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शहर आशोबे-इस्लाम शिबली नोमानी हुकूमत
पर ज़वाल आया तो फिर नामो-निशां कब तक
क़बाए-सल्तनत के गर फ़लक ने कर दिये पुर्ज़े मराकश
जा चुका, फ़ारस गया, अब देखना यह है यह वह
हैं, नाल:-ए-मज़लूम की लै जिनको भाती है कोई
पूछे कि अय तहज़ीबे-इंसानी के उस्तादो
! यह माना
तुमको तल्वारों की तेज़ी आज़मानी है
निगारिस्ताने-ख़ूं की सैर गर तुमने नहीं देखी यह माना
गर्मिए-महफ़िल के सामां चाहिएं तुमको यह माना
तुमको शिकवा है फ़लक से ख़ुश्कसाली का
उरूसे-बख़्त की ख़ातिर तुम्हें दरकार है अफ़शां कहाँ तक
लोगे हमसे इंतिक़ामे-फ़तहे-अय्यूबी समझकर
यह कि धुंदले से निशाने-रफ़्तगां हम हैं
ज़वाले-दौलते उस्मां ज़वाले-शरओ-मिल्लत है
परस्ताराने-ख़ाके-काबा दुनिया से अगर उट्ठे बिखरते
जाते हैं शीराज़:-ए-औराक़े-इस्लामी कहीं
उड़कर यह दामाने-हरम को भी न छू आये हरम की
सम्त भी सद अफ़गनों की जब निगाहें हैं जो
हिज्रत करके भी जायें तो शिबली अब कहां जायें |
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