आवारा
शहर की रात और मैं
नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती
सड़कों पे आवारा
फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है,
कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
झिलमिलाते कुमकुमों की
राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में
दिन की मोहिनी
तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर,
चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ
वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ये रुपहली छाँव,
ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर,
जैसे आशिक़
का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे,
कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ
वहशत-ए-दिल क्या करूँ
फिर वो टूटा एक सितारा,
फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में,
आई ये मोती
की लड़ी
हूक सी सीने में उट्ठी,
चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ
वहशत-ए-दिल क्या करूँ
रात हँस –
हँस के ये कहती है कि मयखाने
में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख
के
काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर
ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ
ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
हर तरफ़ बिखरी हुई
रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें
लेती हुई
अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुए
रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
रास्ते में रुक के दम लूँ,
ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ,
मेरी
फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये,
ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या
करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मुंतज़िर है एक,
तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने,
दरवाज़े वहां
मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा,
अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
जी में आता है कि अब
अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये
आसरा
भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये
ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़
दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या
करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
एक महल की आड़ से
निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा,
जैसे बनिये
की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी,
जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
दिल में एक शोला भड़क उट्ठा है,
आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उट्ठा है,
आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उट्ठा है,
आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल
क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर,
हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर,
हैं
नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़ाबिर,
हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या
करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ले के एक चंगेज़ के
हाथों से खंज़र तोड़
दूँ
ताज पर उसके दमकता
है जो
पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े,
मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल
क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
बढ़ के इस इंदर-सभा का
साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ,
उस का
शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या,
मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक
दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
(शीर्ष पर वापस)
ख्वाबे सहर
मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफलाक पर
रात ही तारी रही इंसान की इदराक पर
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा
दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए इम्रां भी उठे
राम ओ गौतम भी उठे, फिरऔन ओ हामॉ भी उठे
मस्जिदों में मौलवी खुतबे सुनाते ही रहे
मन्दिरों में बरहमन अश्लोक गाते ही रहे
इक न इक दर पर जबींए शौक घिसती ही रही
आदमीयत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते रहे
जिहल के तारीक साये हाथ फैलाते रहे
ज़ेहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मात में
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में
कुछ नहीं तो कम से कम ख़्वाबे सहर देखा तो है
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है
(शीर्ष पर वापस)
तार्रुफ़
ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं,
जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं
इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी,
फ़ित्नः-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं
ख़्वाब-ए-इशरत में है अरबाब-ए-ख़िरद,
और इक शायर-ए-बेदार हूँ मैं
छेड़ती हैं जिसे मिज़राब-ए-अलम,
साज़-ए-फ़ितरत वही तार हूँ मैं
रंग-ए-नज़ारा-ए-कुदरत मुझसे,
जान-ए-रंगीनी-ए-कुहसार हूँ मैं
नश्शः-ए-नरगिस-ए-ख़ूबां मुझसे,
ग़ाज़ः-ए-आरिज़-ओ-रूख़सार हूँ मैं
ऐब, जो हाफ़िज-ओ-ख़य्याम में था,
हाँ कुछ उसका भी गुनहगार हूँ मैं
ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम,
ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं
रश्क-ए-सद होश है मस्ती मेरी,
ऐसी मस्ती है कि हुशियार हूँ मैं
लेके निकला हूँ गुहरहा-ए-सुख़न,
माह-ओ-अंजुम का ख़रीदार हूँ मैं
दैर-औ-काबः में मिरे ही चर्चे,
और रूसवा सर-ए-बाज़ार हूँ मैं
कुफ्र-ओ-इलहाद से नफ़रत है मुझे,
और मज़हब से भी बेज़ार हूँ मैं
अहल-ए-दुनिया के लिए नंग सही,
रौनक-ए-अंजुमन-ए-यार हूँ मैं
ऐन इस बे सर-ओ-सामानी में,
क्या ये कम है कि गुहरबार हूँ मैं
मेरी बातों में बेहयाई है,
लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं
मुझसे बरहम है मिज़ाज-ए-शेरी,
मुजरिम-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार हूँ मैं
हूर-ओ-गिलमां का यहाँ ज़िक्र नहीं,
नवा-ए-इन्सां का परस्तार हूँ मैं
महफ़िल-ए-दहर पे तारी है जुमूद,
और वारफ़्ता-ए-रफ़्तार हूँ मैं
इक लपकता हुआ शोला हूँ मैं,
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं।
(शीर्ष पर वापस)
नौजवान ख़ातून से
हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था
तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था
तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती
तो अच्छा था
ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था
दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।
(शीर्ष पर वापस)
सानिहा
(गांधीजी की मौत से प्रभावित होकर)
दर्दो-ग़मे-हयात का दरमां1
चला गया
वह ख़िज़्रे-अस्रो – ईसीए-दौरां2
चला गया
हिन्दू चला गया, न मुसलमां चला गया
इंसां की जुस्तुजू में इक इंसां चला गया
रक़्सां चला गया, न ग़ज़लख़्वां चला गया
सोज़ो-गुदाज़ो-दर्द में ग़लतां3
चला गया
बरहम है ज़ुल्फ़े -कुफ़्र तो ईमां है सरनिगूं
वह फ़ख़्रो-कुफ़्रो-नाज़िशे-ईमां चला गया
बीमार ज़िन्दगी की करे कौन दिलदही
नब्बा ज़ो-चारासाज़े-मरीज़ां चला गया
किसकी नज़र पड़ेगी अब ''इसियां''4
पे लुत्फ़म की
वह महरमे-नज़ाकते-इसियां चला गया
वह राज़दारे-महफ़िले-यारां नहीं रहा
वह ग़मगुसारे – बज़्मे – हरीफ़ां चला गया
अब काफ़िरी में रस्मोस-रहे-दिलबरी नहीं
ईमां की बात यह है कि ईमां चला गया
इक बेखुदे–सुरूरे–दिलो-जां नहीं रहा
इक आशिक़े–सदाक़ते–पिन्हां चला गया
बा चश्मेआ-नम है आज जुलैख़ाए-कायनात
ज़िन्दांशिकन वह यूसुफ़े-ज़िन्दांत चला गया
अय आरज़ू वह चश्म:ए-हैवां न कर तलाश
ज़ुल्मात से वह चश्मन:ए-हैवां चला गया
अब संगो-ख़िश्तोश-ख़ाको-ख़ज़फ़सर बलन्दं हैं
ताजे-वतन का लाले – दरख़्शा चला गया
अब अहिरमन5 के हाथा में है
तेग़े – ख़ूंचकां
खुश है कि दस्तो -बाज़ुए-यज़दां चला गया
देवे-बदी से मारिक:ए-सख़्त ही सही
यह तो नहीं कि ज़ोरे-जवानां चला गया
क्यों अहले-दिल में जज़्ब:ए-ग़ैरत नहीं रहा
क्यों अज़्मे–सरफ़रोशिए-मर्दां चला गया
क्यों बाग़ियों की आतिशे-दिल सर्द हो गयी
क्यों सरकशों का जज़्ब:ए-पिन्हां चला गया
क्यों वह जुनूनो-जज़्ब:ए-बेदार मर गया
क्यों वह शबाबे-हश्र बदामां चला गया
ख़ुश है बदी जो दाम यह नेकी पे डाल के
रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के
1.इलाज़
2.जमाने का पथ प्रदर्शक और समय का उपचार करने वाला
3.डूबा हुआ
4.पाप गुनाह
5.बदी का देवता
(शीर्ष पर वापस)
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी
बूढ़े, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया
नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी बोल !
अरी, ओ धरती बोल ! !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले
देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले
मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी
कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेज़ारी
कब तक सरमाए के धंधे, कब तक यह सरमायादारी
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम
धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मजबूर नहीं हम
मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है
बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है
बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है
बोल कि हमसे जागी दुनिया
बोल कि हमसे जागी धरती
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
(शीर्ष पर वापस)
सरमायेदारी
कलेजा फुंक रहा है और जबाँ कहने से आरी है,
बताऊँ क्या तुम्हें क्या चीज यह सरमायेदारी है,
ये वो आँधी है जिसकी रौ में मुफ़लिस का नशेमन है,
ये वो बिजली है जिसकी जद में हर दहकन का ख़र्मन है
ये अपने हाथ में तहज़ीब का फ़ानूस लेती है,
मगर मज़दूर के तन से लहू तक चूस लेती है
यह इंसानी बला ख़ुद ख़ूने इंसानी की गाहक है,
वबा से बढ़कर मुहलक, मौत से बढ़कर भयानक है।
न देखे हैं बुरे इसने, न परखे हैं भले इसने,
शिकंजों में जकड़ कर घोंट डाले है गले इसने।
कहीं यह खूँ से फ़रदे माल ओ ज़र तहरीर करती है,
कहीं यह हड्डियाँ चुन कर महल तामीर करती है।
गरीबों का मुक़द्दस ख़ून पी-पी कर बहकती है
महल में नाचती है रक्सगाहों में थिरकती है।
जिधर चलती है बर्बादी के सामां साथ चलते हैं,
नहूसत हमसफ़र होती है शैतां साथ चलते हैं।
यह अक्सर टूटकर मासूम इंसानों की राहों में,
खुदा के ज़मज़में गाती है, छुपकर ख़ानकाहों में।
ये गैरत छीन लेती है, ये हिम्मत छीन लेती है,
ये इंसानों से इंसानों की फ़ितरत छीन लेती है।
गरजती, गूँजती यह आज भी मैदाँ में आती है,
मगर बदमस्त है हर हर कदम पर लड़खड़ाती है।
मुबारक दोस्तों लबरेज़ है अब इसका पैमाना,
उठाओ आँधियाँ कमज़ोर बुनियादे काशाना।
(शीर्ष पर वापस)
जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं
है
मगर वो आज भी बरहम नहीं है
बहुत
मुश्किल है दुनिया का
सँवरना
तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म
नहीं है
मेरी बर्बादियों के हमनशीनों
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म
नहीं है
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ
मैं,
अभी तो आँख भी पुरनम नहीं है
'मजाज़'
इक बादाकश तो है यक़ीनन
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं
है
(शीर्ष पर वापस)
चार ग़ज़लें
[एक]
हुस्न
को बेहिजाब होना था
शौक़ को कामयाब होना था
हिज्र में कैफ़-ए-इज़्तिराब न पूछो
ख़ून-ए-दिल भी शराब होना था।
तेरे जलवों में घिर गया आख़िर
ज़र्रे को आफ़ताब होना था।
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था।
[दो]
कमाल-ए-इश्क़ है दीवानः हो गया हूँ मैं
ये किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं
ये मेरे इश्क़ मजबूरियाँ मा’ज़ अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुमको देखता हूँ मैं
बनाने वाले वहीं पर बनाते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं
कभी ये ज़ौम कि तू मुझसे छिप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छिपा हुआ हूँ मैं
मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादः ए-इशरत
मजाज़ टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं
(शीर्ष पर वापस)
[तीन]
हुस्न
फिर फ़ित्न (त्न) ग़र है क्या कहिए,
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए।
फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए,
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए।
हुस्न ख़ुद पर्दादर है क्या कहिए,
ये हमारी नज़र है क्या कहिए।
आह तो बेअसर थी बरसों से,
नग़्म भी बेअसर है क्या कहिए।
हुस्न है अब न हुस्न के जलवे,
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए।
आज भी है मजाज़ ख़ाकनशीन,
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए।
[चार]
कुछ
तुझको ख़बर है हम क्या-क्या, ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गये।
वो ज़ुल्फ़-ए-परीशां भूल गये, वो दीदः-ए-गिरियां भूल गये।
ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए, नज़ारों में कोई सूरत ही नहीं।
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कहिए,हम सूरत-ए-जानां भूल गये।
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं, अब दिल की कली खिलती ही नहीं।
ऐ फ़स्ल-ए-बहारां रूख़सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहारां भूल गये।
सबका तो मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके।
सबके तो गरेबां सी डाले, अपना ही गरेबां भूल गये।
ये अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए
इक नश्तर-ए-ज़हर आगीं रखकर नज़दीक-ए-रग-ए-जां भूल गये।
(शीर्ष पर वापस)
नज़र-ए-अलीगढ़
सर शार-ए-निगाह-ऐ-नरिगस हूँ, पाबस्ता-ए-गेसू-ऐ सुंबुल हूँ।
ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ।
हर आन
यहाँ सहबा-ए-कुहन, इक सागर-ए-नौ में ढलती है।
कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है।
जो
ताक़-ए-हरम में रौशन है, वो शमआ यहाँ भी जलती है।
इस दत के गोशे-गोशे से, इक जू-ऐ-हयात उबलती है।
इस्लाम
के इस बुत-ख़ाने में, अस्नाम भी है और आज़र भी।
तहज़ीब के इस मैख़ाने में, शमशीर भी है और साग़र भी।
याँ
हुस्न की बर्क़ चमकती है, या नूर की बारिश होती है।
हर आह यहाँ एक नग़मा है, हर अश्क़ यहाँ इक मोती है।
हर शाम
है, शाम-ए-मिस्र यहाँ, हर शब है, शब-ए-शीराज़ यहाँ।
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ, और सारे जहाँ का साज़ यहाँ।
ये
दश्ते जुनूं दीवानों का, ये बज़्मे वफ़ा परवानों की।
ये शहर-ए-तरब रूमानों का, ये ख़ुल्द-ए-बरीं अरमानों की।
फ़ितरत
ने सिखाई है हमको, उफ़ताद यहाँ परवाज़ यहाँ।
गाए हैं वफ़ा के गीत यहाँ, छेड़ा है जुनूं का साज़ यहाँ।
इस फ़र्श
से हमने उड़-उड़कर, अफ़लाक के तारे तोड़े हैं।
नाहीद से की है सरगोशी, परवीन से रिश्ते जोड़े हैं।
इस
बज़्म में तेगें खींची हैं, इस बज़्म में सागर तोड़े हैं।
इस बज़्म में आँख बिछाई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं।
इस
बज़्म में नेजे़ फेंके हैं, इस बज़्म में ख़ंजर चूमे हैं।
इस बज़्म में गिरकर तड़पे हैं, इस बज़्म में पीकर झूमे हैं।
आ-आके
हज़ारों बार यहाँ, खुद आग भी हमने लगाई है।
फिर सारे जहाँ ने देखा है ये आग हम ही ने बुझाई है।
याँ
हमने कमंदें डाली हैं याँ हमने शबख़ूँ मारे हैं।
याँ हमने क़बाएँ नोची हैं, याँ हमने ताज उतारे हैं।
हर आह
है ख़ुद तासीर यहाँ, हर ख़्याब है ख़ुद ताबीर यहाँ।
तदबीर के पाए संगी पर, झुक जाती है तक़दीर यहाँ।
ज़र्रात
का बोसा लेने को, सौ बार झुका आकाश यहाँ।
ख़ुद आँख से हमने देखी है, बातिल की शिकस्त-ए-फाश यहाँ।
इस गुल
कदा-ए-पारीना में फिर आग भड़कने वाली है।
फिर अब्र गरजने वाला है, फिर बर्क़ कड़कने वाली है।
जो अब्र
यहाँ से उठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा।
हर जू-ऐ-रवां पर बरसेगा, हर कोहे गरां पर बरसेगा।
हर
सर्व-ओ-समन पर बरसेगा, हर दश्त-ओ-दमन पर बरसेगा।
ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा, ग़ैरों के चमन पर बरसेगा।
हर
शहर-ए-तरब पर गरजेगा, हर क़स्रे तरब पर कड़केगा।
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा।
(1936)
(शीर्ष पर वापस)