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जाँ निसार अख्तर अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के
लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द
मिटा दें
आँखों में जो भर लोगे,
तो काँटे-से चुभेंगे
देखूँ तिरे हाथों को तो लगता
है तिरे हाथ ये इल्म का सौदा,
ये रिसाले,
ये किताबें
सुबह की आस
सुबह की आस किसी लम्हे जो घट
जाती है
शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक
उठता है
बर्फ़ सीनों की न पिघले तो
यही रूद-ए-हयात
आहटें कौन सी ख़्वाबों में
बसी है जाने हाँ ख़बरदार कि इक
लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
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रुबाइयाँ अब्र
में छुप गया है आधा चाँद
इक
नई नज़्म कह रहा हूँ मैं ये
मुजस्सम
सिमटती मेरी रूह ये
किसका ढलक गया है
आंचल जीवन
की ये छाई हुई अंधयारी रात
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