है मश्क़े-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
है
मश्क़े-सुख़न
जारी,
चक्की की मशक़्क़त
भी
इक तरफ़ा
तमाशा है हसरत
की तबीयत भी
जो
चाहो सज़ा दे लो तुम
और भी खुल-खेलो
पर हम से क़सम ले लो की हो
जो शिकायत
भी
ख़ुद इश्क़ की गुस्ताख़ी सब
तुझको सिखा देगी
अय हुस्न-ए-हया परवर
शोख़ी भी शरारत भी
उश्शाक़
के
दिल
नाज़ुक,
उस शोख़ की ख़ू
नाज़ुक
नाज़ुक इसी
निस्बत
से है कारे-महब्बत
भी
अय शौक़ की बेबाकी वो क्या
तेरी ख़्वाहिश थी
जिसपर उन्हें ग़ुस्सा है,
इनकार भी ,हैरत
भी
[1] आशिक का बहुवचन
[2] स्वभाव
(शीर्ष पर
वापस)
शिकवा-ए-ग़म तेरे हुज़ूर किया
शिकवए-ग़म
तेरे हुज़ूर
किया
हमने बेशक
बड़ा क़ुसूर किया
दर्दे-दिल को तेरी तमन्ना ने
ख़ूब सरमायाए-सरूर किया
नाज़े-ख़ूबाँ1
ने आ़शिक़ों के सिवा
आ़रिफ़ों2
को भी नासबूर3
किया
यह भी इक छेड़ है कि क़ुदरत
ने
तुमको ख़ुद-बीं4
हमें ग़यूर5
किया
नूरे-अर्ज़ो-समा6
को नाज़ है यह
कि तेरी शक्ल में ज़हूर
7
किया
आपने क्या किया कि 'हसरत'
से-
न मिले,
हुस्न का ग़रूर किया.
-
सुन्दरियों के गर्व
-
ज्ञानियों
-
बेचैन
-
घमण्डी
-
आत्म-सम्मानपूर्ण
-
पृथ्वी और आकाश का प्रकाश
-
प्रकट होना
(शीर्ष
पर वापस)
रोशन
जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
रोशन जमाल-ए-यार से है
अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन
तमाम
हैरत गुरूर-ए-हुस्न से शोख़ी
से इज़तराब
दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं
चलन तमाम
अल्लाह हुस्न-ए-यार की ख़ूबी
के ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में
डूब गया पैरहन तमाम
देखो तो हुस्न-ए-यार की जादू
निगाहियाँ
बेहोश इक
नज़र में हुई अंजुमन
तमाम
(शीर्ष
पर वापस)
चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
चुपके-चुपके रात दिन आँसू
बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो
ज़माना याद
है
बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद
हज़ाराँ इश्तियाक़
तुझसे वो पहले-पहल दिल का
लगाना याद
है
तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो
जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली
दबाना याद है
खेंच लेना वो मेरा परदे का
कोना दफ़अतन
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह
छुपाना
याद है
जानकार सोता तुझे वो क़स्दे
पा-बोसी
मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो
मुस्कराना याद है
तुझको जब तन्हा कभी पाना
तो अज़ राहे-लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में
जताना याद है
ग़ैर की नज़रों से बच कर
सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को
आना याद है
आ गया गर
वस्ल
की शब
भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़
वो तेरा रो-रो के मुझको भी
रुलाना याद
है
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने
के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना
याद है
देखना मुझको जो बरगश्ता तो
सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद
रूठ जाना याद है
चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले
थे जिस जगह
मुद्दतें
गुज़रीं पर अब तक वो
ठिकाना याद है
बावजूदे-इद्दआ-ए-इत्तिक़ा
‘हसरत’
मुझे
आज तक अहद-ए-हवस
का वो ज़माना याद है
(शीर्ष पर
वापस)
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही
तर्के-उल्फ़त
पर वो क्योंकर याद
आते हैं
न छेड़
ऐ हम नशीं
कैफ़ीयते-सहबा
के अफ़साने
शराबे-बेख़ुदी
के मुझको साग़रयाद
आते हैं
रहा करते हैं
क़ैद-ए-होश
में ऐ वाये नाकामी
वो
दश्ते-ख़ुद फ़रामोशी
के चक्कर याद आते हैं
नहीं आती तो याद उनकी
महीनों भर
नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो
अक्सर याद आते हैं
हक़ीक़त खुल गई ‘हसरत’
तेरे तर्के-महब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी
बढ़कर याद आते हैं
(शीर्ष
पर वापस)