नवेदे-आज़ादी-ए-हिन्द
वह दिन आने को है आज़ाद जब हिन्दोस्तां
होगा
मुबारकबाद उसको दे रहा सारा जहां होगा
अलम लहरा रहा होगा हमारा रायेसीना पर
और ऊंचा सब निशानों से हमारा यह निशां होगा
ज़मीं
वालों के सर ख़म इसके आगे हो रहे होंगे
सलामी दे रहा झुक झुक के उसको आस्मां होगा
बिरहमन
मंदिरों में अपनी पूजा कर रहे होंगे
मुसलमां दे रहा अपनी मसजिद में अज़ां होगा
जिन्हें दो वक़्त की रोटी मुयस्सर अब नहीं
होती
बिछा उनके लिए दुनिया की हर नेमत का ख़्वां होगा
मन-ओ-तू के यह जितने ख़र्ख़शे हैं मिट चुके
होंगे
नसीब उस वक़्त हिन्दू और मुसलमां का जवां होगा
तवाना जब ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम नातवां होंगे
ग़ुरूर उस वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत का कहां होगा
(शीर्ष पर
वापस)
सर मैलकम हेली के
मल्फ़ूज़ात
[1]
जनाबे-हज़रते-हेली को यह ग़म खाये जाता है
न कर दे सर नगूं[2]
मश्रिक़ कहीं मग्रिब के परचम को
छिड़ी आज़ादिए-हिन्दोस्तां की बहस कौंसिल में
तो ज़ाहिर यूं किया हज़रत ने अपने इस छुपे ग़म को
हमारी भी वही ग़ायत[3]
है जो मक़सद तुम्हारा है
ख़ुदा वह दिन करे गर्दूं[4]
के तारे बनके तुम चमको
अलमबरदार हैं अंग्रेज़ इस तहज़ीब के जिसने
दिया है दरसे-आज़ादी तमाम अक़वामे-आलम को
हुकूमत आज तुमको सौंप कर हो जायें हम रुख़्सत
मगर अंदेशा इसमें है फ़क़त इस बात का हमको
हमारे बाद कौन इस हाथ की शोखी को रोकेगा
जो बेकल है तो लाकर डाल दे गंगा में ज़मज़म को
मुसलमां हिन्दुओं को एक हमले में मिटा देंगे
उड़ा ले जायेगा यह आफ़्ताब आते ही शबनम को
किसी ने काश यह तक़रीर सुनकर कह दिया होता
कि दे सकते नहीं हो तुम अब इन फ़िक़रों से दम हमको
मुसलमां भोले-भाले और हिन्दू सीधे-सादे हों
नहीं अहमक़ मगर ऐसे कि समझें अंगबी सम को
निपटते आये हैं आपस में और अब भी निपट लेंगे
अगर तुम बनके सालिस[5]
बीच में इनके न आ धमको
शब्दार्थ: