हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

 आज़ादी
हफ़ीज़ जालंधरी

 

शेरों को आज़ादी है आज़ादी के पाबंद रहें
जिसको चाहें चीरें फाड़ें खायें पियें आनंद रहें

शाहीं को आज़ादी है आज़ादी से परवाज़ करे
नन्‍ही मुन्‍नी चिडियों पर जब चाहे मश्‍क़े-नाज़ करे

सांपों को आज़ादी है हर बस्‍ते घर में बसने की
इनके सर में ज़हर भी है और आदत भी है डसने की
 

पानी में आज़ादी है घड़ियालों और नहंगों को
जैसे चाहें पालें पोसें अपनी तुंद उमंगों को

इंसां ने भी शोखी सीखी वहशत के इन रंगों से
शेरों, संपों, शाहीनों, घड़ियालों और नहंगों से

इंसान भी कुछ शेर हैं बाक़ी भेड़ों की आबादी है
भेड़ें सब पाबंद हैं लेकिन शेरों को आज़ादी है
 

शेर के आगे भेड़ें क्‍या हैं इक मनभाता खाजा है
बाक़ी सारी दुनिया परजा शेर अकेला राजा है

भेड़ें लातादाद हैं लेकिन सबको जान के लाले हैं
इनको यह तालीम मिली है भेड़िये ताक़त वाले हैं
 

मास भी खायें खाल भी नोचें हरदम लागू जानों के
भेड़ें काटें दौरे-ग़ुलामी बल पर गल्‍लाबानों के
 

भेडि़यों से गोया क़ायम अमन है इस आबादी का
भेड़ें जब तक शेर न बन लें नाम न लें आज़ादी का

इंसानों में सांप बहुत हैं क़ातिल भी ज़हरीले भी
इनसे बचना मुश्किल है, आज़ाद भी हैं फुर्तीले भी
 

सांप तो बनना मुश्किल है इस ख़स्‍लत से माज़ूर हैं हम
मंतर जानने वालों की मुहताजी पर मजबूर हैं हम

शाहीं भी हैं चिड़ियाँ भी हैं इंसानों की बस्‍ती में
वह नाज़ा अपनी रिफ़अत पर यह नालां अपनी पस्‍ती में

शाहीं को तादीब करो या चिड़ियों को शाहीन करो
यूं इस बाग़े-आलम में आज़ादी की तलक़ीन करो
 

बहरे-जहां में ज़ाहिर-ओ-पिनहां इंसानी घड़ियाल भी हैं
तालिबे-जानओजिस्‍म भी हैं शैदाए-जान-ओ-माल भी हैं
 

यह इंसानी हस्‍ती को सोने की मछली जानते हैं
मछली में भी जान है लेकिन ज़ालिम कब गर्दानते हैं
 

सरमाये का जि़क्र करो मज़दूरों की इनको फ़िक्र नहीं
मुख्‍तारी पर मरते हैं मजबूरों की इनको फ़िक्र नहीं

आज यह किसका मुंह है आये मुंह सरमायादारों के
इनके मुंह में दांत नहीं फल हैं ख़ूनी तलवारों के
 

खा जाने का कौन सा गुर है जो इन सबको याद नहीं
जब तक इनको आज़ादी है कोई भी आज़ाद नहीं
 

ज़र का बंदा अक़्ल-ओ-ख़िरद पर जितना चाहे नाज़ करे
ज़ैरे-ज़मीं धंस जाये या बालाए-फ़लक परवाज़ करे

इसकी आज़ादी की बातें सारी झूठी बातें हैं
मज़दूरों को मजबूरों को खा जाने की घातें हैं
 

जब तक चोरों-राहज़नों का डर दुनिया पर ग़ालिब है  
पहले मुझसे बात करे जो आज़ादी का तालिब है

 

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.