क़मज़र्फ़ दुनिया
यह दौरे खिरद है, दौरे-जुनूं इस
दौर में जीना मुश्किल है,
अंगूर की मै के धोके में ज़हराब
का पीना मुश्किल है.
जब नाखूने-वहशत चलते थे, रोके से
किसी के रुक न सके,
अब चाके-दिले-इन्सानियत सीते हैं
तो सीना मुश्किल है.
जो ‘धर्म’ पै बीती देख चुके
‘ईमां’ पै जो गुज़री देख चुके,
इस ‘रामो-रहीम’ की दुनिया में
इनसान का जीना मुश्किल है
इक सब्र के घूँट से मिट जाती, सब
तिश्नालबों की तिश्नालबी,
क़मज़र्फ़-ए-दुनिया के सदके यह
घूँट भी पीना मुश्किल है.
वह शोला नहीं जो बुझ जाए आँधी के
एक ही झोंके से,
बुझने का सलीका आसाँ है, जलने का
क़रीना मुश्किल है.
करने को रफ़ू कर ही लेंगे
दुनियावाले सब ज़ख़्म अपने,
जो ज़ख़्म दिले-इनसाँ पै लगा, उस
ज़ख़्म का सीना मुश्किल है.
वह मर्द नहीं जो डर जाए, माहौल के
ख़ूनी मंज़र से,
उस हाल में जीना लाज़िम है, जिस
हाल में जीना मुश्किल है.
मिलने को मिलेगा बिल आख़िर ऐ
‘अर्श’ सुकूने-साहिल भी,
तूफ़ाने-हवाद से लेकिन बच जाए
सफ़ीना मुश्किल है.
(शीर्ष पर वापस)
तेवर तो देख ज़माने के
हर बात में आपाधापी है, चालाकी
है, तर्रारी है,
दुनिया के फ़साने का उनवाँ
मक्कारी है, ऐय्यारी है,
अफ़सोस कि ऐसी दुनिया में तू
मस्ते-मए-ख़ुद्दारी है,
तेवर तो देख ज़माने के.
राहत का यहां अब काम नहीं, यह दौर
है रंजो-मुसीबत का,
मासूम की गर्दन कटती है, सदचाक है
दामन इस्मत का,
है नाज़ शराफ़त पर तुझको, ज़िल्लत
है मोल शराफ़त का,
तेवर तो देख ज़माने के.
ज़हरीले डंक चलाते हैं दुनिया पर
यह दुनिया वाले,
गोरी क़ौमों की चाँदी है,
मातूबे-मुक़द्दर हैं काले,
तू क्यों है अमल से बेगाना, ऐ
क़ैफ़े-ख़ुदी के मतवाले,
तेवर तो देख ज़माने के.
जो ख़ुद मंज़िल से ग़ाफ़िल हैं,
ऐसे हैं राहनुमा लाखों,
ख़ुद उक़दां जिनका हल न हुआ, ऐसे
हैं उक़दह कुशा लाखों,
लेकिन तू अज़ज का बन्दा है, जिस
बन्दे के आक़ा लाखों,
तेवर तो देख ज़माने के.
हर घर में हविस का डेरा है, हर
देश में हिर्सपरस्ती है,
अक़वाम के अम्न की ख़ुद दुश्मन
अक़वाम की ग़ालिब दस्ती है,
कैफ़ीयते-अम्न के शैदाई तू
माइले-कैफ़ो-मस्ती है,
तेवर तो देख ज़माने के.
ज़रदार के पल्ले में शोहरत,
मुफ़लिस का जहाँ में नाम नहीं,
कसरत है ख़ुदाओं की इतनी, बन्दे
का यहाँ कुछ काम नहीं,
मरने की दुआ हर लब पर है, जीने का
कहीं पैग़ाम नहीं,
तेवर तो देख ज़माने के.
अब वजहे-फ़िसाद तिजारत है, अब
अम्न की ज़ामिन जंग हुई,
नामूस पै मिटने की ख़्वाहिश, इस
दौर में वजहे-नंग हुई,
अल्लाह के बन्दों पर तौबा, अल्लाह
की ज़मीं भी तंग हुई
तेवर तो देख ज़माने के.
अब पिन्दो-नसायह सुनते हैं, हम
तोपों और मशीनों से,
होता है इलाजे-दर्द जहाँ. तलवारों
से-संगीनों से,
है अब तक लेकिन रब्त तुझे, सज्दों
से और जबीनों से,
तेवर तो देख ज़माने के.
ज़ड़ काट के रख तक़लीद की तू,
तेवर भी देख ज़माने के,
बुनियाद भी रख तजदीद की तू, तेवर
भी देख ज़माने के,
उम्मीद भी रख ताईद की तू, तेवर भी
देख ज़माने के,
तेवर भी देख ज़माने के.
(शीर्ष पर वापस)
जब आदमी वहशी बन गया
बस्तियों की बस्तियां
बर्बादो-वीराँ हो गईं
आदमी की पस्तियां आखिर नुमांयां
हो गईं
क़त्लो-ग़ारत के हज़ारों दाग़ लेकर
वहशतें
आज सुनते हैं कि फिर इस्मत बदामाँ
हो गईं
देखिये सरसब्ज कब होती है
कश्ते-ज़िन्दगी
आँधियां कहते तो हैं अब्रे-बहाराँ
हो गईं
यूँ कभी मज़हब की क़दरों को न
इन्साँ छोड़ता
ऐ ख़ुशा वह ख़ुद बलाए-जाने-इन्साँ
हो गईं
कौन अब नेकी करे इन्सानियत के नाम
पर
नेकियां तो जिस क़दर थीं
सर्फ़े-ईमाँ हो गईं
जिन ख़ताओं पर दरे-जन्नत हुआ आदम
पै बन्द
वह ख़तायें ही बिनाए-बज़्मे-इमकाँ
हो गईं
(शीर्ष पर वापस)
शहीदे-आज़म
ज़मीने हिन्द थर्राई मचा कोहराम
आलम में
कहा जिस दम जवाहर लाल ने ‘बापू
नहीं हममें’
फ़लक काँपा, सितारों की ज़िया में
भी कमी आई
ज़माना रो उठा दुनिया की आँखों
में नमी आई
कमर टूटी वतन वालों की अहले-दिल
के दिल टूटे
हुए अफ़सुर्दा बाग़े-नेकी-ओ-ख़ूबी
के गुल बूटे
हमें क्या हो गया था हाय यह क्या
ठान ली हमने
ख़लूसो-आश्ती के देवता की जान ली
हमने
जो दौलत लुट चुक़ी अफ़सोस अब
वापिस न आएगी
हजारों साल रह कर भी उसे दुनिया न
पाएगी
यह अच्छी कौम है जो क़ौम के सरदार
को मारे
यह अच्छा धर्म है जो धर्म के
अवतार को मारे
निगाहे-अहले-आलम में मलामत का
हरफ़ हम हैं
हमीं ने क़त्ल बापू को किया है
ना-ख़लफ़ हम हैं
हमीं हैं मसलके-महसन शनासी छोड़ने
वाले
किनारे पर पहुंचते ही सफ़ीना
तोड़ने वाले
उम्मीदे-क़ौम की बुनियाद थी जिस
एक बन्दे पर
ग़ज़ब है गोलियां बरसाएं हम उस
नेक बन्दे पर
अकेली जान उसकी बोझ दुनिया भर का
सहती थी
मगर जो बात कहता था वह आखिर हो के
रहती थी
हज़ारों रहमतें राहे-ख़ुदा में
मरने वाले पर
हुसैन इब्ने-अली की याद ताज़ा
करने वाले पर
(शीर्ष पर वापस)
मुझको ले डूबी मेरी खुद्दारियां
अर्ज़े-वाजिब से रक्खा बे-नियाज़
मुझको ले डूबी मेरी खुद्दारियां
उनसे मिलता है, क़नाअ़त का सबक़
एक नज़मत है, मेरी नादारियां
कोशिशे-इज़हारे-ग़म भी ज़ब्त भी
आह यह मजबूरियाँ, मुख्तारियां
‘अर्श’ क्यों हँसता है तू झूठी
हँसी
किससे सीखी हैं यह दुनियादारियाँ?
(शीर्ष पर वापस)
ज़ालिम को कभी फूलते-फलते नहीं देखा
हम जौर भी सह लेंगे मगर डर है तो यह है
ज़ालिम को कभी फूलते-फलते नहीं देखा
अहबाब की यह शाने-हरीफ़ाना सलामत
दुश्मन को भी यूं ज़हर उगलते नहीं
देखा
वोह राह सुझाते हैं, हमें
हज़रते-रहबर
जिस राह पै उनको कभी चलते नहीं
देखा
(शीर्ष पर वापस)
इश्क़े-बुताँ का ले के सहारा कभी-कभी
इश्क़े-बुताँ का ले के सहारा
कभी-कभी
अपने ख़ुदा को हमने पुकारा
कभी-कभी
आसूदा ख़ातिरी ही नहीं मतमए-वफ़ा
ग़म भी किया है हमने गवारा
कभी-कभी
इस इन्तहाए-तर्के-मुहब्बत के बावजूद
हमने लिया है नाम तुम्हारा कभी-कभी
बहके तो मैक़दे में नमाज़ों पे आ गए
यूँ आक़बत को हमने सँवारा कभी-कभी
(शीर्ष पर वापस)
जिस ग़म से दिल को राहत हो, उस ग़म का मदाबा क्या मानी?
जिस ग़म से दिल को राहत हो, उस
ग़म का मदाबा क्या मानी?
जब फ़ितरत तूफ़ानी ठहरी, साहिल की
तमन्ना क्या मानी?
इशरत में रंज की आमेज़िश, राहत
में अलम की आलाइश
जब दुनिया ऐसी दुनिया है, फिर
दुनिया, दुनिया क्या मानी?
ख़ुद शेखो-बरहमन मुजरिम हैं इक
जाम से दोनों पी न सके
साक़ी की बुख़्ल-पसन्दी पर साक़ी
का शिकवा क्या मानी?
इख़लासो-वफ़ा के सज्दों की जिस दर
पर दाद नहीं मिलती
ऐ ग़ैरते-दिल ऐ इज़्मे-ख़ुदी उस
दर पर सज्दात क्या मानी?
ऐ साहबे-नक़्दो-नज़र माना इन्साँ
का निज़ाम नहीं अच्छा
उसकी इसलाह के पर्दे में अल्लाह
मे झगड़ा क्या मानी?
मयख़ानों में तू ऐ वाइज़ तलक़ीन
के कुछ उसलूब बदल
अल्लाह का बन्दा बनने को जन्नत का
सहारा क्या मानी?
(शीर्ष पर वापस)
न आने दिया राह पर रहबरों ने
न आने दिया राह पर रहबरों ने
किए लाख मंज़िल ने हमको इशारे
हम आग़ोशे-तूफ़ाँ तो होना है एक
दिन
सम्भल कर चलें क्यों
किनारे-किनारे
यह इन्साँ की बेचारगी हाय तौबा
दुआओं के बाक़ी हैं अब तक सहारे
यह इक शोब्दा है, कि है मौज दिल
की?
किसी को डुबोए किसी को उभारे
(शीर्ष पर वापस)
कुछ फूल चमन में बाक़ी हैं
गो फ़स्ले-ख़िज़ाँ है फिर भी तो
कुछ फूल चमन में बाक़ी हैं,
ऐ नंगे-चमन तू इस पर भी काँटों का
हार पिरोता है?
अंजामे-अमल की फ़िक्र न कर, है
ज़िक्र भी इसका नंगे-अमल,
जो करना है तुझको कर ले, वोह होने
दे जो होता है
तूफ़ाने-मुसीबत तेज़ सही, लेकिन
यह परेशानी कैसी?
कश्ती को बीच समन्दर में क्यों
अपने आप डुबोता है?
(शीर्ष पर वापस)
महफ़िल में हमसे आपने पर्दा किया तो क्या?
अपनी निगाहे-शोख़ से छुपिये तो
जानिए
महफ़िल में हमसे आपने पर्दा किया
तो क्या?
सोचा तो इसमें लाग शिकायत की थी
ज़रूर
दर पर किसी ने शुक्र का सज़्दा
किया तो क्या?
ऐ शैख़ पी रहा है तो ख़ुश हो के
पी इसे
इक नागवार शै को गवारा किया तो
क्या?
(शीर्ष पर वापस)
तूफ़ान से उलझ गए लेकर ख़ुदा का नाम
तूफ़ान से उलझ गए लेकर ख़ुदा का
नाम
आख़िर नजात पा ही गए नाख़ुदा से
हम
पहला सा वह जुनूने-मुहब्बत नहीं
रहा
कुछ-कुछ सम्भल गए हैं तुम्हारी
दुआ से हम
ख़ूए-वफ़ा मिली दिले-दर्द-आश्ना मिला
क्या रह गया है और जो माँगें ख़ुदा से हम
पाए-तलब भी तेज था मंज़िल भी थी क़रीब
लेकिन नजात पा न सके रहनुमाँ से हम
(शीर्ष पर वापस)
मुझसे पिछले बरस की बात न कर
पूछ अगले बरस में क्या होगा
मुझसे पिछले बरस की बात न कर
यह बता हाल क्या है लाखों का
मुझसे दो-चार-दस की बात न कर
यह बता क़ाफ़िले पै क्या गुज़री?
महज़ बाँगे-जरस की बात न कर
क़िस्सए-शैख़े-शहर रहने दे
मुझसे इस बुलहबिस की बात न कर
(शीर्ष पर वापस)
ग़रीब रोई तो ग़ुंचों को भी हँसी आई
चमन में कौन है पुरसाने-हाल शबनम
का?
ग़रीब रोई तो ग़ुंचों को भी हँसी
आई
नवेदे-ऐश से भी लुत्फ़े-ऐश मिल न
सका
लिबासे-ग़म ही में आई अगर ख़ुशी
आई
अजब न था कि ग़मे-दिल शिकस्त खा
जाता
हज़ार शुक्र तेरे लुत्फ़ में कमी
आई
दिए जलाए उम्मीदों ने दिल के गिर्द बहुत
किसी तरफ़ से न इस घर में रोशनी आई
हज़ार दीद पै पाबन्दियां थीं,
पर्दे थे
निगाहे-शौक़ मगर उनको देख ही आई
(शीर्ष पर वापस)
तेरी दोस्ती पै मेरा यकीं
तेरी दोस्ती पै मेरा यकीं, मुझे
याद है मेरे हमनशीं
मेरी दोस्ती पै तेरा ग़ुमाँ, तुझे
याद हो कि न याद हो
वह जो शाख़े-गुल पै था आशियां जो था वज्ह-ए-नाज़िश-ए-गुलसिताँ
गिरी जिसपै बर्के-शरर-फ़िशाँ तुझे
याद हो कि न याद हो
मेरे दिल के जज़्बए-गर्म में मेरे दिल के गोशए नर्म में
था तेरा मुक़ाम कहाँ-कहाँ तुझे याद हो कि न याद हो
(शीर्ष पर वापस)
जो दरे-हुस्न के फ़क़ीर हुए
जो दरे-हुस्न के फ़क़ीर हुए
दौलते-इश्क़ से अमीर हुए
सारे आलम में हो गए मशहूर
जो मुहब्बत के गोशःगीर हुए
आह इन ताइरों की ख़ुश फ़हमी
हो के आज़ाद जो आसीर हुए
(शीर्ष पर वापस)
जवाबे-तल्ख़ में शामिल मलामत और हो जाती
जवाबे-तल्ख़ में शामिल मलामत और
हो जाती
जहाँ सब कुछ हुआ इतनी इनायत और हो
जाती
नहीं गो फ़र्क़ कुछ घर और मैख़ाने
में ऐ वाइज़
वहां पीते तो साक़ी की ज़ियारत और
हो जाती
ख़ताएं मान लीं मैंने यह अच्छा
किया वर्ना
पशेमानी से बचने की नदामत और हो
जाती
(शीर्ष पर वापस)
रूबाईयात
मग़रिब से उमड़ते हुए बादल आए
भीगी हुई ऋतु और सुहाने साए
साक़ी, लबे जू, मुतरबे-नौ.ख़ेज़,
शराब
है कोई जो वाइज़ को बुला कर लाए?
रिन्दों के लिए मंज़िलें-राहत है
यही
मैख़ान-ए-पुरकैफ़-ए-मसर्रत है यही
पीकर तू ज़रा सैरे-जहां कर ऐ शैख
तू ढूंढता है जिसको वह जन्नत है यही
हर ज़र्फ़ को अन्दाज़े से तोल ऐ
साक़ी
यह बुख़्ल भरे बोल न बोल ऐ साक़ी
मैं और तेरी तल्ख़नबाज़ी तौबा
यह ज़हर न इस शहद में घोल ऐ साक़ी
फ़रदौस के चश्मों की रवानी पै न
जा
ऐ शैख़ तू जन्नत की कहानी पै न जा
इस वहम को छोड़ अपने बुढ़ापे को
ही देख
हूरान-ए-बहिश्ती की जवानी पै न जा
तू आतिशे-दोज़ख़ का सज़ावार कि
मै?
तू सबसे बड़ा मुलहदो-ऐय्यार कि
मैं?
अल्लाह को भी बना दिया हूर फ़रोश
ऐ शैख़ बता तू है गुनहगार कि मैं?
(शीर्ष पर वापस)
नज़्में
फ़िसादात
ख़याबाँ-ओ-बाग़ो-चमन जल रहे थे
बयाबाँ-ओ-कोहो-दमन जल रहे थे
चले मौज दर मौज नफ़रत के धारे
बढ़े फ़ौज दर फ़ौज वहशत के मारे
न माँ की मुहब्बत ही महफ़ूज़ देखी
न बेटी की इस्मत ही महफ़ूज़
देखी
हुआ शोर हर सिम्त बेगानगी का
हुआ ज़ोर हर दिल में दीवानगी का
जुदाई का नारा लगाते रहे जो
जुदाई का जादू जगाते रहे जो
जो तक़सीम पर जानो-दिल से फ़िदा थे
वतन में जो रह कर वतन से जुदा
थे
जो कहते थे अब मुल्क़ बट कर रहेगा
जो हिस्सा हमारा है कट कर
रहेगा
जूनूने उठाए वह फ़ितने मुसलसल
कि सारा वतन बन गया एक मक़तल
(शीर्ष पर वापस)
जंगे-कोरिया
सुलह के नाम पर लड़ाई है
अम्ने-आलम तेरी दुहाई है
सुलह-जूई से बढ़ गई पैकार
आदमी-आदमी से है बेज़ार
आदमीयत का सीना चाक हुआ
क़िस्सा-इन्सानियत का पाक हुआ
आदमी-ज़ाद से ख़ुदा की पनाह
इसके हाथों है, इसकी नस्ल तबाह
कौन पुरसाँ है ग़म के मारों का
कमसिनों और बेसहारों का
खोल दे मैकदा मुहब्बत का
नाम ऊँचा हो आदमीयत का
एक फ़रमान पर चले आलम
हो बिनाए-निज़ामे नौमहकम
तख़्त बाक़ी रहे न कोई ताज
सारे आलम पै हो आवामी राज
हो उख़व्वत की इस तरह तख़लीक़
काले-गोरे की दूर हो तफ़रीक़
आदमी-आदमी से मिल के रहे
गुंचए-सुलहे-आम खिल के रहे
शर्क़ पर जोरे-ग़र्ब मिट जाए
दिले-आलम का कर्ब मिट जाए
हो तहे-आबे-बहरे-काहिल गर्क़
एशियाई-ओ-यूरपी का फ़र्क
(शीर्ष पर वापस)
देहाती दोशीज़ा
कारवाँ तारीकियों का हो गया आख़िर रवाँ
जानिबे-मशरिक़ से निकला
आफ़ताबे-ज़रफ़िशाँ
ओस के क़तरे में मोती की चमक पैदा हुई
रेत के ज़र्रे में हीरे की
दमक पैदा हुई
नूर की बारिश से फिर हर नस्ल नूरानी हुआ
आतिशे सैय्याल फिर बहता
हुआ पानी हुआ
सो गई फिर मुँह छिपा कर नूर के पर्दे में रात
जाग उठी फिर फ़ज़ा
फिर जगमगाई कायनात
फिर अ़रूसे सुबह की ज़ु्ल्फ़ें सँवरने लग गईं
गावों पर बेदारियां
फिर रक़्स करने लग गईं
फिर बिलोकर छाछ फ़ारिग औरतें होने लगीं
अपने बच्चों को जगा कर
उनके मुँह धोने लगीं
खेत में दहकान धीमे राग फिर गाने लगा
सीनए-गेती को सोज़े-दिल से
गरमाने लगा
गो नहीं थी इसको मद्धम और पंचम की तमीज़
गो नहीं थी इसको सुर की
ताल की सम की तमीज़
फिर भी इसका नग़्मा इक जादू भरा एजाज़ था
गोशा-गोशा रह फ़ज़ा का
गोशबर-आवाज़ था
........................
सुबह की ठण्डी हवा थी बाग़े-जन्नत की नसीम
तेज़ झोंके से हवा के झूमती थीं डालियाँ
शौक़ से इक-दूसरे को
चूमती थीं डालियाँ
नहर के पुल पर खड़ा मैं देखता था यह बहार
मेरा दिल था एक
कै़फ़े-बेख़ुदी से हम कनार
देखता क्या हूँ कि इक दोशीज़ा मजबूरे-हिजाब
ग़ैरत-ए-हूराने-जन्नत
पैकर-ए-हुस्न-ओ-शबाब
आ रही थी नहर की जानिब अदा से नाज़ से
हर क़दम उठता था उसका इक
नए अन्दाज़ से
हुस्ने-सादा में अदा भी, बाँकपन का रंग भी
कुछ यूँ ही सीखे हुए
शर्मो-हया के ढंग भी
लब पै सादा-सी हँसी और तन पै सादा-सा लिबास
बे-हिजाबी से बढ़ी
आती थी बे-ख़ौफ़ो-हिरास
सर-बसर ना-आश्ना शोख़ी के हर मफ़हूम से
कुछ अगर वाक़िफ़ तो
वाक़िफ़ शोख़िए-मासूम से
हुस्न में अल्हड़, तबीयत में ज़रा नादान-सी
सादा लौही का
मुरक्क़ा बे समझ अनजान सी
हुस्न की मासूमियत में काफ़री अन्दाज़ भी
बा-ख़बर भी बे-ख़बर
मस्ते-शराबे-नाज़ भी
शमअ़ वो जिस पर शबिस्तानों की रौनक़ हो निसार
कै़फ़ वो जिसके लिए
सौ मैक़दे हों बेकरार
नाज़ वह जिससे रबाब-ए-हुस्न की तक़मील हो
शेर वह जिससे
किताब-ए-हुस्न की तकमील हो
एक बाज़ू के सहारे से घड़ा थामे हुए
दूसरे से ओढ़नी का इस सिरा
थामे हुए
नहर पर पहुँची घड़ा भर कर ज़रा सुस्ता गई
थक गई या सोच कर कुछ
ख़ुद-ब-ख़ुद शर्मा गई
मुझको देखा तो जबीं पर एक बल-सा आ गया
उफ़-री शाने-तमकनत मैं ख़ौफ़ से थर्रा गया
इसपे हैरत यह कि लब उसके तबस्सुम रेज़ थे
क्या कहूँ अन्दाज़ सब
उसके क़यामत खेज़ थे
थाम कर आख़िर घड़ा वह इक अदा से फिर गई
एक बिजली थी कि मेरे दिल
पै आकर गिर गई
मुझको यह हसरत कि दे सकता सहारा ही उसे
कब मगर एहसान लेना था
गवारा ही उसे
गुनगुनाई कुछ मगर सुनने का किसको होश था
मैं ज़बाँ रखता था लेकिन
सर-बसर ख़ामोश था
जा रही थी वह, खड़ा था मैं असीरे-इज़्तराब
दिल ही दिल में कर रहा
था इस तरह उससे ख़िताब
ऐ नगीन-ए-ख़ातिम-ए-निसवानियत सद आफ़रीं
ऐ
अमीन-ए-जौहर-ए-इन्सानियत सद आफ़रीं
आफ़रीं ऐ गौहर-ए-यकताए-इस्मत आफ़रीं
आफ़रीं ऐ पैकर-ए-हुस्न-ओ-मुहब्बत आफ़रीं
हुस्न तेरा गो रहीन-ए-जल्वा सामानी नहीं
गो तेरे रुख़सार पर पौडर
की ताबानी नहीं
तुझमें शहरी औरतों की गो नहीं आराइशें
गो नहीं तुझको मयस्सर
ज़ाहिरी ज़ेबाइशें
परतवे-हुस्न-हक़ीक़त फिर भी तेरा हुस्न है
मायए-उफ़्फ़त है तू निसवानियत की शान है
तुझ पै हर तक़दीस हर
पाकीज़गी क़ुरबान है
झुक नहीं सकता किसी दर पर तेरा हुस्ने-ग़यूर
तू सिखा सकती है
दुनिया की निगाहों को शऊर
सादगी से तेरी पुररौनक़ यह दिलक़श वादियाँ
माइले-हुस्ने-तसन्नो
शहर की आबादियाँ
तू हविस से दूर है, हिर्सो-हवा से तू नफ़ूर
है तेरे ज़ेरे-क़दम सौ ताज़दारों का ग़रूर
होश से बढ़ कर तेरी हर लग़जिशे-मस्ताना है
जो तुझे पागल समझता है
वह ख़ुद दीवाना है
बे-अदब कम इल्म कह कर याद करता है जहाँ
बेशऊरी पर भी तेरी साद
करता है जहाँ
तू अरस्तू को सिखा सकती है आईने-हयात
देख सकती है निगाहों से तू
नब्ज़-ए-कायनात
सामने तेरे उरूज़े-तख़्ते-शाही हेच है
हेच है तेरी नज़र में कजकला ही हेच है
जा मगर मुड़ कर मेरे इस दिल की बर्बादी को देख
मेरी मजबूरी को
देख और अपनी आज़ादी को देख
रुबाई
तूफ़ाँ के तलातुम में किनारा क्या
है,
गरदा में तिनके का सहारा क्या है.
सोचा भी ऐ ज़ीस्त पे मरने वाले,
मिटती हुई मौजों का इशारा क्या
है?
(शीर्ष पर वापस)
कुछ आज़ाद शेर
मेरी ख़मोशी-ए-दिल पर न जाओ
कि इसमें रूह की आवाज़ भी है
-
हर गुल हमारी अक्ल पै हँसता रहा
मगर हम फ़स्ले-गुल में
रंगे-ख़िज़ाँ देखते रहे
-
मेरा कारवाँ लुट चुका है, कभी का
ज़माने को है शौक़ अभी रहज़नी
का
अजब चीज़ है आस्ताने-मुहब्बत नहीं
जिस पै मक़बूल सज़दा किसी का
-
इक फ़रेबे-आर्ज़ू साबित हुआ
जिसको ज़ौके-बन्दगी समझा था मैं
-
पहुँचे हैं, उस मक़ाम पै अब उनके हैरती
वह ख़ुद खड़े हैं
दीदए-हैराँ लिए हुए
-
रहबर तो क्या निशाँ किसी रहज़न का भी नहीं
गुम-गश्तगी गई है मुझे
छोड़ कर कहाँ
-
हज़ार पिन्दो-नसायह सुना चुका वाइज़
जो बादाख़्वार थे वह फिर भी
बादाख़्वार रहे
इधर यह शान कि इक आह लब तक आ न सकी
उधर यह हाल कि पहरों वह अश्क़वार रहे
-
रहबर या तो रहज़न निकले या हैं अपने आप में गुम
काफ़िले वाले
किससे पूछें किस मंज़िल तक जाना है
किसका क़र्ब कहाँ की दूरी अपने आप से ग़ाफ़िल हूं
राज़ अगर पाने
का पूछे खो जाना ही पाना है
-
कूए-जानाँ मुक़ामे-फ़ैज़ है ‘अर्श’
तुम इसी काबे का तवाफ़ करो
(शीर्ष पर वापस)
[हिंदुस्तानी
की परंपरा : मुख्य सूची]