह है कि बोलचाल के शब्द परिमित नहीं होते, उनकी वृध्दि होती रहती है, किन्तु उनके वर्ध्दन का अधिाकार सर्वसाधाारण को प्राप्त है, किसी कवि अथवा ग्रन्थकार को नहीं। जो कवि बोलचाल का अनुसरण करना चाहते हैं, वे जनता के वाग्विलास पर दृष्टि रखते हैं, उसी से प्रचलित भाषा की शिक्षा पाते हैं। जनता की भाषा कवि की कविता की अनुगामिनी नहीं होती। कवि स्वतंत्रा भाषा का प्रयोग कर सकता है और अपनी रचना को मनोभिलषित शब्दमाला से सजा सकता है। किन्तु उसकी भाषा जितनी ही बोलचाल से दूर होगी, उतनी ही उसकी रचना दुर्बोधा और जटिल हो जाएगी, और उतनी ही उसकी लोकप्रियता में न्यूनता होगी। कविता का उद्देश्य मनोविनोद ही नहीं है, समाज - उत्थान, देश - सेवा, लोकशिक्षण, परोपकार और सदाचार - शिक्षा आदि भी है। जिस कविता में प्रसाद - गुण नहीं, उससे ठीक - ठीक मनोविनोद भी नहीं हो सकता, इसलिए यथार्थ कविता वही है, जो अधिाकतर सरल और बोधागम्य हो और ऐसी कविता तभी होगी, जब उसमें बोलचाल का रंग होगा। जो 'स्वान्त: सुखाय' का राग गाते हैं, उनसे मुझको इतना ही कहना है कि इस विचार में घोर स्वार्थपरता की बू आती है। किसी के विशेष विचार पर किसी को अधिाकार नहीं, किन्तु कविता के उद्देश्यों पर दृष्टि रखकर ही कोई मीमांसा की जा सकती है। उक्त बातों के औचित्य का धयान करके मेरा विचार है कि कविता की भाषा को रोजश्मर्रा का त्याग न करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर हम कुछ स्वतन्त्राता ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु बोलचाल की भाषा से बहुत दूर पड़ जाना, अथवा उसका अधिाकांश त्याग समुचित नहीं।

    मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि नये मुहावरे बनते हैं, और एक भाषा से अनुदित होकर दूसरी भाषा में भी आते हैं। इस विषय में पहले मैं बहुत कुछ लिख आया हूँ। यहाँ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं। तथापि इतना निवेदन करूँगा कि नियमित बातें ही ग्राह्य होती हैं और उचित आविष्कार ही यथाकाल आदृत होते हैं। सबके स्वत्व समान नहीं होते, योग्यता भी सबकी एक - सी नहीं होती, सब आविष्कारक नहीं होते, और न सभी के शिर पर महत्ताा की पगड़ी बाँधाी जाती है। सब काय्र्यों में अधिाकारी भेद होता है, और जिस विषय में जिसका पूर्ण अधिाकार स्वीकृत होता है, उस विषय में उसी की प्रणाली स्वीकृत और गृहीत होती है।

    श्रीमान् स्मिथ कहते हैं -

         ¹ 'नवीन शब्दों का आविष्कार कठिन नहीं, कविता में एक ऐसी पंक्ति का लिख देना, जो सर्वसाधाारण में प्रचलित हो जावे दुष्कर नहीं। परन्तु भाषा में एक नये मुहावरे की उत्पत्तिा के लिए कुछ वैसी ही शक्ति आवश्यक जान पड़ती है, जो या तो शेक्सपियर में मिलती है, अथवा बहुत से ऐसे अनपढ़ नर - नारियों में जिनके नाम सर्वदा अज्ञात की गोद में रहेंगे। ''

 

*   ‘‘It is possible to invent a new word, it is possible to write a line of poetry which will go to increase the stock of English quotations, but to add a new idiom to the language seems almost to require powers such as were only possessed by Shakespeare, and by thousands of illiterate men and women whose names will never be known’’. (Words and idioms, p. 231).

    यह लिख कर कि -

         ¹ ''बाइबिल के बाद शेक्सपियर की नाटकावली ऍंगरेजश्ी भाषा के मुहावरों की सबसे बड़ी जन्मस्थली है''

    ''यह विशेषकर शेक्सपियर का ही गौरव है कि उसके शब्द तथा प्रयोग हमारी बोलचाल की भाषा में मिलकर एक हो गये है। ''

    श्रीमान् स्मिथ यह भी लिखते हैं -

            † ''जितने मुहावरे तथा उक्तियाँ शेक्सपियर की लेखनी से निकली हैं, वे सब उसके आविष्कृत किए नहीं हैं। उसके नाटक नित्य की बोलचाल की भाषा से भरे हैं। ‘‘Out of joint’’ शब्द का प्रयोग शेक्सपियर ने 'हैमलेट' नामक नाटक में किया है, परन्तु शेक्सपियर के तीन सौ वर्ष पूर्व की पुस्तक में भी उसका पता लगता है। ''

    इन वाक्याें से क्या पाया जाता है, यही न कि शेक्सपियर जैसे महाकवि और क्षमताशाली लेखक द्वारा जो मुहावरे आविष्कृत माने जाते हैं, उनके विषय में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे सबके सब उन्हीं के आविष्कार हैं, क्योंकि उनमें से कितनों का पता उनसे सैकड़ों वर्ष की पूर्व की पुस्तकों में मिलता है। इससे यही सिध्द होता है, कि मान्य विद्वानों के नाम से जो मुहावरे प्रसिध्द हो जाते हैं, उनमें से भी कितनों का आधाार बोलचाल होती है, और खोजने पर उनमें से कितनों का पता पूर्व के ग्रन्थों में भी चलता है। मुहावरों का विषय ऐसा ही जटिल है, उनका निर्माण आसान नहीं, मन: - कल्पित विचित्रा वाक्य आग्रहपूर्वक मुहावरे नहीं बनाए जा सकते, बोलचाल के आधाार से ही मुहावरे गढ़े जा सकते हैं, और वे ही मुहावरों का आविष्कार कर सकते हैं, जो शेक्सपियर जैसे सर्वमान्य विद्वान हों, सबका यह काम नहीं। उर्दू में भी कुछ उस्तादों ने मनमाने मुहावरे गढ़े, पर उपयुक्त न होने के कारण थोडे ही दिनों में वे लोप हो गए, उनका प्रचार न हो सका। मौलाना आज़ाद अपने आबेहयात नामक ग्रन्थ के 45 पृष्ठ में लिखते हैं -

 

*   ‘‘After the Bible, Shakespeare's plays are, as we might expect, the rechest leterty source of English idioms’’. (Words and idioms, p. 227)

     ‘‘They have as Dr. Bradley puts it, "entered into the texture of the diction to the literature and daily conversation’’.

 † ‘‘While, however, these expessions are familiar to us from Shakespeare's writings, it by no means follows that they are all of his invention; his plays are full of tags from popular speech; the idiom "out of joint", has been found three hundred before the date of Hamlet’’ (Words and idioms, p. 229).

    ''बाजश् फषरसी के मुहावरे या उनके तरजुमे ऐसे थे कि मीर व मिरजश वगैरह उस्तादों ने उन्हें लिये मगर मुतआखिरीन ने छोड़ दिए। ''

    ये मुहावरे मन:कल्पित नहीं थे। एक सम्पन्न भाषा उनका आधाार थी, फिर भी वे प्रचलित न हो सके। जिनका आधाार केवल मन:कल्पना है, उनकी बात ही क्या! फषरसी का एक मुहावरा है -

    'बू करदन', इसका अर्थ है सूँघना। सौदा लिखते हैं -

''देखूँ न कभी गुल को तेरे मुँह के मैं होते।

संबुल के सिवा जुल्फष् तेरी बू न करूँ मैं। '

    मीरसाहब कुछ आगे बढ़ते हैं और यों लिखते हैं -

''गुलको महबूब हम कयास किया।

फर्ष्कष् निकला बहुत जो बास किया। ''

    पहले पद्य में 'बू करना' और दूसरे पद्य में 'बास किया' सूँघने के अर्थ में लिखा गया है। आप देखें ये प्रयोग कितने भ्रामक हैं। यही कारण है कि एक विशेष भाषा का सहारा पाने पर भी इनका प्रचार नहीं हुआ। यही बात उन मुहावरों के विषय में भी कही जा सकती है, जो मन:कल्पित होते हैं, अथवा जो वाक्यरचना का बल अथवा अपना शब्दवैभव प्रकट करने के लिए बिना उचित आधाार के गढे ज़ाते हैं। जिन गढ़े मुहावरों का अवलंब कोई अत्यन्त प्रचलित अथवा शासक की भाषा होती है, और जो बोलचाल की भाषा से अधिाकतर मिलते - जुलते और उसकी प्रकृति के अनुकूल होते हैं, वे ही मुहावरे काल पाकर प्रचलित हो जाते हैं। जिन मुहावरों में ये बातें नहीं होतीं, वे क्षणस्थायी होते हैं, और बुलबुलों के समान बनते - बिगड़ते रहते हैं। वरन् एक भ्रान्त लेखक के उपेक्षित लेख के ही सम्बल होते हैं, कवि - सम्प्रदाय अथवा सर्वसाधाारण की दृष्टि उधार जाती ही नहीं। उर्दू में सैकड़ों मुहावरे ऐसे पाए जाते हैं, जो नवीन हैं, और आवश्यकतानुसार अथवा किसी विशेष उद्देश्य से गढे ग़ये हैं; किन्तु वे गृहीत हैं और उनका चलन हो गया है। कारण इसका यह है कि उनका आधाार वह फषरसी भाषा है, जो उस समय के शासकों की आदृत भाषा थी। दूसरी बात यह कि उसका स्वरूप उस समय की बोलचाल की भाषा के ढाँचे में ढला हुआ है। अनेक में केवल हिन्दी शब्दों का शाब्दिक परिवर्तन मात्रा है, ऐसी अवस्था में उनका प्रचार हो जाना स्वाभाविक था, विशेषकर इसलिए कि उनके आविष्कार और प्रचार में उस समय के बावदूक विद्वानों और कविसम्प्रदाय के प्रतिष्ठित और मान्य आचार्यों का विशेष हाथ था। हवा बाँधाना, हवा बतलाना, गुल खिलाना, जान से गुजश्रना, दिल धाड़कना, आदि ऐसे ही मुहावरे हैं। इस समय के नवीन मुहावरों का आविष्कृत होकर प्रचलित हो जाना अस्वाभाविक नहीं, किन्तु उनमें आवश्यक नियमबध्दता अपेक्षित है। ऍंगरेजश्ी भाषा वर्तमान शासकों की भाषा है, उसके कुछ मुहावरों का हिन्दी अथवा उर्दू में प्रचलित हो जाना विचित्रा नहीं, किन्तु उसकी हिन्दी प्रकृति होनी चाहिए। सर्वसाधाारण में प्रचलित हुए बिना ही, कविसम्प्रदाय अथवा लेखक - मण्डल में ही इस प्रकार के कुछ मुहावरों का प्रचार हो सकता है, यदि उसमें सभी अपेक्षित बातें मौजूद हों। आजकल हिन्दी और उर्दू दोनों में कई एक ऍंगरेजश्ी मुहावरे अनुदित होकर प्रचलित हैं; उनमें एक 'सफष्ेद झूठ' भी है। ऍंगरेजश्ी के 'ह्नाइट लाई' (White lie) मुहावरे का यह अनुवाद है। हिन्दी अथवा उर्दू में जिस अर्थ में 'बिल्कुल झूठ' का प्रयोग होता है, उसी अर्थ में आजकल इस मुहावरे का प्रचलन है। मेरा तो विचार यह है कि 'बिलकुल झूठ' वाक्य के मौजूद होते, 'सफष्ेद झूठ' के व्यवहार की आवश्यकता नहीं, किन्तु समय - प्रवाह को कौन रोके, सभी विजित जाति जेता का पदानुसरण अनेक बातों में करती हैं, हम लोग इस छूत से कैसे बचते! काल नवीनता - प्रिय होता है, बहुत से भावुक नये भावों के भूखे होते हैं, नई बातें सामने लाकर कितने महत्तवाकांक्षी महत्तव - लाभ के लिए भी लालायित रहते हैं, ऐसी दशा में इस प्रकार का प्रवाह रोका नहीं जा सकता। 'सफष्ेद झूठ' का व्यवहार ऐसे ही विचारों का परिणाम है। इस प्रकार के शब्द अथवा वाक्य जब पहले - पहल किसी बोलचाल की भाषा में आते हैं, तो उनके अर्थबोधा में व्याघात होता है, किन्तु इस संकट का निवारण वे ही लोग करते हैं, जो एक प्रकार से उसके आविष्कारक अथवा प्रचारक होते हैं। उनका मूल भाषा का ज्ञान ही उसकी दुर्बोधाता को दूर करता है, फिर धाीरे - धाीरे वह शब्द अथवा वाक्य अन्यों का भी परिचित हो जाता है, और इस प्रकार एक नवीन मुहावरे के प्रचार का सूत्रापात होता है। 'सफष्ेद झूठ' का प्रचार पहले कुछ ऍंगरेजश्ी के विद्वानों में पीछे क्रमश: कुछ लोगों से मिलने - जुलनेवालों में, बाद को जनता में हुआ, अब हिन्दी और उर्दू की लिखित भाषा में भी उसका व्यवहार होने लगा है। इस प्रकार के व्यवहार का कोई विरोधा नहीं, यह स्वाभाविक है। कवि - सम्प्रदाय के कुछ मुहावरे निज के होते हैं, उनका व्यवहार उनके सम्प्रदाय तक परिमित होता है। उर्दू मेंं 'फष्लक को खबर होना', 'हरफ आना', 'पैमाना पुर करना', आदि ऐसे ही मुहावरे हैं। ऐसे मुहावरे सर्वमान्य नहीं होते, फिर भी उतने निन्दनीय नहीं, क्योंकि एक विशेष सीमा में उनका प्रचार रहता है। निन्दनीय तो वे गढे वाक्य हैं, जिनकी सृष्टि निराधाार अनर्गल शब्द - योजना द्वारा होती है और उनको मुहावरा नाम इसलिए दिया जाता है कि जिसमें उसके अयोग्य और भ्रान्त उद्भावक महाकवि कालिदास और माघ एवं ब्राउनिंग अथच शेक्सपियर के उच्च सिंहासन पर विराजमान हो सके। यह वामन होकर चाँद छूने का साहस है। ऐसी अनधिाकार चेष्टा सदा हास्यास्पद होती है और आदर की दृष्टि से नहीं देखी जाती।

    मैं अधयवसाय का विरोधाी नहीं हूँ और न उद्योगशीलता का शत्राु। मैं उस जाति की पदधाूलि अपने शिर पर वहन करता हूँ, जो चिन्ताशीलता का परिचय देती है। मैं उन सहृदय और मननशील विवुधाों की नतमस्तक होकर वन्दना करता हूँ जो अपनी भाषा में संजीवनी शक्ति का संचार करने और उसको नित्य नूतन अलंकारों से अलंकृत बनाने के लिए उत्सुक हैं। मैं नव नव भावोन्मेष को भाषा का जीवन, और अभिनव आविष्कारों को भावुकता - युवती का शृंगार समझता हूँ। प्राचीनता और नवीनता दोनों के लिए स्थान है, और यथास्थान दोनों अभिनन्दनीय हैं। कविता - कामिनी को सुसज्जित देख कौन - सा हृदय प्रफुल्लित न होगा, किसकी धामनी में आनन्दधाारा का प्रवाह न होगा। प्रतिभा का विकास किसको विकसित नहीं बनाता, और सहृदयता किसको विमुग्धा नहीं करती। आज का अल्पज्ञ कल विशेषज्ञ हो सकता है। किसी समय जो कवि - कर्म्म आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता, कालान्तर में उसी पर सम्मान - पुष्पवृष्टि होती दिखलाई पड़ती है। जो उद्भावना कभी लांछित और अपमानित होती देखी गयी, कुछ दिनों बाद उसी के सामने बडे - बड़े विरोधिायों को नतमस्तक होते देखा गया। कालिदास और माघ को समय फिर उत्पन्न कर सकता है। और ब्राउनिंग एवं शेक्सपियर जैसी सत्कीर्ति उनके अन्य उत्ताराधिाकारी भी प्राप्त कर सकते हैं। किसी मनुष्य विशेष पर ही कोई विशेष महत्ताा नहीं हो गयी, और न किसी प्रधाान पुरुष के हाथ संसार की समस्त प्रधाानता बिक गयी। यह मैं स्वीकार करता हूँ और इस प्रकार के समस्त सिध्दान्तों से सहमत हूँ। किन्तु अहम्मन्यता और उच्छृंखलता का समर्थन इन बातों से नहीं हो सकता। कोई भी साहित्यमर्मज्ञ और भाषाहिताभिलाषी यह न चाहेगा, कि उसका सुन्दर अंग - प्रत्यंग छिन्न - भिन्न कर दिया जावे, और शृंगार के बहाने उसका संहारपथ प्रशस्त बनाया जावे। वृथा आस्फालन अच्छा नहीं, अथवा ज्ञान उत्ताम नहीं; न तो अल्पज्ञ का विशेषज्ञ बनना समर्थनीय है, न मन्द की कविकीर्ति - कामना अभिनन्दनीय। साहित्य राज्य में अराजकता वांछनीय नहीं होती, न ज्ञान लव दुर्विदग्धा का विदग्धाताभिमान प्रशंसनीय और न उल्लेखनीय है आत्माभिमान प्रसूत उद्भावना। यदि निन्दा की जाती है तो इसी की, और यदि तीव्र दृष्टिपात किया जाता है तो इसी पर। किसी दुर्भाव से नहीं,र् ईष्या - द्वेषवश नहीं, केवल साहित्य की मंगल - कामना, और अपनी मातृभाषा की हितदृष्टि से। प्रार्थना यही है कि जो कुछ किया जावे नियमानुकूल किया जावे, चित्ता की किसी अयथावृत्तिा के वशवर्ती होकर वह पथ न ग्रहण्ा किया जावे, जिससे उपकार के बदले साहित्य का अपकार हो, और उसका कान्त कलेवर कलुषित बन जावे।

    मुहावरों की उपयोगिता और उपकारिता सर्व स्वीकृत है, इस पर यथेष्ट प्रकाश डाला गया। उधार उचित दृष्टि भी साहित्य - सेवियों की आकृष्ट की गयी। आजकल उसके व्यवहार में जो शैथिल्य अथवा उच्छृंखलता है, उसके विषय में भी जो वक्तव्य था, वह कहा गया। किन्तु मुहावरों की उपयोगिता का लाभ उसी समय होगा, जब हम उसके यथार्थ ज्ञान का उद्योग, और उचित रीति से उसका व्यवहार करें। मुहावरों का अंग - भंग करना अथवा उनको बिगाड़कर लिखना उचित नहीं, इससे बोधा में व्याघात होता है, और इष्ट - प्राप्ति नहीं होती। नये मुहावरों की कल्पना अथवा आविष्कार अनुचित नहीं, ऐसा उद्योग बराबर होता आया है। किन्तु अधिाकारी पुरुष को ही, समस्त नियमों पर दृष्टि रखकर ऐसा करना चाहिए। अन्यथा सफलता नहीं मिलती और उपहास अलग होता है। अपना व्यापक ज्ञान - प्रदर्शन अथवा पाण्डित्य प्रकट करने के लिए, लोगों से आविष्कारक - जन का गौरव लाभ करने की कामना से, अयोग्य पुरुषों द्वारा जो मुहावरों के निर्माण का उद्योग किया जाता है, न तो उसमें कृतकार्य्यता होती है, और न कीर्ति। इसलिए इस प्रकार के दुस्साहस से बचना चाहिए। वह बुध्दिमान् कदापि न माना जावेगा, जिसका परिश्रम तो व्यर्थ होवे ही, साथ ही जिसकी अपकीर्ति भी हो।

(बोलचाल)


 

 

 

 

 

 

विभूतिमती - ब्रजभाषा

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                (प्राचीनता और नवीनता)

 

 

समय बदलता है, समय के साथ बहुत - सी दूसरी बातें भी बदलती हैं, किन्तु इस बदलने की भी सीमा होती है। फूल की परिणति फल में होती है, परन्तु फूल के अभाव में फल की कोई सत्ताा नहीं। कुसुमाकर आता है, नए - नए कोमल पत्ताों से पेड़ लद जाते हैं, फूलों से डालियाँ भर जाती हैं, दिशाएँ महँकने लगती हैं, मलयानिल बहने लगता है, कोकिल बधााई गाती फिरती है, रात - रात भर बोलती है, चारों ओर नवीनता की दुन्दुभी बजने लगती है, किन्तु यह सब प्राचीनता के अंक में होता है। प्राचीनता ही नवीनता की जननी है, प्राचीनता को किनारे रख दीजिये - नवीनता की सूरत ही दिखलाई न पड़ेगी। नवीनता यदि जीवनी धाारा है, तो प्राचीनता उसकी अधिाष्ठातृ देवी। सुन्दर से सुन्दर नवल - धावल - धााम हम खड़ा कर सकते हैं, परन्तु उसका आधाार एक प्राचीन स्थल ही होगा, उसके समस्त उपादान कारण भी प्राचीन क्या प्राचीनतर होंगे। फिर प्राचीनता की उपेक्षा क्यों? एक कुसुम कोमल नवजात बालक, नवीन से नवीनतर हो सकता है, किन्तु उसका रोम - रोम प्राचीन सत्तााओं का नव - संस्करण मात्रा होता है। वह चाहे जितना आस्फालन करे, माँ - बाप के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकता। उनका अस्तित्व ही उसका संसार है, उसके अभाव में वह संसार में आ ही नहीं सकता। संसार का मुख उसने उनके नेत्राों से ही देखा है, फिर क्या उनके विषय में उसकी अन्धाता समुचित होगी?

    जिसके विशाल - भाल के अरुण एवं श्वेत बिन्दु भगवान् भुवन - भास्कर और शशांक हैं, जिसकी नीली साड़ी तारकचयरत्न समूह - समुज्ज्वल है, रात - दिन जिसके नयन निमीलन और उन्मीलन, पवन जिसका श्वास, अर्ग्नि विकास, जल जीवन और मृत्कण आवरण हैं, वह असंख्य ब्रह्माण्ड मालिनी, नव - नव उन्मेष - शीला प्रकृति इतनी प्राचीनतमा है कि जिसकी कल्पना भी नहीं हो सकती। हमारी शस्य - श्यामला धारित्राी जो हमको नित्य नये रूप में दर्शन देती है, कभी हरे भरे वृक्षों को लेकर क्रीड़ा करती है, कभी विकच कुसुमावलि मिष हँसती है, कभी जगमगाती है, कभी तमसाच्छन्न हो जाती है, क्या आज की है? नहीं, वह भी बहु - युग व्यापिनी है। क्या कोई प्राचीनता के नाते इनका त्याग कर सकता है? अपने ज्ञानालोक से संसार को आलोकित करने वाले पवित्रा वेद, ब्रह्म - जिज्ञासा मंत्रा के उपदेष्टा उपनिषद्, अनेक तत्तवदर्शी आगम, विविधा आदर्श चरित्राों के अवलम्ब रामायण और महाभारत, जो आर्य जाति के मस्तिष्क और हृदय हैं, जिनके विचार सूत्रा में ही उसकी जीवन - गाथा ग्रथित है, क्या चिरकालीन नहीं है? क्या इस दृष्टि से वे उपेक्षित हो सकते हैं? उनके ग्रन्थ रूप के विषय में किसी काल में इस प्रकार की कोई संभावना हो भी सकती है। परन्तु उनमें वर्णित मानवता के महान् उद्देश्यों, सत्य, धाृति, क्षमा, दम, आस्तेय इत्यादि का जो उनसे भी प्राचीनतर हैं, क्या कभी त्याग हो सकता है? कदापि नहीं। वे मानवता के साथ वैसे ही सम्बन्धिात हैं, जैसे चन्द्रिका के साथ चन्द्र अथवा छाया के साथ शरीर। जो मानव - आकार में दानव अथवा पशु है, वह इस नियम का अपवाद कहा जा सकता है। फिर प्राचीनता की कुत्सा कैसी?

    प्राचीनता क्या है? उसकी महत्ताा और व्यापकता कितनी है? यह बतलाया गया। किन्तु आज दिन प्राचीनता अच्छी दृष्टि से नहीं देखी जाती, उसे लोग स्वतंत्राता के उन्मुक्त - पथ का कंटक समझ रहे हैं। यह हवा योरप में उठी, रूस में बड़े वेग से बही, और आज पवित्रा भारत वसुन्धारा में भी उसका धाीरे - धाीरे संचार हो रहा है। जो आधयात्मिकता का पुनीत केन्द्र है, जो भारत सदाचार, विवेक और 'सर्वभूतहिते रत:' मन्त्रा का आचार्य है, यह भयंकर सत्य है कि आज उसमें भी पाश्चात्य जड़वाद का अबाधा प्रवेश हो रहा है। यह आवेश और विप्लव का समय है, क्रान्ति का युग है, इस समय ऐसा होगा, किन्तु स्थिरता का समय आवेगा और सत्य की विजय होगी। जब इन दिनों सभी सभा सोसाइटियों में प्राचीनता दलित हो रही है, तो साहित्य - क्षेत्रा कैसे सुरक्षित रहता, विषाक्त हवा इसमें भी फैली। इसीलिए आज ब्रजभाषा फूटी ऑंख से भी नहीं देखी जाती, सभी ऐसा कर रहे हैं, यह बात नहीं कही जाती, किन्तु हिन्दी संसार में ऐसा दल है, जो हाथ धाोकर उसके पीछे पड़ गया है। वह ब्रजभाषा के साथ उसके प्राचीन कवियों की भी कुत्सा करता है और उन्हें भी खरी - खोटी सुनाता है। आवेश की अवस्था में मानव - हृदय असंयत हो जाता है, उस समय वह फूल को भी कंटक समझता है, और जो दल शिर पर धाारण करने योग्य होता है, उसे पाँवों से रौंदने लगता है। अन्यथा ज्ञान और अहंभाव इस समय बड़ा अनर्थ करते हैं, वे अशेषफलदायिनी कल्पवेलि की जड़ खोदते भी संकुचित नहीं होते।

    कुछ लोगों की ऐसी ही मनोवृत्तिा आज ब्रजभाषा विरोधिानी है। जो दोष उसको लगाए जाते हैं, उनमें निम्नलिखित प्रधाान हैं -

    1. ब्रज - भाषा शृंगार - रस से ओत प्रोत है, शृंगारिक हास - विलास, हाव - भाव और कच - कुच कटाक्षवाद के अतिरिक्त उसमें है ही क्या?

    2. वह जरा जीर्ण है, अतएव निर्जीव है, इसके शब्द तक घिस गये हैं, इसलिए उसमें ओज नहीं, अनेक शब्द उसके द्वारा बेतरह तोड़े - मरोड़े जाते हैं।

    3. उसकी उपमाएँ असंगत और अस्वाभाविक हैं, उसकी रचनाओं में, ऐसी असंभव अत्युक्तियाँ हैं जो उद्वेगजनक हैं।

    4. उसमें विलासिता और अश्लीलता का òोत बहता है, उसके प्रभाव ने देश को विलासी और लम्पट बना दिया, जिससे उसका पतन हुआ।

    5. उसमें प्रान्तिकता है, अतएव वह राष्ट्रीय भाषा होने के योग्य नहीं, वह आजकल के प्रचलित गद्य के भी प्रतिकूल है।

    मैं इन दोषों पर अपना विचार प्रकट करने के प्रथम यह मीमांसा करना चाहता हूँ, कि कविता किसे कहते हैं? कविता एक कला है, सुकुमार - तम कला है, तो इस दृष्टि से व्रज - भाषा कविता का क्या स्थान है? कविता के विषय में ऍंगरेजी के कुछ बडे - बडे विद्वानों की यह सम्मति है -

    ''जिसमें सर्वोत्ताम शब्द, सर्वोत्ताम क्रम से स्थापित हों, वही कविता है। ''

    ''सर्वोत्ताम कवि वही है, जिसके पद्यों में सामर्थ्य, माधार्ुय्य, रोचकता, सहज पद्य प्रवाह, एवं पद्य और भाव की सामंजस्यपूर्ण एकता हो। '' - श्रीमान् 'लेहंट'

    ''मधाुर शब्दों में कल्पना और भाव प्रसूत विचारों को प्रकट करने की कला को कविता कहते हैं। - 'चेम्बर्स'

    ''कविता अर्थ - पूर्ण संगीत है। '' - 'ड्राइडेन'

    ''शब्दों के प्रयोग की ऐसी रीति की कल्पना को कविता कहते हैं, जिससे कल्पना के ऊपर एक प्रकार के चमत्कार का प्रादुर्भाव होता है। '' - 'मेकाले'

    ''कविता सर्वश्रेष्ठ और दृढ़तम मस्तिष्कों के श्रेष्ठ एवं सुखमय अवसरों की रचना का समूह है। '' - 'शैली'

    पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं - ''रमणीयार्थ - प्रतिपादक शब्द: काव्यम्। ''

    साहित्य - दर्पणकार कहते हैं - ''वाक्यं रसात्मकम् - काव्यम्। ''

    ऊपर के उध्दरणों का निचोड़ यही है, कि जिसका शब्द - विकास सर्वोत्ताम हो, जिसमें माधार्ुय्य, रोचकता और सहजप्रवाह हो, मधाुर शब्दमयी कल्पना हो, अर्थ - पूर्ण संगीत हो, जिसकी शब्द - योजना में चमत्कार हो, रमणीयता हो, स्वारस्य हो, मोहक व्यंजना हो, वही कविता अथवा काव्य है। कवि कर्म करने वाले यह भली - भाँति जानते हैं, कि ऐसी रचनाएँ श्रेष्ठ और सुखमय अवसरों पर ही हो सकती हैं और वह भी उन मस्तिष्कों से जो सर्वश्रेष्ठ और दृढ़तम हों। क्या ये सिध्दान्त कला की ओर ही अंगुलि - निर्देश नहीं करते? क्या इनके पठन से इस बात की पुष्टि नहीं होती, कि कविता वास्तव में एक कला है, क्या कला की जाँच कला की दृष्टि से ही न होनी चाहिए? ऊपर जो परिभाषा कविता की की गयी है, उसमें से किसी में यह बात नहीं कही गयी कि कविता की उपयोगिता होनी चाहिए, उसमें देशानुराग अथवा समाजसुधाार का भाव भी होना चाहिए। आदर्श - चरित्राों का चित्राण, उच्चकोटि के भावों का विकास, सामयिक हृदय का प्रतिबिम्ब और सदाचार के मन्त्राों का मनोमुग्धा कर उद्धोष भी होना चाहिए। वास्तव बात यह है कि कला से इन बातों का कोई सम्बन्धा नहीं। कला इनकी ओर आकर्षित होकर इनको अपने विशाल अंक में स्थान दे सकती है और यथा तथ्य इनका चित्राण कर सकती है, किन्तु इनके बिना कला, कला नहीं, यह बात नहीं कही जा सकती। कला की इयत्ताा कला में ही परिमित होती है। कला की सफलता और पूर्णता कला की ही निर्दोषता पर निर्भर है। विकलांग कला, कला हो सकती है, किन्तु वह निर्दोष नहीं कही जा सकती, इसलिए कला की महत्ताा कला की सर्वांगीण पूर्ति पर ही अवलम्बित है। यदि किसी चित्राकार का बनाया कोई नग्नचित्रा हस्तगत हो, तो हमको नग्नता चित्राण चातुरी पर ही दृष्टि डालनी होगी, उसकी सर्वांगीण पूर्ति देखकर ही मीमांसा करनी पडेग़ी कि चित्राकार चित्राण कला में कैसा पारंगत है। उसमें अश्लीलता हो, अभव्यता हो, आदर्शनीयता हो, ऐसे स्थान हों जिनको सलज्ज ऑंखें न देख सकें, किन्तु उन्हीं से उसकी शोभा है, वे ही उस चित्राण पूर्णता के साधान हैं। वे जितना ही पूर्ण होंगे, जितनी स्पष्टता के साथ दिखलाए गये होंगे, उतने ही चित्राकार के कौशल और उसकी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति के दर्शक होंगे। चित्राकार के चित्राण कला की पराकाष्ठा के लिए इतना ही पर्याप्त है, उपयोगितावाद उसके अन्तर्भूत नहीं अतएव चित्रा की परीक्षा के समय उस पर दृष्टि डालने की भी आवश्यकता नहीं। चित्राकार चित्रा का ठीक - ठीक चित्राण करके ही सिध्दि लाभ करता है, और यहीं पर उसके कार्य्य की समाप्ति हो जाती है। परीक्षक भी उसकी कृति की परीक्षा यहीं तक कर सकता है और उसी के आधाार से उसको योग्यता की सनद दे सकता है, आगे बढ़ने का उसको अधिाकार नहीं।

    मैं जब कला की कसौटी पर ब्रजभाषा की कविता को कसता हूँ, तो उसको बावन तोले पाव रत्ताी ठीक पाता हूँ। ऊपर जितने लक्षण कविता के बतला आया हूँ, वे सब उसमें पाए जाते हैं, उस विषय में वह संसार की किसी समुन्नत भाषा का सामना कर सकती है। ब्रजभाषा के प्रसिध्द और मान्य कवियों ने जब जिस भाव का चित्राण किया है, उस समय उस भाव का उत्ताम से उत्ताम चित्रा खींचकर सामने रख दिया है। आप चाहे जिस चित्रा को उठा लीजिये और कला के भाव से उस पर दृष्टि डालिए, तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पडेग़ा। भावुकता कविता की रीढ़ है, ब्रजभाषा की कविता में वह कूट - कूटकर भरी है। यदि मनोभावों का स्वाभाविक विकास देखना चाहें तो उसमें देखें। ब्रजभाषा कवि का रसपूर्ण हृदयोदधिा जब उत्तााल - तरंगमाला - संकुल होता है, उस समय कैसे - कैसे भाव मौक्तिक सहृदयों पर उत्सर्ग कर जाते हैं, इसका अनुभव उसीको होता है, जो कला की दृष्टि से उन मोतियों की परख करता है। जिनकी दृष्टि ऐसी नहीं, वे उन्हें भले ही पोत या और कुछ समझ लें।

    आजकल एक विचारधाारा बड़े वेग से बह रही है, पहले वह कितनी ही अन्तर्मुखी क्यों न रही हो, परन्तु वह आज बहिर्मुखी है। जिनको कवि कर्म का दावा है, जो अपनी विजयिनी कविता को जन - साधाारण - श्रध्दा - पुष्प - माल्य द्वारा अर्चित देखना चाहते हैं, वे प्राय:कहा करते हैं, कविता हृदय की वस्तु है। भावोद्रेक होने पर जो कविता òोत हृदय - सरोवर से स्वभावतया फूट निकलता है वास्तविक कविता के गुण उसी में होते हैं। जिस सरस हृदय का उच्छ्वसित प्रवाह नैसर्गिक होता है उसमें वह कल - कल धवनि होती है, वह उन्मादिनी गति मिलती है, जो सहृदय जन के कर्ण - कुहर में प्रवेश कर अजस्त्रा आमोद - सुधाा वर्षण करती रहती है। इस प्रकार की कविता न तो किसी अंलकार की भूखी होती है, न किसी विलक्षण शब्द - विन्यास की, वह अपने रंग में आप ही मस्त रहती है और अपनी इसी अलौकिक मस्ती से मार्मिक हृदय पर पूर्ण अधिाकार कर लेती है। इस प्रकार की कविता भावमयी होती है, भाव ही उसका सम्बल होता है, चाहे उसको कोई समझ सके या न समझ सके, चाहे उसका कुछ उपयोग हो या न हो, किन्तु उसका भाव ही उसका सर्वस्व होता है। मोर जब नर्तनशील होता है, तो उसके मुग्धाकर गुणों का विकास स्वाभाविक होता है, वह लोगों को मुग्धा भी करता है, किन्तु मयूर इस विषय में यत्नशील नहीं होता। ऐसा ही रहस्य स्वाभाविक कविता का है, वह किसी को विमुग्धा करने की इच्छुक नहीं, किन्तु उसके नैसर्गिक - गुण अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहते। कला के विषय में भी यही कहा जा सकता है। खग - कलरव से लेकर सुकवि - गण की समस्त सूक्तियों तक में कला का चमत्कार दृष्टिगत होता है, जिस दृष्टि से उसका आविर्भाव है, उसी दृष्टि से उसका अवलोकना यथार्थता है, अन्यथा विडम्बना की विकराल - मूर्ति ही सामने आती है।

    एक बात मैं और प्रकट कर देना चाहता हूँ, वह यह कि कला में हृदय की भावुकता ही नहीं होती, उसमें मस्तिष्क का कार्य - कलाप भी होता है। दोनों के साहचर्य्य से ही कला पूर्णता को प्राप्त होती है। ब्रजभाषा की कविता में यथा स्थान दोनों का समुचित - विकास देखा जाता है, इसीलिए उसकी कविताएँ कला की दृष्टि से बहुत ही उच्चकोटि की पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए मैं दो पद्यों को नीचे उध्दाृत करता हूँ। पहला पद्य हिन्दी संसार के दिव्य विभूति देव का और दूसरा आचार्य केशव का है। दोनों में ही कला की पराकाष्ठा है। पहले पद्य में अभूतपूर्व शब्द - विन्यास के साथ पूर्वानुराग - जन्य लगभग समस्त अवस्थाओं का वर्णन है। दूसरे पद्य में अलौकिक पदावली के साथ हँसी की उत्प्रेक्षा में अद्भुत - कवित्व - शक्ति का परिचय दिया गया है।

       जब ते कुँवर कान्ह रावरी कला निधाान,

            कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी - सी।

       तबही ते 'देव' देखी देवता - सी हँसति - सी,

            रीझति - सी खीझति - सी रूठति रिसानी - सी।

       छोटी - सी छली - सी छिन लीनी - सी छकी छिन - सी,

            जकी - सी टकी - सी लगी थकी थहरानी - सी।

       बीधाी - सी बँधाी - सी विष बूड़ति बिमोहति - सी,

            बैठी बाल बकति बिलोकति बिकानी - सी।

       किधाौं मुख कमल ए कमला की ज्योति होति,

            किधाौं चारु मुख - चन्द्र - चन्द्रिका चुराई है।

       किधाौं मृगलोचनि मरीचिका मरीचि किधाौं,

            रूप की रुचिर रुचि सुचि सी दुराई है।

       सौरभ की शोभा की दसन घनदामिनी की,

            'केशव' चतुर चितही की चतुराई है।

       एरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हाँसी मेरे,

            मोहन की मोहनी की गिरा की गुराई है।

    हिन्दी संसार के सूर्य - चन्द्र को छोड़कर कला में आचार्य केशव और कविवर देव का सर्वोच्च स्थान है। पीयूषवर्षी बिहारीलाल भी इस विषय में अद्भुत क्षमता रखते हैं। कुछ दोहे उनके भी देखिए -

दृग अरु ऋतु टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठ दुर्जन हिए, दई नयी यह रीति।

उड़ी गुड़ी लखि लाल की, ललना ऑंगन माँहि।

बौरी लौं दौरी फिरति, छुवत छबीली छाँहि।

यद्यपि सुन्दर सुघर पुनि, सगुनो दीपक देह।

तऊ प्रकास करै तितौ, भरिए जितो सनेह।

जो चाहत चटकन घटै, मैलो होय न मित्ता।

रज राजस न छुवाइए, नेह चीकने चित्ता।

    आनन्दघन घनआनन्द की सहृदयता भी देखिए -

          पर कारज देह को धाारे फिरो,

                  पर जन्य यथा रथ ह्नै दरसो।

          निधिा नीर बनावत हो मधाुरो,

                  सबही बिधिा सज्जनता सरसो।

          घन आनंद जीवन दायक

                  कछु मेरि औ पीर हिए परसो।

          कबहूँ वा विसासी सुजान के,

                  ऑंगन मो ऍंसुआन को लै बरसो।

    कला की दृष्टि से ब्रजभाषा की कविता किस कोटि की है, यह आपने देख ली, और बहुत से उदाहरण उपस्थित किए जा सकते हैं, किन्तु ऐसा करना बाहुल्य मात्रा होगा। ऊपर मैं प्रतिपादन कर आया हूँ कि कला की दृष्टि से ही कला को देखना चाहिए, यदि यह सिध्दान्त अभ्रान्त है, तो ब्रजभाषा के विषय में कुछ और निवेदन करने की आवश्यकता नहीं। उक्त उपपत्तिा ही उसको अधिाकांश आक्षेपों से मुक्त कर देती है। तथापि मैं उन दोषों पर भी प्रकाश डालना चाहता हूँ, जिनका उल्लेख पहले हो चुका है, केवल यह प्रकट करने के लिए कि उनमें कितनीवास्तवताहै।

    1 - पहला आक्षेप यह है, कि ब्रजभाषा में शृंगाररस ओत - प्रोत है और कचकुच कटाक्षवाद के अतिरिक्त उसमें और कुछ ही नहीं। जब कोई आवेश में आकर किसी के ऊपर आक्रमण करता है, उस समय जैसे उसके अनर्गल - प्रलाप होते हैं, यह कथन भी प्राय: वैसा ही है। आक्षेप के समय अवधिा का अन्तर्भाव ब्रजभाषा में ही कर दिया जाता है, इस दृष्टि से भी दोनों को अभिन्न मानकर ही आगे बढ़ता हूँ। जिन मर्मज्ञों ने साहित्य का अनुशीलन किया है, उनको यह अविदित नहीं है, कि ब्रजभाषा के कवियों से उन सज्जनों की संख्या अल्प नहीं है, जिन्होंने भक्ति - रस का òोत बहाकर हिन्दी संसार को प्लावित कर रखा है। इनमें कुछ निर्गुणवादी और कुछ सगुणवादी हैं। कबीर साहब, दादूदयाल, गुरुनानक आदि निर्गुणवादी और रामावत सम्प्रदाय के स्वामी रामानन्द, गोस्वामी तुलसीदास, रविदास, काष्ठ जिह्ना स्वामी - युगलानन्द शरण, बाबा रामचरणदास आदि सगुणवादी हैं। इन लोगों की जितनी पवित्रा रचनाएँ हैं, वह अधिाकांश ब्रजभाषा में हैं, शृंगार रस से रहित हैं और परिमाण में ब्रजभाषा के शृंगारिक कवियों की कविता से न्यून नहीं हैं, फिर यह कहना कहाँ तक युक्ति संगत है कि ब्रजभाषा की कविता शृंगार - रस से ओत - प्रोत है, और कच - कुच कटाक्षवाद के अतिरिक्त उसमें और कुछ है ही नहीं। क्या इन महात्माओं की रचनाओं का कुछ मूल्य नहीं है? क्या इनकी पुण्यमयी कृतियाँ संसार - समुद्र की तरणी, भक्त - हृदय की मणिमाला, भक्तजन कण्ठ का कण्ठहार, पापदग्धा प्राणियों की संजीवनी जड़ी और हिन्दीदेवी की जीवनी धाारा नहीं है, फिर इनकी उपेक्षा क्यों? हमारी इष्ट - सिध्दि तो हो गयी है, किन्तु इस विषय में थोड़ा मैं और निवेदन करूँगा। आप लोगों ने पुण्य कीर्ति, हिन्दू धार्म के परित्रााता, सिक्ख धार्म के प्रतिष्ठाता महाप्राण श्रीगुरुगोविन्दसिंह का नाम सुना होगा, उनका बनाया हुआ दशम ग्रंथ साहब नाम का एक पवित्रा ग्रंथ है, यह समस्त ग्रंथ ब्रजभाषा में है। परिमाण में यह उपलब्धा सूरसागर का दूना होगा। इस ग्रंथ में चण्डी - चरित्रा के अतिरिक्त विष्णु के 24, शिव और ब्रह्मा के सात - सात अवतारों की कथा बड़ी ललितभाषा में वर्णित है। एक उदाहरण लीजिये, खडगसिंह नामक एक कल्पित वीर ने भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र से बड़ा घोर युध्द किया, त्रिालोक कम्पित हो गया, चतुरानन ब्रह्मा समझाने आये, उनको देखकर खडगसिंह कहता है -

          चतुरानन मो बतिया सुनलै,

                  सुनिकै दोऊ òौनन में धारिए।

          उपमा को जबै उमगै मन तो,

                  उपमा भगवानहिं की करिए।

          परिए नहीं आनके पायनपै,

                  हरि के गुरु के द्विज के परिए।

          जेहि को युग चारि मैं नाम जप्यो,

                  तेहि सों लरिए मरिए तरिए।

    आपने देखा कैसी प्रसादमयी कविता है, इस महान् ग्रन्थ में वीर रस और प्रसाद गुण मूर्तिमन्द होकर विराजमान है। सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब भी दशम ग्रन्थ साहब इतने ही बडे है। इसका संग्रह सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव ने किया है। इस ग्रंथ में सोलह भक्तों की वाणियों के साथ गुरु अर्जुन देव तक जो पाँच गुरु हुए हैं, उनके पवित्रा भजन भी संग्रहीत हैं। गुरु अर्जुन देव की रचनाएँ इस ग्रन्थ में अधिाक हैं, यह समस्त रचना लगभग ब्रजभाषा में है, इसमें जैसा भक्ति और शान्त रस का प्रवाह बहता है, उसकी मैं क्या प्रशंसा करूँ। कवि 'हृदय राम' पंजाब प्रान्त के प्रसिध्द कवि हो गए हैं, उन्होंने हनुमन्नाटक नामक एक ग्रन्थ की रचना की है, यह ग्रन्थ छप भी गया है। रामावतार की कथा इस ग्रन्थ में बड़ी सुन्दर ब्रजभाषा में लिखी गयी है, यह भी बड़ा ग्रन्थ है, उसकी कविता का एक उदाहरण लीजिये -

          ''एहो हनू कह श्रीरघुवीर,

                  कछू सुधिा है सिय की छिति माँहीं।

          है प्रभु लंक कलंक बिना सु,

                  बसै बन रावन बाग की छाँही।

          जीवत है कहिबे ही को नाथ,

                  सुक्यों न मरी हम ते बिछुराहीं।

          प्रान बसै पदपंकज में यम,

                  आवत है पर पावत नाहीं।

    अब मैं पंजाब प्रान्त के एक विशाल ग्रन्थ की चर्चा करता हूँ। यह महाभारत का पूरा अनुवाद है। महाराज रणजीत सिंह ने ब्रजभाषा में यह अनुवाद लाखों रुपये व्यय करके कराया था। यह ग्रन्थ अब तक मौजूद है, किन्तु दु:ख है कि मुद्रित नहीं हुआ है। इन ग्रन्थों के साथ महाराज बनारस ने रघुनाथ कवि द्वारा जो महाभारत का अनुवाद कराया था, जो छप भी चुका है, उसको और महाराज रघुराज सिंह कृत दसो स्कन्धा भागवत के अनुवाद आनन्दाम्बुनिधिा और कविवर केशव की रामचन्द्रिका, बाबा रघुनाथदास कृत विश्राम सागर, सबलसिंह चौहान कृत महाभारत, गुमान कविकृत नैषधाानुवाद, पद्माकर कृत वाल्मीकि रामायण का अनुवाद, गिरधारदास कृत कुण्डलियों के ग्रन्थ, वृन्द सतसई, भूषण ग्रन्थावली, बाबा दीन दयाल कृत अन्योक्ति कल्पदु्रम, बाबू गोपाल चन्द्र कृत बलरामकथामृत इत्यादि ग्रन्थों को मिलाइए तो ज्ञात हो जावेगा कि शृंगार - रस सम्बन्धाी साहित्य का भाण्डार ब्रजभाषा का कितना बड़ा है। मेरा तो विचार है, कि केवल महाभारत के किसी अनुवाद को एक पलड़े पर रखकर दूसरे पलड़े पर ब्रजभाषा के समस्त - शृंगारिक ग्रन्थ रख दिए जावें तो भी तुला का महाभारत का भारी पलड़ा रहेगा। मैंने ब्रजभाषा के वैद्यक, ज्योतिष, सामुद्रिक आदि विषयों के लिखे और छपे ग्रन्थ भी देखे हैं। दादू दयाल के शिष्य कवि कर्म निपुण सुन्दरदास के वेदान्त सम्बन्धाी अनेक ग्रन्थ इतने सुन्दर हैं कि उनको ब्रजभाषा का गौरव कह सकते हैं, किन्तु फिर भी कहा जाता है कि ब्रजभाषा शृंगार - रस से ओत - प्रोत है और उसमें अन्य विषयों के ग्रन्थ हैं ही नहीं। इसको दुस्साहस छोड़ और मैं क्या कहूँ, यह प्रत्यक्ष सर्ूय्य पर धाूल फेंकना है अथवा दिवांधाता है।

    अब रही शृंगार - रस की बात, आजकल उसकी बड़ी कुत्सा की जा रही है किन्तु मुख और लेखनी से ही। हृदयों पर तो उसका ही विशेषाधिाकार है। जो हो, किन्तु विचारणीय यह है, कि क्या शृंगार रस निन्दनीय है? जिस शृंगार - रस का स्थायी भाव रति अर्थात् प्रेम है, जिसका देवता कामदेव है जो कुसुम - शायक लेकर संसार के प्राणी मात्रा को जीत लेता है, जो तरु लता तक का जीवन सर्वस्व है, जिसके बिना संसार उच्छिन्न हो जावेगा, मेदिनी मरु भूमि बन जावेगी, न बालक का मुख अवलोकन करने को मिलेगा न पशु पक्षि - शावक दृग्गोचर हाेंगे, न फूल फूलेगा न फल फलेगा, वह शृंगार - रस क्या उपेक्षणीय है। आर्य विद्वानों ने शृंगार - रस को रसराज कहा है, क्यों? इसीलिए कि रसन गुण जैसा उसमें है अन्य किसी रस में नहीं, जैसा वह व्यापक और उदात्ता है, जैसा उसका प्रसार गेहे गेहे और जने - जने है; वैसा किसी रस का नहीं, शृंगार रस का स्थायी भाव प्रेम की समानता किस रस का स्थायी भाव कर सकता है? प्रेम के ही विषय में कहा गया है - ''प्रेम एव परो धार्म:'' एक अंग्रेजी का विद्वान् कहता है God is Love and Love is God अर्थात् प्रेम परमेश्वर है और परमेश्वर प्रेम। मीर साहब कहते हैं -

तू न होवे तो नज्म कुल उठ जाय।

सच्चे हैं शायराँ खुदा है इश्क।

    रसिक रसखान इसी भाव को यों प्रकट करते हैं -

प्रेम हरी को रूप है त्यों हरि प्रेम स्वरूप।

एक होय द्वै यों लसै ज्यों सूरज अरु धाूप।

    यदि शृंगार प्रेम सर्वस्व है तो फिर उस पर भुकुटि भंग क्यों? कहा जायेगा, पे्रेम की निन्दा नहीं की जाती, प्रेम के नाम से जो अकाण्ड - ताण्डव किया गया है, उसकी निन्दा की जाती है, मैं स्वयं उसका निन्दक हूँ, घोर निन्दक हूँ, किन्तु हंस गुण का त्याग अच्छा नहीं; हमको नीर - क्षीर विवेक रखना होगा। संशोधान के बहाने जो मूल सिध्दान्त पर कुठाराघात करते हैं, वे संशोधाक नहीं; भ्रान्त हैं। शृंगार रस की कल्पना किस आधाार पर है, उसका मूल उद्देश क्या है, इसको समझ कर ही उसके विषय में कुछ कहना चाहिए। यदि पावन सलिला - भगवती - भागीरथी के सलिल को लेकर कोई सुरा निर्माण करता है, तो यह उसका अपकर्म है, इससे उनके सलिल की पावनता में अन्तर नहीं होता। शृंगार - रस के दो भेद हैं, संयोग शृंगार और विप्रलंभ शृंगार। इसके जो लक्षण, उपलक्षण हैं, संसार भर के साहित्य में मौजूद हैं। किंतु उनके अवान्तर भेदों की सूक्ष्म कल्पना संस्कृत साहित्य में ही कला की दृष्टि से हुई है। आर्य्य जाति के शास्त्रा पारंगत विद्वानों ने जब जिस विषय को अपने हाथ में लिया, तब उसके विश्लेषण की पराकाष्ठा करके ही छोड़ी। उनकी प्रखर दृष्टि इतनी अन्तर्मुखी होती थी, कि प्रत्येक विषय के तह तक पहुँच उसको पूर्णता देकर ही शान्त होती थी। क्या संगीत, क्या साहित्य, क्या दर्शन, क्या विज्ञान सब विषयों में ही उनकी इस प्रवृत्तिा का उदाहरण मिलता है। शृंगार रस में नायिका भेद उनकी इसी प्रवृत्तिा का परिणाम है। महात्मा भरत इस रस के आचार्य्य हैं, किन्तु उनके विचार इस विषय में सूत्रा रूप में हैं, पीछे वे अधिाक पल्लवित हुए। और नाना प्रकार की प्रकृति ने उनको नाना रूप दिया। इस विषय का जहाँ तक कला से संबंधा है, वहाँ तक वह उपयुक्त और निर्दोष है, किन्तु जहाँ उसमें दृष्टि संकीर्णता से कामुकता और विलासिता सम्मिलित हो गई, वहाँ वह उतना उदात्ता नहीं। गार्हस्थ्य जीवन को सफल और उपयुक्त बनाने के लिए बहुत बडे अनुभव और शिक्षा की आवश्यकता है, इस सूत्रा से भी साहित्य ग्रन्थों में इस विषय की अवतारण हुई, किन्तु यह समझ रखना चाहिए कि प्रत्येक विषय का सदुपयोग ही वांछनीय है।

    विप्रलम्भ शृंगार बड़ा ही हृदयग्राही है, वह अधिाकांश निर्दोष और पवित्रा होता है, प्रेम कसा इसी पर जाता है। सन्तजन और सूफियों की रचनाओं में इसका बड़ा विशद और उज्ज्वल रूप दृष्टिगत होता है, उसमें स्वाभाविकता और सहृदयता भी अधिाक होती है, कवियों की रचनाएँ इतनी उदात्ता नहीं होतीं, परन्तु उनमें कवित्व की बड़ी छटा रहती है, हाँ, संयोग शृंगार का कुछ अंश ऐसा है कि यदि संयत होकर लेखनी न चलाई जावे, तो वह कलुषित हो सकता है। परकीया नायिका में जो प्रेमजन्य व्याकुलता होती है, उसमें जो अधाीरता, उत्सुकता, प्रेमोन्माद और तड़प देखी जाती है, वह बड़ी ही अदम्य और वेदनामयी होती है। पहाड़ी नदियों की गति में बड़ी प्रखरता, बड़ी ही सबलता, बड़ा वेग और बड़ी ही दुर्दमनीयता होती है, क्योंकि उसके पथ में विघ्न - बाधाा - स्वरूप अनेक प्रस्तर खण्ड, अनेक संकीर्ण मार्ग और बहुत से पहाड़ी दर्रे होते हैं। परकीया नायिकाओं का पथ भी इसी प्रकार विपुल संकटाकीर्ण होता है, उसको लोक - लाज की बेड़ी काटनी पड़ती है, वंशगत बन्धान को तोड़ना पड़ता है, अतएव उसकी गति भी पहाड़ी नदियों की - सी उद्वेलित होती है। उसके हृदय के भावों का चित्राण टेढ़ी खीर है, साथ ही बड़ा ओजमय, द्रावक और मर्मस्पर्शी भी है। उसमें सत्यता है, सौन्दर्य है और प्रेम - पथ का भीषण दृश्य है। साथ ही उसमें वह अटलता है, जो हथेली पर सर लिये फिरने वालों में ही देखी जाती है। ब्रजभाषा के कवियों की लेखनी का चमत्कार इस भाव के प्रदर्शन में देखने योग्य है, वह साहित्य की एक अपूर्व सम्पत्तिा है। यदि कोई उसका असंयत वर्णन करके बुरा आदर्श उपस्थित करे, तो वह उसका दोष होगा, शृंगार - रस का नहीं। कुछ मार्मिक रचनाएँ देखिए -

       कोऊ कहौ कुलटा, कुलीन, अकुलीन कहौ,

            कोऊ कहौ, रंकिनी, कलंकिनी कुनारी हौं।

       कैसो परलोक, नरलोक, वर - लोकन मैं,

            लीनी मैं अलीक लोक लोकन ते न्यारी हौं।

       तन जाय, मन जाय देव गुरुजन जाय,

            जीव क्यों न जाय टेक टरति न टारी हौं।

       वृन्दावन वारे, बनवारी के मुकुट पर,

            पीतपट वारी, प्यारी मूरति पै वारी हौं। 1

 

       रीझि रीझि, रहसि रहसि, हँसि हँसि उठैं,

            साँसेंं भरि ऑंसू भरि कहत दई दई।

       चौंकि चौंकि, चकि चकि, उचकि उचकि देव,

            जकि जकि, बकि बकि परति बई बई।

       दुहुँन कौ रूप गुन वरनत दोऊ फिरैं,

            घर न थिरात रीति नेह की नई नई।

       मोहि मोहि मोहन को मन भयो राधिाका मैं,

            राधिाका हूँ मोहि मोहि मोहनमयी भई। 2

    एक विजातीया परकीया की बातें सुनिए -

       सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम,

            दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं।

       देव - पूजा ठानी मैं निवाज हू भुलानी,

            तजे कलमा कुरान साडे गुनन गहूँगी मैं।

       साँवला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिए,

            तेरे नेह दाग में निदाग हो दहूँगी मैं।

       नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पै,

            तांड़ नाल प्यारे हिन्दुआनी हो रहूँगी मैं।

    परकीया - प्रेम की विकरालता देखकर ही प्रेम - विरही बोधाा को यह कहना पड़ा -

           अति खीन मृनाल के तारहुँ ते

                  तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है।

           सुई बेह हूँ वेधिा सकी न तहाँ

                  परतीति को टाँडा लदावनो है।

           कवि बोधाा अनी घनी नेजहुँ की

                  चढ़ि तापै न चित्ता डगावनो है।

           यह प्रेम कौ पंथ करार सखी

                  तरवार की धार पै धावनो है।

    यह कहा जा सकता है, कि परकीया का आदर्श ही बुरा है, यह ऐसा आदर्श है जो कुलांगनाओें को मार्गच्युत कर सकता, उनको भ्रान्त बना सकता और निष्कलंककुल को कलंक लगा सकता है। इसलिए जो शृंगार - रस ऐसे आदर्श उपस्थित करता है, वह निन्दनीय क्यों नहीं? बात विचारणीय है, जो कुछ कहा गया, उसमें सत्यता का अंश है, किन्तु सांसारिकता बिलकुल नहीं। प्रेम बड़ा रहस्यमय है, प्रेमपरायण हृदय समाज का बंधान क्या किसी बंधान को नहीं मानता, ऐसे उदाहरण नित्य हमारी ऑंखों के सामने आते रहते हैं। हम ऑंखें बचा सकते हैं, किन्तु घटना बिना हुए नहीं रहती। हृदय से हृदय का सम्मिलन स्वाभाविक है, सत्य है, विधिा का अनुल्लंघनीय विधाान है।

    लौकिक नियम उसका नियंत्राण कर सकता है, किन्तु उसकी सीमा है। जहाँ सीमोल्लंघन होता है, वहाँ यह नियम टूट जाता है। इन बातों पर दृष्टि रखकर ही सिध्दान्ताेंं की अथवा आदर्शों की मीमांसा हो सकती है। यदि परकीयत्व एक सत्य व्यापार है और समाज में अनेकांश में गृहीत है, तो उसका उल्लेख गर्हित क्यों? शृंगार रस का अथवा हिन्दू समाज का सर्वोच्च आदर्श स्वकीया है, किन्तु उसके नीचे ही परकीया का स्थान है। उसका प्रेम भी उदात्ता है और एक प्रेमी ही तक परिमित है।

    उसमें त्याग की मात्राा भी न्यून नहीं, उसके प्रेम - पथ में विघ्न बाधााओं के ऐसे दुरारोह पर्वत खडे मिलते हैं, जिनका सामना स्वकीया को करना पड़ता ही नहीं, तो भी वह अपने व्रत में उत्ताीर्ण होती है और प्रेम कसौटी पर कसे जाने पर उसी के समान ठीक उतरती है, फिर उसकी अवहेलना क्यों? स्वकीया नायिकाओं का आदर्श जगज्जननी पार्वती, श्रीमती सीतादेवी, सती सावित्राी आदि है, परकीया नायिका का आदर्श श्रीमती राधिाका हैं।

    उनका प्रेम और त्याग उसी उच्चता को प्राप्त हुआ था, जैसा कि किसी उच्चकोटि की स्वकीया का। बंग प्रान्त के प्रसिध्द विद्वान और लेखक श्रीयुत पूर्णचन्द बसु 'बंगभाषा के साहित्य चिन्ता' नामक ग्रन्थ में श्रीमती राधिाका के विषय में यह लिखते हैं: -

    ''आर्यों के भक्ति शास्त्रा में एक और भी आदर्श प्रेम है, राधाा उस प्रेम की प्रतिमा हैं, गोपियाँ उस प्रेम की सहचरी हैं। राधिाका मधाुर गोपिका प्रेम का प्रकृष्ट निदर्शन हैं। पति - पत्नी का प्रेम जहाँ तक उन्नत हो सकता है, उस उन्नतावस्था को राधिाका का प्रेम पहुँचकर कृष्ण भक्ति से परिपूर्ण हो गया था, इसी से इस भक्ति का नाम प्रेमा भक्ति है। दाम्पत्य प्रेम की परिपूर्णता भगवान को समर्पण करना ही उसका उद्देश्य है, क्योंकि भगवान ही प्राणवल्लभ हैं। राधिाका और गोपियों के अतिरिक्त और कोई नहीं कह सकता कि भगवान हमारे प्राणवल्लभ हैं। सत्यभामा ने ऐसा कहा था, पर राधिाका - प्रेमी कृष्ण ने उनका दर्प चूर्ण करदिया था। सत्यभामा का प्रेम दर्पित भक्ति का रूप था, वह राधिाका की आत्म - समर्पणकारिणी प्रेमा भक्ति की तुलना नहीं कर सकता। रुक्मिणी की भक्ति में प्रेम की मधाुरता दाम्पत्य प्रेम की मधाुरता में मिल गयी थी, जिससे उनका प्रेम पूर्णता को प्राप्त हो चुका था। राधिाका उसी प्रेमभक्ति में उल्लसिनी कृष्णलीलामयी हो गयी थी। उसके लिए कृष्ण का प्रेम ही संसार था, वही उनका सर्वस्व था। कृष्ण ही राधाा के धान, सुख और चिन्ता थे, वह श्याम के ही प्रेम से मुग्धा थी। ''

    हमारे शृंगार शास्त्रा में परकीया का क्या पद है, आशा है स्पष्ट हो गया, मुझको यह कहते कष्ट होता है कि कुछ अनधिाकारी हाथों में पड़कर वह मलिन हो गया है, फिर भी बहुत कुछ सुरक्षित है। सिध्दान्त के ही विषय में वाद हो सकता है, किसी व्यक्ति विशेष के स्खलन पर नहीं। पाश्चात्य विद्वान प्राय: 'कु' 'सु' के फेर में नहीं पड़ते। जो कुछ विश्व में हो रहा है, उसको वे यथा - तथ्य सामने लाते हैं, उनको देखकर द्रष्टा की दृष्टि तत्तवावधाान कर सकती है और समाज उनके विषय में हंस प्रवृत्तिा से समयानुसार काम ले सकता है। इस आदर्श को मान लेने पर बहुत से झगडे मिट जाते हैं और समय के हाथ में ही समस्तकर्तृत्व आ जाता है। शृंगार रस के विषय में भी यदि इस आदर्श से काम लें, तो विशेष तर्क - वितर्क नहीं रह जाता। आवश्यकतानुसार उसमें संशोधान - परिवर्धान हो सकताहै।

    मैं जो कुछ शृंगार रस के विषय में लिख रहा हूँ, उसका उद्देश्य इतना ही है कि रस विप्लव काल 'कु' के साथ 'सु' का भी संहार न हो जावे। मेरा विचार है कि आर्य संस्कृति के संरक्षण से ही भारत का मुख उज्ज्वल होगा, अतएव उस संस्कृति के अनुकूल जितनी बातें हैं, उनका परित्रााण आवश्यक है। शृंगार रस का महत्तव मैं पहले प्रकट कर चुका हूँ, अयथा व्यवहार प्रत्येक विषय का, आपत्तिाजनक है। शृंगार - रस का भी दुरुपयोग हुआ है, वह निन्दनीय है, उसका मैं विरोधा करता हूँ, किन्तु कलंक दिखाकर मयंक की महत्ताा से मुँह मोड़ना संगत नहीं। शृंगार - रस का सृजन अथवा उसकी कल्पना जिस उदात्ता विषय को सामने रखकर हुई है, उसे न भूलना चाहिए। कला अथवा ललित कला क्या है? उसकी सीमा अथवा व्याप्ति कहाँ तक है, इसका विचार सदैव रखना चाहिए। इस विषय में पहले बहुत कुछ लिख आया हूँ। कला पर, संसार की प्रगति पर सामाजिक व्यापार अथ च लोक प्रणाली पर दृष्टि रखकर शृंगार - रस का अनुशीलन करने से ही तत्तवानुसंधाान हो सकेगा, अन्यथा पद - पद पर पतन होगा। जो शृंगार - रस की कविता कला की परिधिा से बाहर है, जिसमें दुर्वासनाओं का ही अकाण्ड ताण्डव है, न तो वह अनुमोदनीय है और न मैं उसका अनुमोदक हूँ।

    ब्रजभाषा साहित्य में इस प्रकार की कविताएँ नहीं हैं, यह मैं नहीं कह सकता, परन्तु कथन यह है कि क्या विष के भय से साहित्य समुद्र के रत्नों का त्याग समुचित होगा? विशेष करके उस अवस्था में जब हमारा शिव संकल्प असावधाान नहीं। मैं कुछ रत्न आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ। शृंगार रस की स्वकीया नायिका का आदर्श इतना ऊँचा है, वह इतनी विशाल हृदया, इतनी सहानुभूतिमयी, और इतनी उदात्ता चरित्राा है कि भारतवर्ष को छोड़कर अन्य देशों में प्राय: ऐसी महिलाओं का अभाव - सा है, उसका स्वरूप देखिए -

       छिति छमता की परिमिति मृदुता की कैधाौं,

            ताकी है अनीति सौति जनता की देह की।

       सत्य की सता है सील तरु की लता है,

            रसता है कै विनीत पर जीत निज नेह की।

       भनत कविन्द सुर नर नाग नारिन की,

            सिच्छा है कि इच्छा रूप रच्छन अछेह की।

       पति ब्रत पारावार वारी कमला है,

            साधाुता की कैसिला है, कै कला है कुल गेह की। 1

 

       चन्द मुख की ही बनी रहति चकोरिका है,

            सरस सनेह स्वाति बूँद की है चातकी।

       प्यारी तन कारो करि राखत नयन तारो,

            वारति गोराई वापै गोरे - गोरे गातकी।

       'हरिऔधा' औगुनी की औगुनहू गुन होत,

            देतिहै कुबात हूँ को उपमा न बातकी।

       पात लौं हिलति पतिघात सिरपै है होति,

            पातक निरत पतिहूँ को कहै पातकी। 2

 

       सेवा ही में सास औ' ससुर की सदैव रहै,

            सौतिन सौं नाहिं सपनेहूँ में लरति है।

       सील सुघराई त्यों सनेह भरी सोहति है,

            रोस रिस रार ओर क्यों हूँ ना ढरति है।

       'हरिऔधा' सकल गुनागरी सती समान,

            सूधो - सूधो भायन सयान पतरति है।

       परम पुनीत पति प्रीति में पगी ही रहै,

            प्रानधान प्यारे पै निछावर करति है। 3

    आर्य जाति की स्त्रिायों में पति की मर्यादा का कितना धयान रहता है, इसके अनेक उदाहरण शृंगार रस के ग्रन्थों में मौजूद हैं, उनको पढ़िए तो ज्ञात होता है कि शृंंगार रस की रचनाओं में भी आर्य संस्कृति का कितना उच्च आदर्श विद्यमान है। जिस कविता को पढ़िए उसी में आर्य ललनाओं के धाीर गंभीर और उदात्ता भावों का सुन्दर प्रवाह सूक्ष्म रूप में बहता मिलता है। वे क्रोधा में भी संयत रहती हैं और कटु होने पर भी स्त्राी - जाति के हृदय की स्वाभाविक कोमलता का त्याग नहीं करतीं। एक उदाहरण लीजिये -

       फूलनसों बाल की बनाई गुहीं बेनी बाल,

               भाल दीन्हीं वेंदी मृगमद की असित है।

       अंग अंग भूखन बनाइ बृज भूखन जू,

               बीरी निज कर ते खबाई करि हित है।

       ह्नै कै रस बस जब दीवे को महावर के,

               सेनापति श्याम गहृाो चरन ललित है।

       चूमि हाथ नाह के लगाइ रही ऑंखिन सो,

               कही प्रानप्यारे यह अति अनुचित है।

    देखी आपने आर्य ललना की मर्यादा, साधाारण हासविलास और क्रीड़ा में भी वह अपने पति को अपना चरणस्पर्श कराना पाप समझती है। और यह दृश्य आपको एक शृंगार - रस की कविता में देखने को मिलता है; अन्य स्थान पर मिल भी नहीं सकता था। ऐसी ही सर्वाभिमुखी और देशव्यापिनी शिक्षाओं से दाम्पत्य - धार्म सुरक्षित रहता है। इस कविता की व्यंजना कितनी भावमयी और शिक्षाप्रद है, इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। पाश्चात्य स्त्रिायाँ तो अपने सबूट चरण को पतिदेव के युगल हाथों पर रखकर घोडे पर से उतरने ही में अपना गौरव समझती हैं। दुर्भाग्य से हमारे देश में भी इस प्रकार की बातों का अनुकरण होने लगा है। कौन मार्ग समुचित और मगंलमय है, इसको समय ही बतलावेगा।

    प्राय: कहा जाता है, कि भारतीय - सभ्यता स्त्राी - जाति के विषय में उदार नहीं है, यहाँ की पुरुष - जाति स्त्राी - जाति का सम्मान करना नहीं जानती; यह वृथा लांछन है। जहाँ के महापुरुषों के ये महावाक्य है -

प्रत्यक्ष देवता याता जाया छाया स्वरूपिणी।

स्नुषा मूर्तिमती प्रीति: दुहिता चित्ता पुत्ताली।

यत्रा नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रा देवता:।

    उनके विषय में ऐसा कहना सत्य नहीं है। एक शृंगार - रस का उदाहरण भी लीजिये - शृंगार - रस में पति - प्रेम - गर्विता एक नायिका कहती है -

सपने हूँ मन भावतो, करत नहीं अपराधा।

मेरे मन ही में रही, सखी - मान की साधा।

    एक कुलीन ललना का आत्मत्याग देखिए - उसका पति नपुंसक है। गुरुजन उससे दूसरा विवाह कर लेने को कहते हैं, पर वह अपने ही को बन्धया बतला कर पति के कलंक का परिहार करती है। कविवर बिहारीलाल किस सहृदयता से कहते हैं -

ुरुजन दूजे ब्याह को, नित उठि कहत रिसाय।

पति की पति राखति वधाू, आपुन बाँझ कहाय।

    आज - कल का समय तो उसको महामूर्ख कहेगा। कहे, परन्तु 'जहाँ सच्चा प्रेम है, वहाँ त्याग है' यह कौन बतला रहा है? - एक शृंगारिक कवि।

    पाश्चात्य स्त्रिायों के लिए सौत की कल्पना भी प्रकंपित करती है, किन्तु भारतीय ललनाओं में इतनी सहनशीलता होती है, कि वह ''सपनेहूँ नाँहि सौतिजन सों लरति है''] वरन् ''अपने सुहाग भरे भाल पै लगाइ भटू सौतिन की माँगहू में सेन्दुर भरति है। '' इसका पता हमको शृंगार - रस ही देता है। कहा जा सकता है, कि यह कवि - कल्पना है। मैं कहूँगा - कुलीन घरों में जाकर देख लीजिये, ऐसी महान् हृदया स्त्रिायों का अभाव अब भी नहीं हुआ है। फिर जब तक समाज में किसी भाव का प्रचलन न होगा, तब तक कवि - लेखनी से उस भाव की प्रसूति कैसे होगी? साहित्य; समाज के आचार - व्यवहार का ही प्रतिबिम्ब तो होता है। जिस दशा को देखकर पाश्चात्य स्त्रिायाँ 'डाइवोर्स' करने को तैयार हो जाती हैं, ऐप्लीकेशन लेकर कोर्ट में दौड़ जाती हैं, उस अवस्था में भी हमारी कुल बालाएँ कितने संयम से काम लेती हैं, यह भी हमको हमारी शृंगार - रस की रचनाएँ ही बतलाती हैं। मधयाधाारी - धीरा पति को अपराधाी पाकर मान भी नहीं करती; केवल ऑंखों में जल ही भर लेती है। मतिराम कहते हैं -

तुमसों कीजै मान क्यों, बहु नायक मन रंज।

बात कहत यों बाल के, भरि आये दृग कंज।

    कहा जा सकता है कि यह स्लेवरी (Slavery) है। मैं कहूँगा - चित्ता की उच्चता है। वास्तव में बात यह है, कि शृंगार - रस की कविताओं में स्त्राी - पुरुष के अनेक मानसिक - भावाें का इतना सूक्ष्म चित्राण और प्रकटीकरण है कि वह ललित - कला की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। यह दूसरी बात है कि रुचि वैचित्रय के कारण कोई उसको आदर की दृष्टि से न देखे। शृंगार - रस में अथवा संसार क्षेत्रा में दो ही नायिकाएँ प्रधाान हैं - स्वकीया और परकीया। मैंने दोनों के ही अनेक चित्रा आप लोगों के सामने उपस्थित कर दिए। तीसरी नायिका गणिका का स्थान गौण है, वह आदर की दृष्टि से नहीं देखी जाती, उसका निरूपण भी बहुत कम है और अनादर के साथ ही किया गया है। ''नाथ! हमें तुमें अन्तर पारत हार उतारि इतै धारि राखौ'' ऐसे वाक्यों से उसकी स्वार्थपरता का ही प्राय: उल्लेख मिलता है। इन वाक्यों से लम्पट पुरुषों की ऑंखें भी खुल सकती हैं, इसलिए उसकी चर्चा ही क्या?

    आर्य - सभ्यता अथवा शृंगार - रस के शासन में हमारी कुल - ललनाओं का क्या स्वरूप है, उसके कुछ चित्रा आप सज्जनों ने देखे। आजकल पाश्चात्य - सभ्यता की बड़ी धाूम है, धाीरे - धाीरे उसका प्रवेश हमारे अंग - प्रत्यंग में हो रहा है। आइए, देखें महिलाओं का स्वरूप इस सभ्यता में क्या है? इससे लाभ यह होगा कि दोनों की तुलना करके आप समझ सकेंगे कि आप का शृंगार - रस, जो आजकल अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता, क्या वास्तव में इसी योग्य है? श्रीयुत पूर्णचन्द बसु जिनका उल्लेख मैं ऊपर कर आया हूँ, अपने ''साहित्य चिन्ता'' नामक प्रसिध्द ग्रन्थ ही न यह लिखते हैं -

    ''पाश्चात्य साहित्य में केवल सख्य - प्रेम है, उस सख्य - प्रेम में आर्य्य नारी की - सी भक्ति नहीं, सती का नि:स्वार्थ, एकनिष्ठ, आकांक्षारहित, गौरवपरिपूर्ण प्रेम नहीं। उस प्रेम में विश्वस्त प्रेमालाप है, मधाुरता है, साथ ही दर्प और अभिमान भी है। उसमें आर्य्यनारी का वह भक्तिमय, एकनिष्ठ पुण्य प्रतिबिम्ब नहीं है, जिससे प्रेम पवित्रा और देवोचित होता है। उसमें मानव प्रकृति का आनन्द है, किन्तु देव प्रकृति का सौंदर्य्य नहीं है। ''

    ''उसका प्रेम - सौन्दर्य्य अनेक स्थानों में इन्द्रिय - लालसा के विलास - क्षेत्रा में ही प्रस्फुटित हुआ है, उसमें प्रेम - नदी विलासिता से कलुषित होकर बह रही है। आसक्तिपरिपूर्ण काम ने प्रेम की विशुध्द नदी को कलुषित कर दिया है। उसमें मानव - प्रकृति का पाशव - भाव इतना प्रबल है कि उसमें प्रकृति का देव - भाव एक दम निर्बल हो गया है। ''

    भारत की सभ्यता में उक्त भावों का प्रवेश होने से क्या बुरा परिणाम हो रहा है, इसको प्रसिध्द कवि अकबर के मुख से सुनिए। वे कहते हैं -

अग़राजश् बढ़ गया है, आराम घट गया है।

ख़िदमत में है वो लेजश्ी, वो नाचने में रेडी।

तालीम की ख़राबी से हो गई विल् आख़िर।

शौहर पसन्द बीबी, पबलिक पसन्द लेडी।

    ब्रजभाषा की कुत्सा क्यों होती है? इसीलिए कि वह शृंगार - रस से ओत - प्रोत है। उसमें शृंगारिक - विषयों के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, मैं इसका निराकरण कर आया हूँ और बतला चुका हूँ कि उसमें क्या नहीं है? उसमें उच्च से उच्च कोटि का साहित्य है और उसका परिणाम शृंगार - रस सम्बन्धाी कविता - ग्रन्थों से कहीं अधिाक है। इसके उपरान्त मैंने निवेदन किया है कि जिस शृंगार - रस के कारण आप ब्रजभाषा को हिन्दी - साहित्य - संसार में कोई स्थान नहीं देना चाहते, वह शृंगार - रस क्या है? मैं नहीं कह सकता, उसके विषय में जो मेरी सम्मति है, वह कहाँ तक स्वीकृत होगी। किन्तु फिर भी मैं यह कहने के लिए बाधय हूँ कि जो सत्य है, शिव है, सुन्दर है, उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। हम जिस सभ्यता का आह्नान कर रहे हैं और जिसके प्रभाव से प्रभावित होकर शृंगार - रस को वक्र - दृष्टि से देख रहे हैं, उस सभ्यता का चित्रा भी आपकी ऑंखों के सामने आ चुका है। संभव है, आप उसको अवास्तव समझें, परन्तु मैं यह कहने के लिए विवश हूँ कि अपनी संस्कृति और अपने भावों का संहार करके संसार में कोई जाति जीवित नहीं रह सकी। ब्रजभाषा में रत्न भरे पड़े हैं; वे आपके हैं, आप उनको धाारण करके संसार के सामने सगर्व खडे हो सकते हैं, उनसे आपकी शोभा होगी! यदि उनमें कोई असामायिक हों, उनको अलग कर दीजिये। जो उनके अधिाकारी हों, उनसे प्रेम करते हों, उनको उन्हें दे दीजिये। उनके नष्ट करने का उद्योग न कीजिए। एक - देशी विचार अच्छा नहीं, व्यापक और सर्व - देशी विचार ही उदात्ता होता है और उसी से सब प्रकार की भलाइयों की आशा हो सकती है। अब दूसरे आक्षेप को लेता हूँ।

    2 - वह जरा जीर्ण है; अतएव निर्जीव है, उसके शब्द तक घिस गये हैं; इसलिए उसमें ओज नहीं, अनेक शब्द उसके द्वारा बेतरह तोड़े - मरोड़े जाते हैं।

    यदि ब्रजभाषा जरा - जीर्ण है, तो खड़ी बोली भी जरा - जीर्ण है। खाड़ी बोली भी उतनी ही प्राचीन है, जितनी ब्रजभाषा। सौर - सेनी अपभ्रंश से दोनों ही की उत्पत्तिा है। भक्ति पथ - पथिक नामदेवजी विक्रम सम्वत् के बारवें शतक के अन्त में हुए हैं, वे लिखते हैं - 'पाँडे तुमरी गाय भी लोधो का खेत खाती थी। ' इस पद्य में स्पष्ट खड़ी बोली का व्यवहार देखा जाता है। चौदहवें शतक में खुसरो हुए, जिस प्रकार वे अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार खड़ी बोली का भी। नीचे के पद्य इस बात के प्रमाण हैं -

एक नार तरवर से उतरी माँसों जनम न पायो।

बाप को नाँव जो वासों पूछयो आधाो नाँव बतायो।

चार अंगुल का पेड़ सवा मन का पत्ताा।

फल लगे अलग - अलग पक जाय इकट्ठा।

    खुसरो के दो सखुनों में तो खड़ी बोली का बड़ा सुन्दर प्रयोग है - एक देखिए - रोटी जली क्याें? घोड़ा अड़ा क्यों? पान सड़ा क्यों? फेरा न था।

    खुसरो की हिन्दी भाषा की अधिाकांश रचनाआें में खड़ी बोली का ही प्रयोग मिलता है। नौटंकियों के गीतों में - चौबोलों में - अधिाकांश खड़ी बोली का व्यवहार देखा जाता है, इसलिए उसकी आधाुनिकता स्वीकार नहीं की जा सकती। हिन्दी भाषा साहित्यकार भी यही लिखते हैं -

    ''ब्रज और अवधाी के ही समान प्राचीन होने पर भी खड़ी बोली साहित्य के लिए इतना शीघ्र स्वीकृत नहीं हुई। यद्यपि बहुत प्राचीन काल से ही वह समय - समय पर उठ - उठकर अपने अस्तित्व का परिचय देती रही है'' पृष्ठ 75

    जो कुछ कहा गया उससे स्पष्ट है कि ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों सम - व्यस्यका हैं, फिर ब्रजभाषा जरा - जीर्ण क्यों? यदि पीछे पड़ी हुई खड़ी बोली खड़ी होकर अपना शिर उन्नत कर सकती है, तो ब्रजभाषा को भी ऐसा करने का स्वत्व प्राप्त है। यदि उसी की समान अवस्था वाली खड़ी बोली में जीवन है, तो ब्रजभाषा निर्जीव क्यों? विशेषकर उस अवस्था में जब वह भी उसी के समान प्रान्त विशेष में आज भी बोली जाती है। ऐसा कहकर मैं खड़ी बोली की वर्तमान कालिक व्यापकता और उसके राष्ट्रीय समादर की उपेक्षा नहीं कर रहा हूँ और न उसकी उपयोगिता पर दृष्टिपात करने से संकुचित होता हूँ। प्रत्युत उसके उत्कर्ष के आधाार से ही यह दृढ़ता पूर्वक कथन करता हूँ कि 'यदि उतनी ही प्राचीन होने पर भी खड़ी बोली समुन्नत हो सकती है, तो केवल जरा - जीर्णता का कलंक लगाकर ब्रजभाषा के समुन्नति पथ में काँटे नहीं बोए जा सकते। यदि काल खड़ी बोली की सजीवता का बाधाक नहीं है, तो ब्रजभाषा की निर्जीवता का हेतु क्यों होगा? वास्तव बात यह है कि ब्रजभाषा न तो जरा - जीर्ण है और न निर्जीव। आज भी उसकी सजीवता अनेक साहित्यिक भावों को जीवन प्रदान कर रही है और आज भी उसके ग्रंथों का बहुल प्रचार, उनका पुनरुध्दार और संकलन उसकी जीवनी ज्योति के प्रकाश मान स्तम्भ हैं। ऐसी अवस्था में उसे जरा जीर्ण कहकर निर्जीव बनाना सत्य का अपलाप करना है।

    भाषा के इतिहास में हजशर - दो हजशर वर्ष का जीवन - काल अत्यन्त अल्प है। विशेष अवस्थाओं को छोड़कर इतना काल तो उनको प्रौढ़ता प्राप्त करने में लगता है। भारतवर्ष की जो प्राकृत भाषाएँ चिर - जीवन लाभ कर आज किसी प्रान्त अथवा प्रदेश की बोल - चाल की भाषा भी नहीं हैं, उनका अस्तित्व भी अब तक है। वे आज भी निर्जीव होकर सजीव हैं। आज भी कराल - काल उनकी जीवनी धाारा को लुप्त नहीं कर सका है। जो संस्कृत भाषा कुछ विकृत मस्तिष्कों द्वारा आज मृतक मानी जाती है, भारत में आज भी उसका कल - कलनाद विश्रुत है, आज भी उसकी कीर्ति दिग्दिगन्त व्यापिनी हैं। आज भी करोड़ों भक्त भारतवर्ष में ही नहीं, यूरोप में भी उसकी समर्चना में लग्न हैं। फिर ब्रजभाषा जैसी जीवित और सशक्त भाषा को जरा - जीर्ण बनाकर निर्जीव बतलाना कहाँ तक युक्ति संगत है, इसको सहृदय सुजन स्वयं विचारें।

    कुछ लोगों का विचार है कि ब्रजभाषा के शब्द बहुत घिस गये हैं, इसलिए उसमें ओज नहीं मिलता। यदि यह सत्य है, तो जितनी प्राकृत भाषाएँ अथवा बँगला इत्यादि प्रचलित भाषाएँ हैं, वे सब ओजहीन हैं, क्योंकि उनमें संस्कृत के घिसे हुए शब्दों का बाहुल्य है। ऐसी अवस्था में तो बेचारी खड़ी बोली कहीं की न रहेगी, क्योंकि उसका बोलबाला तो हिन्दी - भाषा से ही है। हिन्दी क्या है? बार - बार घिसे हुए शब्दों का समूह मात्रा। मुँह, ऑंख, कान, नाक, हाथ - पाँव, इत्यादि घिसे हुए शब्द ही हैं, जो काल प्रवाह में पड़कर इस दशा को प्राप्त हुए हैं, उनके स्थान पर मुख, अक्षि, कर्ण, हस्त आदि लिखकर जो भाषा को ओजमयी बनाना चाहते हैं, अथवा उसको सजीवता प्रदान करते हैं, वे हिन्दी देवी के कण्ठ पर कुठार रखते हैं और बोल - चाल की भाषा का सर्वनाश करते हैं। मेरा यह अभिप्राय नहीं कि संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग ही न किया जावे, अवश्य किया जावे, किन्तु यह स्मरण रखा जावे कि हिन्दी भाषा तद्भव शब्दों से ही बनी है, उसके अभाव में हिन्दी - हिन्दी न रह जावेगी और कुछ बन जावेगी। साथ ही यह भी समझ लिया जावे कि बोल - चाल में ही भाषा का स्वरूप विद्यमान रहता है, जब उसका त्याग किया जाता है, तो गढ़ी भाषा में कृत्रिामता आ जाती है, जो स्वाभाविक नहीं कही जा सकती। ब्रजभाषा में अधिाकांश शब्दों का प्रयोग उसी रूप में किया जाता है, जिस रूप में वे उस भाषा में बोले जाते हैं। जो तत्सम शब्द उसमें संस्कृत के अथवा अन्य भाषा के आते हैं, उसके लिए नियम है, प्रयोग के समय इस नियम का पालन किया जाता है। फिर उस पर घिसे शब्दाें के प्रयोग का लांछन क्यों लगाया जाता है? साहित्य - शास्त्रा के नियमानुसार टवर्ग और संयुक्त वर्णों का प्रयोग श्रुति कटु माना गया है। विशेष रसों को छोड़कर अन्य रसों में उनका प्रयोग दूषित है। कोमल कान्त पदावली ही कविता का शृंगार है। वैदर्भी रीति ही रचना की रीढ़ है। ब्रजभाषा में इन्हीं नियमों का प्रतिपालन है, फिर भी उस पर उँगली उठाई जाती है, ऐसी दशा में सिवा इसके और क्या कहें कि यह रुचि वैचित्रय है।

    आजकल उच्छृंलता, अनियम और यथेच्छाचार का प्रवाह बह रहा है। साहित्य क्षेत्रा उससे सुरक्षित नहीं, न व्याकरण की परवा, न बोल - चाल की चिन्ता। न मुहावरों पर दृष्टि, न वाक्य - विन्यास पर धयान। जिसको देखो वह अपने रंग में मस्त, किसी की कोई सुनता नहीं। इतना ही नहीं, वे जो लिख दें, वही ठीक। जो कह दें, वही सत्य। यदि कोई कुछ चूँ चरा करे, तो उसकी खैर नहीं। यदि वे उपेक्षा कर जावें, तो उनकी कृपा, अन्यथा धाज्जियाँ उड़ाकर रख देंगे। उनके हाथ से न तो स्वर्गीय साहित्य सेवी छूटते हैं, न उनकी प्यारी ब्रजभाषा और न उनके अनुरागी। वे श्रुति कटु शब्द लिखें, चार - चार अक्षरों के संयुक्त वर्ण लिखें, अधिाकतर संस्कृत समस्त शब्दों का प्रयोग करें, ऍंगरेजी के मुहावरों का यथा - तथ्य अनुवाद रखकर अपनी रचनाओं को जटिल से जटिल बना दें, यह सब ठीक, परन्तु ब्रजभाषा अवश्य निन्दनीय है। इसलिए कि वह सरल है, सुबोधा है, थोडे शब्दों में अपने भावों को प्रकट करती है, और है कोमल कान्त पदावली - मयी। जो उसास को निन्दा करके उच्छ्वास लिखना अच्छा समझते हैं; वे दूसरे की ऑंख का तिनका तो देखते हैं, परन्तु अपनी ऑंख की शहतीर उन्हें नहीं दीखती।

    भ्रम प्रमाद किस में नहीं, अहंभाव किस से छूटा, अपनी रचना किसे प्यारी नहीं, अपने विचारों का समर्थक कौन नहीं? ऐसी अवस्था में आत्मप्रशंसा से कौन बच सकता है? यह भाव क्षम्य हो सकता है। परन्तु अपनी भ्रान्तियों और अपनी अक्षमताओं पर परदा डालने के लिए ऑंखों में उँगली करना, अन्यों पर वृथा कीचड़ उछालना, एक सुन्दर और परिष्कृत भाषा पर कलंक पंक निक्षेप करना, उसे कमर कसकर वृथा कोसना समुचित नहीं। मेरा विचार है कि ब्रजभाषा की कलित - ललित पदावली यह कहने से कि उसके शब्द घिसे हुए हैं, कदापि कलंकित नहीं हो सकती। यह अयथा प्रलाप मात्रा है।

    अब मैं इस बात पर विचार करूँगा कि क्या वास्तव में ब्रजभाषा में ओज नहीं है? ओज क्या है? काव्य प्रकाशकार यह लिखते हैं कि - 'चित्तास्य विस्तार रूप दीप्तत्व जनकमोज:'' साहित्य दर्पणकार यह कहते हैं -

''ओजश्चित्तास्य विस्तार रूपं दीप्तत्वमुच्यते।

वीर वीभत्स रौद्रेषु क्रमेणाधिाक्यमस्यतु। ''

    ''चित्ता का विस्तार स्वरूप दीप्तत्व ओज कहलाता है, वीर बीभत्स और रौद्र रसों में क्रम से इसकी अधिाकता होती है। ''

    प्रदीपकार कहते हैं - ''यद् वशाद् ज्वलितमिव मनो जायेत् तदोज इत्यर्थ:'' 'जिससे मन ज्वलित हो जाता है, उसे ओज कहते है। ' ज्वलित की व्याख्या एक संस्कृत विद्वान् ने यों की है - 'यथा सूर्य कान्तस्य सूर्य रश्मि सम्बधोन। ' अर्थात् जैसे सूर्य कान्तमणि सूर्य की किरणों को पाकर ज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार जिसके द्वारा मन अथवा चित्ता जग उठे, या उत्तोजित हो जाए उसको ओज कहते हैं। चित्ता विस्तार स्वरूप दीप्तत्व का अर्थ भी यही है। चित्ता का विस्तार कब होता है, जब वह विकसित हो उठता है। वह दीप्त कब होता है, जब उसमें तेज आ जाता है। इसलिए इस सिध्दान्त पर उपनीत होना पड़ता है कि जिन रचनाओं को श्रवण कर हृदय विकसित हो उठे, उसमें एक प्रकार की स्फूर्ति और तेज आ जावे, उन्हीं को ओजमयी कहा जा सकता है। ऐसी रचनाएँ प्राय: वीर और रौद्ररस की होती हैं, क्योंकि इन रसों में उत्तोजना अधिाक होती है। क्या कोई यह कह सकता है कि ब्रजभाषा में इस प्रकार की रचनाएँ नहीं हैं? मैं तो कहूँगा कि वीररस और रौद्ररस की पर्याप्त रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं। वीर रस के आचार्य भूषण ब्रजभाषा के ही कवि हैं, उनकी ओजस्विनी रचना से कौन अपरिचित है। उन्हीं की रचनाओं ने वीरवर शिवाजी के उत्साह - अग्नि में घृत का काम किया था। आज भी उनकी रचनाओं को सुनकर निर्जीव नसों मे उष्ण रक्त प्रवाहित होने लगता है। शिवाजी ने उनके मुख से बावन बार निम्नलिखित कवित्ता को सुना, फिर भी तृप्ति न हुई -

       ''इन्द्र जिमि जंभपर बाड़व सुअंभ पर,

             रावण सदंभ पर रघुकुल राज है।

       पौन वारि वाह पर संभु रति नाह पर,

             ज्यों सहò बाहु पर रामद्विज राज है।

       दावा द्रुम दंड पर चीता मृग झुण्ड पर,

             'भूखन' वितुंड पर जैसे मृगराज है।

       तेज तम अंस पर कृष्ण जिमि कंस पर,

             त्यों मलेच्छ बस पर शेर शिव राज है।

    गुरु गोविन्द सिंह विरचित दशम ग्रन्थ साहब में वीर रस की अपूर्व रचनाएँ हैं - विशेष कर चण्डी - चरित्रा में तो वीर रस का प्रवाह बह रहा है। महाराज रघुराज सिंह विरचित आनन्दाम्बु - निधिा और सबल सिंह चौहान कृत महाभारत में भी वीर रस की ओजमयी कृतियाँ हैं। लाल कवि कृत छत्राप्रकाश और सूदन कवि रचित सुजान चरित्रा भी वीर - रस पूर्ण हैं। वीर - रस के साहित्य में भूषण के बाद लालकवि और सूदन का ही स्थान है। सहृदय वियोग हरि ने अपनी 'वीर सतसई' में वह ओज दिखलाया है कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन को आहिस्ता से उनको बारह सौ मुद्राएँ गिन देनी पड़ीं, फिर भी कहा जाता है कि ब्रजभाषा में ओज कहाँ।

    एक बात और है। वह यह कि जो समझते हैं कि संयुक्त वर्णों और कर्कश शब्दों में ही वीर एवं रौद्र रस लिखा जा सकता है, वे भूलते हैं। जो लोग ऐसा सोचते हैं, उनकी दृष्टि में शब्द प्रधाान हैं भाव नहीं। इस विचार में एकदेशिता है विशेषज्ञता नहीं। उनका यह विचार ही उनसे यह कहलाता है कि ब्रजभाषा के घिसे शब्दों में वह बल कहाँ कि उसमें ओज उत्पन्न किया जा सके? यह सच है कि वीर रस के लिए भाषा ओजस्विनी होनी चाहिए, किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि कठोर कर्कश एवं संयुक्त वर्णों की उसमें भरमार हो। जहाँ ऐसा किया जाता है, वहाँ प्राय: कविता भाव - हीन हो जाती है और उसमें शब्द चित्रा - मात्रा रह जाता है। उनके पठन करने से रण वाद्य इत्यादि का नाद और खंड एवं बाण प्रहार आदि का रव, वीरों का गर्जन, तोपों की गड़गड़ाहट, रण कोलाहल आदि का अनुभव कानों द्वारा अवश्य हो जाता है। और रणोन्माद का कुछ दृश्य भी समाने आ जाता है, परन्तु जैसा चाहिए वैसा आवेश हृदय में नहीं होता। और न वीर रस की धाारा रग - रग में बहने लगती है। कारण इसका यह है कि उस में कर्ण की सामग्री होती है हृदय की नहीं। रण का बाहरी दृश्य होता है, वीरों के आन्तरिक विकास का भाव नहीं। उसमें अभिधाा शक्ति की लीला दृष्टिगत होती है, व्यंजना की नहीं, जो कविता की जान है। शब्द चित्रा के साथ जिसमें सुन्दर व्यंजना होती है, वही कविता प्रभावशालिनी होती है और उसी के झंकार से हृदय झंकृत होता है। जब हम पढ़ते हैं -

    सस्सस्सुन धाुन, जज्जज्जकि जन, डव्व्रि डर, धाध्दध्दड़कत। अथवा तागिड़दंतीरं छुट्टे। वागिड़दं बीरं, लागिड़दं लुट्टे। तो युध्द का कुछ समां अवश्य सामने आ जाता है, परन्तु इसमें वह ओज कहाँ है कि जिससे हृदय उछल पडे अौर उसमें वह भाव भर जावे, जो रोम - रोम में वीर रस का संचार कर दे? किन्तु जब हम कविवर पद्माकर की यह रचना पढ़ते हैं -

       ''सौ है अस्त्रा ओडे ज़ेन छोड़े सीस संगर की,

             लंगर लँगूर उच्च ओज के अतंका में।

       कहै 'पदमाकर' त्यों हुंकरत फुंकरत,

             फैलत फलत फाल बाँचत फलंका में।

       आगे रघुवीर के समीर के तनै के संग,

             तारी दै तड़ाक तड़ा तड़के तमंका में।

       शंका दै दशानन को हंका दै सुबंका बीर,

             डंका दै बिजै को कपि कूद परयो लंका में। ''

    किम्बा वीर रस के आचार्य्य भूषण की इस रचना को पठन करते या सुनतेहैं -

       ''जीत्यो शिवराज सलहेरि को समर,

             सुनि - सुनि असुरन के सुसीने धारकत हैं।

       देव लोक नागलोक नरलोक गावें जस,

             अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खटकत हैं।

       कटक कटक काटि कीट से उड़ाय केते,

             'भूखन' भनत मुख मोरे सरकत हैं।

       रन भूमि लेटे अधा कटे कर लेटे परे,

             रुधिार लपेटे पठनेटे फरकत हैं। ''

तो हृदय नाचने लगता है, उसमें स्फूर्ति, उत्साह और ओज की धाारा बहने लगती है, साथ ही एक अलौकिक आनन्द की अनूभूति होती है, क्यों? इसलिए कि उसमें भाव की प्रधाानता है और यही रस का रूप है। इन दोनों पद्यों में मूर्तिवीर रस विराजमान है, यदि विचार कर देखिए तो इन दोनों पद्यों में न तो शब्दाडम्बर है, न संयुक्त वर्णों और कर्कश शब्दों का प्रयोग। विशेषकर भूषण के पद्य में फिर भी उनमें वह चमत्कार है और ऐसी सुन्दर भाव व्यंजनाएँ हैं, जो चित्ता को चमत्कृत बना देती और वीर रस के उल्लास से उल्लसित कर देती हैं। कविवर पद्माकर की रौद्र रस की एक अपूर्व रचना और सुनिए - देखिए इसमें कितना ओज है -

       ''जैसे तैं न मो सो कहूँ नेकहूँ डरत हुतो,

            तैसो अब हौ हूँ नेकहूँ न तोसों डरि हौं।

       कहै 'पदमाकर' प्रचण्ड जो परैगो तो,

            उमंड करि तोसौं भुजदण्ड ठोकि लरि हौं।

       चलो चलु चलो चलु विचलु न बीच ही ते,

            कीच बीच नीच तौ कुटुम्ब को कचरि हौं।

       एरे दगादार मेरे पातक अपार तोहि,

            गंगा के कछार मैं पछारि छार करि हौं। ''

    क्या सजीवता है! कितना बल है! इस पद्य में कितनी स्वाभाविकता और सहृदयता है! मानसिक भावों का कैसा सच्चा चित्राण है! रौद्र रस इसमें किलक रहा है, उछल पड़ता है और पद्य के एक - एक शब्द में झलक रहा है। तो भी समस्त पदों का घटाटोप नहीं, श्रुति कटु शब्दों का ताण्डव नहीं, और न है संयुक्त वर्णों का आस्फाल। सीधो - सीधो साथ ही सरस और चुने शब्दों में ऐसी सुन्दर भाव - व्यंजना की गयी है कि उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। कुछ लोगाें की दृष्टि में वे घिसे हुए हों तो हों, परन्तु मैं उन्हें बेसान चढे हीरे मानता हूँ - जिनकी ज्योति से हिन्दी साहित्य संसार उद्भासित है। मेरा विषय यह था कि वीर रस और रौद्र रस में भी भाव ही प्रधाान है, वही आत्मा है, शब्द उसके शरीर मात्रा हैं। ऐसी दशा में यदि ब्रजभाषा के शब्द घिसे मान लिये जाते, तो भी भाव की प्रधाानता होने पर उनके द्वारा हुई रचनाओं में ओज का अभाव नहीं माना जा सकता था। जब न तो उसके शब्द घिसे सिध्द होते हैं और न उसमें भाव की न्यूनता है, फिर भी उनमें ओज का अभाव बतलाना कहाँ तक संगत है, इसका अनुमान इस अयथा प्रवृत्तिा ही से किया जा सकता है।

    ब्रजभाषा और अवधाी के कवियों पर यह आक्षेप किया जाता है, कि वे यथावसर शब्दों में इच्छित परिवर्तन कर लेते और जिस रूप में चाहते हैं उनका प्रयोग करते हैं। मैं कहता हूँ कि किस भाषा के कवि ऐसा नहीं करते? पोइटिक लाइसेन्स और तसर्रुफात शायरी कहते हैं किसे? कवि कर्म सुगम नहीं, वह बहुत ही कठिन है, एक उपयुक्त शब्द के लिए कवि को कितनी उलझनों का सामना करना पड़ता है, इसको वही जान सकता है, जिसने कभी कवि कर्म किया है - एक फषरसी का कवि कहता है -

बराय, पाकिए लफष्जश्े शबे ब रोजशरन्द।

कि मुगर्शेमाही बाशन्द, खुफता ऊवेदार।

    एक शब्द को ठीक करने के लिए कवि उस रात को जाग - जागकर दिन में परिणत कर देता है, जिसमें चिड़िया और मछलियाँ भी आराम से सोती रहतीहैं।

    मिल्टन की जिस कविता का बड़ा आदर हुआ और जिसने उसको साहित्य के उच्च सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया, उसका संशोधान उसने अठारह बार किया था, आज भी वह खर्रा लन्दन के अजायब घर में सुरक्षित है।

    वास्तव बात यह है, कि जब किसी कवि को स्थान विशेष के लिए कोई उपयुक्त शब्द प्राप्त हो जाता है और बिना कुछ काट - छाँट किए उसको वह वहाँ नहीं रख सकता, तो उसे उसमें कुछ लौट - फेर करना ही पड़ता है। ऐसा करने से शब्द का रूप भले ही कुछ बदल जावे, वह कुछ दोष भी हो जावे, परन्तु उसकी उपयोगिता और उसके गुण कवि को इन बातों पर दृष्टि डालने का अवसर नहीं देते। थोड़ा परिवर्तन जब एक विशाल उपयोगिता का साधान बनता है, तो उसे कौन स्वीकार नहीं करता, कुछ कट्टर पंथी इसमें भले ही नाक - भौं सिकोड़ें। ऐसे अवसर पर यह कहा जाता है कि ऐसा करने से कवि के भाषाधिाकार में बट्टा लगता है। मैं कहता हूँ यह एक असंयत हृदय का उद्गार मात्रा है, किसी कवि के भाषाधिाकार की कसौटी इस प्रकार के कतिपय शब्द ही नहीं हो सकते।

    मेरी बातों को सुनकर यह न समझ लिया जावे कि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि ब्रजभाषा में बेतरह शब्द तोड़े - मरोडे ज़ाते हैं, नहीं, मैं स्वीकार नहीं करता, उसमें इस प्रकार का परिवर्तन किसी नियम से होता है। मैंने यहाँ उस सिध्दान्त की बात कही है जो बहुत व्यापक है। आगे चलकर मैं प्रमाण भी दूँगा, पहले ब्रजभाषा के नियमों की जाँच - पड़ताल हो जानी चाहिए। ब्रजभाषा का यह सर्वमान्य नियम है कि -

''गुरु लघु लघु गुरु होत हैं निज इच्छा अनुसार। ''

    भाव इसका यह है कि आवश्यकता पड़ने पर अथवा संकीर्ण स्थलों पर कवि अपनी इच्छा के अनुसार लघु को गुरु और गुरु को लघु कर सकता है। वह प्रयोजन पड़ने पर 'सुमुखी' को 'सुमुखि', 'देवी' को 'देवि' और 'कामिनी' को 'कामिनि' एवं पराग को 'परागा', 'विशाल' को 'विशाला' और 'आनंद' को 'आनँद' आदि लिख सकता है। जब यह परिवर्तन नियमानुकूल है, तो इसको सदोष नहीं कहा जा सकता और न यह शब्दों की तोड़ - मोड़ है।

    ब्रजभाषा की प्रकृति संयुक्त वर्णों को प्राय: स्वीकार नहीं करती, इसीलिए वह पंचम वर्णों को ऐसे अवसरों पर अनुस्वार का रूप दे देती है और अधिाकांश स्थलों पर हलन्त वर्णों को सस्वर कर लेती है। वह मú, पु×, कुण्ड, आनन्द और अम्ब के हलन्त पंचम वर्णों को पर वर्णों में मिलाकर न लिखेगी। वरन् उनको अनुस्वार बनाकर आदि के वर्णों पर स्थान देगी, वह मंगल, कुंड, आनंद और अंब लिखेगी और इस प्रकार संयुक्त वर्णों को असंयुक्त बना लेगी। वह स्नेह, धार्म, कर्म, सर्व, गर्व के हलन्त वर्णों को सस्वर कर लेगी और उन्हें सनेह धारम, करम, सरब, गरब लिखेगी। श्रुति कटुता दोष निवारण के लिए और सर्व साधाारण के उच्चारण सम्बन्धा से वह, , , , के स्थान पर अधिाकतर स, , र लिखती है। इसलिए उसमें सोक - गुण, गुन और करोड़ करोर बन जाता है। इस प्रकार के और अनेक नियम हैं, परन्तु उन सबका उल्लेख यहाँ अपेक्षित नहीं। इतना लिखकर मैंने दिग्दर्शन मात्रा किया है। इन नियमों के अपवाद भी हैं, जैसे तालव्य श सब जगह दन्त्य स बन जाता है, परन्तु श्री लिखने में अपने रूप में ही विराजमान रहता है। ब्रजभाषा के साहित्य सम्बन्धाी जो कतिपय नियम बतलाए गये हैं, उनका आधाार प्राय: बोल - चाल है, अतएव उनके अन्तर्गत जितने शाब्दिक परिवर्तन होते हैं, उनको सदोष नहीं कहा जा सकता। जब वे सदोष नहीं तो मनमानी तोड़ मरोड़ भी उनको नहीं कह सकते। यदि उनका कहीं व्यभिचार दिखलावे तो वे भ्रम अथवा प्रमाद हैं किम्वा कवि की अल्पज्ञता या उच्छृंखलता, वे प्रमाण कोटि में गृहीत नहीं हो सकते। इस प्रकार के व्यभिचार नगण्य हैं और हैं बहुत थोडे, ब्रजभाषा - साहित्य उनको अच्छा भी नहीं समझता, इसलिए उनके आधाार पर शब्दों के तोड़ने - मरोड़ने का आक्षेप उस पर नहीं हो सकता। यदि कहा जावे दोष दोष है, किसी नियम के भीतर रख लेने से वह और कुछ नहीं हो सकता, तो इसका उत्तार यह है कि भाषा की प्रकृति ही प्रधाान है, उसकी प्रकृति के अनुकूल जितने परिवर्तन किसी शब्द अथवा वाक्य में होते हैं, वही शुध्द समझे जाते हैं और इसी की रक्षा के लिए वे नियमबध्द कर दिए जाते हैं। प्राकृत और हिन्दी के व्याकरण इसके प्रमाण हैं। यदि यह तर्क किया जावे कि कवियों की निरंकुशता व्याकरण नहीं हो सकती तो मैं कहूँगा, वह व्याकरण न हो परन्तु एक प्रतिष्ठित और अधिाकारी समाज का अनुशासन अवश्य है जो अपने क्षेत्रा में व्याकरण के समान ही अधिाकार रखता है। इसी को पोइटिक लायसेन्स तसर्रुफषत शायरी और कविपरम्परा कहते हैं। इसकी व्यापकता कितनी है, उसकी प्रतिपत्तिा कहाँ तक है और किस प्रकार भाषाएँ उनसे प्रभावित हैं, मैं इसके कुछ उदाहरण भी दूँगा।

    पहले हिन्दी भाषा की सहचरी उर्दू को ही लीजिये, उसमें साकिन मुतहर्रिक का कठोर नियम होने पर भी लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बना देना बाएँ हाथ का खेल है। इस अधिाकता से इस प्रकार के प्रयोग किए जाते हैं कि कोई - कोई शेर ही उससे बच पाता है। निम्नलिखित शेर को देखिए -

दश्त से कब वतन को पहुँचूँगा।

कि छठा साल अब तो आ पहुँचा। - नासिख

    इसके अरकान हैं, 'फाइलातुन मफषइलुन फेष्लुन' अतएव दूसरे पद्य के कि को दीर्घ होना चाहिए और पहले पद्य के की और दूसरे के तो को Ðस्व, किन्तु वे हैं ऐसे नहीं। पढ़ने के समय कि को दीर्घ और की व तो को Ðस्व भले ही बना लिया जावे। ऐसा उर्दू पद्यों में अधिाकतर होता है, परन्तु अनुचित नहीं समझा जाता, क्योंकि इस प्रकार के प्रयोगों को नियम के अन्तर्गत मान लिया गया है। यदि ऐसा न किया जाता तो अरबी बÐों में हिन्दी शब्दों को लेकर उर्दू में कविता करना एक प्रकार असंभव हो जाता। यदि विचार किया जावे तो इस प्रकार का बहुल प्रयोग है अत्यन्त गर्हित, क्योंकि इस प्रणाली के ग्रहण करने से हिन्दी शब्द बेतरह विकृत होते हैं, किन्तु आवश्यकतावश इस दोष पर दृष्टि नहीं डाली गई, और नियम बनाकर उसकी व्यापकता इतनी बढ़ाई गयी कि आज उर्दू पद्य विभाग समृध्दिशाली है और उत्तारोत्तार उन्नत हो रहा है, यह तो सभी मानते हैं कि उर्दू एक मंजी भाषा है - निम्नलिखित पद्यों को भी देखिए -

यह मसाय ले तसव्वुफ यह तेरा बयान ग़ालिब।

इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा।

हम सख़न कोई न हो और हम जश्बाँ कोई न हो।

वह खाते हैं ठोकर सँभलने की ख़ातिर।

    इन पद्यों में आए, यह, पर, और एवं वह पूरे - पूरे उच्चरित नहीं होते, पढ़ने के समय यह और वह का ह एवं 'और' तथा 'पर' का र उड़ जाता है आधाा शब्द ही काम नहीं देता फिर भी इस प्रकार का प्रयोग किया जाता है। यह नहीं कि ऐसा साधाारण योग्यता के कवि ही करते हों, वरन् यह सर्वसम्मत प्रयोग है और इसे भी नियम के अन्दर कर लिया गया है। इसी प्रकार के और प्रयोग भी बतलाए जा सकते हैं, किन्तु यह बाहुल्य मात्रा होगा। उर्दू में पोइटिक लाइसेन्स को व्यापकता और प्रतिपत्तिा आप लोगों ने देख ली, अब कुछ ऍंगरेजश्ी पद्यों में उसका प्रभाव देखिए -

           And loves to live i’ the sun: Shakespere’s As you like it इस पद्य में in के स्थान पर i प्रयोग मात्रा किया गया है Crooked eclipses ‘gainst his glory: Shakespear’s Revolutions इस पद्य में against के स्थान पर केवल gainst का प्र्रयोग हुआ है -

           Fear no more the heat o the sun:

           Shakespere’s Fidele 1.1.

    इस पद्य में of के स्थान पर केवल o का प्रयोग हुआ है। A Voice so thrilling ne’er Was heard: Words-worth the Reaper L.B इस पद्य में never के स्थान पर केवल ne’er का प्रयोग हुआ है ‘‘T was partly love, and partly fear: Coleridge’s Love 1.89 यहाँ It was (इटवाजश्) के स्थान पर twas (ट्वाज) का प्रयोग हुआ है।

    मैं समझता हूँ मैंने जितने उदाहरण उर्दू और ऍंगरेजी के उपस्थित किए हैं, उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक भाषा के कवि इस प्रकार के कुछ प्रयोग करते हैं, जो व्याकरण सम्मत न होने पर भी कवि परम्परा में गृहीत होते हैं, उसकी व्यापकता और प्रतिपत्तिा भी अपने क्षेत्रा में अल्प नहीं होती। जिसने श्रीमान् महावीरप्रसाद द्विवेदी विरचित 'कालिदास की निरंकुशता' नामक पुस्तक पढ़ी है, वह समझता है कि संस्कृत भाषा में भी इस प्रकार के प्रयोग होते हैं चाहे उसका नाम निरंकुशता भले ही हो। संस्कृत के इस वाक्य से भी कि 'निरंकुशा: कवय:' इस विचार की पुष्टि होती है। यदि यह प्रणाली ऐसी है कि सब भाषाओं में ही पाई जाती है, तो इसके लिए ब्रजभाषा को ही क्यों लांछित बनाया जाता है? मैं समझता हूँ जहाँ तक इस प्रकार के सीमित और नियम - बध्द प्रयोग हैं वे कदापि कटाक्ष योग्य नहीं। उनकी कुत्सा नहीं हो सकती। जहाँ सीमोल्लंघन हुआ है, जहाँ नियम का परिपालन दृष्टिगत नहीं होता, वहाँ का प्रयोग अवश्य तर्क योग्य है। प्रति भाषा में कुछ ऐसे लेखक और कवि होते हैं, जिनका हृदय प्रवाह संयमित नहीं होता, उनका भावावेश अपनी विभिन्न गति पर ही मुग्धा रहता है। ऐसे लोगाें की प्रणाली में एक - देशिता होती है, व्यापकता नहीं। अतएव उनका व्यभिचार उन्हीं तक परिमित होता है, इसलिए उनकी रचनाओं को सामने रख कर उस भाषा ही पर आक्षेप नहीं किया जा सकता। यही बात ब्रजभाषा के विषय में भी कही जा सकती है। अब तीसरे आक्षेप को लीजिये।

    3 - उसकी उपमाएँ असंगत और अस्वाभाविक हैं, उसकी रचनाओं में ऐसी असंभव अत्युक्तियाँ हैं, जो उद्वेगजनक हैं - स्मरण आता है कि मैंने एक बार एक पत्रा या किसी पत्रिाका में कवियों की नायिका का एक चित्रा देखा था। इस नायिका के बाल के स्थान पर साँप लटकाए गये थे, भौंहाें के स्थान पर धान्वा और ऑंखों की जगह तीर रखे थे। दोनों कानों के बजाय दो सीप, नाक की जगह सूगे की ठोर, होठ के स्थान पर कुंदरू और गले के स्थान पर शंख था। दोनों बाँहों के बदले एक ओर बेलि लटक रही थी और उसके नीचे उदर की जगह एक गेंड़घराया हुआ साँप फन निकालकर बैठा था। जहाँ कमर होती है, वहाँ विकराल सिंह था और जंघों के स्थान पर दो केले के खंभे लगे थे। पास ही पाँव के स्थान पर एक मतवाला हाथी खड़ा किया गया था, जो अपनी सूँड़ से धाूल उड़ा रहा था। यह व्यंग्यमय चित्रा बनाकर उसके नीचे लिखा गया था, ''देखिए न कवियों की नायिका कितनी रूपवती है!''

    ज्ञात होता है इन्हीं या ऐसी ही बातों को लक्ष्य करके ब्रजभाषा की उपमाओं को अस्वाभाविक और असंगत बतलाया गया है। व्यंग्यचित्रा की बात तो समझ में आती है, हास्य रस की अवतारणा के लिए, यह विचित्रा कल्पना असंगत नहीं। परन्तु एक सहृदय विद्वान् अथवा सुकवि भी यदि ऐसा ही सोचता है, तो उसकी बुध्दि की बलिहारी।

    कवि सौन्दर्य्य का उपासक है, उसकी दृष्टि मधाुपावलि सौन्दर्य्य कुसुम समूह

रसास्वादन में सदा रत रहती है। उसका हृदय माधाुर्य सलिल सरोवर होता है, उसमें रसमयी लहरें सदा उठती रहती हैं। इसीलिए वह विष में से भी अमृत ग्रहण करता है और पत्थरों के हृदय में से रत्न राजि। साँप बडे सुन्दर होते हैं विशेष कर नागिनें। उनमें विलक्षण स्निग्धाता और चमक होती है, इसीलिए उनसे बालों की उपमा दी जाती है। उपमा का विशेष अंग अथवा गुण ही ग्रहीत होता है, उसमें जो सौन्दर्य्य का अंश होता है, कवि हंस प्रकृति होता है, वह दूधा लेकर पानी को छोड़ देता है। जब वह किसी भुवन - मोहिनी को देखता है, चाहे वह नायिका स्वरूपा हो अथवा प्रकृतिरूपिणी, तो उसके सौन्दर्य्य पर मुग्धा होता है और उसके अंग - प्रत्यंग की उपमा खोजने लगता है। उस समय आकार - प्रकार रंग - रूप - गुण में जो वस्तु उनके समान उसको जँचती है, वह उनसे उनकी तुलना करता है और इस प्रकार स्वयं अलौकिक आनन्द लाभ कर अन्यों को भी उसका भागी बनाता है। उपमाओं की इतिवृत्तिा यही तो है। यदि इन्द्रधानुष अथवा अन्य साधाारण सुन्दर धानु का आकार बंकिम भौहों - सा दिखलाई पड़ा और उसकी उपमा उनको दी गई, यदि आकार साम्यता के ही कारण कानों को सीप - सा, नाक को सूगे के ठोर - सा और गले को शंख - सा कहा तो इससे कवि की निरीक्षण शक्ति और भावुकता ही विदित हुई। उसमें व्यथाकारिता क्या पाई गई? सिंह के समान और सुन्दर कटि संसार में किसकी है, यदि उसके समान किसी सुन्दरी की कमर कही गई, तो इसमें क्या अनौचित्य हुआ? हाथी समान मंद गति कौन है, उसकी चाल में जो मतवालापन और मनोहरता पाई जाती है, वह और किस में है, फिर यदि किसी सौन्दर्य्य प्रतिमा के गमन की उससे उपमा दी गयी तो क्या अस्वाभाविकता हुई? ऐसी ही बातें और उपमाओं के विषय में कही जा सकती है। कवि की ये उद्भावनाएँ पुरस्कार योग्य हैं, न कि तिरस्कार योग्य। इनमें क्या असंगति है, इसको तर्ककत्तर्ाा स्वयं सोचें। मेरा विचार है, वे सोच सकते हैं और इन बातों को जानते भी हैं। किन्तु वे जानबूझ कर इस सिध्दान्त के उदाहरण बनते हैं, कि जो किसी से विरोधा करता है, वह उसके गुणों को भी अवगुण करके दिखलाता है। किसी सहृदय का यह कर्तव्य नहीं, इसके अतिरिक्त वे ऐसा करके साहित्य - शास्त्रा में अपनी अपूर्णता भी प्रकट करते हैं।

    चन्द्रमा प्रियदर्शन है, सुन्दर है, मनोहर है, स्निग्धा है, नयनरंजन है और है विकासमय, इसीलिए मुख से उसकी उपमा दी जाती है। एक विद्वान् से एक ज्ञान लव दुर्विदग्धा ने पूछा, कृपा कर बतलाइए चन्द्रमा के समान मुख क्यों कहा जाता है? जब कि वह न घटता, न बढ़ता, न उसमें बडे - बडे पहाड़ हैं, न बडे - बड़े गङ्ढे और जब वह हजशरों कोसों में फैला है। उन्होंने कहा, उपमा किसी विशेष बात की दी जाती है, उसमें सब बातों की तुलना नहीं होती। यह सुनकर प्रश्नकर्ता बोले, ऐसी अधूरी उपमा को आप अपने घर रखिए, कौन समझदार ऐसी बेढंगी बातों को मानेगा? विद्वान् सुनकर हँस पडे, क्योंकि ऐसी बातों का क्या उत्तार हो सकता है।

    स्थान संकोच है, अतएव मैं अन्य भाषाओं से तुलना करके यह नहीं दिखला सकता कि हमारी उपमाएँ कितनी उच्च कोटि की और स्वाभाविक हैं। परन्तु मैं यह विदित करने के लिए बाधय हूँ कि जिन उपमाओं को ब्रजभाषा की बतला कर उसकी कुत्सा की गयी है, वे भारतीय साहित्य की हैं, ब्रजभाषा की नहीं। क्या संस्कृत, क्या प्राकृत, क्या द्रविड़ आदि अनार्य भाषाएँ सब में उसी का साम्राज्य है, इसलिए उसकी निन्दा करना भारतीय संस्कृति की निन्दा करना है। मैं देखता हूँ कि विपक्षी भी उन्हीं की ओर आकर्षित है और वैसे ही उसके चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं, जैसे सर्ूय्य के चारों ओर पृथ्वी। जिस दिन यह नौबत आवेगी कि वे इन्हें धाता बताकर अपना नवीन आविष्कार उपस्थित करेंेगे, मेरा विचार है कि उस दिन भी उनकी लालायित ऑंखें इन्हीें की ओर लगी रहेंगी। जो विशेषतायें इनमें हैं, वे व्यापक हैं उनका सर्वथा त्याग असंभव है। यदि कहा जावे कि उपमाओं से मतलब इन उपमाओं से नहीं, वरन साहित्य सम्बन्धाी अन्य उपमाओं से है तो मैं कहूँगा, कि यह बात पहली बात से भी गयी - बीती है, क्योंकि जैसे ''उपमा कालिदासस्य'', प्रसिध्द है, वैसे ही कविवर सूरदास और महात्मा तुलसीदास भी उपमा में अद्वितीय हैं। मेरा विचार है कि यदि कोई उपमा में पराकाष्ठा दिखलावेगा, तो उतना ही जितना उक्त दोनों महा - कवि दिखला चुके हैं। उनसे बढ़कर हाथ मारना टेढ़ी खीर है। ऐसी अवस्था में इस विषय में अधिाक लिखने की आवश्यकतानहीं।

    अब रही दूसरी बात, वह यह कि ब्रजभाषा में ऐसी असंभव अत्युक्तियाँ हैं, जो उद्वेग - जनक हैं। आज जैसेर् वत्तामान समाज पाश्चात्य सभ्यता की ओर आकर्षित है, वैसे ही अब से पाँच - सात सौ वर्ष पहले, तात्कालिक सामज एक ऐसी सभ्यता की ओर आकर्षित हुआ था, जिसने भारत पर राज्य सत्ताा के बल से बहुत कुछ अधिाकार प्राप्त कर लिया था, 'यथा राजा तथा प्रजा,' इस छोटे से वाक्य में बड़ा व्यापक सिध्दान्त भरा है, राजा के आचार - विचार, रहन - सहन आदि का बड़ा प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव दो प्रकार का होता है, एक तो वह कि जिसके दबाव में पड़कर प्रजा आत्म - रक्षण का उद्योग करती है और दूसरा वह जो उसको अनेक प्रलोभनों द्वारा अपनी ओर आकृष्ट करता रहता है। दोनों अवस्थाओं में प्रजा को अपने आचार - विचार, रहन - सहन और साहित्य को उसके प्रतिकूल या अनुकूल बनाना पड़ता है। भारतीय प्रजा की रुचि आत्म - रक्षण की ओर ही उस समय विशेष देखी जाती है। इसलिए साहित्य में भी उसका विकास स्पष्ट पाया जाता है। क्योंकि प्राय: साहित्य सामयिक समाज का प्रतिबिम्ब होता है। अधिाकांश पुराणों की रचना उसी काल की है। ब्रजभाषा के विकास का समय भी लगभग वही है। यद्यपि पुराणों की अत्युक्ति पूर्ण रचनाओं पर बौध्द और जैन साहित्य का प्रभाव भी अल्प नहीं है। परन्तु फिर भी उसमें उस काल के मुसलिम सिध्दान्तों का प्रत्यक्ष प्रतिकार दृष्टिगोचर होता है। ऐसे ही साहित्य में भी न्यूनता पूर्ति की चेष्टा देखी जाती है। मुसलमानों का अहंभाव बड़ा प्रबल था, इसलिए सब विषयों में वे अपने को हिन्दुओं से उच्चतम प्रकट करना चाहते थे। वास्तव बात यह है कि जेता जाति की यह स्वाभाविक प्रकृति होती है। मुसलमान जाति की धाार्मिक कट्टरता अविदित नहीं। वह प्राय: अपने धार्म की प्रधाानता दिखलाने के लिए अपने पैगम्बर के चमत्कारों का विज्ञापन करती रहती थी। हिन्दुओं के लिए दो ही मार्ग थे या तो वे उनका महत्तव स्वीकार करें और अपने पैतृक धार्म को तिलांजलि देकर इसलाम धार्म स्वीकार करें या अपने अवतारों और देवताओं को उनसे अधिाक चमत्कार सम्पन्न दिखला कर अपनी और अपनी जाति की रक्षा करें। उन्होंने दूसरा मार्ग ग्रहण किया और अपने देवताओं और अवतारों को अधिाक चमत्कार सम्पन्न बना दिया। यदि पैगम्बर साहब उँगली उठाकर चाँद के दो टुकड़े कर देते हैं, तो हमारे हनुमानजी जन्मते ही उछलते हैं, और सर्ूय्य को निगल जाते हैं। ऐसी और कथायें भी बतलाई जा सकती हैं। जहाँ पुराणों में ऐसी कथायें रखी गईं, वहाँ ब्रजभाषा साहित्य वालों ने भी अपने साहित्य को ऊँचा रखने की ही चेष्टा की। ऐसा दो कारणों से हुआ, एक तो अपने हिन्दी साहित्य को उर्दू साहित्य से न्यून न होने देने के लिए और दूसरे उस काल के बादशाह नवाबों का उनकी रुचि के अनुसार मनोरंजन के लिए। मुसलमान बलन्द परवाज़ी (अत्युक्ति) को बहुत पसन्द करते हैं, ऐसी दशा में हिन्दी में उस समय उसका स्थान पाना उक्त कारणों से आवश्यक हो गया। मुसमलान कवियों की बलन्द परवाज़ी देखिए -

तारे तो ए नहीं मेरी आहों से रातकी।

सूराख पड़ गये हैं तमाम आसमान में।

 - 'मीर तकी'

न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धाुऑं होता।

कि नीचे आसमाँ के एक नया और आसमाँ होता।

 - 'जौक'

नाजुक है न खिंचवाऊँगा तसवीर मैं उसकी।

चेहरा न कहीं अक्स के बदले उतर आये।

क्या नजाकत है कि आरिज़ उनके नीले पड़ गए।

हमने तो बोसा लिया था ख्वाब में तसवीर का।

 - 'अरशद'

    इन पद्यों से ब्रजभाषा की निम्नलिखित रचनाओं को मिलाइये। इनमें भी अत्युक्ति है, परन्तु दोनों के स्वारस्य और स्वाभाविकता में कितना अन्तर है।

इत आवति चलि जाति उत चली छ सातक हाथ।

चढ़ी हिडोंरे सी रहे लगी उसासन साथ।

छाले परिबे के डरनि सकति न हाथ छुवाय।

झझकति हिए गुलाब के झ्रवा झ्रवावत पाय।

मानों विधिा तन अच्छ छवि स्वच्छ राखिबे काज।

दृग पग पोंछन को किये भूखन पायंदाज।

गोपिन के ऍंसुवन भरी सदा असोस अपार।

डगर डगर नै ह्नै रही बगर बगर के बार।

    चंदबरदाई के समय तक इस प्रकार की अत्युक्तियों का उतना आदर नहीं था, इसलिए उनके पद्यों में ऐसी उड़ान नहीं के बराबर है। हिन्दी में मलिक मुहम्मद जायसी के समय से इसका बड़ा प्रचार हुआ, उनकी पद्मावत में अत्युक्तियों की भरमार है। जब मेरी उक्तियों का नाम बलन्द परवाज़ी हुई और दूनी वाह - वाह मिलने लगी, तो फिर क्यों न उसकी दिन - दूनी और रात - चौगुनी उन्नति होती? परन्तु फिर भी हिन्दी क्षेत्रा में वह परिमित रही। उसके सूर्य - चन्द्र की बात हम नहीं कहते। अन्य कवियों की रचनायें भी इसी प्रकार की थोड़ी हैं, सामयिक प्रवाह ही इसका कारण है, जिससे बचना प्राय: असंभव है। जिस उद्देश्य को सामने रखकर ब्रजभाषा के कवि इधार प्रवृत्ता हुए, वह भी महान है। मातृ - भाषा सेवाऔर समुन्नति ही उसका आधाार है। ऐसी अवस्था में उसकी कुत्सा करना समुचितनहीं।

    मैंने जो कुछ अब तक लिखा है, उससे यह न समझा जावे कि अत्युक्ति अलंकार से मैं अनभिज्ञ हूँ और एक कहानी गढ़कर ब्रजभाषा का कलंकापमोदन करना चाहता हूँ। जो ऐतिहासिक बात थी उसको बतलाना आवश्यक था, अब मैं आलंकारिक दृष्टि से भी इस विषय की मीमांसा करता हूँ। यह कहना कि संस्कृत और प्राकृत में इस प्रकार की रचनायें नहीं हैं, व्यर्थ है। उदात्ता और अतिशयोक्ति अलंकार के अन्तर्गत इस प्रकार की रचना मिलेंगी। किन्तु वे असंभवता के दर्जे तक नहीं पहुँची हैं। जब से अत्युक्ति अलंकार की कल्पना हुई है, उस समय से (इस समय तक) इस प्रकार की रचनाओं का अभाव नहीं है। परन्तु वे सीमित हैं। काव्य प्रकाश और साहित्य दर्पण में अत्युक्ति अलंकार नहीं है। काव्य प्रकाश बारहवें शतक का ग्रन्थ है और साहित्य दर्पण उसके दो सौ बरस बाद की। इसलिए स्पष्ट है कि संस्कृत में भी मुसलमान काल ही में यह अलंकार आया है और कारण वही है, मैंने जिसका वर्णन ऊपर किया है। इससे भी ब्रजभाषा के पक्ष में ही सम्मति मिलती है, क्योंकि जिस उद्देश्य की सिध्दि के लिए संस्कृत में भी अत्युक्ति अलंकार की कल्पना करनी पड़ी, यदि ब्रजभाषा उसका साधान बनी तो क्या अनुचित हुआ?

    4 - उसमें विलासिता और अश्लीलता का òोत बहता है, उसके प्रभाव ने देश को विलासी और लम्पट बना दिया, जिससे उसका पतन हुआ।

    पहले मैं लिख आया हूँ कि शृंगार - रस के ग्रंथों की जितनी संख्या है, उससे कहीं अधिाक संख्या ब्रजभाषा में संतों की वानियों और नीति सम्बन्धाी ग्रंथों की है, फिर उसमें विलासिता और अश्लीलता का òोत कैसे बहता है? क्या संत कबीर ने विलासिता की शिक्षा दी है? क्या उनकी साखियों और भजनों में वे भाव नहीं हैं, जो आत्म - शुध्दि सम्बन्धाी शिक्षायें दे सकीं? पद्मावत का रचयिता एक मुसलमान है, उसमें प्रेम की ही पीड़ा है, परन्तु क्या उसमें ऐसी बातें लिखी गई हैं, जिनसे मानव चरित्रा कलंकित हो? उसमें तो प्रेम का वह सुन्दर रूप है, जिसे अवलोकन करने के लिए सहृदयता की ऑंखें भी लालायित रहती हैं। प्रज्ञा - चक्षु सूरदास का सूरसागर क्या उदात्ता काम वासनाओं का आकर है? क्या उसकी उत्तााल तरंगें विलास - मयी हैं? क्या उसमें वे रत्न प्राप्त नहीं होते, जिससे प्रेम की आराधय देवी का कण्ठहार निर्मित होता है? महात्मा तुलसीदास का वह रामचरित - मानस जो मानव - मानस का सर्वस्व है। मानवता के दिव्य ललाट का मणि विभूषण है, भव सागर का सेतु है, अन्धाकारमय संसार का उज्ज्वल मयंक है। जो आज हिन्दू जाति के एक बहुत बडे समूह का धार्म - शास्त्रा है, क्या विलास सामग्रियों का साधान है? भक्तिमयी मीरा के वे भजन जो हृदय में स्वर्गीय प्रेम की धाारा बहाते हैं, गुरु नानकदेव का वह आदि - ग्रंथ जो पंजाब प्रान्त का वेद है, गुरु गोविन्दसिंह का वह दशम ग्रंथ जो सिक्खों जैसी वीर जाति का महामंत्रा है, दादूदयाल की वह शब्दावली जो राजस्थान की सुरसरि धाारा है, भीखा साहब, गोविन्द साहब एवं पलटू साहब आदि की वे रचनायें जो हृदय में ज्ञान की ज्योति जगाती हैं, सुन्दरदास के वे विरागमय ग्रन्थ जो जिज्ञासुओं के प्रिय सम्बल हैं, क्या विलास लालसाओं के प्रचारक हैं? रामावत और सूदन आदि की वीर रस की रचनायें अष्टछाप के वैष्णवों के प्रेमोद्गार, महाराज रघुराजसिंह महात्मा नागरीदास जैसे नृप मुकुटमणियों के अनेक महान ग्रंथ, क्या पापमय पंथों के प्र्रवत्ताक हैं? कविवर गिरिधारदास, बाबा दीनदयाल और वृन्द आदि सुकवियों की बहुश: पुस्तकें जिनमें नीति की उत्तामोत्ताम शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं, क्या काम - कलाओं के उद्गार हैं? यदि नहीं तो किस मुख से कहा जाता है, कि ब्रजभाषा में विलासिता और अश्लीलता का òोत बहता है। यदि शृंगार रस के ग्रंथ ही ले लिये जावें, जिनकी संख्या उक्त ग्रंथमालाओं के सामने बहुत थोड़ी है, तो भी यह बात नहीं कही जा सकती। शृंगार रस के ग्रंथों में भी अच्छी शिक्षाएँ हैं, उनके कुल ललनाओं के हृदय की महत्ताा, प्रेमपरिपक्वता, मानसिक सूक्ष्म भावों का सच्चित्राण पाया जाता है, जो संसार पथ के पथिकों के प्रिय सम्बल कहे जा सकते हैं। उन पर दृष्टि न डालकर उसके कतिपय कुत्सित पद्यों को लेकर मनमाने राग अलापना वैसा ही है, जैसा यह कहना कि कुसुमाकर - कुसुमाकर हो, रस का भाण्डार उसके हाथो में हो, वह नव जीवन का विधााता भी हो, परन्तु है काम का सहचर।

    यह मैं नहीं कहता कि शृंगार रस के ग्रन्थों में विलासिता का वर्णन नहीं है और न मैं यह कहता कि उसमें अश्लीलता नहीं पाई जाती। दोनों बातें उसमें हैं, परन्तु कला की दृष्टि से वे निन्दनीय नहीं। शरीर कितना ही सुन्दर हो वह कितना ही पवित्रा क्यों न रखा जावे, किन्तु उसके कुछ विशेष अंग जिनको हम छिपाते फिरते हैं और जिनका नाम लेते भी लज्जित होते हैं, शरीर में रहेंगे ही। यह स्वाभाविकता है। इसके बिना संसार का कार्य्य अपूर्ण रह जाता है। हाँ, जिन ग्रन्थों में इनका अतिरेक हो और जिन कवियों की प्रवृत्तिा अधिाक इसी ओर हो, वे अवश्य निन्दनीय हैं, क्योंकि उपयोगिता वाद और मानवीय सभ्यता उनको ऑंख दिखाती है, परन्तु सब काल में और सब जगह इस प्रकार के ग्रन्थ रचे गये हैं और इस प्रकार के लेखक और कवि पाए गये हैं। आज भी ऐसे लेखक और कवि पाए जाते हैं। इन दिनों कुछ ऐसे गन्दे और अश्लील उपन्यास लिखे गये हैं और ऐसी गर्हित रचनाएँ की गई हैं कि घासलेटी साहित्य के विरोधा में एक आन्दोलन ही खड़ा हो गया है। यदि कहिए कि उनके समर्थक नहीं, तो समर्थक भी हैं क्योंकि प्रकृति ऐसी ही रहस्यमयी है। बिना अंधाकार के प्रकाश की शोभा नहीं, शायद इसीलिए उसकी ये लीलाएँ हैं। निवेदन यह है कि जैसे आजकल के कुछ ऐसे लोगाें की रचनाओं को लेकर खड़ी बोली पर आक्षेप नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार उस काल के कुछ असंयत लोगाें के व्यवहार से ब्रजभाषा को भी कलुषित नहीं कहा जा सकता। वह भी शृंगार रस के कुछ थोडे से ग्रंथों का नाम लेकर और उसके बडे - बडे पवित्रा ग्रंथों की ओर से ऑंख हटाकर।

    यह भी सही नहीं है कि ब्रजभाषा ने देश को विलासी और लम्पट बना दिया और उसी के कारण देश का पतन हुआ, ब्रजभाषा काल में तो ऐसी महान् शक्तियाँ उत्पन्न हुईं कि उन्हाेंने विजेता मुसलमानों के हाथ से भारत का पुनरुध्दार कर लिया और गयी सत्ताा को फिर अपने हाथों में ले ली। यह दूसरी बात है कि गृह - कलह ने हमको फिर पराधाीन बनाया। ब्रजभाषा पर जो लोग इस प्रकार का आक्षेप करते हैं, कृपा करके वह इतिहास के पृष्ठों को देखें। बंगाल प्रान्त में महाप्रभु चैतन्य पश्चिमोत्तार प्रान्त में स्वामी रामानंद एवं वल्लभाचार्य्य और पंजाब प्रान्त में गुरु नानक ने जो धार्म जागृति की, जिससे मुसमलानों के धाार्मिक प्रवाह को बड़ा धाक्का पहुँचाया, उसमें ब्रजभाषा का बड़ा हाथ है। स्वामी रामानंद के शिष्य कबीर और रविदासादि, महाप्रभु वल्लभाचार्य्य के शिष्य सूरदासादि और गुरु नानकदेव और उनके स्थानापन्न महात्माओं की अधिाकांश रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं। इन महापुरुषों के भजन और पद जिस समय जनता में गाए जाते हैं, उस समय उसमें नव - जीवन का संचार हो जाता था और रग - रग में बिजली दौड़ जाती थी। ऐसी अवस्था में वे अपने में नवीन शक्ति का ही अनुभव नहीं करते थे, धार्म की रक्षा में जी - जान से लपट जाते थे। महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव अथवा उनके शिष्यों की रचनायें तो ब्रजभाषा में नहीं है, परन्तु उनके भाव और भाषा पर उसका बहुत बड़ा प्रभाव है। जब महाप्रभु ब्रज मंडल में पधाारे वहाँ के धार्म के प्रेमी बने, भगवान् कृष्ण और श्रीमती राधिाका में उनकी तन्मयता हुई, तो ब्रजभूमि की भाषा के अनुरक्त वे क्यों न होते? उन्हाेंेने बंगाल में उदार वैष्णव धार्म की जो सुरसरि धाारा प्रवाहित की, उसमें अन्त:सलिला फल्गु नदी के समान ब्रजभाषा की धाारा भीर् वत्तामान है। इतना ही नहीं भारत के वे तीन महा - पुरुष जिन्होंने अथवा जिनके उत्ताराधिाकारियों ने मुसलिम साम्राज्य विधवंस करके हिन्दू राज्य फिर से स्थापित किया, ब्रजभाषा से बहुत कुछ प्रभावित थे। इनमें से एक हैं महाराष्ट्र केशरी शिवाजी, दूसरे पंजाब केशरी गुरु गोविन्दसिंह और तीसरे बुन्देलखण्ड केशरी महाराजा क्षत्रासाल, जो शिवाजी यवन कुल विपिन के प्रचण्ड पावक थे, उनके लिए प्रबल प्रभंजन समान थे, वीर रस के आचार्य भूषण जो अपनी ओजमयी वीररस - की कविताओं से सदा उन्हें उत्तोजित किया करते थे। गुरु गोविन्द सिंह ब्रजभाषा प्रेम की जाज्वल्यमान मूर्ति थे, उनका बनाया हुआ, विशाल दशम ग्रन्थ, ब्रजभाषा की ओजमयी कविताओं से पूर्ण है। उसकी कविताओं का पाठ करके और उन्हें गा - गाकर वीर सिख जाति ने पंजाब में जो महान कार्य किए, उसका गर्व किस भारत संतान को नहीं है? महाराज क्षत्रासाल ब्रजभाषा के प्रेमी ही नहीं थे, स्वयं कवि थे, उसकी अर्चना के लिए वीर दर्प दिखलाकर उन्हाेंने जो कीर्ति कुसुम चयन किए हैं, उससे आज भी बुन्देलखण्ड भूमि सौरभित है। फिर यदि कहा जाता है कि ब्रजभाषा ने देश को विलासी और लम्पट बनाया जिससे उसका पतन हुआ, तो इसको प्रमाद छोड़ और क्या कहें? ब्रजभाषा काल में हिन्दूजाति की तलवार बराबर निकली ही रही, जिसके बदले उसे पूर्ण विजय भी प्राप्त हुई। फिर वह विलासी कब बनी और कैसे उसके द्वारा पतन हुआ? वास्तव बात तो यह है कि देश का पतन उन कुलांगारों द्वारा हुआ है, जो सदा अपनी स्वार्थ बलि वेदी पर देश की बलि प्रदान करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं। थोडे से विलास प्रिय राजे - महाराजे और कतिपय अर्थलोलुप शृंगार रस के कवियाें का नाम लेकर ब्रजभाषा पर इस प्रकार का आक्षेप करना उचित नहीं, यह अल्पज्ञता है। जिस समय ब्रजभाषा के व्यापक रूप पर दृष्टि डाली जावेगी और उसका महान रूप अवलोकन किया जायेगा, उस समय एक सत्य प्रिय प्राणी ऐसी बातें कदापि मुख से न निकाल सकेगा। यों तो -

जाकी रही भावना जैसी।

हरि मूरति देखी तिन तैसी।

    5 - उसमें प्रान्तिकता है, अतएव ब्रजभाषा राष्ट्रीय भाषा होने के योग्य नहीं है, वह आज - कल के प्रचलित गद्य के भी प्रतिकूल है - इसे मैं स्वीकार करता हूँ और इसीलिए मैंने भी देश, काल का विचार करके खड़ी बोली की सेवा स्वीकार की है, विशेष कारणों से खड़ी बोली को राष्ट्रीयता प्राप्त हो गयी है, अतएव देश का मंगल अब इसी में है कि उसके पद की रक्षा की जावे, विशेष कर उस अवस्था में जब कि उसकी प्रतिद्वंद्विता के लिए एक दूसरी भाषा भी खड़ी है। दुराग्रह अच्छा नहीं, मनमानी करना ठीक नहीं, वितण्डावाद कलह का मूल है, पक्षपात न्याय का शत्राु और अहंभाव सत्य का बाधाक है। अतएव देश किम्वा धार्म का प्रश्न सामने आने पर इनसे बचना ही उत्ताम है। इन प्रपंचों में पड़कर हम लोग बहुत कुछ कष्ट उठा चुके हैं और अपना उचित स्तत्व गँवा चुके हैं, अतएव जहाँ तक इनमें निर्लिप्त रहें, अच्छा। मैं आप लोगों को विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने अब तक जो ब्रजभाषा के विषय में निवेदन किया है, वह इन भावों के वशीभूत होकर नहीं, वरन इन भावों के निराकरण के लिए। खड़ी बोली अपना पद प्राप्त कर चुकी है और दिन - दिन समुन्नत हो रही है, उसकी गति समय के अनुकूल है, अतएव जो उसको नीचा दिखाना चाहेगा स्वयं नीचा देखेगा। इस विषय में खड़ी बोली के प्रेमियों को निश्चिन्त रहना चाहिए। किन्तु यह मेरा विशेष निवेदन है कि ब्रजभाषा के उच्छिन्न करने का उद्योग न किया जावे, न तू - तू मैं - मैं करके दो हिन्दी प्रेमियों में कलह की आग लगाई जावे। कई कारणों से ऐसा करना उचित नहीं। दूसरी बात यह कि ब्रजभाषा एक जीवित भाषा है, आज भी बहुतों के हृदय में उसका आदर है। जो लोग उससे प्रेम करते हैं, उसी भाषा में कविता करना चाहते हैं, न तो उन्हें बनाया जावे, न छेड़ा जावे। उर्दू में कविता हो, फारसी में हो, संस्कृत में हो; बंगाली आदि प्रान्तिक भाषाओं में हो, परन्तु ब्रजभाषा में कविता न होने पावे, यह विचार उचित नहीं। इस रोक - थाम के लिए जो ब्रजभाषा की कुत्सा की जाती है, वह दो कारणों से संगत नहीं। एक तो यह कि इससे परस्पर कलह उत्पन्न होता है, दूसरे पढ़नेवालों के हृदय में घृणा उत्पन्न होती है, जिससे वे ब्रजभाषा भाण्डार के अनेक अमूल्य रत्नों से वंचित रह सकते हैं। ब्रजभाषा बड़ी सम्पन्न और उन्नत भाषा है, उसकी माधाुरी अपूर्व है, सब विषयों की जितनी सुन्दर रचनाएँ उसमें हैं, खड़ी बोली में कहाँ? सात - आठ सौ वर्ष में जो सामग्री एकत्रिात की गयी है, वह 40, 50 वर्ष में नहीं जमा हो सकती। चाहिए उससे लाभ उठाया जावे, उसकी सुविधााओं को अपनाया जावे और उसके सरस रसों का आस्वादन किया जावे। कला की दृष्टि ही से नहीं, उपयोगिता की दृष्टि से भी वह अद्वितीय है। उसमें कहीं - कहीं काँटे अवश्य हैं, परन्तु फूल चुनने वाले इसकी परवाह नहीं करते। आजकल ब्रजभाषा नाम से ही घृणा हो गई, कुछ ऐसा विचार हो गया है कि उसमें जो कुछ है, वह नगण्य और घृण्य है। उसकी पुस्तकें फूँक देने योग्य हैं। मैंने इन्हीं भावों के निराकरण के लिए और सत्य बात प्रकट करने के लिए यह लेख लिखा है, द्वन्द्व अथवा कलह के लिए नहीं। यदि कहीं - कहीं मेरे लेख में वर्तमान कालिक रचनाओं की कुछ चर्चा आ गई है तो उसका अभिप्राय कटाक्ष करना अथवा किसी के हृदय को दुखाना नहीं है, विषय को स्पष्ट करना मात्रा है। मैंने कला और उपयोगिता दोनों दृष्टि से ब्रजभाषा की आलोचना की है, सहृदय जन उसको सोचें - समझें। मेरे लेख में भ्रान्ति हो सकती है, परन्तु मेरा उद्देश्य सत् है। आशा है, इसी दृष्टि से आप लोग इसे देखेंगे और यदि मेरे कथन में कुछ सत्यता है, तो उसको ग्रहण करके मेरे परिश्रम को सफल करेंगे। याद रहे - 'मधाुकर सरिस संत गुण ग्राही। ''


 

 

 

 

 

 

'आधुनिक कवि' (5) की 'दो - चार बाते। ' शीर्षक भूमिका

 

 

आज बोलचाल की कुछ चुनी हुई रचनाएँ लेकर आया हूँ। मैं नहीं कह सकता, ये पसन्द आवेंगी या नहीं। न आवें, मुझको इसकी परवा नहीं। अपनी - अपनी रुचि ही तो है, किसे अपनी रुचि प्यारी नहीं। जब पेड़ों पर बैठकर चिड़िया गीत गाने लगती है, मीठी तानें छेड़ती है, तब क्या वह यह सोचती है कि मेरे गीत को सुनकर कोई रीझेगा या नहीं, कोई वाह - वाह कहेगा या नहीं! कोई भले ही न रीझे, कोई भले ही न वाह - वाह करे। पर वह गाती है, मस्त हो - होकर गाती है। क्या यह मस्ती ही उसके लिए सब कुछ नहीं? अपने आपको रिझाने में क्या कोई मजा नहीं, क्या कोई आनन्द नहीं? है, बड़ा आनन्द है। यह अपनी रीझ ही तो औरों के जी में जगह करती है, आप रीझकर औरों को रिझाती है। दिल से दिल को राह है। फूल पहले आप खिलते हैं, पीछे औरों के दिल को खिलाते हैं। कोयल कैसी काली कलूटी है, न रूप, न रंग, न अच्छा ढंग, चालाक भी वह परले सिरे की है, कौओं की ऑंखों में वही उँगली करती है, पर कूक कर किसको नहीं मोह लेती। उसके कंठ में जादू है, तानों में दर्द। जब बोलती है, मनो को मोह लेती है। गुण का कहाँ आदर नहीं। जहाँ गुण है, वहाँ मान है। गुण चाहिए, पूछ क्याें न होगी।

    दुनिया दुरंगी है या एकरंगी, या बहुरंगी। क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आता। कोई उसे बुरी बतलाता है, कोई अच्छी। कहीं उजियाला है, कहीं ऍंधिायाला। कहीं फूल हैं, कहीं काँटे। कहीं हरा - भरा मैदान है, कहीं बालुओं से भरा रेगिस्तान। कहीं सुख है, कहीं दु:ख। कहीं दिन है, कहीं रात। कहीं बगले हैं, कहीं हंस। कहीं कोयल हैं, कहीं कौए, कहीं बधाावे बजते हैं, कहीं रोना - पीटना पड़ा रहता है। कहीं पर घर उजड़ता है, कहीं महल खडे होते हैं। कहीं सोहर उठता है, कहीं सिर धाुने जाते हैं। किसी के मुँह से फल झड़ता है, कोई आग उगलता है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो दूसरों की भलाइयाँ देखकर फूले नहीं समाते। कुछ ऐसे हैं, जो औरों की बुराइयाँ करके ही आसमान के तारे तोड़ते हैं। किसी का दिल ऐसा बना है, जो दूसरों की दु:खों की ऑंच से मोम - सा पिघलता है, किसी का कलेजा पत्थर को भी मात करता है। किसी के जी में मिठास मिलती है, किसी के जी में कड़वापन। कुछ लोग ऐसे हैं, जो दूसरों को फला - फूला देखकर खिलते हैं, रोते को हँसाते हैं, उलझनों को सुलझाते हैं, बिगड़ी बनाते हैं, और पराए हित के लिए जान हथेली पर लिये फिरते हैं। कोई ऐसा है, जो औरों का लहू चूसकर अपनी प्यास बुझाता है, दूसरों का गला घोंटता है, और किसी का घर उजड़ता देख अपने घर में घी का चिराग बालता है। कीने वाले दिलों की बात ही निराली है, वे साँप की तरह डसते हैं, और अवसर मिले तो औराें का कचूमर निकाल देते हैं। पाजियों की बात मत पूछिए, वे थोड़ी बातों में ही जामे से बाहर हो जाते हैं। जब किसी पर बिगड़ते हैं, पेट की सारी गंदगी निकालकर सामने रख देते हैं। किसी पर कलम उठ गया, तो आफत आ गई, बेचारे की गत बना दी जाती है। बुरी - बुरी गालियाँ दी जाती हैं, फूलड़ बातें कही जाती हैं; दिल का कालापन कागज पर फैला दिया जाता है, चाहे मोती पिरोने वाली लेखनी के मुँह में सियाही भले ही लग जाए। ये बातें सच हैं। पर बुरों से भी भला, भलों से भी बुरा होता है। जो किसी काम के नहीं होते, उनका काम भी काम का नहीं होता। कौए किसी काम के न हों, पर कोयल के बच्चे उसी की गोद में पलते हैं। साँप कितना ही डरावना क्यों न हो, पर मणि उसके ही सिर में मिलती है। एक गाली बकने वाला अपना मुँह बिगाड़ता है, पर कितनों के कान खड़े करता है। एक के सिर पर चढ़ा भूत दूसरे के सिर पर भूत उतारता है। एक नंगा कितनों की आबरू बचाता है। डूबकर पानी पीने वालों के गले में अटकी मछली कितनों का कान मलती है और बहुतों का पानी रखती है। मिट्टी में हीरे मिलते हैं, बालू में सोना। कीचड़ में कमल, और काँटों में फूल। ऍंधिायाले से उजाले की परख होती है। और कड़वी नीम मिठाई का मोलबतलातीहै।

    मतलब यह कि 'रचनाओ। ' को इन झगड़ों से छुटकारा नहीं। जहाँ उसे भली ऑंख से देखने वाले होंगे, वहीं उसे टेढ़ी ऑंख से ताकने वाले भी मिलेंगे। वे किसी जी में अगर गडेंग़ी, तो किसी ऑंख में खटकेंगी भी। कोई उन्हें चाहेगा, तो कोई बुरा कहेगा। दुनिया के ये पचडे हैं, इनसे कौन बचा। इसीलिए मैं इन बातों के फेर में नहीं पड़ता। थूकने वाले सूरज पर भी थूकते हैं, चाहे उनका थूक उनके मुँह पर ही क्यों न गिरे।

    कहा जा सकता है, यह ठीक है। पर समय को देखना चाहिए, लोगों के तेवर पहचानने चाहिए। सोचना चाहिए कि हवा कैसी चल रही है, किधर जा रही है। दुनिया का रंग क्या है, देश वाले क्या चाहते हैं। लोगों की तबीअत कैसी हो गयी है, नयी उमंग वालों को क्या पसंद है, उनका झुकाव किस ओर है। जो हवा को देखकर पाल नहीं तानता, उसका बेड़ा पार नहीं होता। आज दिन बोलचाल का बोलबाला नहीं, उसकी धाूम नहीं, जैसी चाहिए वैसी पूछ नहीं। ऐसी हालत में उसी पर मरना, उसी का दम भरना, उसका रंग जमाने के लिए हाथ - पाँव मारना क्या ठीक है। जब लोग कहते हैं, हिन्दी में बिना संस्कृत शब्दों का पुट दिए, उर्दू में बिना फारसी और अरबी के लफ्श्जों से काम लिये, भाषा में चुस्ती नहीं आती, और न जैसी चाहिए वैसी वह चटपटी बनती है। इतना ही नहीं, वह एक तंग घेरे में घूमती रहती है, न वह हाथ - पाँव निकाल पाती है, और न आगे ही बढ़ सकती है। तब क्या इधार धयान न देना, और अपनी ही धाुन में मस्त रहना चाहिए। मैं कहूँगा, मेरे इरादों के समझने में धाोखा हुआ है, और कुछ का कुछ समझा गया है। मैंने कब संस्कृत अथवा फारसी अरबी शब्दों के बायकाट करने की सलाह दी? मैं तो ऐसा नहीं चाहता। जो काम मैं अपने आप करता हूँ, उसके न करने की राय मैं दूसरों को क्यों दूँगा। बोलचाल की मेरी जितनी कविताएँ हैं, उनसे चौगुनी रचनाएँ दूसरी तरह की हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि समय का रंग न देखा जावे और न हवा का रुख पहचाना जावे। मेरा यह विचार भी नहीं है कि बिना दुनिया का रंग देखे, बिना देशवालों का ढंग पहचाने, बिना नौजवानों की नाड़ी टटोले, बिना लोगों के तेवर की जाँच - पड़ताल किए, बिना माँगे, बिना जरूरत टाँग अड़ाई जावे, और कुछ का कुछ किया जावे। क्या ऐसा करना समझदारी होगी? समय बदलता रहता है, उसके साथ बातें भी बदलती रहती हैं। जो इसको नहीं समझता, मुँह की खाता है, दुनिया में पनप नहीं सकता, इसलिए मैं वह रास्ता नहीं पकड़ सकता, जो उलटा हो, समय के साथ न चलता हो। बोलचाल का राग अलापना, समय के साथ ही सुर मिलाना है। बेसुरी तानें नहीं छेड़ना है। मैं बतलाऊँगा कि कैसे -

    वह भाषा जीती नहीं रहती, जो बोलचाल की नहीं होती। संस्कृत के बाद प्राकृत और प्राकृत के बाद हिन्दी क्यों सामने आई? इसलिए कि वे दोनों बोलचाल से दूर पड़ गईं। आज दिन जिस भाषा में हिन्दी या उर्दू लिखी जा रही है, वह कहाँ की भाषा है? किस जगह बोली जाती है? कहीं नहीं। अगर यही ढंग रहा, तो हिन्दी या उर्दू कितने दिन जीती रहेंगी? दोनों उस ओर जा रही हैं, जिधार उनके लिए ऐसे बड़े - बडे ग़ङ्ढे हैं, जिनमें गिरकर वे चूर - चूर हो जाएँगी, उनका पता भी न लगेगा। क्या लोग यही चाहते हैं? मैं समझता हूँ ऐसा कोई नहीं चाहता। दोनों ही अपनी - अपनी भाषा को जीती देखना चाहते हैं। दोनों ही चाहते हैं कि वह फूले - फले।

    फिर अगर मैं ऐसी बात बतलाता हूँ, जिससे माँगी मुराद मिले, आयी बला काई की तरह फट जावे, तो भलाई करता हूँ, कि बुराई? उन भाषाओं को ठीक रास्ते पर ले चलता हूँ या उन्हें अन्धो कुएँ में गिराता हूँ? मैं यह जानता हूँ कि जब ऐसी किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें पेचीदगी होती है, बडे - बडे मसले हल करने होते हैं; जिनमें बारीकियाँ होती हैं, उलझनों का सामना करना पड़ता है, बाल की खाल निकालनी पड़ती है, एड़ी - चोटी का पसीना एक करना पड़ता है, जो दर्शन या विज्ञान की होती हैं, या इसी तरह के पचड़ों से भरी रहती हैं, बोलचाल की भाषा में उनका लिखना आसान नहीं। उनसे संस्कृत के शब्द या अरबी फारसी के लफ्ज लेने ही पडेंग़े। उनसे छुटकारा नहीं, और न मैं इस बारे में उँगली उठाता हूँ। ऐसा ही होना चाहिए, क्योंकि पहाड़ों में पत्थर और लोहे की खानों में लोहे रहेंगे ही। पर जो किताबें पबलिक के लिए लिखी जाती हैं, जिनमें इस तरह के बखेड़े नहीं होते, उनका बोलचाल में लिखा जाना ही ठीक है; क्योंकि सीधाी - सादी बातों को सीधाी - सादी होना चाहिए। घरेलू बातों में घर की बोलचाल का ही रंग रहना चाहिए। उठते - बैठते, चलते - फिरते, एक - दूसरे के साथ बोलते हुए, कामकाज में, जो शब्द मुँह पर आते रहते हैं, उनकी जगह ऐसे शब्दों को लिखना, जिनसे जान - पहचान नहीं, भाषा को बनावटी बनाना और उस सुभीते से हाथ धाोना है, जो हमारे बडे क़ाम की है।

    कहा गया है, संस्कृत, फारसी और अरबी शब्दों के आये बिना बोलचाल की भाषा चुस्त नहीं होती। यह अपने - अपने पसंद की बात है। पर असलियत असलियत है और बनावट बनावट। फूल की असली रंगत पर रंग चढ़ाकर उसे हम सुन्दर नहीं बना सकते, और न उसमें अनूठापन ला सकते हैं। पेड़ों के हरे पत्ताों की हरियाली को हरे रंग से रंग कर अगर हम उसके रंग को चटक बनाना चाहेंगे, तो धाोखा खायेंगे, मन की न कर पाएँगे। उन्हें बिगाड़ेंगे, सँवारेंगे नहीं। दूसरी बात यह कि बोलचाल की भाषा का मतलब ठेठ हिन्दी नहीं है। ठेठ हिन्दी बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती।

    बोलचाल की भाषा वह है, जिसे सब लोग बोलते हैं। बोलचाल में अगर संस्कृत - अरबी क्या ऍंग्रेजी, लैटिन, ग्रीक के भी शब्द आ गये हैं, तो उनका बायकाट नहीं किया जा सकता। आजकल बोलचाल में कचहरी, रेल, तार, डाक आदि ऐसे शब्द मिल गये हैं, जो ऍंगरेजष्ी या योरप की दूसरी भाषाओं के हैं, क्या इन्हें अब निकाल बाहर किया जा सकता है? यदि इनको निकाल बाहर करेंगे और इनकी जगह पर गढ़कर नये शब्द रखेंगे, तो वह बोलचाल की भाषा भी न रह जाएगी, एक बनावटी भाषा बन जाएगी।

    बोलचाल की हिन्दी में बहुत - से असली संस्कृत, फारसी, अरबी के शब्द हैं 'सुख', 'रोग', 'मन', 'धान' आदि संस्कृत के, और 'ख़बर', 'लात', 'नेकी', 'बदी', 'मामिला' आदि फारसी अरबी के शब्द हैं। योरप की भाषा के कुछ शब्द मैं ऊपर लिख आया हूँ। बोलचाल की भाषा लिखने में अगर इन शब्दों या ऐसे ही दूसरे शब्दों को हम अलग रखना चाहेंगे, तो जो भाषा हम लिखेंगे, वह बोलचाल की भाषा रहेगी ही नहीं। वह तो एक ऐसी भाषा होगी, जिसे हम ठेठ हिन्दी भले ही कह लें। हिन्दी भाषा ऐसे शब्दों से बनी है, जिन्हें हम संस्कृत के तद्भव शब्द कहते हैं। ये तद्भव शब्द हजारों बरसों का चक्कर काटने के बाद इस रंग में ढले हैं। 'हस्त' से 'हत्थ' और 'हत्थ' से 'हाथ' बना है, इसी तरह 'कर्म्म' से 'कम्म' तब 'काम'। संस्कृत के ऐसे ही शब्द हिन्दी को जन्म देने वाले हैं। उसमें कुछ देशज कुछ 'गोड़' 'टाँग' आदि भी मिलते हैं। जब काम पड़ने पर अरबी, फारसी आदि के भी बहुत से शब्द हिन्दी में मिल गए, तब कुछ लोग उसे उर्दू कहने लगे; पर है वह हिन्दी ही।

    अब इसमें बहुत - से ऍंगरेजष्ी और योरप की दूसरी भाषाओं के शब्द भी मिल गये हैं। उर्दू - हिन्दी का झगड़ा मिटाने के लिए कुछ लोग अब इसे 'हिन्दुस्तानी' कहते हैं। इससे कुछ बनता - बिगड़ता नहीं। हिन्दी कहें चाहें हिन्दुस्तानी, दोनों का मतलब एक ही है। यही हिन्दी अब खड़ीबोली का लिबास पहनकर बहुत दूर तक फैल गयी है। लगभग हिन्दोस्तान भर में समझी जाने लगी है। इसका फरेरा इन दिनों इस देश के उन कोनों में भी उड़ने लगा है, जहाँ अब तक उसकी पहुँच नहीं थी फिर अगर मैं बोलचाल की तरफ लोगों को ले जाता हूँ, तो क्या बुरा करता हूँ। जिस नीति से हिन्दी दिन - ब - दिन फूले - फलेगी, बहुत - से लोगों के दिलों में घर करेगी और वह गहरी खाई पट जाएगी, जो उसकी और उर्दू की राह में और गहरी होती जा रही है, क्या वह बुरी हो सकती है? क्या बोलचाल की भाषा ऐसी है कि उसे कड़ी ऑंख से देखा जावे और उसे मटियामेट करके ही दम लिया जावे? नहीं, नहीं, वह ऐसी नहीं है। यह समय बतला रहा है। वह आदर पाएगी और रंग लाएगी। वह ऑंखों में ही नहीं, दिलों में भी समाएगी, और जादू कर दिखलाएगी।

    कुछ लोग यह कह सकते हैं कि 'ठेठ हिन्दी का ठाट' और 'अधाखिला फूल' बनाने वाले के मुँह से ये बातें अच्छी नहीं लगतीं। किसी - किसी ने तो यह भी लिख मारा है कि मैं उनको लिखकर वैसे ही भाषा का प्रचार हिन्दी में करना चाहता था, पर अपना - सा मुँह लेकर रह गया। मैं ऐसे लोगों से यह कहूँगा कि आप लोगों ने मेरे विचार को ठीक - ठीक नहीं समझा। लिखने का मतलब यह था कि मैं यह दिखला सकूँ कि हिन्दी अपने पाँवों पर खड़ी हो सकती है या नहीं। बिना दूसरों का मुँह ताके, बिना दूसरों का सहारा लिये, बिना औरों के सामने हाथ फैलाए, बिना किसी की कनौड़ी बने, वह कुछ भावों को प्रकट कर सकती या लिख सकती है या नहीं। मेरा विचार है लिख सकती है, इसीलिए 'ठेठ हिन्दी का ठाट' सामने आया और 'अधाखिला फूल' लिखा गया। कुछ लोगों ने मेरे इस विचार को माना है। उनकी रायें नीचे लिखी जाती हैं -

    बंगाल के प्रसिध्द विद्वान् प्राकृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य श्रीयुत विधाुशेखर भट्टाचार्य यह लिखते हैं -

    ''पंडित अयोधयासिंह उपाधयाय ने हिन्दी - साहित्य के नाना अंगों की रचना एवं पुष्टि की है। मैं उन सभी रचनाओं से परिचित नहीं, पर उनकी एक पुस्तक 'ठेठ हिन्दी का ठाट' मैंने अच्छी तरह पढ़ी है। यह एक ही पुस्तक हिन्दी भाषा पर उनके अद्भुत अधिाकार का ज्वलन्त प्रमाण है। इतनी सरलता के साथ इतने सुकुमार भावों का प्रकाशन मैंने अन्यत्रा नहीं देखा। इसी पुस्तक को पढ़कर मैंने बँगला में एक उसी प्रकार की पुस्तक लिखना चाहा था। वह विचार कार्यरूप में उपस्थित नहीं किया जा सका। पर उक्त पुस्तक पढ़ने के बाद मेरा यह दृढ़ विश्वास हो गया कि हिन्दी भाषा बँगला की अपेक्षा भाव - प्रकाश करने में कहीं अधिक समर्थ है। 'ठेठ हिन्दी का ठाट' हिन्दी भाषा की समृध्दि का प्रबल प्रमाणहै। ''

    अनेक भारतीय भाषाओं के परम प्रसिध्द विद्वान् सर जार्ज ए. ग्रियर्सन साहब 'ठेठ हिन्दी का ठाट' के विषय में यह लिखते हैं - 'ठेठ हिन्दी का ठाट' की सफलता और उत्तामता से प्रकाशित होने के लिए मैं आप को बधााई देता हूँ, यह एक प्रशंसनीय पुस्तक है।

    आप कृपा करके पंडित अयोधयासिंह से कहिए कि मुझे इस बात का बहुतहर्ष है कि उन्हाेंने सफलता के साथ यह सिध्द कर दिया है कि बिना अन्यभाषा के शब्दों का प्रयोग किए ललित और ओजस्विनी हिन्दी लिखनासुलभहै। ''1

1.  ‘‘I must congratulate you on the successful issue of. ‘Theth Hindi Ka That’ It is an admirable book.

     Will you kindly tell Pandit Ajodhya Singh how glad write elegantly and at the same time strongly in Hindi without having to use foreign words’’

    इन रायों के पढ़ने के बाद यह बात समझ में आ जाएगी कि हिन्दी में वह बल है कि बिना दूसरी किसी भाषा का सहारा लिये वह बहुत - से घरेलू और सीधो - सादे भावों को अपने साँचे में ढाल सके, और ठीक - ठीक समझ सके। इतनी बात लोगों के जी में बैठालने के लिए ही 'ठेठ हिन्दी का ठाट' 'अधाखिला फूल' का जन्म हुआ। मैं या कोई दूसरा समझदार यह कभी नहीं सोच सकता कि बोलचाल की भाषा उन शब्दों का बायकाट करके भी लिखी जा सकती है, जो उसमें दूसरी भाषाओं से मिल गये हैं। इधार हिन्दी भाषा के हिमायतियों का धयान खींचने के लिए ही मैंने बोलचाल की भाषा में कई किताबें लिखीं, जो आप लोगों के सामने आ चुकी हैं। मैं यह जानता हूँ कि आज - कल बोलचाल की भाषा में कविता लिखने की ओर हिन्दी वालों का धयान नहीं है; पर मेरा विचार है कि ऐसा होना चाहिए। आज - कल सब लोगों तक अपना विचार पहुँचाने के लिए, और इसलिए भी कि किताबें बहुत बिकें, उपन्यासों की भाषा बोलचाल की हो रही है। कोर्स की किताबें भी इसी भाषा में लिखी जाने लगी हैं, बहुत - से उपन्यास आजकल इस रंग में डूबे निकल रहे हैं; क्योंकि उनकी पूछ और माँग है। जो यह सच है, तो कविता कब तक किनारा करती रहेगी, उसको भी अपना रंग बदलना ही पडेग़ा। इसी में सुभीता है और इसी में भलाई। नहीं तो, जैसा चाहिए वैसा उसका आदर न हो सकेगा और न वह जैसा चाहिए वैसा फूल - फल सकेगी। मैं यह नहीं चाहता, इसलिए अपनी बात कहता रहता हूँ। सोचता हूँ, वह सुनी जाएगी। मैं देखता हूँ कि आजकल हिन्दी के सब तरह के पत्राों में उर्दू के शे'रों को जगह मिल रही है। वे चाह के साथ पढ़े जाते हैं और वाह - वाही भी ले रहे हैं। क्यों? सबब क्या? दूसरा कोई सबब नहीं, उनमें बोलचाल का रंग रहता है। मुहाविरों की चासनी होती है। वे चटपटे होते हैं, ठीक - ठीक समझ में आ जाते हैं। पेचीदगी न तो उनकी पहेली बनाती है और न बेसिर - पैर की बातें उनमें उलझनें पैदा करती हैं; इसलिए उनकी चाह है, और लोग उनको अच्छी ऑंखों से देखते हैं। आजकल की हिन्दी - कविता की चाल बिल्कुल इससे उलटी है। पहले तो उसमें ऐसी बातें कहने का चाव देखा जाता है, जो उस पार की हों। जो हमारी ऑंखों के सामने होता रहता है, जो बातें हमारे व्यवहारों में आती रहती हों, उनसे मुँह मोड़कर उसमें ऐसे राग अलापे जाते हैं, जिनमें आसमानी तानें रहती हैं, ऐसी आसमानी तानें, जिनको कानों ने न कभी सुना है, न जी में जो जगह कर सकती है।

    समझा जाता है, जो बातें जितनी पेचीदा होंगी, उनके समझने के रास्ते में

जितने रोडे होंगे, जो पहेली के लिए हाेंगी, वह उतनी ही ऊँचे दर्जे की समझी जावेंगी, और उनका लिखने वाला उतना ही कवि माना जायेगा। पर, यह नासमझी या भूल छोड़ और कुछ नहीं होती। लोगों के कान पहले दुनिया की बातें सुनना चाहते हैं, उन बाताें को सुनना चाहते हैं, जो जी में बैठें, जिनसे रस के सोते बहते हों और जो दिल में गुद - गुदी पैदा कर सकें। जो कुछ देर के लिए उनको कुछ का कुछ कर दें, मजेश् के मजश्े लेने दें; न कि उनको बेकाबू के जाल में फँसा दें, या उन्हें आसमान में चक्कर लगाने के लिए मजबूर करें।

    दूसरी बात जो आज - कल की हिन्दी - कविता को लोहे का चना बना रही है, मनमानापन है। जो अधाकचरे हैं, या जिन्होंने अभी कविता का ककहरा ही पढ़ा है, उनकी बात मैं नहीं कहता। हिन्दी - जगत् में जिनकी धाूम है, आज दिन जिनका बोलबाला है, मैं उनको भी मनमानी करते देखता हूँ, ऐसी मनमानी, जिस पर उँगली उठाई जा सकती है। यों तो 'निरंकुशा: कवय:' कहा ही जाता है। कवि मनमानी करते ही रहते हैं; पर उसकी हद होनी चाहिए, अंधााधाुंधा ठीक नहीं। खेत को हरा - भरा रखना है, उसके पौदों को फला - फूला देखना है, तो बँधाी मेंड़ का तोड़ना ठीक नहीं होगा। आप के पास बैलून है, आप उस पर उड़िए, पर सड़कों को मत खोद डालिए, क्योंकि उनसे बहुतों को सुभीता है। हम किसी बात की पाबंदी न करेंगे, किसी रूल को न मानेंगे, अपनी राह सब से अलग रखेंगे, ये बातें किसी की हो सकती हैं; पर उससे बहुतों की राह में काँटे बिखर सकते हैं। इतना ही नहीं, कभी उस एक की भी गत बन जाएगी, वह भी बखेड़े में पडेग़ा, और कहीं - कहीं उसे भी मुँह के बल गिरना होगा। आजकल कुछ लोग ऍंगरेजश्ी मुहाविरों के पीछे बेतरह पडे हैं। ज्यों - का - त्यों अंग्रेजश्ी मुहावरा हिन्दी में भी वैसा ही काम देगा, जैसा अंग्रेजी में देता है; पर यह उलटी बात है। मुहाविरों का शाब्दिक तर्जुमा नहीं हो सकता। अगर कहा जाता है कि 'ऑंख में धाूल क्यों झोंकी जाए' तो इसका यह अर्थ न होगा कि किसी की ऑंख में धाूल क्यों डाली जाए, बल्कि इसका मतलब यह होगा कि किसी को धाोखा क्यों दिया जाए। अगर इस मुहावरे का शाब्दिक तर्जुमा करके हम किसी दूसरी भाषा में रख देंगे, तो उससे उसका अर्थ धाोखा देना न समझा जावेगा, ऑंख में धाूल डालना ही समझा जावेगा, जो ठीक अर्थ मुहावरे का न होगा।

    सच्ची बात यह है कि सब भाषाओं के मुहाविरे शाब्दिक अर्थ से अलग अपना एक खास अर्थ रखते हैं; इसलिए उनका शाब्दिक तर्जुमा नहीं हो सका। ऐसी हालत में करना यह चाहिए कि यदि दूसरी भाषा के मुहाविरे को हम अपनी भाषा में लाना चाहते हैं, तो पहले यह विचारें कि इसी भाव का कोई मुहाविरा हमारी भाषा में है या नहीं। जो सोचने पर वैसा मिल जावे, तो उसी को उसकी जगह पर रखना चाहिए। जो न मिले, तो ठीक शब्दों के सहारे उसके भाव को खोल देना चाहिए। उसका शाब्दिक तर्जुमा कभी न रखना चाहिए; क्योंकि यह भूल भाषा को कभी सुबोधा नहीं रहने देती, और उसमें ऐसी गुत्थी डाल देती है, जिसका सुलझाना या खोलना आसान नहीं होता। आजकल अंग्रेजी के ढंग पर वाक्य भी गढे ज़ाने लगे हैं। हिन्दी भाषा की कविता को ये बातें भी उलझनों में डाल रही हैं, और उसको ऐसा बना रही हैं, जिसको हम सरल या सुबोधा नहीं कह सकते।

    मुहाविरे कविता में जान डाल देते हैं, बहुत बातों को थोडे में कहते, और उसको चुस्त बनाते हैं। उर्दू वाले इन बातों को जानते हैं, इसलिए हिन्दी के मुहाविरों से काम लेकर अपनी कविताओं को वे लोग सजाते रहते हैं, पर हिन्दी वाले अपने मुहाविरों को फूटी ऑंख से भी नहीं देखना चाहते। वे अंग्रेजी भाषा के मुहाविरों का शाब्दिक तर्जुमा करके अपनी रचनाओं में खपाएँगे, पर अपनी भाषा के मुहाविरों की जगह पर संस्कृत के शब्दों की भरमार करेंगे, और उसे ऐसा बना देंगे, जिसे समझने में वे अपने आप को भी चक्कर में डाल देंगे। सभी ऐसा करते हैं, मैं यह बात नहीं कहता। पर आजकल कविता का झुकाव इसी ओर है, और वह इसी बहाव में बहकर नीचे - ऊपर हो रही है। कवि - सम्मेलनों में देखा जाता है कि जब छायावाद का कवि अपनी कविता सुनाने के लिए उठता है, तब वह सुकंठ होने पर ही अपना रंग जमा सकता है; उसकी गिटकिरी, उसकी तानें, उसके स्वर की मीठी लहरें ही लोगों को अपनी ओर खींचती हैं, उसकी कविता के भाव नहीं, क्योंकि वे सुबोधा होते ही नहीं। अगर उसके पास कंठ नहीं, अगर वह अपनी कविता को गाकर नहीं सुना सकता, तो उसकी कविता कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, आदर - मान नहीं पाती, और कवि को नीचा दिखा देती है। यही सबब है कि अब भी कवि - सम्मेलनों में ब्रजभाषा की तूती बोलती है और उसी का रंग चोखा और गहरा रहता है, क्योंकि उसमें लचक रहती है, वह सुबोधा होती है, और समझ में आ जाती है। ब्रजभाषा की कविता पढ़ने वाला कवि जो सुकंठ नहीं है, तो भी उसकी कविता अपना रंग बाँधा लेती है, क्योंकि उसके भावों में रंगीनी की कमी नहीं होती, और वे ऐसे शब्दों में सामने आते हैं, जो कान के जाने - पहचाने होते हैं, और जिनमें से अंगूर की तरह रस निचुड़ा पड़ता है।

    कुछ लोग गाकर कविता पढ़ना ऐब समझते हैं। उनका कहना है कि गलबाजी करके कविता का रंग जमाना कविता को नीचा दिखाना है। गले के दर्द से अगर कविता में जान पड़ी, तो कविता बेजान क्यों न मानी जाएगी। स्वर भर - भर कर तानें ले - लेकर अगर कविता लोगों को लुभा सकी, तो इससे तो संगीत का बोलबाला हुआ। कला का क्या कमाल दिखलाया? कला को कला दिखलानी चाहिए। कविता में जान होगी, तो वह आप दिल पर असर कर सकेगी, लोगों को तड़पा देगी, सिरों को हिला देगी, जादू - सा करेगी और कानों में रस घोल देगी। इसीलिए जो सुकवि या अच्छे शायर हैं, वे कविता को गाकर सुनाना अच्छा नहीं समझते। मुशायरों में उस्तादों को गाकर कविता नहीं सुनाते देखा जाता, क्योंकि उनको दु:ख होता है कि कविता की जान ही उसकी जान है। वह अपने पाँवों पर खड़ी होगी और अपना काम कर जाएगी। वह दूसरों का मुँह क्यों ताके। यह बात सच है; पर इसके लिए जहाँ कविता में सुन्दर भाव होने चाहिए, वैसे ही उसकी भाषा को भी सीधाी - सादी, लचकदार और ऐसी होनी चाहिए, जो सुनते ही जी में जगह कर ले और एक - एक बात को लोगों के जी में ठीक - ठीक बैठाल दे। यह बात बोलचाल की भाषा में ही मिल सकती है, गढ़ी भाषा में नहीं।

    जब हम लोग हाथ में कलम लेकर किसी की भद्द उड़ाते हैं, किसी को बनाते हैं, किसी को चिढ़ाते हैं, किसी पर आवाजश् कसते हैं, किसी की खिल्ली उड़ाते हैं, किसी से दिल्लगी करते हैं, किसी की चुटकियाँ लेते हैं, किसी को ताना मारते हैं, किसी की मिट्टी पलीत करते हैं, किसी को उल्लू बनाते हैं, लगती बातें लिखकर किसी को राह पर लगाना चाहते हैं, किसी की हँसी उड़ाकर लजवाते हैं, जब हम चुभती बातों से किसी के दिल में सुई चुभाते हैं, किसी की मक्कारी का परदा उठाते हैं, किसी की बदनामी का ढोल पीटते हैं, किसी को दिल हिला देनेवाली लनतरानियाँ सुनाते हैं, उस समय बोलचाल की भाषा ही हमारा साथ देती है। हमारे कलम से ऐसे ही शब्द निकलते हैं, जो उसकी नोक की तरह चुभने वाले होते हैं। क्यों? सबब क्या? कोई दूसरा सबब नहीं, सिवा इसके कि वे जल्द समझ में आते हैं, और अपना असर रखते हैं। सदा हम जिस भाषा को बोलते हैं, जिस भाषा में बातचीत करते हैं, हँसी में, दिल्लगी में, मखौल उड़ाने में, जिन शब्दों से काम लेते रहते हैं, अगर लिखने के समय उनको काम में न लाए, तो हमारी फबतियों का मजा ही किरकिरा हो जाता है, और हमारी कलम यह असर नहीं पैदा कर सकती, जिसके लिए वह उठाया गया था। जब लोग किसी से बिगड़ते हैं, किसी से झगड़ते हैं, किसी से तहत्ताुक करते हैं, किसी को जली - कटी सुनाते हैं, गालियाँ देते हैं, बकते - झकते हैं, उस घड़ी शब्द चुनने नहीं बैठते, जो शब्द मुँह में आया कह डालते हैं, इसलिए ऐसी बातों के लिखने के समय भी हमको उन्हीं शब्दों को काम में लाना पड़ता है, जो ऐसे अवसरों पर काम में लाए जाते हैं। अगर ऐसा न किया जाए, तो लेख में बनावट आ जाएगी, जिससे वह जैसा चाहिए न तो दिल में चुभेगा और न वैसा उसका असर होगा। उसका रंग ही बिगड़ जायेगा; इसलिए ऐसे लेखों में आप बोलचाल का बोलबाला ही पावेंगे। उससे किनारा करके कोई लेखक न तो चटपटे लेख लिख सकेगा और न दूसरों के दिल को जैसा चाहिए वैसा दहला सकेगा और न किसी को अपनी बातों की लपेट में ला सकेगा। अगर यह सच है, तो बोलचाल ऐसी चीज नहीं कि जिससे हम नाक - भौं सिकोडें, अौर उसके लिए लापरवाही करें।

    यही बात मुहाविरों के लिए भी कही जा सकती है।

    मुहाविरों के विषय में एक ऍंगरेजश् विद्वान् श्रीमान् स्मिथ की यह सम्मति है, जो वास्तव में यथातथ्य है -

    ''शब्दों के अतिरिक्त भाषा की सौंदर्य - वृध्दि के लिए अन्य बातों की भी अपेक्षा होती है - वे परम आवश्यक हैं - उनको हम मुहाविरा कह सकते हैं। ''1

    एक दूसरे स्थान पर वे लिखते हैं -

    ''मुहाविरे हमारी बोलचाल के लिए जीवन की चमकती चिनगारी - स्वरूप तथा स्फूर्ति हैं। वे भोज्य पदार्थों की उस जीवन प्रदायिनी सामग्री के समान हैं, जो उनको सुस्वादु तथा लाभप्रद बनाती हैं। मुहाविरों से शून्य भाषा या लेखन - शैली अमधाुर, शिथिल तथा असुन्दर हो जाती है। ''2

    ''विज्ञानवेत्तााओं, पाठशाला के अध्यापकों तथा लकीर के फष्कीर व्याकरण के आचार्यों द्वारा मुहाविरों के प्रयोग कम आदर से देखे जाते हैं, परन्तु अच्छे लेखक उन्हें प्यार करते हैं, क्योंकि वास्तव में वे भाषा के जीवन एवं आत्मा हैं। मुहाविरों को कविता की सहोदरा के समान हम मान सकते हैं; क्योंकि कविता के ही समान हमारे भावों को जीवित अनुभवों के रूप में वे प्रकाशित करते हैं। ''

    ''वे मनोभाव, जो विचार - नियम के विद्रोही हैं, जो कल्पना के बदले प्रतिकृति

1.  ‘‘There is another element of enrichment which is of greater importance’’

     ‘‘This element is composed of what we call idioms’’ (words and idioms, p. 167)

2.  Idioms are little sparks of life and energy in our speech; they are like those substances called vitamins which make our food nourishing and wholesome; diction deprived of idiom soon becomes tasteless, dull insipid. This is why an infusion of foreign idiom is better than no idiom at all.’’

को, व्याकरण1 के बदले शब्द - रचना की स्निग्धाता को और तर्क के बदले स्फूर्ति को उत्ताम समझते हैं, यद्यपि तर्क की कसौटी पर नहीं कसे जा सकते, तो भी वे वस्तुओं का वह सजीव परिज्ञान हैं, जो यथार्थ भाषा के मुहाविरा रूपी झरोखों से झलक जाते हैं। ''2

    आजकल जिस भाषा में खड़ीबोली की कविता लिखी जाती है, यह बनावटी है, गढ़ी हुई है, असली बोलचाल की भाषा नहीं है। इन दिनों गद्य की भाषा भी यही है। यह भाषा अब पढ़े - लिखों में समझ ली जाती है और दूर तक फैल गयी है। इसमें संस्कृत शब्दों की भरमार है। इन दिनों इसका लिखना आसान है, इसका अभ्यास हो गया है, यह साहित्यिक भाषा बन गयी है। संस्कृत भाषा में, उसके शब्दों में, उसके समासों में कैसा बल है, वह कितनी मीठी है, उसमें कितना लोच है, कितना रस है, कितनी लचक है, कितनी गुंजाइश है, कितना लुभावनापन है, उसमें कितना भाव है, कितना आनंद है, कितना रंग रहस्य है, मैं उसे कैसे बतलाऊँ। उसमें क्या नहीं, सब कुछ है। उसमें ऐसे - ऐसे सामान हैं, ऐसे - ऐसे विचार हैं, ऐसे - ऐसे साधान हैं, ऐसे - ऐसे रत्न हैं, ऐसे - ऐसे पदार्थ हैं कि उनके बिना हम जी नहीं सकते, पनप नहीं सकते, न फूल - फल सकते हैं। उससे मुँह मोड़कर हिन्दी भाषा के पास क्या रह जायेगा? वह कंगाल बन जाएगी। तमिल, तेलुगू, मलयालम आदि ऐसी भाषाएँ हैं, जो पराई मानी जाती हैं; पर आज दिन वे संस्कृत शब्दों से भरी हैं। संस्कृत की बदौलत ही मालामाल हैं। फिर बिचारी हिन्दी की क्या बिसात, जो उससे नाता तोड़ सके। संस्कृत के सामने हम सिर झुकाते हैं, हम सदा सेवक की तरह हाथ बाँधाकर उसकी सेवा में खडे रहना चाहते हैं। हम उसको धाता क्या बताएँगे, ऐसा सोचना भी पाप समझते हैं। हिन्दी भाषा की चोटी उसी के हाथों में है। ऊँचे - ऊँचे विषय उसी की गोद में पलेंगे, उसी के सहारे हिन्दी भरी - पूरी होगी। मैंने जो बोलचाल की ओर धयान दिलाया है, उसका इतना ही मतलब है कि एक रूप उसका भी रहे, जिससे वह सब कोर - कसर दूर कर अपनी किसी और बहनों से पीछे न रहे, और इस योग्य बन जाए कि उसे लोग राष्ट्र - भाषा के सिंहासन पर बिठा सकें।

1.  Idiom is held in little esteem by men of science, by schoolmasters, and old-fashioned grammarians, but good writers love it, for it is, in truth, ‘‘the life and spirit of’’ Languages. It may be regarded as the sister of poetry for like poetry it retranslates our concepts into living experiences.’’ (Words and Idioms, pp. 276-277)

2.  This element of thought which is rebellious to the laws of thought, which prefers images to abstraction energy to logic, terseness to grammar—it is precisely this illogical but living sense of things which looks out at us thought the idiomatic loopholes in rational Language. (Words and idioms, p. 276)


 

 

 

 

 

 

अभिभाषण

 

 

।मंगलाचरण।
दु्रतविलम्बित

        सकल साधाक साधिात सेविता।

                विबुधा वृन्द विबोधिात वन्दिता।

        भरित भाव प्रभूत विभूति से।

                जयति भारत भूतल भारती। 1

 

        सरसती सुर की सरि सी रहे।

                बन सुधाा सम स्वाद सहोदरा।

        सरस नीरस मानस को करे।

                रसिक की रसना रस से भरी। 2

       

        मधाुमयी वन हो बुधा लालिता।

                पुलकिता रह हो अकलंकिता।

        सफलिता कलिता ललिता रहे।

                विकसिता लसिता कवितावली। 3

 

        सुधा रखे हित साधान की सुधाी।

                सकल प्रेमिक प्रेम निकेत हो।

        विबुधा की विधिा हो विधिा से बँधाी।

                विबुधातामय हो विविधाा क्रिया। 4

        सरलता शुचिता सहकारिता।

                सरसता सहिता हितकारिता।

        विलसती जन मानस में रहे।

                मधाुरता मृदुता उपकारिता। 5

अनुनय - विनय

    स्वागतकारिणी समिति के सभापति महोदय! समुपस्थित सज्जन समूह! समादरणीया महिला वृन्द!

           गौरव लाभ करना गौरव की बात है, किन्तु सबसे बडे ग़ौरव का अधिाकारी वह है, जो वास्तव में किसी को गौरवित बनाता है। मन्दवाही मलयानिल का प्रवाह मन्द - मन्द आता है, तरु - पुंज को स्पर्श करता है, सौरभित बनाता है, वे कुछ से कुछ हो जाते हैं, काठ से चन्दन बन जाते हैं, सुर शीश पर चढ़ते हैं, निस्सन्देह यह उनके लिए महत्तव की बात है। परन्तु जिसने उन्हें यह महत्ताा प्रदान की वह किस महत्तव का अधिाकारी है, आप लोग स्वयं इसको समझ सकते हैं। आप लोगों का कृपापात्रा बनकर मैं सम्मानपात्रा हुआ हूँ - किन्तु वास्तव में इस सम्मान के अथवा इससे भी किसी उच्च और पुनीत सम्मान के भागी आप लोग हैं। लोहा पारस स्पर्श से स्वर्ण बनता है, किन्तु लोहे को स्वर्णता प्रदान करके पारस क्या बनता है, यह कहते नहीं बनता। कंगाल सुदामा भगवान् यदुकुल कुमुद कलाधार की कसौटी है। एक साधाारण लोक को लोकपाल बनाकर वे त्रिालोक से ऊँचे हो गए। आप लोगों का भी कुछ ऐसा ही कौशल है, नहीं तो उज्ज्वल रत्नराशि के मिलते तुच्छ काँच न पूछा जाता, प्रफुल्ल पाटल प्रसून के होते पलाश पुष्प पर दृष्टि न पड़ती। दूसरे तर्क - वितर्क करें, मैं सतर्क हूँ, मेरा हृदय कृतज्ञतापूर्ण है, मैं इस अभूतपूर्व उदारता के लिए आप लोगों को सहòों धान्यवाद प्रदान करता हूँ। मेरे रोम - रोम से धान्यवाद की धवनि निकल रही है। मैं शिष्टाचार प्रदर्शन नहीं कर रहा हूँ, वास्तव में बात यह है कि धान्यवाद से भी बहुमूल्य यदि कोई वस्तु होती, तो आज मैं उसको भी सेवा में अर्पण करके सन्तोष न पाता। अपने किए की लज्जा आप लोगों को अवश्य होगी, आप लोग अपना कार्य मुझ अयोग्य से भी योग्यतापूर्वक करा ही लेंगे, अतएव आज मैं अयोग्य होकर भी योग्य हूँ। विशेष क्या कहूँ - कहूँगा तो इतना ही और कहूँगा 'मणौ वज्र समुत्कीर्णं सूत्रास्येवास्ति मे गति:। '

हिन्दी भाषा का उद्गम

    आप लोगों ने अनुग्रह करके मुझको जिस सभा के समुच्च सिंहासन पर समासीन किया है, उसका नाम है हिन्दी साहित्य - सम्मेलन। सभापतित्व की सूचना पत्राों में प्रकाशित होते ही, मेरे पास पत्राों की भरमार हो गयी, अनेक विषयों में सम्मति देने की मुझे सम्मति दी गयी। कहा गया घडे में समुद्र भर दिया जावे, सामयिक सब विषयों पर लेख लिख दिया जावे, यही नहीं लेख में प्रौढ़ वय की प्रौढ़ता भी हो। एक सज्जन ने लिखा - अपने पक्ष का प्रतिपादन पूरा - पूरा किया जावे, चाहे पक्षपात का दोष भले ही लगे। निदान अपना - अपना राग सबने अलापा, मैं चिन्तित हुआ, क्या करूँ। यदि व्याख्यान लंबा होगा, तो रंग फीका हो जावेगा, लोग बिना सुने ही लम्बे हो जावेंगे। यदि छोटा हुआ, तो छोटाई होगी, अधाूरा हुआ तो पूरी न पड़ेगी। सोच - समझ कर ठीक किया, हमें तीन ही विषय से मतलब है, और वे हैं, 'हिन्दी', 'साहित्य' और 'सम्मेलन'। अतएव मैं इन्हीं तीन विषयों पर आप लोगों की सेवा में कुछ निवेदन करूँगा। यद्यपि इन विषयों पर भी बहुत कुछ कहा जा चुका है किन्तु इसके लिए मैं क्या करूँ, यह मार्ग सबके लिए तंग है। कौन - सा विषय है, कि जिस पर लेखनी नहीं चल चुकी है, पर लिखने वाले कब मानते हैं, कुछ न कुछ लिखते ही हैं - और नहीं कुछ होता, तो पूर्वजों का पदानुसरण ही करते हैं - मैं भी यही करूँगा। ऐसे ही बखेडे में एक बार कविकुल - तिलक गोस्वामी तुलसीदास जी पडे थे - उस समय उनकी रत्न प्रसविनी लेखनी ने लिखा था ''सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिन रहा न कोई। '' मेरे लिए यही महावाक्य अवलम्बन है। यह वाक्य मेरी तमोमयी रजनी मति का मयंक और मेरे नीरस मानस तरु का मन्दान्दोलित वसन्त समीर है।

    पहला विषय मेरा हिन्दी है, अतएव पहले मैं देखूँगा हिन्दी भाषा की जननी कौन है? उसकी जन्मभूमि कहाँ है? वह वहाँ कैसे उत्पन्न हुई? कैसे लालित - पालित हुई? उसका उगना, अंकुरित होना, पल्लवित बनना, फूलना - फलना, अत्यन्त मनोमुग्धाकर है। परम ललित लेखनी द्वारा यह बातें लिपिबध्द हुई हैं, बडे सुचतुर चित्राकारों ने अपनी चारुतूलिका द्वारा उसका रुचिर चरित चित्रा अंकित किया है। मैं उस सुन्दर लेखमाला को उस चमत्कारमय चित्रापट को, आपके सामने रखने में असमर्थ हूँ। किन्तु उस लेखमाला की कुछ काम की बात सुनाऊँगा, उस चारु चित्रापट के कुछ आवश्यक अंश दिखलाऊँगा। आशा है उनसे आप लोगों का बहुत कुछ मनोरंजन होगा।

    हिन्दी भाषा का वर्तमान रूप अनेक परिवर्तनों का परिणाम है। वह क्रम - क्रम विकसित होकर इस अवस्था को प्राप्त हुई है, यह क्रम विकास कैसे हुआ, उसका निरूपण यहाँ किया जाता है। प्रथम सिध्दान्त यह है कि हिन्दी भाषा की जननी संस्कृत है, पहले वह कई प्राकृतों में परिवर्तित हुई, उसके उपरान्त उसने हिन्दी का वर्तमान रूप धाारण किया। दूसरा यह कि प्राकृत स्वयं एक स्वतन्त्रा भाषा है, वह न तो वैदिक भाषा से उत्पन्न हुई न संस्कृत से, कालान्तर में वही रूप बदल कर आया और हिन्दी कहलायी। तीसरा यह कि प्राचीन वैदिक भाषा ही वह उद्गम स्थान है, जहाँ से समस्त प्राकृत भाषाओं के òोत प्रवाहित हुए हैं, संस्कृत उसी का परिमार्जित रूपान्तर, और हिन्दी उन्हीं òोतों में से एक òोत का सामयिक स्वरूप है। हम मीमांसा करके देखेंगे कि इनमें कौन - सा सिध्दान्त उपपत्तिा मूलक है।

    सबसे पहले प्रथम सिध्दान्त को लीजिये, उसके प्रतिपादक संस्कृत और प्राकृत भाषा के कुछ प्राचीन विबुधा और हमारी हिन्दी भाषा के कुछ धाुरन्धार विद्वान् हैं। उनका यह कथन है -

    ''प्रकृति: संस्कृतम् तत्रा भवम् तत् आगतम् वा प्राकृतम्। ''

 - वैयाकरण हेमचन्द्र

    ''प्रकृति: संस्कृतम् तत्रा भवत्वात् प्राकृतम् स्मृतम्। ''

 - प्राकृत चन्द्रिकाकार

    ''प्राकृतस्य तु सर्वमेवसंस्कृतम् योनि:। ''

 - प्राकृत संजीवनीकार।

    ''यह सर्व सम्मत सिध्दान्त है कि प्रकृति संस्कृत होने पर भी कालान्तर में प्राकृत एक स्वतन्त्रा भाषा मानी गयी। ''

 - स्वर्गीय पण्डित गोविन्दनारायण मिश्र

    ''संस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं।

 - स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधारी

    अब दूसरे सिध्दान्त वालों की बातें सुनिए। इनमें अधिाकांश बौध्द और जैन विद्वान् हैं। अपने 'प्रयोग सिध्दि' ग्रन्थ में कात्यायन लिखते हैं -

सा मागधाी मूल भासानरा यायादि कप्पिका।

ब्राह्मणो चस्सुतालापा सुग्बुध्दा चापि भासरे।

    आदि कल्पोत्पन्न मनुष्यगण, ब्राह्मणगण, सम्बुध्दगण, और जिन्होंने कोई वाक्यालाप श्रवण नहीं किया है ऐसे लोग, जिसके द्वारा बातचीत करते हैं, वही मागधाी मूल भाषा है।

    'पति सम्बिधा अत्वूय' नामक ग्रन्थ में लिखा है -

    ''मागधाी भाषा देवलोक, नरलोक, प्रेतलोक, और पशु जाति में सर्वत्रा प्रचलित है। किरात, अन्धाक, योणक, दामिल प्रभृति भाषा परिवर्तनशील है, किन्तु मागधाी आर्य और ब्राह्मणगण की भाषा है। इसलिए अपरिवर्तनीय और चिरकाल से समान रूपेण व्यवहृत है। ''

    महारूप सिध्दिकार लिखते हैं -

    ''मागधिाकार सभाव निरुत्तिाया'' अर्थात् मागधाी स्वाभाविक भाषा (अथवा मूल भाषा) है।

    अपने पाली भाषा के व्याकरण की अंग्रेजी भूमिका में श्रीयुत् सतीशचन्द्र विद्याभूषण लिखते हैं -

    ''धाीरे - धाीरे मागधाी में, जो इस देश में बोली जाती थी, बहुत से परिवर्तन हुए और आजकल की भाषाएँ, जैसे बंगाली, मरहठी, हिन्दी और उड़िया इत्यादि उसी से उत्पन्न हुईं। ''1

''जैनेरा अर्ध्द मागधाी भाषा केई आदि भाषा बलिया मने करेन। ''

जैन लोग अर्ध्द मागधाी भाषा को ही आदि भाषा मानते हैं।

 - बँगला विश्वकोश, पृष्ठ 437

    अब तीसरे सिध्दान्त वालों का विचार सुनिए, यह दल समधिाक पृष्ठ है, इसमें पाश्चात्य विद्वान् तो हैं ही, भारतीय विद्वानों की संख्या भी न्यून नहीं है। क्रमश: अनेक विद्वानों की सम्मति, मैं आप लोगों के समाने उपस्थित करता हूँ। जर्मन विद्वान् 'वेबर' कहते हैं -

    ''वैदिक भाषा से ही एक ओर सुगठित और सुप्रणालीबध्द होकर संस्कृत भाषा का जन्म, और दूसरी ओर मानव प्रकृति सिध्द और अनियत वेग से वेगवान प्राकृति भाषा का प्रचलन हुआ - प्राचीन वैदिक भाषा ही क्रमश: बिगड़ कर सर्व साधाारण के मुख से प्राकृत हुई। '' बँगला विश्वकोष, पृष्ठ 433

 

1.    Course of time this Magadhi—the spoken language of the country underwent immense changes, and gave rise to the madern vernaculars such as Bengali, Marahathi, Hindi, Uriya etc.

    विश्वकोश के प्रसिध्द विद्वान् रचयिता स्वयं यह लिखते हैं -

           ''वास्तविक आर्य जाति की आदि भाषा वेद में है। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैदिक भाषा रूप òोतस्वनी से ही संस्कृत और प्राकृत दोनों धााराएँ निर्गत हुई हैं। ''

 - बँगला विश्वकोश; पृष्ठ 433

    श्रीमान् विधाुशेखर शास्त्राी अपने पालिप्रकाश नामक बँगला ग्रन्थ में क्या लिखते हैं, उसे भी देखिए - .

    ''आर्यगण की वेद - भाषा और अनार्यगण की आदिम भाषा में एक प्रकार का सम्मिश्रण उत्पन्न होने से, बहुत से अनार्य शब्द वर्तमान कथ्य वेद - भाषा के साथ मिश्रित हो गए, इस सम्मिश्रण जात भाषा का नाम ही प्राकृत है। ''

 - पालि प्रकाश प्रवेशक' पृष्ठ 36

    हिन्दी भाषा के प्रसिध्द विद्वान् श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी की यह अनुमति है -

    ''हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी, उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं, उसका विकास होते - होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गयीं, हमारी विशुध्द संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है। ''

 - हिन्दी भाषा की उत्पत्तिा; पृष्ठ 73

    विख्यात साहित्य मर्मज्ञ बाबू पुरुषोत्तामदास टण्डन का विद्वत्ताापूर्ण भाषण भी इसी सिध्दान्त का प्रतिपादक है। और भी प्रगल्भ विद्वानों की सम्मतियाँ मैं यहाँ उध्दृत कर सकता हूँ, किन्तु विस्तार भय से छोड़ता हूँ।

    अब मैं देखूँगा कि इन तीनों सिध्दान्ताें में से कौन - सा सिध्दान्त विशेष उपपत्तिा मूलक है। शब्दशास्त्रा की गुत्थियों का सुलझाना सुलभ नहीं, लोग जितना ही इसको सुलझाते हैं, उलझन उतनी ही बढ़ती है। बहुत कुछ छानबीन हुई, किन्तु भाषा विज्ञान का अगाधा रत्नाकर आज भी बिना छाने हुए पड़ा है, छानने वालों ने उसको सौ - सौ तरह से छाना, किन्तु रत्न हाथ आना सबके भाग्य में कहाँ! मैं इस उद्योग में नहीं हूँ - न मुझमें इतनी योग्यता है - न मैं इस धानीभूत अंधाकार में प्रवेश करने के लिए कोई सुन्दर आलोक प्रस्तुत कर सकता हूँ, केवल मैं विचारों का दिग्दर्शनमात्रा करूँगा। प्रथम सिध्दान्त के विषय में मैं विशेष कुछ लिखना नहीं चाहता, वेद - भाषा को प्राचीन संस्कृत कहा जाता है। कोई - कोई वेद - भाषा को वैदिक संस्कृत और पाणिनि काल की एवं उसके बाद के ग्रन्थों की भाषा को लौकिक संस्कृत कहते हैं। प्रथम सिध्दान्त वालों ने संस्कृत से ही प्राकृत की उत्पत्तिा बतलायी है, यदि इस संस्कृत से वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है, तो प्रथम सिध्दान्त तीसरे सिध्दान्त के अन्तर्गत हो जाता है, और विरोधा का निराकरण होता है। परन्तु वास्तव में बात यह है कि प्रथम सिध्दान्त वालों का उद्देश्य वैदिक संस्कृत से नहीं, वरन् लौकिक संस्कृत से है। क्योंकि षड्भाषा - चन्द्रिकाकार लिखते हैं -

भाषा द्विधाा संस्कृता चा प्राकृती चेति भेदत:।

कौमार पाणिनीयादि संस्कृता संस्कृतामता।

प्रकृते: संस्कृता यास्तु विकृति: प्राकृता मता।

    अतएव दोनों सिध्दान्तों का परस्पर विरोधाी होना स्पष्ट है। प्रथम सिध्दान्त की सारवता के विषय में मैं कुछ नहीं लिखना चाहता, उस पर समधिक लेखनी परिपालना हुई है। सम्मेलन के सभापतित्व के आसन पर विराजमान होकर पारसाल इस विषय में विद्वद्वर श्रीमान् बाबू पुरुषोत्तामदास टण्डन ने बहुत कुछ लिखा है उन्होंने युक्ति के साथ उसकी असारता सिध्द कर दी है, अतएव उसके सम्बन्धा में अब मेरा कुछ लिखना पिष्टपेषण मात्रा होगा। सम्भव है कि कुछ विद्वज्जन उनके विचारों से सहमत न हों, सम्भव है कि उनकी चिन्ता प्रणाली अभ्रान्त न हो, विचार वैचित्रय अप्रकट नहीं, परन्तु मेरी उनके साथ एक वाक्यता है - केवल इस कारण से नहीं कि उनके विचार में प्रौढ़ता है, वरन् इस कारण्ा से भी कि शिक्षा नामक वेदांग के पाँचवें अधयाय का तीसरा श्लोक भी उनके विचार को पुष्ट करता है। वह यह है - ''प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्ता स्वयंम्भुवा'', स्वयं आदि पुरुष प्राकृत अथवा संस्कृत बोलते थे। इस श्लोक में प्राकृत को अग्रस्थान दिया गया है, जो पश्चाद्वर्ती संस्कृत को उसका पश्चाद्वर्ती बनाता है। अतएव अब इस विषय में कुछ और न लिखकर, मैं दूसरे सिध्दान्त की मीमांसा करताहूँ।

    दूसरा सिध्दान्त क्या है, उसका परिचय मैं दे चुका हूँ। वह मागधाी को आदि कल्पोत्पन्न, मूल भाषा, आदि भाषा, और स्वाभाविक भाषा मानता है। यदि इस भाषा का अर्थ वैदिक भाषा के अतिरिक्त सर्व साधाारण में प्रचलित भाषा है, तो यह सिध्दान्त बहुत कुछ माननीय है। क्याेंकि महर्षि पाणिनि के प्रसिध्द सूत्राों में वेद अथवा उसमें प्रयुक्त भाषा, छन्द, मन्त्रा, निगम, आदि नामों से अभिहित है, यथा - विभाषा छन्दसि (1, 2, 36) अयस्मयादीनि छन्दसि (1, 4, 20) नित्यं मन्त्रो (6, 1, 10) जनिता मन्त्रो (6, 4, 53) वाव पूर्वस्य निगमे (6, 4, 9) ससूवेति निगमे (7, 4, 74)

    परन्तु1 भाषाओं के लिए 'लोक', 'लौकिक' अथवा भाषा शब्द का ही प्रयोग उन्होंने किया है, यथा -

    विभाषा भाषायाम् (6 - 1 - 181) स्थेव भाषायाम् (6 - 3 - 20) प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् (7 - 2 - 88) पूर्व तु भाषायाम् (8 - 2 - 98)

    परन्तु वास्तव में बात यह नहीं है, वरन् वास्तव में बात यह है कि मागधाी को मूल भाषा अथवा आदि भाषा कहकर, वेद - भाषा पर प्रधाानता दी गयी है। क्योंकि वह अपरिपर्वतनीय मानी गयी है, और कहा गया है कि नरलोक के अतिरिक्त उसकी व्यापकता देवलोक तक है, प्रेतलोक और पशु जाति में भी वह सर्वत्रा प्रचलित है। जिस काल में स्वयं वेदों की अप्रधाानता हो गयी थी, उस काल में वेदभाषा का अप्राधाान्य माना जाना स्वाभाविक है। धाार्मिक संस्कार सभी धार्मवालों के कुछ - न - कुछ इसी प्रकार के होते हैं - ऐसे स्थलों पर वितण्डावाद व्यर्थ है, केवल देखना यह है कि भाषा - विज्ञान की दृष्टि से यह विचार कहाँ तक युक्तिसंगत है, और पुरातत्तववेत्ताा क्या कहते हैं। वैदिक भाषा की प्राचीनता, व्यापकता, और उसके मूल भाषा अथवा आदि भाषा होने के सम्बन्धा में कुछ विद्वानों की सम्मति मैं नीचे उध्दाृत करता हूँ - उनसे इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पडेग़ा। संस्कृत भाषा से इन अवतरणों में वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है।

    ''किसी समय संस्कृत सम्पूर्ण संसार की बोलचाल की भाषा थी। ''2

 - मिस्टर वाय।

    ''सर्वज्ञात भाषाओं में से संस्कृत अतीव नियमित है, और विशेषतया इस कारण अद्भुत है कि उसमें योरप की अद्यकालीन भिन्न - भिन्न भाषाओं और प्राचीन भाषाओं के धाातु हैं। ''3 मिस्टर कूवियेर।

    यह देखकर कि भाषाओं की एक बड़ी संख्या का प्रारम्भ संस्कृत से है, या यह कि संस्कृत से उसकी समधिाक समानता है, हमको बड़ा आश्चर्य होता है - और यह संस्कृत के बहुत प्राचीन होने का पूरा प्रमाण है। रेडिगर नामक एक

 

  1. संस्कृतं प्राकृतं चैवापभ्रंशोथ पिशाचिकी।

     मागधाी शौरसेनी च षड्भाषाश्च प्रकीर्तिता:। प्रा. लक्षण टी.

2.  Some time Sanskrit was the one language spoken all over the world. Edinburgh Rev. Vol XXXIII, 3.43.

3.  It is the most regular language known and is especially remarkable, as containing the roots of various languages of Europe, and the Greek, Latin, German, of Sclavonic—Baron cuvier—Lectures on the Natural Sciences.

जर्मन लेखक का यह कथन है कि संस्कृत सौ से ऊपर भाषाओं और बोलियों की जननी है। इस संख्या में उसने बारह भारतवर्षीय, सात मीडियन पारसी, दो अरनाटिक अलबानियन, सात ग्रीक, अठारह लेटिन, चौदह इसक्लेवानियन और छ: गेलिक केल्टिक को रखा है।

    लेखकों की एक बड़ी संख्या ने संस्कृत को ग्रीक तथा लैटिन और जर्मन भाषा की अनेक शाखाओं की जननी माना है, या इनमें से कुछ को संस्कृत से उत्पन्न हुई किसी दूसरी भाषा द्वारा निकला पाया है, जो कि अब नाश हो चुकीहै।

    सर विलियम जोन्स और दूसरे लोगों ने संस्कृत का लगाव पारसी और जिन्द भाषा से पाया है।

    हालहेड ने संस्कृत और अरबी शब्दों में समानता पायी है, और यह समानता केवल मुख्य - मुख्य बातों और विषयों में ही नहीं, वरन् भाषा की तह में भी उन्हें मिली है। इसके अतिरिक्त इन्डो चाइनीज और उस भाग की दूसरी भाषाओं का भी उसके साथ घनिष्ठ सम्बन्धा है। 1 - मिस्टर एडलिंग।

    ''पुरातन ब्राह्मणों ने जो ग्रन्थ हमें दिए हैं, उनसे बढ़कर निर्विवाद प्राचीनता के ग्रन्थ पृथ्वी पर कहीं नहीं मिलते। ''2 - मिस्टर हालहेड।

    ''जिन्द के दश शब्दों में से 6 या 7 शब्द शुध्द संस्कृत के हैं। '' मिस्टरहैमर।

    ''जिन्द और वैदिक संस्कृत का इतना अन्तर नहीं, जितना वैदिक संस्कृत और संस्कृत का है। '' मैकडानेल - ईश्वरीय ज्ञान, पृष्ठ 63, 64, 66, 67

 

1.  The great number of languages which are said to owe their origin, or bear a close affinity to the Sanskrit, is truly astonishing, and is another proof of its high antiquity. —A German writer.

2.  The world does not now contain annals of more indisputable antiquity than those delivered down by the ancient Brahmans—Halhed, Code of Hindu Lows (Rudiger) has asserted it to be the parent of upwards of a hundred languages and dialects, among which he enumerates, twelve Indian seven Median-Persic, two Arnantic–Albanian, seven Greek, eighteen Latin, fourteen Sclavanian and six Ciltic-Gallic.

     A host of writers have made it the immediate parent of the Greek, and Latin, and German families of languages, or regarded some of these as descended from it through a language now extinct. With the Persian and Zend it has been almost identified by Sir William Jones and others. Halhed notices the similitude of Sanskrit and Arabic words, and this not merely in technical and metaphorical terms, but in the main ground work of language. In a contrary direction of the Indo-Chinese, and other dialects in that quarter, all seem to be closely allied to it—Adeling Sans. Literature. H. 38-40.

    संसार की आर्य जातीय भाषाओं के साथ वैदिक भाषा का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए मैं यहाँ कुछ शब्दों को भी लिखता हूँ -

  संस्कृत  मीडी   यूनानी  लैटिन  अंग्रेजी    फारसी

  पितृ     पतर   पाटेर    पेटर   फादर     पिदर

  मातृ     मतर   माटेर   मेटर   मदर     मादर

  भ्रातृ     ब्रतर   फाटेर   फ्रेटर   ब्रदर     बिरादर

  नाम    नाम   ओनोमा  नामेन  नेम      नाम

  अस्मि   अह्मि  ऐमी    एम    ऐम      अस

    अवतरणों को पढ़ने और ऊपर के शब्दों का साम्य देखकर यह बात माननी पडेग़ी कि वैदिक भाषा अथवा आर्य जाति की वह भाषा, जिसका वास्तविक और व्यापक रूप हमको वेदों में उपलब्धा होता है, आदि भाषा अथवा मूल भाषा है। यदि संसार भर की भाषाओं की जननी हम उसे न मानें, तो भी हमें आर्य भाषा से प्रसूता जितनी भाषाएँ हैं, उनकी आधाार भूता अथवा जन्मदात्राी तो उसे मानना ही पड़ेगा और ऐसी अवस्था में मागधाी भाषा को मूल भाषा अथवा आदि भाषा कहना कहाँ तक युक्तिसंगत है, आप लोग स्वयं इसको सोच सकते हैं।

    पालि प्रकाशकार कहते हैं ''समस्त प्राकृतों में पालि ही सबसे प्राचीन है, यह भी कहा गया है कि प्राकृत संस्कृत की पूर्ववर्ती है। इसलिए सिंहल के पालि वैयाकरणों की पालि के प्राचीनत्व सम्बन्धा में जो धाारणा है, उसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। '' पालि प्रकाश प्रवेशक, पृ. 15

    वास्तव में वह अस्वीकार नहीं किया जा सकता, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि पालि ही मूल अथवा आदि भाषा है। पालि प्रकाशकार एक स्थान पर लिखते हैं, 'पालि भाषा का दूसरा नाम मागधाी है और यह उसका भौगोलिक नाम है - पृष्ठ 13। दूसरे स्थान पर वे कहते हैं ''मूल प्राकृत जब इस प्रकार उत्पन्न हुई, तो उसके अन्यतम भेद पालि की उत्पत्तिा का कारण भी यही है, यह लिखना बाहुल्य है'' - पृष्ठ 48। उक्त महोदय का यह वाक्य इस भाव का व्यंजक है कि पालि अथवा मागधाी मूल भाषा किम्वा आदि भाषा कैसे मानी जा सकती है। विश्वकोशकार ने वैदिक संस्कृत से आर्ष प्राकृत, पाली और प्राकृत का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए शब्दों की एक लम्बी तालिका पृष्ठ 434 में दी है, उनके देखने से यह विषय और स्पष्ट हो जावेगा, अतएव उसके कुछ शब्द यहाँ उठाए जाते हैं। विश्वकोशकार ने पालि प्रकाश के मूल प्राकृत के स्थान पर आर्ष प्राकृत लिखा है -

   संस्कृत   आर्ष प्राकृत  पाली        प्राकृत

   अग्नि:   अर्ग्नि      अग्नि       अग्गी

   बुध्दि:    बुध्दि       बुध्दि       बुध्दी

   मया     मये, मे     मया        मये, मइ, मे, ममए

   त्वम्     त्वं, तुमन   त्वं, तुवम्    तं, तुमं, तुवम

   षोडश    सोलस      सोलस       सोलह

   विंशति   वीसा       वीसति, वीसम् वीसा

   दधिा     दहि, दहिम्  दधिा        दहि, दहिम्

    प्रसिध्द हिन्दी उन्नायक बाबू श्यामसुन्दरदास ने नागरी प्रचारिणी पत्रिाका के प्रथम भाग में जो लेख भारतवर्षीय आर्य देश भाषाओं के प्रादेशिक विभाग पर लिखा है, उसके अन्त में उक्त महोदय ने एक नक्शा लगाया है, उस नक्शे में उन्होंने वैदिक संस्कृत से प्राचीन प्राकृत की और प्राचीन प्राकृत से मागधाी और अर्ध्द मागधाी की उत्पत्तिा दिखलायी है। यह नक्शा भी इसी विचार को पुष्ट करता है कि मागधाी मूल भाषा नहीं है।

    प्राकृत लक्षणकार, चण्ड ने आर्ष प्राकृत को, प्राकृत प्रकाशकार, वररुचि ने महाराष्ट्री को, प्रयोग सिध्दिकार, कात्यायन ने मगधाी को, जैन विद्वानों ने अर्ध्दमागधाी को आदि प्राकृत अथवा मूल प्राकृत लिखा है। पालि प्रकाशकार, पालि को सब प्राकृतों से प्राचीन बतलाते हैं - कुछ लोग दोनों को दो भाषा समझते हैं और अपने कथन के प्रमाण में दोनों भाषाओं के कुछ शब्दों की प्रयोग भिन्नता दिखलाते हैं - ऐसे कुछ शब्द नीचे लिखे जाते हैं -

       संस्कृत       पाली       मागधाी

       शश          ससा        मो

       कुक्कुट       कुक्कुटो     रो

       अश्व         अस्स       सांगा

       श्वान         सुनश       साच

       व्याघ्र        व्यघ्घो      वीं

    जो अभेदवादी हैं, वे शब्दों को मागधाी भाषा के देशज शब्द मानते हैं। जो हो, किन्तु अधिाकांश विद्वान् पालि और मागधाी को एक ही मानते हैं। इस प्रकार के मतभेद और खींच - खाँच का आधाार कुछ धाार्मिक विश्वास और कुछ आपेक्षिक ज्ञान की न्यूनता है। अतएव अब मैं इस विषय में कुछ विशेष लिखना नहीं चाहता। केवल एक कथन की ओर आप लोगों की दृष्टि और आकर्षित करूँगा, वह यह कि कुछ लोगों का यह विचार है कि मागधाी को देश - भाषा मूलक मानकर मूल भाषा कहा गया है। किन्तु यह सिध्दान्त मान्य नहीं, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो द्राविड़ी, और तेलगू आदि देशभाषाओं के समान वह भी एक देश - भाषा मानी जाती, परन्तु उसको किसी पुरातत्तववेत्ताा ने आज तक ऐसा नहीं माना, वह आर्य भाषा सम्भवा ही मानी गयी है, इसलिए यह तर्क सर्वथा उपेक्षणीय है। आर्य भाषा सम्भवा वह इसलिए मानी गयी है, कि उसकी प्रकृति आर्य्य भाषा अथवा वेद - भाषा मूलक है। प्राकृत भाषा के जितने व्याकरण हैं, उन्होंने संस्कृत के शब्दों अथवा प्रयोगों द्वारा ही प्राकृत के शब्द और रूपों को बनाया है, प्राकृत भाषा का व्याकरण सर्वथा संस्कृतानुसारी है। संस्कृत और प्राकृत के अधिाकांश शब्द एक ही झोले के चट्टे - बट्टे, अथवा एक फूल के दल, अथवा एक चना के दो दाल मालूम होते हैं, थोड़े ऐसे शब्द नीचे लिखे जाते हैं -

     संस्कृत     मागधाी संस्कृत   मागधाी

     कृतं       कतं     ऐश्वर्य    इस्सरिय

     गृहं       गहं      मौक्तिकं  मुत्तिाकं

     घृतं       घतं     पौर:     पोरो

     वृत्ताान्त:  बुत्तान्तो  मन:     मनो

     चैत्रा:      चित्ताो  भिक्ष:     भिक्खु

     क्षुद्रं       खुद्दं     अग्नि:    आगी

    संस्कृत के एक श्लोक का प्राकृत रूप देखिए। पहला शुध्द मागधाी दूसरा अर्ध्द मागधाी है।

रभस वशनम्र सुर शिरो विगलित मन्दार राजितांघ्रि युग:।

वीर जिन: प्रक्षालयतु मम सकलमवधा जम्बालम्।

    1. लहश वशन मिल शुलशिल - विअलिद मन्दाल लायिंदहि युगे।

      वोल यिणे पक्खालदु मम शयल मवय्य यम्बालम्।

    2. लभश वशन मिल शुलशिल - विअलिद मन्दाल लाजि दहिजुगे।

      वील जिणे पक्खालदु मम शयल मवज्ज जम्बालम्।

    संस्कृत के श्लोक में और उसके प्राकृत रूप में कितना अधिाक साम्य है, वह आप लोग स्वयं समझ सकते हैं। जो बातें ऊपर कही गयी हैं, वे भी कम उपपत्तिा मूलक नहीं। ऐसी अवस्था में यदि प्राकृत भाषा वेद - भाषा मूलक नहीं है, तो क्या देश - भाषा मूलक है? वास्तव में मागधाी अथवा अर्ध्द मागधाी किम्वा पालि की जननी वैदिक संस्कृत है, और यही तीसरा सिध्दान्त है, जिसको अधिाकांश विज्ञानवेत्ताा स्वीकार करते हैं, ऐसी दशा में दूसरे सिध्दान्त की अप्रौढ़ता अप्रकट नहीं।

हिन्दी भाषा का विकास

    हिन्दी भाषा के विकास की बातें चित्ता विकसित करने वाली हैं। आप लोगों को ऐसे अमनोरम मार्ग से चलना पड़ा है, जहाँ मन रम कर भी नहीं रमता। पथ असरल तो था ही, भूल - भुलैया से भी भरा था, वहाँ यथोचित आलोक न होने के कारण अंधाकार भी था, टटोल - टटोलकर चलना पड़ता था। कहीं पत्थर थे, कहीं राह के रोडे, क़हीं पहाड़, कहीं मरुभूमि, कहीं काँटे। वहाँ न तो चित्ता प्रफुल्लित करने वाले फूल थे, न हरी - भरी बेलियाँ, न कोकिल की कल कूजन, न पक्षियों का कलरव। आप लोग ऊब गये होंगे, न जाने क्या सोचते होंगे। परन्तु अन्त सबका होता है, यह मार्ग भी समाप्त होना चाहता है थोड़ा और चलिए। विदेशी विद्वानों का मत है कि आर्य जाति मधय एशिया से भारत वर्ष में आयी, कोई कहता है तिब्बत से, कोई कहता है हिन्दूकुश अथवा काकेशश के आसपास से। कुछ लोग इस बात को नहीं मानते। वे कहते हैं कि पश्चिमी यूरप अथवा आरमेनिया किम्वा आक्ससनदी का कान्त कूल उनका आदिम निवास स्थान था। अन्तिम मत यह है कि प्राचीन आर्य लोग दक्षिण रूस के सुन्दर पहाड़ी प्रदेश के रहने वाले थे। किन्तु अनेक भारतीय विद्वान् इन विचारों से सहमत नहीं हैं, वे कहते हैं, पवित्रा भारतवर्ष ही हमारा क्रीड़ा क्षेत्रा और आदिम निवास स्थल है, वे स्वर्गोपम कश्मीर प्रदेश अथवा उसके समीपवर्ती संसार में सर्वोच्च पामीर आदि भूभाग को अपनी आदि जन्मभूमि मानते हैं। वे कहते हैं, उसी स्थान से मुख्य निवासी आर्य भारतवर्ष में पूर्व और दक्षिण में बढ़े। और यहीं से आर्य जाति की कुछ शाखाएँ ईरान होती हुई दूसरे प्रदेशों में गयीं। इस विषय में विस्तृत समालोचना करने का स्थान नहीं, अतएव अब मैं प्राकृत विषय लिखने में प्रवृत्ता होता हूँ। यह निश्चित है कि जन्म ग्रहण उपरान्त आर्यजाति चिरकाल तक कश्मीर प्रदेश में अथवा उसके निकटवर्ती भूभाग में रही और फिर वह वहाँ से कई दलों में विभक्त होकर पूर्व दक्षिण और उत्तार पश्चिम की ओर फैली। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 75वें सूक्त में 'नद्यो देवता:' सम्बन्धाी मन्त्राों में नदियों का वर्णन है, उनमें गंगा, यमुना, सरस्वती, शतदु्र, वितस्ता, सरयू, गोमती, विपाशा आदि उन नदियों का नाम आया है, जो इस समय भी पंजाब प्रान्त और हमारे पश्चिमोत्तार प्रदेश में वर्तमान हैं। इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल में हमारी आर्य - जाति इन्हीं प्रदेशों में निवास करती थी, और यही कारण है कि यह प्रदेश आर्यावर्त कहलाया। इस प्रदेश में निवास करते हुए आर्यजाति का सम्बन्धा यहाँ के आदिम निवासियों से स्थापित हुआ, और यहीं पर आर्य भाषा के बहुत से शब्द आर्येतर जातियों ने और बहुत से आर्येतर जातियों के शब्द आर्यों ने ग्रहण किए। स्थिति और आवश्यकता के अनुसार यह आदान - प्रदान बढ़ता गया, और आर्य प्राकृत की उत्पत्तिा हुई। अतएव ज्यों - ज्याें आर्यजाति पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ती गयी, त्यों - त्यों उसका सम्बन्धा नयी - नयी आर्येतर जातियों से होता गया, साथ ही उनकी नित्य की व्यवहृत भाषा का प्रभाव भी उनकी आर्ष प्राकृत पर पड़ा, और यही स्थान परक प्राकृतों की उत्पत्तिा का कारण हुआ, जैसा कि मागधाी, अर्ध्दमागधाी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अवन्ती आदि स्थान सम्बन्धाी नामों से ही प्रकट होता है। श्रीयुत् स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधारी ने अपने व्याख्यान में लिखा है - ''महाराष्ट्री शब्द से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं, अपितु भारत रूपी महाराष्ट्र से है। '' 'प्राकृत प्रकाशकार' वररुचि भी कुछ इसी विचार के मालूम होते हैं। परन्तु यह सिध्दान्त एक देशी है, वास्तव में बात यह है कि महाराष्ट्री नाम देश परक है, चाहे किसी काल में वह बहुदूर व्यापिनी भले ही रही हो। 'प्राकृत लक्षणकार' चण्ड ने चार प्राकृत का उल्लेख किया है - प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाचिकी और मागधाी उनकी संज्ञा है; प्राकृत से उनका अभिप्राय आर्ष से है। 'प्राकृत - लक्षण' के टीकाकार षड्भाषा मानते हैं, वे उपर्युक्त चार नामों में संस्कृत और शौरसेनी का नाम बढ़ाते हैं। वररुचि महाराष्ट्री, पैशाची, मागधाी और शौरसेनी और हेमचन्द्र मूल प्राकृत, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश छ: प्राकृत बतलाते हैं। हमारी हिन्दी भाषा का सम्बन्धा शौरसेनी और अपभ्रंश से है। इन प्राकृतों के विषय में अधयापक लासेन की सम्मति देखने योग्य है, वे कहते हैं - ''वररुचि वर्णित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधाी और पैशाची, इन चार प्रकार के प्राकृतों में शौरसेनी मागधाी और मागधाी ही वास्तव में स्थानीय भाषाएँ हैं। इन दोनों में शौरसेनी एक समय में पश्चिमांचल के विस्तृत प्रदेश की बोल - चाल की भाषा थी। मागधाी अशोक की शिलालिपि में व्यवहृत हुई है, और पूर्व भारत में यही भाषा किसी समय प्रचलित थी। महाराष्ट्री नाम होने पर भी यह महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा नहीं कही जा सकती। पैशाची नाम भी कल्पित मालूम होता है। '' विश्वकोश, पृष्ठ 438

    प्राय: कहा जाता है कि पुस्तक की अथवा लिखित भाषा में और बोल - चाल की भाषा में अन्तर होता है। यह बोल - चाल की भाषा साहित्य में विकृत हो जाती है। यह बात स्वीकार की जा सकती है, पर सर्वथा सत्य नहीं है। हृदय का वास्तविक उद्गार यदि हम चाहें तो अपनी बोल - चाल की भाषा में भी प्रकट कर सकते हैं, वरन् पुस्तक की अथवा लिखने की भाषा से इस प्रकार की रचना कहीं अधिाक हृदयग्राहिणी, मनोहर और भावमयी हो सकती है। यह दूसरी बात है कि प्रान्तिक भाषा में होने के कारण उसके समझने वालों की संख्या परिमित हो। मैं इस बात का कुछ प्रमाण आप लोगाें के सामने बिना उपस्थित किए आगे बढ़ना नहीं चाहता। दो एक प्रमाण सुनिए। हमारे हिन्दी संसार में कुछ ऐसे सहृदय कवि भी हो गये हैं, जिन्होंने बोल - चाल की भाषा में कविता लिखकर कमाल कर दिया है। इन सुहृदयों में सबसे पहिले मेरी दृष्टि घाघ पर पड़ती है, उनकी समस्त रचना बोल - चाल की भाषा में है और उसमें गजब का जादू है। देखिए यह भगवान् बैकुण्ठनाथ के बैकुण्ठ को भी कुण्ठित करके क्या कहते हैं -

भुइयाँ खेडे हर व्है चार। घर व्है गिहथिन गऊ दुधाार।

रहर दाल जड़हन का भात। गागल निबुआ औ घिव तात।

सहरस खंड दही जो होय। बाँके नैन परोसै जोय।

कहै घाघ तब सब ही झूठा। उहाँ छाड़ि इहवै बैकुंठा।

    सुनिए एक ब्राह्मण देवता की बातें सुनिए - आप बडे बिगडे दिल और चिड़ - चिड़ थे। कुछ दु:ख पाकर एक बार अपने राम से खीझ गए - फिर क्या था उबल पडे - बड़ी जली - कटी सुनायी - उनकी बातें ही बेढंगी - पर दिल के भाव का सच्चा फोटो उनमें मौजूद है - कहते हैं -

घर से निकसतै बापै खैलैं। पंचवटी हरवउलैं नार।

ढेकुली के अड़वाँ से बाली मरले। ये दशरथ के बंड बोहार।

    स्वर्गीय पण्डित प्रतापनारायण मिश्र की वैसवाड़ी में लिखी गयी कविता की बहार देखिए -

हाय बुढ़ापा तोरे मारे अब तो हम नक न्याय गयन।

करत धारत कुछ बनतै नाहीं कहाँ जान औ कैस करन।

छिन भर चटक छिनै मा मध्दिम जस बुझात खन होय दिया।

तैसे निखबख देख परत है हमरी अक्किल के लच्छन।

    यदि इन पद्यों में वास्तविक हृदय के उद्गार प्रकट हुए हैं, तो बोल - चाल की भाषा में क्यों उत्ताम कविता न हो सकेगी। सैकड़ों गाने की चीजे, ठुमरियाँ कजलियाँ, विरहे, लोरिक, पचरे, आल्हे, बिलकुल बोल - चाल की भाषा में लिखे गये हैं, और आज तक प्रचलित हैं। जनता में उनका कम आदर भी नहीं, फिर कैसे कहा जाए कि बोल - चाल की भाषा काव्य अथवा कवि कृति की भाषा नहीं हो सकती। मेरा विचार है कि पवित्रा वेदों की भाषा बिल्कुल सामयिक बोल - चाल की भाषा है, उसकी सरलता, सादगी, स्वाभाविकता, उसके छन्दों की गति यह बतलाती है कि वह कृत्रिाम भाषा नहीं है। जिस समय किसी लिपि का प्रचार तक नहीं हुआ था, ब्राह्मी लिपि ब्रह्मदेव के विचार गर्भ में थी, लेखनी विधिा की लिलाट लेखा भी न लिख सकी थी, और पुस्तक भगवती वीणा पुस्तक धाारिणी के पदम्पाणि में भी सुशोभित नहीं थी, उस समय श्रुति श्रवण परम्परा द्वारा भारतीय आर्य जाति का हृदय सर्वस्व थी। जो श्रुति स्वाभाविकता की मूर्ति है, उसमें अस्वाभाविकता की कल्पना भी नहीं हो सकती, श्रुति ही वेद - भाषा स्वरूपा है। यही वेद - भाषा स्थिति, प्रगति, और देश - काल के प्रभाव से परिवर्तित होकर उच्चारण भिन्नता और उनके नवीन शब्दों के संसर्ग से आर्ष प्राकृत में परिणत हुई। आर्ष प्राकृत का पूर्ण विकास होने पर वेद - भाषा उस अवस्था को प्राप्त हुई, जो कि नियति का नियम है। अब वह सर्वसाधाारण की भाषा न थी, अतएव विद्वद्वृन्द का हृदय तल अथवा मुख प्रदेश ही उसका निवास स्थल था, ब्राह्मी लिपि का उद्भव होने पर यथासमय उसको पुस्तक का स्वरूप भी मिला।

    जिस समय वेद - भाषा आर्ष प्राकृत का रूप धाारण कर रही थी, उसी समय कुछ संस्कार प्रिय विद्वज्जनों ने उसे संस्कृत किया, और इस प्रकार संस्कृत भाषा की उत्पत्तिा हुई। ज्ञात होता है, वेदांग शिक्षा के इस अर्ध्द श्लोक का 'प्राकृत संस्कृते चैव स्वयं प्रोक्ता स्वयम्भुवा' यही मर्म है। संस्कृत यद्यपि विद्वद्वृन्द में ही प्रचलित रही है। यद्यपि यह उन्हीं के परस्पर सम्भाषण और धाार्मिक कार्यकलाप की सम्बल मानी गयी है, किन्तु उसका भाण्डार अलौकिक और अद्भुत है। वह नन्दन कानन समान कान्ति निकेतन और चारु चिन्तामणि सदृश अनन्त लोकोत्तार चिन्ताआें का आगार है। वह कल्पना कल्पतरु, कमनीयता कामधोनु, भाव का सुमेरु, माधाुर्य निर्झर का मनोहर सलिल, धवनि वीणा का मनो मुग्धाकर झंकार, और कला कुमुदिनी का कान्त कलाधार है। वह कूटस्थ अचल हिमाचल समान समुन्नत, पुनीत ज्ञान सुरसरि प्रवाह का जनक, भावभक्ति भानुनन्दिनी का उत्पादक और अनुपम विचार रत्न राजिका आकर है। उसी के समान उसमें से अनेक छोटे - बडे धार्म के परम पवित्रा सोते निकलते हैं, संसार को सरस करते हैं, मानसों में मन्द - मन्द बहते हैं, निज कल - कल धवनि से निर्जीव को सजीव बनाते हैं, मूढ़ प्रकृति मरुभूमि की मरुभूमिका खोते हैं, पाहन हृदय को स्निग्धा रखते हैं, कलित कामना क्यारियों को सींचते हैं, प्रेम पादप पुंज को पानी पिलाते हैं और कहीं तरंगिणी का स्वरूप धाारण कर सद्भाव प्रान्त को पय सिक्त कर देते हैं। वह एक देशवर्ती मानसरोवर है, जिसमें विवेक का निर्मल नीर भरा है, जिसके वेदान्त, सांख्य, न्याय, मीमांसा जैसे बड़े ही मनोरम घाट हैं, जिसमें उपनिषद् के अनूठे उत्पल सुविकसित हैं, और जिसके अनुकूल कूल पर संसार भर के नीर - क्षीर विवेकी मानस मराल सदैव क्रीड़ा करते रहते हैं। जिस समय महिमामयी मागधाी के तुमुल कोलाहल से भारतीय गगन धवनित हो रहा था, उस समय कुछ दिनों तक संस्कृत देवी का महान् कण्ठ अवश्य कुंठित हो गया था, किन्तु जल्द समय ने पलटा खाया, फिर उनकी पूजा अर्चा और पद - वन्दना होने लगी, उनकी महत्ताा देखकर मागधाी अवनत मस्तक हुई, बौध्द धार्म के ग्रन्थ संस्कृत में लिखे जाने लगे, ललित विस्तर जैसे ललित ग्रन्थों की रचना हुई; बौध्द धार्म के साथ वह देशान्तरों में भी पहुँची, और वहाँ हाथों - हाथ ली गयी। समस्त प्राकृत भाषाएँ अपना काल बिताकर अव्यवहृत हुईं; किन्तु संस्कृत की अबाधा सत्ताा, आज भी भारतवर्ष की समस्त प्रचलित भाषाओं को अपने तत्सम शब्दों द्वारा सत्ताामयी बना रही है। आज भी प्राचीन भाषाओं के सुसज्जित सभा मण्डप में वह सिंहासनासीना है, और आज भी उसकी पुस्तक व्यापिनी भाषा, रूपान्तर से देश व्यापिनी होकर अपनी विजय वैजयन्ती उत्ताोलन कर रही है।

    संस्कृत अर्चा की बातें कहने में मैं आर्ष प्राकृत की चर्चा को भूल गया। जब आर्ष प्राकृत अधिाक व्यापक हो गयी और उनके प्रान्तों पर उसका अधिाकार हो गया, तो उसका रंग - रूप भी बदला, और उसका स्थान प्रान्तीय प्राकृत ने धाीरे - धाीरे ग्रहण कर लिया। इन प्रान्तीय प्राकृतों में मागधाी और शौरसेनी की प्रभा के सामने, शेष समस्त प्राकृतों की प्रभा मलिन हो जाती है। मागधाी भगवान् बुध्ददेव के आत्मबल से बलवती और प्रियदर्शी अशोक की धार्मप्रियता से समुन्नत हुई और चिरकाल तक भारतव्यापिनी रही। शौरसेनी को यह गौरव तो नहीं प्राप्त हुआ, परन्तु वह भी बहुत दिनों तक भारतवर्ष के एक बृहत् भाग पर विस्तृत रही, पश्चात् अपभ्रंश भाषा में परिण्ात हो गयी, यही अपभ्रंश भाषा हमारी हिन्दी भाषा की जननी है।

    किस प्रकार वेद - भाषा बदलते - बदलते हिन्दी भाषा के रूप में आयी, इसका उदाहरण थोडे में, मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ - मैं कुछ पद्य आर्ष प्राकृत, शौरसेनी, अपभ्रंश और तदुपरान्त हिन्दी भाषा के लिखता हूँ, उनको मिलाइए; आशा है उनसे हिन्दीभाषा के विकास पर पूर्ण प्रकाश पडेग़ा। डॉक्टर राजेन्द्रलाल मिश्र की यह सम्मति है कि आदि प्राकृत का रूप गाथाओं में मिलता है। उनके इस सिध्दान्त का अनुमोदन मनीषी मैक्स मूलर और डॉक्टर वेबर आदि विद्वानों ने भी किया है। कहा जाता है कि आर्ष प्राकृत का पूर्वरूप गाथाओं में ही मिलता है, एक गाथा नीचे लिखी जाती है -

        अधा्रुवम् त्रिाभवम् शरदभ्र निभम्।

                नट रंग समा जगि जन्मि च्युति।

        गिरि नद्य समम् लघु शीघ्र जवम्।

                ब्रजतायु जगे यथ विद्यु नभे।

    संस्कृत के नियम के अनुसार दूसरे चरण के नटरंग समा को नटरंग समम्, जगि को जगति, जन्मि को जन्म, च्युति के स्थान पर च्युत:; तीसरे चरण में गिरि नद्य समम् के स्थान पर गिरि नदी समम् और चौथा चरण ब्रजत्यायुर्जगति यथा विद्युदं नभसि होना चाहिए। यह पद्य, यह बतलाता है कि किस प्रकार संस्कृत प्रयोगों और शब्दों का तोड़ - फोड़ आदि से प्रारम्भ हुआ। इसके बाद का आर्ष प्राकृत रूप देखिए -

रसभ वश नभ्र सुरशिरो - विगलित मन्दार राजितांघ्रि युग:।

वीर जिन: प्रक्षालयतु - मम सकलमवद्य जम्बालम्

    यह संस्कृत रूप है - आर्ष प्राकृत का रूप नीचे लिखा जाता है। देखिए कितना थोड़ा परिवर्तन है।

रभस वस नम्म सुरसिर - विगलित राजितांघ्रि युगो।

भीर जिनो पक्खालेतु - मम सकल भवज जम्बालम्।

    शौरसेनी रूप कितना परिवर्तित है, यह नीचे लिखे पद्य से प्रकट होगा। पहले संस्कृत रूप, उसके नीचे प्राकृत रूप लिखा जाता है -

ईषदीषच्चुम्बितानि भ्रमरै: सुकुमारकेसरशिखानि।

अवतंसयन्ति दयमाना: प्रमदा: शिरीषकुसुमानि।

ईसीसि चुम्बिआद्रं भमरेहिं सुउमार केसर सिहाई।

ओदंसयन्ति दअमाणा पमदाओ सिरीस कुसुमाई।

    विदग्धा मुख मण्डलकार ने अप्रभंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलायी है -

         रसिअह केण उच्चाडण किज्जइ।

                जुयदह माणसु केण उविज्जइ।

         तिसिय लोउ खणि केण सुहिज्जइ।

                एह यहो मह भुवणे विज्जइ।

    इसका संस्कृत रूप देखिए -

रसिकानां केनोच्चाटनं क्रियते, युवत्या: मानसं केनोद्विज्यते।

तृषितो लोक: क्षाणं केन सुखी क्रियते, एतदयं मम (प्रश्न:) भुवने गीयते।

    वैयाकारण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश का यह उदाहरण दिया है -

वाह विछोउवि जाहि तुहुँ हउँते वइँ को दोसु।

हिय पट्टिय जद नीसरहि जाणउँ मंज सरोसु।

    अब हिन्दी भाषा के आदि कवि चन्द की रचनाओं से इन अपभ्रंश भाषा की कविताओं को मिलाइए, देखिए कितना साम्य है -

ताली खुल्लिय ब्रह्म दिक्खि इक असुर अदभ्युत।

दिधधा देह चख सीस मुष्ष करुना जस जप्पत।

कबी कित्ता कित्ताी उकत्ताी सुदिष्षी।

तिनक्की उचिष्टी कबी चन्द भष्षी।

    अपभ्रंश भाषा की कविता से चन्द की कविता कितनी मिलती है, दोनों में कितना साम्य है। यह आपने देखा। परिवर्तन होते - होते अपभ्रंश भाषा की कविता संस्कृत से कितनी दूर हो गयी और वर्तमान हिन्दी के कितनी निकट आ गयी, यह भी प्रकट हो गया। कविवर चन्द तेरहवें शतक के आदि में हुए हैं। कहा जाता है कि ग्यारहवें शतक के अन्त तक अपभ्रंश का प्रचार था, इसके उपरान्त वह हिन्दी के रंग में ढलने लगी। कवि चन्द हिन्दी भाषा के चासर हैं, उनके पहले भी कुछ कवि हो गये हैं, जिनमें खुमान, कुतुब अली, साई दान चारण, फैज अकरम और पुष्प कवि का नाम विशेष उल्लेख योग्य है; परन्तु हिन्दी भाषा के आदिम प्रौढ़ कवि चन्दबरदायी ही हैं। इनके पहले के कवियों के न तो कोई काव्य कहलाने योग्य उत्ताम ग्रन्थ मिलते हैं और न उनकी भाषा ही टकसाली अथवा वास्तविक हिन्दी कही जा सकती है; अतएव हिन्दी भाषा के आदि कवि होने का सेहरा चन्द वरदायी के ही सिर है।

    चन्द वरदायी का ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो, विशाल ग्रन्थ है, उसकी भाषा में भी भिन्नता है। उसमें कई प्रकार की रचनाएँ हैं, वह केवल चन्द की कृति भी नहीं है; ग्रन्थ का अन्तिम भाग उसके योग्य पुत्रा जल्ह द्वारा लिखा गया है, अतएव रासो के विषय में संदिग्धा बातें कही - सुनी जाती हैं; तथापि अधिाकांश भाषा, ग्रन्थ की सामयिक बातों का वास्तविक उल्लेख, उस काल की सभ्यता के आदर्श, रासो को हिन्दी भाषा का आदि ग्रन्थ मानने के लिए विवश करते हैं। कुछ उसकी भिन्न प्रकार की रचनाएँ आप लोगों के मनोरंजन के लिए यहाँ उध्दृत करता हूँ।

दोहा

पूरन सकल बिलास रस, सरस पुत्रा फलदान।

अन्त होइ सह गामिनी, नेह नारि को मान।

सम दरसी ते निकट है, भुगति मुगति भरपूर।

विखम दरस वा नरन ते सदा सरवदा दूर।

    ये पद्य बिल्कुल प्रौढ़ हिन्दी काल के मालूम होते हैं -

हरित कनक कान्ति कापि चंपेव गोरी।

रसित पदुम गंधाा फुल्ल राजीव नेत्राी।

उरज जलज शोभा नाभि कोशं सरोजं।

चरण कमल हस्ती लीलया राज हंसी।

    ऊपर जो दो कविताएँ लिख आया हूँ - वह इन दोनाें रचनाओं से भिन्न है। अधिाकांश स्थल पर चन्द की कविता बड़ी मनोहारिणी है, सम्भव है कि रासो में कुछ प्रक्षिप्त अंश भी हो, किन्तु जिन कविताओं में चन्द या जल्ह का नाम आया है, उनके तात्कालिक रचना होने में सन्देह नहीं, रासो बड़ा सुन्दर काव्य है, और साहित्य की सम्पूर्ण कलाओं से अलंकृत है।

    कविवर चन्दबरदायी के बाद, चौदहवें शतक के मधयकाल में हमारे सामने दो भाषाओं के दो महान् विद्वान् आते हैं - एक संस्कृत विद्या का विदग्धा और दूसरा अरबी - फारसी का आलिम। दोनों ही भगवती वीणापाणि के वर पुत्रा, सरस हृदय, और कविता देवी के भावुक भक्त हैं; उन्होंने हिन्दी के मनोरम उद्यान से बडे सुन्दर सुमन खिलाये हैं। एक ने पूर्वी हिन्दी की उज्ज्वल और परम ललित रचना की नींव डाली है, और दूसरे ने खड़ी बोली की मनोहर कविता का आदि रूप सामने उपस्थित किया है। एक मैथिल कोकिल है और दूसरा बुलबुल हजार दास्तान। एक का नाम है विद्यापति ठाकुर और दूसरे का अमीर खुसरो। यदि कोमल कान्त पदावली के जनक संस्कृत में जयदेव हैं, तो हिन्दी भाषा में कलित ललित मधाुर रचना के पिता विद्यापति। यदि वे हृत्तांत्राी को निनादित कर कहतेहैं -

ललितलवंगलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे।

मधाुकरनिकरकरम्बितकोकिलकूजितकुंजकुटीरे।

तो ये मानस मृदंग को मुखरित कर यों मधाुर आलाप करतेहैं -

नन्द क नन्दन कदम्बेर तरु तरे धिारे - धिारे मुरलि बजाव।

समय सँकेत निकेतन बइसल बेरि बेरि बोलि पठाव।

जमुना का तिर उपवन उदवेगल फिरि फिरि त - तहि निहारि।

गोरस बिकइ अबइते जाइत जनि जनि पुछ बन मारि।

    इस सुधाा òावी सज्जन के इस वाक्य 'माह भादर भरा बादर सून्य मन्दिर मोर' पर बंगाल का सहृदय समूह विमुग्धा हो जाता है, किन्तु उनके इस प्रकार के सहòों ललित पद उनके ग्रन्थ में मौजूद हैं। अब हमारे बुलबुल हजार दास्तान की नगमा सराई सुनिए -

जे हाल मिसकी मकुन तगा फुल दुराय नयना बनाय बतियाँ।

कि ताबे हिज्राँ न दारम ऐ जाँ न लेहु काहें लगाय छतियाँ।

यकायक अजश् दिल दो चश्मे जादू बसद फरेबम बेबुर्दतसकीं।

किसे पड़ी है जो जा सुनावे पिआरे पी को हमारी बतियाँ।

    इन पद्यों में जो हिन्दी का रूप है, उसमें आदि के दो पद्यों में सरस ब्रजभाषा का सुन्दर नमूना है - नीचे के हिन्दी पद्य में से यदि 'बतियाँ' को निकाल दें, तो वह खड़ी बोली का बड़ा अनूठा उदाहरण है। नीचे के दोहे कितने मनोहर हैं -

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीउ को, भए दोऊ एक रंग।

श्याम सेत गोरी लिये, जनमत भई अनीत।

एक पल में फिर जात हैं, जोगी काके मीत।

गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।

चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।

    इस सहृदय सुकवि की एक बिलकुल खड़ीबोली की कविता देखिए, यह आकाश की पहेली है -

'एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधाा धारा।

चार ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे। '

    इन दोनों सज्जनों की कविताओं को पढ़कर आश्चर्य होता है कि किसी आदर्श के न होने पर भी इन लोगों ने कितनी सरस, टकसाली, और सुन्दर हिन्दी लिखी है। मेरा विचार है कि कोई कविता की पुस्तक न होने पर भी, यह नहीं कहा जा सकता कि इस प्रकार की भाषा का देश में उस काल में प्रचार न था। सैकड़ों भजन, गीत और गाने की चीजें उस समय अवश्य होंगी, और उनसे इन लोगों को कम सहारा न मिला होगा। यही बात चन्द बरदायी के लिए भी कही जा सकती है। मैथिल कोकिल की भाषा तो इतनी प्यारी और सुन्दर है, उनका कल कूजन इतना आकर्षक है कि बंगाल, बिहार, और हमारा प्रान्त तीनों उनको अपनी - अपनी भाषा का महाकवि मानकर अपने को गौरवित समझते हैं।

    इन लोगों के बाद हिन्दी संसार के सामने सन्त कबीर आते हैं। इनके हाथों में ज्ञान का दीपक था, जो खूब दमक रहा था; आपकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं, और उसी दीपक ज्योति से ज्योतिर्मयी हैं। आपने सन्तमत और सन्तवानी की नींव डाली। आपकी दृष्टि बड़ी प्रखर थी, आपकी समस्त रचनाओं में उसकी प्रखरता विद्यमान है। आपकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य का गौरव हैं, उनमें वह आदर्श मौजूद है, जिस आदर्श ने अनेक सन्तजनों के हृदय को प्रेमरस से प्लावित कर दिया। महात्मा कबीर ने अपनी रचनाओं से हिन्दी भाषा को तो मालामाल बना ही दिया है, परन्तु उनके आदर्श ने एक विशद साहित्य उत्पन्न कर दिया है। हिन्दी साहित्य के विकास में इन रचनाओं से बड़ी सहायता मिली है। कबीर साहब की रचनाओं का भाण्डार बहुत बड़ा है, उसमें सब प्रकार की कविताएँ पायी जाती हैं, जो उनकी विभिन्न समयों में रची गयी बतलायी हैं, उनकी रचना - प्रणाली में भी अन्तर है। मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचना का मुख्य स्वरूप उनके बीजक में पाया जाता है। दोनों प्रकार की रचनाएँ नीचे उध्दृत की जाती हैं -

कहहु हो अम्बर कासों लागा, चेतन हारा चेत सुभागा।

अम्बर मधये दीसे तारा, एक चेता एक चेतवनहारा।

जो खोजी सो उहवाँ नाहीं, सो तो आहि अमर पद माहीं।

कह कबीर पद बूझै साई, मुख हृदया जाके एक होई।

 

रहना नहिं देस विराना है।

यह संसार कागद की पुड़िया बूँद पडे घुल जाना है।

यह संसार काँट की बाड़ी उलझ पुलझ मर जाना है।

यह संसार झाड़ औ झाँखड़ आग लगे बरि जाना है।

कहत कबीर सुनो भाई साधाो सतगुरु नाम ठिकाना है।

    महात्मा गोरखनाथ, कबीर साहेब के प्रथम हुए हैं। और सन्तवानी और हिन्दी - गद्य के आदि आचार्य वे ही हैं - उनकी वाणी का नमूना देखिए -

अवधू रहिया हाटे बाटे रूख विरिख की छाया।

तजिबा काम क्रोधा लोभ मोह संसार की माया।

    परन्तु इस प्रणाली को समुन्नत करने वाले कबीर साहब हैं, उनकी रचनाएँ अधिाक हैं, और भावमयी हैं। अतएव उनका समादर भी अधिाक हुआ है। हिन्दी साहित्य को समुन्नत करने में वे बहुत सहायक हुई हैं। कबीर साहेब की साखियाँ बड़ी मनोहर हैं, वे भजनों से अधिाक जनता में प्रचलित हैं - उनका रंग देखिए -

आछे दिन पाछे गये गुरु सों किया न हेत।

अब पछताया क्या करै चिड़िया चुग गईं खेत।

पाँचो नौबत बाजती होत छती सो राग।

सो मन्दिर खाली पड़ा बैठन लागे काग।

    कबीर साहेब के उपरान्त हिन्दी की समुन्नति और वृध्दि का वह समय आया, जो फिर कभी नहीं आया। उनके बाद सौ बरस के भीतर हिन्दी देवी का जो शृंगार हुआ, जो लोकोत्तार प्रसून चय उन पर चढे, उनका वर्णन नहीं हो सकता। इस समय में हिन्दी गगन को समुद्भासित करने वाले, हिन्दू संसार को अलौकिक आलोक से आलोकित करने वाले, प्रभाकर समान प्रभावशाली सूरदास और सुधाारस समान सुधााòावी गोस्वामी तुलसीदास उत्पन्न हुए। मधाुमयी लेखनी के आधाार - मलिक मुहम्मद जायसी और मम्मट समान आचार्य पद के अधिाकारी - विबुधावर केशवदास इसी काल के जगमगाते रत्न हैं। इस समय यदि सम्राट् अकबर हिन्दी साम्राज्य सम्वर्धान को केतु उत्ताोलन कर रहे थे, तो मन्त्रिाप्रवर रहीम खाँ खानखाना उसको अमूल्य रत्नों का हार उपहार देकर और सचिव शिरोमणि महाराज बीरबल पारिजात पुष्प से उसकी पूजा करके फूले नहीं समाते थे। इस समय वह भारत के अधिाकांश भाग में सम्मानित थी, महाराजाधिाराज के समुच्च प्रासाद से लेकर, एक साधाारण विद्या व्यसनी की कुटीर तक में उसका सरस प्रवाह प्रवाहित था। वह वैष्णव मण्डली का जीवन सर्वस्व, विबुधा समाज का आधाार स्तम्भ, सहृदय जन की हृदय वल्लभा, और रसिक जनों की रसायन सरसी थी। इस समय अनेक सरस हृदय कवि उत्पन्न हुए, जिन्होंने अपनी रसमयी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को अजर - अमर कर दिया है। इस समय ब्रजभाषा का अखण्ड राज्य था, किन्तु इसी समय अवधाी भाषा में पद्मावत जैसा बड़ा ही अनूठा काव्य लिखा गया।

    इस काल के समस्त बडे - बडे क़वियों की भाषा और रचनाओं का उदाहरण मैं सेवा में उपस्थित नहीं कर सकता। किन्तु जो हिन्दी देवी के अंक के निराले लाल हैं, जिन्होंने उसको निहाल ही नहीं किया, उसे चार चाँद भी लगा दिए, उनकी कुछ कविताएँ सुनाए बिना आगे बढ़ने को जी नहीं चाहता। साहित्य संसार के सूर - सूर की बातें सुनिए -

खंजन नैन रूप रस माते।

अतिसय चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते।

चल चल जात निकट श्रवनन के उलट पलट ताटंकफँदाते।

सूरदास अंजन गन अटके नतरु अबहिं उड़ि जाते।

    कुछ मर्म भरी बातें मलिक मुहम्मद जायसी की भी सुनिए, यह शख्स अजब दर्द भरा दिल साथ लाया था।

मिलहिं जो बिछुरे साजना, करि करि भेट कहंत।

तपन मृगिसिरा जे सहँहिं, ते अदरा पलुहंत।

पिय सों कहेहु संदेसरा, ए भौंरा ए काग।

सो धान विरहिन जरि गई, तेहिक धाुऑं मोहि लाग।

राती पिय के नेह की, स्वर्ग भयो रतनार।

जोरेऊ बासो अथवा, रहा न कोइ संसार।

    गोस्वामी जी की रत्न राजि में से कौन उपस्थित करूँ, वे सभी उज्ज्वल हैं, रामचरित मानस सरोज मकरन्द का मधाुप कौन नहीं है, उनका रंग निराला, ढंग निराला, बात निराली, सब निराला ही निराला तो है। हाँ, उनका रंग बड़ा चोखा है - अच्छा इसी की रंगत देखिए -

एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।

स्वाति सलिल रघुनाथ यश, चातक तुलसीदास।

तुलसी सन्त सुअम्ब तरु, फूलि फलहिं पर हेत।

इत ते ए पाहन हनैं, उत ते वे फल देत।

गोधान गजधान बाजिधान, और रतन धान खान।

जब आवत सन्तोख धन, सब धान धाूरि समान।

असन वसन सुत नारि सुख, पापिहुँ के घर होय।

सन्त समागम राम धान, तुलसी दुरलभ दोय।

    महाकवि केशव का महत्तव अकथनीय है। आपके कुल के सेवक भी भाषा नहीं बोलते थे। आपको भाषा में कविता करना अरुचिरकर था, किन्तु जब इधार रुचि हुई, तो कमाल कर दिया। एक पद्य उनका भी सुन लीजिये, देखिए आपके मान मर्यादा की मर्यादा बनी रहे -

    भूखन सकल घन सारही के घनस्याम कुसम कलित केसर ही छवि छाईसी।

    मोतिन की लरी सिर कण्ठ कण्ठमाल हार और रूप ज्योति जात हेरतहेराईसी।

    चन्दन चढ़ाए चारु सुन्दर शरीर सब राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाईसी।

    सारदा सी देखियत देखो जाइ केसो राइ गढ़ी वह कुँवरि जोन्हाई मेंअन्हाईसी।

    हिन्दी संसार में दो बहुत बडे सारग्राही हुए हैं, इनकी सारग्राहिता बड़ी ही हृदयग्राही है। ये हैं थोड़ी पूँजी वाले, किन्तु कई बडे - बडे पूँजीपति इनके सामने कुछ नहीं हैं। इनके पास हैं थोड़े, किन्तु जितने जवाहिर हैं, हैं बडे ही अनूठे। जहाँ कितने तेल चुराने वाले ठीक - ठीक तेल भी नहीं चुरा सके, वहाँ उन्होंने इत्रा निचोड़ा है। इनमें एक दरियाय लताफत के दुरे बेवहा अब्दुल रहीम खाँ खान - खाना हैं और दूसरे साहित्य गगन के पीयूषवर्षी पयोद बिहारी लाल। इन दोनों सहृदयों में सौ साल से अधिाक का अन्तर है। इन लोगों की भी कुछ रचनाएँ सुनिए - पहले रहीम की सेÐ बयानी देखिए -

यों रहीम सुख होत हैं, बढयो देखि निज गोत।

ज्यों बड़री ऍंखियान लखि; ऍंखियन को सुख होत।

छार मुण्ड मेलत रहत, कहु रहीम केहि काज।

जेहि रज रिखि पत्नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज।

कलित ललित माला बा जवाहिर जड़ा था।

चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।

कटि पट बिच मेला पती सेला नवेला।

अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला।

    बिहारी लाल की ललामता अवलोकन कीजिए -

यद्यपि सुन्दर सुघर पुनि, सगुनो दीपक देह।

तऊ प्रकास करै तितौ, भरिए जितौ सनेह।

जो चाहत चटकन घटै, मैलो होय न मित्ता।

रज राजस न छुवाइये, नेह चीकने चित्ता।

दृग अरुझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठ दुरजन हिए, दयी नयी यह रीति।

    हिन्दी के इस स्वर्ण - युग में और भी अनेक साहित्य कानन केशरी उत्पन्न हुए हैं। वे सब अपने ढंग के निराले हैं, परन्तु मेरे पास उन समस्त भावुकों की भावमयी रचनाओं को उपस्थित करने का स्थान नहीं। इस स्वर्ण - युग के उपरान्त भी बडे ही कवि कर्म कुशल - काव्य - कत्तर्ााओं का दर्शन होता है, उन लोगों ने भी मोती पिरोए हैं, बडे अनूठे बेलबूटे तराशे हैं, भगवती भारती के कण्ठ में बहुमूल्य रत्नहार डाले हैं; हिन्दी देवी को भाव के समुच्च आसन पर आसीन किया है, उसे समुन्नत बनाया है और उन न्यूनताओं की पूर्ति की है, जो उसकी कीर्ति के आवश्यक साधान हैं, परन्तु स्वर्णयुग का आदर्श ही उनका आदर्श भूत है, अतएव उनके विषय में कुछ विशेष लिखकर मैं इस व्याखान की कलेवर वृध्दि नहीं करना चाहता। हाँ, इन लोगों में एक देवदत्ता बलबलीयान देवदत्ता नामक कविकुल कलश पर दृष्टि बिना पडे नहीं रहती, यह देव वास्तव में स्वर्गीय सम्पत्तिा सम्पन्न है। उसकी दीप्ति के सम्मुख कविता देवी भी चमत्कृत होती है। अतएव उनका चमत्कार भीे देखिए -

जब ते कुँवर कान्ह रावरी कला निधाान कान परी वाके कहुँ सुजसकहानीसी।

तब ही ते देव देखी देवता सी हँसति सी रीझति सी खीजति सी रूठतिरिसानीसी।

छोटी सी छली सी छीन लीनी सी छकी सी छिन जकी सी टकी सी लगी

थकी थहरानी सी।

वींधाी सी बँधाी सी विख बूड़ति विमोहित सी बैठी बाल बकति बिलोकति बकानीसी।

    हिन्दी विकास का यह प्रसंग अधाूरा रह जायेगा, यदि गुरु देवों की गौरवमयी रचनाओं की गुरुता का गान इसमें न हो। महात्मा गुरु नानक से लेकर कलँगीधार गुरु गोविन्दसिंह तक दसों गुरुआें ने हिन्दू जाति को गौरवित बनाने का ही भगीरथ प्रयत्न नहीं किया है - उन स्वर्गीय महापुरुषों ने हिन्दी देवी की भी वह सेवा की है कि जिसके विषय में यह निर्भय होकर कहा जा सकता है 'न भूतो न भविष्यति। ' यदि वन्दनीय बल्लभ सम्प्रदाय अथवा पूजनीय वैष्णव दल ने उसको समुन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया है, यदि समादरणीय संत मतवालों ने उसकी प्रथित प्रतिष्ठा पताका बहुत ऊँची कर दी है, तो सकल गौरव भाजन गुरु देवों ने उसकी कान्ति कीर्ति कौमुदी द्वारा समस्त दिशाओं को धावलित कर दिया है। वास्तव में बात यह है कि एक हिन्दी देवी ही ऐसी हैं, जो अविरोधा से सभी सम्प्रदाय और मतवालों की आराधया हैं। पवित्रा आदि ग्रन्थ साहब और दशम गुरु प्रणीति दशम ग्रन्थ साहब हिन्दी भाषा की पुनीत, महान् और भावमयी रचनाओं के अपार पारावार हैं। जहाँ तक मैं जानता हूँ, हिन्दी में आज तक किसी ग्रन्थकार ने इतना बड़ा ग्रन्थ नहीं रचा। इन दोनों पुनीत ग्रन्थों में क्या नहीं है? वे ज्ञान के भाण्डार, विवेक के वारिधिा, विचार के हिमाचल, भाव के सुमेरु और भक्ति के आकार हैं। गुरु नानक देव के शब्द पंजाबी भाषा मिश्रित हैं, किन्तु गुरु अर्जुनदेव की रचना अधिकांश शुध्द हिन्दी है। दशम ग्रन्थ साहब की अधिाकांश ब्रज कविता ब्रजभाषा में है, और उसमें उसका उच्च और परिमार्जित स्वरूप वर्तमान है। आदि ग्रन्थ साहब में से एक भजन और दशम ग्रन्थ साहब में से एक पद्य, नीचे लिखा जाता है -

बलिहारी गुर आपणे देव हाड़ीं सद वार।

जिन माणस ते देवते करत न लागी वार।

जे सौ चंदा ऊगबे सूरज चढै हजार।

एते चानण हो दियाँ गुर विण घोर ऍंधाार।

    सेत धारे सारी वृख भानु की कुमारी जस ही की मनोवारी ऐसी रची हैनकोदई।

    रंभा उरवासी और सची सी मदोदरी पै ऐसी प्रभा का की जग बीचनकछूभई।

    मोतिन के हार गरे डार रुचि सो सिंगार कान्ह जू पै चली कवि श्याम रसकेलई।

    सन्त साज साज चली साँवरे के प्रीति काज चाँदनी में राधाा मानो चाँदनीसीहर्ोगई।

ब्रजभाषा और खड़ीबोली

    हिन्दी भाषा के विकास की वार्ता के साथ खड़ीबोली के विकास का बहुत बड़ा सम्बन्धा है। यद्यपि खड़ीबोली की कविता कविवर खुसरो के समय से ही होने लगी थी। कबीर साहब ने भी कभी - कभी खड़ीबोली की कविता लिखी है। कभी - कभी और सहृदय सुजन भी एक आधा पद्य खड़ीबोली का लिख जाते थे, जैसा निम्नलिखित पद्यों से प्रकट होता है -

जंगल में हम रहते हैं - दिल बस्ती से घबराता है।

मानुस गंधा न भाती है मृत मरकट संग सुहाता है।

चाक गरेबाँ कर के दम दम आहें भरना आता है।

ललितकिशोरी इश्क रैन दिन ये सब खेल खेलाता है।

ललित किशोरी

हम खूब तरह से जान गये जैसा आनन्द का कन्द किया।

सब रूप सील गुन तेज पुंज तेरे ही तन में बन्द किया।

तुझ हुस्न प्रभा की बाकी ले फिर विधिा ने यह फरफन्द किया।

चम्पक दल सोनजुही नरगिस चामीकर चपला चन्द किया।

    किन्तु खड़ीबोली की ये रचनाएँ आकस्मिक हैं। ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों शौरसेनी अपभ्रंश का रूप हैं। ब्रजभाषा का केन्द्र मथुरामण्डल है, और खड़ी - बोली का दिल्ली प्रान्त अथवा उसका समीपवर्ती भू भाग। किस प्रकार ब्रजभाषा उन्नति करते - करते पराकाष्ठा को पहुँची, यह आप लोगों ने देख लिया। जो सौभाग्य स्वयं शौरसेनी अथवा अपभ्रंश को नहीं प्राप्त हुआ, जो महत्तव उसकी दूसरी बहनों अवधाी - भोजपुरी बोलियों को नहीं मिला, वह अथवा उससे भी कहीं अधिाक सौभाग्य और महत्तव ब्रजभाषा ने हस्तगत किया। मैथिल कोकिल की रचना में आप ब्रजभाषा की झलक देख चुके हैं। यदि आप आगे बढ़कर बंगाल में पदार्पण करेंगे, तो वहाँ के प्राचीन कवि विद्यापति और चण्डीदास इत्यादि की मधाुर रचनाओं को भी वह माधाुर्य वितरण करती दिखलाई पड़ेगी। पश्चिम - दक्षिण में राजपूताने और गुजरात में भी आप उसका प्रसार देखेंगे। वहाँ वह तात्कालिक पूर्वतन कवि की कविता - मालाओं को अपनी कोमलकान्त पदावली कुसुमावली द्वारा सुसज्जित करती दृष्टिगोचर होती है। भगवान् बुध्ददेव के साधान बल से जिस प्रकार मागधाी का हित साधान हुआ था, उसी प्रकार भगवान् वासुदेव के सहवास से सुवासित होकर ब्रजभाषा भी समादृत हुई। जहाँ - जहाँ उनके प्रेममय ग्रन्थ का प्रचार हुआ, जहाँ - जहाँ उनकी मधाुमयी लोक विमुग्धाकारिणी मुरली की चर्चा छिड़ी, जहाँ - जहाँ उनकी आराधया श्रीमती राधिाका देवी उनके साथ आराधित हुईं, वहाँ - वहाँ कलित - ललित कलामयी ब्रजभाषा अवश्य पहुँची। न तो पंजाब इस प्रवाह में पड़ने से बचा, न बिहार, न मधयप्रान्त। हमारे देश की चर्चा ही क्या, वह तो चिरकाल से भगवती ब्रजभाषा का भक्त है, और आज भी उनके पुनीत चरण्ाों पर भक्ति पुष्पांजलि अर्पण कर रहा है। ब्रजभाषा साहित्य का पद्य विभाग जितना विशद, उन्नत और उदात्ता है, जितना ललित और सरस है, उतना ही प्रिय और व्यापक है। जो गौरव इस विषय में उसको मिला, भारत की किसी अन्य भाषा को आज तक प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रान्त के अधिाकांश सुकवि आज भी उसके अनन्य उपासक हैं। बहुत लोग आज भी उसकी चकितकरी ललित कला के समर्थक हैं, किन्तु यह अवश्य है कि काल - गति से उसके अबाधा प्रवाह में अब कुछ बाधाा उपस्थित हो गयी है, इसके कारण हैं।

    उन्नीसवें शतक के आरम्भ में गद्य हिन्दी की नींव श्रीयुत् लल्लूलाल और श्रीमान् सदलमिश्र द्वारा कुछ विशेष कारणों से पड़ी। यद्यपि इनके पहले के भी पद्य ग्रन्थ हिन्दी में पाए गये हैं, जिनमें महात्मा गोरखनाथ, गोस्वामी विट्ठलनाथ, और गोस्वामी गोकुलनाथ के ग्रन्थ प्रधाान हैं; किन्तु गद्य विभाग का वास्तविक कार्य, जो कि क्रमश: अग्रसर होता गया, उक्त दोनों सज्जनों के समय से ही प्रारम्भ होता है। हिन्दी गद्य का जो सुन्दर बीज उन लोगों ने बोया, वह श्रीयुत् राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह के सेचन द्वारा कुछ काल के उपरान्त एक हरा - भरा पौधाा बन गया। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के कर कमलों से लालित - पालित होकर यह पौधाा एक प्रकाण्ड वृक्ष में परिण्ात हुआ, और सुन्दर फूल - फल लाया। इस काल में और उसके परवर्ती काल में, हिन्दी गद्य के अनेक सुलेखक उत्पन्न हुए, उन्होंने सुन्दर - सुन्दर पुस्तकें लिखीं, तरह - तरह के समाचार पत्रा और मनोहर मासिक पत्रिाकाएँ निकालीं, और इस प्रकार उसको बहुत कुछ अलंकृत एवं श्रीसम्पन्न कर दिया। जो हिन्दी गद्य किसी काल में कतिपय पंक्तियों में ही स्थान पाता था, जो थोडे से दान पत्राों, दस्तावेजों, तमस्सुकों, इकरारनामों और महज्जरनामों के आधाार से ही जीवित था, जो या तो कुछ चिट्ठी - पत्राी में दिखलायी पड़ता, अथवा किसी टीकाकार की लेखनी से प्रसूत हो टूटी - फूटी दशा में किसी प्राचीन पुस्तक के मैले - कुचैले पत्राों में पड़ा रहता, वह इस काल में नये वसन - आभूषणों से सुसज्जित होकर सर्वजन आदृत हुआ। पहले पहल जो तेरहवें शतक में मेवाड़ की एक सनद में दिखलायी पड़ा और अटठारहवें शतक में छोटे - छोटे लेखों अथवा साधाारण पुस्तकों के सहारे कभी - कभी अग्रसर होता रहा, उन्नीसवें शतक के पचास वर्ष के भीतर वही विस्तृत होकर भारतव्यापी हुआ। जो महात्मा गोरखनाथ की विभूति से भी विभूतिमय नहीं हुआ, गोस्वामी विट्ठलनाथ की स्वामिता में भी साहित्य स्वामी नहीं बना, भक्त नाभादास जिसे आभा नहीं दे सके, जिसे बनारसीदास सरस, जटमल सजीव, देव दिव्य, सूरज मिश्र स्वरूपमान, दासप्रसाद युक्त, ललितकिशोरी ललित, और ललित माधाुरी मधाुर नहीं बना सके, वही हिन्दी गद्य इस काल में समुन्नत होकर सर्वगुण सम्पन्न हो गया। भारतेन्दु और तात्कालिक हिन्दी साहित्य गगन शोभी कतिपय ज्योति निकेतन विद्वद्वृन्द तारक पुंज ने उस समय उसको जो अपूर्व आलोक प्रदान किया, उससे वह आज तक आलोकित है, और दिन - दिन समधिाक आलोकमय हो रहा है।

    समय प्रवाह से जब हिन्दी गद्य समुन्नत हुआ, और योग्य विद्वत्समाज द्वारा उसको समुचित आश्रय मिला, तो जनता में उसका अनुराग उत्पन्न होना स्वाभाविक था। जैसे - जैसे हिन्दी में सुन्दर - सुन्दर भावमय ग्रन्थ निकलने लगे, वैसे - वैसे उसका समादर बढ़ता गया, यन्त्राालयों और सामयिक पत्रा - पत्रिाकाओं की वृध्दि ने इस वृत्तिा की और वृध्दि की। इस समय युक्तप्रान्त, बिहार और मधयप्रदेश में तो वह प्रचलित था ही, पंजाब प्रान्त में और बंगाल के प्रधाान स्थान कलकत्तो और बम्बई हाते की राजधाानी बम्बई में भी उसका प्रचुर प्रसार हो गया था। इस बहु विस्तृत हिन्दी गद्य की भाषा खड़ी बोली थी। श्रीयुत् गोस्वामी विट्ठलनाथ के चौरासी वैष्णवों की वार्ता की रचना ब्रजभाषा में हुई है, पहले की जितनी टीकाएँ और फुटकल नोट कहीं पाए जाते हैं, उन सबकी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही थी, श्रीयुत् लल्लूलाल की भाषा में भी ब्रजभाषा का पुट मौजूद है। किन्तु राजा लक्ष्मणसिंह, राजा शिवप्रसाद और बाबू हरिश्चन्द्र ने अपने गद्य में शुध्द खड़ीबोली को स्थान दिया है। परवर्ती समस्त हिन्दी गद्य लेखक भी इसी पथ के पथिक हैं। कारण इसका यह है कि जिस काल का यह वृत्ताान्त है, उस समय उर्दू भाषा उत्तारोत्तार समुन्नत होती हुई सरकारी कचहरियों में भी प्रतिष्ठा लाभ कर चुकी थी, अतएव उसका प्रचार, प्रान्त भर में ही हो गया था और उसके आश्रय से खड़ीबोली प्रान्तव्यापिनी भाषा बन गयी थी। ऐसी अवस्था में हिन्दी की समुन्नति के लिए उसका भी खड़ीबोली में लिखा जाना आवश्यक हो गया। यही कारण है कि ब्रजमण्डल निवासी होकर भी राजा लक्ष्मणसिंह की लेखनी खड़ीबोली के अनुकूल चली, और ब्रजभाषा के अनन्य भक्त होकर भी भारतेन्दु की लेखनी खड़ीबोली को भारतव्यापिनी बनाने में संकुचित नहीं हुई। राजा शिवप्रसाद के विषय में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है, क्योंकि उनका आदर्श था 'चलो तुम उधार को हवा हो जिधार की। ' इतना होने पर भी हिन्दी गद्य लेखकों ने पद्य की भाषा उस समय ब्रजभाषा ही रखी, भारतेन्दु जी और राजा लक्ष्मणसिंह के ग्रन्थों की पद्यभाषा ब्रजभाषा है। किन्तु कुछ समय बीतने पर सुगमता और सुविधाा का सामना करना पड़ा, इस समय पढ़ी - लिखी जनता खड़ीबोली से परिचित हो गयी थी, अधिाकांश लेखक भी जितना खड़ीबोली पर अधिाकार रखते थे, उतना ब्रजभाषा पर नहीं। अतएव धाीरे - धाीरे वह अव्यवहृत हो चली, और उसका समझना सुगम नहीं रहा। सामने उर्दू का आदर्श था, जिसके गद्य - पद्य दोनों की भाषा एक थी, अतएव खड़ीबोली में ही हिन्दी भाषा की कविता करने का प्रश्न छिड़ा, सुविधाा और सुगमता की दोहाई दी गयी, धाूमधााम से आन्दोलन हुआ, सफलता खड़ीबोली को मिली, और इस प्रकार खड़ीबोली की कविता का सूत्रापात हुआ।

    जनता अथवा मानव हृदय सुविधाा और सुगमता का अनुचर है, सामयिक प्रवाह उसका सूत्राधाार है, समयानुसार जो सुगम और सुविधााजनक पथ होता है, वह बहुत विरोधा करने पर भी अन्त में उसी पथ पर अविरोधा के साथ चलने लगता है - सदैव ऐसा होता आया है, आगे भी ऐसा ही होगा। हमारी परम पवित्रा वेद - भाषा, सुसंस्कृता संस्कृत, महिमामयी मागधाी, जैसे नियति का नियम पालन करने को बाधय हुईं, उसी प्रकार मधाुरतार् मूत्तिा ब्रजभाषा को भी नियति चक्र में पड़ना पड़ा। किन्तु वे भाषाएँ जैसे हमारी दृष्टि में आज तक भी समादृत हैं, वैसे ही जब तक हिन्दी भाषा का नाम भी संसार में शेष रहेगा, ब्रजभाषा समादृत रहेगी। आज भी उसकी चर्चा करके अपने करों को चन्दन चर्चित करने वाले लोग हैं, और चिरकाल तक रहेंगे। मैं उन लोगों को मर्मज्ञ और सहृदय नहीं समझता, जो उसके विरुध्द असंगत बातें कथन करके अपने को कलंकित करते हैं।

    खड़ीबोली की कविता का अभी आरम्भिक काल है, जो लोग उसकी सेवा आजकल कर रहे हैं, वास्तव में वे सेवक हैं। यदि उनको कोई कवि समझता है, तो यह उसका महत्तव है। भक्त जन की भावुकता भावमयी होती है, अपने भावावेश में उसे किसी बात का अभाव नहीं होता, इसी सूत्रा से कोई कुकवि भी किसी की दृष्टि में महाकवि बन सकता है। परन्तु वास्तव में बात यह है कि खड़ीबोली के सेवकों की तुलना ब्रजभाषा के सुकवियों से करना विडम्बना छोड़ कुछ नहीं है। कवि चक्र चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास से महाकवि जिस पथ में चलकर कहते हैं, 'कवित विवेक एक नहिं मोरे। सत्य कहौं लिखि कागद कोरे'। उस पथ का पथिक होकर कोई खड़ीबोली का सुकवि भी अपने को कवि नहीं कह सकता, कोई सेवक ऐसा दुस्साहस कैसे करेगा! सब भाषाओं में सूर शशि एक - एक ही होता है; हाँ, तारक चय की कमी नहीं होती। खड़ीबोली की कविता के आस - पास अन्धाकार घनीभूत है, कतिपय तारे चमक - दमक रहे हैं, धाीरे - धाीरे अन्धाकार भी टल रहा है। किन्तु भरमार अभी खद्योतों की ही है, उनको भी चमकने दीजिये, क्या कुछ ऍंधोरा उनसे भी दूर नहीं हो रहा है? आप उनको मूठियों में क्यों रखना चाहते हैं, यह अंधोर है। समय पर सब होगा, घनीभूत अन्धाकार एक दिन टलेगा, भगवान् भुवन - भास्कर भी निकलेंगे।

    सेवकों को उचित पथ पर चलाने का अधिाकार सब अधिाकार वालों को है, किन्तु कशाघात करके उसको क्षत - विक्षत कर देना न्याय संगत न होगा। आजकल देखता हूँ कि खड़ीबोली की कविता के सेवकों पर प्रहार हो रहे हैं, उनको नाना लांछनों द्वारा लांछित किया जा रहा है। अपराधा उनका यह है कि वे नीरस को सरस, तमोमयी अमा को राका रजनी, और काक कुमार को कल कण्ठ बनाना चाहते हैं। कहा जाता है कि उनकी खड़ीबोली की रचना क्लिष्ट होती है, उसमें ब्रजभाषा के शब्द मिलाकर खिचड़ी पकायी जाती है, और शुध्द शब्दों का प्रयोग करके उसे कर्कश किया जाता है। उनकी कविता में सरसता नहीं, लालित्य नहीं, भाव नहीं, धवनि नहीं, व्यंजना नहीं, कोमलता नहीं; प्रयोजन यह है कि क्या यह सत्य है? मैं क्लिष्टता का प्रतिपादक नहीं, मैं कोमलकान्त पदावली का अनुरक्त हूँ, प्रिय प्रवास रचना का यही उद्देश्य है, मेरे इस कथन में सत्यता है या नहीं, यह 'बोलचाल' नामक ग्रन्थ बतलावेगा, जो प्रिय प्रवास का दूना है। किन्तु प्रसाद गुणमयी कविता का अनुमोदक होकर भी मैं यह कहने के लिए बाधय हूँ कि कवि की स्वतन्त्राता हरण नहीं की जा सकती, उसको सब प्रकार की रचना करने का अधिाकार है। यदि कोई क्लिष्ट कविता करना ही पसन्द करता है, तो वह अवश्य सतर्क करने योग्य है, परन्तु यदि उसकी कविता सब प्रकार की है, और उसमें से क्लिष्ट रचना ही दोष दिखलाने के लिए उपस्थित की जाती है, तो यह अनुचित दोष - दर्शन है। प्राय: देखा जाता है कि किसी खड़ीबोली की कविता लेखक की कोई अत्यन्त क्लिष्ट कविता उठाकर रख दी जाती है और तरह - तरह के व्यंग्य करके यह प्रश्न किया जाता है कि यह खड़ीबोली की कविता है? प्रयोजन यह कि खड़ीबोली की कविता रचना ढोंग मात्रा है, उसमें असरसता छोड़ और कुछ नहीं। मेरा निवेदन यह है कि प्राचीन लब्धा - प्रतिष्ठ - महाकवियों ने भी इस प्रकार की कविताएँ की हैं, और ये कविताएँ उसी भाषा की मानी गयी हैं, जिस भाषा में लिखी गयी हैं। मैं हिन्दी संसार के कवि शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास, बंग भाषा के महाकवि भारत चन्द्र और उर्दू भाषा के मलिककुश्शोअरा मिर्जाग़ालिब की एक - एक कविता प्रमाण स्वरूप नीचे लिखता हूँ - आप लोग उसे देखें -

गोपाल गोकुल बल्लभी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं।

चरणारविन्दमहं भजे भजनीय सुर नर दुर्लभं।

सिर केकि पच्छ बिलोल कुण्डल अरुन बन रुह लोचनं।

गुंजावतंस - विचित्रा सब ऍंग धाातु भव भय मोचनं।

कच कुटिल सुन्दर तिलक भूराका मयंक समाननं।

अपहरत तुलसीदास त्राास बिहार वृन्दा काननं।

गोस्वामी तुलसीदास

जय चामुण्डे जय चामुण्डे कर कलितासि वराभय मुण्डे।

कल कल रसने कड़ मड़ दशने रण भुवि खण्डित सुर रिपुमुण्डे।

अट अट हासे कट मट भाषे नखर बिदारित रिपु करि शुण्डे।

कलि मल मथनम् हरिगुण कथनम् विरचय भारत कविवर तुण्डे।

भारत चन्द्र

शुमाहे सबहा मरगूबे बुते मुशकिल पसन्द आया।

तमाशा ये वयक कफबुरदने सद दिल पसन्द आया।

हवाए सबज गुल आईनये बेमेहरिये कषतिल।

कि अन्दाजेश् बखुँ ग़लतीदने कषतिल पसन्द आया।

मिर्जा गालिब

    गोस्वामी जी के इस प्रकार के पद्य सैकड़ों हैं, विनय पत्रिाका का लगभग एक तृतीयांश ऐसे ही पद्यों से पूर्ण है। आचार्य केशव की रचना में इस प्रकार के अनेक पद्य हैं, क्या कविवर सूरदास, क्या वैष्णव संसार के दूसरे प्रसिध्द कवि सभी की रचनाओं में इस प्रकार की कविता पायी जाती हैं। भारतेन्दु जी के बहुत पद्य ऐसे हैं। उनकी गंगास्तुति का एक पद्य सोलह चरणों का है - वह आरम्भ यों होता है - 'ब्रह्म द्रव भूत आनन्द मन्दाकिनी अलकनन्दे सुकृति कृति विपाके'। यदि इस प्रकार की कविता होती है, और आद्योपान्त संस्कृत शब्दमयी होने पर भी ब्रजभाषा की कविता समझी जाती है, तो खड़ी बोली में रचे गये इस प्रकार के कतिपय पद्य खड़ी बोली के पद्य क्यों न माने जावेंगे। यदि ऐसे पद्यों को लेकर वितण्डावाद किया जावे, तो अधिाकांश वर्तमान हिन्दी गद्य भी खड़ी बोली का नहीं माना जावेगा।

    दूसरी बात यह कि खड़ी बोली की कविता में ब्रजभाषा के शब्द मिलाकर खिचड़ी पकायी जाती है, खिचड़ी बड़ी मीठी होती है, क्या बुरा किया जाता है। कौन ब्रजभाषा का कवि है, जिसकी कविता बुन्देलखण्डी शब्दों से बची है, कविवर बिहारीलाल की मधाुमयी कविता उससे भरपूर है, क्या इन लोगों की कविता ब्रजभाषा की कविता नहीं मानी जाती? गोस्वामी जी की अद्भुत रामायण में अनेक प्रान्तों के शब्द हैं, अवधाी की वह आकर है, ब्रजभाषा भूषिता है, बुल्देलखण्डी में अलंकृत है, भोजपुरी से भावमयी है; क्या यह दूषण है, यह तो भूषण ही माना गया है - भाषा मर्मज्ञ भिखारीदास कहते हैं -

तुलसी गंग दोऊ भए सुकविन के सरदार।

इनके काव्यन में मिली भाषा विविधा प्रकार।

    देखिए सहृदयता 'ताज' की यह कई भाषामयी कविता कितनी मधाुर है -

    सुनो दिल जानी मेरे दिल की कहानी तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भीसहूँगीमैं।

    देव पूजा ठानी मैं निवाज हूँ भुलानी तजे कलमा कुरान साडे ग़ुनन गहूँगीमैं।

    साँवला सुलोना सिरताज सिर कुल्ले दिए तेरे नेह दाग में निदाग दो दहूँगीमैं।

    नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत मैं ताँड़ नाल प्यारे हिन्दुआनी ही रहूँगीमैं।

    मेरी इन बाताें से आप लोग यह न समझें कि मैं खड़ी बोली की कविता में ब्रजभाषा के शब्दों के अबाधा व्यवहार का पक्षपाती हूँ। नहीं, यह मेरा विचार कदापि नहीं है, ऐसी अवस्था में खड़ी बोली की कविता की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी, वह तो पहचानी भी न जा सकेगी। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि ब्रजभाषा के उपयुक्त और सुन्दर शब्द यदि कहीं प्रयुक्त होकर कविता को कवित्वमय कर देते हैं, तो उसका ग्रहण कर लेना भावुकता है। कवि सौन्दर्य का उपासक, भाव का भूखा, रस का रसिक, प्रसाद का प्रेमिक और सरलता का सेवक है; अतएव इनके साधानों को साधय बनाना ही उसका धार्म है - अन्यथा कवि - कर्म कवि - कर्म न रह जावेगा।

    मुख्यत: क्रिया ही खड़ी बोली को ब्रजभाषा से पृथक् करती है, अतएव ब्रजभाषा की क्रिया का प्रयोग खड़ी बोली में कदापि न होना चाहिए। किसी उपयुक्त अवसर पर, संकीर्ण स्थल पर अनुप्रास के लिए यदि ब्रजभाषा क्रिया का प्रयोग संगत जान पडे, तो मेरा विचार है कि वहाँ उसका प्रयोग हो सकता है; किन्तु उसी अवस्था जब उसे खड़ी बोली की क्रिया का रूप दे दिया जावे। उस शब्द योजना और वाक्य - विन्यास को जो कि ब्रजभाषा प्रणाली से प्रस्तुत है, खड़ी बोली में ग्रहण करना उचित नहीं, क्योंकि इससे खड़ी बोली ब्रजभाषा का प्रतिरूप बन जावेगी। हिन्दी भाषा की दो मूर्तियाँ हैं - एक खड़ी बोली और दूसरी ब्रजभाषा, अतएव उनके परस्पर सम्बन्धा की रक्षा न्यायानुमोदित है, अन्य भाषा के शब्दों से खड़ी बोली पर ब्रजभाषा का विशेष स्वत्व है, इसलिए उसका बिलकुल बायकाट विडम्बना है। उर्दू के कवि अब तक ब्रजभाषा शब्दों का आदर करते हैं, फिर खड़ी बोली के कवि उसका अनादर क्यों करें, हाँ उनको समधिाक संयत होना चाहिए। उर्दू के वे अशआर प्रमाण स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं, जिनमें ब्रजभाषा शब्दों का प्रयोग हुआ है - ऐसे शब्द काले अक्षरों में दिए गये हैं -

सुबह गुजरी शाम होने आयी मीर।

तू न चेता औ बहुत दिन कम रहा। - मीर

हाय! क्या चीज गरीबुल बतनी होती है।

बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है। - हाफिज

कमसिनी है तो जिदें भी हैं निराली उनकी।

इस पै मचले हैं कि हम दर्र्दे जिगर देखेंगे। - फसाहत

जग में आकर इधार उधार देखा।

तू ही आया नजश्र जिधार देखा। - मीर दर्द

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।

हम बुलबुले हैं उसकी वह गुलसिताँ हमारा। - अकबाल

    शुध्द शब्दों के प्रयोग के विषय में मुझको इतना ही कहना है कि यह प्रवृत्तिा बहुत अच्छी है, इसने खड़ी बोली के कवियों को च्युत दोष और शब्दों के तोड़ - मरोड़ से बहुत बचाया है। जहाँ ब्रजभाषा में इस दोष की भरमार है वहाँ खड़ी बोल चाल की कविता इससे सुरक्षित है। अतएव इस अंश में आक्षेप मान्य नहीं, परन्तु इसका दूसरा पहलू भी है, इसलिए इधार समुचित दृष्टि होना आवश्यक है। वह यह कि खड़ी बोली के कुछ कवियों को शुध्द शब्द प्रयोग का नशा - सा हो गया है, और इसमें कोई सन्देह नहीं कि इससे कविता में कर्कशता आ गयी है। यदि अक्ष के बजाय ऑंख, कर्ण के स्थान पर कान, दन्त के स्थान पर दाँत, जिह्ना के स्थान पर जीभ, ओष्ठ की जगह ओठ या होठ लिखना ठीक है, तो मुख के स्थान पर मुँह, आशा के स्थान पर आस, वेश के स्थान पर भेस, यश के स्थान पर जस, विष के स्थान पर बिख लिखना भी ठीक है। दोनों प्रकार के ही शब्द अपभ्रंश शब्द हैं, इसी प्रकार के और बहुत से शब्द बतलाए जा सकते हैं। चाहिए यह कि अपभ्रंश शब्दों के व्यवहार के लिए परस्पर कलह न करें - प्रयोग करने न करने के लिए सब स्वतन्त्रा हैं। किन्तु यह आग्रह उचित नहीं कि हम प्रयोग करेंगे तो शुध्द शब्द का ही प्रयोग करेंगे। इसका यह परिणाम होगा कि ऑंख, कान आदि के स्थान पर अक्ष और कर्ण इत्यादि लिखे जाने लगेंगे, भाषा कृत्रिाम हो जावेगी और हिन्दी का हिन्दीपन लोप हो जावेगा। यह स्मरण रखना चाहिए कि हिन्दी भाषा की जननी अपभ्रंश भाषा है, हिन्दी की प्रशंसा इसीलिए है कि वह तद्भव शब्दों द्वारा सुगठित है। जिस दिन उसके आधाार तत्सम शब्द हो जावेंगे, उसी दिन वह अपना स्वरूप खोकर अन्तर्हित हो जावेगी। नियम यह चाहिए कि प्रयोग आवश्यकतानुसार तद्भव और तत्सम दोनों प्रकार के शब्दों का हो, किन्तु प्रधाानता तद्भव शब्दों को दी जावे। संस्कृत के विद्वान् भी तद्भव शब्दों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, शुध्द शब्दों का प्रयोग तो वे करते ही हैं। हम लोगों को भी उन्हीं का पदानुसरण करना चाहिए। कुछ ऐसे प्रयोग दिखलाए जाते हैं। शुध्द शब्द क्षुर है। अपभ्रंश उसका खुर है, इसी प्रकार प्रियाल शब्द शुध्द, और पियाल अपभ्रंश है, कवि कुल गुरु कालिदास रघुवंश के 'तस्या खुरन्यास पवित्रा पांशुम्' और कुमार सम्भव के 'मृगा: पियाल द्रुम मंजरीणाम्' वाक्यों में 'खुर' और 'पियाल' का प्रयोग करते देखे जाते हैं।

    अब रहीं कवितागत लालित्य और सौन्दर्य इत्यादि की बातें - इस विषय में मेरा इतना ही निवेदन है कि क्या श्रुतिधार श्रीमान् पण्डित श्रीधार पाठक के भारत गीत में भारतीयता का राग नहीं है? क्या शुभंकर श्रीमान् पण्डित नाथूराम शंकर शर्मा की रचनाओं में रचना चातुरी दृष्टिगत नहीं होती? क्या विद्वद्वर श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी के वाग्विलास में विद्वत्ताा नहीं बिलसती? क्या ललित कण्ठ श्रीमान् लाला भगवानदीन गुले लाला अथवा गुल्लाला नहीं खिलाते? क्या काव्य विनोद श्रीमान् पण्डित लोचनप्रसाद पाण्डेय की वर वचनावली विविधा विनोदमयी नहीं होती? क्या रामचरित चिन्तामणिकार श्रीमान् पण्डित रामचरित उपाधयाय की कृति में चारु - चरित चित्राण नहीं होता? क्या निरूपण पटु श्रीमान् पण्डित रूप नारायण पाण्डेय की रूपकपटुता अनुरूप नहीं होती? क्या भारत भारतीकार श्रीमान् बाबू मैथलीशरण गुप्त की भारती, विविधा भाव भरित नहीं पायी जाती? क्या शंकर नगर निवासी श्रीमान् बाबू जयशंकर प्रसाद की कविता के प्रसादमयी होने में सन्देह है? क्या स्नेह भाजन श्रीमान् पण्डित गया प्रसाद शुक्ल सनेही की सुलेखनी सरसता के साथ नहीं सरसती। क्या पवित्राात्मा भारतीय आत्मा की अनूठी उक्ति आत्म विस्मृतिकारिणी नहीं होती? क्या परम सहृदय भारतीय हृदय का कवित्व हृदय विभक्त नहीं करता? क्या रमणीय मानस श्रीमान् पण्डित रामनरेश त्रिापाठी की मानसिकता में नव रसमयी रसिकता नहीं मिलती? क्या हृदयवान् सुकवि श्रीमान् पण्डित गोकुलचन्द्र की चारुचित्ताता अरोचकता को अर्ध्दचन्द्र नहीं देती? इसका उत्तार सहृदय हृदय दें। मैं इतना ही कहूँगा कि इन सज्जनों की रचनाएँ रुचिर हैं, यदि यह समय उनके अनुकूल नहीं है, तो कोई अनुकूल समय भी आवेगा। एक समय था, जब भावुक प्रवर भवभूति को यह कहना पड़ा था -

    ये नाम केचिदिहने: प्रथमन्त्यवज्ञां, जानन्तु ते किमपितान्प्रति नैष यत्न:।

उत्पत्स्यते हि मम कोपि समानधार्म्मा, कालो ह्ययं निरवधिार्विपुला च पृथ्वी।

    किन्तु बाद को वह समय भी आया जब वह इन शब्दों में स्मरण किए गए। 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' अथवा -

    भवभूते: संबंधााद् भूधार - भूरेव भारती भाति। एतत्कृतकारुण्ये किमन्यथा रोदिति ग्रावा।

क्या हिन्दी उर्दू में भेद है

    हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस - नस में आनन्द की धाारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है - इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको स्वीकार नहीं करता। हिन्दू शब्द से हिन्दी का सम्बन्धा नहीं है, वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है। हिन्द शब्द देशपरक है और भारतवर्ष का पर्यायवाची है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्धा माना जावे, तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं - आज दिन हिन्दू नाम ही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्रा है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धान में बाँधाता है। आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दू नाम; यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य सलिला सुरसरि जल विधाौत, सप्त पुरी पावन रजकण पूत और पुनीत वेद मन्त्राों द्वारा अभिमन्त्रिात है, क्या अभी इसमें अपावनता मौजूद है। इतना निराकरण के लिए कहा गया, इस विषय में मेरा दूसरा सिध्दान्त है। यदि सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतंत्रा का 'हीनांश्च' दूषयेत्वेव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये' और शिव रहस्य का 'हिन्दूधार्मप्रलोपास्तु भविष्यन्ति कलौ युगे' आधाुनिक श्लोक खण्ड हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसलमानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दू नाम स्वीकार नहीं कराया। यदि बलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दबरदायी ऐसा स्वधार्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले अपने निम्नलिखित पद्य में 'हिन्दुवान' शब्द का प्रयोग न करता।

'हिन्दुवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुआन जब। '

    वास्तव में बात यह है कि फारस निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं। अब से लगभग पाँच सहò वर्ष की पुरानी पुस्तक जिन्दा वास्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है - उसकी 163वीं आयत यह है -

'चूं व्यास हिन्दी वलख आमद गुस्तास्य जरतुश्तरा बख्वांद'

    यह हिन्दी, नाम सिन्धाु के सम्बन्धा से पड़ा है, क्योंकि फारसी में हमारा '' '' हो जाता है। जैसे सप्त से हफ्त बना, वैसे ही सिन्धा से हिन्ध, अथवा हिन्द बना है, और इसी हिन्द शब्द से हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्तिा है - जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्यिन की। जब मुसलमान जाति भारत में विजेता बनकर आयी, तो वह यहाँ के निवासियों को इसी प्राचीन नाम से ही पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द व्यापक और सर्वसाधाारण्ा में गृहीत हो गया। इस सीधाी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफिर के हैं, अतएव बलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित और असंगत है। एक उस्ताद का शेर है -

न हिन्दुअम न मुसल्माँ न काफिरम न यहूद।

ब हैरतम कि सरंजामे मन चे खा हद बूद।

    यदि हिन्दू और काफिर पर्यायवाची शब्द होते, तो इस शेर में हिन्दू और काफिर का अलग - अलग प्रयोग न होता, क्योंकि यह पुनरुक्ति है।

    उर्दू हिन्दी का रूपान्तर है। जिस समय विजेता मुसलमान भारत में आए, उस समय दिल्ली के आसपास खड़ी बोलचाल की हिन्दी का प्रचार था, अतएव अनेक कार्य सूत्रा से बहुत से अरबी, फारसी और तुर्की के शब्द हिन्दी में मिल गए - यही उर्दू है। यदि अन्य भाषा के शब्द सम्मिलित होने से नाम बदल जाता है, तो फारसी अंग्रेजी आदि बहुत - सी भाषाओं का नाम बदल जाना चाहिए। फारसी में अरबी, तुर्की के इतने अधिाक शब्द मिल गये हैं कि उनके शब्द आज भी हिन्दी में इन भाषाओं अथवा फारसी के नहीं मिले; फिर क्यों फारसी फारसी कही जाती है, और हिन्दी उर्दू कहलाने लगी। फारस के विख्यात महाकवि फिर्दोसी ने अपने शाहनामे में एक स्थान पर लिखा है - फलक गुफ्त अहसन मलक गुफ्त जेह'। अहसन और जेह अरबी शब्द हैं, अतएव उनसे प्रश्न हुआ कि आपने कुल किताब तो खालिस फारसी में लिखी, इस शेर में दो अरबी के शब्द कैसे आ गए, उन्होंने कहा 'फलक व मलक गुल्फ न मन गुल्फ' कहाँ यह भाव, कहाँ यह कि एक तिहाई से अधिाक अरबी शब्द फारसी में दाखिल हो गए, तो भी फारसी का नाम फारसी ही रहा। उर्दू भाषा की प्रकृति आज भी हिन्दी है, व्याकरण उसका आज भी हिन्दी प्रणाली में ढला है। उसमें जो फारसी मुहाविरे दाखिल हुए हैं, वे सब हिन्दी के रंग में रँगे हैं, फारसी के अनेक शब्द हिन्दी के रूप में आकर उर्दू की क्रिया बन गये हैं, एक वचन शब्द बहुधाा हिन्दी रूप में बहुवचन होते हैं, फिर उर्दू हिन्दी क्यों नहीं है? यदि कहा जावे कि फारसी अरबी और संस्कृत शब्दों के न्यूनाधिाक्य से ही उर्दू हिन्दी का भेद स्थापित होता है, तो यह भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनेक उर्दू शायरों का बिल्कुल हिन्दी से लबरेज शेर, उर्दू माना जाता है और अनेक हिन्दी कवियों का फारसी और अरबी से लबालब भरा पद्य; हिन्दी माना जाता है - कुछ प्रमाण लीजिये -

तुम मेरे पास होते हो गोया। जब कोई दूसरा नहीं होता।

मोमिन

लोग घबरा के यह कहते हैं कि मर जायेंगे।

मर के गर चैन न पाया तो किधार जायेंगे।

जौक

लटों में कभी दिल को लटका दिया।

कभी साथ वालों के झटका दिया।

मीर हसन

न था कुछ तो खुदा था कुछ न होता तो खुदा होता।

डुबाया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता।

ग़ालिब

    हिन्दी भरी कविता आपने उर्दू की देख ली। अब अरबी - फारसी भरी हिन्दी कविता देखिए -

पजनेस तसद्दुकता बिसमिल जुल्फेष् न कष्बूल कसे।

महबूब चुना मद मस्त सनम अज़ दस्त अला वल जुल्फष् वसे।

पजनेस

जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक।

तेहि मग फिरत सनेहिया किए गरेबाँ चाक।

रसनिधिा

यों तिय गोल कपोल पर परी छूटि लट साफ।

खुश नवीस मुंशी मदन लिख्यो काँच पर काफष्।

शृंंगार सरोज

    मैं यहाँ कुछ अंग्रेज और भारतीय विद्वानों की सम्मति भी उठाना चाहता हूँ - आप लोग देखें वे क्या कहते हैं -

    'उर्दू का व्याकरण ठीक हिन्दी व्याकरण से मिलता है, उर्दू हिन्दी से भिन्न नहीं है। ' डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्रा

           The Grammar of Urdu is unmistakably the same as that of Hindi, and it must follow therefore that the Urdu is a Hindi and an Aryan dialect.

    उर्दू के बडे प्रसिध्द कवि वली और सौदा की भाषा तथा हिन्दी के अति प्रसिध्द कवि तुलसीदास और बिहारीलाल की भाषा में कुछ अन्तर नहीं है, दोनों ही आर्य भाषा हैं। इसलिए हिन्दी और उर्दू को अलग मानना बड़ी भारी भूलहै।

 - मिस्टर बीम्स

           ...Such words however, in no way altered or influenced the language itself, which, when its inflectional or phonetic elements are considered, remains still a pure Aryan dialect, just as pure in the pages of Wali and Sauda, as it is in those of Tulsidas or Biharilal. It betrays, therefore, a radical misunderstanding of the whole learning of the question and of whole Science philology to speak of Urdu and Hindi as two distinct languages.

    जो भाषा आज हिन्दुस्तानी कहलाती है, उसी का नाम हिन्दी, उर्दू और रेखता भी है। इसमें अरबी, फारसी, संस्कृत वा भाषा के शब्द हैं।

 - डॉ. गिलक्राइस्ट

           The language...at present best known as the Hindustanee, is also fuequently denominated Hindi, Urdu and Rekhata. It is compounded of the Arabic persian and Sanskrit, or Bhasha which last appears to have been in former ages the current lauguage of Hindustan.

    जो कुछ मैंने ऊपर दिखलाया, उससे पाया गया कि हिन्दी उर्दू में कोई ऐसा भेद नहीं है, जो दोनों को अलग करता हो - वास्तव में उर्दू हिन्दी ही है। यह अपनी - अपनी इच्छा है कि कोई किसी को उर्दू कहे और कोई किसी को हिन्दी। मैंने जो कुछ प्रतिपादन किया है, उसका उद्देश्य यह नहीं कि किसी नाम का बायकाट किया जावे - वरन् उद्देश्य यह है कि विभेद नीति का उन्मूलन हो। एक ही भाषा जब दो नामों से पुकारी जाती है, तब उसके विषय में परस्पर कलह वांछनीय नहीं। जिसकी इच्छा हो वह उसे संस्कृत गर्भित लिखे, जिसकी इच्छा हो उसमें फारसी - अरबी के शब्दों का प्रयोग करे; किन्तु यह समझता रहे कि दोनों भाषाएँ एक हैं। यदि दोनों नामों के स्थान पर हिन्दुस्तानी नाम रख लिया जावे, तो अच्छा; यदि कोई भाषा भी ऐसी निकल आवे, जो हिन्दुस्तानी नाम का विभेद मिटाकर सार्थक करे, तो सोने में सुगन्धा। हिन्दुस्तानी और हिन्दी वास्तव में दोनों पर्यायवाची शब्द हैं।

    यह आशा करना कि उर्दू कविता मुसलमानों के और हिन्दी कविता हिन्दुओं के धाार्मिक भावों का दर्पण न हो, विडम्बना है। इस बात का उद्योग करना कि हिन्दू और मुसलमान अपने - अपने महापुरुषों, शूर - वीरों, देश - प्रेमियों, कर्णधाारों, महात्माओं, जीवनदाताओं के आदर्शों का उल्लेख न करें, उनका स्मरण करके उन पर भक्ति पुष्पांजलि न चढ़ावें, पागलपन है। जो सभ्यता किसी जाति की जीवन सामग्री है, वह अनादृत नहीं हो सकती; जो उदाहरण, उपाख्यान, जाति संगठन के साधान हैं, उनसे जीती - जागती जाति मुख नहीं मोड़ सकती। अतएव इन बातों को लेकर हिन्दी - उर्दू के भेद का राग अलापना उचित नहीं। मानवता का आदर्श, जातीयता का मन्त्रा, देशप्रेम का पाठ, सत्यता का महत्तव, सहायता का सूत्रा, दोनों साहित्यों में ही मिलेगा; हमारी एकतानुरागिणी दृष्टि उसी पर होनी चाहिए। साहित्य गत न्यूनताएँ और विशेषताएँ दोनों में हैं। उपयोगी विषयों का आदान - प्रदान, दोनों का दोनों के साथ होना चाहिए। फूल चुनना दोनों का काम है, काँटों से उलझना उलझन है।

    उर्दू का साहित्य बड़ा सुन्दर है, उसकी नाजुक ख्याली, तराश - खराश, बन्दिश, उसका मुहाविरा, मुबालिगा इस्तेआरा मारके का है; हिन्दी भाषा के कवियों को, मुख्यत: खड़ी बोली की कविता करने वालों को देखना चाहिए। वे बडे क़ाम की चीजें हैं, उनसे बहुत कुछ लाभ उठाया जा सकता है - उनकी रंगत में रँगकर हम अपनी कविता की रंगतें कुछ और की और कर दे सकते हैं। मुहाविरों का सुन्दर और सार्थक प्रयोग करने में उर्दू वालों को कमाल है, हम लोग इस बारे में बेतरह ठोकर खाते हैं। हमारी यह कमी पूरी हो सकती है, यदि कम - से - कम हम उर्दू से प्रेम करना सीख जाएँ। उर्दू अशआरों की चाशनी अक्सर हिन्दी लेखकों के लेखों पर चढ़ी रहती है, क्यों? इसलिए कि उनको पढ़कर दिल में गुदगुदी ही नहीं पैदा होती, जबान भी चटखारे भरने लगती है; मौके पर हृदय के भावों को प्रकट करने में भी वे कमाल रखते हैं। क्या ये साधाारण गुण हैं, हमें इन्हें ग्रहण करना चाहिए। बहुत कुछ कहना है, किन्तु स्थान का संकोच है - चन्द चुने अशआर सुन लीजिये -

यह तसवीर चेहरा उतर क्यों रहा है।

खिंचे किस से हो क्या है नकशा तुम्हारा।   - नसीम

दिल के फफोले जल उठे सीना के दाग से।

इस घर में आग लग गयी घर के चिराग से।

वह शब को मेरी कष्ब्र पै क्या चाल चल गए।

सदहा चिरागश् नकष्शे कफे पासे जल गए। - फसाहत

पडे हैं सूरते नकष्शे कष्दम व छेड़ा हमें।

हम और खाक में मिल जायेंगे उठाने से।

यह मजनूँ है नहीं आहू है लैला।

पहन कर पोस्ती निकला है घर से।

जिसे तू सींग समझे है, यह है खार।

लगे है पाँव में निकले हैं सर से। - नसीर

    हिन्दी सादगी में लासानी है, इस बारे में उर्दू उससे बहुत कुछ सीखती है। उर्दू हिन्दी नजषद है, मगर फरियाद यह है कि वह तर्जेष् मआशिरत फषरस का दिलदाद है - क्या हिन्दुस्तान वतने मालूफ नहीं? हिन्दी इस रंग में शराबोर है, उर्दू को देखना चाहिए कि इस रंगत में कुछ नैरंगियाँ हैं या नहीं? उर्दू के साकष्ी व पैमाना, बुलबुल व कुमारी, सरो व शमशाद, शमा व फानूस, जवानाने चमन व उरूसाने गुलशन, नरगिस व सम्बुल, फरहाद व मजनूँ, मानी व वहजाद, जबाने सुराही व खन्दए कुलकुल वगैरा सरमायये नाज हैं - आमतौर से वह इन्हीं पर फिदा है, शाजश् व नादिर की बात दूसरी है। हजरत आजाद इन्हीं की तरफ इशारा करके फरमाते हैं - 'इनमें बहुत - सी बातें ऐसी हैं, जो खास फारिस और तुर्किस्तान के मुल्कों से तबयी और जाती तअल्लुक रखती हैं, इसके अलावा बाज ख्यालात में अकसर उन दास्तनों या किस्सों के इशारे भी आ गये हैं, जो खास मुल्क फारस से इलाका रखते हैं,' 'इन ख्यालों ने और वहाँ की तशवीहों ने इस कदर जोर पकड़ा कि उनके मशावेह जो यहाँ की बातें थीं, उन्हें बिलकुल मिटा दिया' क्या इसकी तलाफी न होनी चाहिए, इस पर इन्शा परदाजाने उर्दू अगर मुनासिब समझें गौर फरमावें। मैं चन्द उर्दू - हिन्दी नज़में मौसिमे बहार की दर्ज जैल करता हूँ, उनको वाहन मिलाकर ख्यालात की कसौती पर कसना चाहिए। बाद को इल्तिजा अगर हक व जानिब हो मंजूर की जावे -

     करे है बा लबे गुंचा दरे हजार सखुन।

             चमन में मौजे तवस्सुम की खोलकर जंजीर।

     कुछ इनविसात हवाए चमन से दूर नहीं।

             जो वाहो गुंचए मिनकार बुलबुले तसवीर।

     असर से बादे बहारी के लहलहाते हैं।

             जश्मीं पै हमसरे सुंबुल हैं मौजे नकष्शे हसीर।    - जौक

     हैं सभी पेड़ कोंपलों से पुर

             है नया रस गया सबों में भर।

     आम सिरमौर बन गया सबका।

             मौर का मौर बाँधाकर सिरपर।

     पेड़ प्यारे पलास सेमल के।

             फूल पा लाल लाल लाल हुए।

     हैं बहुत ही लुभावने लगते।

             लाल दल से लसे हुए महुए।

     है लुनाई बड़ी लताओं पर।

             है चटकदार रंग चढ़ा गहरा।

     लह बडे ही लुभावने पत्तो।

             लहलही बेलि है रही लहरा।

     गूँजते गूँजते उमग में आ।

             हैं बहुत चौंक चौंक कर अड़ते।

     चाव से चूम चूम कलियों को।

             मनचले भौंरे हैं मचल पड़ते।

     पा गये पर बहार सा मौसिम।

             क्याें न अपनी बहार दिखला लें।

     लहलही बेलि चहचहे खग के।

             डह डहे पेड़ डह डही डालें।

साहित्य

    'सहितस्य भाव: साहित्य। ' जिसमें सहित का भाव हो उसे साहित्य कहते हैं - कुछ और सम्मतियाँ भी साहित्य के विषय में सुनिए।

    'परस्पर सापेक्षाणाम् तुल्य रूपाणाम् युगपदेक क्रियान्वयित्वम् साहित्यम्। '

 - श्राध्द विवेक

    'तुल्यवदेक क्रियान्यवयित्वं वृध्दि विशेष विषयित्वं वा साहित्यम्। '

 - शब्द शक्ति प्रकाशिका

    'मनुष्य कृत श्लोक मय ग्रन्थ विशेष: साहित्यम्। ' - शब्द कल्पदु्रम।

    सहृदय विज्ञान श्रीमान् पण्डित रामदहिन मिश्र काव्य तीर्थ ने साहित्य का विलक्षण अर्थ किया है - वे कहते हैं -

    'जो हित के साथ वर्तमान है वह हुआ सहित और उसका जो भाव है वही हुआ साहित्य, अर्थात् जो हमारे हितकारी भाव हैं, वे ही साहित्य हैं। '

 - साहित्य मीमांसा

    कविन्द्र रवीन्द्र कहते हैं, 'सहित शब्द से साहित्य शब्द की उत्पत्तिा हैं, अतएव धाातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में एक मिलन का भाव दृष्टिगत होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है, यह नहीं, वरन् वह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वर्तमान का, दूर के साथ निकट का, अत्यन्त अन्तरंग योग है। साहित्य के अतिरिक्त और किसी साधान के द्वारा यह सम्भव नहीं है। पर जिस देश में साहित्य का अभाव है, उस देश के लोग परस्पर सजीव बन्धान से बँधो नहीं, विच्छिन्न होते हैं। ' - साहित्य

    श्राध्द विवेक और शब्द शक्ति प्रकाशिका ने साहित्य की जो व्याख्या की है, कवीन्द्र का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है, वह व्यापक और उदात्ता है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ि है - शब्द कल्पद्रुम की कल्पना कुछ ऐसी ही है, परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एकदेशी पाया जाता है। साहित्य शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है, वह स्वयं बहुत व्यापक है, उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है, वह उसके उत्थान - पतन का साधान है, साहित्य के उन्नत होने से उन्नत, उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है, जो देश को अन्धाकार रहित, जाति मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्राों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अधयवसाय शील जाति का अधयवसाय, साहसी जाति का साहस, औरर् कत्ताव्य परायण जाति कार् कत्ताव्यहै।

    वह धार्म भाव जो भव भावनाओं का विभव है, वह ज्ञान गरिमा जो गौरव कामुक को सगौरव करती है, वह विचार परम्परा जो विचारशीलता की शिला है, वह धाारणा जो धारणी में सजीव जीव धाारण का आधाार है, वह प्रतिभा जो अलौकिक प्रतिभा से प्रतिभासित हो, पतितों को उठाती है, लोचनहीन को लोचन देती है और निरवलम्ब का अवलम्बन होती है। वह कविता जो सूक्ति समूह की प्रसविता हो संसार की सारवत्ताा बतलाती है, वह कल्पना जो कामद कल्पलतिका बन सुधााफल फलाती है, वह रचना जो रुचिर रुचि सहचरी है, वह धवनि जो स्वर्गीय धवनि से देश को धवनित बनाती है। वह सजीवता जो निर्जीवता संजीवनी है, वह साधाना जो समस्त सिध्दि का साधान है, वह चातुरी जो चतुवर्ग जननी है, वह चारु चरितावली जो जाति चेतना और चेतावनी की परिचालिका है - जब हमारे साहित्य का सर्वस्व थी, उस समय हम पर पवित्रा वेदों का आविर्भाव हुआ, हमने अनुपम उपनिषदों की रचना की, दर्शनों के दर्शन कराए, सूत्राों को रचकर समाज को एक सूत्रा में बाँधाा, आदर्श चरित के आदर्श रमणीय वाल्मीक रामायण को बनाया, और अशेष ज्ञान भाण्डार महाभारत जैसे महान् ग्रन्थ को निर्मित कर भारत का मुख उज्ज्वल किया।

    हमारे त्रिादेवों में त्रिालोकपति की सृजन, पालन, संहार सम्बन्धिानी त्रिाशक्ति का अद्भुत विकास है। ब्रह्मदेव चतुर्मुख अथवा चतुर्वेद रचयिता, ललाट फलक लिपि विधााता, और समस्त विधिा विधाान सर्वस्व हैं। उनकी शक्ति वीण्ाा झंकार जीवनमृत जीवन संचारिणी, और उनकी वाग्देवी विविधा विद्या स्वरूपा है। भगवान् विभु चतुर्भुज हैं, चार हाथों से समस्त लोक का लालन - पालन करते हैं, वे क्षीर निधिा निकेतन हैं, इसीलिए स्तन - पायी जीव मात्रा को प्रतिदिन क्षीर पान कराते हैं, वे विश्वम्भर हैं, इसीलिए उनकी विश्वम्भरी शक्ति ब्रह्म स्तम्भ पर्यन्त का प्रतिपल पालन - पोषण करती है। भगवान् भूतनाथ की मूर्ति बड़ी भावमयी है, वह बतलाती है, संसार हित के लिए अवसर आने पर गरलपान कर लो, परन्तु जो कुसुम शायक बनकर मर्मवेधाीबाण प्रहार करता है, उसका संहार अवश्य करो, लोक लाभ के निमित्ता आकाश निपतित कठोर जलपात शिर पर वहन करो; पर उरगों की उरगता निवारण करने से मत चूको। शक्ति कितनी ही प्रचण्ड हो, दो क्या उसको दश भुजाएँ क्यों न हाें, परन्तु अपने साधान बल से उसे भी अंगमुक्त किए बिना मत छोड़ो। हमारा साहित्य जब इन मर्म की बातों को मर्मभरी भाषा में बतलाता था, और जब हममें उसके समझने की मार्मिकता थी - उस समय हम पृथ्वी को दूहते थे, समुद्र को मथकर चौदह रत्न निकालते थे, पंचभूत पर शासन करते थे, व्योमयानों द्वारा आकाश में उड़ते थे, समुद्र पर पुल बनाते थे, पहाड़ को कानी उँगली पर नचाते थे, देह होते विदेह थे, राजप्रासाद में रहकर गृह संन्यासी थे, काया कल्प करते थे, और राज त्यागी होकर भी कृपा पात्रा को राजपद पर प्रतिष्ठित कर देते थे। अधयात्म शक्ति इतनी प्रबल थी कि असीम पयोधिा जल को गण्डूष जल समझते थे, पर्वत को नत मस्तक कर देते थे, और चक्रवर्ती भूपाल के रत्न मण्डित मुकुट को पद रज द्वारा आरंजित बनाते थे।

    कहते व्यथा होती है कि कुछ कालोपरांत हमारे ये दिन नहीं रहे। हममें प्रतिकूल परिवर्तन हुए और हमारे साहित्य में केवल शान्त और शृंगार रस की धाारा प्रबल वेग से बहने लगी। शान्त रस की धाारा ने हमको आवश्यकता से अधिाक शान्त और उसके संसार की असारता के राग ने हमें सर्वथा सारहीन बना दिया। शृंगार रस की धाारा ने भी हमारा अल्प अपकार नहीं किया, उसने भी हमें कामिनी कुल शृंगार का लोलुप बनाकर, समुन्नति के समुच्च शृंग से अवनति के विशालर् गत्ता में गिरा दिया। इस समय हम अपनी किर्ंकत्ताव्यविमूढ़ता, अकर्मण्यता, अकार्यपटुता को साधाुता के परदे में छिपाने लगे और हमारी विलासिता, इन्द्रिय परायणता, मानसिक मलिनता, भक्ति के रूप में प्रकट होने लगी। इधार निराकार की निराकारता में रत होकर कितने सब प्रकार बेकार हो गए, उबर आराधय देव भगवान् वासुदेव और परम आराधानीय श्रीमती राधिाका देवी की आराधाना के बहाने पावन प्रेम पन्थ कलंकित होने लगा। न तो लोक पावन भगवान् श्रीकृष्ण लौकिक प्रेम के प्रेमिक हैं, न तो वन्दनीया वृषभानु नन्दिनी कामनामयी प्रेमिका, न तो भुवन अभिराम वृन्दावन धााम अवधा विलास वसुंधारा है, न कलकल वाहिनी कलिन्द नन्दिनी कूल काम केलि का स्थान। किन्तु अनधिाकारी हाथों में पड़कर वे वैसे ही चित्रिात किए गये हैं। कतिपय महात्माओं और भावुक जनों को छोड़कर अधिाकांश ऐसे अनधिाकारी ही हैं, और इसीलिए उनकी रचनाओं से जनता पथच्युत हुई। केहरि पत्नी के दुग्धा का अधिाकारी स्वर्ण पात्रा है, अन्य पात्रा उसको पाकर अपनी अपात्राता प्रकट करेगा। मधयकाल से लेकर इस शताब्दी के आरम्भ तक का हिन्दी साहित्य उठाकर आप देखें, वह केवल विलास का क्रीड़ा क्षेत्रा और काम वासनाओं का उद्गार मात्रा है। सन्तों की वानी और कतिपय दूसरे ग्रन्थ अवश्य इसके अपवाद हैं। ऐसा ग्रन्थ जो हिन्दू जाति का जीवन सर्वस्व, उन्नायक, और कल्पतरु है, जो आदर्श चरित का भाण्डार और सद्भाव रत्नों का रत्नागार है, जो आज दश करोड़ से भी अधिाक हिन्दुओं का सत्पथ प्रदर्शक है, यदि है तो रामचरित मानस है, और वह गोस्वामी जी के महान् तप का फल है। कुछ ग्रन्थ हिन्दी भाषा में नीति और सद्विचार सम्बन्धाी और हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है।

    न वह साहित्य साहित्य है और न वह कल्पना कल्पना, जिसमें जातीय भावों का उद्गार न हो। जिन काव्यों, ग्रन्थों को पढ़कर जीवनी शक्ति जागरित नहीं होती, निर्जीव धामनियों में गरम रक्त का संचार नहीं होता, हृदय में देश - प्रेम - तरंगें तरंगित नहीं होतीं, वे केवल निस्सार वाक्य समूह मात्रा हैं। जो भाव देश को, जाति को, समाज को स्वर्गीय विभव से भर देते हैं, उनमें अनिर्वचनीय ज्योति जगा देते हैं, उनको स्वावलम्बी, स्वतन्त्रा, स्वधार्मरत, और स्वकीय कर देते हैं। यदि वे भाव किसी उक्ति की सम्पत्तिा नहीं, तो वह मौक्तिक हीन शुक्ति है। जिसमें मनुष्य जीवन की जीवन्त सत्ताा नहीं, जो प्रकृति के पुण्य पाठ की पीठ नहीं, जिसमें चारु चरित चित्रिात नहीं, मानवता का मधाुर राग नहीं, सजीवता का सुन्दर स्वाँग नहीं, वह कविता सलिल रहित सरिता है। जिसमें सुन्दरता विकसित नहीं, मधाुरता मुखरित नहीं, सरसता विलसित नहीं, प्रतिभा प्रतिफलित नहीं, वह कवि रचना कुकवि वचनावली है। जो गद्य अथवा पद्य जाति की ऑंखें खोलता है, पते की सुना राह पर लगाता है, मर्मवेधाी बातें कह सावधाान बनाता है, चूकें दिखा चौकन्ना करता है, चुटकियाँ ले सोतों को जगाता है, वह इस योग्य है कि सोने के अक्षरों में लिखा जावे; वह अमृत है, जो मरतों को जिलाता है। हिन्दी में ऐसे गद्य - पद्य विरल हैं। उर्दू कला में अकबर को यह कमाल नजर आता है - देखिए

बे परदा नजर आईं कल जो चन्द बीबियाँ।

अकबर जमींमें गैरते कौमी से गड़ गया।

पूछा जो उनसे आपका परदा वह क्या हुआ।

कहने लगी कि अक्ल पै परदों के पड़ गया।

पाकर खिताब नाच का भी जौंकष् हो गया।

सर हो गये तो बाल का भी शौकष् हो गया।

हम ऐसी कुल किताबें काबिले जश्ब्ती समझते हैं।

कि जिनको पढ़ के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं।

किस तरह समझें कि क्या यह फिलसफष मरदूद है।

कौम ही को देखिए वह मुरदा है मौजूद है।

    इस रंग में बा अकबाल अकबाल भी अच्छा कहते हैं, उनकी भी दो एक बातें सुन लीजिये।

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।

हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।

यूनान मिश्र रोमा सब मिट गये जहाँ से।

अब तक मगर है बाकी नामों निशाँ हमारा।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमाँ हमारा॥

    सौभाग्य की बात है कि दृष्टिकोण बदला है, परम कमनीय कलेवरा शृंगार रस की कविता सुन्दरी कवि मानस समुच्च सिंहासन से धाीरे - धाीरे उतर रही है और उस पर लोकोत्तार कान्तिवती जातीय राग रंजिता कविता देवी सादर समासीन हो रही है। ललित लीला निकेतन वृन्दावन धााम अब भी विमुग्धाकर है, किन्तु सुजला सुफला शस्यश्यामला भारत वसुन्धारा आज दिन अधिाक आदरवती है। तरल तरंगमयी तरणि तनया उत्फुल्लकरी है, किन्तु प्रवहमान देश प्रेम पावन प्रवाह समान सर्वप्रिय नहीं। भगवान् मुरली मनोहर की मधाुमयी मुरलिका आज भी मोहती है, मोहती ही रहेगी। किन्तु अब हम उसके माधाुर्य में देश - प्रेम का पुट, धवनि से जातीयता की धाुन और सुरीलेपन में सजीव स्वर लहरी होने के कामुक हैं। प्र्रेम प्रतिमा राधिाका देवी की आराधाना आज भी होती है, किन्तु पुष्पांजलि अर्पणकर बध्दांजलि हो अब यही प्रार्थना की जाती है - माता! तू जिसकी हृदयेश्वरी है, उससे गम्भीर भाव से कह दे - भारत भूतल फिर भाराक्रान्त है।

    प्रिय हिन्दी संसार के उदीयमान कवि वृन्द! हम अत्यन्त लालायित दृष्टि से आज आप लोगों का वदनारविन्द अवलोकन कर रहे हैं। हमारे आशा स्थल आप लोग हैं, हम किस - किस का नाम लें, आप लोगों में से अनेक मर्मस्पर्शी कविता करने वाले हैं - आप लोगों का कविता - क्षेत्रा में पदार्पण अभिनन्दनीय है। आप लोग मानस नन्दन कानन में बिहार कर ऐसे मन्दार कुसुम चयन करें, जिसके आमोद से हमारा साहित्य - संसार आमोदित हो जावे, और चिन्तासूत्रा में भाव के अनूठे रत्न गुंफित करके वह मनोरम हार प्रस्तुत करें, जो भारत माता के गले का अभूतपूर्व अलंकार हो। परमात्मा आपकी कल्पना को अलौकिक आलोकमयी, आपकी प्रतिभा को देशानुराग रंजिता और आपकी कविता को जातीयता ज्योतिर्वती करे, जिससे भारत माता पुत्रावती हो, और आपके कीर्तिकलाप के अलाप से दिगन्त धवनित हो उठे।

सम्मेलन

    सम्मेलन का अर्थ है किसी उद्देश्य से समान विचार वालों का एकत्रिात अथवा सम्मिलित होना। धाार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक एवं इसी प्रकार के अन्य सार्वजनिक कार्यों के भली प्रकार सम्पादित और मिलित शक्ति से परिचालित होने के लिए सम्मेलन बहुत अच्छा साधान है। परस्पर विचार परिवर्तन, सहयोग, और संसर्ग जनित सहानुभूति का भी वह हेतु है। हमारा आज का सम्मेलन इसका सुन्दर उदाहरण है, चौदह वर्ष के अल्प काल में उसके प्रभाव का देशव्यापी होना, इन्हीं भावों का फल है। साहित्य का व्यापक अर्थ लेकर सब प्रकार के साहित्य - सेवी इसमें सम्मिलित होते हैं, यह इसकी सफलता का दूसरा कारण है। मदरास प्रान्त जैसे हिन्दी अपरिचित प्रदेश में, उसका प्रचार करना, सम्मेलन का आदर्श कार्य है। उसके सत्कार्यों का उल्लेख प्राय: समाचारपत्राों में होता रहता है, और सूत्राों से भी आप लोगों को इस विषय में बहुत कुछ ज्ञात होगा। अतएव मैं केवल अपना वक्तव्य सुनाऊँगा, और वह भी थोड़े में, क्याेंकि समय और स्थान दोनों का संकोच है।

    हम लोग हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं - बनाना नहीं चाहते, वरन् जो वास्तविक स्वत्व उसका है, वह उसे देना चाहते हैं। परन्तु बहुत से वास्तविक स्वत्व भी योग्यता के अभाव में अप्राप्य ही रह जाते हैं, विकसित होना प्रसूत समूह का वास्तविक स्वत्व है, किन्तु विकास योग्यता की कमी कितनों को अर्ध्द विकसित ही रखती है। यदि हमको राष्ट्रीयता के उच्च मंच पर हिन्दी को बिठाना है, तो उसे सर्वगुण सम्पन्न बनाना, सुप्रयोग परिजात पुष्प से सजाना, सरलता अलंकार से अलंकृत करना और सर्वप्रियता के कर कमलों से मान का पान दिलाना होगा। हिन्दी साहित्य का सब विभाग अभी अधाूरा है, परिश्रम करके उसको पूरा करना होगा। पुरातत्तव, इतिहास, अर्थशास्त्रा, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान, ज्योतिष, व्याकरण, प्राणिशास्त्रा, उदि्भद विद्या इत्यादि की ओर - अभी पूरी तौर पर दृष्टि भी आकर्षित नहीं हुई है। जिन क्षेत्राों में कार्य हो रहा है, उन क्षेत्राों में भी अधिाक तत्परता और मनोनिवेश की आवश्यकता है। नाटय कला व काव्य कला को जितना समुन्नत होना चाहिए उतना समुन्नत वह आज भी नहीं हुई। हम युनिवर्सिटियों में हिन्दी को सर्वोच्च कक्षाओं में प्रवेश कराना चाहते हैं - किन्तु क्या यह सर्वांगपूर्ण है? इधार उद्योग हो रहा है, किन्तु और अधिाक उद्योगअपेक्षितहै।

    अंग्रेजी बड़ी उन्नत भाषा है, उसका भाण्डार बहुमूल्य है और अशेष रत्न समूह का आकर है, योरोप की कतिपय अन्य भाषाएँ भी श्रीसम्पन्न हैं। भारतीय भाषाओं में संस्कृत, बंग भाषा, मरहठी और गुजराती ने बड़ी उन्नति की है, संस्कृत तो संस्कृत ही है, किन्तु बंग भाषा और मरहठी भी सौभाग्यवती हैं। हम लोगों को चाहिए, जिस उद्यान से हमको मनोरम कुसुम समूह मिले, वहीं से हम उसे संग्रह करें, जिस भाण्डार से हमको रत्न राशि की प्राप्ति हो, वहीं से हम उसे लें, और उनके द्वारा हिन्दी देवी को अलंकृत करें। हाँ, मराल समान नीर - क्षीर विवेकी होना चाहिए। क्षीर के धाोखे हम नीर कदापि न ग्रहण करें। मधाुकर समान कुसुम रसग्राही हों, किन्तु कंटकों से बचते रहें।

    खेद की बात है कि संस्कृत के धाुरंधार विद्वान् आज भी हिन्दी भाषा के प्रेमी नहीं हैं, अंग्रेजी के वृत्ताविद्यों में भी अधिाकांश इसी पथ के पथिक हैं। आज भी अनेक हिन्दू सन्तान उर्दू फारसी के ही एकान्त भक्त हैं, यहाँ तक कि हिन्दी को अपनी मातृभाषा भी नहीं मानते। कोई बंगाली, गुजराती, महाराष्ट्री, ऐसा न मिलेगा, जो बँगला, गुजराती और मराठी को अपनी मातृभाषा न मानता हो, किन्तु हमीें लोगों में कुछ ऐसे सज्जन हैं, जिनकी ऑंखें अब तक नहीं खुली हैं। हमारे राजा - महाराजाओं में से अनेक ऐसे हैं, कि जिनकी दृष्टि अब तक इधार नहीं फिरी, यह मर्मबेधाी व्यथा है। हैदराबाद के अधाीश्वर ने वहाँ उर्दू यूनिवर्सिटी खोल दी, वे अनेक उर्दू विद्वानों का समादर करते हैं, केवल उर्दू सेवा के लिए उनको बड़ी - बड़ी कम्पनियाँ मासिक वृत्तिायाँ देती हैं। किन्तु इस प्रकार की सेवा हिन्दी देवी की आज तक हमारे किसी महाराजा ने नहीं की। अनेक बडे - बड़े धानपात्राों की भी यही दशा है। दृष्टिकोण परिवर्तन की आवश्यकता है, कैसे समुचित दृष्टि इन महानुभावों और महिपालों की हम हिन्दी देवी की ओर आकर्षित करे - यह एक मार्मिक प्रश्नहै।

    हिन्दी का प्रचार बहुत कुछ हुआ है। जिस समय मैंने हिन्दी देवी के कमनीय चरण कमल के समीप आसीन होकर उनकी सेवा आरम्भ की थी, उस समय घोर अन्धाकार था, कहीं - कहीं कोई क्षीणप्रभ नक्षत्रा दृष्टिगत होता था, अथवा किसी विशेष विभाग का तिमिर, ज्योतिर्मान तारक द्वारा विदूरित हो रहा था। किन्तु इस समय हिन्दी संसार आलोकमय है, तथापि कहीं - कहीं अब भी अन्धाकार घनीभूत है, वहाँ भी प्रकाश फैलाने की आवश्यकता है। संस्कृत के जितने विद्यार्थी हैं, उनके लिए दूसरी भाषा की भाँति हिन्दी पढ़ना और कालेजों के हिन्दू छात्राों का सेकण्ड लैंगवेज (Second Language) संस्कृत के अभाव में हिन्दी होना आवश्यक है। हिन्दी प्रधाान प्रान्तों में नगर - नगर नागरी प्रचारिणी सभाओं का खुलना, व्यापार वृत्तिा के हिन्दुओं का समस्त कार्य हिन्दी भाषा में होना, इस प्रान्त की कचहरियों में अधिाक संख्या में हिन्दी आवेदन पत्राों का दिया जाना, अथवा दस्तावेजों का हिन्दी में लिखा जाना, जनता में हिन्दी उपयोगिता का भाव फैलाना, प्रत्येक नगर अथवा ग्राम के प्रसिध्द - प्रसिध्द मन्दिरों में हिन्दी पुस्तकालयों का खोला जाना, हिन्दी भाषा के मासिक पत्राों और समाचार - पत्राों को उत्तोजन देना और उनका प्रचार बढ़ाना, हमारा प्रधाानर् कत्ताव्य है। यहर् कत्ताव्य कैसे कार्य में परिणत हो, यह विषय भी विचारणीय है।

    सम्मेलन की दृष्टि इन सब बातों पर है, वह जी - जान से हिन्दी भाषा की समुन्नति और प्रचार कार्य में लग जाना चाहता है, किन्तु आप लोग जानते हैं कि प्रत्येक कार्य धान - जन की अपेक्षा रखता है। जब तक आप लोग प्रचुर धान और योग्य जनों द्वारा सम्मेलन की उपयुक्त सहायता न करेंगे, तब तक वह वांछनीय कार्यों और उद्योगों के करने में असमर्थ रहेगा, आशा है आप लोग इस निवेदन पर उचित दृष्टि देंगे।

    एक बडे महत्तव के विषय की ओर मुझको आप लोगों की दृष्टि और आकर्षण करना है। आज हम लोग यहाँ हिन्दी भाषा को समुन्नत करने, उसका प्रचार करने, उसकी उत्तारोत्तार श्री वृध्दि करने के विचार से एकत्रिात हैं। किन्तु आप लोग जानते हैं कि हिन्दू आधाार है - हिन्दी आधोय, हिन्दू प्रसून है - हिन्दी विकास, हिन्दू मयंक है - हिन्दी कौमुदी, हिन्दू सलिल है - हिन्दी लहरी, हिन्दू मधाु है - हिन्दी माधाुरी। अतएव हिन्दी जीवन के लिए हिन्दू जाति की सजीवता वांछनीय है। किन्तु यही हिन्दू जाति आज जर्जरित है, प्रतिदिन उच्छिन्न हो रही है, तिरस्कृत, लांछित, पद दलित और असम्मानित है, और उसका भविष्यत् गगन तिमिराच्छन्न हो रहा है। आप लोग इधार दृष्टि आकर्षित कीजिए और यह समझिए कि हिन्दू जाति के अस्तित्व और उन्नति पर ही हिन्दी की समस्त भलाइयाँ निर्भर हैं। अतएव आप सज्जनों का, विशेषत: उत्साहशील युवक वृन्द का, यह उद्योग होना चाहिए, कि उत्तोजित कामनाओं के वश होकर कामधोनु की रक्षा से मुँह न मोड़ा जावे, और कल्पना के आधाार पर कल्पतरु को निर्मूल न किया जावे। अन्त में हिन्द, हिन्दू और हिन्दी की मंगलकामना करते हुए इन कतिपय पंक्तियों के साथ मैं इस व्याख्यान को समाप्त करता हूँ -

अमरावती समान बने पुर पंक्ति हमारी।

अमर निकर से रहें परम प्रमुदित नरनारी।

सकल कल्पना कलित कल्प पादप बन जावे।

अखिल कामना कामद कामदुधाा पद पावे।

चित चिन्ता हो जाय चारु चिन्तामणि जैसी।

बने भावना भावमयी भव भामा ऐसी।

पा गुरुता गौरवित देव गुर लौं गुरु जन हों।

साहस में सब परम साहसी उमा सुअन हों।

सु छवि निकेतन मंजु मीन के तन जैसे हों।

सुरपुर सुख से सुखी लोग सुरपति ऐसे हों।

शची सदृश मति मती सती शुचि रुचि मणिमाला।

हों कमनीया काम कामिनी जैसी बाला।

नंदन बन ऐसे सफल बन उपवन बनें मनोज्ञ तम।

पाकर प्रभूत सुविभूति हो भारत भूतल स्वर्ग सम।

दोहा

पालक प्रिय तरुअंक में कलित ललित करकेलि।

फैल फैल फूले फले सुफलद हिन्दी बेलि।

''हरिऔधा''

           [ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चौदहवें अधिावेशन (दिल्ली, 1922) में, सभापति के आसान से दिया गया भाषाण। ]


 

 

 

 

 

 

राष्ट्रभाषा

 

 

भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा कौन हो सकती है, इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अब भी लिखा जा रहा है। मत - भिन्नता स्वाभाविक है। सबके विचार एक - से नहीं होते। किसी की दृष्टि संकीर्ण होती है, किसी की व्यापक। कोई उदात्ता भाव से ऊँचे उठकर लेखनी चलाता और सोचता है, कोई अपने स्वार्थ पर विशेष दृष्टि रखकर अपने भावों को प्रकट करता है। इसलिए मत - द्वैधा होना आश्चर्यजनकनहीं।

    देश और जाति - हित के विषय में भी इसी प्रकार की प्रवृत्तिा दृष्टिगत होती रहती है। आवश्यकता और स्वार्थपरता की जटिलता अविदित नहीं। फिर भी अपना विचार प्रकट करने का अधिाकार सभी को है। इसी सूत्रा से उक्त विषयों पर मैं भी अपना विचार प्रकट करता हूँ।

    किसी देश की राष्ट्रभाषा वही भाषा हो सकती है जो देश - व्यापिनी हो और जिसे सर्वसाधाारण का अधिाकांश भाग भी समझ सकता हो। यह सत्य है सर्वसाधाारण का ज्ञान उतना नहीं होता जितना विद्वज्जनों और पढे - लिखे लोगों का होता है। किन्तु, जो भाषा ऐसी होती है जो विद्वज्जनों और पण्डित - समाज तक ही परिमित होती है, वह राष्ट्रभाषा की अधिाकारिणी नहीं हो सकती। साहित्यिक भाषा और बोलचाल की भाषा में प्राय: अन्तर होता है। इसीलिए राष्ट्रभाषा बनने की अधिाकारिणी प्राय: बोलचाल की भाषा ही होती है।

    भारतवर्ष में बोलचाल की भाषा प्रत्येक प्रान्त की भिन्न - भिन्न है। जैसे पंजाब, युक्त प्रान्त, बिहार, बंगाल, उड़ीसा और आसाम की बोलचाल की भाषाओं में अन्तर है, वैसे ही राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और मद्रास प्रान्त की बोलचाल की भाषाओं में भी भिन्नता है। ऐसी अवस्था में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा कौन - सी भाषा हो सकती है। हिन्दी भाषा में यह विशेषता है कि वह युक्त प्रान्त, बिहार, मधयहिन्द और राजस्थान में भली प्रकार समझी जाती है। पंजाब और उड़ीसा में भी यह विशेष दुर्बोधा नहीं है। इसलिए भारत की अन्य प्रान्तीय बोलचाल की भाषाओं से उसकी व्याप्ति अधिाक है। इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषा में दूसरी विशेषता यह भी है कि उसमें जो संस्कृत के शब्द आते हैं, वे भारतवर्ष के सब प्रान्तों में समझे जा सकते हैं। जैसे - मुख, नेत्रा, धान, जन, प्रकाश, अन्धाकार इत्यादि। यह गौरव भारतवर्ष की किसी प्रान्तीय भाषा को नहीं प्राप्त है। अतएव मेरा विचार है - यदि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा हो सकती है तो 'हिन्दी' भाषा ही हो सकती है।

    कहा जाता है कि हिन्दी भाषा अधिाक संस्कृतगर्भित होती है; अतएव वह बोलचाल से दूर पड़ जाती है। इसलिए वह राष्ट्र - भाषा कदापि नहीं हो सकती। हाँ, यदि वह अधिाक सरल और सुबोधा बना दी जाए, तो उसका राष्ट्रभाषा होना संभव है। परन्तु उर्दू भाषा के पक्षपाती इसको स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं - यदि राष्ट्रभाषा हो सकती है तो 'उर्दू' भाषा हो सकती है। एक दल ऐसा है, जो यह कहता है कि न तो हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा हो सकती है, न उर्दू। यदि इन दोनों के मेल से एक अधिाक व्यापिनी और सुबोधा भाषा का प्रचार किया जाए और दोनों पक्ष का विरोधा मिटाने के लिए उसका नाम 'हिन्दुस्तानी' रख दिया जाए और उसे व्यवहार में परिणत किया जाए, तो वह निस्सन्देह राष्ट्रभाषा हो सकती है। इस दल के लोग इसी दृष्टि से आजकल हिन्दुस्तानी की ओर आकर्षित हैं और अपनी खिचड़ी अलग पका रहे हैं। मैं यह कहूँगा कि इस प्रकार के विचार युक्तिसंगत नहीं हैं। उर्दू कोई अन्य भाषा नहीं है, वह हिन्दी भाषा का रूपान्तर - मात्रा है।  उसकी जीवन - सर्वस्व हिन्दी भाषा की क्रियाएँ हैं, और हिन्दी भाषा के विभक्ति, प्रत्यय आदि ही उसके अस्तित्व के आधाार हैं। इसलिए थोड़े - से अरबी और फारसी के शब्द उसमें आ जाने से वह अन्य भाषा नहीं मानी जा सकती। आजकल हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के या योरप की अन्य भाषाओं के रेल, तार, डाक, कचहरी, इत्यादि कुछ शब्द मिल गये हैं। और मिलते जा रहे हैं। किन्तु, इससे उसके हिन्दीपन में कोई अन्तर नहीं पड़ा है। फिर फारसी या अरबी के कतिपय शब्द उसमें आ जाने से वह हिन्दी छोड़ अन्य भाषा कैसे हो जाएगी? कहा जायेगा कि उर्दू के पक्षपाती इस दलील को नहीं मान सकते।

    वह एक विशेष समाज की भाषा मान ली गयी है और उसका अधिाक प्रचार भी है। उसमें बहुत - सी पत्रा - पत्रिाकाएँ भी निकल रही हैं और अनेक ग्रन्थों की रचना भी हो गयी है। अतएव उसे अन्य भाषा मानना ही पडेग़ा। जिसके जी में आवे, वह उसे अन्य भाषा मान लेवे; परन्तु हिन्दी - संसार अब तक उसको हिन्दी का ही एक रूप मानता आया है। यह हिन्दी - संसार का दुराग्रह नहीं है, उसके विचार में वास्तविकता है।

दिल मल गये गेसुओं में फँस के,

कुम्हला गये फूल रात बस के।

    इस शेर में दस शब्द हैं, जिनमें से दो शब्द 'दिल' और 'गेसू' फारसी के हैं और बाकी आठ शब्द हिन्दी के। बतलाइए, जिस पद्य में आठ शब्द हिन्दी के हैं, पद्य 'हिन्दी' का नहीं है और दो शब्द आने से वह 'उर्दू' का हो गया! क्या यह न्यायसंगत कथन है? इसी शेर की बात क्या, उर्दू का कौन शेर ऐसा है जिसमें हिन्दी की क्रियाएँ, विभक्ति, प्रत्यय इत्यादि न भरे हों? ऐसी अवस्था में उर्दू को हिन्दी का रूपान्तर छोड़ और कुछ नहीं कहा जा सकता। हिन्दी के शब्दों को निकाल दीजिये, तो उर्दू उर्दू न रह जाएगी। ऐसे ही जिस हिन्दुस्तानी का राग एक दल अलाप रहा है, वह हिन्दी का रूपान्तर न होकर और क्या है? फिर यह कहाँ का न्याय होगा कि हिन्दी का नाम लुप्त कर उसके स्थान पर हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग किया जाए और उसके चिरकालिक स्वत्व को आघात पहुँचाया जाए? जिस कार्य से देश, जाति और समाज का हित हो, उसके लिए बहुत बडे से बड़ा त्याग किया जा सकता है, मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ। किन्तु, 'हिन्दी' के स्थान पर 'हिन्दुस्तानी' शब्द के प्रयोग ने जो विवाद उपस्थित कर दिया है, उसपर भी दृष्टि डालनी चाहिए। आज दिन उर्दू के पक्षपाती कहते हैं कि उनके उर्दू को मटियामेट कर देने के लिए हिन्दीवालों ने 'हिन्दुस्तानी' शब्द को गढ़ा है। हिन्दी के पक्षपाती यह कहते हैं कि 'हिन्दी' और 'हिन्दुस्तानी' शब्द का एक ही अर्थ है; फिर हिन्दी के गले पर छुरी चलाकर 'हिन्दुस्तानी' नाम क्यों दिया जा रहा है? क्या यह कार्य ऐसा नहीं है जो हिन्दी भाषा की चिरकालिक प्रतिष्ठा में धाब्बा लगा रहा है? हिन्दी - संसार ने सरल से सरल हिन्दी लिखी है और उसका प्रचार किया है; किन्तु कभी उसका नाम बदलने की चेष्टा नहीं हुई। अब क्यों व्यर्थ का झगड़ा किया जा रहा है, इसको भाषा - शास्त्रा के मर्मज्ञों को विचारना चाहिए। मैंने सरल से सरल हिन्दी के ग्रन्थ लिखे हैं और संस्कृत - गर्भित हिन्दी के ग्रन्थ भी। पर इसमें से किसी का अनादर नहीं हुआ। दोनों प्रकार के मेरे हिन्दी के ग्रन्थ समान रूप से ही आदृत हुए। ऐसी अवस्था में केवल सरलता लाने के बहाने से हिन्दी का नाम ही लोप कर देना कहाँ तक विवेकसंगतहै!

    मैं ऊपर कह आया हूँ कि हिन्दी में जो संस्कृत के शब्द आते हैं, वे सब प्रान्तों में समझे जा सकते हैं। किन्तु, जो शब्द फारसी - अरबी के आते हैं, वे अन्य प्रान्तों के लिए दुर्बोधा होंगे।

''किसी का कब कोई रोजश्ेसियह में साथ देता है।

कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्साँ से। ''

     इस शेर में 'रोजश्ेसियह', 'तारीकी', 'साया' और 'इन्सा। ' ऐसे शब्द आये हैं, जिनको दक्षिण के प्रान्तवाले कभी नहीं समझ सकेंगे। किन्तु, यदि इनके स्थान पर 'दुर्दिन', 'अन्धाकार', 'छाया' और 'मनुष्य' लिख दिया जाए, तो उनको दक्षिण का प्रत्येक प्रान्त समझ लेगा। इसलिए कि संस्कृत शब्दों का प्रयोग आवश्यकतानुसार अपनी भाषा में दक्षिण प्रान्तवाले भी बराबर करते रहते हैं। आर्यभाषा से सम्बन्धिात पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मरहठी, उड़िया, बंगाली एवं आसामी आदि भाषाओं में शुध्द अथवा अपभ्रंश संस्कृत शब्दों का प्रयोग तो होता ही है, द्राविड़ी, मलयालम और तेलगू आदि भाषाओं में भी इनके प्रयोग की प्रचुरता है। अधिाक दूरवर्ती मद्रास प्रान्त के मलयालम भाषा के एक पद्य को देखिए और जिन शब्दों के नीचे लकीर खींची है, उनपर दृष्टि डालिए तो ज्ञात हो जायेगा कि मलयालम भाषा में भी किस प्रकार संस्कृत शब्दों का प्रयोग होता है। विस्तारभय से अन्य भाषाओं को छोड़ता हूँ -

शरदचन्द्र उदिच्चq मोगुंलितो।

क्षीरांबुधिा ताने उपरन्नु काणन्नितो।

    यही कारण है कि फारसी - अरबी के शब्द भारतीय अनेक प्रान्तों में अपरिचित और संस्कृत के शब्द परिचित हैं। और यह बात भी ऐसी है कि जो इसको प्रमाणित करती है कि यदि भारत की राष्ट्रभाषा कोई हो सकती है तो 'हिन्दी' ही भाषा हो सकती है, कोई अन्य भाषा नहीं।

    एक बात मैं और कहे देता हूँ कि हिन्दी - उर्दू या हिन्दुस्तानी का विवाद न तो समयानुकूल है और न देश - कालोपयोगी। उचित यह ज्ञात होता है कि इस व्यर्थ के विवाद को छोड़कर और उर्दू को हिन्दी का रूपान्तर एवं हिन्दुस्तानी को उसका पर्यायवाची शब्द समझकर शुध्द हृदय से विवादास्पद विषयों का उठाना हम छोड़ दें। यह कार्य सब प्रकार उपकारक और सामयिकता के अनुकूल होगा।

    रही बात लिपि की। इस विषय में मैं इतना ही कहूँगा कि हिन्दी - वर्णमाला - जैसी सरल, पूर्ण, सुविधााजनक एवं यथार्थ उच्चारण की अनर्ुवत्तिानी अन्य कोई भाषा है ही नहीं। रोमन लिपि और पारसी अथवा अरबी वर्णमाला में यह दोष है कि लिखा जाता है कुछ और पढ़ा जाता है कुछ। हिन्दी के अक्षर ही ऐसे हैं जिनके द्वारा जो कुछ लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है। और बातें भी इस विषय में बतलायी जा सकती हैं; परन्तु वह पिष्ट - पेषण्ामात्रा होगा। अतएव मैं यही कहूँगा कि राष्ट्र - लिपि यदि हो सकती है तो 'हिन्दी' ही हो सकती है, अन्य नहीं।

(सन्दर्भ - सर्वस्व)


 

 

 

 

 

 

कवि कौन है

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

कवि कौन है? यजुर्वेद के चालीसवें अधयाय का आठवाँ मन्त्रा यह है ''कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:''। परमात्मा कवि है, मनीषी है, सर्वव्यापी है और स्वयमेव है। इन नामों में परमात्मा को सर्वप्रथम कवि नाम से क्यों अभिहित किया गया है? इसलिए कि ब्रह्मस्तम्भ पर्वत जो कुछ इन्द्रियगोचर है, उसमें उसकी अलौकिक मार्मिकता और अनिर्वचनीय कवि - कर्म का विकास है। चाहे आप हिमधावल पर्वत मान लें, चाहे उत्तााल तरंग तोयनिधिा, चाहे लहरीलीलासंकुल सरिता, चाहे शस्यश्यामला धारित्राी, चाहे फल - कुसुम भारावनत तरुपुंज, चाहे सुनील निर्मल गगन, चाहे तेज: पुंज - कलेवर मरीचिमाली, चाहे सरससुधाòावी मयंक, चाहे चमत्कारमय तारकसमूह, चाहे कोमलकान्त शरीर, चाहे एक रजकण, आप जिसे लेंगे उसी में उस अनन्त - लीलामय की अलौकिक काव्यकला दृष्टिगोचर होगी। उसी में उसकी अभूतपूर्व मार्मिकता दिखायी पडेग़ी। यही सब अद्भुत व्यापार सर्वप्रथम मानव दृष्टि को उसकी ओर आकर्षित करते हैैं। इसीलिए सर्वप्रथम उसका परिचय कवि नाम द्वारा ही दिया गया है। मन, बुध्दि, हृदय, नेत्रा और मस्तिष्क की रचना में जो मार्मिकता लक्षित होती है, जो अनिर्वचनीय प्रतिभा प्रतिभासित होती है, उसकी इयत्ताा नहीं हो सकती। यह वह अगाधा समुद्र है, जो आज भी अनवगाहित है; परन्तु जिसने इसका जितना ही अधिाक भेद जाना है, इस जटिल ग्रन्थि को जितना ही खोला है, इस असीम और अनन्त अथच नितान्त मनोमुग्धकर अपार पारावार में जितना ही अधिक अवगाहन किया है, वह उतना ही अधिाक भाग्यशाली और उतना ही अधिाक उच्च पदारूढ़ है। उसके द्वारा इस मंगलमयी सृष्टि का जितना हित - साधान होता हैमानव समूह का वरंच प्राणिमात्रा का जितना श्रेय होता है, अन्य द्वारा उतना होना असम्भव है। 'सर्वंखल्विदं ब्रह्म, जीवो ब्रह्मैवनापर:', 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी', ये वाक्य हमको अभेद का पाठ पढ़ाते हैं, बतलाते हैं कि जीवन यदि अविद्याग्रस्त नहीं है, तो वह समझ सकता है कि वह क्या है? शेली का कथन है कि ''सुन्दर और साधाारण दृश्यों को देखकर बच्चों के मुँह से जो आनन्द की किलकारी निकलती है, उच्चतर सौन्दर्य की अभिव्यक्ति से कवि का आनन्द भी वैसे ही काव्य रूप में उछल पड़ता है। पहला मरणाधाीन है परन्तु दूसरा अमर है। कवि उस अनन्त और एक का अंश है और इसी कारण उस अनन्त लीलामय की लीलाओं पर अपनी लीला का स्वांग रचनेवाला, उसके अनन्त सौन्दर्यमय दृश्यों द्वारा अपनी सौन्दर्यमयी कविता को सजीव बनानेवाला, उसकी अलौकिक भावमयी रचना की कलित कुसुमावली द्वारा अपनी कविताकामिनी को सुसज्जित करनेवाला, उसके औदार्य आदि महान गुणों की मंजु मुक्ता द्वारा अपने मानस को सजानेवाला एक सहृदय जन भी कवि नाम से ही पुकारा जाता है। अग्निपुराण में लिखा है -

नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्रा सु दुर्लभा।

कवित्वं दुर्लभं तत्रा शक्तिस्तत्रा सुदुर्लभम्।

    नरत्व दुर्लभ है, विद्या प्राप्ति उससे दुर्लभ है, कवित्व उससे दुर्लभ है, शक्ति उससे भी दुर्लभ है। हमीें नहीं कहते कि 'प्राणभृत्सु नरा श्रेष्ठा:' अन्य लोग भी कहते हैं कि 'इन्सान अशरफुलमखलूकात है', इसीलिए नरत्व दुर्लभ है। नरत्व प्राप्त होने पर विद्वान होना कठिन है। आप लोग स्वयं जानते हैं कि मनुष्यों में कितने वास्तव में विद्वान हैं। विद्वानों से उच्च कवित्व अर्थात् कवि का पद है और इसीलिए शायद महात्मा तुलसीदास कहते हैं 'कवि न होउँ नहीं चतुर कहाऊँ। थोड़ी सी काव्यप्रतिभा पाकर अथवा काव्य रचने में लब्धाप्रतिष्ठ होकर किम्वा साहित्य निर्माण में स्वाभाविक योग्यता लाभ कर अनेक विद्वान न जाने क्या - क्या कह जाते हैं। हमारे पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं -

मधाु द्राक्षा साक्षादमृतमथवामाधर सुधाा।

कदाचित्केषांचित्खलु हि विदधाीरन्न विमुदम्।

धा्रुवन्ते जीवन्तोप्यहह मृतका मन्द मतयो।

न येषामानन्दं जनयति जगन्नाथ भणिति:।

    शहद, अंगूर, अमृत और कामिनीकुल का अधारामृत कभी किसी को ही आनन्दित करते हैं। परन्तु वे मूर्ख तो जीते हुए ही मृतक तुल्य हैं जिन्हें कि पण्डिराज जगन्नाथ की कविता आनन्द न दे।

    उर्दू के मशूहर शायर नासिख फरमाते हैं -

इक तिफ्त दबिस्ताँ है फलातू मेरे आगे,

क्या मुँह है अरस्तू जो करे चूँ मेरे आगे।

क्या माल भला कसरे फरेदूँ मेरे आगे,

काँपे है पड़ा गुम्बदे गरदूँ मेरे आगे।

मुरगाने उलुल अजतेहा मानिन्द कबूतर,

करते हैं सदा इज्ज से गूँ गूँ मेरे आगे।

बोले है यही खामा कि किस किस को मैं बाँधाूँ,

बादल से चले आते हैं मजमूँ मेरे आगे।

वह मारे फलक काहे कशाँ नाम है जिसका,

क्या दख्ल जो बल खाके करे फू मेरे आगे।

    परन्तु, कवि चक्र चूड़ामणि महामान्य महात्मा तुलसीदास कहते हैं - 'कवि न होउँ', क्यों? ऐसा वे क्यों कहते हैं? इसलिए कि 'जेहि जाने जग जाय हेराई' अथवा 'आराँ कि खबर शुद खबरश बाज नयामद', वे जानते हैं कि कवि शब्द का क्या महत्तव है और इसीलिए वे कहते हैं कि मैं कवि नहीं हूँ। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के आविष्कारक प्रसिध्द विज्ञानवेत्ताा न्यूटन ने अन्त समय कहा था - ''परमात्मा की अलौकिक रचना अगाधा उदधिा के कूल पर मैं सदा एक बालक कि भाँति खेलता रहा। कभी एकाधा चमकीले कंकर मेरे हाथ लग गए। किन्तु, उसकी महिमा का अगाधा समुद्र आज भी बिना छाने हुए पड़ा है। '' वास्तव बात यह है कि अपरिसीम अनन्त गगन में उड़नेवाला एक छुद्र विहंग उसका क्या पता पा सकता है? गोस्वामीजी के 'कवि न होउँ' वाक्य की गम्भीर धवनि यही है। उन्हाेंने इस वाक्य द्वारा यह तो प्रकट किया है कि मैं कवि नहीं हूँ। किन्तु, उनके इस वाक्य का गाम्भीर्य ही यह प्रकट करता है कि वे कितने योग्य कवि थे। हमलोगों को भी उन्हीं का पदानुसरण करना चाहिए। हमलोगों को अपनी समाजसेवा द्वारा अपने भावोद्यान के सुमनों द्वारा, अपनी कवितालता के सौरभित दलों द्वारा, मनोराज्य के विपुल विभव द्वारा, प्रतिभा - भाण्डार के बहुमूल्य मणि द्वारा, हृदय के सरस प्रवाह द्वारा, देश के लिए, जाति के लिए, लोकोपकार के लिए उत्सर्गीकृत जीवन होना चाहिए। जनता आप ही कहेगी कि हम कौन हैं। काम चाहिए, नाम नहीं। 'कर्म्मण्येवाधिाकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। एलिजाबेथ ब्राउनिंग का कथन है कि 'कवि सौन्दर्य का ईश्वर प्रेरित आचार्य है'। मैथ्यू अर्नाल्ड कहते हैं - ''जिसके काव्य में मानव - जीवन की गुप्त समस्यायें प्रतिफलित होती हैं और सौन्दर्य के साथ उन गूढ़ समस्याओं का समन्वय होता है, वही कवि है''। कार्लाइल का वचन है - ''कवि और भविष्यवक्ता एक ही प्रकार का मंगल समाचार सुनाते हैं। जो कवि है वही वीर है। सत्य और काव्य दोनों एक वस्तु हैं। काव्य की जीवन - धाारा सत्य है। जो कवि है, वही सच्चा शिक्षक है''। टेनिसन कहता है - ''सिर पर अनेक ताराओं का मुकुट धाारण किए सोने के देश में कवि ने जन्म धाारण किया था। घृणा की घृणा, उपेक्षा की उपेक्षा और प्रेम का प्रेम यही उसको भेंट में मिला था। उसकी दृष्टि जीवन और मरण के बीच से भले और बुरे के भीतर से होकर दूर तक देखती है। '' जो कवि नाम के अधिाकारी हैं उनको इन पंक्तियों का अवतार होना चाहिए, अन्यथा कवि कहलाना परमात्मा के पुनीत नाम का अपमान करना है।

कवि - कर्म्म

    कवि - कर्म्म के विषय में सूत्रारूप से ऊपर कुछ कहा गया है, उसकी व्याख्या आवश्यक है। कविता और काव्य ही कवि - कर्म्म है। शेक्सपियर का कथन है - ''कवि की दृष्टि स्वर्ग से पृथ्वी और पृथ्वी से स्वर्ग तक आती - जाती रहती है। उसकी कल्पना अज्ञात को मूर्तिमान कर देती और लेखनी उस पर रंग चढ़ाकर उसे मर्त्यलोक का - सा नाम - धााम दे डालती है। अरस्तू का कथन है ''साधाारणत: सब प्रकार की कलित कलाओं की भाँति काव्य का भी स्वाभाविक गुण्ा प्रकृति का अनुकरण करना ही है। प्रकृति का अर्थ सृष्टिपदार्थमयी बाह्य प्रकृति नहीं है वरन् मेरा अभिप्राय विश्व की सृष्टिक्षमशक्ति और उसमें छिपे हुए धा्रुव सत्य से है। काव्य इतिहास की अपेक्षा महत् और दार्शनिक विचार से पूर्ण होता है। वह विश्वव्यापी मूल पदार्थ की अभिव्यक्ति है। '' वर्ड्सवर्थ बतलाते हैं - ''काव्य एक सत्य है, वह सत्य स्थानीय वा व्यक्तिविशेष के लिए सीमाबध्द नहीं है, वह सर्वसाधाारण की वस्तु है। वह बड़ा ही शक्तिशाली है। मनोवृत्तिा की गति की भाँति वह भी बिल्कुल हृद्गत बात है। बाह्य प्रमाण के ऊपर उसकी स्थिति नहीं है। काव्य प्रकृति और मानव की प्रतिमूर्ति है। कवि के लिए कोई पराया नहीं। वह सबको आनन्द देने और सबको सन्तुष्ट करने के लिए बाधय है। सत्य की एक महान् कल्पना के भीतर कवि और भविष्यवक्ता एक - दूसरे के साथ एक ही योगसूत्रा में गुँथे हुए हैं। ये दोनों सबको अपना बना लेते हैं। इसकी उनमें ईश्वर की दी हुई विशेष शक्तिर् वत्तामान है। उनके ज्ञानचक्षुओं के सामने अदृष्टपूर्व औरनए - नए दृश्यपट खुलते हैं। महान् कवि के विशाल हृदयराज्य में धार्म की राजधाानी है। ''

    यह तो कवि - कर्म्म की परिभाषा हुई। उसका व्यावहारिक रूप क्या हो सकता है, यह विषय विचारणीय है। हमलोगों के अमर महाकाव्य रामायण और महाभारत हैं। कुछ दिन हुए मद्रास प्रान्त में व्याख्यान देते हुए एक विद्वान ने कहा था कि ''यदि हमारा सर्वस्व छिन जावे तो भी कोई चिन्ता नहीं, यदि रामायण और महाभारत जैसे हमारे बहुमूल्य मणि सुरक्षित रहें। इन दोनों ग्रन्थों में वह संजीवनी शक्ति है कि जब तक इनका सुधााòोत प्रवाहित होता रहेगा, हिन्दू - जाति अजर - अमर रहेगी। जिस दिन यह सुधाòोत बन्द होगा उसी दिन हिन्दू - जीवन और हिन्दू - सभ्यता दोनों निर्मूल हो जावेगी''। उनके इस कथन का क्या मर्म है? उन्हाेंने किस सिध्दान्त पर आरूढ़ होकर यह कथन किया? वास्तव बात यह है कि ये ग्रन्थ हिन्दू - सभ्यता के आदर्श हैं; हमारी गौरवगरिमा के विशाल स्तम्भ हैं; इनमें हमारे हृदय का मर्म स्वर्णाक्षरों में अंकित है; हमारे सुखदुख का, हमारे उत्थान - पतन का ज्वलन्त उदाहरण इनमें मौजूद है। आर्य्यसभ्यता कैसे उत्पन्न हुई, कैसे परिवर्ध्दित हुई, किन - किन घात - प्रतिघातों में पड़ी, फिर कैसे सुरक्षित रही, इसका उनमें सुन्दर निरूपण है। उनमें सामयिक चित्रा हैं, आदर्शमूलक विचार हैं, समुन्नति के महामन्त्रा हैं, सिध्दि के सूत्रा हैं, व्यवहार के प्रयोग हैं, सफलता के साधान हैं। उनमें कामद कल्पलतिका है, फलप्रद कल्पतरु है, संजीवनी जड़ी है, अमर बेलि है औैर चारु चिन्तामणि है। प्रयोजन यह कि किसी जीवित जाति के लिए जीवनयात्राा निर्वाह की जितनी उपयोगी सामग्री है, वह सब उनमें मौजूद है, और यही कारण है कि वे आज तक उसके जीवन सर्वस्व हैं। प्रत्येक सहृदय कवि को इन्हीं ग्रन्थों को आदर्श मानकर कार्य्य क्षेत्रा में उदारता और सहृदयता के साथ उत्ताीर्ण होने की आवश्यकता है। आज हमारे लिए जो विष है उसका त्याग और जो अमृत है उसका ग्रहण आवश्यक है। कवि की दृष्टि प्रखर होनी चाहिए। उसको समाज के भीतर की गूढ़ से गूढ़ बातों को, छिपे से छिपे रहस्य को उद्धाटन करना चाहिए और उसके गुण - दोष की समुचित विवेचना करके दोष के निराकरण और गुण के संवर्धन और संरक्षण के लिए बध्द - परिकर होना चाहिए। यदि उसमें सच्चा आत्म - उत्सर्ग है, वास्तविक सत्यप्रियता है, यदि उसका हृदय उन्नत है, उदार है, निरपेक्ष है, संयत है, तो उसकी लेखनी जाति के लिए संजीवनीधाारा होगी और उसका कविताकलाप समाज पर सुधाावर्षण करेगा। वैतालिक जिस समय इदंकुत: में रत रहकर मानव हृदय को उपपत्तिायों में उलझाता है और उसे पेचीली बातों में फँसाकर भूलभुलैया में डाल देता है, उसी समय कवि अपनी रसमयी वाणी से उसको सरस कर देता है और उसमें उत्साह और स्फूर्ति के वह बीज वपन कर देता है, जो उसके लिए तत्काल फलप्रसू होते हैं। कवि के एक - एक शब्द, कविता की एक - एक पंक्ति में वह जीवन्त शक्ति होती है और वह इतनी प्रभावशालिनी होती है कि जाति के उत्थान - पतन में, मानव - हृदय के संबोधान में, चित्ता के वशीकरण में जादू का - सा काम देती है। कविपुंगव सूरदास के सामने दो मनुष्य उपस्थित हुए। ये दोनों विद्वान थे, शंकासमाधाान और वाद की निवृत्तिा के लिए उनकी सेवा में आये थे। एक कहता - 'कुल बड़ा', दूसरा कहता - 'संगति बड़ी'। घण्टों लड़झगड़ कर भी जब किसी सिध्दान्त पर उपनीत न हुए तो उनको उक्त महात्मा को पंच मानना पड़ा। उन्होंने उनकी बातों को सुनकर तत्काल निम्नलिखित दोहा पढ़ा - जिसमें ऐसे गूढ़ प्रश्न की मीमांसा तुरत कर दी -

स्वाति बूँद सीपी मुकुत कदली भयो कपूर।

कारे के मुख बिख भयो संगति केवल सूर।

    यह है कवि और कवि के शब्दों की क्षमता और महत्ताा। यदि देश और जाति को आवश्यकता है, तो ऐसे कवियों की आवश्यकता है। यदि हमारी जाति के विकल नेत्रा कोई प्रभावमय बदनारविन्द देखना चाहते हैं तो ऐसे ही शक्तिशाली कवि को देखना चाहते हैं। आज हमारी हिन्दू जाति का अधा:पात प्रखर गति से हो रहा है, आज पद - पद पर उसका स्खलन हो रहा है। जातीय सभाएँ उसकी संघ - शक्ति का संहार कर रही हैं, विधावाओं के करुण क्रन्दन से आज पत्थर का हृदय भी विदीर्ण हो रहा है, दिन - दिन उसकी संख्या क्षीण हो रही है, उसके हृदय - धान, उसके नेत्राों के तारे उससे अलग हो रहे हैं। आज भी बाल - विवाह कार् आत्तानाद कर्णगत हो रहा है। वृध्द - विवाह आज भी समाज को विधवंस कर रहा है। आर्य्य - सन्तान कहलाकर महर्षिकुल में जन्म लेकर, भगवती भारतमाता की गोद में पलकर आज भी हम कन्या - विक्रय कर रहे हैं। आज भी अपनी कुसुम - कोमल - बालिका को धान के लिए, थोड़े से अर्थ के लिए, हम तृष्णापिशाचिनी के समाने बलिप्रदान कर रहे हैं। यदि मन्दिरों में अकाण्ड तांडव है, तो सुरसरी - पुनीत - तट पर पैशाचिक नृत्य है। कहीं धार्म की ओट में सतीत्व हरण हो रहा है, कहीं भभूत पर विभूति निछावर हो रही है। आज मनोमालिन्य का अखण्ड राज्य है, अविश्वास और अंधाविश्वास की दुन्दुभी बज रही है। क्या कहें, किस - किस बात को कहें, जी यही कहता है -

क्या पूछते हो हमदम इस जिस्म नातवाँ की।

रग - रग में नेशे गम है कहिए कहाँ - कहाँ की।

    पर इस दर्द की दवा कौन करेगा, कौन इस बिगड़ी को बनावेगा, कौन हमारी नाड़ी टटोलेगा, कौन गिरती जाति को उठावेगा, कौन उजडे घर को बसावेगा और कौन हमारी उलझी को सुलझावेगा? ऑंख बहुतों की ओर जाती है पर हृदय यही कहता है 'एक सच्चा कवि'। इस सच्चे कवि शब्द पर खटकना न चाहिए, हृदय में दर्द होने पर सच्चा कवि सभी हो सकते हैं। प्रतिभा किसी जातिविशेष और मनुष्यविशेष की बाँट में नहीं पड़ी है। हमारे उत्साही कविगण आवें और इस क्षेत्रा में कार्य्य करें। उनके पुरुषार्थ और कवित्वबल से भारतमाता का मुख उज्ज्वल होगा और उनकी कीर्तिकौमुदी से वसुधाा धावलित हो जावेगी। आज दिन यदि कोई महदनुष्ठान है तो यही, तपशर््चय्या है तो यही कि जैसे हो वैसे जाति के कुरोग विदूरित किए जावें। कवि की प्रौढ़ लेखनी का प्रौढ़त्व और कवि की मार्मिकता का महत्तव इसी में है कि वह प्रसुप्त जातियों को जगावे, उसके रोम - रोम में वैद्युतिक प्रवाह प्रवाहित करे और उसको उस महान् मन्त्रा से दीक्षित करे, जो उसको सगौरव संसार में जीवित रहने का साधान हो। एक दिन साहित्य - संसार शृंगार - रस से प्लावित था, उसी की आनन्द - भेरी जहाँ देखो, वहाँ निनादित थी। समयप्रवाह ने अब रुचि को बदल दिया है, लोगों के नेत्रा खुल गये हैं, कविगण अपनार् कत्ताव्य अब समझ गये हैं। इस समय यदि आवश्यकता है तो तदीयता की आवश्यकता है। आज दिन भारतमाता यही कह रही है -

मन्मना भव मद्भक्त: मद्यायी मां नमस्कुरु,

सर्व धार्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

    क्या उसका यह कथन सहृदय कविगण उत्कर्ण होकर सुनेंगे।

    कवि - कर्म्म का यह पहला पहलू है, दूसरा पहलू उसका साहित्य सम्बन्धाी है। मैं इस विषय में भी कुछ कथन कर अपना वक्तव्य समाप्त करूँगा। कवि कर्म बहुत दुसह है, जब तक सर्वसाधाारण की दृष्टि से कवि की दृष्टि विलक्षण न होगी, वह कवि - कर्म्म का अधिकारी न हो सकेगा। गजराज को शिर पर धाूल डालते हुए चलते सभी देखते हैं पर इस क्रिया में एक बारीक बात सहृदयवर रहीम खाँ खानखान ने ही देखी और विमुग्धा होकर कहा -

छार मुण्ड मेलत रहत कहु रहीम केहि काज।

जेहि रज ऋषिपत्नी तरी सो ढूँढ़त गजराज।

    चंपा की हृदयलुभावनी छवि किसको नहीं लुभाती, पर एक सहृदय कवि के मुख से ही यह बात निकली -

चंपा तो मैं तीन गुण, रूप, रंग और बास।

औगुण तो मैं एक है भौंर न बैठत पास।

    कवि - कर्म्म यही है। तुकबन्दी करना कवि - कर्म्म नहीं है। कविवर ठाकुर कहते हैं -

ठाकुर जो तुकजोरनहार उदार कबिन्दन की सरि कैहैं।

एक दिना फिर तो करतार, कुम्हार हूँ सो झगरो बनि ऐहैं।

    यदि मूर्ति खड़ी कर देने से ही काम चलता तो करतार और कुम्हार में अन्तर ही क्या है? बात तो है सजीवता की, और इसीलिए विद्वानों ने कहा है -

किं कवेस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धानुष्मत:

परस्यहृदये लग्नं न घूर्णयतियच्छिर:।

जाके लागत ही तुरत सिर ना डुलै सुजान,

ना वह कबित न कबिकथन ना वह तान न बान।

    दूसरा कवि - कर्म्म है कोमलकान्त पदावली। आजकल की कर्णकटु भाषा में कविता करना कवि - कर्म्म नहीं है। 'वाक्यं रसात्मकं काव्य। ' - जिस वाक्य में रस नहीं वह काव्यसंज्ञा का अधिाकारी नहीं। जो रस प्रसादगुणमयी कविता में होता है अन्य में नहीं, और प्रसादगुण के लिए कोमलकान्त पदावली आवश्यक है। उर्दू का एक कवि कहता है 'जेरे कदमे वालिदा फिरदौस बरीं है'। दूसरा कहता है 'जुनूं पसन्द है मुझको हवा बबूलों की, अजब बहार है इन जर्श्द ज़र्द फूलों की'। तीसरा कहता है, 'दिल मय गये गेसुओं में फँसके, कुम्हला गये फूल रात बसके'। अब आप सोचिए, इनमें कौन अधिाक सरस है, वही जिसकी कोमलकान्त पदावली है।

    तीसरा कवि - कर्म्म है शब्द - विन्यास। शब्दों की काट - छाँट और उनका यथोचित स्थान पर संस्थान। यह कार्य्य बड़ी ही मार्मिकता का है।र् वत्तामान कविताओं में इसकी बड़ी त्राुटि है। इस कार्य के लिए एक अच्छे समालोचक - पत्रा की आवश्यकता है। किन्तु खेद है कि हिन्दी संसार इससे शून्य है। आजकल की समालोचनाएँर् ईष्या - द्वेषमूलक अधिाक होती हैं। इसी से जैसा चाहिए वैसा उपकार नहीं हो सकता है। समालोचनाएँ सहृदयतामयी और उदार होनी चाहिए जिसको विरोधाी भी स्वीकार करने को बाधय हों। उचित समालोचनाएँ और कविता की समुचित काट - छाँट बहुत ही सुफलप्रसू है और वैसा ही उपकारक है जैसा उद्यान के छोटे - छोटे पौधाों की काट - छाँट। कुछ प्रमाण लीजिये। हजरत आतश के सामने उनके शागिर्द सबा ने यह शेर पढ़ा - 'मौसिमे गुल में यह कहता है कि गुलशन से निकल, ऐसी बेपर की उड़ाता न था सैय्याद कभी'। शेर बहुत अच्छा है मगर उस्ताद ने कहा कि अगर तुम यों कहते कि 'पर कतर करके यह कहता है कि गुलशन से निकल' तो शेर और भी बढ़ जाता। वास्तव में पर कतरने के साथ बेपर उड़ाने की बात ने कमाल कर दिया। एक मुशायरे में एक लड़के ने यह शेर पढ़ा, 'जिस कमसखुन से मैं करूँ तकरीर बोल उठे। ', मुझमें कमाल वह है कि तसवीर बोल उठे। '। हजरत नासिख ने इस शेर की बड़ी प्रशंसा की। हजरत आतश ने कहा, 'कम सखुन की जगह यदि 'बेजबाँ' होता तो शेर बोल उठता, क्योंकि तसवीर को कमसखुनी से कोई वास्ता नहीं। वास्तव में बहुत अच्छी इसलाह है। यह न समझिए कि उस्ताद आतश नहीं चूकते थे। एक बार मुशायरे में उन्होंने यह शेर पढ़ा 'सुर्मा मंजूरे नजश्र रहता है चश्मेयार को, नील का गंडा पिन्हाया मर्दुमे बीमार को'। हजरत नासिख ने कहा - वाह, क्या कहा है; 'नील का गंडा पिन्हाया मर्दुमे बीमार को'। आतश ताड़ गए, बोले - नील का गंडा नहीं, 'नीलगूँ' गंडा पिन्हाया मर्दुमे बीमार को। ' भाव यह कि इस तरह की छील - छाल और काट - छाँट बहुत ही उपयोगिनी और कवि को समुचित शब्द - संस्थान की शिक्षा देने के लिए बहुत ही हितकारिणी है।

(संदर्भ - सर्वस्व)


 

 

 

 

 

 

वेदान्तवाद

 

 

वेदान्त का विषय बड़ा गहन है, उसमें अल्पविषयामति का प्रवेश नहीं। मैं कहूँ तो क्या कहूँ, लिखूँ तो क्या लिखूँ? पिपीलिका समुद्र की थाह नहीं पा सकती, और न पक्षी आकाश की इयत्ताा बतला सकता है। पर, जी चाहता है कि वेदान्तवाद पर कुछ लिखूँ। बुध्दि कहती है, यह तो 'तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्' है। ईश्वरीय - विषय 'वज्रादपि कठोराणि' है। इस मार्ग में लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। बुध्ददेव का संसार के धार्म - प्रचारकों में प्रधाान स्थान है। हिन्दुओं के विशिष्ट दश अवतारों में उनकी गणना है। जब वे भी इस विषय में जीभ नहीं हिला सके, मौनावलम्बन ही उनको इष्ट हुआ, तो अन्यों की बात ही क्या! बात सच्ची है। परन्तु, अधिाक सम्मति किस ओर है। संसार में आज भी ईश्वर माननेवालों की संख्या ही अधिाक है। संसार के सर्वश्रेष्ठ चार - पाँच धार्म - प्रचारकों में एक बुध्ददेव को छोड़ और सभी ईश्वरवादी हैं। सभी ने ईश्वर की सत्ताा को स्वीकार किया है। विश्व का सर्व - प्रधाान वैदिक अथवा सनातनधार्म ईश्वरवादी है, अनीश्वरवादी नहीं। हमारे दर्शनों में सांख्य दर्शन का विशेष स्थान है; परन्तु वेदान्त दर्शन ने उसकी महिमा मलिन कर दी है। अस्त होते राकेश के सामने प्रात:कालीन प्रभाकर निकल आया है। यह सत्य है: -

    'न तत्रा चक्षुर्गुच्छति न वाग्गच्छति, न मनो, न विद्यो, न विजानिमो, यतो वाचो नर्िवत्तान्ते अप्राप्य मनसारुह। '

    किन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर के विषय में कुछ कहा ही नहीं जा सकता। हाँ, उसके विषय में इदमित्थं नहीं कहा जा सकता। मनुष्य अपूर्ण है, उसका ज्ञान भी अपूर्ण है। ऐसी अवस्था में उसका ईश्वर - सम्बन्धाी जो कुछ वर्णन होगा, अपूर्ण होगा, एकदेशी होगा, सर्वदेशी नहीं, अधाूरा होगा, व्यापक नहीं। वह इतना ऊँचा है कि हमारे ज्ञान को उसके छूने की चेष्टा वामन के चन्द्रस्पर्श करने के उद्योग - समान होगा। मनुष्य का ज्ञान इतना साधाारण है कि वह अपने शरीर के सर्वांग, विचारों एवं भावों के विषय में ही असंदिग्धा भाव से कुछ कहने में असमर्थ होता है। ऐसी अवस्था में जो असंख्य ब्रह्मांडाधाीश है - 'जाके रोम कोटि ब्रह्मांडा' है, उसका यथातथ्य वर्णन कोई मनुष्य कैसे कर सकेगा। यदि करेगा तो वह एक साधाारण जलबिन्दु के समुद्र - वर्णन समान होगा। ऊपर के संस्कृत - वाक्यों का यही मर्म है। यदि मर्म नहीं होता, तो संसार के महापुरुषों, महज्जनों और परमार्थवादियों का आज तक ईश्वर - सम्बन्धाी समस्त कथन प्रलापमात्रा होता। इतना सम्मानार्ह और मानिन् होता जितना कि वह इस समय है। भले ही अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि के झगडे हों, भले ही तर्क - वितर्क और वाद - विवाद के पचडे हों, किन्तु वे इस योग्य नहीं कि हम उनको उपेक्षादृष्टि से देखें अथवा उनको वितंडामात्रा समझें। बात यह है कि 'वादे - वादे जायतेतत्तवबोधा:' वाद से ही बुध्दि विकसित होती है, विद्वानों के समागम और उनके सदुपदेशों से ही नेत्राोन्मीलन होता है। मन्थन से ही घृत की प्राप्ति होती है। सारांश यह कि ईश्वरीय ज्ञान के जो साधान प्राप्त हैं, वे हमारे बहुत कुछ मार्ग - प्रदर्शक हो सकते हैं। अन्धाकार में वे हमारे लिए उदीयमान प्रभाकर के समान हैं। हमारे अन्धानेत्रा के वे ज्ञानांजनशलाका - तुल्य हैं। उन्हीं का हमको अवलंब है और हम उन्हीं का पदानुसरण करके अपने क्षेत्रा में आगे बढेंग़े और प्रस्तुत विषय पर कुछ प्रकाश डालने की चेष्टा करेंगे।

    वेदान्त का एक श्लोक है -

श्लोकार्ध्देन प्रवक्ष्यामियदुक्तं ग्रन्थ कोटिभि:

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैवनापर:।

    इसका अर्थ यह है कि करोड़ों ग्रन्थ में जो कहा गया है, उसको मैं श्लोकार्ध्द में कहता हूँ। वह यह है कि ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है और जीव भी ब्रह्म ही है।

    मैं इस लेख में ब्रह्म और जीव के विषय में कुछ विशेष नहीं कहना चाहता, मेरा वर्णनीय विषय है जगत् का मिथ्यात्व। इस लेख में इसी बात पर प्रकाश डाला जायेगा।

    छान्दोग्य उपनिषद् के तृतीय प्रपाठक का यह वाक्य है।

''सर्वे खल्विदं ब्रह्मतज्जलानिति''

    यह समस्त जगत् ब्रह्म है; क्योंकि उसी से उत्पन्न है, उसी में स्थित है और उसी में लीन होगा। कठोपनिषद् का यह वाक्य है - नेह नानास्ति किंचन।

    ''संसार में नाना कुछ नहीं है, सब ब्रह्म है। '' मुण्डकोपनिषद् में यह लिखाहै -

''ब्रह्मैव इदं अमृतं पुरस्तात ब्रह्मपश्चात्।

ब्रह्मदक्षिणतश्चोत्तारेण अधाश्चोधर्वं।

च प्रसृतं ब्रह्यैव इदं विश्वम् इदं वरिष्ठम्। ''

    संसार निश्चय करके ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही आगे और ब्रह्म ही पीछे है। ब्रह्म ही दक्षिण और ब्रह्म ही उत्तार है। ब्रह्म ही नीचे तथा ब्रह्म ही ऊपर है, चारों ओर ब्रह्म ही फैला हुआ है।

    महाभारत के शान्तिपर्व, मोक्षधार्म, द्वादशीत्याधिाकशतम् अधयाय में जो कुछ लिखा है, उसका अनुवाद नीचे दिया जाता है -

    ''समस्त पर्वत उसकी अस्थि, मेदिनी मेद और मांस, समुद्र चतुष्टय रुधिार, आकाश उदर, समीरण निश्वास, तेज अग्नि, òोतस्विनी सकल शिरा एवम् चन्द्र और सूर्य उसके दोनों नेत्रा हैं। आकाश - मण्डल में उसका मस्तक, पदद्वय भूमण्डल में और उसके हस्त - समूह का अवस्थान हिम - मण्डल में है। ''

    श्रीमद्भागवत और भगवद्गीता में भी परमात्मा के विराट रूप का वर्णन इसी प्रकार किया गया है। उन सबका उध्दरण लेख के व्यर्थ विस्तार का कारण होगा। उनपर दृष्टि रखकर एक अवसर पर मैंने एक कविता लिखी थी। आप लोगों के मनोविनोद के लिए मैं उसी को यहाँ अंकित करता हूँ -

है रूप उसी विभु का ही, यह जगत् रूप है किसका।

है कौन दूसरा कारण, यह विश्व - कार्य है जिसका।

है प्रकृति - नटी लीला तो, है कौन सूत्राधार उसका।

अति दिव्य दृष्टि से देखो, भव - नाटक प्रकृति - पुरुष का।

है दृष्टि जहाँ तक जाती, नीलाभ गगन दिखलाता।

क्या है वह शीश उसी का, जो व्योम - केश कहलाता।

वह प्रभु अनन्त लोचन है, जो हैं भव - ज्योति सहारे।

क्या हैं न विपुल तारक ये, उन ऑंखों के ही तारे।

जितने मयंक नभ में हैं, वे उसके मंजुल मुख हैं।

जो सरस हैं, सुधाामय हैं, जगती जीवन के सुख हैं।

चाँदनी का निखर ख्ािेलना, दामिनी का दमक जाना।

उस अखिल लोकरंजन का है मन्द - मन्द मुसकाना।

उसके गभीरतम रव का सूचक है घन का निस्वन।

कोलाहल प्रबल पवन का अथवा समुद्र का गर्जन।

अपने कमनीय करों से बहु रवि - शशि हैं तम खोते।

क्या है न हाथ ये विभु के जो ज्योति - बीज हैं बोते।

भव - केन्द्र हृदय है उसका नवजीवन - रस - संचारी।

है उदर दिगन्त समाई जिसमें विभूतियाँ सारी।

हैं विपुल अस्थिचय उसके, गौरवित विश्व के गिरिवर।

हैं नसें सरस सरिताएँ तन लोम - सदृश हैं तरुवर।

जिसके अवलम्बन - द्वारा है प्रगति विश्व में होती।

है वही अगति - गति का पग जिसकी रति है अघ खोती।

है तेज, तेज उसका ही, है श्वास समीर कहाता।

जीवन है जग का जीवन, है सुधाा - पयोधिा विधााता।

हैं रातें हमें दिखाती, फिर वर वासर है आता।

यह है उसकी पलकों का उठना - गिरना कहलाता।

जिनसे बहु कलित ललित हो बनता है विश्व मनोहर।

उन सकल कलाओं का है, विभु अति कमनीय कलाधार।

    जो पंक्तियाँ अभी उठायी गयी हैं, उनसे यह सिध्द होता है कि विश्व ब्रह्म का ही स्वरूप है, अन्य कुछ नहीं। अन्यथा समझना भ्रममात्रा है। वेदान्तवादियों ने इस भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है: -

'भ्रान्त्या जन: पश्यति सर्वमेतच्छुक्तौ यथा रौप्यमहिश्चरज्जौ'

    भ्रान्तिवश प्राणी संसार को ब्रह्मस्वरूप न मानकर उसे कुछ और समझता है, वैसे ही, जैसे सीपी में रूपे का और रस्सी में साँप का भ्रम होता है। यद्यपि न तो रस्सी साँप है, न सीपी रूपा। जैसे चित्ता के स्थिर और स्वस्थ होने पर उन दोनों के वास्तविक रूप का ज्ञान हो जाता है - भ्रम दूर हो जाता है, उसी प्रकार जब तक हमारी ऑंख पर अज्ञान का परदा पड़ा रहता है, विवेक - दृष्टि उज्ज्वल नहीं होती, बुध्दि को सत्यस्वरूप का ज्ञान नहीं होता, उस समय तक हम संसार को ईश्वर से भिन्न कोई अन्य वस्तु समझते हैं; परन्तु यह मिथ्या ज्ञान और भ्रम है। यथार्थ बोधा होने पर जब हम जान लेते हैं कि जगत् ब्रह्म का ही स्वरूप है, उसी समय हमको तत्तवज्ञता प्राप्त होती है और हम उस पद के अधिाकारी होते हैं, जो 'मुनीनामप्यगम्य:' है।

    संसार का मिथ्यात्व आजकल के हिन्दुओं का प्रबल संस्कार है और वह संस्कार हृदय में इतनी दृढ़ता से बध्दमूल है कि वह प्रकृतिगत और स्वाभाविक हो गया है। कोई दुख सामने आया, किसी कार्य में असफलता हुई, किसी के शोक से अभिभूत हुए कि संसार की असारता सामने आयी। इस संस्कार से हिन्दुओं की कितनी अधाोगति हुई और आज दिन भी उनकी कितनी दुर्गति हो रही है, इसकी चर्चा से भी हृत्कम्प उपस्थित होता है।

    संसार द्वन्दमय है। जहाँ सुख है, वहाँ दुख; जहाँ हर्ष है, वहाँ शोक; जहाँ भोग है, वहाँ रोग; जहाँ जीत है, वहाँ हार; जहाँ आशा है, वहाँ निराशा। कहाँ तक कहें, जहाँ देखिए, वहाँ द्वन्द्व विराजमान है। द्वन्द्व से छुटकारा नहीं। इसीलिए शास्त्रा की आज्ञा है कि 'द्वन्द्वातीत:', हमको द्वन्द्व से रहित होना चाहिए; परन्तु कौन सुनता है। यहाँ तो यह अवस्था है - ''नारि मुई घर सम्पति नासी, मूँड़ मुड़ाएँ भये संन्यासी। '' यह बहुत बड़ी दुर्बलता है। दुर्बलता ही नहीं, उच्च कोटि की शास्त्राीय अवमानना है। अनिष्ट का सामना होना, सिर पर विपत्तिा का पड़ना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था में हमको धाृति से काम लेना चाहिए, न कि धौर्यच्युत होकर अपने जीवन को नष्ट कर देना चाहिए। कोई प्राणी संसार में सदा जीता नहीं रहता। 'अद्यैवाब्दशतांते वा मृत्युर्वैप्राणिनां धाु्रवम्', आज हो चाहे सौ वर्ष के बाद हो, प्राणी की मृत्यु अवश्य होगी। फिर, ''मरणं प्रकृति:शरीरिणाम् विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधौ:'', मरण तो प्रकृति है, वही स्वाभाविक है, जीवन ही विकृति है, वह क्षणिक है, कुछ काल के लिए है। इसलिए उसके लिए आत्मविस्मृति होना, कुछ का कुछ कर बैठना युक्तिसंगत नहीं। किसी आत्मीय के मरने पर हृदय का व्यथित होना, नेत्राों से ऑंसू निकलना, लोगों का व्याकुल होना, रोना - पीटना, हाय मारना, आह - आह करना स्वभावसिध्द है। मरण का दृश्य ही ऐसा है, उसे देखकर पत्थर का कलेजा भी विदीर्ण होने लगता है। आत्मीय क्या, किसी भी मृतक को देखकर दिल हिल जाता है। यह साधारण बात है। ऐसा होना आश्चर्यजनक नहीं। ऐसा न हो तो मनुष्य का हृदय ही हृदय नहीं माना जा सकता। परन्तु, इस प्रकार के अथवा ऐसे ही अन्य अनिष्टों को लेकर संसार की असारता का जो राग अलापा जाता है, संसार - त्याग का जो उपदेश दिया जाता है, वह युक्ति - संगत नहीं। किन्तु, खेद की बात है कि हमारा साहित्य अधिाकतर ऐसे ही भावों से भरा है। कुछ पद्य देखिए: -

रहना नहीं, देस बिराना है

यह संसार कागद की पुड़िया बूँद पड़े घुल जाना है

यह संसार काँटे की बाड़ी उलझ पुलझ मर जाना है

यह संसार झाड़ और झाँखर आग लगे बरि जाना है

कहत कबीर सुनो भाई साधाो सतगुरु नाम ठिकाना है

 

जियरा जाहु गे हम जानी।

पाँच तत्तव को बनो पींजरा जामे वस्तु बिरानी।

आवत जावत कोई न देखेउ डूबि गयो बिन पानी।

राजा जैहैं रानी जैहैं औ जैहैं अभिमानी।

जोग करंते जोगी जइहैं कथा सुनंते ज्ञानी।

चंदो जइहैं सुरजौ जइहैं जइहैं पवनो पानी।

कह कबीर इक भक्त न जइहैं जिनकी मति ठहरानी।

 

का माँगों कुछ थिर न रहाई। देखत नैन चलो जग जाई।

इक लख पूत सवा लख नाती। तेहि रावन घर दिया न बाती।

लंका सी कोट समुद्र सी खाई। तेहि रावन की खबरि न पाई।

सोने कै महल रूपै के छाजा। छोड़ चलै नगरी के राजा।

कोइ कर महल कोइ कर टाटी। उड़ि जाय हंस पड़ी रहै माटी।

आवत संग न जात सँगाती। कहा भए दर बाँधो हाथी।

कहै कबीर अंत की बारी। हाथ झारि ज्यों चला जुआरी।

 

हमका उढ़ावै चदरिया चलती बिरियाँ।

प्रान राम जब निकसन लागे उलट गयी दोउ नैन पुतरिया।

भीतर से जब बाहर लाए छूट गयी सब महल अटरिया।

चार जने मिलि खाट उठाइन रोवत ले चले डगर डगरिया।

कहत कबीर सुनो भाई साधाो संग चली वह सूखी लकरिया।

    देखिए, कैसे ओजमय शब्दों में इन पद्यों में संसार की असारता का चित्रा खींचा गया है। संतमत की वाणियों और भजनों में इस प्रकार के पदों की भरमार है। सहò वर्ष से अधिाक हुए, भारतवर्ष में संसार - त्याग की महिमा और संसार की असारता का डिंडिमनाद बड़ी प्रबलता से हुआ। इसका आरम्भ बुध्ददेव के संसार - त्याग से होता है। परन्तु, जब तक हिन्दू - शक्ति क्षीण नहीं हुई थी, उनमें सम्राट् उत्पन्न होते रहे, एकाधिापत्य का दुन्दुभिनाद होता रहा, तब तक इस भाव की प्रबलता उतनी नहीं हुई, जितनी मुसलमानों के आधिापत्य के समय में। कारण इसका यह हुआ कि उस समय हिन्दू - शक्ति क्षीण हो गयी थी और नैराश्य भाव उनमें अधिाक जागरित हो गया था। उन दिनों कुछ सामयिक परिस्थिति भी ऐसी हो गयी थी कि उनमें इस प्रकार की प्रवृत्तिा अधिाकता से वृध्दि पा रही थी। उस समय के सन्तों की बानियाँ इस प्रवृत्तिा में अग्नि में घृत के समान कार्य कर रही थीं। परिणाम इसका यह हुआ कि हिन्दू जाति में अकर्मण्यता और कापुरुषता का संचार हुआ। और भगवद्भजन अथवा निराकार की उपासना का ढोंग रचकर वह अपनेर् कत्ताव्य - पथ से च्युत हो गयी।

    हिन्दू - संस्कृति का वैराग्य से बड़ा सम्बन्धा है। योगदर्शनकार कहते हैं - ''दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्यवशीकारसंज्ञावैराग्यम्'' जितने विषय देखे - सुने जाते हैं, उनसे तृष्णारहित होने की वशीकार संज्ञा है, उसी को वैराग्य कहते हैं। एक टीकाकार इस बात को यों स्पष्ट करते हैं; -

    'स्त्राी, पुत्रा, गृह, भोजन वा वस्त्राादि जहाँ तक संसारी विषय देखे जाते हैं और स्वर्गादि सुख जो पुराणादि - द्वारा सुने जाते हैं, उनमें उदासीन भाव धाारण करने की संज्ञा वशीकार है। इसीको वैराग्य कहते हैं।

    योगदर्शनकार ही यह भी कहते हैं - ''तद्वैराग्यादपिदोष बीज क्षये कैवल्यम्'' वैराग्य से दोष - बीज का क्षय होने पर कैवल्य अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति होती है। महाराज भर्तृहरि कहते हैं: -

भोगे रोगभयं कुले च्युति भयं वित्तोनृपालाद्भयं।

माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपेतरुण्याभयं।

शास्त्रो वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं।

सर्वंवस्तु भयान्वितं भुविनृणां वैराग्यमेवाभयं।

    भोग को रोग का, कुल को च्युति का, वित्ता को राजा का, अभिमान को दैन्य का, बल को रिपु का, रूप को तरुणी का, शास्त्रा को वाद का, गुण को खल का, शरीर को मृत्यु का भय है। संसार में सब वस्तुएँ भयवाली हैं, केवल वैराग्य ही भयरहित है।

    आपने वैराग्य की महत्ताा समझ ली। वह कितना उच्च है, यह भी आपको ज्ञात हो गया। उसका अधिाकारी सर्वसाधाारण नहीं, कोई महापुरुष हो सकता है। किन्तु, आज जिसको देखो वही उसके लिए कमर कसे तैयार है। थोड़ी - सी असुविधाा हुई, हमारे सुख में बाधाा पड़ी, हमारे मन की बात नहीं हुई कि हमको वैराग्य हुआ और हम घर - बार छोड़कर किनारे हो गए। भगवान के भजन का ढोंग रचकर, भीख माँगकर पेट पालने लगे या साधाु बनकर लोगों को ठगने लगे। आजकल प्राय: ऐसा क्यों हो रहा है, कारण क्या? मेरा विचार है कि उसका उत्तारदायित्व अधिाकतर हिन्दी भाषा की उन रचनाओं पर है, जिनमें असंयत और अवांछित भाव से वैराग्य का निरूपण किया गया और गुप्त रूप से जनता को संसार - त्याग की ओर प्रवृत्ता कर दिया गया है।

    संस्कृत में भी शान्त रस और वैराग्य सम्बन्धिानी रचनाएँ हैं, अन्य भाषाओं में भी इस प्रकार की कृतियाँ पायी जाती हैं; पर वे उतनी जी बिगाड़नेवाली और पथभ्रष्ट करने वाली नहीं हैं। कष्ट पड़ने पर अथवा अनिष्ट होने पर चित्ता में एक प्रकार का ऐसा भाव स्वाभाविकतया उदय होता है, जो हमें वैराग्य की ओर ले जाता है और हमको संसार से विरक्ति होने लगती है। यह भाव यथावसर मनुष्यमात्रा में उत्पन्न होता है; अतएव सब भाषाओं के साहित्य में उसका दर्शन होता है। परन्तु, उनके कथन का ढंग संयत होता है और वे हमकोर् कत्ताव्य - च्युत नहीं करते। महाराज भर्तृहरि का यह संस्कृत पद्य देखिए -

व्याघ्रीवतिष्ठतिजरा परितर्जयन्ती, रोगाश्च शत्रा वइव प्रहरन्ति देहे।

आयु: परिòवति भिन्न घटाइवाम्भो, लोकस्तथाप्यहितमाचरतीतिचित्राम्।

    व्याघ्री के समान गरजती हुई जरा सामने है, रोग शत्राु के समान शरीर पर आघात कर रहे हैं। आयु छेदवाले घडे क़े जल के समान छीजती जा रही है, संसार तब भी अहित का आचरण करता है, यह आश्चर्य की बात है।

    एक हिन्दी कवि की बातें सुनिए: -

       बाँधो रहे बटना बनाए रहे जेवरन,

              अतर फुलेलन की सीसियाँ धारी रहीं।

       तानी रही चाँदनी, सुहानी रही फूल - सेज,

              मखमल तकियन की पँगती परी रहीं।

       'प्रतापसिंह' कहै तात - मात के पुकार रहे,

              नाह - नाह कूकत वे सुंदरी खरी रहीं।

       खेल गयो योगी हाथ में लग के धाूर बीच,

              चूर ह्नै मसान खेत खोपरी परी रहीं।

    एक उर्दू कवि क्या कहता है, उसे भी सुनिए: -

यह इशरत व ऐश कामरानी कब तक।

इशरत भी हुई तो नौजवानी कब तक।

गर यह भी हुई तो दौलत है मुहाल।

दौलत भी हुई तो जिन्दगानी कब तक।

    इन पद्यों के साथ कबीर साहब के ऊपर के पद्यों को मिलाइए तो आपलोगों को ज्ञात हो जायेगा कि भाव - साम्य होने पर भी दोनों की कथन - प्रणाली में कितना अन्तर है। किसी रचना को कलंकित करना या किसी महापुरुष पर कटाक्ष करना मुझे इष्ट नहीं है। मैं दिखलाना यह चाहता हूँ कि संसार की असारता का भाव हिन्दू जाति की रग - रग में क्यों समा गया।

    साहित्य सामयिक भावों का ज्ञापक होता है। उसमें उस काल के भावों का सुन्दर चित्रा अंकित मिलता है। कबीर साहब के पद्य बतला रहे हैं कि उस समय हिन्दू - जनता की प्रवृत्तिा क्या थी। उसकी उस समय ऐसी प्रवृत्तिा होने का कारण मैं पहले बतला चुका हूँ। इस प्रवृत्तिा का कितना बुरा परिणाम हुआ, इसका प्रमाण स्वयंर् वत्तामान हिन्दू - समाज है। उसमें साहस, धौर्य और गम्भीरता का इतना अभाव है और पल्लवग्राहिता इतनी बढ़ गयी है कि उसको स्मरण करके भी रोमांच होता है। वह शास्त्रा के आज्ञानुसार चलने का दावा करता है। परन्तु, वास्तव में बात यह है कि वह रूढ़ियों और सामयिक प्रवाह का सेवक एवं अनुगामी है। हिन्दू साधाुओं की संख्या बावन लाख है। इनमें लाखों अपरिपक्व वय के बालक हैं, जो साधाुत्व के अधिाकारी नहीं। कई लाख ऐसे बलिष्ठ और हट्टे - कट्टे युवक हैं, जो यदि हृदय से देश - सेवा में लगते या शास्त्राानुसार हिन्दू जाति के उध्दार के लिए कटिबध्द होते, तो आज हिन्दुओं की दशा कुछ और होती और भारतमाता का लिलार चमकता होता। इनमें से कितने अपनी युवती स्त्रिायों को अपनी अकर्मण्यता के कारण त्यागकर भागे हैं और किसी प्रकार अपना पेट पालकर अपने जीवन को गर्हित बना रहे हैं। कितने आलसी हैं, कितने लफंगे हैं, कितने कामचोर हैं, कितने अपने कुटुम्ब के कलंक हैं। कितने अपने अनाथ बाल - बच्चों को नारकीय जीवन बिताने के लिए विवश कर रहे हैं। कितनों ने अपने प्यारे कुटुम्बी का निधान होने पर घर का त्याग किया है। कितनों ने किसी अन्य के अनिष्ट होने पर किर्ंकत्ताव्यविमूढ़ होकर तूम्बा हाथ में लिया है। सच्चे वैरागी और महात्मा इने - गिने ही मिलेंगे। परन्तु, सभी भगवद्भक्त बनने और पवित्रा जीवन बिताने के दावेदार हैं। उन्होंने संसार का त्याग उसको असार समझकर किया है। कुल - परिवार बन्धान है, पुत्रा - कलत्रा मुक्ति के बाधाक हैं, काम - काज करने से भजन में बाधाा पड़ती है; फिर वे करें तो क्या करें? उन्होंने उचित पथ का ही तो अवलंबन किया है! कोई नास्तिक अथवा अविवेकी उनकी निन्दा करे तो करे, वे उनको इस योग्य नहीं समझते कि उनकी बातों का धयान दें।

    विचारणीय तो यह है कि उनका व्यवहार, उनकी इस प्रकार की बातें कहाँ तक युक्तिसंगत हैं, और शास्त्रा की आज्ञा इस विषय में क्या है। क्या कर्म का त्याग उचित है? जिस रूप में प्राय: भगवद्भजन आजकल किया जा रहा है, क्या वह अपने शुध्द रूप में है? वैराग्य किसे कहते हैं? उसका सच्चा रूप क्या है? मुक्ति किसे कहते हैं? क्या संसार असार है? ये प्रश्न साधाारण नहीं। परन्तु, यह अवश्य है कि वास्तवता छिपी भी नहीं है। शास्त्रा उसको डंके की चोट कह रहे हैं। वाद - विवाद और वस्तु है, तत्तवग्राहिता और बात। इनमें से एक - एक विषय पर कितने ग्रंथ लिखे गये हैं, अब भी लिखे जा सकते हैं। मुझमें ऐसी शक्ति नहीं, मैं साधाारण विद्या - बुध्दि का मनुष्य हूँ। केवल कुछ सिध्दान्तों को ही प्रकट करूँगा, वह भी थोडे में। कर्म का त्याग किसी काल में नहीं हो सकता, भगवदाज्ञाहै -

नियतं कुरु कर्म्मत्वं कर्मज्यायोह्यकर्मण:।

शरीरयात्राापि च ते न प्रसिधयेदकर्मण:।

    सदा कर्म करो। कर्म न करने से कर्म का करना अच्छा है। कर्म का त्याग करने से तो शरीर - यात्राा का भी निवाह ना होगा। और सुनिए: -

त्यक्त्वाकर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रय:।

कर्मण्यभिप्रवृत्ताोपि नैव किि×चत् करोति स:।

    ''जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानन्द परमात्मा में तृप्त है, वह कर्मों के फल और संग अर्थात् कर्तृत्वाभिमान को त्यागकर कर्म में लगा हुआ भी कुछ भी नहीं करता।

    इससे अधिाक कर्म करने के विषय में क्या कहा जा सकता है? हम ऑंख से देखेंगे, कान से सुनेंगे, मुख से खायेंगे, जीभ चलती ही रहेगी, हाथ - पाँव हिलते ही रहेंगे, दूसरी इन्द्रियाँ अपने काम करती ही रहेंगी तो कर्म का त्याग कहाँ हुआ! मनुष्य का जीवन जब तक है तब तक उसे कार्य करते रहना चाहिए और वह कर्म करते रहना चाहिए जो लोकद्वय साधाक हो। साथ ही यह भी धयान में रखना चाहिए कि 'कर्मण्येवाधिाकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। कर्म करने का ही अधिाकार प्राणी को है, फल की कामना उसे न होनी चाहिए - यही त्याग है। अब प्रश्न यह है कि इस आज्ञा का पालन कहाँ तक होता है। क्या कर्म का त्याग विडम्बना नहीं है? निष्कर्म होने का दावा क्या शास्त्रा - विरुध्द नहीं है?

    भगवद्भजन की बात बड़ी ही हृदयहारिणी है। धान्य हैं वे पूज्य चरण, जिन्होंने इसका मर्म समझा है। जो भगवद्भक्त है, वह संसार का त्याग कर ही नहीं सकता। क्योंकि वह जानता है, 'सर्वंखल्विदम् ब्रह्म नेह नानास्ति कि×चन'। भगवदाज्ञा है - येदारागार पुत्रााप्सान् प्राणान् वित्तामिवंपरम्। हित्वामाशरणं याता: कथंतास्त्यक्तु -  मुत्सहे।

    जो भक्त अपनी स्त्राी, बच्चे, धान, प्राणी सभी को छोड़कर एकमात्रा मेरी शरण में आते हैं, उनको मैं कैसे छोड़ सकता हूँ।

    इस श्लोक को पढ़कर कुछ लोग यह कह सकते हैं कि जब स्त्राी, बच्चे, धान इत्यादि के त्यागने की आज्ञा है, तो यदि उनका त्याग किया जावे तो अनुचित क्या? परन्तु, निवेदन यह है कि स्त्राी इत्यादि के साथ प्राण - त्याग की भी आज्ञा है, तो क्या प्राणत्याग का अर्थ वास्तविक प्राण - त्याग है? यदि नहीं, तो इस त्याग का अर्थ अर्पण ही होगा। इसी प्रकार स्त्राी इत्यादि भगवदर्पण हो सकते हैं, उनका त्याग नहीं हो सकता। केवल सद्बुध्दि से संसार के मंगल के लिए उनका मानस त्याग हो सकता है, अन्य प्रकार से नहीं। दूसरी बात यह कि भगवान के न त्यागने का क्या अर्थ? भक्त का आत्मस्वरूप लाभ ही तो ब्रह्म का न त्यागना है? और, यदि उसको आत्मस्वरूप की वास्तविक प्राप्ति हो गयी, तो स्त्राी - पुत्राादि का त्याग कैसे होगा? क्योंकि, वे भी तो उसी के स्वरूप हैं, वे भी तो ब्रह्म हैं। जहाँ कहीं संसारत्याग अथवा स्त्राी, पुत्रा, कुल आदि के त्याग के लिए लिखा गया है, उसका उद्देश्य भगवद्भजन अथवा ईश्वर - प्राप्ति ही है। ऐसी अवस्था में त्याग का अर्थ वही है जैसा इस श्लोक में व्यक्त किया गया है। भगवद्भजन के नाम पर स्त्राी इत्यादि अथवा संसार का त्याग करके जो स्वार्थ - साधान अथवा आत्मसुख - भोग का प्रपंच फैलाया जाता है, वह भगवद्भक्ति नहीं, प्रवंचना है। वह निन्दनीय है, आदरणीय नहीं।

    अब रहा वैराग्य। वैराग्य क्या है, यह मैं पहले बतला आया हूँ। आजकल विरक्ति का नाम वैराग्य हो गया है। घर में थोड़ी अनबन हुई, बाल - बच्चों से न पटी, परिवार में कलह हुआ तो उसके सुलझाने का उद्योग न होगा। धौर्य से सब बातों का विचार न किया जायेगा, अपनी अकर्मण्यता पर दृष्टि नहीं डाली जाएगी, अपने दोषों का धयान न किया जायेगा; बस संसार को कोसा जायेगा। सबको मतलबी बतलाया जायेगा और सबको छोड़छाड़कर भगवद्भजन के लिए ही कमर कस ली जावेगी। लोग किसी साधाु की जमात में शरीक हो जायेंगे, किसी तरह अपना पेट पालेंगे, पडे - पडे दिन बिताएँगे, हाथ पर हाथ रख बैठे रहेंगे। लम्बा टीका कर लेंगे। गले में माला डालेंगे। अचला पहिन लेंगे। कहीं बैठकर माला फेरने लगेंगे, चलो हो गया भगवद्भजन। ऐसा करके वे अपना दोनों लोक बना लेंगे। परन्तु, उनको समझना चाहिए यह भगवद्भजन नहीं है। ऐसा करके वे अपना यह लोक तो बिगाड़ ही चुके हैं, परलोक भी बिगाड़ लेंगे। तप करना बड़ा कठिन है, हम पंचाग्नि ताप सकते हैं, जाड़ों में जल में चौबीस घण्टे खडे रह सकते हैं। उर्ध्व बाहु बन सकते हैं, तन पर भभूत रमा सकते हैं, व्रत - उपवास कर सकते हैं; परन्तु यह तप नहीं है। जिसने मन नहीं मारा, वासना को वश में नहीं किया, काम - क्रोधा को नहीं जीता, भगवद्भजन के मर्म को नहीं समझा, देश - सेवा नहीं की, पर - दुख - कातरता जिसमें नहीं, परोपकार के लिए जो कमर नहीं कस सका, अपनेर् कत्ताव्य को नहीं समझ सका, जीवन के उद्देश्य से किनारा करता रहा, वह आडम्बरों के द्वारा संसार को ही धाोखा नहीं दे रहा है, अपनी आत्मा को भी प्रवंचित कर रहा है। अपने कुटुम्ब में रहकर परिवार के साथ सरल जीवन व्यतीत करके, अपने बाल - बच्चों को ठीक - ठीक देखभाल करके हम अपने जीवन को जितना सफल बना सकते हैं, उतना उन कामों को करके नहीं, जिसे भ्रमवश वैराग्य अथवा भगवद्भजन समझ रहे हैं। पहला मार्ग सरल से सरल है, दूसरा कठिन से कठिन। यदि घर में रहें, पुत्राकलत्रा और परिवार के साथ सरल मानवोचित व्यवहार करें, आए - गए की सेवा करें, गृहस्थी - धार्म का ठीक पालन करें, धौर्य रखें, उलझते को सुलझावें, बिगड़ते को बनावें। अपने सुख - दुख के समान दूसरे के सुख - दुख को समझें, बात - बात में बखेड़े न खड़ा करें, रोतों को हँसावें, रूठों को मनावें, सबको प्यार करें, जहाँ डाँट - डपट की जरूरत हो, वहाँ डाँट - डपट भी करें; पर जल - भुनकर नहीं, डाह से नहीं,र् ईष्या से नहीं, द्वेष से नहीं, प्यार से सुधाारने के लिए, उसे राह पर लगाने के लिए। ये काम आसान नहीं है, ये बडे - बडे तप हैं। उस तप से भी इनका दर्जा बढ़ा हुआ है, जिनको तप समझा जाता है और जिनको करके अपना जन्म बनाने का राग अलापा जाता है। शास्त्रा कहता है: -

वनेषु दोषा प्रभवन्ति रागिणाम् गृहेषु पंचेन्द्रियनिग्रहस्तप:।

अकुत्सितेकर्म्मणि य: प्र्रवत्ताते निवृत्तारागस्वगृहं तपोवनम्!

    जिनमें राग है, जो वासनाओं में फँसते हैं, उनके लिए वन भी दोषमय हो सकता है। और घर में पंचेन्द्रिय का निग्रह करके रहना तप है। जो अकुत्सित कर्मों में रत नहीं होता एवम् जो निवृत्ता राग है, उसके लिए घर ही तपोवन है।

    अब यह बात समझ में आ गयी होगी कि वैराग्य क्या है। जो विगतराग है, वही सच्चा विरागी है, वह चाहे घर में रहे या वन में। कुछ लोगों को श्मशान वैराग्य होता है। मृतक के साथ श्मशान गए, वहाँ उसको जलते देखा; चित्ता में यह बात जमी कि एक दिन हमारी भी यही गति होगी। सब कुछ छोड़ - छाड़कर हमको भी उठ जाना होगा, आओ, भगवान का भजन करें, सब कुछ छोडें - छाडें। पर सब कुछ छोड़कर भगवान का भजन कैसे होगा? मतलब तो जीवन को सफल बनाना है; पर जीवन सफल तो सदाचरण द्वारा बनाया जा सकता है। और यह बात सब कुछ छोड़कर नहीं प्राप्त हो सकती। श्मशान वैराग्य स्वाभाविक है; परन्तु, वह क्षणिक होता है, उसमें स्थायिता नहीं होती। घर आकर मनुष्य उसको भूल जाता है और फिर ऐसे कामों में लग जाता है, जिससे ज्ञात होता है कि वह अपने को अजर - अमर समझता है। ऐसे ही अनेक संकटमय अवसरों पर हमारे हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता रहता है; परन्तु, संकट की समाप्ति के साथ उसकी भी समाप्ति हो जाती है और हम उचितर् कत्ताव्यों की ओर से ऑंखें बन्द कर लेते हैं। इन वैराग्यों को सच्चा वैराग्य नहीं कह सकते। न तो कोई आश्रम बुरा है, न कोई वेश। हम चाहे जिस आश्रम में रहें, चाहे जिस वेश में रहें; परन्तु मानवोचित कर्म्म करते रहें। जो वेश ग्रहण करें, जिस आश्रम में हम हों, हमको जीवन की सार्थकता पर दृष्टि रखनी चाहिए और प्रत्येकर् कत्ताव्य कर्म्म को त्याग बुध्दि से करना चाहिए, यही सच्चा वैराग्य है। क्योंकि इस प्रकार के कार्यों का सम्बन्धा राग से नहीं होता, और न उसमें वासनाओं का बीभत्स काण्ड देखने में आता। मृत्युकाण्ड हमारी ऑंखों के सामने आवेगा, बार - बार जलती चिताएँ देखने को मिलेंगी। सबपर भी ऑंखें पड़ती ही रहेंगी, संसार के दूसरे हृत्कम्पकर दृश्य भी दिखलायी देंगे ही। क्षणिक वैराग्य भी हृदय में स्थान पाता रहेगा; परन्तु मनुष्य संसार में रहेगा, उसका त्याग न कर सकेगा। उसके पास कार्य - कलाप की भी धाूम रहेगी। चाहे वह जिस वेश में रहे, जिस आश्रम में रहे, जिस रंग में रँगे; पर इससे उसको छुटकारा नहीं। मनुष्य संसार को छोड़कर भी न छोड़ सकेगा और अनेक रूप - रूपाय बनकर वह उसके सिर पर सवार होगा। ऐसी अवस्था में उचित यह है कि सच्चे वैराग्य का मर्म वह समझे और घबराकर अथवा धौर्यच्युत होकर उन्मार्गगामी न हो। और जहाँ तक हो सके, ऐसा मार्ग ग्रहण करे जो अधिाकतर उसके लिए सुविधााजनक हो, परन्तु उसमें ढोंग अथवा आडम्बर न हो; क्योंकि 'सत्यमेव जयते नानृतम्। '

    आइए, अब मुक्ति के विषय में भी थोड़ा विचार कर लें। उसमें बड़ी मोहकता है। कोई धार्म ऐसा नहीं, जिसपर उसने अपनी मोहिनी न डाल रक्खी हो। मुक्ति अनेक रूप - रूपाय है। कोई कहता है, आवागमन बन्द होना 'मुक्ति' है। किसी का विचार है, मुक्ति चार प्रकार की होती है - सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य; अर्थात् बैकुण्ठ की प्राप्ति हो जाना सालोक्य, विष्णु भगवान की समीपता प्राप्त कर लेना सामीप्य, उनका स्वरूप - लाभ करना सारूप्य और उनमें मिल जाना अर्थात् उनकी मूर्ति में लीन हो जाना सायुज्य मुक्ति कहलाती है। वशिष्ठदेव कहते हैं: -

''न मोक्षो नभस:पृष्ठे न पाताले न भूतले।

मोक्षो हि मनस: शुध्दि सम्यग्ज्ञान विबोधिातम्। ''

    न मोक्ष आकाश के पृष्ठ पर है, न पाताल में, न भूतल में; वास्तव में सम्यग्ज्ञान विबोधिात मन की शुध्दि ही मोक्ष है। ऐसे ही पुरुष को जीवनमुक्त कहते हैं।

    मैंने एक साधाु से पूछा - ''महाराज, आपने घर - बार क्यों छोड़ा? क्यों सबसे अलग - थलग रहकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं? बहुत व्रत - उपवास करते हैं? सब समय सुमिरिनी लिये राम का नाम जपा करते हैं? कृपा करके बतलाइए। ''

    उन्होंने कहा - ''मुक्ति पाने के लिए। ''

    मैंने कहा - ''मुक्ति किसे कहते हैं?''

    उन्होंने कहा - ''भव - बन्धान से छूट जाने को मुक्ति कहते हैं। ''

    मैंने कहा - ''भव - बन्धान से तो आप छूटे ही हैं, जब किसी से आपको कोई सरोकार नहीं, जब पूजा - पाठ ही में आपका दिन बीतता है, कोई काम आप करना नहीं चाहते, न करते हैं, तो भव - बन्धान आपका छूटा ही हुआ है। ''

    उन्होंने कहा - ''नहीं नहीं, भव - बन्धान छूटने का यह भाव नहीं है। भव - बन्धान छूटने का अर्थ 'साकेत' में पहुँच जाना है। '' ''साकेत' सब लोकों से ऊपर है, जहाँ भगवान् श्री रामचन्द्र, श्रीमती जानकी देवी के साथ सदा विराजमान रहते हैं। कुछ मान्य ग्रन्थों ने, गोलोक को ही बैकुण्ठ बतलाया है। सन्तमतवाले सत्यलोक अथवा सच्चखण्ड की प्राप्ति को ही 'मुक्ति' समझते हैं। एक स्थान पर कबीर साहब भी अपने खाबिन्द का निवासस्थान साकेत को ही बतलाते हैं और उसे सर्वोच्च भी कहते हैं -

जाय जाहूत में खुद खाविंद जहँ वही 'मक्कान' साकेत साजी।

कहै कब्बीर वहाँ भिस्त दोजख थके वेद कीताब काहूत काजी।

    महारामायण में भी श्री रामचन्द्र को सत्यलोकेश ही लिखा है। यथा: -

वाङ्मनोगोचरातीत: सत्यलोकेश ईश्वर:!

तं रचनामादिकं सर्वं रामानाम्ना प्रकाशते।

    किसी स्थान - विशेष पर परमात्मा के रहने का विश्वास प्राय: सभी धार्मों में पाया जाता है और इस स्थान को सर्वोच्च बतलाया जाता है। परन्तु, ऐसी अवस्था में ब्रह्म एकदेशी हो जाता है, सर्वदेशी नहीं रह जाता। कितने ही ऊँचे उठाकर मनुष्य ब्रह्म को ऊपर ले जाता रहे; परन्तु, वह उस पद को नहीं प्राप्त होता, जो विश्वस्वरूप बतलाकर उसे वेदान्त ने प्रदान किया है। वेदान्त का विचार उदात्ता और लोकोत्तार है। इसीलिए विद्वत् समाज और विज्ञानवेत्तााओं में यह माना जाता है कि ईश्वरीय विषय में वेदान्त जितना ऊँचा उठ सका, उतना अन्य कोई सिध्दान्तवादी नहीं। किसी धार्मनेता की बुध्दि उस ऊँचाई तक किसी काल में भी नहीं पहुँच पायी। पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस बात को मुक्तकण्ठ से कहा है कि वेदान्त का ईश्वरवाद सर्वोत्कृष्ट और अलौकिक है। परन्तु, अधिाकारी - भेद से स्थान - विशेष बैकुण्ठादि की कल्पना भी असंगत नहीं। क्योंकि भगवदाज्ञा है: -

ये यथा मां प्रपद्यन्ते ताँस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानर्ुवत्तान्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।

    ''जो मुझे जिस प्रकार से भजते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार से फल देता हूँ। हे पार्थ! किसी भी ओर से हो, मनुष्य मेरे ही मार्ग पर चलने लगते हैें। ''

    ईसाई और मुसलमानों के भी विचार लगभग ऐसे ही हैं और वे लोग भी उस स्थान पर पहुँच जाने को ही 'मोक्ष' मानते हैं, जहाँ उनका गॉड अथवा खुदा रहता है। बुध्ददेव अनीश्वरवादी तथा अनात्मवादी हैं; फिर भी वे निर्वाण को मानते हैं। यह निर्वाण मुक्ति को छोड़ और कुछ नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास कहतेहैं: -

राम उपासक मुक्ति न लेहीं। तिन कहँ राम भक्ति निज देहीं।

    लीजिये, वे कहते हैं - राम - उपासक मुक्ति लेते ही नहीं। वे केवल रामभक्ति की ही कामना करते हैं। भागवतकार एक महान् भक्त के मुख से यह कहलातेहैं -

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम्।

कामये दु:खतप्तानाम् प्राणिनामार्ति नाशनम्।

    न मैं राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग की कामना रखता हूँ, न पुनर्भव की लालसा है। मैं केवल दुख - तप्त प्राणियों के आर्तिनाश की ही इच्छा रखता हूँ।

    मुक्ति क्या है, यह बतलाया गया। इसको स्मरण रखिए। अब आइए संसार की असारता पर। प्रश्न यह है कि यदि संसार असार है तो सार किसमें है? यदि संसार मिथ्या है तो सत्य क्या है? संसार परमात्मा का स्वरूप है, विश्व ही ब्रह्म है, विश्व ही अरूप का रूप है। विश्व को ब्रह्म न समझना भ्रम है, वैसा ही भ्रम है जैसा रज्जु में सर्प का। विश्व मिथ्या नहीं है। विश्व को ब्रह्म न मानना मिथ्या है। जो लोग कहते हैं, संसार माया - जाल है, मिथ्या से भरा है, अनित्य है, नित्य नहीं, वे भ्रान्त हैं। गीताकार के इस मार्मिक कथन की मार्मिकता को समझिए: -

अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।

मत्ता: परतरं नान्यत् किि×चदस्ति धानंजय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रो मणिगणा इव।

    मैं समग्र जगत् की उत्पत्तिा और प्रलय का स्थान हूँ, मुझसे भिन्न कुछ नहीं है। एक सूत में गुँथे हुए हार की मणियों के समान सब मुझमें गुँथे हुए हैं। इतना ही नहीं; उपनिषद् के इन वाक्यों पर विचार कीजिए -

'सर्वं खल्विदम् ब्रह्म नेह नानास्ति कि×चन'

    रात्रिा में किसी स्थान पर खडे होकर जब आकाशमण्डल पर दृष्टिपात किया जाता है, तो ब्रह्मरूप विश्व की महत्ताा प्रकट होती है। उस सयम आकाश मे अनन्त पिण्ड दिखलाई देते हैं। नेत्राों - द्वारा जितने पिण्ड देखे जा सकते हैं, उनमें से अधिाकांश हमारे सूर्य के समान हैं, कोई - कोई उससे भी बड़े हैं। हमारा सूर्य जो इस सौरमण्डल का स्वामी है, यदि मटके के बराबर है, तो पृथ्वी मटर के बराबर। हमारे सौरमण्डल और उसके ग्रह - उपग्रहों का विस्तार और उनके कार्यकलाप ही बोधागम्य नहीं हैं, अनन्त पिण्डों की बात ही क्या? परन्तु, अनुभव से हम समझ सकते हैं कि यह ब्रह्माण्ड क्या है और उसके विषय में हमारा ज्ञान कितना है। ये सब वैसे ही अनिर्वचनीय, बुध्दि - विचार से परे और आश्चर्यमय हैं, जैसे ब्रह्म। वरन् यों कहा जा सकता है कि ब्रह्मस्वरूप होने के कारण ही वे भी इन गुणों के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, अकल्पनीय हैं और 'वाचामगोचर चरित्रा विचित्राताय' हैं। फिर भी हम यह कहते संकोच नहीं करते कि विश्व मिथ्या है, संसार असार है। कहना तो यह चाहिए कि 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' ब्रह्म ही सब कुछ है, उससे भिन्न जगत् का परिज्ञान भ्रम है; अतएव मिथ्या है। वैशेषिक दर्शनकार कहते हैं - ''यतोऽभ्युदय नि:श्रेयससिध्दि: स धार्म:'', परन्तु अविवेकी मानव अभ्युदय को धाता बताकर नि:श्रेयस् की कामना करता है। लोक को खोकर परलोक की चिन्ता करता है। यह वह नहीं समझता कि लोक खोकर परलोक की चिन्ता कैसे होगी? प्रत्यक्ष जो सामने है, उससे विमुख होकर अप्रत्यक्ष की ओर दौड़ना असमीचीन है। यदि अप्रत्यक्ष कुछ है, तो उसका अनुभव प्राणी को प्रत्यक्ष ही द्वारा हो सकता है। साधय की प्राप्ति साधान द्वारा ही हो सकती है। वे दोनों इस प्रकार परस्पर मिलित हैं कि एक के अभाव में दूसरे का अनुमान भी सम्भव नहीं। दूसरी बात यह कि जो संसार को असार समझता है, उसमें आत्मविवेक कहाँ है। वह स्वयं क्या है? वह भी तो संसार की वस्तु है। उसके व्यक्तित्व का सर्वस्व तो संसार ही है, वह ईश्वरांश है, तो संसार क्या है, वह भी तो ईश्वर का रूप है, फिर भिन्नता कहाँ रही? यदि ईश्वरांश ईश्वर के रूप की उपेक्षा करता है और उसके प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, तो वह स्वयं अपना तिरस्कार आप करता है, अपने कर्तव्य से च्युत होता और भ्रांत है। मुक्ति क्या है, मैं ऊपर बतला आया हूँ। जिस समय मनुष्य का ज्ञान इतना पूर्ण हो जाता है कि ''अहं ब्रह्मास्मि'' ब्रह्म मैं ही हूँ, उस समय संसार भी उसमें लीन हो जाता है; फिर भिन्नता कैसी? क्या यही वास्तविक मुक्ति नहीं है, जिसका उल्लेख वशिष्ठदेव ने किया है? परन्तु, यह वृत्तिा सबको नहीं प्राप्त होती। इस अवस्था में उपास्य और उपासक का भेद नहीं रह जाता। इसको सायुज्य मुक्ति भी कह सकते हैं। परन्तु, बीच की अन्य अवस्थाएँ भी हैं; इसीलिए उपासना चार प्रकार की होती है।

उत्तामं ब्रह्मसद्भवो मधयमं धयानधाारणा

स्तुतिप्रार्थनाधामाज्ञेया बाह्यपूजाधामाधामा।

    ब्रह्मसद्भाव उत्ताम, धयान - धाारण मधयम, स्तुति प्रार्थना अधाम और बाह्य पूजा - अर्थात् किसी प्रतीक द्वारा परमात्मा की उपासना करना अधामाधाम कही जाती है। यहाँ अधाम और अधामाधाम शब्दों का प्रयोग निन्दात्मक नहीं, केवल कोटि निर्देशात्मक है। भाव यह है कि कौन उपासना किस कोटि अथवा किस दर्जे की है, यही इस श्लोक में बतलाया गया है। किन्तु, उपासना के लिए और विश्व को ब्रह्मरूप में देखने की साधाना के लिए जो श्रेणि - विभाग इस पद्य में किया गया है, वह बहुत समीचीन और उपयोगी है। एक मुसलमान पीपल वृक्ष पर किसी हिन्दू को जल चढ़ाते देखकर उसका उपहास कर सकता है; परन्तु एक वेदान्ती समझता है कि वह 'सर्वं खल्विदम् ब्रह्म' इस ज्ञान - प्राप्ति - साधाना के प्रथम सोपान पर चढ़ रहा है। संसार में जड़ पदार्थ ही ऐसी वस्तु है जिसमें लोगों को ईश्वर न होने का विचार उत्पन्न हो सकता है। हिन्दू वहीं से अपनी आराधाना आरम्भ करता है और पीपल पर जल चढ़ाते हुए 'वासुदेवाय नम:' कहकर अपनी साधाना की महत्ताा बतलाता है। पशुओं में गाय की, मनुष्यों में ब्राह्मण अथवा साधाु - महात्माओं की पूजा एक के बाद दूसरे सोपान पर उत्तारोत्तार आरोहरण करना ही है; क्योंकि उनमें भी ईश्वरीय भाव का ही आरोपण होता है। जब किसी मूर्ति के सामने जाकर श्रध्दालु हिन्दू उसकी अर्चना करता है, तो एक असहृदय जन उसकी इस क्रिया को पत्थर का पूजना कह सकता है; परन्तु, वह तो सर्वसाधाारण के सामने यही प्रगट करता है कि ईश्वर सर्वव्यापी है।

    मुसलमानों का सूफी मजहब वेदान्तवाद का साधाारण संस्करण है। वह प्रस्तुत विषय में क्या कहता है, कुछ उसकी बातें सुनिए: -

हर शै में तेरा जलवा यारब नजर आता है।

बुतखाना के पर्दे में काबा नजर आता है!

गर मुझसे मिला चाहो तो सिजदा कर बुतों का।

बुत मेरी ही सूरत है, बुतखाना भी मैं ही हूँ।

एक पत्थर चूमने को शेखजी काबा गए

जौक हर बुत काबिले बोसा है इस बुतखाना में

न देखा दैर में तो क्या हरम में देखेगा

वह तेरे पेशे नजर याँ नहीं तो वाँ भी नहीें।

    एक फारसी का शायर कहता है: -

दर हैरतम कि दुश्मनिए कुफ्र वो दीं चे रास्त

अज तक चिराग काबा व बुतखाना रौशनस्त।

    आश्चर्य में हूँ कि कुफ्र व दीन में दुश्मनी क्यों है। एक ही दीपक से तो बुतखाना और काबा दोनों प्रकाशित हैं।

    हिरण्यकश्यप अपनी तलवार को चमकाकर प्रधाद से पूछता है कि क्या इस पत्थर के खम्भे में भी तेरा राम है? भक्त प्रह्लाद अविचलित चित्ता से कहता है - हाँ पित:, 'तोहि में मोहि में खरग खम्भ में सबमें व्यापक राम। '

    देखिए, दानव - बुध्दि और देव - बुध्दि का अन्तर! आज भी सहòों हिन्दुओं को प्रतिदिन सूर्य को नतशिर होकर श्रध्दांजलि अपर्ण करते देखते हैं, जो यह भाव प्रकट करता है, 'सूर्यो आत्मा हि जगत:। देखिए, कहाँ - से - कहाँ हिन्दू जाति का उच्च भाव पहुँचता है और यह बतलाता है: -

जले विष्णु: स्थले विष्णु: विष्णु: पर्वत मस्तके।

ज्वालमाला कुले विष्णु: सर्वं विष्णुमयं जगत्।

    जल में, स्थल में, पर्वत पर, ज्वाला - माला में, समस्त जगत् में विष्णु विराजमान हैं। इस प्रकार की उपासना में भक्ति की प्रधाानता होती है। गोस्वामीजी कहते हैं कि 'ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कुछ भेदा', परन्तु ज्ञान स्थिर होता है और भक्ति क्रियाशील। ज्ञान आत्मोध्दारप्रिय होता है और भक्ति सेवा - परायणा, सहृदया और परोपकाररता होती है। इसीलिए गोस्वामीजी मुक्ति की कामना न करके भक्ति की इच्छा करते हैं। श्रीमद्भागवत का श्लोक भी इसी भाव का सूचक है। इसमें अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। भक्त आत्मार्थी नहीं होता, आत्मत्यागी होता है। वह संसार को ब्रह्मस्वरूप मानकर उसकी हृदय से समुचित सेवा करता है। आप तरता है और अपने साथ दूसरों को भी तार देता है। इसीलिए वह तरन - तारन कहलाता है। भक्ति नौ प्रकार की होती है। उक्त सिध्दान्तों पर दृष्टि रखकर मैंने 'प्रिय - प्रवास' में नवों प्रकार की भक्ति का स्वरूप बतलाया है। उसी को आप लोगों के सामने रखकर मैं इस लेख को समाप्त करता हूँ। आप लोग कृपा करके देखेंगे कि उध्दाृत पद्यों में 'सर्वं खल्विदम् ब्रह्म', भाव की चरितार्थता है या नहीं।

श्रवणर् कीत्तान वन्दन दासता।

स्मरण आत्मनिवेदन अर्चना।

सहित सख्य तथा पद सेवना।

निगदिता नवधाा प्रभु भक्ति है।

विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो है उसी के।

सारे प्राणी, सरि - गिरि - लता वेलियाँ वृक्ष नाना।

रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा।

भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तामा है।

जी से सारा कथन सुननार् आत्ता - उत्पीड़ितों का।

रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक उन्नायकों का।

सच्छास्त्राों का श्रवण, सुनना वाक्य सत्संगियों का।

ज्ञाताओं में श्रवण अभिधाा भक्ति मानी गयी है।

सोए जागें तम पतित की दृष्टि में ज्योति आवे।

भूले आवें सुपथ पर औ ज्ञान उन्मेष होवे।

ऐसे गाना कथन करना दिव्य न्यारे गुणों का।

है प्यारी भक्ति प्रभुवर कीर् कीत्तानोपाधिा वाली।

विद्वानों के स्वगुरुजन के देश के प्रेमियों के।

ज्ञानी दानी सुचरित गुणी सर्व तेजस्वियों के।

आत्मोत्सर्गी विबुधा जन के देव सद्विग्रहों के।

आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या।

जो बातें हैं भव - हितकारी सर्वभूतोपकारी।

जो चेष्टाएँ मलिन गिरती जातियाँ हैं उठाती।

हो सेवा में निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना।

विश्वात्मा भक्ति भवसुखदा दासता संज्ञका है।

कंगालों की विवश विधावा औ अनाथाश्रितों की।

उद्विग्नों की सुरति करना औ उन्हें त्रााण देना।

सत्कार्यों का, पर हृदय की पीर का धयान आना।

मानी जाती स्मरण अभिधाा भक्ति है भावुकों में।

विपद सिन्धाु पडे नर वृन्द के।

दुख निवारण औ हित के लिए।

अरपना अपने तन - प्राण को,

प्रथित आत्म निवेदन भक्ति है।

सन्त्रास्तों को शरण मधाुरा शान्ति सन्तापितों को।

निर्बोधाों को सुमति विविधाा ओषधाी पीड़ितों को।

पानी देना तृषित जन को अन्न भूखे नरों को।

सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना संज्ञका है।

नाना प्राणी तरु गिरि लता वेलि की बात ही क्या।

जो है भू में गगनतल में भानु से मृत्कणों लौं।

सद्भावों के सहित उनसे कार्य्य प्रत्येक लेना।

सच्चा होना सुहृदय उनका भक्ति है सख्य नाम्नी।

जो प्राणिपुंज कर्म निपीड़नों से।

नीचे समाज वपु के पग - सा पड़ा है।

देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा।

है भक्ति लोकपति की पदसेवनाख्या।

(सन्दर्भ - सर्वस्व)


 

 

 

 

 

 

रामायण में हिन्दू - संस्कृति

 

 

मद्रास प्रान्त के लब्धाप्रतिष्ठ विद्वान् और वक्ता श्रीयुत शिवस्वामी ऐयर ने एक बार अपने एक प्रसिध्द व्याख्यान में कहा था - हमारा राज्य छिन जाए, ऐश्वर्य धाूल में मिल जाए, विभव पद दलित हो, सम्पत्तिा हर ली जाए, हम सर्वप्रकार नि:सम्बल हो जाएँ, सर्वस्व गँवा दें, तो भी हम नि:स्व न होंगे, यदि रामायण और महाभारत जैसे हमारे अलौकिक रत्न सुरक्षित रह सकें। इस कथन का रहस्य क्या है? वास्तव में बात यह है कि जाति की संस्कृति ही उसका जीवन सर्वस्व होती है। कोई जाति अपनी संस्कृति खोकर जीवित नहीं रह सकती। संस्कृति ही वह आधाार शिला है, जिसके सहारे जाति - जीवन का विशाल प्रासाद निर्मित होता है। जिस दिन यह आधाार - शिला स्थानच्युत होगी, उसी दिन पुष्ट से पुष्ट प्रासाद भी भहरा पडेग़ा। संसार में कुछ निर्जीव जातियाँ अब भी जीवित हैं, किन्तु अपनी संस्कृति को खोकर वे कण्ठगतप्राण हैं, उनको मरी ही समझिए - चाहे आज मरें, चाहे कल, कारण यह है कि संस्कृति ही किसी जाति के अस्तित्व का पता देती है। यही वह चिद्द है, जो उसके पूर्वगौरव, महान् आदर्श और लोकोत्तार कार्य - कलाप द्वारा संसार की अन्य जातियों से उसको पृथक करता है। जिस समय चारों ओर से अन्धाकार होने के कारण वह अवनति - गर्त की ओर अग्रसर होती रहती है, उस समय उसीके आलोक से आलोकित होकर वह उचित पथ ग्रहण करती है और उस समुन्नतिसोपान पर चढ़ने लगती है, जो उसको उत्थान के समुच्चशिखर पर आरूढ़ कर देता है। भारत में यवन, शक, हूण आदि बड़ी - बड़ी बलवान जातियाँ आयीं। परम पराक्रान्त वह मुसलमान जाति आयी, जिसने जहाँ शासन किया, वहीं अपने धार्म की विजय - दुंदुभि भी बजायी, जिसके द्वारा देश का देश उसके धार्म में दीक्षित हो गया। किन्तु रामायण और महाभारत की पवित्रा संस्कृति के बल से हिन्दू - धार्म आज भी जीवित है। जीवित ही नहीं, उसने अपनी वह अलौकिक महत्ताा दिखलायी कि जिसके बल से संसार विजयिनी करवाल भी टुकडे - टुकडे हो गयी। जिस समय भारतव्यापी मुसलमान साम्राज्य उत्तारोत्तार वृध्दि पा रहा था और उसकी गुरुगर्जना से भारत वसुन्धारा प्रकम्पित हो रही थी, जब यह अवगत हो रहा था कि अब भारतीयता की समाप्ति हो जाएगी, हिन्दू - धार्म लुप्त हो जायेगा, हिन्दू जाति नामशेष रह जाएगी और भारतभूमि का अपार विभव मुसलमान जाति के विशाल उदर में समा जायेगा, उस समय कतिपय महान् आत्माओं में कुछ ऐसी संस्कृति जाग्रत हुई, जिसने भारतवर्ष की काया ही नहीं पलट दी, हिन्दू जाति को पुनरुज्जीवित भी कर दिया। यह बात इतिहास जाननेवालों को अविदित नहीं। यह कौन संस्कृति थी? वही रामायण - महाभारत की, उस रामायण और महाभारत की, जो हिन्दू - संस्कृतियों के भण्डार है, मैं समझता हूँ, अब मद्रास प्रान्त के उपर्युक्त विद्वान के कथन का रहस्य आपलोगों की समझ में आ गया होगा।

    भारत में समय - समय पर विभिन्न विचार के बडे - बडे प्रवाह आए। कुछ काल तक उनके प्रबल वेग के सामने वह आत्मविर्सजन करता दिखलाई पड़ा। परन्तु उसके धौर्य का पाँव स्थानच्युत कभी नहीं हुआ। वह सदा सँभला और अपनी भारतीयता की धाारा में उसने सबको विलीन कर दिया। उसकी महान् संस्कृति ही उसकी इस सफलता का कारण है। कविकुलपुंगर वाल्मीकि की महिमामयी लेखनी जिस प्रकार इन आर्य संस्कृतियों का उल्लेख कर धान्य हुई है, उसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास की कलामयी कविता में भी उनका अलौकिक चमत्कार दृष्टिगत होता है। गोस्वामी जी का वर्णन सामयिकता लिये है, इसलिए उन्हीें की रामायण से कुछ ऐसी संस्कृतियों का वर्णन यहाँ किया जाता है, जो हमारे सामाजिक जीवन की संजीवनी शक्तियाँ कही जा सकती हैं। गोस्वामी जी की रामायण आर्यसभ्यता और संस्कृति का अलौकिक कोष है। जहाँ देखिए, वहीं उनकी लेखनी इस विषय में बड़ी ही मार्मिकता से चलती दिखलायी पड़ती है। उनकी रामायण का गेहे - गेहे जने - जने प्रचार क्यों है, इसीलिए कि हिन्दू हृदय जिन आदर्शों को देखकर पुलकित होता है, जिन भावों द्वारा उल्लसित और रससिक्त बनता है, उसमें उन्हीें आदर्शों और भावों का बड़ा ही हृदयग्राही चित्राण है। गोस्वामी जी की लेखनी का चमत्कार यही है कि वह मूर्तिमन्त आर्य - संस्कृति है, यह मूर्तिमत्ताा कहीं - कहीं इतनी मनोहर और सुन्दर है, इतनी प्रांजल और सरस है कि उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। उनकी अद्भुत रचनाओं को पढ़ते समय कभी - कभी इतनी तन्मयता हो जाती है कि ब्रह्मानन्द - सुख का अनुभव होने लगता है। वही कविता मर्मस्पर्शिनी होती है, जिसमें वे ही दृश्य, सुन्दरता से सामने आते हैं, जिसको हम प्राय: देखते रहते अथवा जिनका अनुभव प्रतिदिन करते रहते हैं। गोस्वामीजी इसी प्रकार की कविताओं के आचार्य हैं। वे न तो '' - पुष्प तोड़ते हैं, न अगम - अगोचर का व्यापार करते हैं, न अधार में प्रासाद निर्माण हो; वे मानव - चरित्रा में ही आत्मा की महत्ताा का प्रदर्शन करते हैं और नित्य के कार्य - कलाप में ही 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की कल्पना। इसीलिए वे जो कुछ कहते हैं, उसको हृदय स्वीकार कर लेता है। कुछ इसी प्रकार का कृतियाँ आपके सामने उपस्थित की जाती हैं।

    पिता की आज्ञा शिरोधाार्यकर भगवान श्री रामचन्द्र वन - यात्राा के लिए प्रस्तुत हैं, श्रीमती कौसल्या देवी की सेवा में उपस्थित होकर उनसे अनुनय - विनय कर रहे हैं, इसी समय व्यथितहृदया विदेहनन्दिनी वहाँ आईं। गोस्वामी जी लिखते हैं -

समाचार तेहि समय सुनि, सीय उठी अकुलाइ।

जाइ सासु पद कमल जुग, बन्दि बैठि सिरु नाइ।

    दोहे के द्वितीय भाग में कुल ललना की कितनी मर्यादाशीलता अंकित हुई है, यह अविदित नहीं। भगवती जानकी सीधो आकर भगवान् श्री रामचन्द्र के सामने नहीं खड़ी हो गयीं। उन्हीं से कथोपकथन नहीं प्रारम्भ किया। क्यों? इसीलिए कि इसमें श्रीमती कौसल्यादेवी का तिरस्कार होता। आर्यजाति की यह संस्कृति है कि बड़ों की उपस्थिति में बहुएँ लज्जा त्याग कर पति से सम्भाषण नहीं करतीं, उनसे बोलतीं तक नहीं। आज भी कुलीनों में यह परम्परा प्रचलित है। फिर आदर्श गृहिणी सीता देवी ऐसा क्यों करतीं, वे आयीं और सास को चरणवन्दना करके, सिर नीचा करके बैठ गईं। कितना सलज्ज भाव है? 'बैठि सिरु नाइ' लिखकर गोस्वामी जी ने जो - जो मार्मिकता दिखलायी है, यही उनकी विशेषता है। यह 'बैठि सिरु नाइ' जानकी जी के हृदय का प्रतिबिम्ब है। इस कार्य द्वारा उन्होंने अपनी मर्यादाशीलता, अपनी आकुलता और अपनी अशक्तता का ही प्रदर्शन नहीं किया, दैन्य दिखलाकर सहायता की भिक्षा भी माँगी। सम्भव है, आजकल की शिक्षित ललनाएँ इसको पराधाीनता की कुत्सित बेड़ी समझें, किन्तु यह मर्यादाशीलता की वह मौक्तिमाला है, जिसको धाारण कर प्रत्येक कुल - बाला की अपूर्व शोभा हो सकती है। आर्य संस्कृतियाँ अत्यन्त उदात्ता हैं, उनमें स्वार्थपरता का उतना स्थान नहीं, जितना सदाशयता का।

    वह अपने सुख - विलास में ही जीवन की सार्थकता नहीं समझतीं; वह तभी कृतकृत्य होती हैं, जब गुरुजन, आत्मीयजन अथवा अन्य उपकार कामुक जनों की सेवा कर आत्मोत्सर्ग कर पाती है। वे उच्छृंखलता एवं निर्लज्जता में मर्यादा शीलता को और संकीर्णहृदयता एवं मदान्धाता से सहृदयता को उत्ताम समझती हैं। इसीलिए शास्त्राों में ऐसे आदेश हैं कि जिनमें इस प्रकार के संस्कारों का उदय हो। कुछ नीचे लिखे जाते हैं -

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृध्दोपसेविन:।

चत्वारि तस्य वर्ध्दन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।

(मनु. 2/121)

    भगवान मनु कहते हैं, जो अभिवादनशील और नित्य वृध्दसेवातत्पर हैं उनकी आयु बढ़ती है, तथा उन्हें विद्या, यश और बल प्राप्त होता है।

    विवाह काल के समय सप्तपदी में स्त्राी यह प्रतिज्ञा करती है -

कुटुम्बंरक्षयिष्यामि सदा तं म×जुभाषिणी।

दु:खे धाीरा सुखे हृष्टा द्वितीये साब्रवीद्वच:।

    कुटुम्ब की रक्षा करूँगी, सदा मधाुरभाषिणी रहूँगी, दु:ख में धाीर और सुख में आनन्दित रहूँगी -

    1. गुरुषु सखिषु भृत्ये बन्धाुवर्गे च भर्तु -

र्ऱ    व्यपगतमदमाया वर्तयेत् स्वं यथार्हम्।

    2. भार्येकचारिणी गूढ़विश्रम्भा देववत्पतिमानुकूल्येन

      वर्तेत तन्मतेन कुटुम्बचिन्तामात्मनि सन्निवेशयेत्।

    3. श्वश्रूश्वशुरपरिचर्या तत्पारतन्त्रयमनुचरवादिता परिमिता प्रचण्डाला -
पकरण  मनुच्चैर्हास: तत्ताु प्रियाप्रियेषु स्वप्रिया प्रियेष्विव वृत्तिा:।   - वात्स्यायने

    1 - पति के गुरुजनों से, सखाओं से, और बन्धाु वर्ग एवं सेवकों से निरभिमान रहकर यथायोग्य बर्ताव करे।

    2 - भार्या को चाहिए - पति को देवता के समान जाने, उसकी इच्छा के अनुकूल जीवन व्यतीत करे और उसकी सम्मति के अनुसार कुटुम्बीजन की चिन्ता में लीन रहे।

    3 - कुलवधाू सास - ससुर की सेवा करे, उनकी आज्ञा में रहे, उनकी परतन्त्रा बने, उनकी बातों का जवाब न दे, मिष्ट भाषण करे, जोर से न हँसे। उनके प्रिय - अप्रिय को अपने प्रिय - अप्रिय के समान समझे।

    जिस समय श्रीमती जनकनन्दिनी सिर नीचा करके चरणों के समीप बैठ गयीं, उस समय -

दीन्हि असीस सासु मृदु बानी।

अति सुकुमारि देखि अकुलानी।

    इस पद्य में यथावसर 'मृदु बानी' शब्द का कितना सुन्दर प्रयोग है। यदि दोहे का 'पद कमल बन्दि बैठि सिरु नाइ' श्रीमती जानकी के विनय नम्र हृदय का सूचक है, तो यह 'मृदुबानी' शब्द कौसल्या देवी के कोमल वात्सल्यपूर्ण हृदय का परिचारक है। इसके उपरान्त श्रीमती कौसल्या देवी के हृदय की क्या अवस्था हुई, इसकी सूचना यह अध्र्दाली देती है -

'अति सुकुमारि देखि अकुलानी। '

    कितनी स्वाभाविकता है? वे कितना शीघ्र अपनी पुत्रा - बधाू के हृदय में प्रवेश कर गई।

    श्री जानकीजी सास के समीप सिर नीचा करके बैठ तो गईं, परन्तु मुँह न खुला, वे कुछ कह न सकीं। कैसे कहतीं? संकोच ने जीभ को बन्द जो कर रखा था। यही नहीं, हृदय में दु:ख की एक विचित्रा घनघोर घटा उठ रही थी, वे सोच रही थीं: -

बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप - रासि पति - प्रेम - पुनीता।

चलन चहत बन जीवन - नाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।

की तनु प्रान कि केवल प्राना। विधिा करतब कछु जाइ न जाना।

चारु चरन नख लेखति धारनी।......।

    देखा आपने, सामयिक अवस्था की कितनी सुन्दर वर्णना है 'बैठि नमित मुख' से 'चारु चरन नख लेखति धरनी' तक कैसे भावमय शब्द - विन्यास हैं। उनसे श्रीमती जानकी देवी की संकोचमय दशा, उनमें चिन्ता नाटय, उनके दृढ़ विचार, पवित्रा प्रेम आदि पर कितना सुन्दर प्रकाश पड़ता है। हृदय में जो घटा धाूम से उठ रही थी, नेत्राों के सहारे वह बरस पड़ी। गोस्वामी जी ने लिखा -

मंजु बिलोचन मोचति बारी।

    कौसल्यादेवी पहले ही सब समझ गयी थीं, नेत्राों के जल ने उनको और आर्द्र कर दिया, इसलिए दूसरी अध्र्दाली यों लिखी गयी -

बोली देखि राम महतारी।

    'राम महतारी' का कितना सार्थक प्रयोग है। पुत्रा पर माता का अधिाकार तो सूचित हुआ ही, साथ ही उनके हृदय की महत्ताा और द्रवणशीलता भी उससे विदित हुई। राम महतारी क्या बोली, अब उसे भी सुनिए -

तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहिं पिआरी।

पिता जनक भूपाल मनि, ससुर भानुकुल भानु।

पति रविकुल कैरव बिपिन, बिधाु गुन रूप निधाानु।

मैं पुनि पुत्रा - बधाू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई।

नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई।

कलप बेलि जिमि बहुबिधिा लाली। सींचि सनेह सलिलप्रतिपाली।

फूलत फलत भयउ बिधिा बामा। जानि न जाइ काह परिनामा।

पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।

जिअन - मूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।

सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।

चंद किरन रस रसिक चकोरी। रवि रुख नयन सकइ किमि जोरी।

करि केहरि निसिचर चरहिं, दुष्ट जन्तु बन भूरि।

बिष बाटिका कि सोह सुत, सुभग सजीवनि मूरि।

बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं विरंचि विषय - सुख - भोरी।

पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ।

सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रालिखित कपि देखि डेराती।

सुर सर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।

अस विचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहिं सोई।

जौ सिय भवन रहै, कह अम्बा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा।

    श्रीमती कौसल्या देवी आदर्श माता ही नहीं, आदर्श सास भी हैं। सास का पतोहू के प्रति वह सच्चा और पवित्रा स्नेह जो गृह को स्वर्ग बनाता है, गार्हस्थ्य धार्म को उन्नत कर कुटुम्ब को सुख - शान्तिमय कर देता है, वे उसकी मूर्ति थीं। भावमय शब्दों में उनके हृदय का प्रेम जिस प्रकार व्यंजित हुआ है, वह बड़ा ही गम्भीर, उदात्ता एवं द्रावक है।

नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई।

कलप बेलि जिमि बहुविधिा लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली।

जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।

    इन पंक्तियों में कितनी ममता भरी है, इनमें कितना आदर भाव और प्यार है, कितना प्रेम और वात्सल्य है, कितनी करुणा और द्रवणशीलता है, क्या यह बतलाना होगा? कौन सहृदय है, जो इन भावों को इनमें छलकता न पाएगा? जब कौसल्या देवी कहती हैं -

पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।

बन हित कोल किरात किसोरी। रची विरंचि विषय - सुख - भोरी।

कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू।

सिय बन बसिहि तात केहि भाँति। चित्रालिखित कपि देखि डेराती।

    तब जानकी देवी की सरलता, कोमलता, उनके स्वभाव का भोलापन और उनकी भीरु प्रकृति ऑंखों के सामने फिर जाती है, साथ ही हृदय में एक ऐसी बेदना होने लगती है, जो चित्ता विह्नल कर देती है। यदि कौसल्यादेवी सीताजी का मुँह न जोहती रहतीं, उनके सुख से रहने का धयान न रखती होतीं, तो उनके मुख से इस तरह की बातें न निकलतीं। इन पंक्तियों में उनकी व्यथा ही मूर्तिमन्त होकर विराजमान नहीं है, उनकी वह वांछा भी झलक रही है, जो पुत्रा - वधाू के साधाारण क्लेशों को देखकर भी विचलित होती है -

चन्द किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।

सुर - सर सुभग बनज बनचारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।

बिष बाटिका कि सोह सुत, सुभग सजीवनि मूरि।

    किसी पुत्रा - वधाू के पक्ष में अपने पुत्रा से कोई सास इससे अधिाक और इससे उत्तामता से क्या कह सकती है। इन पंक्तियों में एक कुल - बाला का हृदय खोलकर उसके प्रियतम को दिखलाया गया है और साथ ही यह भी सूचित किया गया है कि एक पति - प्राणा के वियोग - विधाुरा बनने पर उसका जीवन कैसा संकटापन्न हो सकता है। इनसे कौसल्या देवी की गम्भीरता जितनी सुन्दरता से स्फुटित हुई है, उतनी ही उनकी भावुकता, सहृदयता और मार्मिकता भी। एक ओर वे पुत्रावधाू की गम्भीर मनोवेदना, उसकी वन गमन की असमर्थता आदि का आवरण हटाती हैं और दूसरी ओर पुत्रा की ऑंखें खोलती हैं और उसके उचितर् कत्ताव्य के लिए सावधाान करती हैं। ऐसे अवसर पर वे अपने उत्तारदायित्व को भी नहीं भूलतीं। वे पुत्रा के महान् कर्तव्यों, उनके असीम संकटों और दैवदुर्विपाक को समझती हैं। अतएव यह आज्ञा नहीं देतीं कि अपनी स्त्राी को अवश्य साथ लेते जाओ, केवल इतना कहती हैं -

सोई सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।

अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहिं सोई।

    फिर व्यथित और विरहकातरा होकर वह कह पड़ती हैं: -

जो सिय भवन रहै, कह अम्बा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलम्बा।

    यह अन्तिम पद उनके व्यथामय आन्तरिक भाव का सूचक है। पुत्रा जाए तो जाए, किन्तु विनयशील पुत्रावधाू को वह त्यागना नहीं चाहतीं। फिर भी कलेजे पर पत्थर रखकर उन्होंने आत्मसुख को तिलांजलि दीं और जानकी देवी को गर्भव्यथाओं की ही मरहम पट्टी करने की पूरी चेष्टा कीं, यही है उनकी महत्ताा और महानुभावता। यहीं 'राम महतारी' पद की पूरी सार्थकता हुई है। आर्य संस्कृति की ही यह उदात्ता कल्पना है और आर्य संस्कृति का ही है यह अपूर्व आदर्श।

    भगवान करे, घर - घर श्रीमती कौसल्या जैसी सास और श्रीमती जानकी जैसी पुत्रा वधाुएँ दिखलायी पडें, ज़िससे हमारे पवित्रा गृहों में पाश्चात्य कलुषित प्रभावों का अशुभ प्रवेश न हो सके।

    माता की बातें सुनकर भगवान श्री रामचन्द्र चिन्तित हुए। पहले तो विवेकमय वचन कहकर उन्होंने उनको समझाया। इसके उपरान्त जानकी जी से कुछ कहना चाहा, परन्तु मर्यादा बाधाक हुई, माता का संकोच हुआ, फिर भी समय देखकर उन्हें उनसे कुछ कहना ही पड़ा। गोस्वामी जी लिखते हैं: -

मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं।

    भगवान् श्री रामचन्द्र मर्यादा पुरुषोत्ताम हैं, परन्तु प्रबल काल से उनकी भी न चली। श्रीमती जानकी देवी से उन्होंने जो कुछ कहा, उसे सुनिए -

राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जिय जनि कछु गुनहू।

आपन मोर नीक जो चहहू। कथनु हमार मानि गृह रहहू।

आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधिा भामिनि भवन भलाई।

एहि तें अधिाक धारम नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।

जब - जब मातु करिहिं सुधिा मोरी। होइहिं प्रेम बिकल मति भोरी।

तब - तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुन्दरि समुझाएहु मृदुबानी।

कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही।

    कैसी उचित और मार्मिक बातें हैं, भगवान श्रीरामचन्द्र जैसे विनय - नम्र और मर्यादाशील पुत्रा के मुख से दूसरी कौन बात निकलती। उन्होंने यह भी कहा - जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह गुरु एवं श्रुतिसम्मत है, अतएव इस धार्म फल का बिना कष्ट का अनुभव किए लाभ करना चाहिए।

गुरु श्रुति संमत धारम फलु, पाइउ बिनहिं कलेस।

    श्रुति कहती है -

मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव।

    शास्त्रा कहता है -

प्रत्यक्ष देवता माता।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

    स्मृति कहती है -

संयतोपस्करा दक्षा हृष्टा व्ययपराङ्मुखी।

कुर्याच्छ्वशुरयो: पादवन्दनं भर्तृतत्परा।

(याज्ञवल्क्य)

उपाधयायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।

lgòं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते।

(मनु. 2/145)

    माता - पिता और आचार्य देवता हैं, माता प्रत्यक्ष देवता है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। स्त्राी को संयतोपस्कर (थोड़े गहनों वाली) दक्ष, हृष्ट और व्यर्थव्यय - पराङ्मुखी होना चाहिए। पति से रत रहकर सदा सास, ससुर की सेवा करना उनका धार्म है। उपाधयाय से दशगुण आचार्य का, आचार्य से शतगुण पिता का और पिता से सहò गुण - गौरव माता का है।

    इस प्रधाान धार्म की शिक्षा देने के बाद भगवान श्रीरामचन्द्र ने वन की भयंकरताओं और वहाँ की असुविधााओं का बड़ा ही विशद वर्णन किया है। पाठक रामायण में उनको देख सकते हैं। अधिाकांश वर्णन बड़ा ही भावमय और सुन्दर है, कवित्व तो उसमें कूट - कूटकर भरा है। कुछ पंक्तियाँ देखिए -

डरपहिं धाीर गहन सुधिा आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ।

हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू।

मानस सलिल सुधाा प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधिा मराली।

नव रसाल बन बिहरन सीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला।

    इन पंक्तियों में कितनी स्वाभाविकता और भावुकता है, सहृदयजन स्वयं उसका अनुभव करें। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि श्रीमती जनकनन्दिनी का चरित्रा जिस रूप में भारतीय कवियों ने अंकित किया है, वह कल्पित है, उसमें वास्तविकता का लेश नहीं। उनपर विपत्तिा का पहाड़ टूट पड़ता है, परन्तु उस अवस्था में भी उनको कुछ कहते नहीं देखा जाता। ज्ञात होता है कि उनके मुख में जीभ नहीं, या किसी ने उनके मुख पर मुहर लगा दी है। वे बड़े - से - बड़ा दु:ख सह लेती हैं, परन्तु उफ् भी नहीं करतीं। वज्र टूट पड़ता है, किन्तु हिलतीं तक नहीं। ऐसी प्रस्तर - प्रतिमा हो सकती है, कोई जीव - धारिणी नहीं। ऐसी - ही - ऐसी तर्कनाएँ करके वे दिल के फफोले फोड़ते हैं और इस प्रकार की और कितनी ही ऊटपटांग बातें कहते रहते हैं। वास्तव में बात यह है कि जिस वातावरण में उनके दृश्य का विकास हुआ है, जो हृदय उनके नेत्राों के सामने उपस्थित होते रहते हैं, पति - पत्नी के जिन पारस्परिक व्यवहारों का उनको अनुभव है, वैसी ही उनकी विचार परम्परा और मननशैली है। यूरोप की स्त्रिायों में आत्मपरायणता अधिक होती है, वे उतनी पति प्रेमिका और स्नेहमयी नहीं होतीं, जितनी एशिया विशेषत: भारत की कुल ललनाएँ होती हैं। वे पतिपरायणा तभी तक रहती हैं, जब तक उनके स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है। स्वार्थ में व्याघात उपस्थित होने पर वे तत्काल उनको त्याग देती हैं, आजकल यह प्रवृत्तिा बहुत ही प्रबल हो गयी है। पति की आज्ञा में रहना, उनकी सेवा के लिए आत्मोत्सर्ग करना, उनकी दृष्टि में आत्मविक्रय है। विवाह - बन्धन उनके दृष्टि में उतना पवित्रा नहीं। वे बात की बात में उसे तोड़ सकती हैं। उनका स्वभाव उग्र, असंयत और प्राय: उच्छृंखल होता है। इस प्रकार की प्रवृत्तिा को वे तेजस्विता कहती हैं। उनकी स्वतन्त्राता की कामना इतनी तीव्र होती है कि पति के सामने यदि थोड़ा भी झुकना पड़े, तो वे उसे परतन्त्राता मान बैठती हैं। जिस देश, जिस समाज के ऐसे आदर्श हों, उस देश और समाज में पला हुआ मनुष्य यदि सीतादेवी को अधिक धीर, गम्भीर, संयत, आत्मत्याग की मूर्ति और पतिप्राणा देखकर उनके विषय में तथाकथित विचार प्रकट करे तो क्या आश्चर्य! मेरे कथन का यह मतलब नहीं कि यूरोप में पतिपरायणा स्त्रिायाँ होतीं ही नहीं, ऐसा कहना और सोचना अन्याय होगा। मिल्टन ने एक स्थान पर 'ईव' के मुख से इन शब्दों को कहलवाया है। ये शब्द उन्होंने आदम से कहे हैं - What thou bidd'st, unargued I beg. So God ordains, God is thy law, thou mine.

    'जो आप की आज्ञा होती है, उसे मैं बिना कुछ कहे - सुने स्वीकार करती हूँ। ईश्वरीय इच्छा यही है। आप के नियन्ता ईश्वर हैं और मेरे आप। '

    संसार में जितनी सती साध्वी स्त्रिायाँ होंगी, प्राय: सबके हृदय का भाव ऐसा ही होगा। यदि यूरोप की स्त्रिायों में ऐसा भाव न पाया जाता तो मिल्टन की लेखनी से ऐसे शब्द निकलते ही नहीं, अभाव में भाव नहीं होता। यूरोप की स्त्रिायों में रजोगुण और तमोगुण ही होता है, सत्वगुण नहीं - ऐसा कहना अस्वाभाविक होगा। वहाँ स्वाभाविकता का लोप हो गया है, कृत्रिामता ही शेष है, यह भी नहीं कहा जा सकता। किन्तु यह परम सत्य है कि आजकल धार्मिकता का स्थान स्वेच्छाचारिता ग्रहण कर रही है, इसीलिए वहाँ का वायुमंडल विशेष कलुषित हो गया। यूरोप में सती साध्वी स्त्रिायों का अभाव नहीं, किन्तु वे उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। क्षेत्रा प्राय: वैसी ही स्त्रिायों के हाथ में है, जिनका चित्राण ऊपर हुआ है। आजकल हमारे यहाँ भी पढ़ी - लिखी स्त्रिायों ने यूरोप की स्त्रिायों का अनुकरण आरम्भ कर दिया है। अतएव उन्हीं के प्रभावों से लोग प्रभावित हैं और वैसे ही असंगत विचार भारत की पुनीत सभ्यता में पली स्त्रिायों के विषय में प्रकट करने के लिए बाधय हैं, किन्तु इस प्रकार की निर्मूल बातों का मूल्य ही क्या?

    श्रीमती सीता देवी भारत की सती साध्वी स्त्रिायों की शिरोमणि हैं। उनको आर्य संस्कृति की दिव्य मूर्ति कह सकते हैं। उनके मुख में जिह्ना है, किन्तु बड़ी ही संयत। उनके मुँह पर मुहर कभी नहीं लगी। वे समय पर बोलती हैं, किन्तु उनके शब्द तुले हुए और गम्भीर होते हैं, उन शब्दों में महानुभावता भरी होती है, पर साथ ही हृदय की विशालता भी। कटु वचन कहना, उध्दत बन जाना, उनके स्वभाव के विरुध्द है। जैसी मर्यादाशीलता और सदाशयता उनमें दृष्टिगत होती है, वैसी अन्यत्रा नहीं। और बातों की तरह सभ्यता के भी स्तर होते हैं। पहले वह उतनी उदात्ता, संयत और गम्भीर नहीं होतीं, जितनी उन्नतावस्था में। सांसारिक अन्य पदार्थों की तरह उसका भी क्रमश: विकास होता है। जो जातियाँ पहले पशुओं के समान जीवन व्यतीत करती थीं, आज वे ऊँचे - ऊँचे महलों में रहती हैं और वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा जगत् को चकित करती हैं, यह उनकी सभ्यता के क्रमश: विकास का ही फल है। आर्य सभ्यता संसार की सब सभ्यताओं से प्राचीन है और लगभग पूर्णता को पहुँची हुई है, इसलिए वह  अधिकांश उदात्ता गुणों का आधार है। भगवती जानकी सतीत्व के विषय में इसका प्रमाण हैं। स्त्राी जाति के हृदय का चरमोत्कर्ष उनमें देखा जाता है। उनकी महानुभावता संसार की सती साध्वी स्त्रिायों का आदर्श है। विभिन्न हाथों में पड़कर विचार वैचित्रय के कारण कहीं - कहीं उनका चरित्रा विकृत हो गया है, किन्तु उनकी महत्ताा कहीं खर्व नहीं हुई।

    दिङ्नाग बौध्द विद्वान् था। उसने 'कुन्दमाला' नामक एक नाटक लिखा है। प्रकरण उसका 'वैदेही वनवास' है। विपिन में पहुँचाकर लौटते समय लक्ष्मण जी जनकनन्दिनी से सन्देश की प्रार्थना करते हैं। उस समय नाटककार उनके मुख से ये वाक्य कहलाते हैं -

तथा निष्ठुरो नाम सन्दिश्यत इत्यप्रतिहतवचनतैषा

लक्ष्मणस्य, न सीताया धान्यत्वम्।

अहो अविश्वसनीयता प्रकृतनिष्ठुरभावानां पुरुष हृदयानाम्।

    ऐसे निष्ठुर के लिए मैं जो सन्देश देना चाहती हूँ, इसमें लक्ष्मण के वचन का आदर है, सीता का सौभाग्य नहीं। स्वभाव से ही निष्ठुरभावपूर्ण पुरुष हृदय की अविश्वसनीयता विचित्रा है।

    ऐसे ही एक अवसर पर भवभूति कौन - सा पथ ग्रहण करते हैं, उसे भी देखिए। उत्तार रामचरित में एक स्थल पर वे श्रीमती सीतादेवी की सखी वासन्ती के मुख से भगवान श्री रामचन्द्र के विषय में यह वाक्य कहलाते हैं -

'अयि देव? किं परं दारुण: खल्वसि। '

'देव? आप सचमुच बडे निष्ठुर हैं। '

    यह सुन सीतादेवी अपनी पतिप्राणता का परिचय देते हुए क्या कहती हैं, उसे भी सुनिए -

'सखि वासन्ति? किं त्वमेवंवादिनी भवसि, पूजार्ह:

सर्वस्यार्यपुत्राो विशेषतो मम प्रिय सख्या:

'सखी वासन्ती? तुम ऐसा क्यों कहती हो?

आर्य पुत्रा सबके पूजनीय हैं, विशेषत: मेरी प्रिय सखी के। '

    दिड्नाग की जनकनन्दिनी देवी नहीं, मानवी हैं। उनमें धौर्यच्युति है। वे धौर्यच्युत होकर पतिदेव को निष्ठुर कहती हैं, साथ ही पुरुष जातिमात्रा को स्वभाव से ही निष्ठुर हृदय कह डालती हैं। इस कथन में स्वाभाविकता है, किन्तु चित्ता की वह विशालता नहीं, जो मनुष्य को देवता बना देती है। विपत्तिा ही मनुष्य की कसौटी है, इस पर कसने पर दिङ्नाग को सीतादेवी ठीक नहीं उतरतीं। भवभूति की सीतादेवी वास्तव में देवी हैं। वे आत्मचिन्ता शून्य हैं, सच्ची प्रतिप्राणा हैं, वे विपत्तिा धौर्य का आदर्श है। उन्हाेंने स्वाभाविकता पर विजय प्राप्त कर ली है। उनमें प्रतिहिंसा - वृत्तिा है ही नहीं, वे स्वयं तो भगवान श्री रामचन्द्र को देखकर कुछ कहतीं ही नहीं, सखी के कटु वचन को भी नहीं सह सकतीं। उनका यह वाक्य बड़ा ही मार्मिक है - आर्यपुत्रा सबके पूजनीय हैं, विशेषत: मेरी प्रिय सखी के। यह सीता देवी का वास्तवकि रूप है। यह रूप बुधजन ही नहीं, विबुधाजन वन्दनीय है। उनका यही रूप आर्य संस्कृति का सर्वस्व है। गोस्वामी जी उनके इसी रूप के उपासक हैं। भगवान् श्री रामचन्द्र की बाताें को सुनकर सीतादेवी ने क्या कहा, अब उसको उन्हीं के शब्दाें में सुनिए।

    कौसल्यादेवी के सामने जनकनन्दिनी के सीधो पति से बातचीत करने में मर्यादा बाधाक थी। अतएव उन्होंने उन्हीं का सहारा ढूँढा, किन्तु इसमें उनको सफलता न हुई। भगवान श्री रामचन्द्र ने ऐसी बात कही कि उन्हें बोलने की नौवत आयी। इसलिए पहले उन्होंने -

लागि सासु पग कह कर जोरी! छमबि देवि बड़ि अविनय मोरी।

    इस पद्य में कितनी मर्यादाशीलता है। 'छमबि देवि बड़ि अविनय मोरी' में उनके सरल और विनम्र हृदय की कितनी सुन्दर प्रतिच्छाया है। सास से अविनय की क्षमा माँगकर उन्होंने पतिदेव से कुछ कहा, उससे पति - प्रेम का प्रवाह उमड़ पड़ता है। उसका एक - एक शब्द बड़ा ही भावमय है। उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए -

मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुख जग नाहीं।

तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद - विधाु सुरपुर नरक समान।

मातु पिता भगिनी प्रिय र्भाई। प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई।

सास ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुन्दर सुसील सुखदाई।

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहिं तरनिहु ते ताते।

तनु धानु धााम धारनि पुर राजू। पतिबिहीन सबु सोक समाजू।

भोग रोग सम, भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू।

प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कुछ नाहीं।

जिय बिनु देह, नदी बिनु बारी। तैंसिहि नाथ पुरुष बिनु नारी।

नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे। सरद बिमल बिधाु बदनु निहारे।

    विवाह काल में सप्तपदी के समय पत्नी प्रतिज्ञा करती है -

आर्ते आर्ता: भविष्यामि सुख:दुखविभागिनी।

तवाज्ञां पालयिष्यामि पंचमे सा पदे वदेत।

    आर्त होने पर आर्त हूँगी, सुखदु:ख भागिनी हूँगी और तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगी। कहा जा सकता है कि इस प्रतिज्ञा के अनुसार उनको वही करना चाहिए था, जो पति ने कहा, क्या यह अमर्यादा नहीं? पहली बात यह कि आपत्काले नियमो नास्ति। दूसरी बात यह है कि उन्हाेंने अवज्ञा क्या की? कोई आज्ञा होने पर उसके पालन करने में जो बाधााएँ उपस्थित होंगी, क्या उनका निवेदन करना आज्ञा न मानना है? आज्ञा मानने की अपेक्षा पति की दु:ख - सुख संगिनी होना, उनके लिए जीवन उत्सर्ग करना, क्या अधिाक संगत नहीं? सीतादेवी की चेष्टा यही तो है, स्त्राी का सर्वस्व पति ही तो है, फिर यहाँ तो प्राण की बाधाा उपस्थितहै।

राखिअ अवधा जो अवधिा लगि, रहत जानिअहिं प्रान।

    ऐसी अवस्था में उन्हाेंने जो कुछ निवेदन किया, उसमें विप्रतिपत्तिा क्या? जो स्त्राी - धार्म है, जो शास्त्रासंगत बात है, वही तो वे कह रही हैं -

नास्ति स्त्राीणां पृथग्यज्ञ, न व्रतं नाप्युपोषितम्।

पतिं शुश्रूषते येन, तेन स्वर्गे महीयते।

पाणिग्राहस्य साधवी स्त्राी, जीवतो वा मृतस्य वा।

पतिलोकमभीप्सन्ती, नाचरेत्ंकिचिदप्रियम्।

(मनु.)

सा भार्या या गृहे दक्षा, सा भार्या या प्रजावती।

सा भार्या या पतिप्राणा, सा भार्या या पतिव्रता।

(व्यास.)

मितं ददाति जनको, मितं भ्राता मितं सुत:।

अमितस्य हि दातारं, भर्तारं पूजयेत्सदा।

(शिवपुराण)

पतिरेको गुरु: स्त्राीणाम् (चाणक्य. शिवपुराण)

    स्त्राी को न तो कोई यज्ञ करने की आवश्यकता है, न व्रत - उपवास की। पति की सेवा करने से ही वह स्वर्ग में आदृत होती है। पति - लोक की कामना करनेवाली साधवी स्त्राी, चाहे जीवित पति हो चाहे मृत, उसका अप्रिय कभी न करे। भार्या वही है, जो गृह - कार्य में दक्ष हो, सन्तानवाली हो, पतिप्राणा और पतिव्रता हो। पिता, भ्राता, पुत्रा थोड़ा देनेवाले हैं, सब कुछ देनेवाला पति ही है। इसलिए वह सदा सत्कार योग्य है। स्त्रिायों का गुरु एक पति ही है।

    श्रीमती जानकी देवी के निवेदन में आर्य - सिध्दान्तों की धवनि के सिवा और क्या है? हाँ, उनके हृदय के समान उनकी उदात्ता उक्तियाँ अवश्य हैं। इस कथन में कितनी सत्यता है - पिय वियोग सम दुखु जग नाहीं। इसीलिए 'तन धानु धााम धारनि पुर राजू। पति बिहीन सब सोक समाजू' है, और 'भोग रोग सम भूषन भारू'! जब रघुकुल कुमुद बिधाु बिना सुरपुर नरक समान है, तब 'जम जातना सरिस संसारू' का होना क्या आश्चर्य? फिर वे क्यों ने कहतीं - प्रान नाथ तुम बिनु जगमाहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं। ' जब वे मातु - पिता भगिनी इत्यादि बडे - बडे सम्बन्धिायों का नाम सुन्दर विशेषणों के साथ गिनाकर यह कहती हैं 'जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिन तिय तरनिहु ते ताते,' तब वे किस ज्वाला की ओर संकेत करती हैं, क्या यह बतलाना होगा? विरह ज्वाला की बातें कौन नहीं जानता। विरहिणी को कौन नहीं जलाता। चाहे यह उसकी मानसिक आधिा का ही फल हो, उसको अनुभव ऐसा ही होता है। उसको सुधााकर किरणें भी अग्निमयी ज्ञात होती हैं और मलय समीर शेष - वास और अधिाक क्या कहें। उन्होंने यह बात कितनी दूर की कही, 'जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिहि नाथ पुरुष बिनु नारी। ' सत्य है और कामिनी - कल्लोलिनी का सलिल। किन्तु इस बात को सीतादेवी सदृश पति - प्राणा देवी ही समझ और कह सकती हैं।

    इसके उपरान्त उन्होंने यह कहा -

खग मृग परिजन, नगरु बनु, बलकल बिमल दुकूल।

नाथ साथ सुरसदन सम, परनसाल सुख मूल।

बन देवी बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम प्यारा।

कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई।

कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवधा सौधा सत सरिस पहारू।

    आजकल खाओ, पीओ, आराम करो का वज्र निर्घोष ही सुनायी पड़ रहा है, ऐसी अवस्था में सीतादेवी की बातों को कौन सत्य स्वीकार करेगा? खग - मृग को परिजन, वन को नगर, वल्कल को विमल दुकूल, पर्णशाला को सुरसदन सूखमूल कौन मानेगा? क्या ऐसा माना जा सकता है? ये तो चिकनी - चुपड़ी बातें हैं, वनदेव, वनदेवी सास - ससुर नहीं बन सकते। कुस किसलय साथरी, मनोज तुराई नहीं कही जा सकती, न तो कन्द मूल फल अमृतमय आहार हो सकते हैं। और न अवधा के सैकड़ों सौधाौं के समान पहाड़ एवं न कोई बुध्दिमती स्त्राी ऐसा कह सकती है। हाँ, यह कवि - कल्पना हो सकती है। हृदय सबके पास है, जीभ सबके मुँह में है, जो जिसके मन में आए, कह सकता है, जो चाहे सोच सकता है। परन्तु यह अक्षरश: सत्य है कि जो कुछ श्रीजानकीदेवी ने कहा, वह आर्य ललना के हृदय का सच्चा उद्गार है। यदि हम विवेक की ऑंखें खोल लें, तो भारतीय कुलबाला के मानस - दर्पण में यह भाव बहुत ही स्पष्ट रूप में प्रतिबिम्बित दिखायी देगा। श्रीमती सीतादेवी स्वयं इसके लिए प्रमाण हैं - जिन्होंने एक - दो दिन नहीं, लगभग चौदह वर्ष भगवान् श्रीरामचन्द्र के साथ इसी भाव से व्यतीत किए। उनके उद्गारों का प्रतिपादन निम्नलिखित पद्य बड़ी ही दृढ़ता से करते हैं -

नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे। सरद बिमल विधाु बदन निहारे।

छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी।

मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।

    वास्तविक सुख का सम्बन्धा हृदय के भावों से है, किसी पदार्थ अथवा वस्तु विशेष से नहीं। इन पद्यों को पढ़कर इस बात को सत्य प्रेम का पथिक भली - भाँति समझ सकता है। प्रेम प्रेम के लिए होता है, सुख - उपभोग के लिए नहीं। जो प्रेम सुख कामना पर उत्सर्गर्ित है, वह प्रेम नहीं, प्रेम का आडम्बर मात्रा है। सच्चे प्रेम में कष्ट की अनुभूति होती ही नहीं।

    सीतादेवी कहती हैं -

बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय विषाद परिताप घनेरे।

प्रभु वियोग लवलेस समाना। सब मिलि हाेंहि न कृपानिधााना।

    सत्य प्रेम में अहंभाव नहीं होता, उसमें सेवाभाव ही प्रबल होता है। सत्य प्रेम सूर्य है, उसके सामने अहंभाव - अन्धाकार ठहर नहीं सकता, उसको अवलोकन कर सेवा - भाव सरसिज अवश्य विकसित होता रहता है। भगवती जानकी में यह भाव कितना जाग्रत है, देखिए -

सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।

पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं।

श्रम कन सहित स्याम तनु देखे। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखे।

सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी।

    इन पंक्तियों में कितना आत्मनिवेदन है, कितनी अमायिकता और सरलता है, कितनी हित कामना और सहानुभूति है, यह निर्बल हृदय की अवतारणा नहीं, सबल चित्ता की उदात्ता भावमयी सुन्दर प्रस्तावना है। प्रवंचनामय मानस की प्ररोचना नहीं, 'मनस्येकं वचस्येकं क्रियास्येक। ' की सत्यतामयी विभावना है। स्वार्थ साधान की कपटभरी आयोजना नहीं, कर्तव्य ज्ञान की भक्तिभरी साधाना है।

    भगवान श्रीरामचन्द्र ने विपिन की भयंकरता का बड़ा विशद् वर्णन किया था और यह भी कहा था -

नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट वेष बिधिा कोटिक करहीं।

    सीतादेवी इसका कितना सुन्दर और गम्भीर उत्तार देती हैं, सुनिए -

बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही।

को प्रभु संग मोहि चितवनिहारा। सिंघ - बधाुहिं जिमि ससक सिआरा।

    इस उत्तार में कितना आत्मविश्वास है और कितनी पतिनिर्भरता है, कितनी प्रीतिपरायणता और तेजस्विता है - इसका अनुभव प्रत्येक सहृदय प्राणी कर सकताहै।

    श्रीरामचन्द्रजी ने यह भी कहा था 'हंस गवनि तुम्ह नहीं बन जोगू। ' इसका उत्तार बड़ा ही हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी है। कहीं भी जानकीदेवी ने व्यंग्य से काम नहीं लिया है। बहुत धाीर भाव से संयत उत्तार ही देती चली गयी हैं। किन्तु इस पंक्ति का उत्तार बड़ा ही व्यंजनामय है, साथ ही उसमें इतनी स्वाभाविकता है कि पढ़कर चित्ता लोट - पोट हो जाता है -

मैं सुकुमारि, नाथ बन जोगू? तुम्हहि उचित तप, मो कहुँ भोगू?

    इस बचन - रचना की बलिहारी। इसको कहते हैं, 'कागज पै रख दिया है कलेजा निकालकर। ' कितनी मीठी चुटकी है, साथ ही कितनी प्रेम भरी?

    शास्त्राों में स्त्राी को सहधार्मिणी कहा गया है, सहधार्मिणी का अर्थ है समान धार्मवाली। सच्ची गृहिणी वही है, जो पति के भावों को समझती है और बिना कहे उसकी पूर्ति करती है। पति ने जब मुँह खोलकर कुछ कहा और तब स्त्राी ने कोई कार्य किया, तो वह सहधार्मिणी कहाँ रही। जिस स्त्राी ने पति के हृदय को नहीं पहचाना, उसके कर्तव्य को नहीं समझा, जो उसकी जीवन - यात्राा के अनुकूल अपने को नहीं बना सकी, किसी स्थलविशेष पर पति का क्या धार्म है - जो इसकी मर्मज्ञ नहीं, वह सहधार्मिणी होने का दावा नहीं कर सकती। विवाह के समय वर कन्या से कहता है -

मम ब्रते ते हृदयं दधाामि, मम चित्तामनुचित्तां ते अस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व, प्रजापतिस्त्वा नियुनक्तुमह्यम्।

    मेरे ब्रत की ओर तम्हारा हृदय खिंचे, मेरे चित्ता के अनूकुल चित्ता हो, एकमना होकर मेरी बात मानो, प्रजापति तुमको मुझसे सम्बन्धिात करें।

    विवाह के अन्त में कन्या को धाु्रव का दर्शन कराया जाता है, वह धा्रुव को देखकर कहती है - धा्रुवमसि धाु्रवं त्वां पश्यामि। अयि धाु्रव, तुम अचल - अटल हो, मैं तुम्हें देखती हूँ। इसका भाव यह है कि विवाह कार्य में पति के द्वारा मुझसे तो प्रतिज्ञाएँ करायी गयी हैं अथवा मैंने स्वयं जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, उनपर मैं धाु्रव के समान अचल - अटल रहूँगी। सप्तपदी के समय वह यह भी कहती है -

यज्ञे होमे च दानादौ भविष्यामि त्वया सह।

धार्मार्थकामकार्येषु वधाू: षष्ठे पदे वदेत्।

    यज्ञ, होम और दानादि में, धार्म, अर्थ और काम में, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगी, इसीलिए अर्ध्दे भार्या मनुष्यस्य' है। इसीलिए स्त्राी अधर्ाांगिनी है और इसीलिए सहधार्मिणी। रामायण में इस संस्कृति का बड़ा ही उत्ताम निदर्शन है। गोस्वामी जी लिखते हैं -

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामु गुह लखन समेता।

केवट उतरि दण्डवत कीन्हा। प्रभुहि, सकुच, एहि नहिं कछु दीन्हा।

पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुँदरी मन मुदित उतारी।

    गोस्वामी जी की इस उक्ति में कि 'प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा में बड़ा स्वारस्य है। प्रभु शब्द का प्रयोग कितना सार्थक है? साधाारण जन होते तो इस विषय में वे कुछ लापरवाही भी कर सकते, किन्तु प्रभु का ऐसा करना बड़ा ही अनुचित था। बड़ी ही मर्यादा विरुध्द बात थी। फिर उसके साथ, जो जीभ नहीं हिला सकता। बडे लोगों के लिए दीनों, अकिंचनों की सहायता करने के लिए इस प्रकार के अवसर बडे ही सुन्दर होते हैं। सेवा करनेवाला बड़ों से बड़ी आशा रखता भी है। कम से कम भगवान् को निषाद की मूँठी अवश्य भर देनी चाहिए थी, किन्तु कहाँ, वे तो कुछ न दे सके। तापस वेष में उनके पास था ही क्या। फिर उनके जी को चोट क्यों न लगती, और वे क्यों न संकुचित होते। सीतादेवी सतीशिरोमणि हैं, सच्ची सहधार्मिणी और अधर्ाांगिनी हैं, उन्हाेंने पतिदेव के हृदय की बात जान ली और तत्काल मुदित मन से मणिजटित मुँदरी उतार दी। गोस्वामी जी के शब्दों की मार्मिकता देखिए -

पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनिमुदरी मन मुदित उतारी।

    कैसी मँदरी उतारी? मणिजटित। कैसे उतारी? मुदित मन से। स्त्रिायों को गहना बड़ा प्यारा होता है, उनको उसे अलग करते समय बड़ी कठिनता होती है, पीड़ा भी होती है। वे आसानी से उसे किसी को देना नहीं चाहतीं। जब्र करके कोई भले ही ले ले। यह साधाारण गहनों की बात है, और मणिजटित गहना? वह तो कलेजे में छिपाकर रखने की चीज है। उसका तो नाम ही न लीजिये। किन्तु सीतादेवी ने वैसी ही ऍंगूठी उतारी। और वह भी मुदित मन से, जरा - सा तेवर भी नहीं बदला, पेशानी पर शिकन तक नहीं आयी। क्याेंकि उनका सर्वस्व तो उनका जीवनधान है, उनका सौन्दर्य तो उनके हृदय का सौन्दर्य है। जो पतिप्र्रेम के आभूषण से आभूषित है, उसको भूषणों की क्या आवश्यकता। जिसे पति की अनुकूलता वांछनीय है, जो पतिमर्यादा की भूखी है, गहनों पर उसकी लार नहीं टपकती। यह चिर संचित आर्य - संस्कृति है। भगवती जनकनन्दिनी इसका उच्चतम आदर्शहैं।

    आधाुनिक काल में भी इस प्रकार के आदर्शों का अभाव नहीं। एक प्रसंग आप लोगों को सुनाता हूँ। देश पूज्य, दयासागर, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का पवित्रा नाम आपलोगों ने सुना होगा। उनकी स्त्राी बड़ी साधवी थी। विद्यासागर महोदय की उदारता लोक विश्रुत है। एक बार एक ब्राह्मण उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और उसने विनय की कि मैं कन्यादान से आकुल हूँ, यदि आपने कृपा नहीं की तो मेरा निर्वाह होना कठिन है। उसने दो सौ रुपये की आवश्यकता बतलायी। उस समय उनके पास कुछ नहीं था, वे चिन्तित हुए। ब्राह्मण को बाहर बैठाया और आप अन्दर गए। सामने उनकी सहधार्मिणी आ गयीं। उन्हाेंने पति के मुख की ओर देखा और पूछा - आप चिन्तित क्यों हैं? उन्होंने कहा - एक ब्राह्मण कन्यादानग्रस्त है और दो सौ रुपये की उसको आवश्यकता है, परन्तु इस समय तो मैं बिलकुल रिक्तहस्त हूँ। साधवी के नेत्राों में जल आ गया, उन्होंने कहा, मेरे हाथ के सोने के कडे क़िस काम आयेंगे। यह कहकर उन्हाेंने अपने कडे उतारे और पतिदेव के हाथ पर उनको रख दिया। अपनी पत्नी की उदारता देखकर उनके अश्रुपात होने लगा, वे अश्रुविसर्जन करते ही बाहर आये और उत्फुल्ल हृदय से उन्होंने कडे ब्राह्मणदेव को सादर देकर कहा, मेरी स्त्राी ने आपको अर्पण कियाहै।

    रामायण की संस्कृति की बातें सुनाते - सुनाते एक अन्य प्रसंग भी मैंने आप - लोगों के समाने उपस्थित कर दिया - केवल इस विचार से कि जिसमें आपलोग आर्य संस्कृति की व्यापकता का अनुभव कर सकें। आर्य बहुत उदात्ता है। और आज इस प्रतिकूल काल में भी वह बहुत व्यापक है। हिन्दू जाति पर तो उसका प्रभाव है ही, यहाँ की मुसलमान जाति और ईसाइयों पर भी उसका असर देखा जाता है। कारण इसका यह है कि उनमें अधिाकांश हिन्दू सन्तान ही हैं। चिरकालिक संस्कार नाश होते - होते होता है। तत्काल अथवा थोडे समय में उसका सर्वथा नाश नहीं होता । यह सच है कि समय की प्रतिकूलता का सामना उसे करना पड़ रहा है, पाश्चात्य विचार भी उसे दबा रहे हैं, किन्तु सूर्य कब तक बादलों में छिपा रहेगा। काल पाकर बादल टलेंगे और वह फिर वैसा ही जगमगाता दिखलायी पडेग़ा। दूसरी बात यह है कि आर्य संस्कृति के भाव उदात्ता और सर्वदेशी हैं। एकदेशिता उनमें कम है। इसलिए पंचभूत के समान ही वे उपयोगी हैं। आवश्यकतानुसार उनका कुछ रूप बदल सकता है। वे सर्वथा परित्यक्त नहीं हो सकते। रामायण और महाभारत के अनेक अंश और अनेक उपदेश जैसे हिन्दू जाति के उपकारक और शिक्षक हैं, वैसे ही संसार की अन्य जातियों के लिए भी हैं। यूरोप में भी उनके अनुवाद आदर से पढे ग़ये हैं और विजातीय सहृदयों ने भी उनकी दिल खोलकर प्रशंसा की है। ऐसी अवस्था में उनकी उपयोगिता अप्रकट नहीं। रामायण की संस्कृतियों का संकलन कर यदि उनपर प्रकाश डाला जाए और उन पर मननपूर्वक लेख लिखे जाएँ, तो मेरा विचार है कि वर्तमानकाल में उससे बड़ा लाभ हो सकता है। अन्त में अपनी निम्नलिखित सवैया द्वारा गोस्वामी जी का गुणगान करते हुए मैं इस लेख को समाप्त करता हूँ -

बन राम रसायन की रसिका, रसना रसिकों की हुई सफला।

अवगाहन मानस में करके, जन - मानस का मल सारा टला।

बनी पावन भाव की भूमि भली, हुआ भावुक - भावुकता का भला।

कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।

(असंकलित)

 


 

 

 

 

 

 

तुलसीदास का महत्तव

 

 

सवैया

बन राम - रसायन की रसिका रसना रसिकों की हुई सफला।

अवगाहन मानस में करके जन मानस का मल सारा टला।

बने पावन भाव की - भूमि भली हुआ भावुक भावुकता का भला।

कविता करके तुलसी न लसे कविता लसी पा तुलसी की कला। 1

 - हरिऔधा

कसौटी

    समालोचकों में मैथ्यू आर्नोल्ड का स्थान बहुत ऊँचा है। वे कहते हैं - ''कविता यथार्थ में मानव - जीवन का सूक्ष्म विश्लेषण है। कवि की महत्ताा इसी में है कि वह विचारों को बड़ी कुशलता से जीवन के उपयुक्त कर दे। जब मनुष्य सत्य को सबसे श्रेष्ठ भाषा में प्रकट करता है तब वही भाषा कविता हो जाती है। ''

    अल्फ्रेड लायल कहते हैं - ''किसी युग के प्रधाान भावों और उच्च आदर्शों को प्रभावोत्पादक रीति से प्रकट कर देना ही कविता है। ''

    स्वर्गीय बाबू द्विजेन्द्रलाल राय का कथन है -

    ''कविता का राज्य सौन्दर्य है, वह सौन्दर्य बहिर्जगत में भी है और अन्तर्जगत में भी है। जो कवि केवल बाहर के सौन्दर्य का ही वर्णन सुन्दर रूप से करते हैं, वे कवि हैं, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु जो कविजन मनुष्य के मन के सौन्दर्य का भी सुन्दर रूप से वर्णन करते हैं, वे बहुत बडे क़वि या महाकवि हैं। '' ''बाह्य सौन्दर्य - वर्णन की अपेक्षा भीतरी सौन्दर्य के वर्णन में कवि की अधिाक कवित्व - शक्ति प्रकट होती है। बाहरी सौन्दर्य, भीतरी सौन्दर्य की तुलना में स्थिर, निष्प्राण और अपरिवर्तनीय है। ''

    मनुष्य के हृदय में घृणा भक्ति का रूप धाारण कर लेती है, अनुकम्पा से प्रेम की उत्पत्तिा होती है और प्रतिहिंसा से कृतज्ञता का जन्म हो सकता है। जो कवि इस परिवर्तन को दिखा सकता है, जिसने अन्तर्जगत के इस विचित्रा रहस्य को खोलकर देखा है, उसके आगे मानसिक पहेलियाँ आप ही स्पष्ट हो गयी हैं, उसके निकट मनुष्य - हृदय की गूढ़तम जटिल समस्याएँ सरल और सहज हो जाती हैं। उसकी इच्छा के अनुसार नयी - नयी मोहिनी मानसी प्रतिमाएँ मूर्ति धाारण करके पाठकाें की ऑंखों के आगे खड़ी होती हैं, उसके इशारे से अन्धाकार दूर हो जाता है, उसकी जादू की लकड़ी के स्पर्श से निर्जीव सजीव हो जाता है, उसका कवित्व - राज्य दिगन्त प्रसारित उछ्वासपूर्ण समुद्र के समान रहस्यमय है। ''

कालिदास और भवभूति

    जिसकी रचना के भीतर एक समस्त देश, एक समग्र युग, अपने हृदय को, अपनी अभिज्ञता को व्यक्त कर उसको मानव जाति की चिरन्तन सामग्री बना देता है; उसी कवि को महाकवि कहा जाता है। समग्र देश की और समस्त जाति की सरस्वती उसका आश्रय ग्रहण कर सकती है। ये लोग जो रचना करते हैं, उसको किसी व्यक्ति विशेष की रचना नहीं मानी जा सकती। ऐसा ज्ञात होता है, मानो वह बृहत् वनस्पति के समान देश के भूतल - जठर से उत्पन्न होकर उसी देश को ही आश्रय - छाया प्रदान करती है। शकुन्तला और कुमारसम्भव में विशेष भाव से कालिदास के निपुण हस्त का परिचय मिलता है; किन्तु रामायण और महाभारत के विषय में यह ज्ञात होता है कि भगवती भागीरथी अथच हिमाचल की भाँति वे भारत के ही हैं, व्यास वाल्मीकि उपलक्ष्य मात्रा हैं।

    कसौटी का परिमाण कुछ बढ़ गया, किन्तु यदि वह उपयोगी है तो अपेक्षित है। किसी का महत्तव प्रतिपादन सहज साधय नहीं, उसके लिए उपपत्तिा चाहिए। उस समय यह कार्य और दुस्तर हो जाता है, जब वह तुलनामूलक होती है। गोस्वामीजी का व्यक्तिगत महत्तव बहुत कुछ है, वह शरद ऋतु के सुनील नभोमण्डल के समान निर्मल अथच राका रजनी के मयंक समान कमनीयकान्ति - निकेतन है। किन्तु मेरा प्रतिपाद्य वह नहीं है, मुझको उनके काव्य का महत्तव देखना है। मैं उनकी कविता की गौरव - गरिमा निरूपण करना चाहता हूँ। कविता कविहृदय का प्रतिबिम्ब है, वह उसमें ऐसा ही प्रतिबिम्बित रहता है, जैसे दर्पण में छाया। किन्तु, यह परोक्ष विषय है, मैं प्रत्यक्ष विषय से काम लेना चाहता हूँ। मैं देखूँगा कि हिन्दी संसार में कविकुल तिलक तुलसीदास की कविता का क्या महत्तव है; इसलिए मुझको कसौटी की आवश्कयकता र्हुई। जो कसौटी सामने रखी गयी है, आइए उस पर हम आप गोस्वामीजी की रचना और हिन्दी के अन्य कतिपय लब्धाप्रतिष्ठ महाकवियों की कृतियों को कसें, देखें उन कृतियों से उनकी रचना में कुछ महत्तव है या नहीं और यदि है तो वह साधाारण है या आसाधाारण। उसमें कुछ विशेषता है या नहीं, यदि विशेषता है तो क्या?

    कसौटी में मानव - जीवन, मानव - आदर्श, मानव - उच्चभाव और मानव के महान हृदय की ओर ही विशेष लक्ष्य है। चिन्त्य यह है कि मानवता क्या है? आहार - विहार, निद्रा, भय, मैथुन और स्वार्थसाधान में मानव एवं पशु में कोई भिन्नता नहीं है, इन विषयों में दोनों समान हैं। अतएव यदि मनुष्य आहार - विहार के लिए ही उद्योगशील रहा, रात्रिा में नींद भर सोया और प्रात:काल उठकर जीवन - यात्राा में संलग्न हुआ; भय से त्रााण पाने के लिए प्रतिपक्षियाें का सामना करता रहा, अथवा उनसे सुरक्षित रहने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न सोचता रहा; कामिनीकुल में कमनीय वदनारविन्द का भ्रमर रहा, उनके हाव, भाव, विभ्रम और विलासों पर ही लोट - पोट होता रहा; स्वार्थ - रक्षा को ही आत्म - सर्वस्व समझता रहा, तो पशुता ही उसका आदर्श रही, मानवता उसमें कहाँ है। वास्तव बात यह है कि मानवता आत्म - त्याग में है। जब मनुष्य स्वार्थ की उपेक्षा करके परमार्थ की ओर दत्ताचित्ता होता है, जब सत्य और न्याय पर अपने जीवन के सुख समूह को उत्सर्ग करता है, जबर् कत्ताव्यज्ञान उसकी दृष्टि में त्रिालोक के राज्य को अकिंचित्कर बनाता है, तभी वह मानवता के उच्च सोपान पर आरूढ़ होता है। जब हृदय में द्वन्द्व उपस्थित होने पर मानव धार्मसंगत व्यापार को सुसंगत समझता है, जब उदरभरी कामनाओं की नरक यन्त्राणा से त्रााण पाकर वह लोकहितकरी रुचि अमरावती में सानन्द विचरण करता है, जब वह जानता है आत्मनियम मन्दान्दोलित मलय पवन है, समाज उन्नयन नन्दन कानन है, लोकहित कुसुम - संचयन स्वर्गीय सुख है, संसार - सुखसमृध्दिसंवर्धान अलौकिक लाभ है, तभी उसमें मानवता स्वीकृत हो सकती है। जिस रचना में इस मानवता के आदर्श - चरित चित्रिात हों, जो कविता उसके अलौकिक आलोक से आलोकित हो, जो काव्य उसकी पावना से पवित्राीभूत हो, जो भारती उसके भव्य भावों से भरित हो, जो विचारमाला उसकी महत्ताा से महिमामयी हो, यदि दिया जा सकता है तो उसी को महत्तव दिया जा सकता है। जिस रचना अथवा कविता कलाप में जितनी अधिाक मात्राा से मानवता का प्रदर्शन होगा, वह कविता रचना उतनी ही अधिाक मात्राा में महत्तव की अधिाकारिणी होगी।

    इन बातों पर दृष्टि रखकर अब हम हिन्दी संसार के शिरोमणि कविवृन्द की रचनाओं और कविता कलाप की आलोचना में प्रवृत्ता होते हैं और देखना चाहते हैं कि किसकी कविता अथवा ग्रन्थ में कितना महत्तव है।

महाकाव्यकार

    इस अवसर पर हिन्दी संसार के प्रसिध्द महाकाव्यकार ही तुलना के लिए मनोनीत किए जा सकते हैं, क्योंकि 'योग्य: योग्येन युज्यते'। तारे तारापति का सामना नहीं कर सकते, पावन सलिल भगवती भागीरथी की तुलना एक साधाारण्ा तरंगिणी से नहीं हो सकती। इस सूत्रा से जब हम अग्रसर होते हैं, तो सबसे पहले एक वीरधार्म्मा महाकवि पर हमारी दृष्टि पड़ती है। जिस प्रकार उसकी राज्य - परिचालन - शक्ति लोकोत्तारा है, उसी प्रकार उसकी लेखनी परिचालना भी मनोमुग्धाकारिणी है। जिस प्रकार वह समरांगण में अवतीर्ण होकर कीर्तिकला से अलंकृत होता है, उसी प्रकार वह साहित्य क्षेत्रा में भी पदार्पण कर सुयश कुसुम संचयन में निपुणता का परिचय देता है। यदि उसके शिर पर राजमन्त्राी होने का सुन्दर मुकुट सुशोभित है, तो उसके विशाल मस्तक पर महाकवि होने का भी कलित क्रीट विराजमान है। वह नवरससिध्द महाकवि है, वह हमारा चॉसर है, उसकी कविता सुन्दर समलंकृता है, वीर रस की निर्झरिणी है। वह कविकुलगुरु वाल्मीकि - समान हिन्दी का आदि कवि है। उन्हीं के समान प्रकाण्ड और कमनीय काव्य का रचयिता है। उसने बडे अनूठे बेलबूटे तराशे हैं, बडे क़ान्त कुसुम चुने हैं, भाव प्रवाह उसका अमूल्य है, और उसकी प्रतिभा चमत्कारिणी है। वह साहित्य - कानन - केशरी है, वीर रस का अवतार है, अतएव उसके प्रसिध्द काव्य पृथ्वीराजरासो में विचित्रा तर्जन गर्जन है - किन्तु उल्लिखित कसौटी के आलोक में जब हम इस ग्रन्थ का अवलोकन करते हैं तो अवगत होता है कि मानवता के वे मनोहर चरित जो किसी जाति की सम्पत्तिा होते हैं, इस ग्रन्थ में विरल हैं। कविवर चन्दबरदायी का काव्य इतिहास है और उसका अधिाकांश भाग पृथ्वीराज के आहार - विहार, युध्द - विग्रह, राग - रंग, क्रीड़ा - कौतुक, आनन्द - विनोद, इत्यादि से परिपूर्ण है। उसमें उदात्ता भाव भी हैं, लोकोत्तार चरित भी है, सामाजिक और धाार्मिक भावों का संकलन भी है, आत्मत्याग के चित्रा भी हैं, किन्तु गौणीभूत, प्राधाान्य उनमें नहीं है। प्राधाान्य पृथ्वीराज के व्यक्तिगत कार्यकलाप को ही है, और इसीलिए पृथ्वीराजरासो उसका सार्थक नाम है। किसी व्यक्ति के चरित्राचित्राण में वह सामाजिक आदर्श, जो किसी समाज को समुन्नत बनाता है, वह रहन - सहन की प्रणाली जो परम्परागत जातिजीवन का पावन पाथेय होती है। वह महान कार्य्यकलाप जिसकी व्यापकता कल कौमुदी समान जाति - हृदयगगनतलरंजिनी बनती है। वह मनोहर झंकार जो समाज और देश के प्रत्येक सहृदय की हृत्तान्त्राी को निनादित करती है, न तो इस ग्रन्थ में दृष्टिगत होती है और न श्रवण गोचर। अतएव वह महत्तव इस ग्रन्थ को नहीं प्राप्त होता जो उल्लिखित कसौटी के आदर्श का आधाार हो सके।

    दूसरी ओर दृष्टि डालने पर काव्य - गगन का प्रथित प्रभाकर प्रभा वितरण करता हुआ दृष्टिगत होता है। यह प्रभाकर बाल विभाकर है, यदि वह समुदित होकर व्योमतल को अरुण राग द्वारा आभूषित करता है, तो वह भी आविर्भूत होकर साहित्य - नभतल को अभूतपूर्व अनुराग - राग से अनुरंजित बनाता है। यदि वह जलद - जाल उत्पन्न कर जीवों को जीवन प्रदान करने में समर्थ होता है, तो यह भी अलौकिक काव्य - कला की सृष्टि कर उस सरस रस की वृष्टि करता है, कि जिसको पुन: पुन: पान करके भी चित्ता को तृप्ति नहीं होती। यदि उसके आलोक से विपुल तारकचय आलोकित हैं, तो इसकी ज्योतिर्मालाएँ भी विपुल कविकुलमानस को ज्योतिर्मयी बनाती हैं। हमारा यह कविता - कामिनी - कान्त सूर होकर भी वह ज्योति विकीर्णकारी उज्ज्वल नेत्रा रखता है, कि जिसकी दर्शनशक्ति महती और अवलोकन सामर्थ्य असीम है। वह भाव राज्य का चक्रवर्ती सम्राट् है, प्रतिभा कुलवधाू का शृंगार है, नवरस मधाुमास का वसन्त - समीर है, उक्ति आलापिनी का मधाुर निनाद है, व्यंजना अमरावती का पुरन्दर है, अलंकार विकच कमल का लावण्य है, और सरसता और सौभाग्यवती सीमन्त का सिन्दूर है। उसका सूरसागर रस का सागर, भाव का सुमेर, मधाुरता का मन्दिर, कान्त कवितावली का निकेतन, वाणी - विलास का विलास, भवन और वर्णना का विचित्रा क्रीड़ास्थल है। किन्तु मानवता की विविधा आदर्शमयी लोकपावन मूर्ति का दर्शन उसमें दुर्लभ है।

    सूर सागर के बाल - चरित - वर्णन की चारुता अवर्णनीय है, वात्सल्य रस उसमें छलकता मिलता है, कहीं - कहीं शान्ति रस की उछ्वासमयी पावन धाारा प्रखर गति से प्रवाहित है, वीर रस का भी अभाव नहीं है, अन्य रस भी यथास्थान बड़ी निपुणता के साथ अंकित हैं; किन्तु शृंगार रस ही उसका प्रधाान वर्णनीय विषय है, समस्त ग्रन्थ शृंगार रस से प्लावित है। इस प्लावन का प्रेम प्रवाह बड़ा ही मनोहर है; किन्तु उसमें शृंगार रस के अभव्य और अमनोरम र्आवत्ता भी विद्यमान हैं। प्रेम का वह उच्च आदर्श जिसका स्पर्श मरुस्थल को नन्दन - कानन में परिणत करता है, मानवता की वह महिमामयी मूर्ति जिसके पुनीत पदतल पर जातीय गौरव का कमनीय कुसुम - कदम्ब सादर समर्पित होता है, पारिवारिक परस्पर सम्बन्धा के वे आदरणीय व्यापार जो सांसारिक जनों के संसार को स्वर्गीय सुख का आधाार बनाते हैं, कौटुम्बिक प्रथा के वे सुन्दर निदर्शन जो कुटुम्ब में सुख - शान्ति संवर्धान के सूत्रा होते हैं, व्यावहारिक वे कार्यकलाप जिनमें आत्मोत्सर्ग की अद्भुत आभामयी मूर्ति विराजमान होती है। धाार्मिक भाव के वे महान रहस्य - समूह जो स्वार्थ संघर्षणजनित उत्ताापतप्त प्राणिपुंज को पारिजात तरुछाया समान सुखद अथच शान्तिप्रद होते हैं - पूर्ण कला से विकसित सूरसागर में नहीं पाए जाते। उनके किसी - किसी अंश का आभास उसमें भले ही हो।

    सामने देखिए, एक शान्तिमयी मूर्ति खड़ी है, पावनता उस पर पुष्प - वर्षण कर रही है, मर्यादा उत्सर्ग हो रही है, सहृदयता स्तव पाठ में संलग्न है और भावुकता उसकी प्रशंसा में सहò मुख है। उसके विशाल भाल पर विवेक का भव्य तिलक विराजमान है, प्रसन्न वदनमण्डल पर वन्दनीय भावों का विकास है, विस्फारित उज्ज्वल नेत्राद्वय से जगत - विमुग्धाकारी पवित्रा ज्योति विकीर्णिता है और सत्यं, शिवं, सुन्दरं के आनन्द कोलाहल से उसका पुनीत हृदयदेश स्फीत है। यह शान्तिमयी मूर्ति साहित्य - समाज - सरोवर का मराल है, जो नीर - क्षीर का सच्चा विवेक रखता है, जब चुगता है तब मोती चुगता है, और अपनी गौरवमयी गति से अपरमित मानव के मानसों को गौरवित बनाता है। उसकी पूत लेखनी के स्पर्श से सरसता पवीत्राीभूत हुई, मधाुरता स्वर्गीय मन्दाकिनी बनी, व्यंजना में मानवता व्यंजित हुई, धवनि में धार्म - धाुरन्धारता धवनित हो पड़ी, और कविता में लोकहितकारिता सुरसरिता की पवित्रा धाारा प्रवाहित होने लगी। उसकी प्रतिभा भगवती भारती की कमनीय कीर्ति है, सुरुचि मालिका की कलित कुसुमावलि है, मानसिक महत्ताा मनोरम कमल - कलिका की विकासक्रिया है और भावभव्यता कान्त कादम्बिनी की निर्मल सलिल धाारा है। वह उस रामचरितमानस का रचयिता है जो सत्साहित्य का सर्वस्व, लोकोत्तार चरित का भाण्डार, महान आदर्श का आदर्श, मानवीय महत्तव का निदर्शन और पुनीत कार्यकलाप - पयोधिा का धाीर प्रवाह है। वह मर्यादा - पुरुषोत्ताम भगवान रामचन्द्र की मर्यादाशीलता से मर्यादित है, पतिप्राणा विदेहनन्दिनी के प्रसिध्द पातिव्रतप्रसंग से प्रतिष्ठा - प्राप्त है, भारत - भुवि - भूषण महाप्राण भरत की महाप्राणता से महाप्राणित है और तेजस्विता मूर्ति सुमित्राासुवन की चकितकरी तेजस्विता से तेज:पुंज कलेवर है। उसमें सत्यव्रत महाराज दशरथ जैसे आदर्श पिता का, नितान्त कोमल हृदय ऐश्वर्यमयी कौसल्या जैसी आदर्श माता का, आत्मोत्सर्ग - व्रत - परायण सुमित्राा देवी जैसी आदर्श पत्नी का, आत्मत्याग मन्त्रा के प्रसिध्द देवता भरत और सुमित्राानन्दन जैसे आदर्श भ्राता का और सेवा समान कठोर कर्म के कर्म्मठ व्यक्ति पवनकुमार जैसे आदर्श सेवक का, उदात्ता चरित बड़ी ही ज्वलन्त भाषा में बहुत ही निपुण्ाता के साथ वर्णित है। वृध्दविवाह का क्या बुरा परिणाम होता है, स्त्राीवश्यता कितना अनर्थमूलक है, कुटिला दासी कैसे सोने के संसार को धाूल में परिणत करती है, मातृविरोधाी कैसे एक विशाल राज्य को भी भस्मसात् करता है, सर्वलोक विजेता होने पर भी एक अत्याचारी नृपति का किस प्रकार अचानक अधा:पात होता है, ये बातें इस ग्रन्थ में ऐसी शिक्षाप्रद रीति से अंकित हैं कि उनका पठन और मनन एवं उनसे समुचित उपदेश ग्रहण करके एक अनुन्नत समाज भी उन्नत हो सकता है और एक पतनप्राय देश भी विनाशगर्त में निपतित होने से बच सकता है। परम्परागत जो आर्य सभ्यता का उद्देश्य है, आर्य्यजाति - हृत्तान्त्राी का जो अत्यन्त प्रिय मधाुर निनाद है, उसका चिरअर्जित ज्ञानआलोक जो संसार को आलोकित करने का हेतु है, उसका वह उच्च विचार जो प्राणी - मात्रा पर सुधाावर्षण करता है, उसका वह आत्म - उत्सर्ग - मूलक प्रेम जो जीवमात्रा का जीवन सर्वस्व है, उसका वह उदार भाव जो भावुकता देवी का हृदयविलम्बी रत्नहार है, उसका वह अद्भुत ईश्वरीय संगीत जो आज भी जगत को विमुग्धा बना रहा है, यदि आप खोजेंगे तो सांगोपांग इसी ग्रन्थ रत्न में पावेंगे। ऐसी अवस्था में आप देखेंगे कि जो कसौटी मैंने आपके सामने उपस्थित की थी, उस पर कसने पर यही ग्रन्थ आदरणीय ठहरा। अतएव जिन ग्रन्थों को मैंने पहले तुलना के लिए सामने रखा था, उनसे और उनके रचयिता से इस ग्रन्थ और इस ग्रन्थ के रचयिता का महत्तव कितना अधिाक है, मैं समझता हूँ यह प्रतिपादन करने की आवश्यकता नहीं रही, तथापि मैं कुछ उदाहरण और प्रमाण भी उपस्थित करूँगा।

    गोस्वामीजी ने मर्य्यादा और सामंजस्य का रामचरितमानस में बड़ा धयान रखा है - हिन्दी संसार का कोई महाकवि इस विषय में उनका सामना नहीं कर सकता। वह धार्म्मनीति, समाजनीति, राजनीति निरूपण में अपने उदाहरण आप हैं, आज तक उनका समकक्ष उत्पन्न नहीं हुआ, आगे क्या होगा, इस विषय में कुछ कथन करना उचित न होगा, इसको समय स्वयं बतलावेगा। खेद है कि लेख बढ़ जाने के कारण मैं सब विषयों का उदाहरण नहीं दे सकता, तथापि दो - चार विषयाें का उदाहरण देने की चेष्टा करता हूँ। कविपुंगव कालिदास रघुवंश के आदि में लिखते हैं - 'वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्ताये। जगत: पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ' किन्तु, इन्हीं 'जगत: पितरौ', में से जगज्जननी पार्वती देवी की कुमारसम्भव के सप्तम सर्ग में वह पूजा की गयी है और उनपर मर्यादा की वह पुष्पांजलि चढ़ाई गयी है कि लिखते लज्जा लगती है। उस काल से अब तक शृंगार रस के कविगण इसी प्रकार मर्यादा को तिलांजलि देते आये हैं, और अपनी पूज्या और माननीया देवियों के नखशिख वर्णन के समय उनके अवर्णनीय अंगों के वर्णन में भी संकुचित नहीं हुए। जहाँ उनको दम्पती - विलास - वर्णन का अवसर हाथ आया, उस समय उन्होंने उस विलास को इस प्रकार अंकित किया है, कि एक साधारण मानवी का भी ऐसा विलास - वर्णन मर्यादाशील पुरुषों की दृष्टि में समुचित और सुसंगत न समझा जावेगा। जब अपनी माता के अंगों की भी वर्णना हम इस प्रकार नहीं कर सकते, जब ऐसा करते हमारी आत्मा संकुचित होती है, हमारे ऊपर सैकड़ों घडे ज़ल पड़ते हैं, भद्र समाज में मुख दिखाना दुस्तर हो जाता है, तो जगज्जननी के अंगों की वर्णना इस प्रकार क्यों की जाती है और क्यों ऐसा करते हमको आत्मग्लानि नहीं होती, यह बात समझ में नहीं आती। जो जगज्जननी ही नहीं, हमारी इष्ट देवी हैं, हमारे मुक्तिपथ की आधाारभूता हैं, क्या उसके अवर्णनीय अंगों का वर्णन कर उसके गोपनीय विहारों का स्वच्छन्द निरूपण कर हमारा घोर मानसिक अधा:पात नहीं होता, अवश्य होता है; किन्तु समय का प्रवाह बड़ा प्रबल होता है - सामयिक प्रवाह में सभी पड़ जाते हैं। उससे सुरक्षित रहना किसी लोकोत्तार पुरुष का ही कार्य है। भक्तप्रवर भक्ति और श्रध्दाभाजन हमारे कविकुलगुरु सूरदासजी शृंगार रस के आचार्य और आदर्श हैं। इस क्षेत्रा में जो कार्य उनका है वह अभूतपूर्व है। आज तक उसी का अनुकरण होता आ रहा है। उन्होंने इस विषय में लेखनी तोड़ दी है, और कमाल कर दिया है, और यही कारण है कि पश्चाद्वर्ती कविगण आज भी उनके प्रभाव से प्रभावितहैं।

    यदि वे चाहते तो प्रवाह की गति बदल देते, किन्तु ऐसा नहीं हुआ, वे स्वयं प्रवाह में पडे अौर प्रवाहित हुए। यदि इस प्रवाह में नहीं पडे तो महात्मा तुलसीदास नहीं पडे, क्योंकि उनका आदर्श था 'सरस कवित कीरति विमल, सोइ आदरहिं सुजान' और यही कारण है कि मर्यादा को वें तिलांजलि न दे सके और यह उनके महत्तव का एक उज्ज्वल उदाहरण है। परमाराधया श्रीमती राधिाका देवी और लोकललाम भगवान ब्रजबल्लभ का परस्पर प्रथम दर्शन जब हुआ, उस काल का वर्णन सूरदासजी इस प्रकार करते हैं।

चितै रही राधाा हरि को मुख।

भृकुटी विकट विसाल नयन युग देखत मनहिं भयो रतिपति दुख।

उतहि श्याम एक टक प्यारी छवि अंग अंग अवलोकत।

रीझि रहे उत हरि इत राधाा अरस परस दोउनो कत।

सखिन कह्यो वृखभानुसुता सों देखे कुँवर कन्हाई।

सूर श्याम एई हैं ब्रज में जिनकी होति बड़ाई।

    अब गोस्वामीजी के भगवान रामचन्द्र और सती शिरोमणि भगवती जनकनन्दिनी के प्रथम सन्दर्शन का वर्णन देखिए।

चौपाई

कंकन किंकिनि नूपुर धाुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि।

मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा विश्व विजय कर कीन्ही।

अस कहि फिर चितये तेहि ओरा। सिय सुख ससि भये नयन चकोरा।

भये विलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दृगंचल।

देखि सीय सोभा सुख पावा। हृदय सराहत बचन न आवा।

जनु विरंचि सब निज निपुनाई। विरचि विश्व कह प्रगट देखाई।

सुन्दरता कहँ सुन्दर करई। छविगृह दीपसिखा जनु र्बरई।

सब उपमा कवि रहे जुठारी। केहि पटतरिय विदेह कुमारी।

सिय सोभा हिय बरनि प्रभु आपन दसा बिचारि।

बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।

तात जनक तनया यह सोई। धानुख यज्ञ जेहि कारन होई।

पूजन गौरि सखी लै आई। करत प्रकाश फिरति फुलवाई।

जासु विलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मन छोभा।

सो सब कारन जान विधााता। फरकहिं सुभग अंग सुनु भ्राता।

रघुबंसिन कर सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पग धारहिं न काऊ।

मोहि अतिसय प्रतीत मन केरी। जेहि सपनेहु पर नारि न हेरी।

    भगवान रामचन्द्र की मानव स्वभाव सुलभ स्वाभाविकता, मर्यादाशीलता, धार्म्मपरायणता आपने देखी। इन चौपाइयों में 'सिय सोभा हिय बरनि प्रभु', 'आपन दसा बिचारि', 'बोले सुचि मन अनुज सन', 'सहज पुनीत मोर मन छोभा', इत्यादि वाक्य और अन्तिम तीन चौपाइयाँ कितनी भावव्यंजक हैं और उनकी धवनि कितनी पावनतामय है, इसको आपलोग स्वयं अनुभव करें, मैं उनकी व्याख्या करके इस लेख को बढ़ाना नहीं चाहता।

    अब श्रीमती जनकनन्दिनी की स्त्राीस्वभावसुलभ प्रीतिप्रवणता, लज्जाशीलता, और मर्यादा - महत्ताा देखिए -

चितवत चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गये नृपकिसोर मन चीता।

जहँ विलोक मृग सावक नयनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।

लता ओट तब सखिन लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।

देखि रूप लोचन ललचाने। हरखे जनु निज निधिा पहचाने।

थके नयन रघुपति छवि देखी। पलकनहूँ परिहरी निमेखी।

अधिाक सनेह देह भई भोरी। सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।

लोचन मग रामहिं उर आनी। दीन्हें पलक कपाट सयानी।

''धाीरज धारि एक अली सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।

बहुरि गौरि कर धयान करेहू। भूप किसोर देखि किन लेहू।

सकुचि सीय तब नैन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंह निहारे।

नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता प्रन मन अति छोभा।

''धारि बड़ि धाीर राम उर आने। फिरि आपनपौ पितुबस जाने''

    इसके उपरान्त वे जगज्जननी गिरिराजनन्दिनी की सेवा में उपस्थित होती हैं, और उनकी स्तुति करके कहती हैं -

पति देवता सुतीय महँ जननि प्रथम तव रेख।

    फिर निवेदन करती हैं -

मोर मनोरथ जानहु नीके। बसहु सदा उरपुर सबही के।

कीन्हेंउ प्रगट न कारन तेही। अस कहि चरन गही बैदेही।

    इस स्थल पर गोस्वामीजी ने जो भगवती नन्दिनी की महिमामयी मूर्ति अंकित की है, वह बड़ी ही गम्भीरतामयी है। उनको अपने हृदय का भाव प्रकट करने में मूर्ति के सामने भी संकोच है - वह कहती हैं तो यही कहती हैं -

    ''मोर मनोरथ जानहु नीके'' क्योंकि ''बसहु सदा उरपुर सब ही के''। कैसी अद्भुत लज्जाशीलता है। अपने हृदय के एक परम उदात्ता भाव का संकेत उन्होंने इस पद्य में किया है ''पति देवता सुतीय महँ जननि प्रथम तव रेख'' जो पतिव्रता है, वही पतिव्रता के मर्म्म को समझ सकती है। अतएव भगवती गिरिनन्दिनी को इस पद्य द्वारा वे यह व्यंजित करती हैं कि जब मैं भगवान रामचन्द्र को लोचनमार्ग से हृदय में ला चुकी - 'लोचन मग रामहिं उर आनी' तो यह पतिव्रत - धार्म्म के विरुध्द होगा कि किसी अन्य पुरुष को हृदय में स्थान दूँ। देखा आपने कविकर्म्म का महत्तव - अधिाक मैं क्या लिखूँ, दोनों महाकवियों की रचनाओं को स्वयं मिलाकर देखिए और निश्चित कीजिए कि किसकी रचना कितनी महत्ताामयी है। श्री सूरदासजी अपनी इष्टदेवी की शोभा यों वर्णन करते हैं -

आज अति राधाा नारि बनी।

प्रति प्रति अंग अनंग बिराजत, सबस करि त्रायलोक धानी।

शोभित केस विचित्रा भाँति दुति, शिखि शिखण्ड हरनी।

बिरचि माँग सभाग रागनिधिा काम धााम सरनी।

अलक तिलक राजत अकलंकित मृग मह अंक बनी।

खुभी जराव फूल दुति यों मनौं दुधारगति रजनी।

भौंह कमान समान बान मनो हैं युग नैन अनी।

नासा तिलक प्रसून बिंबाधार अमल कमल बदनी।

चिबुक मधय मेचक रुचि राजति बिन्द कुन्द रदनी।

कम्बु कण्ठ विधिा लोक विलोकत सुन्दरि एक गनी।

बाँह मृणाल लाल करपल्लव मद गज गति गवनी।

पति मन मणि कंचन संपुट कुच रोम राजि तटनी।

नाभि भँवर त्रिावली तरंग गति पुलिन तुलिन ठटनी।

कृश कटिपृथु नितम्ब किंकिनिपुत कदलि खम्भ जघनी।

रचि आभरण शृंगार अंग सजि रतिपति ज्यों सजनी।

जीते सूर श्याम गुन कारण मुखन मुरचो लगनी। 1

    अब गोस्वामी जी का वर्णन सुनिए - देखिए वे जानकी जी की शोभा किस प्रकार वर्णन करते हैं।

सिय सोभा नहिं जाय बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी।

उपमा सकल मोहि लघु लागी। प्राकृत नारी अंग अनुरागी।

जो पटतरिय तीय सम सीया। जग अरु युवति कहा कमनीया।

गिरा मुखर तनु अरध भवानी। रति अति दुखित अतनुपति जानी।

बिख बारूनी बंधाु प्रिय जेही। कहिय रमा सम किमि बैदेही।

जो छवि सुधाा पयोनिधिा होई। परम रूप मय कच्छप सोई।

सोभा रजु मन्दर शृंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।

एहि विधिा उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल।

तदपि सकोच समेत कबि कहँहि सीय सम तूल।

    गोस्वामीजी ने सौन्दर्यवर्णन की पराकाष्ठा कर दी है, इससे अधिाक रूपवर्णना क्या होगी। किन्तु यह वर्णना कितनी मर्यादित, कितनी महत्तवमय और कितनी भावपूर्ण है, इसको सहृदयगण स्वयं अनुभव करें, साथ ही यह भी सोचें कि इस वर्णन के सामने श्री सूरदासजी के छवि वर्णन का क्या महत्तव है। जो अन्तर स्वर्गीय मन्दाकिनी और कलिन्दनन्दिनी की धााराओं में है, क्या वही अन्तर इन दोनों वर्णनाओं में नहीं है। पहली उज्ज्वला, निर्मला, पावनतामयी, अथच स्वर्गविहारिणी है - दूसरी मनोरमा, सुन्दर सलिला, ललित तरंगवती होकर भी कालिमारहित नहीं है। समग्र रामचरित मानस में मर्यादा के ऐसे - ऐसे मनोरम और पूत आदर्श हैं, ऐसे उच्च विचारमय गार्हस्थ्य - जीवन के निदर्शन हैं, जिनका आभास भी अन्य हिन्दी भाषा के ग्रन्थों नहीं मिलता। खेद है कि स्थान संकोचवश मैं उन सबका दिग्दर्शनमात्रा भी नहीं करा सकता।

    गोस्वामीजी का सामंजस्य - स्थापन भी अभूतपूर्व है। उनका पदानुसरण आज तक हिन्दी संसार का कोई कवि उस सौन्दर्य और निपुणता के साथ नहीं कर सका। हिन्दू - समाज का अधिाकांश पंचदेवोपासक है, विष्णु - शिव - विरोधा उनके हृदय की प्यारी सामग्री नहीं, आज भी हिन्दू - समाज में सर्वकार्य के प्रथम गणेशजी की अर्चना होती है, आज भी भगवती वीणापाणि हिन्दुओं के हृदय - मन्दिर की अधिाष्ठात्राी देवी हैं, आज भी दुर्गतिनाशिनी दुर्गा देवी की आराधाना गृह - गृह में होती है। गोस्वामी जी ने अपने अपूर्व ग्रन्थ में सबका समादर किया है, सबकी उचित स्तुति की है और इनके भक्तिभाव को इस प्रकार अंकित किया है कि वह चिर प्रचलित हिन्दू - उपासना - पध्दति का आदर्श बन गया है। तथापि एकेश्वरवाद का जीता - जागता चित्रा उसमें मौजूद है और वह इतना रहस्यपूर्ण है कि उसी के अन्तर्गत समस्त देवताओं की उपासना का अन्तरभाव हो गया है। क्याेंकि वह जानते थे कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन', यह भाव उनके हृदय में इतना जागृत था कि उनकी लेखनी यह उदात्ता भाव प्रकट करने में समर्थ हुई - 'सिया राम मय सब जग जानी, करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी'। वास्तव बात तो यह है कि उनका यह व्यापक विचार ही उनकी सर्वप्रियता की कुंजी है। हमारे प्रिय बन्धाु बाबू शिवनन्दन सहाय ने गोस्वामीजी के निज रचित जीवन - चरित्रा में इस विषय में जो कुछ लिखा है, मैं उसको भी यहाँ अविकल उध्दाृत कर देता हूँ। देखिए -

    ''गोस्वामीजी धान्य हैं कि उन्होंने ऐसे समय में जबकि अत्याचारियों का खड्ग चतुर्दिक् चमा - चम चमकता हुआ, सर्वदा हिन्दुओं का, विशेषत: तीर्थस्थ हिन्दुओं का कलेजा कँपाया करता था, जब मत मतान्तर के झगड़ों से लोगों की बुध्दि भ्रमित हो रही थी, जब वैष्णवगण शैवों से विरोधा करने में ही ईश्वर की प्रसन्नता समझते थे, जब शैव वैष्णवों से द्वेष रखने में ही अपनी धार्म्मज्ञता मानते थे, जब रामोपासक तथा कृष्णोपासक में भी वैमनस्य आ घुसा था और लोग एक - दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखने लगे थे - केवल अपनी बुध्दि और लेखनी के बल से अत्याचारियों का दर्प चूर्ण और मान मर्दन कर, स्वदेशियों को सच्चे - धार्म्म मार्ग में अटल रखने का ऐसा दृढ़ तथा प्रबल उद्योग किया, जिससे लोग आज तक लाभ उठा रहे हैं, तथा आगे भी उठाते ही जाएँगे। क्योंकि गोसाईं जी के जीवित काल की अपेक्षा आज उनकी रचनाएँ हिन्दू धार्म एवं जगत पर निश्चय अधिाकतर प्रभाव दिखा रही हैं। विशेष प्रशंसा की बात तो यह है कि सब सम्प्रदाय के अनुगामी, क्या वैष्णव, क्या शैव, क्या शाक्त, क्या नानकशाही, क्या वेदान्ती सभी लोग निर्द्वेष भाव से इसका आदर करते हैं, जो रामोपासक हैं उनका तो कहना ही क्या है?

    श्रीमान् सत्यदेवजी ने लिखा है - ''जैसे अंकिल टाम्स केबिन का उपन्यास उत्तारी तथा दक्षिणी अमेरिका में हबशी गुलामों का वाणिज्य रोकने का कारण हुआ, जैसे हाल ही में अपटन सिंक्लेयर ने अपने उपन्यास के बल से शिकागो के कसाईघर का सुधाार कराया, रूसो एमिली ने स्वलिखित उपन्यास द्वारा शिक्षा के प्राचीन ढंग का प्रचार किया, जैसे इटली के स्वतन्त्राता - प्राप्ति का कारण जिबन कृत 'रोमन राज का उत्थान और पतन' नामक ग्रन्थ हुआ, जैसे अगणित उपन्यासों द्वारा ईसाई धार्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित हुई, वैसे ही गोसाईंजी की रचनाओं ने शैव तथा वैष्णवों के परस्पर द्रोह एवं रामोपासक तथा कृष्णोपासक के परस्पर वैमनस्व और रागद्वेष को दूर कर हिन्दू धार्म की श्रेष्ठता पूर्णरूपेण प्रतिपादित कर देश को महान लाभ पहुँचाया।

    हिन्दी के कतिपय और प्रसिध्द महाकाव्यकार हैं। उनमें विबुधा - बृन्द - विभूषण मैथिल - कोकिल विद्यापति, मूर्तिमान सहृदयता मलिक मुहम्मद जायसी, हिन्दी साहित्य के आद्य आचार्य महाकवि केशवदास और हिन्दी संसार के कालिदास कविवर देव का नाम आदरसहित लिया जा सकता है। किन्तु यदि इन लोगों की रचना साधाारण आभामयी रजनी है तो गोस्वामीजी की रचना उज्ज्वल आलोक - अलंकृता राकानिशा है। इसके अतिरिक्त इन लोगों के काव्यों में भी वे विशेषताएँ मौजूद नहीं हैं कि जिनके कारण रामचरितमानस का महत्तव है। महात्मा कबीरदास धार्मोपदेशक हैं। सामाजिक उदात्ता आदर्श और गार्हस्थ्य जीवन के लोकोत्तार चरित उनकी रचनाओं के विषय नहीं। अतएव इन लोगों को सामने न लाकर अब मैं यह देखूँगा कि गोस्वामीजी के विषय में कुछ प्रसिध्द देश और विदेश के विद्वानों की सम्मति क्या है। रामायण के प्रसिध्द अंग्रेजी अनुवादक ग्राउस साहब अपने ग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं -

    ''रामायण केवल हिन्दुओं का राष्ट्रीय प्राचीन काव्य ही नहीं है किन्तु उसमें यह विशेष गुण भी है कि वह अपने देशवासियों के विश्वास तथा चरित का चित्रा अत्यन्त सत्यतापूर्वक किन्तु, चित्तााकर्षक रूप में खींचती है। इसका फल यह होता है कि उसके अनुशीलन से योरपवासियों के बहुत से मिथ्या विश्वास और दुर्भाव, जो इस सम्बन्धा में हैं, दूर हो जाते हैं और दोनों जातियों में परस्पर सहानुभूति की वृध्दि होती है। ''

    रामायणवर्णित पात्राों के वर्णन प्रभाव से प्रभावित होकर एक दूसरे स्थान पर वे ही महोदय जो लिखते हैं, उसका सारांश यह है -

    ''कोई श्री राम, सीता, भरत तथा लक्ष्मणजी के सद्गुणों पर मुग्धा होकर इन लोगों की पूजा न करे सही परन्तु, इनके सद्गुणों की सराहना सभी करेंगे। हम कहते हैं कि इन्हें कोई ईश्वरावतार या ईश्वरांश होना स्वीकार करे या न करे परन्तु अपने अलौकिक सद्गुणों से ये लोग अवश्य ईश्वरत्व और देवत्व को प्राप्त हैं और सब की पूजा के योग्य हैं। हिन्दू समाज में चिरकाल से घर - घर इनकी पूजा होती आयी है और अवश्य होनी चाहिए। इन्हीं लोगों में श्रध्दाभक्ति रखने, इन्हीं की पूजा करने इन्हीं महापुरुषों के सुकार्यों से सत्शिक्षा ग्रहण तथा उनका अनुशरण करने से मनुष्य का उभय लोक में कल्याण हो सकता है।

    माननीय विद्वान डॉक्टर जी.ए. ग्रियर्सन अपने भारत - वर्षीय साहित्य के इतिहास में लिखते हैं -

    ''भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास की महत्ताा के विषय में इदमित्थं नहीं कहा जा सकता। साहित्य की दृष्टि से रामायण के गुणों को एक ओर रखकर यह बात अवश्य उल्लेखनीय है कि यह ग्रन्थ यहाँ की सर्वजातियों द्वारा अंगीकृत है। पंजाब से भागलपुर तक और हिमालय से नर्वदा पर्यंत उसका प्रभाव है। राजमहल से लेकर झोंपड़ी तक प्रत्येक मनुष्य के हाथों में वह देखी जाती है और हिन्दू - जाति के प्रत्येक वर्ण द्वारा चाहे वह उच्च हो या नीच, धानी हो या निर्धान, युवा हो अथवा वृध्द, एक रूप से पढ़ी - सुनी जाती अथच आदृत होती है। वह हिन्दू जनता के जीवन, भाषा, अथच चरित्रा में प्राय: तीन सौ वर्ष से ओतप्रोत है और केवल अपनी कवितागत सौन्दर्य के लिए ही आदर तथा प्रेम नहीं लाभ करती है, वरन् यह उनसे पवित्रा धार्म - पुस्तक की भाँति सम्मानित होती है। जिस धार्म का उसने प्रचार किया है वह सादा और उच्च है एवं ईश्वर के नाम के पूर्ण विश्वास पर निर्भर है। ''

    ''मनुष्य का अपने पड़ोसी के प्रति क्यार् कत्ताव्य है, तुलसीदास इसके बडे प्रचारक थे। वाल्मीकि ने भरतजी की धार्मपरायणता, लक्ष्मणजी के भ्रातृ - प्रेम और सीताजी के स्त्राी - धार्म की प्रशंसा की थी। किन्तु तुलसीदास ने उन्हें आदर्श बनाकर दिखलाया। ''

    एक दूसरे स्थान पर वही महोदय लिखते हैं -

    ''भारतवर्षीय धार्मोन्नति के इतिहास में जो आसन तुलसीदासजी को प्रदान किया जाता है, उससे कहीं उच्चतर आसन के ये अधिाकारी देखे जाते हैं। क्याेंकि हमलोग धार्म - प्रचारक की श्रेष्ठता का अटकल उसके कार्य - फल से लगाते हैं। यह कहने में कि ठीक नव करोड़ मनुष्य इनके लेखों पर ही अपने धार्म तथा सदाचार के तत्तवों को स्थापित किए हुए हैं, हम सामान्य गणना से बहुत ही कम अनुमान करते हैं।र् वत्तामान काल में इनकी रचनाएँ लोगों पर जो प्रभाव दिखाती हैं, यदि हमलोग उसी से जाँच करें तो एशिया के तीन या चार बडे - बडे लेखकों में से एक यही महाशय हैं। ''

    वही महाशय रामायण के विषय में यह लिखते हैं -

    ''इसकी सुख्याति उपयुक्त होने में तनिक भी सन्देह नहीं है। अपने देश में इसने सब ग्रन्थों पर प्राधाान्य लाभ किया है और सर्वसाधाारण पर उसका ऐसा प्रभाव पड़ रहा है कि उसे बढ़ा - चढ़ाकर कहना कठिन कार्य है। ''

    ''विलायत में जितना बाइबिल का प्रचार है, उससे कहीं अधिाक बंगाल और पंजाब एवं हिमालय और विन्धय के मधयस्थ प्रदेशों में इस महाग्रन्थ का प्रचारहै। ''

    गोस्वामाजी के जीवनी लेखक सहृदयवर बाबू शिवनन्दन सहाय लिखते हैं -

    ''रामायण प्रदर्शित चित्राों पर धयान देने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि सध्दर्मनिरूपण तथा सत् शिक्षा प्रदान के निमित्ता ही इस ग्रन्थ की अवतारणा हुई है। ग्रन्थ रूपी नाटयशाला में खड़े होकर उसके पात्रागण आज भी अपने उदाहरणों से आर्यत्व के परमोक्त सगुण, सध्दर्मानुराग, सत्यता, सरलता, धाीरता, वीरता, उदारता, सहनशीलता, दयालुता आदि की सुन्दर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। ''

    ''लाखों जन इसे अपना जीवन सर्वस्व समझते हैं, करोड़ों इसका आश्रय ग्रहण करके कतिपय कुत्सित कर्मों से बचते हैं। कितने इसके पाठ से विरक्त साधाु बन जाते हैं एवं कितने पतित ज्ञानी कहलाने लगते हैं। ''

    ''रामायण केवल कविता रस के प्रेम ही से नहीं पढ़ी जाती, यह धार्म का एक अंग और धार्मशास्त्रा की एक प्रधाान पुस्तक बन गयी है। धार्मशास्त्रा ही क्यों समाजनीति, व्यवहारनीति, राजनीति इत्यादि सब नीतियों का शास्त्रा कहलाने का यह ग्रन्थ अधिाकारी है।

    ऍंगरेजी कवि वड्र्सवर्थ के समान गोसाईंजी प्राकृतिक सौन्दर्योपासक थे
एवम् स्वच्छता तथा सत्यता को उसका प्रधाान अंग मानते थे। अपने सौन्दर्य देव को विषय के गँदले जल से स्नान नहीं कराते थे, वरन् पवित्राता के स्वच्छ गंगाजल से स्नान कराकर उसे रचनामन्दिर में स्थापित करते थे। ''

    ''श्रीयुत ज्ञान मोहन दत्ता ने ''प्रवासी'' भाग 11, खण्ड 2 में लिखा है कि इस पुस्तक में धार्मभाव जिस रूप से जागृत है, वैसी धार्मभाव समन्वित दूसरी और कोई पुस्तक नहीं देखी जाती। '' कलकत्ताा हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज श्रीमान् बाबू शारदाचरण मित्रा ने एक लेख में रामायण के कुछ पद उध्दृत करते हुए गोस्वमीजी की 'भक्ति - भाजन भावुक श्रेष्ठ कविश्वर' तथा 'भारतवर्षीय कविगण में अग्रणी' लिखा है।

गोस्वामी तुलसीदासजी की जीवनी

    समय का प्रभाव बदल गया है, आज दिन पुनीत भारतवर्ष में यूरोपियन आदर्श का बोलबाला है। 'यथा - राजा तथा प्रजा' की चरितार्थता हो रही है। आत्म - त्याग का स्थान आत्म - गौरव, सौजन्य का स्थान अहम् भाव, र्कत्ताव्य - निष्ठा का स्थान कामुकता, धार्मपरायणता का स्थान अहमहमिकता, पवित्रा नीति का स्थान पालिसी, सत्यता का स्थान प्रवंचना, लोकहितकारिता का स्थान स्वार्थलोलुपता और उदारता का स्थान अनुदारता ग्रहण कर रही है। आज गुरुजन गौरव गरिमा से चित्ताप्रवृति का समादर अधिाक है, पावनपद प्रेम से साम्यवाद का महत्तव विशेष है और भातृप्रीति उदरम्भरिता के सम्मुख तिरस्कृत है। आज आलुलायित कुन्तला अविकच वदना आर्य्यसभ्यता धाीरे - धाीरे अपना चिरअधिाकृत उच्च सिंहासन परित्याग कर रही है और उसपर धाीरपाद विच्छेपपरायण उल्लासमयी एक सभ्यता नामधाारिणी अर्ध्दसभ्यता क्रमश: आरोहण कर रही है, नहीं कहा जा सकता ऊँट किस करवट बैठेगा। और कविकुल - तिलक महात्मा तुलसीदास और उनकी अद्भुत रामायण का महत्तव अब सुरक्षित रहेगा या नहीं। किन्तु मैं यही कहूँगा 'सत्यमेव जयते नानृतम्'। भगवान कमलिनी कुल बल्लभ कब तक घनपटल से आछन्न रहेंगे। वे यथासमय मुक्त होंगे और उनकी आभा से पूर्ववत गगनमण्डल जगमगाने लगेगा। जब तक संसार में ज्ञानपिपासा रहेगी, सदुपदेश का समादर होगा, पवित्रा जीवन प्रिय रहेगा, आदर्श चरित लोक हृदय को उत्फुल्ल करेंगे, मर्यादा समादृत होगी, आत्मोत्सर्ग का महत्तव समझा जायेगा और पुनीत आर्यसभ्यता धारातल को पावन करती रहेगी, उस समय तक गोस्वामीजी मानवहृदय के उच्च आसन पर विराजमान रहेंगे और उनका लोकोत्तार रामचरितमानस गौरव की दृष्टि से देखा जावेगा। सत्कवि और सत्कविता यदि संसार में अजर - अमर नहीं है तो फिर नश्वर संसार में अजर - अमर का प्रश्न ही व्यर्थ है। मैं निम्नलिखित श्लोकों के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ -

''जयन्ति ते सुकृतिनो रस सिध्दा: कवीश्वरा:''

नास्ति येषां यश: काये जरामरणजम् भयम्''

ते धान्यास्ते महात्मानस्तेषां लोके स्थिरं यश:।

यैर्निबध्दानि काव्यानि ये च काव्येषु कीर्तिता:''

(सन्दर्भ - सर्वस्व)


 

 

 

 

 

 

कृष्ण - गीतावली

 

 

कहा जाता है, किसी दिन गोस्वामी तुलसीदास मथुरा के एक प्रसिध्द मन्दिर में पधाारे। समय भजन - पूजा का था, इसलिए विग्रह का बड़ा ही सुन्दर शृंगार किया गया था। गोस्वामीजी सुसज्जित मूर्ति देखकर विमुग्धा हो गए। उनके हृदय में प्रेमातिरेक से आनन्द की धाारा बहने लगी। किन्तु, उन्हाेंने उसके सामने सिर नहीं झुकाया, गद्गद कण्ठ से कहा -

कहा कहौं छबि आज की भले बने हो नाथ।

तुलसी मस्तक तब नवै धानुखबान लो हाथ।

    भगवान जनमनरंजन हैं। उनका यह महावाक्य है 'यो यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्' - जो मुझको जिस रूप में प्राप्त करना चाहता है, मैं उसको उसी रूप में मिलता हँ। अतएव उन्होंने उनकी इच्छा पूरी की, बात की बात में मुरलीधार धानुर्धार बन गए -

मुरली मुकुट दुराय के नाथ भए रघुनाथ।

लखि अनन्यता भक्ति की जन को कियो सुनाथ।

    मनोकामना पूर्ण होने पर गोस्वामीजी की ऑंखें खुलीं और उनके हृत्तान्त्राी के निनादित होने पर यह मधाुर धवनि सुनाई दी -

तुलसी मथुरा राम हैं जो करि जाने दोय।

दो आखर के बीच जो वाके मुख मैं सोय।

    मथुरा के दो अक्षर म और रा के बीच में थु है। जब उनको सच्चा ज्ञान हुआ तो उनका यह कहना कि रामकृष्ण में जो द्वैत बुध्दि रखता है, उसके मुँह में 'थू' स्वाभाविक है। किन्तु, सबसे पहले यह बात गोस्वामाजी पर घटती है, क्योंकि द्वैत बुध्दि उन्हीं में उत्पन्न हुई। इसलिए अनन्यता का ढाेंग रचनेवालों की कही इस दन्तकथा पर मेरा विश्वास नहीं। अनन्यता निन्दनीय नहीं, उपासना का यह प्रधाान अंग है। जिसकी बुध्दि निश्चयात्मिका नहीं होती, वही एक को छोड़ अनेक के जंजाल में पड़ा रहता है। नाना देवताआें की उपासना में रत रहना, कभी भूत को पूजने लगना, कभी पिशाच को, - बुध्दि की अस्थिरता का सूचक है। इसलिए भक्ति के लिए उच्चकोटि की साधाना अनन्यता ही है। क्योंकि

सब आयो इस एक मैं डार पात फल फूल।

कविरा पीछे का रहा गहि पकरा जिन मूल।

    जो 'एकमेवाद्वितीयम्' का मर्म जानता है, उसका अनन्य होना स्वाभाविक है। किन्तु, इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा की विभूतियों की उपेक्षा की जावे। अनन्य होकर अपने इष्टदेव की सत्ताा को ही समस्त विभूतियों में देखना और यथोचित सबकी मर्यादा की रक्षा करना अनन्यता का बाधाक नहीं, क्याेंकि -

आकाशात् पतितम् तोयं यथा गच्छति सागरे।

सर्व देव नमस्कारम् केशवम् प्रतिगच्छति।

    आकाश से गिरा हुआ जल जैसे समुद्र को जाता है, उसी प्रकार सब देवताओं को किया गया प्रणाम ईश्वर को ही प्राप्त होता है। शास्त्रा कहता है 'एको देव: सर्व भूतेषु गूढ:' एक परमात्मा ही सबमें व्याप्त है। यह अभेद बुध्दि दुर्लभ हो, किन्तु है उदात्ता। अनन्यता की सच्ची साधाना द्वारा ही इसकी प्राप्ति होती है। अतएव, अनन्यता के विरुध्द उँगली नहीं उठायी जा सकती। हाँ, अनन्यता का अवास्तव रूप अवश्य निन्दनीय है। जो शिव का अनन्य भक्त बनकर विष्ण्ाु की निन्दा करता है, राम का अनन्य उपासक कहलाकर भगवान कृष्णचन्द्र में उचित समादर बुध्दि नहीं रखता, वह अनन्यता का दम भरता है, किन्तु उसका तत्तव नहीं जानता।  मेरा विचार है कि ऐसे ही ज्ञानलव - दुर्विदग्धा की गढ़ी हुई, गोस्वामीजी सम्बन्धिानी यह दन्तकथा है। जो गोस्वामीजी कहते हैं - 'सियाराममय सब जग जानी, करहुँ प्रनाम जोरि युग पानी', वे भगवान कृष्णचन्द्र के विग्रह के सम्मुख पहुँचकर यह कैसे कह सकते हैं - 'तुलसी मस्तक तब नवै धानुख बान लो हाथ'। जिस अमोघ मन्त्रा का जपकर मनु और सतरूपा भगवान रामचन्द्र समान पुत्रा मानव शरीर धारण कर लाभ करते हैं - उस मन्त्रा को गोस्वामीजी ने द्वादशाक्षर बतलाया है - और वह मन्त्रा है - '¬ नमो भगवते वासुदेवाय'। गोस्वामीजी लिखते हैं - 'द्वादस अक्षर मन्त्रावर जपहिं सहित अनुराग - वासुदेव पदपंकरुह दम्पति मन अति लाग'। यद्यपि वासुदेव संज्ञा की व्याख्या इस प्रकार की जाती है -

'वसु: सर्व निवासश्च विश्वानि यस्य लोमसु।

स च देव: परं ब्रह्म वासुदेव इति स्मृत:'

    किन्तु वास्तव में वासुदेव अयप्तवाचक संज्ञा है और वसुदेव शब्द से ही बनता है। जो गोस्वामीजी भगवान रामचन्द्र और कृष्णचन्द्र में इतनी अभेद बुध्दि रखते हैं, उनके मुख से ऐसी बात कभी नहीं निकल सकती, जो विभेद का परिचायक हो। उनकी अभेद बुध्दि का प्रतिपादक उनका 'कृष्ण - गीतावली' नामक ग्रन्थ भी है जिससे अधिाकांश हिन्दी - संसार अपरिचित है। इस ग्रन्थ का परिचय देने के लिए ही मुझको यह उपक्रम लिखना पड़ा है। ऊपर के दोहों को प्रमाण मानकर कुछ लोग अब तक 'कृष्ण - गीतावली' को गोस्वामीजी की रचना नहीं मानते। किन्तु उनके विषय में पूर्ण अभिज्ञता रखनेवालों और प्रतिष्ठित एवं मान्य ग्रन्थकारों ने भी इस ग्रन्थ को उनकी ही रचना मानी है, ग्रन्थ की भाषा भी यही बतलातीहै।

    कृष्ण - गीतावली गीतिकाव्य है। इसकी रचना बड़ी ही सरस और मनोरम है। यह ग्रन्थ बड़ी ही मधाुर ब्रजभाषा में लिखा गया है। गोस्वामीजी की लेखनी की समस्त विशेषताएँ इसमें मौजूद हैं। भगवान कृष्णचन्द्र को योगिराज स्वीकार करके भी अनेक कवियों और महाकवियों ने उनकी लीलाओं का असंयत वर्णन किया है, इतना असंयत कि जिन्हें अभिनन्दनीय नहीं कहा जा सकता। कहीं - कहीं इन वर्णनों में इतनी अश्लीलता आ गयी है कि उन्हें सभ्यजनानुमोदित नहीं माना जा सकता। गोस्वामी जी की रचना में यह छूत नहीं लग पाई है। उनकी लेखनी जिस प्रकार रामायण की पंक्तियों में पवित्रातामयी है, वैसी ही इस ग्रन्थ में। इतनी संयत और पावन रचना होने पर भी उसमें रस छलका पड़ता है, और मधाुरता उच्च कोटि की मिलती है। ग्रन्थ में कुल 61 पद हैं। आधो से अधिाक पदों में भगवान की बाललीलाओं का वर्णन है। शेष में उध्दव गोपिका सम्वाद है और दो - तीन पदों में स्फुट विषय हैं। इस ग्रन्थ के भाव - चित्राण्ा की मार्मिकता विलक्षण है। गोस्वामीजी बाह्य और अन्तर्द्वंद्व दोनों के चित्राण में अद्वितीय हैं। इस विषय में वे अद्भुत क्षमता रखते हैं। इस ग्रन्थ में भी उनकी यह प्रगल्भता सर्वत्रा विद्यमान है। रचना में स्वाभाविकता इतनी मिलती है, जितनी अन्य ग्रन्थों में मिलनी दुर्लभ है। कुछ पद्यों को उपस्थित करके मैं अपने कथन की पुष्टि करूँगा। साथ ही आपलोगों को इस ग्रन्थ की मधाुर रचनाओं का रस आस्वादन कराऊँगा।

    संसार में जितने महापुरुष हो गये हैं, उन सबका बाल्य काल विलक्षण देखा जाता है। ऊधामी बालकों का ऊधाम प्राय: अप्रिय होता रहता है; किन्तु उनके इसी ऊधाम में उनकी भावी महत्ताा का बीज छिपा रहता है। बालकों की नटखटी और चंचलता खटकती है। किन्तु, किसी - किसी बालक की इसी नटखटी और चंचलता में एक विलक्षणता भी रहती है, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित ही नहीं करती, चकित भी बनाती है। भगवान कृष्णचन्द्र का बालकाल भी इस प्रकार की विचित्राताओं से पूर्ण है। वह प्राय: बाल - स्वभाव - सुलभ चपलतावश गोपियों को छेड़ा करते, अवसर पाकर उनका दही - दूधा खा जाते, या उसे गिरा देते या अपने साथियों को खिला देते। वे बोलतीं तो मुँह चिढ़ाते, उन्हें तंग करते, उनके बरतनों तक को फोड़ डालते। वे बिचारी गोरस को छिपाकर सौ परदे में रखतीं, ऊँचे - ऊँचे छींकों पर टाँगतीं, फिर भी वे कन्हैया की ढूँढ़नेवाली ऑंखों और ऊँचे उठे हुए हाथों से बचने नहीं पाते। वे बिचारी जब बहुत तंग हो जातीं तो उलाहना लेकर यशोदा के पास पहुँचतीं। ऐसी ही एक गोपी की बातें सुनिए -

तोहि स्याम की सपथ जसोदा आइ देखु गृह मेरे।

जैसी हाल करी यहि ढोटा छोटे निपट अनेरे।

गोरस हानि सहौं न कहौं कछु यहि ब्रजवास बसेरे।

दिन प्रति भाजन कौन बेसाहै? घर निधिा काहू केरे।

किए निहोरो हंसत, खिझे ते डाटत नयन - तरेरे।

अबहीं ते ये सिखे कहाँ धाौं चरित ललित सुत तेरे।

बैठो सकुचि साधा भयो चाहत मातु बदन तन हेरे।

तुलसिदास प्रभु कहौं ते बातैं जे कहि भजे सबेरे।

    गोपी के मानसिक भावों का गोस्वामीजी ने जिस सहृदयता से चित्राण किया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है। उसकी खीझ, उसका दुख, उसका भय और प्रेम, उसके हृदय का क्षोभ और रोष, उसका डराना और धामकाना इस पद्य के शब्दों का विन्यास जिस स्वारस्य के साथ व्यंजित कर रहा है उसका रस आस्वादन कर कौन हृदय मुग्धा न होगा। जो कुछ गोपी कह रही है, ऐसे अवसरों पर ऐसी ही बातें तो सुनी जाती हैं। पद्य पढ़ते समय उस समय का चित्रा ऑंखों के सामने खिंच जाता है, और ज्ञान होने लगता है कि उसके एक - एक वाक्य मन पर प्रभाव डाल - डालकर उसको प्रभावित कर रहे हैं। कवि - कर्म यही तो है, ऐसी ही कविता का नाम कविता है। जो कविता अन्धाकार में रखती है, जिसके भाव प्रकाश में आने से संकुचित होते हैं, न तो वह कविता है और न उसका रचनेवाला कवि। जो सत्य है, हृदयंगम हो सकता है, उससे मुँह फेरकर अकल्पनीय को कल्पना ही का रूप देना वातुलता है।

    माखनचोर, चोर ही नहीं थे, वचन - रचना - चतुर भी थे। उनमें चंचलता ही नहीं थी, बात गढ़ने की भी शक्ति थी। जब गोपियों ने उलाहना का ताँता बाँधा दिया, तो यशोदाजी कब तक बातें टालतीं, कब तक खरी - खोटी सुनतीं, एक दिन दोबारा - तिबारा उलाहना सुनने पर बिगड़ खड़ी हुईं। नन्दलाल ने रंग बिगड़ा देखकर अपना रंग जमाने की ठानी। ऐसी बातें गढ़ीं, कि यशोदा जी मुँह देखते ही रह गयीं। गोपी बिचारी के तो छक्के छूट गए, मुँह में आयी बात कह न सकी, लाज के मारे अपना मुँह छिपाने लगी, लाला की बातें सुनिए -

मो कहं झूठेहिं दोख लगावहिं।

मैया इनहिं बानि पर गृह की, नाना जुगुत बनावहिं।

इनके लिए खेलिबो छोरयो तऊ न उबर पावहिं।

भाजन फोरि बोरि कर गोरस देन उरहनो आवहिं।

कबहुँक बाल रोआई पानि गहि मिस करि करि उठि धाावहिं।

करहिं आप सिर धरहिं आनके बचन विरंचि हरावहिं।

मेरी टेव बूझि हलधार सों सन्तत संग खेलावहिं।

जे अन्याय करहि काहू को ते सिसु मोहिं न भावहिं।

सुनि सुनि बचन चातुरी ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।

बाल गोपाल केलि - कलकीरति तुलसिदास सुर गावहिं। 1

    देखिए कैसी भोली - भाली बातें हैं, साथ ही इनमें कितनी मधाुरता है। बातें गढ़ी हैं पर उनमें से सरलता टपकी पड़ती है। एक बालक माता से डरकर अवसर पर कैसे बातें बनाता है। इस पद्य में उसका जीता - जागता चित्रा है। इसी भाव का एक पद्य और देखिए इसमें कितनी भावुकता है, साथ ही कितनी स्वाभाविकता, बाल भाव इसमें किलक - किलक कर क्रीड़ा कर रहा है - फिर गोपी क्यों न ठग जाती। और उसके मुँह से उत्तार कैसे निकलता।

अबहिं उरहनो दै गई, बहुरो फिर आई।

सुनु मैया तेरी सौं करौं, या की टेव लरन की सकुच बेंचि सी खाई।

या ब्रज में लरिका घने, हौं ही अन्याई।

मुँह लाए मूंडहिं चढ़ी, अन्तहु अहिरिनि तोहि सूधाी करि पाई।

सुनि सुत की अति चातुरी जसुमति मुसुकाई।

तुलसिदास ग्वालिनि ठगी, आयो न उतरु कछु कान्ह ठगौरी लाई।

    गोपियाँ खीझती थीं, उलाहना भी देती थीं - गोरस का लुटना - लुटाना, कहाँ तक देख सकतीं। नित्य की क्षति को कोई नहीं सह सकता। उत्पात और ऊधाम से सब ऊब जाता है। परन्तु उनके हृदय में कृष्ण प्यारे की बड़ी ममता थी, वे उनका कुम्हलाया मुख नहीं देख सकती थीं। उनकी ताड़ना का ख्याल भी उनको सताता। वे मोहन लाल को दुखी देख काँप उठतीं। उनकी खीझ में भी रीझ थी, उनके उलाहने में भी प्यार था। उनका यह भाव नीचे के पद में कैसा स्फुटितहै -

हरि को ललित बदन निहारु।

निपट ही डांटति निठुर ज्यों लकुट करते डारु।

कान्ह हूँ पर सतर भौंहैं महरि मनहिं बिचारु।

दास तुलसी रहति क्यों रिस निरखि नन्दकुमारु।

    माता का हृदय बड़ा मधाुर होता है, इतना मधाुर कि उसके सामने पीयूष क्या है। जब बालक मचलता है, तब इस मधाुर हृदय की मधाुरता और अधिाक हो जाती है। उस समय उसपर स्नेह का बड़ा गहरा रंग चढ़ा रहता है और उसमें एक बड़ी विमुग्धाकरी धाारा प्रवाहित होती रहती है। बच्चों की सँभाल टेढ़ी खीर है। जब बच्चों के मन का नहीं होता, तब वे चिड़चिडे हो जाते हैं और बात - बात में उलझन डालते हैं, क्योंकि बालक - स्वभाव हठी होता है। बच्चे का मन रखना और उसकी बुरी आदतें छुड़ाना आसान नहीं। खेल के सामने बच्चे सब भूल जाते हैं, न तो नहाने - धाोने की सुधा रहती है न खाने - पीने की। कुशल माता ही उसकी ठीक - ठीक सँभाल करती है। गीत गाती है, उसको बहलाती है, बातें बनाती है, तरह - तरह की कहानियाँ सुनाती है और लालच दिलाकर फुसलाती है, फिर उसको खुश करके जो चाहती है उससे करा लेती है। गोस्वामीजी की लेखनी बड़ी ही मर्मस्पर्शिनी है। देखिए नीचे के पद्य में इन भावों का कितना सुन्दर वर्णन है -

छाड़ो मेरे ललित ललन लरिकाई।

ऐहैं सुत देखवार कालि तेरे बबै ब्याह की बात चलाई।

डटिहैं सासु ससुर चोरी सुनि हँसिहै नयी दुलहिया सुहाई।

उबटौं न्हाहु गुहौं चुटिया बलि देखि भलो बर करिहिं बड़ाई।

मातु कह्यो करि कहत बोलि दै भई बड़िवार 'कालि' तो न आई।

जब सोइबो तात यों 'हा। ' कहि नयन मीचि रहै पौढ़ि कन्हाई।

उठि कह्यो भोर भयो झंगुली दै मुदित महरि लखि आतुरताई।

विहँसी ग्वालि जानि तुलसी प्रभु सकुचि लगे जननी उर धााई।

    कान्ह कुँवर की लीलाएँ देखकर एक गोपी हँस पड़ी। यह देखकर वे लज्जित हो गये और दौड़कर माँ की छाती से चिपक गए। यह लिखकर गोस्वामीजी ने हमारे एक सामाजिक संस्कार पर प्रकाश डाला है। अपने विवाह की बात सुनकर हमारे लड़के, लड़कियों के लज्जित हो जाने का भाव स्वाभाविक है। पद्य का अन्तिम चरण लिखकर गोस्वामीजी ने बतलाया है कि किस प्रकार बाल्यकाल ही में घटनासूत्रा से ही इस भाव का बीज बालकों के हृदय में अंकुरित हो जाता है।

    कृष्ण - गीतावली के पद्य एक से एक सुन्दर हैं। जी चाहता है मैं सबको सामने रखूँ और उनका रसास्वादन कराकर आप लोगों के हृदय को सुधाासिंचित बनाऊँ। किन्तु, न तो इतना समय है, और न स्थान। इसलिए कतिपय पद्य वियोगविधाुरा गोपियों के लिखकर मैं इस लेख को समाप्त करूँगा। भगवान कृष्णचन्द्र का ब्रज को छोड़कर मथुरा चले जाना और फिर उसकी ओर उलट कर भी न देखना बड़ी मर्मवेधिानी कथा है। सहृदय जनों के हृदय का यह ऐसा गहरा घाव है, जो आज तक नहीं भरा, कभी भरेगा भी नहीं। उसकी टपक से व्यथित होकर लोग आज भी कलेजा थामते हैं, परन्तु इलाज क्या। ऑंसू बहाने से कुछ शान्ति मिलती है, पर हाय! कोई कब तक ऑंसू बहाये। सहृदय हिन्दू समाज को वैदेही - बनवास और ब्रजजीवन - प्रवास चिरकाल से रुला रहा है, और प्रलय काल तक रुलाता रहेगा। किन्तु इस कोने में भी रस है, इसलिए आज भी वे रसिकजन - हृदय के सर्वस्व हैं। मनीषी ऊधाव ब्रज निवासियों का प्रबोधा करने आए, किन्तु क्या वे उसका प्रबोधा कर सके। सच्ची बात तो यह है कि उनकी अकृत्रिाम प्रेमधाारा में वे भी बह गए। निर्गुणवादी ऊधाव ज्ञानमार्गी थे, भक्तिमार्ग का मर्म उन्होंने ब्रज में ही जाना। अब गोपियाँ कहतीं -

''ऊधाो या ब्रज की दसा विचारो।

ता पाछे यह सिध्दि आपनी जोग कथा विस्तारो।

जा कारन पठए तुम माधाव सो सोचहु मन मांहीं।

केतिक बीच विरह परमारथ जानत हो किधाौं नाहीं।

परम चतुर निजदास स्याम के संतत निकट रहत हो।

जल बूड़त अवलंब फेन को फिरि - फिरि कहा कहत हो।

वह अति ललित मनोहर आनन कौने जतन विसारौं।

जोग जुगुत अरु मुकुत विविधा विधावा मुरली पर वारौं।

जेहि उर बसत श्यामसुन्दर धन तेहि निर्गुन कस आवै।

तुलसिदास सो भजन बहाओ जाहि दूसरो भावै। ''

तो वे चकित हो जाते, सोचते गोपियों जैसी 'तादात्म्य वृत्तिा' कहाँ मिलेगी। जिसको प्रेम का बाण लग गया है और जो प्रेम - स्वरूप का सच्चा विरही है उसको परमार्थ की क्या आवश्यकता, परमार्थ का परिणाम सच्चा प्रेम ही तो है। जो विरह - सलिल - राशि में डूब रहा है, उसकी रक्षा योगसाधान - फेन से कैसे होगी, उसका त्रााण तो तभी होगा, जब उसको प्रेमाधाार की प्राप्ति हो। जिसको मुक्ति की भी कामना नहीं, उसको योग की क्या परवा। जो घनश्याम की चातकी है, सगुणता की मर्मज्ञ है, उसको निर्गुण से क्या काम, जो अनन्त साधानाओं के द्वारा केवल समाधिालब्धा मात्रा है। निष्क्रिय निर्गुण की संसार को उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी सक्रिय सगुण की। संसार निर्गुण का ही सगुण स्वरूप है। प्रेम के द्वारा ही प्राणी को इसका साक्षात्कार होता है। अतएव प्रेम ही जीवन की प्रधाान साधाना है, वही परमानन्द का बीजमन्त्रा है और इसलिए कहा गया है 'प्रेमएवपरो धार्म:'। ऊधाव के इस प्रकार के विचारों ने ही उनका काया पलट कर दिया था, जिसका फल यह हुआ कि उन्होंने अपना ज्ञान भूलकर गोपियों से प्रेम - शिक्षा ग्रहण की। गोस्वामीजी के पद्य के सीधो - सादे शब्दों में गोपियों की प्रेमपरायणता मूर्तिमन्त होकर विराज रही है। साथ ही उसमें कितना त्याग और व्यंग्य है, कितनी तदीयता और लगन है, इसका अनुभव प्रत्येक सहृदय सुजन कर सकता है।

    नीचे लिखे पद्यों में कितनी सरसता और मोहकता है, कितना व्यंग्य और कितनी मनोवेदना है, उनको पढ़कर विचारिए। कहीं निराशा की झलक है, कहीं प्रेममयी खीझ। कहीं ऊधाो की अरसिकता पर कटाक्ष है, कहीं निर्मोही के निर्मोह पर मनोहर व्यंग्य। किसी पद में मनोवेदना 'तड़पती' मिलती है, तो किसी से पीड़ा रुदन करती दृष्टिगत होती है। फिर भी जो कुछ है, वह संयत है, नियमित है, और है प्रेम रस परिपूरित -

मधाुकर कहहु कहन जो पारो।

नाहिन बलि अपराधा रावरो सकुचि साधा जनि मारो।

नहिं तुम ब्रज बसि नन्दलालन को बाल विनोद निहारो।

नाहिंन रासरसिकरस चाख्यो तातें डेल सों डारो।

तुलसी जो न गये प्रीतम संग प्रान त्यागि तनु न्यारो।

तौ सुनिब देखिबो बहुत अब कहा करम सों चारो। 1

ऊधाोजू कह्यो तिहारोइ कीबो।

नीके जिय की जानि अपनपौ समुझि सिखावन दीबो।

स्याम वियोगी ब्रज के लोगन जोग जोग जो जानो।

तौ सकोच परिहरि पालागौं परमारथहिं बखानो।

गोपी गाय ग्वाल गोसुत सब रहत रूप अनुरागे।

दीन - मलीन छीन तनु डोलत मीन मजा सों लागे।

तुलसी है सनेह दुखदायक नहिं जानत यह को है।

तऊ न होत कान्ह को सो मन, सबै साहेबहिं सोहै। 2

    चित्ता की विचित्रा अवस्था है, वह जिसको प्यार करता है, जिसके नाम की माला जपता है, खीझ जाने पर उसको भी उलटी - सीधाी सुना देता है। कभी वेदनाओं से विकल होकर ऐसा किया जाता है, और कभी जी हलका करने के लिए। कभी इस भाव का वेग संयत होता है, कभी तीव्र। धाीर प्रकृति गम्भीर होती है, अधाीर प्रकृति उध्दाृत। संसार में ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने गला उतर जाने पर भी ऊफ नहीं की, ऐसे लोग प्रियतम के विरुध्द जीभ हिलाना भी पाप समझते हैं, हमारे यहाँ स्वकीया नायिका का यही आदर्श है, परन्तु ऐसे लोग कितने हैं। प्राय: प्राणी रो - कलपकर टेढ़ीमेढी बातें कहकर अपनी पीड़ाओं और मानसिक दुखों को कम करता है। गोपियों के मुख से भी ऐसी बातें सुनी जाती हैं, किन्तु गोस्वामीजी की लेखनी का सहारा पाकर वे कितनी संयत हो गयी हैं - इस बात को निम्नलिखित पद्य में देखिए -

ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ मोरे।

जाकी कहनि रहनि अनमिल अलि सुनत समझियत थोरे।

आपु कंज मकरंद सुधाा Ðद हृदय रहत नित बोरे।

हम सों कहत विरह òम जैहै गगन कूप खनि खोरे।

धाान को गाँव पयार ते जानिय ज्ञान विषय मन मोरे।

तुलसी अधिाक कहे न रहै रस ज्यों गूलर फल फोरे।

    इस पद्य के 'गगन कूप खनि खोरे', 'ज्यों गूलर फल फोरे' आदि व्यंग्यों की गम्भीरता की जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है।

    एक पद्य और देखिए - इस पद्य में पद - पद से गहरी निराशा और विवशता टपकी पड़ती है। मथुरा चले जाने पर ब्रजदेव के वियोग में ब्रज - बालाओं अथवा ब्रज - निवासियों की क्या मानसिक अवस्था हुई, इसका चित्राण इसमें बड़ी ही निपुणता से किया गया है। पद्य पढ़ते ही चित्ता करुणार्द्र हो जाता है -

करी है हरि बालक की - सी केलि।

हरखन रचत, विखादन बिगरत, डगरि चले हँसि खेलि।

बई बनाइ वारि वृन्दावन प्रीति सजीवन बेलि।

सींचि सनेह सुधाा खनि काढ़ी लोक वेद अवहेलि।

तृन ज्यों तजी पालि तनु ब्रजजन विधिा वासव बल पेलि।

एतेहुँ पर भावत तुलसी प्रभु गये मोहिनी मेलि।

    अमृत से तृप्ति नहीं होती, उसको जितना ही पीजिए उतनी ही तृष्णा बढ़ती है। कृष्ण - गीतावली के जिस पद्य को पढ़िए वही तन्मय कर देता है, उसे बार - बार पढ़कर भी जी नहीं भरता। मनन करने पर उसकी मोहकता बढ़ती ही जाती है। मैंने कुछ पद्य आपलोगों के सामने रखे, उनको पठन कर मेरे कथन को कसौटी पर कसिए। आशा है आपलोग मेरे विचार से सहमत होंगे। गोस्वामीजी के अपर ग्रन्थों के समान कृष्ण - गीतावली भी हिन्दी साहित्य - सागर का महारत्न है। उसकी ओर साहित्य - प्रेमियों का दृष्टि आकर्षण करने के लिए ही यह लेख लिखा गया है। इस ग्रन्थ को पढ़कर भी जो गोस्वामीजी के हृदय की विशालता और अनन्य उपासना का मर्म न समझ सकेंगे, उनको मैं मननशील और जिज्ञासाप्रिय बनने की सम्मति दूँगा। अन्त में कृष्ण - गीतावली के निम्नलिखित स्तुति - पद्य के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ।

गोपाल गोकुल वल्लभी प्रिय गोप गोसुतवल्लभं।

चरनारविन्दमहं भजे भजनीय सुर मुनि दुर्लभं।

घनश्याम काम अनेक छबि लोकाभिराम मनोहरं।

किंजल्क बसन किशोर मूरति भूरि गुन करुनाकरं।

सिर केकिपच्छ विलोल कुण्डल अरुन बनरुह लोचनं।

गुंजावतंस विचित्रा सब ऍंग धातु भव भय मोचनं।

कच कुटिल सुन्दर तिलक भ्रू राका मयंक समाननं।

अपहरन तुलसीदास त्राास विहार वृन्दा काननं।

(सन्दर्भ - सर्वस्व)


 

 

 

 

 

 

'नीहार' का 'परिचय'

 

 

परिचय

आजकल जिसे छायावाद कहते हैं, इस ग्रन्थ की अधिाकांश कविताएँ उसी ढंग की हैं। छायावाद किसे कहते हैं? उसे छायावाद कहना चाहिए अथवा रहस्यवाद, यह वाद - ग्रस्त विषय है। स्वयं छायावादी कवि अब तक इस बात को निश्चित नहीं कर सके कि वे अपनी नूतन प्रणाली की कविताओं को छायावाद कहें अथवा रहस्यवाद। इस प्रकार की कविताओं की परिधिा इतनी विस्तृत हो गयी है कि उन सबका अन्तर्भाव छायावाद अथवा रहस्यवाद में नहीं हो सकता। अतएव कोई - कोई उसको हृदयवाद कहने लगे हैं, किन्तु यह संज्ञा अति व्याप्ति दोष से दूषित है। मिसटिसिज्म (Mysticism) का यथार्थ अनुवाद रहस्यवाद ही हो सकता है, छायावाद शब्द में उसकी छाया दिखलाई पड़ती है, मूर्ति नहीं। रहस्यवाद में अस्पष्टता, अपरिच्छिन्नता और सर्व साधाारण की दुर्बोधाता झलकती है, वह चमत्कार होकर अचिंतनीय भी है, छायावाद में यह बात नहीं पाई जाती है। वह स्निग्धा, मनोरम और प्रांजल है, साथ ही उतना अचिंततीय नहीं, शायद इसीलिए उस पर अधिाकतर सहृदयों की स्वीकृति की मुहर लग गयी है। छायावाद शब्द प्रचलित हो गया है और अपने उद्देश्य की पूर्ति भी कर रहा है। ऐसी अवस्था में अब इस विषय में अधिाक इदं कुत: की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। किसी विषय के लिए जब कोई शब्द रूढ़ हो जाता है, तो एक प्रकार से वह अप्रेक्षित आवश्यकता के लिए स्वीकृत समझा जाता है, फिर वाद - विवाद क्या? संसार में अधिाकांश नामकरण इसी प्रकार हुआ है।

    हिन्दी कविता क्षेत्रा में आजकल छायावाद की कविताएँ इस अधिाकता से हो रही हैं और युवक दल उसकी ओर इतना आकृष्ट है कि वर्तमान समय को छायावाद युग कह सकते हैं फिर भी छायावाद की कविताएँ अभी आदिम अवस्था में हैं, उद्गम से बाहर निकलती हुई अधिाकांश सरिताओं के समान उनमें वेग है, प्रवाह है, उल्लास और कल्लोल है, किन्तु वांछित धाीरता नहीं, वह स्थान - स्थान पर तरंगाकुल और आविल भी है। ऐसा होना स्वाभाविक है, काल पाकर उनको सम धारातल भी मिलेगा और उस समय वे मंजु मन्थर गामिनी और यथेच्छ स्वच्छतामयी एवं सरसा होंगी। कवि कार्य सुगम नहीं, वह अगम्य है, वह सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकता। जब महाकवियों में भी भ्रम प्रमाद और त्राुटियाँ पाई जाती हैं, तो उस पर बात - बात में उँगली उठाना क्या उचित होगा, जिसने अभी कविता क्षेत्रा में पदार्पण किया है। प्रेम से दोष प्रक्षालन के लिए किसी को सतर्क करना अवांछनीय नहीं, किन्तु ऐसे अवसरों पर मच्छिका प्रवृत्तिा काम लेना संगत नहीं। थोडे समय में भी कतिपय छायावादी कवियों ने हिन्दी संसार में कीर्ति अर्जन की है और उनमें पर्याप्त भावुकता का विकास देखा गया है। उन्होंने अपने गहन - पथ को सरल बनाया है और कोमलकान्त पदावली पर अधिाकार करके बड़ी भावमयी कविताएँ की हैं। उन्हीं में से एक श्रीमती महादेवी वर्मा कवयित्राी भी हैं।

    यह ग्रन्थ इनका आदिम ग्रन्थ है, फिर भी इसमें उनकी प्रतिभा का विलक्षण विकास देखा जाता है। ग्रन्थ सर्वथा निर्दोष नहीं, किन्तु इसमें अनेक इतनी सजीव और सुन्दर पंक्तियाँ हैं कि उनके मधाुर प्रवाह में उधार दृष्टि जाती ही नहीं। प्रफुल्ल पाटल प्रसून में काँटे होते हैं, हों, किन्तु उसकी प्रफुल्लता और मनोरंजकता ही मुग्धाकारिता की सम्पत्तिा है। ऐसा कहकर मैं नियमन की अवहेलना नहीं करता हूँ - सहृदयता का नेत्राोन्मीलन कर रहा हूँ। कहा जा सकता है एक स्त्राी का उत्साह -  वर्ध्दन करने के लिए बातें कही गईं। मैं कहूँगा यह विचार समीचीन नहीं, ऐसा कहना स्त्राी जाति की सर्वतोमुखी प्रतिभा को लांछित करना है। वास्तव में बात यह है कि ग्रन्थ की भावुकता और मार्मिकता उल्लेखनीय है, उसका कोमल शब्द - विन्यास भी अल्प आकर्षक नहीं।

    मैं श्रीमती महादेवी वर्मा का हिन्दी साहित्य क्षेत्रा में सादर अभिनन्दन करता हूँ और उनसे यह निवेदन भी करूँगा कि उनकी हृत्तान्त्राी के अपूर्व झंकार में भारत - माता के कण्ठ की वर्तमान धवनि भी श्रुत होनी चाहिए। इससे उनकी कीर्ति  उज्ज्वलतर होगी। माता की व्यथाओं के अनुभव करने की मार्मिकता मातृत्व पद की अधिाकारिणी को ही यथातथ्य हो सकती है।

काशीधााम 28 - 4 - 30 हरिऔधा

(असंकलित)


 

 

 

 

 

 

हिन्दी के मुसलमान कवि की प्रस्तावना

 

 

संकलनकार की इच्छा हुई कि इस ग्रन्थ की प्रस्तावना मैं लिख दूँ। प्रस्तावना लिखने के समय विचार हुआ कि प्रस्तावना लिखूँ -

'जिन दिन देखे वे कुसुम गयी सु बीति बहार। '

    फिर सोचा यह तो नैराश्य है, नैराश्यावाद अच्छा नहीं। क्यों न निश्चित किया जावे -

'ह्नैहैं बहुरि बसन्त ऋतु इन डारन वे फूल। '

    निराशा से आशा और निर्जीवता से सजीवता अच्छी है। उद्योग जीवन का लक्षण है और चेष्टा सफलता की कुंजी। और कुछ न हो, अच्छे उद्देश्य का अच्छा होना ही क्या कम है। संग्रहकार का उद्देश्य उच्च है, उसने सम्बन्धाबीज वपन किया है, स्नेह - सलिल से उसे सींचा है, क्यों न आशा की जावे कि वह अंकुरित होगा और काल पाकर सुन्दर फूल - फल भी लावेगा। संसार परिवर्तनशील है, काल - चक्र कब किस प्रकार घूमेगा, यह कौन जानता है।

    अन्तर्जगत दर्पण के समान पारदर्शक और उज्ज्वल है। इस विविधा भावमय संसार में वह प्रत्येक भाव का प्रतिबिम्ब वा तथ्य ग्रहण करता है और उसको उसी रूप में प्रकट करना चाहता है। वह मलिन हो अथवा कारण विशेष से कलुषित हो, तो उसके प्रतिबिम्ब आवरण में अन्तर पड़ सकता है, किन्तु यह उसका वास्तविक रूप नहीं है। हिन्दू हो अथवा मुसलमान, स्वाभाविक हृदय सबका समान होता है, उसमें अस्वाभाविकता भी पाई जाती है, किन्तु उसके कारण वंशगत, समाजगत या संसर्गगत कुछ संस्कार हैं, जो अधिाकांश वास्तव हैं। जो जिस देश का निवासी है, उसका उस देश की भाषा से प्रेम होना स्वाभाविक है। जो भाषा आबाल जीवन - सहचरी है, उसकी ममता कोई छोड़ नहीं सकता। प्राय: भली प्रकार भावस्फुरण भी उसीमें होता है, वह सुन्दरता के साथ प्रकट भी उसी में किया जा सकता है। स्वाभाविकता भी उसी में पाई जाती है, कृत्रिामता की बात मैं नहीं कहता, वह अन्य विषय हैं। कबीर और मलिक मुहम्मद जायसी की अपूर्व रचना में इसी बात के उदाहरण हैं। रसखान की मुग्धाकारी कृति में उसी का सरस रस प्रवाहित है। खुसरो, रहीम, रसलीन, मुबारक जैसे भावुकों के भाव प्रवाह में भी उसी का बहुत कुछ विकास है। ये हिन्दी के ऐसे सरस हृदय कवि हैं कि कतिपय सर्वमान्य महाकवियों को छोड़ अधिाकांश हिन्दी भाषा के प्रसिध्द कवियों के वे समकक्ष हैं। इन सहृदय मुसलमान कवियों पर मुसलमान जाति उचित गर्व कर सकती है, हिन्दू जाति को तो उनका गर्व है ही, इतना ही नहीं वह उनकी विचार उच्चता की कृतज्ञ भी है। चलती गाने की चीजों में विशेषकर ठुमरी, खेमटे, दादरों इत्यादि में कुछ मुसलमान सहृदयों ने जो रचना पटुता दिखलाई है, वह अभूतपूर्व है। उनमें इतनी सरसता, स्वाभाविकता और हृदयग्राहिता है कि उनकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। इस विषय में उनका समकक्ष कोई हिन्दी कवि कठिनता से मिलता है, उचित समकक्षता लाभ तो की है, बाबू हरिश्चन्दजी ने लाभ की है। उनके प्रेम तरंग इत्यादि ग्रन्थों में इस प्रकार की बड़ी मनमोहक रचनाएँ हैं। इस कथन का अभिप्राय यह है कि हिन्दी भाषा को अपनाकर मुसलमानों ने केवल कीर्ति और प्रतिष्ठा ही नहीं लाभ की है, अपितु उन्होंने मनोभावों के चित्राण में भी पराकाष्ठा दिखलाई है। मेरा तो विचार है कि उर्दू के महाकवियों की रचनाओं में उतनी स्वाभाविकता और सरसता किसी - किसी शेर में ही मिलेगी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी क्षेत्रा मुसलमानों का नहीं है। वास्तव में बात यह है कि हिन्दी पर प्रत्येक हिन्द निवासी का स्वत्व है, और यही कारण है कि वह साधाारण मुसलमान बादशाहों से लेकर मुसलमान सम्राटों तक में आदृत रहीहै।

    खेद है कि आज रंग बदल गया है, आज मुसलमान सज्जन हिन्दी सुमनोद्यान को ऑंख भर देख नहीं सकते, उनकी दृष्टि में उसमें न तो विकच कुसुमावली है, न मनोमुग्धाक सुगन्धा, और न मानसरंजन रमणीयता। उन्हें हरे - भरे पौधो, लहलही लता, कोमल किसलय और लुभावने प्रसून भी उसमें नहीं मिलते। उन्हें करील का साम्राज्य ही सब ओर दिखलाई पड़ता है, यह विपरीत दृष्टि का ही फल है, चाहे यह विपरीत दृष्टि किसी कारण विशेष से ही क्यों न हो। एक हिन्दी का हिन्दी के साथ यह व्यवहार कहाँ तक संगत है, इसको समय ही बतलाएगा। मेरा तो विचार है कि 'सत्यमेव जयते नानृतम्', जीत सत्य की ही होगी, असत्य की नहीं। हिन्दी सेवी के उदात्ता करों में सदा की विजयी वैजयंती है, कोई दिन होगा कि उसके तले समस्त हिन्द निवासी एकत्रिात हाेंगे, स्वाभाविक जल - प्रवाह, सहज वायु संचार और लोक आलोकित कर आलोक से कोई कब तक मुख मोड़ेगा?

    मुसलमान जाति का हिन्दी पर कितना प्र्रेम था और हिन्दी की समुन्नति में उनका कितना हाथ है, इसी बात के प्रकट करने के लिए यह ग्रन्थ संकलित हुआ है, साथ ही हिन्दी प्रेमिकों का मनोरंजन भी। संकलनकार ने ग्रन्थ के संकलन करने में परिश्रम किया है। अधिकांश हिन्दी मुसलमान कवियों की सुन्दर कविताएँ इस ग्रन्थ में संकलित हैं। उनमें आप उन ललित और सुन्दर रचनाओं को भी पावेंगे, जिनका उल्लेख मैंने जहाँ - तहाँ किया है। प्रत्येक कवि की प्राप्त जीवनी भी दी गयी है। कहीं - कहीं उसमें अच्छा विश्लेषण भी है। ग्रन्थ की भूमिका के लिखने में भी सहृदयता से काम लिया गया है। उसमें यत्रा - तत्रा मार्मिक नूतन और हृदयग्राहिणी बातें हैं। भूमिका मेें मौलिकता कम है, किन्तु संकलनकार की मधाु - प्रवृत्तिा प्रशंसनीय है। मैं इस ग्रन्थ का हिन्दी संसार में अभिनन्दन करता हूँ। आशा है हिन्दी संसार में इसका उचित आदर होगा। यदि मुसलमान सज्जनों की दृष्टि भी संग्रहकार के उद्देश्य की ओर समुचित आकर्षित हो गयी और उन्होंने उसका तत्तव समझा, तो मैं समझूँगा उनका श्रम सफल हुआ। अपनी मातृभाषा की सेवा का पुण्य तो उन्हें मिलेगा ही।

बनारस 27 - 4 - 26

हरिऔधा

 (असंकलित)


 

 

 

 

 

 

'सरस सुमन' की भूमिका

 

 

अभिनन्दन

एक दिन एक सरस सुमन मेरे सामने आया, उसकी भीनी - भीनी महँक मनमोहक थी, उसमें सुमनता और सरसता भी मिली, मैं उत्फुल्ल हो गया। इस सरस सुमन के प्रस्तुत करनेवाले हिन्दी संसार के एक होनहार सुकवि हैं। आप कितने सरस हृदय हैं, आपका प्रकृति - निरीक्षण कितना भावमय है, आपकी कोई - कोई उक्ति कितनी मार्मिक है, उसमें कितना प्रवाह और कितनी स्वाभाविकता है, कितना प्रसाद गुण है, ग्रन्थ की कुछ लाइनें कितनी सजीव हैं, इस विषय में मैं कुछ न कहूँगा, मुझको कहने का अधिाकार नहीं, अपनी वस्तु किसे प्यारी नहीं होती। कविता कुसुमोद्यान दोष - कंटक - रहित नहीं होता, सरस सुमन की रक्षा के लिए कंटक - निर्माण में भी प्रकृति का कुछ कौशल है, अतएव मैं दोषों की भी चर्चा न करूँगा। मैं तो केवल हिन्दी साहित्य क्षेत्रा में प्रिय ग्रन्थकार का अभिनन्दन मात्रा करूँगा और आदिम उद्योग में ही उन्हाेंने जितनी सफलता लाभ की है, उसके लिए धान्यवाद दूँगा। साथ ही यह कामना भी करूँगा कि उनकी प्रतिभा पूर्ण विकसित हो, उक्ति और अधिाक सुन्दर और सरस हो, वह प्रकृति निरीक्षण में और अधिाक पटुता प्राप्त करें और यदि सम्भव हो तो हिन्दी संसार में उस कीर्ति के अर्जन करने की चेष्टा करें, जिसको अंगरेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ ने लाभ किया है।

 - हरिऔधा

(असंकलित)


 

 

 

 

 

 

धारतीमाता

 

 

कोई दिन था, जब धारती पर पानी ही पानी था। न कहीं हरे - भरे पेड़ थे, न फूलों की क्यारियाँ, न हँसती हुई बेलियाँ, न लहलहाती हुई लताएँ। न तो कहीं बन था, न बनों में बसनेवाले जानवर। न कहीं कोई खेत था, न कहीं खेतों के पौधो। ऊँचे - ऊँचे घरों की बात ही क्या, कहीं कोई टट्टी भी नहीं दिखलाती। न तो कहीं कोई चिड़ियाँ चहकती मिलती; न कहीं भौंरे भाँवरें भरते पाए जाते। चारों ओर सन्नाटा था, हाँ, कभी - कभी हवा अपनी हवा बाँधा जाती, कभी सन - सन बहती, कभी पानी की लहरों के साथ खेलती। सूरज उगता था, उसकी किरणें उजाला फैलाती थीं, पानी की लहरों में जगमगाती थीं, और कभी - कभी उनके साथ थिरकने लगती थीं। रात होती थी, चाँद भी निकलता था, चाँदनी भी छिटकती थी। तारे भी अपनी समाँ दिखलाते थे, और नीले आसमान की गोद में बैठे हुए किसी ओर ताकते - झाँकते जान पड़ते थे। लाखों बरस तक धारती का यही ठाट था। फिर रंग बदला। अथाह पानी में भी कहीं - कहीं पहाड़ाें की ऊँची - ऊँची चोटियाँ दिखलाने लगीं, बहुत बरसों के बाद पूरा पहाड़ ही सर उठाए सामने खड़ा पाया गया। जहाँ पोरसों पानी था, वहाँ भी कहीं - कहीं सूखे टीले दिखलाई देने लगे, पहले एक टापू बना, फिर टापुओं की भरमार हो गई। इसी तरह धारती के बहुत - से बडे - बडे टुकडे भी सूखकर समाने आए, जिनके अलग - अलग नाम पडे अौर जो 'देश' कहलाए।

    सूखी धारती पर बहुत दिनों क्या, बहुत बरसों के बाद पहले हरी - भरी दूब दिखलाई पड़ी, फिर तरह - तरह के तृण सर उठाकर उसे सजाने लगे। बाद को पेड़ों की बारी आई। जहाँ - तहाँ रंग - बिरंग के पेड़ खडे, कहीं हरे - भरे पत्ताों से हरियाली की छटा दिखलाते, कहीं धारती पर फूल बरसा फूले नहीं समाते, कहीं फूलों से लदकर झूमते पाए जाते। बनी - ठनी बेलियों और लतरों की भी कमी नहीं थी, उनसे भी धारती भर गयी थी। इस समय वनों की बन आयी थी, सूखी धारती पर अब उन्हीं का राज था। पानी में जीवों की कमी नहीं थी; पर सूखी धरती पर अब तक कहीं कोई जीव नहीं दिखलाता था। कभी - कभी कछुआ अलबत्ताा पानी से निकलकर धरती पर आ जाता था। पर धारती पर और कहीं किसी जीव की सूरत नहीं दिखलाती थी। बहुत काल के बाद एक दिन ऐसा आया, जब सूखी धारती पर भी जीव दिखाई पडे। वनों में रेंगते और फुदकते बहुत - से जीव - जन्तु पाए गए; पेड़ों की डालियों पर भी चहचहे होने लगे। धाीरे - धाीरे ये बातें बढ़ती गयीं। उड़नेवाले पखेरुओं से जब पेड़ों की डालियाँ गूँजीं, तो जंगली जीव - जन्तुओं से जंगल भी भर गए। आदमी की सूरत कब सामने आयी, यह नहीं कहा जा सकता। जहाँ गिनती लाख - लाख बरसों पर होती है, वहाँ का हिसाब ही क्या। कुछ लोग कहते हैं, आदमी की नस्ल का नाता बन्दरों की नस्ल से है। एक साथ रहते - रहते जंगली जानवरों के रूप - रंग, शकल - सूरत, चाल - ढाल में अदल - बदल होते - होते एक नस्ल बन्दरों की बन गयी। कहा जाता है, इन्हीं बन्दरों में से एक तरह के बन्दर से आदमी की नस्ल का नाता है। आदमी भी पहले जंगलों में ही रहता था; बहुत समय के बाद वह घरबारी बना। इस समय वह जिस दशा में है, उसे उसने बहुत उलट - फेर के बाद हजारों बरसों में पाया है।

    कुछ बडे लोग कहते हैं, मनुष्य मनु से पैदा हुआ है, यह बात मनुष्य अथवा मनुज शब्द ही बतलाता है। मुसलमान भी यही कहते हैं। वे कहते हैं, आदम से पैदा होने के सबब से ही आदमी आदमी कहलाता है। संस्कृत का आदिम शब्द ही आदम बन गया है, जो इस बात को ठीक बतलाता है कि सबसे पहले मनु हुए और उन्हीं की सन्तान मनुष्य हैं। जो हो, पर इस समय जैसे लोग हैं, पहले के लोग वैसे नहीं थे। बहुत उलट - फेर के बाद अब के लोग अबके लोग बने हैं। समय के पलटा खाने और काम - काज के झमेलों से लोगों का रंग - ढंग बदलता गया है, और रहन - सहन और की और होती गयी है। जब जंगली जानवराें से लोग तंग होने लगे, बरसात के झगड़ों से बचने को जी चाहा, सामानों की रक्षा का विचार हुआ, तो पहले झोंपड़े बने, फिर घर, फिर बडे - बडे मकान। जब बहुत लोगाें के इकट्ठा रहने से उलझनें पैदा हुईं तो कुटुम्ब की नींव पड़ी। आपस के झगड़ों के निबटारा के लिए पंचायत बनी।

    मतलब यह कि इस समय के लोग उनकी रहन - सहन, उनका आपस का बर्ताव, ठाट - बाट, रंग - रूप, व्यवहार, काम - धान्धो, राजकाज आदि जो कुछ हैं, उन सबकी जड़ आवश्यकता (जरूरत) है। पहले धारती के ऊपर जो सामान मिलता, उन्हीं से काम लिया जाता था। धारती के नीचे की खानों का लोगों को कुछ पता न था; इसलिए लोहे का काम पत्थर से लिया जाता था। यही सबब है कि इस युग को 'पत्थर - युग' कहा जाता है।

    इन दिनों हम आसमान में उड़ते हैं, महीनों का रास्ता घण्टों में तय करते हैं। तार से हजारों कोस की बात घर बैठे सुनते हैं, वह भी मिनटों में, घण्टों से नहीं। ऐसी ही और बहुत - सी अचरज में डालनेवाली बातें कलों के सहारे करते रहते हैं। ये सब क्या है? समय और आवश्यकताओं की करतूतें तो हैं! माता का गुण क्या है, यही कि वह सन्तानों के रंग में ही रँगी पायी जाती है। समय पर जिस ढंग में वे ढलते हैं, जो चाहते हैं, माता भी उसी ढंग में ढल उनकी चाहों को पूरा करती रहती है। उनके सुख - दु:ख का विचार रखती है, उनके सुभीते की बातें सोचती है। अब तक जो कुछ कहा गया है, उससे पाया जाता है कि धारती भी ऐसी ही है। सूरज से जन्म लेकर पहले वह बहुत गर्म थी, उस समय उसपर पानी ही पानी था। जब ठण्डी हुई तब सुभीते के साथ जहाँ - तहाँ सूखी धारती के रूप में दिखलाई पड़ी। फिर किस तरह समय के साथ वह रंग बदलती गयी, ये बातें बतलायी जा चुकी हैं। इन बातों का विचार करके ही धारती को 'माता' कहा गया है। वह सचमुच माता है। वह जितनी बड़ी है, उसकी बड़ाई भी उतनी बड़ी है। बोलिए - 'धारतीमाता की जय। '

(सन्दर्भ - सर्वस्व)


 

 

 

 

 

 

पति - सेवा

 

 

सेवा भक्ति की परम प्रिय पुत्राी है। यह हर्ष और गौरव की बात है कि उसका देश में प्रचुर प्रचार हो रहा है। आज दिन सब ओर देश - सेवा, जाति - सेवा, समाज - सेवा आदि की धूम है। किन्तु, न जाने क्यों, पति - सेवा अच्छी दृष्टि से नहीं देखी जाती, उसे सपत्नी समझा जाता है। शायद दासी कहलाने का भाव मड़राता रहता है। जिसकी दृष्टि में साम्यवाद बसा है, वह दासी बनना कब पसन्द करेगी। किन्तु यह भ्रम है, सेवा साम्यवाद की सहचरी है। जिसको उच्चता का अभिमान है, वही किसी को नीच समझकर उसकी सेवा करना पसन्द न करेगा। जब सभी समान हैं, तो किसी को किसी की सेवा करने में संकोच क्या? स्त्राी - पुरुष तो समान ही नहीं, और कुछ भी हैं, वे औरों की अपेक्षा अधिाक समान हैं, फिर परस्पर एक - दूसरे की सेवा करने में संकोच क्या? क्या पुरुष स्त्राी की सेवा नहीं करते? माँ, बहिन, बेटी की बात जाने दीजिये, मैंने पुरुषों को महीनों रात - रात भर जागकर अपनी अध्र्दांगिनी की सेवा करते देखा है। क्या इससे वे उसके दास हो गए? नहीं, वरन् उन्हाेंने अपना बहुत बड़ार् कत्ताव्य - पालन किया; क्योंकि अन्यों से स्त्राी का अपने पुरुष पर अधिाक दावा है। फिर स्त्राी को पुरुष की सेवा करने का क्या विरोधा? यह तो उसका धार्म है। स्त्राी - पुरुष परस्पर इतने बँधो हुए हैं कि एक को दूसरे की आवश्यकता पूरी करनी ही होगी, इसमें दम्भ कैसा? भगवान मनु कहते हैं -

सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्ता भार्या तथैव च।

यस्मिन्नैव कुले नित्यं कल्याणं तत्रा वै धाु्रवम्।

    जिस कुल में स्त्राी से पुरुष प्रसन्न रहता है और पुरुष से स्त्राी, उसका अवश्य कल्याण होता है।

    सेवा - भाव आर्य - संस्कृति का एक अंग है। इसीलिए चाहे रामायण - महाभारत में देखिए, चाहे पुराण - उपपुराण में, पति की सेवा करना स्त्राी का धार्म बतलाया गया है। कारण इसका यह है कि सेवा - प्रवृत्तिा स्त्रिायों में स्वाभाविक होती है। वह उदारहृदया, कोमलमना और दयाशीला होती है। दूसरे का दु:ख देखकर द्रवीभूत होना उनका प्रधाान गुण है। उनमें सहनशीलता भी अधिक होती है; सेवा के लिए यह गुण अधिाकतर अपेक्षित है। जिसमें कष्ट - सहिष्णुता नहीं, वह स्थिर चित्ता से सेवा भाव परायण नहीं हो सकता। सन्तान को दस मास गर्भ में धाारण करके उसे जन्म देना और आत्मोत्सर्ग कर चिर काल तक तन्मयता से उसकी सेवा करना माता का ही काम है, और इसीलिए मनु के कथनानुसार सहòं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते', माता पिता से गौरव में सहò गुण अधिाक है। यदि माताओं में यह अलौकिक सेवा - भाव न होता, तो धारातल आज सन्तानशून्य होता। पशु - पक्षियों तक में यह भाव इतना ही प्रबल होता है कि देखकर आश्चर्य होता है। रण में जिस समय पुरुष जाति शस्त्रा - संचालन में उन्मत्ता दिखलाई देती है, उस समय धाीर भाव ये महिलाएँ (नसर्ें) घायलों और रोगियों की परिचर्या में निरत रहती हैं। जिसके सेवा - भाव का प्रवाह इतना सबल है, पतिदेव की सेवा की सच्ची अधिाकारिण्ाी वही है, शास्त्राों की आज्ञा का मर्म यही है। क्याेंकि, पति की हितकारिणी संसार में पत्नी के समान कौन है? विपत्तिा में, कष्ट में, दुखों के अन्य अवसरों पर पति की सेवा जिस लगन और तन्मयता से पत्नी कर सकती है, अन्य नहीं। प्रत्येक कार्य के लिए योग्य अधिाकारी ही अपेक्षित होता है। शास्त्रा इस सिध्दान्त की उपेक्षा कैसे करता? सदा से सेवा का भार उसी पर पड़ता आया है, जो समीपी होता है। अध्र्दांगिनी - पत्नी से बढ़कर समीपी संसार में दूसरा कौन है? फिर पति - सेवा यदि उसकार् कत्ताव्य न कहा जावे तो किसका कहा जावे?

    गोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण पवित्रा आर्य - संस्कृतियों और महान आदर्शों का भाण्डार है। श्रीमती जनकनन्दिनी सती - साधवी स्त्रिायों की शिरोमणि हैं। उनके विषय में गोस्वामीजी एक स्थान पर लिखते हैं -

पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील विनीता।

यद्यपि गृह सेवक सेवकिनी। विपुल सकल सेवा विधिा गुनी।

निज कर गृह परिचरचा करहीं। रामचन्द्र आयसु अनुसरहीं।

    'पति अनुकूल सदा रह सीता' इस पद्य में 'सदा' का प्रयोग बड़ा ही मार्मिक है। किसी अवस्था में श्रीमती जनकनन्दिनी पति - प्रतिकूलाचरण नहीं करतीं, यह इसका भाव है। यौवन बड़ा प्रमादी है। गृह के झमेले, आत्मपरायणता, अहंभाव, कभी - कभी ऐसे काण्ड उपस्थित कर देते हैं जिनसे प्राय: पति - पत्नी में मनोमालिन्य हो जाता है और कई दिन तक चलता रहता है, आपस में बातचीत तक बन्द हो जाती है। ऐसी अवस्था में प्रतिकूलाचरण स्वाभाविक है, चाहे वह साधाारण ही हो। महारानी विक्टोरिया की पतिपरायणता, सरलता और विनयशीलता विश्व - विदित है। वह एक साधाु - स्वभाव महिला थीं। एक दिन यौवन के उमंग में अपने परम प्रिय पति प्रिन्स अलबर्ट के साथ बात ही बात में वे ऐसा व्यवहार कर बैठीं कि वे रुष्ट हो गये और दूसरे कमरे में जाकर उसके किवाड़ लगा लिये। थोड़ी ही देर में पति - प्राणा को यह बात खटकी। वे अपने स्थान से उठीं और किवाड़ों को सविनय खुलवाकर पतिदेव को मना लिया। जो कुछ उन्होंने किया, इससे उनकी विशाल हृदयता सूचित है; किन्तु यौवन - प्रमाद की झलक उसमें मौजूद है। कहा जा सकता है, ये चढ़ती जावनी के रंग - रहस्य और चोचले हैं, इनको प्रतिकूल आचरण नहीं कह सकते। किन्तु, यह विचार ठीक नहीं। अनबन की जड़ प्रतिकूलाचरण है, चाहे वह कितनी ही थोड़ी मात्राा में क्यों न हो। गोस्वामीजी का 'सदा' शब्द इसी भाव का सूचक है। श्रीमती जानकी देवी इतनी साधवी थीं कि ऐसी नौबत कभी आती ही न थी।

    'सोभा खानि सुसील विनीता', इस पद्य में 'सोभा खानि' का प्रयोग मार्के का है। नीति - ग्रन्थों में लिखा है, 'भार्या रूपवती शत्राु', क्यों? इसलिए कि वह गर्ववती होती है, उसमें ऐंठ बहुत होती है, उसकी नाजबरदारी करते - करते पतिदेव का नाकों - दम रहता है। जब वह कितनों को अपनी ओर लालायित ऑंखाें से अवलोकन करते देखती हैं तो उसका मिजाज चढ़ जाता है। इसलिए रूपवर्ती भार्या को शत्राु कहा गया है। श्रीमती जनकनन्दिनी स्वयं श्री हैं, इसलिए उनकी शोभा का क्या कहना। किन्तु, 'सोभा खानि' होकर भी वे सुशील और विनीत थीं। यह बात इसी से प्रमाणित होती है कि वे सदा पति के अनुकूल रहती थीं। जो पति - प्राणा है, वह सुशीला और विनय - नम्र क्यों न होगी? जो समझती है 'वाही के सुहाग से सुहागिनी भई हौं बीर वाही रूपवारे रूप ही ते भई रूप सी' उसमें कैसी ऐंठ? कैसा रूप - गर्व और कैसा मिजाज? जिसकी यह अवस्था है कि 'रूप सुधाा अकली ही पियै पियहूँ को न आरसी देखन देति है' वह नाजबरदारी की भूखी क्यों न होगी? और क्यों न चाहेगी कि मैं अपने प्यारे का कौन प्रिय करूँ, क्यों न उन्हें अपनी ऑंखों का तारा बनाकर रखूँ।

    इसके उपरान्त गोस्वामीजी लिखते हैं - ''यद्यपि सकल सेवा - विधिा में दक्ष घेर में अनेक दास - दासियाँ हैं, फिर भी सीता देवी अपने हाथ से घर की सेवा - टहल करती और पति के आज्ञानुसार चलती रहती हैं। '' कौन सीता देवी? जो शोभाखानि हैं, चक्रवर्ती की पुत्रा - वधाू हैं और मिथिलाधिापति की प्रिय पुत्राी। उनकी इस गृहिणीवर्ग की महत्ताा को प्रथम के दो चरणों में कितना चमका दिया है, उसका विचार सहृदयजन भली - भाँति कर सकते हैं। आज पति - सेवा के साथ गृह - सेवा से भी नाक - भौं चढ़ाई जा रही है, उसका भी बॉयकाट किया जा रहा है। क्यों? इसलिए, कि जब पति - सेवा ही इष्ट नहीं, तो गृह - सेवा के जंजाल में कौन पडे? क़ौन आग के सामने बैठकर अपने रूप पर ऑंच आने दे? कौन धाुएँ में बैठकर अपनी ऑंखें फोडे? क़ौन फूल - से कोमल हाथों से गर्म - गर्म बर्तनों को पकडे? क़ौन चौके में बैठे? कौन तहदार साड़ियों को मैली होने दे? ये सब काम तो लौंड़ियों के हैं, गृह - स्वामिनी के नहीं। रसोई अच्छी न बने, बला से न बने, पतिदेव आधो पेट खाकर उठ आवें तो उठ आवें, घरवाले मुँह फुलावें तो फुलावें उनको सैर - सपाटे, क्लबों से छुट्टी कहाँ, जो वे इन पचड़ों में पडें। यह पाश्चात्य शिक्षा - दीक्षा का प्रभाव है। इससे समाज में रोमांचकर असुविधााएँ फैल रही हैं। थोड़ी पूँजीवालों का तो नाकोंदम है। परन्तु अभी ऑंखें ठीक - ठीक नहीं खुलीं। पतन पर पतन होता जा रहा है। हिन्दू - आदर्श से ही हिन्दू जाति का भला हो सकता है। भगवती विदेह - नन्दिनी ही हमारी कुल - ललना का आदर्श हो सकती हैं, अन्य नहीं। शास्त्राों की कुछ आज्ञाएँ भी देखिए -

सदा प्रदुष्टयाभाव्यं गृह कार्येषु दक्षया।

सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्त हस्तया।

 - मनु

भोजने च रुचितमिदमस्मै द्वेष्यमिदम् पथ्यम् इदम् इति चविन्धयात्।

स्वरम्वहिरुपश्रुत्य भवनमागच्छत: किम्

कृत्यमितिव्रुवती सज्जा भवन मधये तिष्ठेत्,

'परिचारिकामपनुद्य स्वयम् पादौप्रक्षालयेत्'

'पश्चात् संवेशनम् पूर्वमुत्थान मनवोधानम् च सुप्तस्य।

 - वात्स्यायन

    'स्त्राी को चाहिए - सदा आनन्दित रहे, गृह - कार्य में दक्ष हो, तमाम सामानों को सँभालती एवं सुधाारती रहे और काम हाथ दबाकर करे। भोजन - पदार्थों में इसका विचार रखे कि किसको क्या रुचता है और किसके लिए क्या पथ्य और क्या अपथ्य है।

    ''घर आते हुए पति की आवाज बाहर सुनकर सज्जा - भवन में आकर खड़ी हो जावे और कृत्य के विषय में उसकी आज्ञा ले। '

    'परिचारिकाओं अर्थात् दासियों को हटाकर स्वयम् उसका पाँव धाोवे। '

    'पीछे सोना और पहले उठना चाहिए, जो पति आराम में हो तो जगाने की चेष्टा न करे। '

    सम्भव है कि इन पंक्तियों को पढ़कर यह समझा जावे कि इनमें दासीकरण की ही कला है; किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। जिससे अहंभाव के अन्धाकार में मानवता - कौमुदी का विकास हो, अलसप्रकृति, कटु स्वभाव, उच्छृंखल मनोवृत्तिा का नियमन हो, इनमें इसी प्रकार की मधाुर शिक्षा है। आजकल उद्दाम प्रवृत्तिा को अच्छा समझा जाता है, मानवता से अहमहमिका अधिाक पसन्द की जाती है, आत्मप्रतारण को आत्म - गौरव कहा जाता है, और मानसिक दुर्बलता को महत्ताा। किन्तु, दुर्गुण दुर्गुण है और गुण गुण। दुर्गुण गुण कदापि नहीं हो सकता। मोहममता की रात्रिा व्यतीत होने पर सूर्य का उदय होता है। उस समय मानवता की किरणें ही फूटती दिखलाती हैं।

    एक दिन एक सज्जन के साथ मैं उनके मकान पर गया। दिन मेले का था। अपने साथ शेषशायी भगवान का एक चित्रा वे लेते गये थे। जिस समय हमलोग बैठे, उनकी श्रीमती सामने आयीं। उन्होंने चित्रा उन्हें दे दिया। उसे उन्होंने एक बार देखा, भौहें टेढ़ी की, और टुकडे - टुकडे क़रके फेंक दिया। पतिदेव ने कहा - हैं हैं, यह क्या!

    उन्होंने कहा - यह चित्रा यही दिखलाने को न आये हो कि लक्ष्मी बैठी विष्णु भगवान का पाँव मल रही हैं। मैं ऐसा आदर्श पसन्द नहीं करती। स्त्रिायाँ पुरुषों की दासी नहीं हैं। मैं ऐसी तसवीरों को फाड़कर फेंक देना ही अच्छा समझती हूँ। यह कहकर श्रीमती भीतर चली गयीं और वे मेरा मुँह देखने लगे। आजकल ऐसी प्रवृत्तिा प्रबल हो रही है और हमारे समाज में हलचल मचा रही है।

    ऐसी प्रवृत्तिा स्त्राी की ही नहीं; पुरुष भी प्राय: कहा करते हैं कि हिन्दू - ग्रन्थों में स्त्रिायों को उच्च स्थान दिया ही नहीं गया, वे प्राय: दासी ही समझी गयी हैं। किन्तु, ऐसा कहना बहुत बड़ा अज्ञान है। विचार की संकीर्णता ही इस अज्ञान का कारण है। यदि जिज्ञासा - दृष्टि से हिन्दू - ग्रन्थों का अधययन किया गया होता तो ऐसी अनर्गल बात कदापि न कही जाती। मैं कुछ प्रमाण दूँगा -

अर्धां भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतम: सखा।

भार्या मूलत्रिावर्गस्य भार्या मूलंतरिष्यत:। 1

सखाय: प्रविविक्तेषु भवंत्येदाप्रियम्वदा।

पितरो धार्म कार्येषु भवंत्येदार्तस्यमातर:। 2

कान्तारेष्वपि विश्रामो जनस्याधवनिकस्य वै।

य: सदार: सविश्वास्यस्तस्मात् दारापरागति:। 3

आत्मात्म नैवजनित: पुत्रा इत्युच्यतेबुधौ:।

तस्मात् भार्याम् नर:पश्येन्मातृवत्पुत्रा मातरम्। 4

 - महाभारत

यत्रानार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रा देवता।

 - मनु

दाम्पत्येर्व्युत्क्रमे दोष: सम: शास्त्रो प्रकीर्तित:।

नरान् तमवेक्षन्ते तेनात्रा वरमंगना। 5

 - वराहमिहिर

    भार्या मनुष्य का आधाा शरीर और श्रेष्ठतम सखा है। भार्या अर्थ, धार्म और काम का मूल है। प्रियम्वदा भार्या असहाय की सहाय, धार्म - कार्य में पिता - स्वरूप, आर्त व्यक्ति की जननी और संसार - पथ - पथिकों का विश्रामस्थल है। भार्यावान व्यक्ति ही सबका विश्वासभाजन बनता है, इसलिए भार्या ही परागति है। पति की आत्मा ही पत्नी के गर्भ में प्रविष्ट होकर पुत्रा - रूप से जनमता है; इसलिए भार्या माता - समान मानी जाती है। जहाँ स्त्रिायों की पूजा होती है, वहाँ देवतों का निवास होता है। शास्त्राों ने दाम्पत्य धार्म तोड़ने को दोष माना है। पुरुष इसकी परवा नहीं करते, इसलिए स्त्रिायाँ ही श्रेष्ठ हैं।

    कविता - विभूति - सम्पन्न भवभूति की बातें भी सुन लीजिये। 'उत्तार रामचरित' में भगवान रामचन्द्र के मुख से एक स्थान पर वे यह कहलाते हैं -

इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवतिर्नयनयो।

रसावस्या: स्पर्शोवपुषिबहुलश्चन्दन रस:।

अयं बाहु: कण्ठे शिशिरमसृणो भौक्तिकसर:।

किमस्या न प्रेमो यदि परम सह्यस्तु विरह:।

    'यह मेरे घर की लक्ष्मी है, ऑंखों की अमृत - शलाका है, इसका स्पर्श शरीर के लिए गाढ़ा चन्दन - रस है, इसकी भुजा मेरे गले में मोतियों की माला की भाँति शीतल और सुखद है, वियोगजनित दुख को छोड़कर मुझे सीता की कौन बात प्यारी नहीं!'

    एक दूसरे स्थान पर उनकी लेखनी ने यों रस - वर्षण किया है -

त्वं जीवितं त्वमसि मे हृदयं द्वितीयं

त्वं कौमुदी नयनयोरमृतं त्वमंगे।

    'तुम मेरा जीवन हो, मेरा द्वितीय हृदय हो, मेरी ऑंखों के लिए चन्द्रमा की चाँदनी और शरीर के लिए अमृत - रस हो। '

    इन कतिपय पंक्तियों में स्त्राी - जाति की महत्ताा के विषय में जो कहा गया है, उससे अधिाक क्या कहा जा सकता है। शास्त्रा उदार और तत्तवग्राही हैं। उनकी अनुभूति महान् और अत्यन्त समीचीन है। उनकी दृष्टि एकदेशी नहीं, व्यापक और उदात्ता है। यह दूसरी बात है कि कोई मणि को काँच समझे। स्त्राी और पुरुष दोनों के लिए उचित शिक्षाएँ उनमें मौजूद हैं। संसार को उन्होंने गम्भीर दृष्टि से देखा है और चिरकाल तक उसके विषयों को मनन किया है; इसलिए वास्तव में उनका कथन भव - भेषज है। वह किसी को कड़वी मालूम हो; किन्तु है वह मानसरोग की अमोघ चिकित्सा। दाम्पत्य धार्म उत्तारदायित्वपूर्ण है, थोड़ी असावधाानी से वह विषमय हो सकता है। तपोवन से गृहक्षेत्रा में अधिाक इन्द्रिय - निग्रह और साधाना की आवश्यकता है। वहाँ इतने विघ्न सामने नहीं आते, जितने यहाँ। पुरुष - जाति से स्त्राी - जाति पर उसका उत्तारदायित्व अधिाक है; क्योंकि गृहिणी और गृहलक्ष्मी वही है। गृह के भाण्डार पर उसी का अधिाकार होता है; इसलिए अन्नपूर्णा भी उसी को कहते हैं। यदि वह यह नहीं समझ सकती है कि मैं क्या हूँ, यदि उसका आत्मज्ञान अपूर्ण है तो वह संसारक्षेत्रा में असफल रहेगी और उस एक के कारण स्वर्ग - समान गृह नरक बन जावेगा। जैसे अन्न - वस्त्रा की सुव्यवस्था करना कर्तव्य है उसी प्रकार कष्ट के समय उचित सेवा करना भी कर्तव्य है।र् आत्ता और पीड़ित की सेवा कर जो आत्मप्रसाद लाभ होता है, वह बड़ा ही उदात्ता होता है, क्योंकि उसमें मानवता की झलक विशेष होती है। मैंने देखा है कि चोट लग जाने पर, मर्ूच्छित हो जाने पर बडे प्रतिष्ठित लोग भी साधाारण जन की सेवा करने लगते हैं। इससे उनकी प्रतिष्ठा अधिाक होती है, कम नहीं। पति परिश्रान्त है और पत्नी ने पंखा झल दिया तो उसने शिष्टता ही की, आत्मीयता का ही परिचय दिया, इसमें उसकी लघुता क्या हुई? यदि पति पीड़ित है, रुग्ण है, कष्ट में है तो उसकी सेवा करना क्या पत्नी का धार्म नहीं है? यदि नहीं है, तो उसमें सहानुभूति कहाँ, ममता कहाँ, स्नेह कहाँ? ऐसी पत्नी पत्नी नहीं है, वह कुछ और है वह स्वार्थमयी है, प्रेममयी मानवी नहीं। वह लोक - निन्दा का पात्रा तो बनती ही है, साथ ही संसार में उपेक्षित भी होती है। आज भी घर - घर ऐसी कुल - ललनाएँ हैं, जो पति के कष्ट को देखकर व्यथित हो जाती हैं और रात - दिन उनकी सेवा करके भी तृप्त नहीं होतीं। सच्ची बात तो यह है कि यदि वे ऐसा न करें तो उनका मन ही नहीं मानता। वे भूख - प्यास भूल जाती हैं, तन की सुधा भूल जाती हैं, पर पति की सेवा को नहीं भूलतीं, उनको थोड़ी देर के लिए भी पति की चारपाई के पास से हटना गवारा नहीं होता। मुँह बनाकर कहा जा सकता है, वे निन्दनीय दासी हैं। परन्तु वे सच्ची देवी हैं; क्योंकि दिव्य गुण उन्हीें में है।

    पति - सेवा का यह अर्थ नहीं कि दबकर उसका पाँव दबाया जावे, मूठी में रखने के लिए उसका तलवा सहलाया जावे, मतलब गाँठने के लिए दबी बिल्ली का स्वाँग लाया जावे। यद्यपि ऐसा बहुत किया जाता है; किन्तु इनमें स्वार्थ की गन्धा है। अतएव ये विडम्बनाएँ हैं, सच्ची पति - सेवा नहीं। हृदय के सच्चे भाव से, बिना किसी कामना के पति - हित में रत रहना, दुख में उस पर उत्सर्ग होना, उसके जीवन को आनन्दमय और उसके संसार को सुखमय बनाना ही सच्ची पति - सेवा है। स्मरण रहे, बाह्य सौन्दर्य से हृदय - सौन्दर्य ही उत्ताम होता है।

(सन्दर्भ - सर्वस्व)


 

 

 

 

 

 

सन्दर्भ - सर्वस्व

 

 

 भूमिका

इस ग्रन्थ का नाम 'सन्दर्भ - सर्वस्व' है। बंगभाषा के प्रसिध्द कोष 'प्रकृतिवाद अभिधाान' में सन्दर्भ शब्द का अर्थ निम्नलिखित है -

    ''सन्दर्भ - संज्ञा, पुल्लिंग - प्रबन्धा, परस्परान्वित रचना, ग्रन्थ, संग्रह, विस्तार - शिष्ट प्रयोग -

''गूढार्थस्य प्रकाशश्च सारोक्ति: श्रेष्ठता तथा

नानार्थवत्वम् वेदत्वम् सन्दर्भ: कथ्यते बुधौ:। ''

    जिसमें गूढ़ार्थ का प्रकाशन हो, सारोक्ति की श्रेष्ठता हो, नानार्थवत्ताा का वेदत्व हो, बुधाजनों ने उसको ही सन्दर्भ कहा है।

    सन्दर्भ की व्याख्या अत्यन्त विमुग्धाकरी है, उसमें आकर्षण है और है समीचीनता। अतएव किसी लेख लिखने के समय अथवा किसी विषय के निरूपण के अवसर पर मेरे विचारों का आधाार अथवा अवलम्ब प्राय: वही रहा है। उसी के सिध्दान्तों को सर्वस्व मानकर ही मैंने प्राय: लेखनी की परिचालना की है, इसीलिए ग्रन्थ का नाम मैंने 'सन्दर्भ - सर्वस्व' रखा है। कहा जा सकता है, यह दम्भ है, यह साधाारण प्रसून को पारिजात बनाने की चेष्टा है। किन्तु मेरा यह सविनय - निवेदन है कि मैंने दाम्भिक बनकर अपना यह विचार नहीं प्रकट किया है। जो वस्तुत: है, उसको विद्वज्जन के समाने उपस्थित कर देना ही मैं उचित समझता हूँ, अन्यथा ऐसा दुस्साहस मैं न करता। कार्य्य - परायणता र्कत्ताव्य है; किन्तु सफलता - लाभ सर्वथा सम्भव नहीं। मैंने उद्देश्य -र् पूत्तिा की प्रबल चेष्टा की है, किन्तु कृतकार्य्य कहाँ तक हुआ हूँ, इसको साहित्य - मर्म्मज्ञ ही समझ सकते हैं। मैं साधाारण विद्या - बुध्दि का मनुष्य हूँ, मेरी बात ही क्या। विदग्धा की विदग्धाता भी कभी - कभी अपने उद्देश्यों और विचारों के यथातथ्य निरूपण में कृतकार्य्य नहीं होती, और असफलता उनके मार्ग में बाधाक होती है। अतएव इस विषय में अधिाक न लिखकर मैंने अपना विचार - मात्रा प्रकट किया है। विश्वास है, वह अनुपयुक्त न समझा जावेगा।

    इस ग्रन्थ में जितने निबन्धा हैं, वे एक समय के लिखे हुए नहीं हैं। इनमें से कोई - कोई पचास वर्ष पहले के लिखे हुए हैं, और कोई - कोई आधाुनिक हैं, जिनके लिखने का समय चार - पाँच साल भी नहीं है। अधिाक लेख ऐसे हैं, जो पत्रा - पत्रिाकाओं के लिए माँग होने पर लिखे गये हैं, शेष ऐसे हैं, जो किसी सभा के सभापतित्वसूत्रा से लिपि - बध्द हुए हैं। समय परर्िवत्तानशील है, समय के साथ विचार भी बदलते रहते हैं। कुछ निबन्धाों में ऐसे विचार मिलेंगे, जोर् वत्तामान समय के अनुकूल नहीं कहे जा सकेंगे, और ऐसी अवस्था में यह कहा जा सकता है कि ऐसे लेख को प्रकाशित कराना ही नहीं चाहिए था; किन्तु वह लेख प्रकाशित इस विचार से कराया गया है कि उसको पढ़करर् कत्ताव्य का ज्ञान हो। पचास वर्ष के भीतर कुछ सुधाार अवश्य हुए हैं; परन्तु उच्छृंखलता और कदाचार ने भी हाथ - पाँव फैलाए हैं। मनमानापन भी रंग ला रहा है। समाज में खलबली अवश्य है, पर असावधाानी भी उसको स्वीकृत नहीं है। वह जो कुछ करता है, अपनी प्राचीन प्रणाली पर दृष्टि रखकर,र् वत्तामान जीवन से प्राचीन प्रणाली का मिलान कर। इन सब बातों पर दृष्टि रखकर ही कुछ ऐसे निबन्धा भी प्रकाशित कर दिए गये हैं, जो कुछ अंश में सामयिक न हों, पर उपयोगी अवश्य हैं। यथार्थ अनुभव उपकारक होता है, अपकारक नहीं। किन्तु ऐसे निबन्धा इने - गिने हैं, उनकी संख्या थोड़ी है। उनकी अधिाक बातें हितकारिणी हैं।

    अन्य निबन्धा ऐसे हैं, जिनमें साहित्यिकता अधिाक है, ऐतिहासिक अथवा दर्शनिक, किंवा वैज्ञानिक विषय के निबन्धा नाममात्रा के हैं; परन्तु, यथाशक्ति सब निबन्धाों को उपयोगी बनाने का उद्योग किया गया है। सफलता मुझको कितनी मिली है, इस विषय में मुझको कुछ कहने की अधिाकार नहीं है। भाषा संस्कृतगर्भित अवश्य है; पर दो - एक निबन्धाों की भाषा सरल हिन्दी है।

    हिन्दी भाषा में प्राय: कुछ ऐसे शब्द आते हैं, जिनका उच्चारण विशेष रीति से होता है, ये शब्द अरबी और फारसी के हैं, ऐसे शब्दों के जिन अक्षरों का उच्चारण विशेष रीति से होता है, उसके विशेष रूप से उच्चारण करने के लिए उन अक्षरों के नीचे बिन्दी (बिन्दु) दे दी जाती है। इस क्रिया से एक तो इस बात का ज्ञान हो जाता है कि यह दूसरी भाषा का शब्द है, दूसरी बात यह होती है कि उसे विशेष रूप से उच्चारण करना पड़ता है। बोल - चाल के समय साधाारण जनता ऐसे शब्दों का उचारण हिन्दी शब्दों की तरह करती है। जिसने उर्दू या फारसी पढ़ी है, वह तो अवश्य उसका उच्चारण फारसी अथवा अरबी के विद्वानों के समान करेगा, अन्य हिन्दू ऐसा उच्चारण करने में असमर्थ होता है। शिक्षा के समय अवश्य ऐसे शब्दों का उच्चारण हिन्दी के विद्यार्थी को भी फारसी और अरबी के नियामानुसार कराया जाता है, इसलिए कोर्स की पुस्तकों में ऐेसे शब्दों के उस अक्षर के नीचे बिन्दी (बिन्दु) अवश्य लगी रहती है, जिनका उच्चारण फारसी अथवा अरबी के ढंग से होता है। परस्पर बातचीत के समय, पंजाब प्रान्त, युक्त प्रान्त, विहार और मधय हिन्द का शिक्षित समुदाय भी फारसी और अरबी के शब्दों का उच्चारण उसी भाषा के नियमानुसार करता है; परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। साधाारण जनता और संस्कृत भाषा आदि के विद्वान् जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, इस नियम का पालन नहीं करते, कचहरी - दरबार में भी वे लोग इस विषय में स्वतन्त्रा पाए जाते हैं। इन सब बाताें पर दृष्टि रखकर उक्त प्रान्तों के कुछ विशिष्ट विद्वानों और प्रसिध्द पुरुषों अथच प्रभावशाली सज्जनों का यह विचार कुछ समय से हो गया है कि अधिाक सम्मति का आदर किया जावे। बिन्दी के झगडे से यन्त्राालयों को भी अनेक असुविधााएँ होती हैं। विहार इस विषय में अग्रगण्य है, युक्त प्रान्त और मधय हिन्द 'इदम् कुत:' में पडे हैं; परन्तु वहाँ भी कुछ यन्त्राालयों ने स्वतन्त्राता ग्रहण कर ली है। ज्ञात होता है, अधिाक सम्मति सर्वमान्य होकर रहेगी।

    'सन्दर्भ - सर्वस्व' का मुद्रण आधाुनिक प्रणाली से हुआ है। उसका अधिाकांशर् वत्तामानकालिक है। ग्रन्थ के कुछ पृष्ठों में बिन्दु या बिन्दी का प्रयोग किया गया है, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। बिन्दी का प्रयोग अधिाकतर उर्दू के पद्यों में किया गया है, किन्तु जिस पद्य में बिन्दु का प्रयोग किया गया है, उसमें भी कुछ ऐसे शब्द छोड़ दिए गये हैं, जिनको सबिन्दु होना चाहिए था। इस क्रिया से यह ज्ञान होता है कि कम्पोजिटर ने जिसको उर्दू शब्द समझा, उसको सबिन्दु बनाया, शेष को छोड़ दिया। मैंने अपने लेख में समस्त सबिन्दु शब्दों को सबिन्दु ही लिखा है; परन्तु कम्पोज के समय उस पर दृष्टि न रखकर कम्पोजिटर ने अपनी इच्छा के अनुसार कार्य किया है। प्राय: ग्रन्थ छपने के समय कुछ कम्पोजिटर ऐसी मनमानी करते हैं, चाहे अपने अज्ञान के कारण अथवा किसी असुविधाा के कारण। ग्रन्थों में जो बिन्दुओं का व्यवहार है, उसमें न तो मेरा मत है, न प्रकाशक का हाथ है, जो कुछ है कम्पोजिटर साहब का कृत्य है, अज्ञान से अथवा असावधाानी से। इसलिए विद्वज्जन से मेरी प्रार्थना है कि इस विषय में हमलोगों को क्षमा करेंगे। क्योंकि इस संस्करण में, इस प्रपंच में पड़ने से ग्रन्थ का यथासमय प्रकाशन न हो सकेगा, जो इस समय वांछनीय नहीं है।

    अब तक जो कुछ लिखा जा चुका है, उसके अतिरिक्त ग्रन्थ में जो अन्य भ्रम - प्रमाद हों, विद्वज्जनों द्वारा उनकी सूचना मिलने पर दूसरे संस्करण में मैं उनके संशोधान का प्रयत्न करूँगा और सूचक महोदय की कृपा का अनुगृहीत भी हूँगा।

अयोधयासिंह उपाधयाय

'हरिऔधा'

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हरिऔध भारतेंदु और द्विवेदी - युग की संधिा - वेला के रचनाकार थे। उन्हें 'कविसम्राट' कहा जाता था। वे हिन्दी की भाषिक और साहित्यिक परम्परा को गहराई से आत्मसात करते हुए निरंतर अपना विकास करते रहे। प्राचीनता और नवीनता, भावुकता और बौध्दिकता जैसे प्रश्नों के बीच उनकी दृष्टि हमेशा संतुलित बनी रही। उन्नीसवीं सदी के उत्तारार्ध्द यानी हिन्दी में आधुनिक युग की शुरूआत के साथ काव्य भाषा को लेकर तीक्ष्ण विवाद शुरू हुआ जो किसी न किसी रूप में स्वाधीनता प्राप्ति के आसपास तक चलता रहा। इसमें तीन तरह के लोग थे। एक ब्रजभाषा के अंधापक्षपाती थे तो दूसरे खड़ीबोली के। इनके बीच कुछ वैसे लोग भी थे जो इन दोनों के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण को लेकर चलनेवाले थे। हरिऔध जी उन्हीं कुछ लोगों में थे। विवाद खड़ीबोली हिन्दी की काव्यभाषा के स्वरूप को लेकर भी था। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, ठेठ हिन्दी और बोलचाल की हिन्दी के विभिन्न रूपों के बीच विरोध देखने की जगह हरिऔधा जी इन विभिन्न रूपों से हिन्दी को समृध्द करने के पक्षपाती थे। अपने पक्ष को श्रेष्ठ रचनाओं के माध्यम से ही नहीं, आलोचना के द्वारा भी उन्होंने व्यवस्थित रूप में सामने रखा।

      काव्यभाषा - सम्बन्धी उक्त विवादों के साथ 'कबीर वचनावली' के सम्पादन और उसकी लम्बी भूमिका के द्वारा कबीर सम्बन्धाी पाठालोचन और अध्ययन को केंद्र में लाने का काम भी उन्होंने किया। ग्रंथावली के प्रस्तुत खंड के जरिए हमें न केवल हरिऔधा के आलोचक रूप का बल्कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध्द की हिन्दी जाति का प्रमुख चिंताओं -  विवादों का भी जीवन्त परिचय मिलता है।


 

 

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

 

जन्म :  15 अप्रैल, सन् 1865 ई‑, विद्वान और राजसम्मान से सम्मानित परिवार में; निजामाबाद, आजमगढ़, उत्तार प्रदेश।

शिक्षा :  1879 ई. में मिडिल की परीक्षा पास की। फिर काशी के क्वींस कॉलेज में अध्ययन। 1887 ई. में नार्मल की परीक्षा और 1889 ई. में कानूनगो की परीक्षा पास की।

आजीविका :   पढ़ाई के साथ ही 1884 ई. में निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अधयापन - कार्य शुरू। 1890 ई. में कानूनगो होने के बाद ही वहाँ से मुक्त। 1923 ई. में सरकारी कार्य से अवकाश।

साहित्यिक जीवन    

का आरंभ :   1899 ई. में 'रसिक रहस्य' नामक पहलेकाव्य का प्रकाशन खड्गविलास प्रेस, पटनासे।

प्रमुख

कृतियाँ : काव्य : काव्योपवन, प्रियप्रवास, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, रसकलस, वैदेही वनवास, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्रा पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔधा सतसई। गद्य : रुक्मिणी परिणय (नाटक), ठेठ हिंदी का ठाट (उपन्यास), अधाखिला फूल (उपन्यास), हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा, संदर्भ सर्वस्व (आलोचना), कबीर वचनावली (संपादन)

सम्मान :     मार्च 1924 ई. से 1941 ई. तक हिंदू विश्वविद्यालय, काशी में हिंदी के अवैतनिक अध्यापक। 1922 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति। 1934 ई. में दिल्ली में होने वाले हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन के सभापति 12 सितंबर, 1937 ई. को नागरी प्रचारिणी सभा, आरा की ओर से राजेंद्र बाबू के करकमलों द्वारा अभिनंदन ग्रंथ भेंट। 1938 ई. में 'प्रियप्रवास' पर मंगला प्रसाद पुरस्कार।

निधन :      होली, 1947 ई.।

 


 

 

 

 

 

 

 

 

खंड - 7

 

 

हरिऔधा हिन्दी की भाषिक और साहित्यिक परम्परा को गहराई से आत्मसात् करने वाले रचनाकार थे। स्वभावत: वे हिन्दी भाषा और साहित्य के समग्र विकास को निरूपित करते हैं। छठे खंड में हम उसे देख चुके हैं। अपने आलोचना लेखन के जरिए उन्होंने ब्रजभाषा काव्य और खड़ीबोली बोलचाल में लिखे गये काव्य को प्रतिष्ठित करने के भी भरपूर प्रयास किए। उनके ब्रजभाषा - काव्य का शिखर 'रसकलस' है। इसकी सुविस्तृत भूमिका को हम पहले खंड में देख चुके हैं। 'बोलचाल' नामक अपने खड़ीबोली - काव्यग्रंथ की भी उन्होंने लंबी - चौड़ी भूमिका लिखी थी। उसके महत्तव को देखते हुए उन्होंने उसका पुस्तकाकार स्वतंत्रा प्रकाशन भी 'बोल - चाल की भाषा और मुहावरा' नाम से करवाया। इसीलिए उसे स्वतंत्रा आलोचनात्मक पुस्तक मानकर ग्रंथावली के इस आलोचना - खंड में शामिल करना उपयुक्त समझा गया।

    उनकी आलोचनात्मक चेतना का कायदे का परिचय सबसे पहले उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक 'कबीर वचनावली' की प्रशस्त भूमिका से मिलता है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से 1926 में इसका प्रकाशन हुआ था। दो वर्ष बाद सभा से ही बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा सम्पादित 'कबीर ग्रंथावली' प्रकाशित हुई। लंबे अर्से बाद फिर माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित 'कबीर ग्रंथावली' प्रकाश में आयी। कहा जा सकता है कि कबीर सम्बन्धाी पाठालोचन और अधययन को केन्द्र में लाने का काम हरिऔधा जी ने किया। तब वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अधयापन - कार्य कर रहे थे। कबीर भी काशी के थे। कहा जाता है कि अपनी विद्रोही धाार्मिक चेतना के कारण अंत समय में वे काशी को छोड़कर मगहर चले आये थे। लेकिन 'आदिग्रंथ' से 'बहुत बरख तप कीया काशी, मरन भया मगहर को बासी' जैसी कबीर की पंक्तियों को उध्दृत करते हुए वे कहते हैं कि 'इससे क्या सूचित होता है? यही कि कबीर साहब को किसी घोर धाार्मिक विरोधावश काशी छोड़नी पड़ी थी। ' काशी ने तुलसीदास को भी कम परेशान नहीं किया था।

    मूलत: 'बीजक' और 'साखी' के 'चौरासी अंग की साखी' अंश को आधाार बनाकर हरिऔधा ने 'वचनावली' तैयार की। इसमें उन्होंने अन्य संग्रहों को भी सामने रखा। इन्हें देखते हुए वे कहते हैं कि 'इन ग्रंथों की अधिाकांश कविता साधाारण है। सरस पद्य कहीं - कहीं मिलते हैं। हाँ, जहाँ कबीर साहब पूरबी बोल - चाल और चलते गीतों में अपने विचार प्रकट करते हैं, वहाँ की कविता निस्संदेह अधिाक सरस है। ' पद्यों में छंदोभंग की चिंत्य स्थिति की चर्चा करते हुए वे आगे कहते हैं, 'कबीर साहब के ग्रंथों का आदर कविता दृष्टि से नहीं; विचार दृष्टि से है। उन्होंने अपने विचार दृढ़ता और कट्टरपन के साथ प्रकट किए हैं। उनमें स्वाधाीनता की मात्राा भी अधिाक झलकती है। ' हरिऔधा - कबीर के 'कट्टरपन' और 'स्वाधाीनता की अधिाक मात्राा' की यथास्थान आलोचना करते हैं। उनका यह निष्कर्ष भी धयानाकर्षक प्रतीत होता है कि 'जिस प्रभु की कल्पना कबीर साहब ने की है, वह वैष्ण्ाव विचार - परम्परा से ही प्रसूत है, वह वैष्णव धार्म के एकेश्वरवाद का रूपांतर मात्रा है। ' करीब अस्सी - पच्चासी साल पहले व्यक्त किए गये ये विचार क्या परर्िवत्तिात परिस्थितियों में फिर से विचारणीय नहीं?

    1928 ई. में 'बोलचाल' के प्रकाशन से 'प्रियप्रवास' से नितांत भिन्न खड़ीबोली - काव्यभाषा का परिचय मिलता है। इसमें ऊपर जिस भूमिका का और बाद में उसके पुस्तकाकार प्रकाशन का जिक्र आया है, वह हरिऔधा की उस चिन्ता से जुड़ा है जो खड़ीबोली काव्यभाषा के उन्नायकों की स्वाभाविक चिन्ता कही जा सकती है। 'जब हिन्दी साहित्य पर ऑंख डाली तो उसमें मुहावरे की कोई पुस्तक न दिखलाई पड़ी। खड़ीबोली की कविता के फलने - फूलने के समय किसी ऐसी पुस्तक का न होना भी मुझे बहुत खटका।...इसलिए मैंने सोचा कि मुहावरों पर ही एक पुस्तक लिखूँ। ' इसके लिए उन्हाेंने बाल से तलवे तक शरीर के विभिन्न अंगों से जुड़े मुहावरों को लेकर हजारों चौपदों की रचना की। बोलचाल की भाषा में रचना के बाद उन्होंने बोलचाल की भाषा के बारे में विचार करते हुए कहा कि 'बोलचाल की हिन्दी, सरल हिन्दी और ठेठ हिन्दी में अन्तर है। ' ठेठ हिन्दी से उनका आशय तद्भव शब्दों से जुड़ी हिन्दी से है। भारतेन्दु ने हिन्दी के विभिन्न नमूने पेश किए थे। इसकी चर्चा करते हुए वे ठेठ हिन्दी से बोलचाल की हिन्दी को अलगाते हैं। उनका मानना है कि जहाँ ठेठ हिन्दी हिन्दी के चार शब्द - òोतों में से प्रधाानत: और अन्तत: तद्भव से जुड़ी है; वहाँ बोलचाल वाली हिन्दी में तद्भव के साथ उर्दू - फारसी ही नहीं अन्य विदेशज लोकप्रचलित शब्दों का भी सहज समावेश है। इसलिए उनका मानना है कि 'जिस ठेठ हिन्दी में अन्य भाषाओं का प्रचलित शब्द भी तद्भव शब्दों के साथ स्वतन्त्राापूर्वक व्यवहृत होता है, उसी को बोलचाल की भाषा कहा जा सकता है। ' सरल हिन्दी उनकी दृष्टि में उस हिन्दी को कहेंगे जिसमें तद्भव शब्दों के साथ थोड़े संस्कृत के शब्द भी शामिल होते हैं। बोलचाल की हिन्दी को प्रश्रय दिया जाना हरिऔधा की दृष्टि में जरूरी था। क्योंकि इसके बिना न तो हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास सम्भव था, और न ही हिन्दी - उर्दू के बढ़ते विभेद को दूर किया जाना ही। इसके साथ वे इस भाषावैज्ञानिक सत्य के भी कायल थे कि 'जो भाषा बोलचाल की भाषा से बिल्कुल दूर हो जाती है, वह काल पाकर लोप हो जाती है और उसका स्थान वह भाषा ग्रहण कर लेती है, जो बोलचाल की अधिाक समीर्पवत्तिानी होती है। ' इस भाषावैज्ञानिक सत्य का संस्कृत से अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है? निश्चय ही हरिऔधा जी की इस दूरंदेशी का कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता। आज सारे बाधाा - विघ्नों के बावजूद यदि हिन्दी फल - फूल रही है तो भाषा - संबंधाी ऐसी सजग सोच का ही उसमें योगदान है।

    उन्होंने यह महसूस किया कि उर्दू में जो चुस्ती है, उसका एक बहुत बड़ा कारण उसका मुहावरों से अभिन्न रूप से जुड़ा होना है। उर्दू की चुस्ती के साथ उसकी रवानगी उन्हें आकृष्ट करती थी। वे हिन्दी को भी उर्दू की तरह जानदार बनाने के हिमायती थे। इसी बृहत्तार परिप्रेक्ष्य में न केवल 'बोलचाल' की उनकी कविताओं को बल्कि उसकी बृहत्तार भूमिका को देखा जाना चाहिए।

    1940 में उनकी एक और छोटी - सी पुस्तक का प्रकाशन होता है - 'विभूतिमती - ब्रजभाषा' का। जिन उद्देश्यों की परिपूर्ति के लिए 'रसकलस' (1931) के ब्रजभाषा - काव्य के साथ उसकी बृहदाकार भूमिका का प्रकाशन हुआ था, कमोबेश उसी की पूर्ति के लिए प्रस्तुत पुस्तक की भी रचना हुई। दरअसल ब्रजभाषा बनाम खड़ीबोली हिन्दी काव्यभाषा का विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा था। इस विवाद में खड़ीबोली के कुछ कट्टर समर्थकों के द्वारा एक तो ब्रजभाषा को वर्तमान समय में काव्यभाषा मानने से ही इनकार किया जाता था तो कुछ के द्वारा ब्रजभाषा - काव्य पर एक - से - एक आक्षेप किए जाते थे। इन आक्षेपों में ब्रजभाषा की अतिशय शृंगारप्रियता से जुड़ी कथित अश्लीलता के आक्षेप के साथ उसके विषय - संकोच का आक्षेप भी शामिल था। 'रसकलस' की उक्त भूमिका में इसी के निराकरण का प्रयास है। प्रस्तुत पुस्तक भी 'ब्रजभाषा के वैभव को हिन्दी - जगत में प्रदर्शित करने, इसपर उठनेवाले निर्मूल आक्षेपों का निराकरण करने और इसके गौरव को देदीप्यमान बनाने के उद्देश्य से लिखी गयी है। इसमें उन्होंने नवीनता की झोंक में प्राचीनता की पूर्णत: उपेक्षा किए जाने को अश्रेयस्कर करार दिया। इस क्रम में उन्होंने प्राचीनता और नवीनता के परस्परपूरक रिश्ते का सफलतापूर्वक उद्धाटन किया है।

    इसके साथ हरिऔधा यह भी मानते हैं कि भावुकता और बुध्दिमत्ताा - 'दोनों के साहचर्य से ही कला पूर्णता को प्राप्त करती है। ' यहाँ भावुकता ब्रजभाषा - काव्य  तो बुध्दिमत्ताा खड़ी बोली - काव्य से संदर्भित है। वस्तुत: प्राचीनता और नवीनता तथा भावुकता और बौध्दिकता के सन्दर्भ में उनके द्वारा उठाए गये प्रश्न आज भी विचारणीय हैं। अतिशय शृंगारिकता और तज्जनित स्थूलता - अश्लीलता के आक्षेप पर विचार करते हुए उनका कहना है कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्रजभाषा - काव्य में श्रेष्ठ भक्तिकाव्य भी शामिल हैं। उसमें ऐसे भी काव्य हैं जिनमें 'वीर रस और प्रसाद गुणर् मूत्तिामंत' हैं। जहाँ उसमें संकीर्णता, कामुकता और विलासिता का अतिशय समावेश है, वहाँ उसे अवश्य आलोचना का विषय होना चाहिए। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्रजभाषा में श्रेष्ठ शृंगार - काव्य भी पर्याप्त मात्राा में उपलब्धा है। और जैसे जीवन में शृंगार और प्रेम के महत्तव को नकारा नहीं जा सकता, वैसे ही काव्य में भी। ऐसे में उनका यह प्रश्न आज भी उपयुक्त जान पड़ता है कि 'विष के भय से साहित्य समुद्र के रत्नों का त्याग समुचित होगा?' ऐसे रत्नों को पुस्तक में पर्याप्त उदाहरणों के माधयम से सामने लाया गया है। वस्तुत: हरिऔधा उन विरले साहित्यकारों में थे जो एक साथ ब्रजभाषा और खड़ी बोली के सिध्दहस्त कवि थे। वे खड़ी बोली की वर्तमान अर्थवत्ताा के साथ ब्रजभाषा - काव्य की विगत महत्ताा को भी ऑंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे। काव्यभाषा ही नहीं, भावबोधा के स्तर पर भी उनमें परम्परा और परिवर्तन, प्राचीनता और नवीनता का विलक्षण मणिकांचन संयोग था। अकारण नहीं है कि वे रचनात्मक स्तर पर एक साथ खड़ीबोली और ब्रजभाषा को समृध्द करते हैं। वे कभी एक - दूसरे को विरोधा की दृष्टि से देखते ही नहीं थे। 'प्रियप्रवास' और 'रसकलस' के रचयिता के रूप में हरिऔधा जी की कीर्ति चिरस्थायी है।

    हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की 'आधाुनिक कवि' शृंखला के पाँचवें कवि के रूप में हरिऔधा हमारे सामने आए। 1947 में प्रकाशित उस शृंखला में उन्होंने खड़ीबोली काव्य को भाषा के प्रकृत पथ पर लाने की वकालत करते हुए और उसे बनावटी और गढ़ी हुई भाषा बनाने से बचने पर जोर देते हुए 'दो - चार बाते। ' शीर्षक से एक भूमिका लिखी। इसमें कमोबेश वही बातें कही गयी हैं जो 'बोलचाल' की भूमिका से बनी पुस्तक में कही गयी हैं। आमतौर पर जहाँ दूसरे कवियों ने शृंखला में आकर अपने कवि को प्रातिनिधिाक रूप में पेश करना चाहा, वहीं हरिऔधा जी ने इसमें खड़ीबोली काव्य के अपने विविधा पक्षों में से केवल बोलचाल की हिंदी से जुड़े काव्य को सामने रखा। ऐसा इसलिए कि राष्ट्रभाषा के रूप में खड़ीबोली के विकास के प्रति उनकी ममता थी और शायद वे यह भी समझ रहे थे कि रचनात्मक रूप से भी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बहुत उपयोगी नहीं रहनेवाली है। ग्रंथावली के प्रस्तुत खंड में उक्त भूमिका को शामिल किए जाने के साथ उनके कुछ निबन्धाों को 'स्फुट' शीर्षक के अन्तर्गत शामिल किया गया है। इनमें सबसे पहले हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के 1922 ई. के दिल्ली - अधिावेशन में सभापति के आसन से दिया गया अभिभाषण है जिसे सम्मेलन से ही प्रकाशित 'सभापतियों के अभिभाषण' भाग - 2 से यहाँ संकलित किया गया है। इसमें कही गयी बातों का उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास से जुड़ी पुस्तक में (भाषण की औपचारिकताओं से जुड़े अंश को छोड़कर) प्राय: शब्दश: समावेश कर लिया है। फिर भी अभिभाषण की शैली ही नहीं; उसके ऐतिहासिक महत्तव को धयान में रखते हुए उसे प्रस्तुत खंड में शामिल किया जाना समीचीन जान पड़ा। 1943 ई. में हरिऔधा जी की 'सन्दर्भ - सर्वस्व' नाम की पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। इसमें उनके कुल 18 लेख हैं। अनेक लेख उनकी 'हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का विकास' नामक पुस्तक के ही अंश - रूप हैं। बाकी संबध्द लेख यहाँ शामिल किए गये हैं। ऐसे लेखों के अंत में कोष्ठक के अन्तर्गत पुस्तक के नाम का उल्लेख भी कर दिया गया है।

    ग्रंथावली के प्रस्तुत खंड में एक लंबा लेख 'रामायण में हिन्दू - संस्कृति' नाम से शामिल है जो हमें 'हरिऔधा शती स्मारक ग्रंथ' से उपलब्धा हुआ है। इसका प्रकाशन हरिऔधा जी की 101वीं जयंती के अवसर पर 1966 ई. में हुआ था। इसी 'ग्रंथ' से तीन अन्य लेखकों - कवियों की पुस्तकों की हरिऔधा जी द्वारा लिखी भूमिका या प्रस्तावना को भी शामिल किया गया है। इनमें महादेवी वर्मा के प्रसिध्द काव्य - संग्रह 'नीहार' का परिचय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 'सन्दर्भ - सर्वस्व' और 'स्मारकग्रंथ' से ली गयी सामग्री को एक तारतम्य में यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। सम्भव है, तत्कालीन पत्रा - पत्रिाकाओं को ख्रगालने के क्रम में कुछ और सामग्री उपलब्धा हो जाएँ। ऐसे में उसे आगे के संस्करण में शामिल किया जा सकता है।

    हरिऔधा जी के आलोचनात्मक लेखन और उसके वैविधय के साथ उनकी सुस्पष्ट, प्रांजल और तर्कपूर्ण समझ और भाषा का साक्षात्कार यहाँ पाठकों को प्रीतिकर होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

 - तरुण कुमार