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त्रिलोकचन्द महरूम स्वदेशी तहरीक वतन
के दर्दे-निहां की दवा स्वदेशी है तमाम
दहर1
की रूहे-रवां2
है यह तहरीक3 क़रारे-ख़ातिरे-आशुफ़्ता5
है फ़ज़ा इसकी वतन
से जिनको महब्बत नहीं वह क्या जानें इसी
के साये में पाता है परवरिश इक़बाल इसी
ने ख़ाक को सोना बना दिया अक्सर फ़ना
के हाथ में है जाने-नातवाने-वतन हो
अपने मुल्क की चीज़ों से क्यों हमें नफ़रत
आज़ादी
फ़ज़ा की
आबरू है परचमे-गर्दूं वक़ार अपना
ग़ुलामी
और नाकामी का दौरे इब्तिला गुज़रा
छुटे दामन
से अपने दाग़ हाए-नंगे-महक़ूमी
न गुलचीं
ग़ैर है कोई न है सैयाद का खटका
अब अय
अहले-वतन! इसको बिगाड़ें या बनायें हम
पयामे-सुलह लाई पैग़ाम मौजे-बादे-बहार कि हुई ख़त्म शोरिशे - कश्मीर दिल हुए शाद अम्न केशों के है यह गांधी के ख़्वाब की ताबीर सुलहजोई में अम्नकोशी में काश होती न इस क़दर ताख़ीर ताकि होता न इस इस क़दर नुक़्सां और होती न दहर में तश्हीर बच गये होते नौजवां कितने जिनको मरवा दिया बसर्फे-कसीर ज़िक्र क्या उसका, जो हुआ सो हुआ उन बेचारों की थी यही तक़दीर काम लें अब ज़रा तहम्मुल से दोनों मुल्कों के साहबे-तदबीर दिल से तख़रीब का ख़याल हो दूर और हो जायें माइले-तामीर रंग इस में ख़ुलूस का भर दें खिंच रही है जो अम्न की तस्वीर अहदो-पैमां हों वक़्फे-इस्तक़लाल उनकी तकमील में नहीं तक़्सीर अहले-अख़बार हों वफ़ा आमोज़ क़ातए-दोस्ती न हो तहरीर आमतुन्नास हों इधर न उधर किसी उन्वान इश्तिआल पज़ीर अलमे-आश्ती बलन्द रहे अन्दरूने-नियाम हो शमशीर हर दो जानिब की बेटियां बहनें हैं जो मजबूरे-क़ैदे-बेज़ंजीर जिस क़दर जल्द हो रिहा हो जायें उनका क्या जुर्म ? क्यों रहें वह असीर है तक़ाज़ा यही शराफ़त का दोनों मुल्कों की इसमें हैं तौक़ीर रहें आबाद हिन्दो-पाकिस्तां तेरी रहमत से अय ख़ुदाए-क़दीर ग़रज परवाज़ हो चुका महरूम अब कहें कुछ ‘हफ़ीज़’ और ‘तासीर’
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क़हते-बंगाल
ग़ुलामी में नहीं है इनमें
बचने का कोई चारा
बजाने के लिए अपनी जहांगीरी
का नक़्क़ारा
बज़ाहिर है
करमपर्वर, ब बातिन हैं सितमआरा
हैं ख़ू आगाम हर हैवान के,
इंसान के दुश्मन
हमारे दोस्त भी कब हैं जो
हैं जापान के दुश्मन
आज़ाद हिन्द फ़ौज अय जैसे-सरफ़रोशे-जवानाने-खुशनिहाद सीने पे तेरे कुंद हुई तेग़े-इश्तिदाद ग़ुर्बत में तूने दी है शुजाअत की ख़ूब दाद अक़्वामे-दहर करती है ज़ुरअत पे तेरी साद तू कामरां रहे, तिरे दुश्मन हों नामुराद हिन्दोस्तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज जिन्दाबाद
दरिया-ओ-दश्त-ओ-कोह में तेरा बिगुल बजे जिसकी सदा से गुम्बदे-गर्दूं भी गूंज उठे मैदां में मौत भी जो मुजस्सम हो सामने तेरे दिलावरों के न हों पस्त हौसले हो बल्कि उसका और भी तोशे-अमल ज़ियाद हिन्दोस्तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज जिन्दाबाद परदेस में जो खेत रहे हैं जवां तिरे हैं दफ़्न ज़ेरे-ख़ाक ख़ज़ाने वहां तिरे बर्मा के जंगलों में लहू के निशां तिरे नक़्शे-दवाम हैं वह तहे-आस्मां तिरे ता रोजे-हश्र अहले-वतन को रहेंगे याद हिन्दोस्तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज जिन्दाबाद आज़ादिए-वतन की तमन्नए-दिल नवाज़ ज़िन्दां में घुट के रह गयी या दिल में मिस्ले-राज़ कहते थे जुर्म जिसको हुकूमत के हीलासाज़ तेरे अमल हो उसको मिली खिलअते-जवाज अब ‘हक़’ है जिसका नाम रहा ‘ग़दर और फ़साद’ हिन्दोस्तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज जिन्दाबाद ग़ालिब था बस्किसाहिरे-अफ़रंग का फ़सूं दो सौ बरस से था इल्मे-हिन्द सर नगूं तूने दयारे-ग़ैर में दिखला दिया कि यूं मर्दाने-कार करते हैं बातिल को ग़र्के़-ख़ूं बातिल हो ख़्वाह कोहे-गरां ख़्वाह गर्दबाद हिन्दोस्तां की फ़ौजे-ज़फ़र मौज जिन्दाबाद
जय हिन्द
पैदा
उफ़क़े –हिन्द
से हैं सुबह के आसार
आमद
सहरे-नौ की मुबारक हो वतन को
मश्रिक़
में ज़ियारेज हुआ सुबह का तारा
रौशन
हुए जाते हैं दरो-बाम वतन के ‘जयहिन्द’
के नारों से फ़ज़ा गूंज रही है
यह
वलवला यह जोश यह तूफ़ान मुबारक
अहले-वतन
आपस में उलझने का नहीं वक़्त
लाज़िम है कि मंज़िल के निशां पर हों निगाहें
वह सामने
आज़ादिए-कामिल का निशां है
दरकार है हिम्मत का सहारा कोई दम और
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