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नज़ीर अकबराबादी

शहरे आशोब  

अब तो कुछ सुख़न का मेरे कारोबार बंद ।

रहती है तबअ सोच में लैलो निहार बंद ।

दरिया सुख़न की फ़िक्र का है मौज दार बंद ।

हो किस तरह न मुंह में जुबां बार बार बंद ।

जब आगरे की ख़ल्क़ का हो रोज़गार बंद ।।1।।


बेरोज़गारी ने यह दिखाई है मुफ़्लिसी ।

कोठे की छत नहीं हैं यह छाई है मुफ़्लिसी ।

दीवारो दर के बीच समाई है मुफ़्लिसी ।

हर घर में इस तरह से भर आई है मुफ़्लिसी ।

पानी का टूट जावे है जूं एक बार बंद ।।2।।


कड़ियाँ जो साल की थीं बिकी वह तो अगले साल ।

लाचार कर्जों दाम से छप्पर लिए हैं डाल ।

फूस और ठठेरे इसके हैं जूं सरके बिखरे बाल ।

उस बिखरे फूस से है यह उन छप्परों का हाल ।

गोया कि उनके भूल गए हैं चमार, बंद ।।3।।


दुनिया में अब क़दीम से है ज़र का बन्दोबस्त ।

और बेज़री में घर का न बाहर का बन्दोबस्त ।

आक़ा का इन्तिज़ाम न नौकर का बन्दोबस्त ।

मुफ़्लिस जो मुफ़्लिसी में करे घर का बन्दोबस्त ।

मकड़ी के तार का है वह नाउस्तुवार बंद ।।4।।


कपड़ा न गठड़ी बीच, न थैली में ज़र रहा ।

ख़तरा न चोर का न उचक्के का डर रहा ।

रहने को बिन किवाड़ का फूटा खंडहर रहा ।

खँखार१४ जागने का, न मुतलक़१५ असर रहा ।

आने से भी जो हो गए चोरो चकार बंद ।।5।।


अब आगरे में जितने हैं सब लोग है तबाह ।

आता नज़र किसी का नहीं एक दम निबाह ।

माँगो अज़ीज़ो ऐसे बुरे वक़्त से पनाह ।

वह लोग एक कौड़ी के मोहताज अब हैं आह ।

कस्बो१६ हुनर के याद है जिनको हज़ार बंद ।।6।।


सर्राफ़, बनिये, जौहरी और सेठ, साहूकार ।

देते थे सबको नक़्द, सो खाते हैं अब उधार ।

बाज़ार में उड़े है पड़ी ख़ाक बे शुमार ।

बैठें हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार ।

जैसे कि चोर बैठे हों क़ैदी कतार बंद ।


सौदागरों को सूद, न व्यौपारी को फ़लाह।।7।।

बज्ज़ाज को है नफ़ा न पनसारी को फ़लाह ।

दल्लाल को है याफ़्त, न बाज़ारी को फ़लाह ।

दुखिया को फ़ायदा न पिसनहारी को फ़लाह ।

याँ तक हुआ है आन के लोगों का कार बंद ।।8।।


मारें है हाथ हाथ पे सब यां के दस्तकार ।

और जितने पेशावर हैं सो रोते हैं ज़ार ज़ार ।

कूटे है तन लोहार तो पीटे है सर सुनार ।

कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार ।

छत्तीस पेशे बालों के हैं कारोबार बंद ।।9।।


ज़र के भी जितने काम थे वह सब दुबक गए ।

और रेशमी क़िवाम भी यकसर चिपक गए ।

ज़रदार उठ गए तो बटैये सरक गए ।

चलने से काम तारकशों के भी थक गए ।

क्या हाल बाल खींचे जो हो जाए तार बंद ।।10।।


बैठे बिसाती राह में तिनके से चुनते हैं ।

जलते हैं नानबाई तो भड़भूजे भुनते हैं ।

धुनिये भी हाथ मलते हैं और सर को धुनते हैं ।

रोते हैं वह जो मशरुओ दाराई बुनते हैं ।

और वह तो मर गए जो बुनें थे इज़ार बंद ।।11।।


बेहद हवासियों में दिये ऐसे होश खो,

रोटी न पेट में हो तो शहवत कहां से हो,

कोई न देखे नाच, न रंडी कि सूंघे बू,

यां तक तो मुफ़लिसी है कि क़स्बी का रात को,

दो-दो महीने तक नहीं खुलता इजारबंद।

जब आगरे की ख़ल्क़ का है रोज़गार बंद ।।12।।


गर काग़ज़ी के हाल के काग़ज़ को देखिए ।

मुतलक़ उसे ख़बर नहीं काग़ज़ के भाव से ।

रद्दी, क़लम दुकान में, न टुकड़े हैं टाट के ।

याँ तक कि अपनी चिट्ठी के लिखने के वास्ते ।

काग़ज़ का मांगता है हर इक से उधार बंद ।।13।।


लूटे हैं गरदो पेश जो क़्ज्ज़ाक राह मार ।

व्यापारी आते जाते नहीं डर से ज़िनहार ।

कुतवाल रोवें, ख़ाक उड़ाते हैं चौकी दार ।

मल्लाहों का भी काम नहीं चलता मेरे यार ।

नावें हैं घाट-घाट की सब वार पार बंद ।।14।।


हर दम कमां गरों के ऊपर पेचो ताब हैं ।

सहोफ़े अपने हाल में ग़म की किताब हैं ।

मरते हैं मीनाकार मुसव्विर कबाव हैं ।

नक़्क़ास इन सभों से ज़्यादा ख़राब हैं ।

रंगो क़लम के होगए नक़्शो निगार बंद ।।15।।


बैचेन थे यह जो गूंध के फूलों के बध्धी हार ।

मुरझा रही है दिल की कली जी है दाग़दार ।

जब आधी रात तक न बिकी, जिन्स आबदार ।

लाचार फिर वह टोकरी अपनी ज़मी पे मार ।

जाते हैं कर दुकान को आख़िर वह हार बंद ।।16।।


हज्ज़ाम पर भी यां तईं है मुफ़्लिसी का ज़ोर ।

पैसा कहाँ जो सान पे हो उस्तरों का शोर ।

कांपे है सर भिगोते हुए उसकी पोर पोर ।

क्या बात एक बाल कटे या तराशे कोर ।

याँ तक हैं उस्तरे व नहरनी की धार बंद ।।17।।


डमरू बजाके वह जो उतारे हैं ज़हर मार ।

आप ही वह खेलते हैं, हिला सर ज़मीं पे मार ।

मन्तर तो जब चले कि जो हो पेट का आधार ।

जब मुफ़्लिसी का सांप हो उनके गले का हार ।

क्या ख़ाक फिर वो बांधें कहीं जाके मार बंद ।।18।।


लज़्ज़त है ज़िक्रो हुस्न के नक़्शो निगार से ।

महबूब है जो गुन्चे दहन गुल इज़ार से ।

आवें अगर वह लाख तरह की बहार से ।

कोई न देखे उनको नज़र भर के प्यार से ।

ऐसे दिलों के होगए आपस में कार बंद ।।19।।


फिरते हैं नौकरी को जो बनकर रिसालादार ।

घोड़ों की हैं लगाम न ऊंटों के है महार ।

कपड़ा न लत्ता, पाल न परतल न बोझ मार ।

यूं हर मकां में आके उतरते हैं सोगवार ।

जंगल में जैसे देते हैं लाकर उतार बंद ।।20।।


कोई पुकारता है पड़ा भेजया ख़ुदा

अब तो हमारा काम थका भेज या ख़ुदा ।

कोई कहे है हाथ उठा भेज या ख़ुदा ।

ले जान अब हमारी तू या भेज या ख़ुदा ।

क्यूँ रोज़ी यूँ है कि मेरे परवरदिगार बंद ।।21।।


मेहनत से हाथ पांव के कौड़ी न हाथ आये

बेकार कब तलक कोई कर्ज़ों उधार खाये ।

देखूँ जिसे वह करता है रो-रो के हाय ! हाय ! ।

आता है ऐसे हाल पे रोना हमें तो हाय ।

दुश्मन का भी ख़ुदा न करे कारोबार बंद ।।22।।


आमद न ख़ादिमों के तईं मक़बरों के बीच

बाम्हन भी सर पटकते हैं सब मन्दिरों के बीच ।

आज़िज़ हैं इल्म बाले भी सब मदरसों के बीच ।

हैरां हैं पीरज़ादे भी अपने घरों के बीच ।

नज़रो नियाज़ हो गई सब एक बार बंद ।।23।।


इस शहर के फ़कीर भिखारी जो हैं तबाह ।

जिस घर पे जा सवाल वह करते हैं ख़्वाहमख्वाह ।

भूखे हैं कुछ भिजाइयो बाबा ख़ुदा की राह ।

वाँ से सदा यह आती है फिर माँगोजब तो आह ।

करते हैं होंट अपने वह हो शर्म सार बंद ।।24।।


क्या छोटे काम वाले वह क्या पेशेवर नजीब

रोज़ी के आज हाथ से आज़िज़ हैं सब ग़रीब ।

होती है बैठे बैठे जब आ शाम अनक़रीब ।

उठते हैं सब दुकान से कहकर के या नसीब ।

क़िस्मत हमारी हो गई बेइख़्तियार बंद ।।25।।


किस्मत से चार पैसे जिन्हें हाथ आते हैं ।

अलबत्ता रूखी सूखी वह रोटी पकाते हैं ।

जो खाली आते हैं वह क़र्ज़ लेते जाते हैं ।

यूं भी न पाया कुछ तो फ़कत ग़म ही खाते हैं ।

सोते हैं कर किवाड़ को एक आह मार बंद ।।26।

 

क्यूँकर भला न माँगिये इस वक़्त से पनाह ।

मोहताज हो जो फिरने लगे दरबदर सिपाह।

याँ तक अमीर ज़ादे सिपाही हुए तबाह ।

जिनके जिलू में चलते थे हाथी व घोड़े आह।

बह दौड़ते हैं और के पकड़े शिकार बंद ।।।27।।


है जिन सिपाहियों कने बन्दूक और सनां ।

कुन्दे का उनके नाम न चिल्ले का है निशां ।

चांदी के बंद तार तो पीतल के हैं कहां ।

लाचार अपनी रोज़ी का बाअस समझ के हां ।

रस्सी के उनमें बांधे हैं प्यादे सवार बंद ।।28।।


जो घोड़ा अपना बेच के ज़ीन को गिरूं रखें ।

या तेग और सिपर को लिए चौक में फिरें ।

पटका जो बिकता आवे तो क्या ख़ाक देके लें ।

वह पेश कबुज बिक के पड़े रोटी पेट में ।

फिर उसका कौन मोल ले वह लच्छेदार बंद ।।29।।


जितने सिपाही याँ थे न जाने किधर गए ।

दक्खिन के तईं निकल गए यो पेशतर गए ।

हथियार बेच होके गदा घर ब घर गए ।

जब घोड़े भाले वाले भी यूं दर बदर गए ।

फिर कौन पूछे उनको जो अब हैं कटार बंद ।।30।।


ऐसा सिपाह मद का दुश्मन ज़माना है ।

रोटी सवार को है, न घोड़े को दाना है ।

तनख़्वाह न तलब है न पीना न ख़ाना है ।

प्यादे दिबाल बंद का फिर क्या ठिकाना है ।

दर-दर ख़राब फिरने लगे जब नक़ार बंद ।।31।।


जितने हैं आज आगरे में कारख़ान जात ।

सब पर पड़ी है आन के रोज़ी की मुश्किलात ।

किस किस के दुख़ को रोइये और किस की कहिए बात ।

रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात ।

ऐसी हवा कुछ आके हुई एक बार बंद ।।32।।


है कौन सा वह दिल जिसे फरसूदगी नहीं ।

वह घर नहीं कि रोज़ी की नाबूदगी नहीं ।

हरगिज़ किसी के हाल में बहबूदगी नहीं ।

अब आगरे में नाम को आसूदगी नहीं ।

कौड़ी के आके ऐसे हुए रह गुज़ार बंद ।।33।।


हैं बाग़ जितने याँ के सो ऐसे पड़े हैं ख़्वार ।

काँटे का नाम उनमें नहीं फूल दरकिनार ।

सूखे हुए खड़े हैं दरख़्ताने मेवादार ।

क्यारी में ख़ाक धूल, रविश पर उड़े-उड़े ग़ुबार ।

ऐसी ख़िजां के हाथों हुई है बहार बंद ।।34।।

 

देखे कोई चमन तो पड़ा है उजाड़ सा ।

गुंचा न फल, न फूल, न सब्जा हरा भरा ।

आवाज़ कुमरियों की, न बुलबुल की है सदा।

न हौज़ में है आब न पानी है नहर का ।

चादर पड़ी है ख़ुश्क तो है आबशार बंद ।।35।।


बे वारसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह ।

फूटी हवेलियां हैं तो टूटी शहर पनाह ।

होता है बाग़बां से, हर ए बाग़ का निबाह ।

वह बाग़ किस तरह न लुटे और उजड़े आह ।

जिसका न बाग़बां हो, न मालिक न ख़ार बंद ।।36।।


क्यों यारों इस मकां में यह कैसी चली हवा ।

जो मुफ़्लिसी से होश किसी का नहीं बचा ।

जो है सो इस हवा में दिवाना सा हो रहा ।

सौदा हुआ मिज़ाज ज़माने को या ख़ुदा ।

तू है हकीम खोल दे अब इसके चार बंद ।।37।।


है मेरी हक़ से अब यह दुआ शाम और सहर ।

कर आगरे की ख़ल्क पै फिर मेहर की नज़र ।

सब खावें पीवें, याद रखें अपने-अपने घर ।

इस टूटे शहर पर इलाही तू फ़ज्ल कर ।

खुल जावें एक बार तो सब कारोबार बंद ।।38।।


आशिक़ कहो, असीर कहो, आगरे का है ।

मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है

मुफ़्लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है ।

शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है ।

इस वास्ते यह उसने लिखे पांच चार बंद ।।39।।  

 

 

ब्रजराज

 

यारो सुनो ये दधि के लुटैया का बालपन

और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।

मोहन-स्‍वरूप निरत रैया का बालपन।

बन बन के ग्‍वाल गौएं, चरैया का बालपन।

ऐसा था, बांसुरी के बजैया का बालपन।

क्‍या क्‍या कहूं मैं किशन कन्‍हैया का बालपन।।



 

ज़ाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे ।

वरना वो आप माई थे और आप बाप थे ।।

परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे ।

जोतीसरूप कहिए जिन्‍हें, सो वो आप थे ।।

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन

क्‍या क्‍या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन।।

उनको तो बालपन से ना था काम कुछ ज़रा,

संसार की जो रीत थी उसको रखा बजा।।

मालिक थे वो तो आपी, उन्‍हें बालपन से क्‍या ।

वां बालपन, जवानी, बुढ़ापा, सब एक सा ।।

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन

क्‍या क्‍या कहूं ।।



बाले थे ब्रजराज जो दुनिया में आ गये ।

लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गये ।।

इस बालपन के रूप में कितनों को भा गये।

क ये भी लहर थी जो जहां को जता गये।

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन ।

क्‍या क्‍या कहूं ।।



परदा ना बालपन का वह करते अगर जरा ।

क्‍या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता ।।

झाड़ और पहाड़ देते सभी अपना सर झुका ।

पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था ।।

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन ।

क्‍या क्‍या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन।।

 

 

 

बसंत

फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत

हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत।।
तवायफ़ ने हरजाँ उठाई बसंत
इधर औउधर जगमगाई बसंत।।

हमें फिर ख़ुदा ने दिखाई बसंत ।।1।।


मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना।।
सरापा वह सरसों का बन खेत-सा।
वह नाज़ुक से हाथों से गड़ुवा उठा।।

अज़ब ढंग से मुझ पास लाई बसंत ।।2।।

 

वह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इज़ार।।
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार।।

तो भूली मुझे याद आई बसंत।।3।।


वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल।।
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल।

निकाला इसे और छिपाई बसंत ।।4।।

 

वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टँकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार।।
वह ज़ो दर्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार।।
            पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत ।।5।।

वह जोड़ा बसंती जो था ख़ुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा।।
उठा आँख औनाज़ से मुस्करा।
कहा लो मुबारक हो दिन आज का।।

कि याँ हमको लेकर है आई बसंत ।।6।।
 

पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह।।
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह।।

तो क्या-क्या जिगर में समाई बसंत ।।7।।

वह पोशाक ज़र्द और मुँह चांद-सा।
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला।।
फिर उसमें जो ले साज़ खींची सदा।
समाँ छा गया हर तरफ़ राग का।।

इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत ।।8।।  

 

बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार।।

वह गाने की देख उसकी उसदम बहार।

 हुई ज़र्द दीवारोंदर एक बार ।।

            गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत ।।9 ।।

 

 

 

 

 

बसंत

 

जहां में फिर हुई ऐ ! यारो आश्कार बसंत।
हुई बहार के तौसन पै अब सवार बसंत।।
निकाल आयी खिजाओं को चमन से पार बसंत।
मची है ज़ोर हर यक जा वो हर कनार बसंत।।
            अजब बहार से आयी है अबकी बार बसंत।।

जहां में आयी बहार और खिजां के दिन भूले।
चमन में गुल खिले और वन में राय वन फूले।।
गुलों ने डालियों के डाले बा में झूले।
समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले।
            दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत।।

दरख्त झाड़ हर इक पात झाड़ लहराए।
गुलों के सर पै पर बुलबुलों के मंडराए।।
चमन हरे हुए बागों में आम भी आए।
शगूफे खिल गए भौंरे भी गुंजने आए।।
            यह कुछ बहार के लायी है वर्गों बार बसंत।।

कहीं तो केसर असली में कपड़े रंगते हैं।
तुन और कुसूम की र्दी में कपड़े रंगते हैं।।
कहीं सिंगार की डंडी में कपड़े रंगते हैं।
गरीब दमड़ी की हल्दी में कपड़े रंगते हैं।।
            गर्ज हरेक का बनाती है अब सिंगार बसंत।।

कहीं दुकान सुनहरी लगा के बैठे हैं।
बसंती जोड़े पहन और पहना के बैठे हैं।।
गरीब खेत में सरसों के जाके बैठे हैं।
चमन में बाग में मजलिस बनाके बैठे हैं।
            पुकारते हैं अहा! हा! री ज़र निगार बसंत।।

कहीं बसंत गवा हुरकियों से सुनते हैं।
मजीरा तबला व सारंगियों से सुनते हैं।।
कहीं खाबी व मुंहचंगियों से सुनते हैं।
गरीब ठिल्लियों और तालियों से सुनते हैं।।
            बंधा रही है समद का हर एक तार बसंत।।

जो गुलबदन हैं अजब सज के हंसते फिरते हैं।
बसंती जोड़ों में क्या-क्या चहकते फिरते हैं।।
सरों पै तुर्रे सुनहरे झमकते फिरते हैं।
गरीब फूल ही गेंदे के रखते फिरते हैं।।
            हुई है सबके गले की गरज कि हार बसंत।।

तवायफों में है अब यह बसंत का आदर।
कि हर तरफ को बना गड़ुए रखके हाथों प।।
गेहूं की बालियां और सरसों की डालियां लेकर।
फिरें उम्दों के कूंचे व कूंचे घर घर।।
            रखे हैं आगे सबों के बना संवार बसंत।।

मियां बसंत के यां तक रंग गहरे हैं।
कि जिससे कूंचे और बाज़ार सब सुनहरे हैं।।
जो लड़के नाजनी और तन कुछ इकहरे हैं।
वह इस मजे के बसंती लिबास पहरे हैं।।
            कि जिन पै होती है जी जान से निसार बसंत।।


बहा है ज़ोर जहां में बसंत का दरिया।
किसी का जर्द है जोड़ा किसी का केसरिया।।
जिधर को देखो उधर जर्द पोश का रेला।
बने हैं कूच ओ बज़ार खेत सरसों का।।
            बिखर रही है गरज आके बेशुमार बसंत।।

'नज़ीर' खल्क में यह रुत जो आन फिरती है।
सुनहरे करती महल और दुकान फिरती है।।
दिखाती हुस्न सुनहरी की शान फिरती है।
गोया वही हुई सोने की कान फिरती है।
            सबों को ऐश की रहती है यादगार बसंत।।


 

 

 

बंजारानामा 

 

टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा।
क़ज़्ज़ाक अजल का लूटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा।
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर  क्या गौनें पल्ला सर भारा।
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा।
 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा।।
 

ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है।
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है।
क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद गरी क्या सांभर मीठा-खारी है।
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है।

      सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा।।

तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा।
या सूद बढ़ाकर लावेगा या टोटा घाटा पावेगा।
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा।
धन-दौलत नाती-पोता क्या, इक कुनबा काम न आवेगा।
           

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा।।

 

उस ज़ुल्फ़ के फन्दे में यों कौन अटकता है
ज्यों चोर किसी जगह रस्से से लटकता है
काँटे की तरह दिल में ग़म आके खटकता है
यह कहके नज़ीरअपना सर गम से पटकता है
दिल बन्द हुआ यारो! देखो तो कहाँ जाकर

 

होली
 
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौपय्यन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में ।।
 
      
जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगीं पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की ज़रकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगीं सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।

 

ग़ज़ल
दूर से आये थे साक़ी सुनके मैख़ाने को हम ।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।

मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं।
दिल में आता है लगा दें, आग मैख़ाने को हम।।

हमको फँसना था क़फ़स में क्या गिला सय्याद से।
बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।

ताक अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।
अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।

क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ऐ ‘नज़ीर’
ताकि शादी-ए-मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।

 

पिछ्ला पन्ना
 

 

 

 

 

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