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जगन्नाथ आज़ाद
(1918-2004)

जो था दिल का दौर गया

जो था दिल का दौर गया मगर है नज़र में अब भी वो अंजुमन
वो खयाल-ए-दोस्त चमन चमन, वो जमाल-ए-दोस्त बदन बदन

अभी इब्तिदा-ए-हयात है, अभी दूर मंज़िल-ए-इश्क है
अभी मौज-ए-ख़ूं है, नफ़स नफ़स, अभी ज़िन्दगी है कफ़न कफ़न

मेरे हम-नफ़स गया दौर जब फ़क़त आशियानों की बात थी
के है आज बर्क़ की राह में, मेरा भी चमन तेरा भी चमन

तेरे बहर-ए-बख्शीश-ओ-लुत्फ़ जो अता हुई थी कभी मुझे
मेरे दिल में है वही तश्‍नगी, मेरी रूह में है वही जलन

न तेरी नज़र में जँचे कभी, गुल-ओ-गुन्चा में जो है दिलकशी
जो तू इत्तेफ़ाक से देख ले कभी, ख़ार में है जो बाँकपन

ये ज़मीं और उसकी वसीयतें, न मेरी बनें न तेरी बनें
मगर इस पे भी है यही ज़िद हमें, ये तेरा वतन वो मेरा वतन

वही मैं हूँ जिसका हर एक शेर एक आरज़ू का मज़ार है
कभी वो भी दिन थे के जिन दिनों, मेरी हर गज़ल थी दुल्हन दुल्‍हन

ये नहीं के बज़्म-ए-तरब में अब कोई नग़्मा ज़न ही न रहा
मैं अकेला इसलिये रह गया के बदल गय़ी है वो अंजुमन

मेरी शायरी है छुपी हुई मेरी ज़िन्दगी के हिजाब में
ये हिजाब उठे तो अजब नहीं पड़े मुझ पे भी निगाह-ए-वतन

वो अजीब शेर-ए-फ़िराक़ था के है रूह आलम-ए-वज्द में
वो निगाह-ए-नाज़ जुबाँ जुबाँ, वो सुकूत-ए-नाज़ सुख़न सुख़न।


मुमकिन नहीं कि बज़्म -ए-तरब फिर सजा सकूँ

मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ

ये क्या तिलिस्म है कि तेरी जलवा-गाह से
नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ

ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिनको उठा सकूँ

किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन
अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन को मना सकूँ

तेरी हसीं फ़िज़ा में मेरे ऐ नए वतन
ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ

'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे है रक़सां के ज़मज़मे
ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ



मंज़िल-ए-जानाँ को जब ये दिल रवाँ था दोस्तो

मंज़िल-ए-जानाँ को जब ये दिल रवाँ था दोस्तो
तुमको मैं कैसे बताऊँ क्या समाँ था दोस्तो

हर गुमाँ पहने हुए था एक मल्बूस-ए-यक़ीं,
हर यक़ीं जाँ दादा-ए-हुस्न-ए-गुमाँ था दोस्तो

दिल कि हर धड़कन मकान-ओ-लामकाँ पर थी मुहीत,
हर नफ़स राज़-ए-दोआलम का निशाँ था दोस्तो

क्या ख़बर किस जुस्तजू में इस क़दर आवारा था
दिल के जो गन्जीना-ए-सर्र-ए-निहाँ था दोस्तो

ढूँढने पर भी न मिलता था मुझे अपना वुजूद
मैं तलाश-ए-दोस्त में यूँ बेनिशाँ था दोस्तो

मर्कद-ए-इक़्बल पर हाज़िर थी जब दिल की तड़प,
ज़िन्दगी का एक पर्दा दर्मियाँ था दोस्तो

रू-ब-रू-ए-जल्वा-ए-मर्कद वुजूद-ए-कम अयार,
ज़र-ए-नाक़िस शर्मसार-ए-इम्तेहाँ था दोस्तो

पर्तव-ए-दिल में निहाँ थी तह-बतह ये ख़ामोशी,
इश्क़ का वो भी इक इज़्हार-ए-बयाँ था दोस्तो

जल्वागाह-ए-दोस्त का आलम कहूँ मैं तुमसे क्या
जल्वा हि जल्वा वहाँ था मैं कहाँ था दोस्तो

सज्दगाह-ए- ख़ुर्शियाँ था याँ न जाने क्या था वो
जो मेरी नज़रों के आगे आस्ताँ था दोस्तो

दिल ने हर लम्हे को देखा इक निराले रंग में
लम्हा-लम्हा दास्ताँ दर दास्ताँ था दोस्तो

जिसके शेर-ओ-नग़्मगी पर वुस्अत-ए-आलम थी तंग
हर सुबह को वो दोपह्रे बेकराँ था दोस्तो

सो रहा था ख़ाक के नीचे जहान-ए-ज़िन्दगी
राज़-ए-हस्ती मेरी नज़रों पर अयाँ था दोस्तो

काश तुम भी मेरी पलकों का नज़ारा देखते
ये नज़ारा कहकशां दर कहकशां था दोस्तो



अहबाबे-पाकिस्तान के नाम

एक नया माहौल, इक ताज़ा समां पैदा करें
दोस्तो ! आओ मोहब्ब त की ज़बां पैदा करें

हो सके तो इक बहारे-गुलसितां पैदा करें
अपने हाथों से न अब दौरे-खिज़ां पैदा करें

ताब के बेगानगी एहसास परतारी रहे
एक माहौले-वफ़ाए-दोस्तां पैदा करें

अय रफ़ीक़ो ! जंग के शोले तो ठंडे हो चुके
आओ अब इनकी जगह इक गुलसितां पैदा करें

दोस्तो ! जिस पर हमें भी नाज़ था तुमको भी फ़ख़्र
फिर वही सरमाय:ए-दर्दे निहां पैदा करें

बू कभी बारूद की जिसके क़रीब आने न पाये
एक ऐसा आलमे-अम्नो-अमां पैदा करें

कल लिखी थी हमने औरों के लहू से दास्तां
अपने खूने-दिल से अब इक दास्तां पैदा करें

कह रहा है हमसे यह मुस्त क़्बिले-बर्रे-सग़ीर
हिन्दो -पाक इक इत्तिहादे-जिस्मोर-जां पैदा करें

जज़्ब:ए-नफ़रत अगर दिल में निहां हो जायेगा
एक दिन आयेगा दोनों का ज़ियां हो जायेगा

क्या कहूं मैं अब जो हाले गुलसितां हो जायेगा
शोल:ए-बेबाक अगर ख़स में रवां हो जायेगा

हंस रही है आज इक दुनिया हमारे हाल पर
दोस्तो ! इस तरह तो दिल ख़ूंचकां हो जायेगा

हम अगर इक दूसरे पर मेहरबां हो जायें आज
हम पे गोया इक ज़माना मेहरबां हो जायेगा

जाद:ए-महरो-वफ़ा पर हम न गर मिलकर चले
जो है ज़र्रा राह का संगे-गरां हो जायेगा

इक हमारी और तुम्हारी दोस्तीं की देर है
जो मुख़ालिफ़ आज है कल हमज़बां हो जायेगा

फिर ग़ज़ल को लौट आयेगी मिरी फ़िक्रे-जमील
और ही मेरा कुछ अन्दागज़े-बयां हो जायेगा

और अगर यारो ! ज़रा भी हमने इसमें देर की
हर गुले-तर एक चश्मे -ख़ूँफ़शां हो जायेगा

मुझको हैरत है तुम्हें इसका ज़रा भी ग़म नहीं
जिस क़दर क़द्रें हमारी थीं परेशां हो गयीं

कुछ ख़बर भी है कि इस आतिश नवाई के तुफ़ैल
‘‘ख़ाक में क्याआ सूरतें होंगी कि पिन्हां हो गयीं’’

याद भी हैं कुछ वह रंगारंग बज़्म आराइयां
‘‘आज जो नक़्शो-निगारे-ताक़े-निसियां हो गयीं’’

दोस्तो ! तुमने दिया जब साथ इस्तिब्दाद का
ग़ालिब-ओ-इक़बाल की रूहें परेशां हो गयीं

परचमे-इख़्लास गर्दूं से ज़मीं पर गिर गया
अय कई बरसों की मेहनत ! तुझपे पानी फिर गया

मेरी नज़रों से जो मुस्तनक़्बिल को देखो दोस्तो
वह अंधेरा जो मुसल्लुत था हवा होने को है

मुद्दतों जो सीन:ए-माज़ी में सरबस्तास रहा
अब वह मुस्त क़्बिल के हाथों राज़ वा होने को है

कह रही है मुझसे आज अय दोस्तो तस्वीरे-हाल
आदमी पर आदमी का हक़ अदा होने को है

नाल:ए-सैयाद ही इस दौर की मंज़िल नहीं
ख़ूने-गुलचीं से कली रंगीं क़बा होने को है

‘‘आंख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं’’
क्या कहूं मैं आज मश्रिक़ क्या से क्यार होने को है

सीनाचाकों की जुदाई का ज़माना जा चुका
‘‘बज़्मे-गुल की हमनफ़स’’ बादे-सबा होने को है

सुबह की ज़ौ से दमक उठने को है बर्रे-सग़ीर
और ज़ुल्म़त रात की सीमापा होने को है


आज़ाद हिन्द फ़ौज

पाइन्‍दाबाद हिन्‍द की अय फ़ौजे-ख़ुश़निहाद

वह दिन खु़दा करे कि बर आये तिरी मुराद

मिट जाये बज़्मे-दहर से यह जंग यह फ़साद

ज़िन्‍दां को तोड़ फोड़ दे अय हुर्रियत निशाद

 

अब वक़्त आ गया है कि हो आज़िमे-जिहाद

हिन्‍दोस्‍तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्‍दाबाद

परचम तिरा हो चाँद सितारों से भी बलन्‍द

पहुँचा सके न दौरे-ज़माना तुझे गज़न्‍द

अग़ियार कर सकें न कभी तुझ पे राह बन्‍द

पस्‍पाइयॉं हों तेरे जवानों को नापसन्‍द

तू कामरां हो और अदू तेरे नामुराद

हिन्‍दोस्‍तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्‍दाबाद

 

जयहिन्‍द की सदाओं में तेरे जवां बढ़ें

हाथों में लेके अम्‍नो-अमां के निशां बढें

नुसरत नसीब उनके क़दम हों जहां बढ़ें

बहरे वक़ारो अज़्मते हिन्‍दोस्‍तां बढ़ें

दुनिया को भी वह शाद करें, हिन्‍द को भी शाद

हिन्‍दोस्‍तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्‍दाबाद








 

 
 


ख़्वाब की तरह से है याद के तुम आये थे


जिस तरह दामन-ए-मश्रिक़ में सहर होती है
ज़र्रे ज़र्रे को तजल्ली की ख़बर होती है
और जब नूर का सैलाब गुज़र जाता है
रात भर एक अंधेरे में बसर होती है
कुछ इसी तरह से है याद के तुम आये थे

जैसे गुलशन में दबे पाओं बहार आती है
पत्ती-पत्ती के लिये लेके निखार आती है
और फिर वक़्त वो आता है के हर मौज-ए-सबा
अपने दामन में लिये गर्द-ओ-ग़ुबार आती है
कुछ इसी तरह से है याद के तुम आये थे

जिस तरह मह्व-ए-सफ़र हो कोई वीराने में
और रस्ते में कहीं कोई ख़ियाबाँ आ जाये
चन्द लम्हों में ख़ियाबाँ के गुज़र जाने पर
सामने फिर वोही दुनिया-ए-बियाबाँ आ जाये
कुछ इसी तरह से है याद के तुम आये थे

 

 

भारत के मुसलमां

इस दौर में तू क्यों है परेशां व हिरासां
भारत का तू फ़रज़ंद है बेगाना नहीं है
क्या बात है क्यों मोत है ज़ल-ज़ल तेरा ईमां
ये देश तेरा घर है तू इस घर का मकीं है
दानिश कद ए दहर की ऐ शम्मा फ़रोज़ां
ताबिन्दह तेरे नूर से इस घर की ज़बीं है
ऐ मतल ए तहज़ीब के खुरशीदे दरख्शां
किस वास्ते अफ़सुरदा व दिलगीरो हज़ीं है
हैरत है घटाओं से तेरा नूर ही तरसां
पहले की तरह बागे वतन में हो नवाख्वां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

तू दौरे मोहब्बत का तलबगार अज़ल से
मेरा ही नहीं है ये गुलिस्तां है तेरा भी
तू मेहरो मोरव्वत का परस्‍तार अज़ल से
हर रदो गुलो लाल-ओ-रेहां है तेरा भी
तू महरमे हर लज़्ज़ते असरार अज़ल से
इस खाक का हर ज़र्रए ताबां है तेरा भी
रअनाइए अफ़्कार को कर फिर से गज़लख्वां
दामन में उठा ले ये सभी गौहरे रख़्शां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

हरगिज़ न भुला मीर का गालिब का तराना
कश्मीर के फूलों की रिदा तेरे लिये है
बन जाय कहीं तेरी हकीकत न फ़साना
दामाने हिमाला की हवा तेरे लिये है
कज़्ज़ाके फ़ना को तो है दरकार बहाना
मैसूर की जां बख्श फ़ज़ां तेरे लिये है
ताराज़ न हो कासिम-ओ-सय्यद का खज़ाना
मद्रास की हर मौजे सबा तेरे लिये है
ऐ कासिम-ओ-सय्यद के खज़ाने के निगहबां
अब ख्वाब से बेदार हो सोये हुए इन्सां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

हाफ़िज़ के तरन्नुम को बसा कल्ब-ओ-नज़र में
गुज़री हुई अज़मत का ज़माना है तेरा भी
रूमी के तफ़क्कुर को सजा कल्ब-ओ-नज़र में
तुलसी का दिलावेज़ तराना है तेरा भी
सादी के तकल्लुम को बिठा कल्ब-ओ-नज़र में
जो कृष्ण ने छेड़ा था फ़साना है तेरा भी
दे नग्मा-ए-खैयाम को जा कल्ब-ओ-नज़र में
मेरा ही नहीं है ये खज़ाना है तेरा भी
ये लहन हो फिर हिंद की दुनिया में पुर अफ़शां
छोड़ अब मेरे प्यारे गिलएतन्गी ये दामां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

सांची को ज़रा देख अजन्ता को ज़रा देख
ज़ाहिर की मुहब्बत से मोरव्वत से गुज़र जा
मुमकिन हो तो नासिक को एलोरा को ज़रा देख
बातिन की अदावत से कुदूरत से गुज़र जा
बिगड़ी हुई तस्वीरे तमाशा को ज़रा देख
बेकार-ओ-दिल अफ़गार कयादत से गुज़र जा
बिखरी हुई उस इल्म की दुनिया को ज़रा देख
इस दौर की बोसीदा सियासत से गुज़र जा
इस फ़न पे फ़कत मैं ही नहीं तू भी हो नाज़ां
और अज़्म से फिर थाम ज़रा दामने ईमां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

तूफ़ान में तू ढूंढ रहा है जो किनारा
हम दोनों बहम मिल के हों भारत के मोहाफ़िज़
अमवाज का कर दी-दा-ए बातिन से नज़ारा
दोनों बनें इस मुल्क की अज़्मत के मोहाफ़िज़
मुमकिन है कि हर मौजे नज़र को हो गवारा
देरीना मवद्दत के मोरव्वत के मोहाफ़िज़
मुमकिन है के हर मौज बने तेरा सहारा
इस देश की हर पाक रेवायत के मोहाफ़िज़
मुमकिन है कि साहिल हो पसे पर्द-ए-तूफ़ां
हो नामे वतन ताकि बलन्दी पे दरख्शां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

गुलज़ारे तमन्ना का निखरना भी यहीं है
इस्लाम की तालीम से बेगाना हुआ तू
दामन गुले मकसूद से भरना भी यहीं है
ना महरमे हर जुरअतेरिन्दानह हुआ तू
हर मुश्किल-ओ-आसां से गुज़रना भी यहीं है
आबादी-ए-हर बज़्म था वीराना हुआ तू
जीना भी यहीं है जिसे मरना भी यहीं है
तू एक हकीकत था अब अफ़साना हुआ तू
क्यूं मन्जिले मकसूद से भटक जाये वो इंसां
मुमकिन हो तो फिर ढूंढ गंवाये हुए सामां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

मानिन्दे सबा खेज़-ओ-वज़ीदन दिगर आमोज़
अजमेर की दरगाहे मोअल्ला तेरी जागीर
अन्दर वलके गुन्चा खज़ीदन दिगर आमोज़
महबूब इलाही की ज़मीं पर तेरी तनवीर
दर अन्जुमने शौक तपीदन दिगर आमोज़
ज़र्रात में कलियर के फ़रोज़ां तेरी तस्वीर
नौमीद मशै नाला कशीदन दिगर आमोज़
हांसी की फ़ज़ाओं में तेरे कैफ़ की तासीर
ऐ तू के लिये दिल में है फ़रियादे नयस्‍तां
सरहिंद की मिट्टी है तेरे दम से फ़रोज़ां
भारत के मुसलमां
भारत के मुसलमां

सुभाषचन्द्र बोस
बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार पर


अय शहे-हिन्दोस्तां, अय लाल किले के मकीं
आसमां होने को है फिर इस वतन की सरज़मीं

यह वतन रौंदा है जिसको मुद्दतों अग़ियार ने
जिस पे ढाये ज़ुल्मह लाखों चर्खे-नाहंजार ने

मुद्दतों जिसको रखा क़िस्मखत ने ज़िल्लेत आशना जिसके हर पहलू में पैदा पस्तियों की इंतिहा

आज फिर उस मुल्क़ं में इक ज़िन्दंगी की लहर है
ख़ाक से अफ़लाक तक ताबिन्द़गी की लहर है
आज फिर इस मुल्कत के लाखों जवां बेदार हैं
हुर्रियत की राह में मिटने को जो तैयार हैं

आज है फिर बेनियाम इस मुल्क की शमशीर देख सोने वाले जाग, अपने ख़्वाब की ताबीर देख
इस तरह लर्जे में है बुनियादे-ऐवाने-फ़िरंग खा चुके हैं मात गोया शीशाबाज़ाने-फिरंग

हुब्बेम-क़ौमी के तरानों से हवा लबरेज़ है
और तोपों की दनादन से फ़ज़ा लबरेज़ है

शोर गीरोदार का है फिर फ़ज़ाओं में बलन्दे
आज फिर हिम्मकत ने फेंकी है सितारों पर कमन्दह

फिर उमंगें, आरजूएं हैं दिलों में बेक़रार
क़ौम को याद आ गया है अपना गुमगश्ता वक़ार
नौजवानों के दिलों में सरफ़रोशी की उमंग
इश्क़क बाजी ले गया है, अक़्ल बेचारी है दंग
आज फिर इस देस में झंकार तल्वागरों की है
ज़र्रे ज़र्रे में निहां ताबिन्दीगी तारों की है

यह नज़ारा आह लफ़्ज़ों में समा सकता नहीं
‘आंख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं’

फ़त्होख-नुसरत की दुआओं से हवा मामूर है
नार:-ए-‘‘जयहिन्दस’’ से सारी फ़जा मामूर है
मुझको अय शाहे-वतन! अपने इरादों की क़सम
जिनके सर काटे गये उन शाहज़ादों की क़सम

तेरे मर्क़द की मुक़द्दस ख़ाक की मुझको क़सम
मैं जहां हूं उस फ़ज़ाए-पाक की मुझको क़सम

अपने भूके जां बलब बंगाल की मुझको क़सम
हाकिमों के दस्त पर्वर काल की मुझको क़सम

लाल किले की, ज़वाले-शहरे-देहली की क़सम
मोहसिने-देहली मआले-शहरे-दहली की क़सम

मैं तिरी खोई हुई अज़्मत को वापस लाऊंगा और तिरे मर्क़द पे नुसरत याब होकर आऊंगा
 

तेरी बज़्म-ए-तरब में सोज़-ए-पिन्हाँ लेके आया हूँ

तेरी बज़्म-ए-तरब में सोज़-ए-पिन्हाँ लेके आया हूँ
चमन में यादे-अय्याम-ए-बहाराँ लेके आया हूँ

तेरी महफ़िल से जो अरमान-ओ-हसरत लेके निकला था
वो हसरत लेके आया हूँ वो अरमाँ लेके आया हूँ

तुम्हारे वास्ते ऐ दोस्तो मैं और क्या लाता
वतन की सुबह और शाम-ए-ग़रीबाँ लेके आया हूँ

मैं अपने घर में आया हूँ मगर अन्दाज़ तो देखो
के अपने आप को मानिन्द-ए-महमाँ लेके आया हूँ

 

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