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ख़ुमार बाराबंकवी


अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी
बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है
दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं  

ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है

ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है
कहाँ है ऐ ग़मे-जानाँ! कहाँ है

इक आँसू कह गया सब हाल दिल का
मैं समझा था ये ज़ालिम बेज़बाँ है

ख़ुदा महफ़ूज़ रखे आफ़तों से
कई दिन से तबीयत शादमाँ है

वो काँटा है जो चुभ कर टूट जाए
मोहब्बत की बस इतनी दासताँ है

ये माना ज़िन्दगी फ़ानी है लेकिन
अगर आ जाए जीना, जाविदाँ है

सलामे-आख़िर अहले-अंजुमन को
'ख़ुमार' अब ख़त्म अपनी दास्ताँ है

 

 


हिज्र की शब है और उजाला है

हिज्र की शब है और उजाला है
क्या तसव्वुर भी लुटने वाला है

ग़म तो है ऐन ज़िन्दगी लेकिन
ग़मगुसारों ने मार डाला है

इश्क़ मज़बूर-ओ-नामुराद सही
फिर भी ज़ालिम का बोल-बाला है

देख कर बर्क़  की परेशानी
आशियाँ  ख़ुद ही फूँक डाला है

कितने अश्कों को कितनी आहों को
इक तबस्सुम में उसने ढाला है

तेरी बातों को मैंने ऐ वाइज़
एहतरामन हँसी में टाला है

मौत आए तो दिन फिरें शायद
ज़िन्दगी ने तो मार डाला है

शेर नज़्में शगुफ़्तगी मस्ती
ग़म का जो रूप है निराला है

लग़्ज़िशें मुस्कुराई हैं क्या-क्या
होश ने जब मुझे सँभाला है

दम अँधेरे में घुट रहा है "ख़ुमार"
और चारों तरफ उजाला है

 

 

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