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बृज
नारायण चकबस्त (19 जनवरी 1882 : 12 फ़रवरी 1926)
एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे । साक़िया जाते हैं, महफ़िल तेरी आबाद रहे ।।
मैं रहूँ या न रहूँ ये चमन आबाद रहे ।
कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे ।
हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे ।
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा
जज़्बा-ए-ईमाँ होना
नौ-गिरफ़्तार-ए-बला
तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ क्या जानें
रह के दुनिया में यूँ
तर्क-ए-हवस की कोशिश
ज़िन्दगी क्या है अनासिर में
ज़हूर-ए-तर्तीब
दिल असीरी में भी आज़ाद है
आज़ादों का
गुल को पामाल न कर लाल-ओ-गौहर
के मालिक है मेरा ज़ब्त-ए-जुनूँ
जोश-ए-जुनूँ से बढ़कर
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना अजल क्या है खुमार-ए-बादा-ए-हस्ती उतर जाना
मुबारक बुजदिलों को गर्दिश-ए-किस्मत से डर जाना
मज़ा सोज़-ए-मोहब्बत का भी कुछ ए बेखबर जाना
ख़ाके-हिन्द
अगली-सी ताज़गी है फूलों में
और फलों में
पयामे-वफ़ा
हो चुकी क़ौम के मातम में
बहुत सीनाज़नी
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रुखसत हुआ वो बाप से ले कर
खुदा का नाम
इज़हार-ए-बेकसी से सितम होगा
और भी
दिल को संभालता हुआ आखिर वो
नौनिहाल
तन में लहू का नाम नहीं,
ज़र्द रंग है
क्या जाने किस खयाल में गुम
थी वो बेगुनाह
चेहरे का रंग हालत-ए-दिल
खोलने लगा
आखिर,
असीर-ए-यास का क़ुफ़्ले-दहन
खुला
दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो
सर्फ़-ए-बयां हुआ
रो कर कहा;
खामोश खड़े क्यों हो मेरी जाँ?
किस तरह बन में आँख के तारे
को भेज दूँ?
दुनिया का हो गया है ये कैसा
लहू सफ़ेद?
लिक्खी है क्या हयात-ए-अबद
इन के वास्ते?
लेती किसी फ़क़ीर के घर में
अगर जनम
मैं खुश हूँ फूँक दे कोई इस
तख़्त-ओ-ताज को
किन किन रियाज़तों से गुज़ारे
हैं माह-ओ-साल
छूटती हूँ उन से,
जोग लें जिन के वास्ते
ऐसे भी नामुराद बहुत आयेंगे
नज़र
लेकिन यहाँ तो बन के मुक़द्दर
बिगड़ गया
सरज़ाद हुए थे मुझसे खुदा
जाने क्या गुनाह
तक़्सीर मेरी,
खालिक़-ए-आलम बहल करे
सुन कर ज़बाँ से माँ की ये
फ़रयाद दर्द-ख़ेज़
सोचा यही,
के जान से बेकस गुज़र न जाये
फिर अर्ज़ की ये
मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर 2
शायद खिज़ाँ से शक्ल अयाँ हो
बहार की
ये जाल,
ये फ़रेब,
ये साज़िश,
ये शोर-ओ-शर
खास उसकी मस्लहत कोई पहचानता
नहीं
राहत हो या के रंज,
खुशी हो के इन्तेशार
सख्ती सही नहीं,
के उठाई कड़ी नहीं
देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने
ने इंकलाब
कुछ बन नहीं पड़ा,
जो नसीबे बिगड़ गये
माँ बाप मुँह ही देखते थे
जिनका हर घड़ी
महरूम जब वो गुल हुए
रंग-ए-हयात से
कहते थे लोग देख के माँ बाप
का मलाल
हाँ कुछ दिनों तो नौहा-व-मातम
हुआ किया
पड़ता है जिस ग़रीब पे
रंज-ओ-महन का बार
इन्सान उस की राह में साबित
क़दम रहे
और आप को तो कुछ भी नही रंज
का मुक़ाम
और यूं कहीं भी रंज-ओ-बल से
मफ़र नहीं
अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों
पे बाग़बाँ
रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें
अपनी जाँ की तरह
लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा
में बेशुमार
होता है उन पे फ़स्ल जो
रब्बे-करीम का
अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़
पर उस का करम शरीक अगर है तो
ग़म नहीं |
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