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फ़िराक़ गोरखपुरी
(1896-1982)

  1. अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं
  2. इस सुकूते ‍फ़िज़ा में खो जाएँ
  3. उमीदे-मर्ग कब तक
  4. कभी पाबंदियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
  5. ग़ैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं
  6. ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
  7. सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है
  8. ये तो नहीं कि ग़म नहीं


आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअस्रों
जब ये ध्यान आयेगा उनको तुमने फ़िराक़ को देखा था

पूछते हो कौन हूँ कोई बता दे तुमको काश
शाइरे-आज़म फ़िराक़-ख़ातिमुलमुतग़ज़्ज़लीन

मेरे अश्आँरे-दिलकश को जगह दे अपने पहलू में
कि ये नग़्मे तेरे सच्चे रफ़ीके-ज़िंदगी होंगे

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो ले हैं

बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं

उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलमे जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ित्‍ने पर तोले हैं

उन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम
ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं

ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं

हम लोग अब तो अजनबी से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं

(शीर्ष पर वापस)

इस सुकूते ‍फ़िज़ा में खो जाएँ

वुअसते – बेकराँ में
आसमानों के राज हो जाएँ

शब्दो-नाशाद हर तरह के है लोग
किस पे हँस जाएँ किस पॅ रो जाएँ

राह में आने वाली नस्लों के
ख़ैर कांटे तो हम न बो जाएँ

क्या अजव तेरे तर-दामन
सबके दाग़े-गुनाह धो जायें

ज़िन्दगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ

(शीर्ष पर वापस)

उमीदे-मर्ग कब तक

उमीदे-मर्ग कब तक, ज़ि‍न्दगी का दर्दे-सर कब तक
ये माना सब्र करते हैं महब्बत में, मगर कब तक

दयारे दोस्त हद होती है यूँ भी दिल बहलने की
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक

यॅ तदबीरें भी तक़दीरे-महब्बत बन नहीं सकतीं
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक

इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़ि‍र कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख़्मे ज़िगर कब तक

किसी का हुस्न रूसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में
न लाये रंग आख़िरकार ता‍सीरे-नज़र कब तक

(शीर्ष पर वापस)

कभी पाबंदियों से छुट के भी दम घुटने लगता है

कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिसमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता

हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसाँ नहीं होता

बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले
दबाने के लिये हर दर्द ऐ नादाँ ! नहीं होता

यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
कि बातों में तेरी सच झूठ का इम्काँ नहीं होता

(शीर्ष पर वापस)

ग़ैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं

गैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बजा कहते हैं

वाक़ई तेरे इस अन्दाज को क्या कहते हैं
न वफ़ा कहते हैं जिसको न ज़फ़ा कहते हैं

हो जिन्हे शक, वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इन्सान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं

तेरी सूरत नजर आई तेरी सूरत से अलग
हुस्न को अहल-ए-नजर हुस्ननुमाँ कहते हैं

शिकवा-ए-हिज़्र करें भी तो करें किस दिल से
हम खुद अपने को भी अपने से जुदा कहते हैं

तेरी रूदाद-ए-सितम का है बयाँ नामुमकिन
फायदा क्या है मगर यूँ ही जरा कहते हैं

लोग जो कुछ भी कहें तेरी सितमकशी को
हम तो इन बातों को अच्छा न बुरा कहते हैं

औरों का तजुरबा जो कुछ हो मगर हम तो ‘फ़िराक’
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं

(शीर्ष पर वापस)

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी

खुदा को पा गया वाइज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की

मिला हूँ मुस्कुरा कर उस से हर बार
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी सी

मोहब्बत में कहें क्या हाल दिल का
खुशी ही काम आती है ना गम ही

भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली

लड़कपन की अदा है जानलेवा
गजब की छोकरी है हाथ भर की

रक़ीब-ए-ग़मजदा अब सब्र कर ले
कभी उस से मेरी भी दोस्ती थी

(शीर्ष पर वापस)

सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है

सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है
सुख़न की शम् जलाओ बहुत अँधेरा है

चमक उठेंगी सियहबख्तियां जमाने की
नवा-ए-दर्द सुनाओ, बहुत अँधेरा है

हर इक चराग से हर तीरगी नहीं मिटती
चराग़े-अश्क जलाओ बहुत अँधेरा है

दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूंढने जाओ बहुत अँधेरा है

ये रात वो है के सूझे जहाँ न हाथ को हाथ
ख़्यालों दूर न जाओ बहुत अँधेरा है

वो ख़ुद नहीं जो सरे बज़्मे ग़म तो आज उसके
तबस्सुमों को बुलाओ बहुत अँधेरा है

पसे-गुनाह जो ठहरे थे चश्में आदम में
उन आंसुओ को बहाओ बहुत अँधेरा है

हवाए नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम
नक़ाब रुख़ से उठाओ बहुत अँधेरा है

शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात
क़दम संभल के उठाओ बहुत अँधेरा है

गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अँधेरा है

थी एक उचटती हुई नींद ज़िंदगी उसकी
'फ़िराक़' को न जगाओ बहुत अँधेरा है

(शीर्ष पर वापस)

ये तो नहीं कि ग़म नहीं

ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

नश्शा संभाले है मुझे
बहके हुए क़दम नहीं

क़ादिरे दोजहॉं है गरे
इश्कि के दम में दम नहीं

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं

अब न खुशी की है खुशी
ग़म का भी अब तो ग़म नहीं

मेरी नशिस्त है ज़मीं
खुल्द नहीं हरम नहीं

क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रक़म नहीं

अहदे वफ़ा है हुस्ने -यार
क़ौल नहीं क़सम नही

लेते हैं मोल दो जहाँ
दाम नहीं दिरम नहीं

सौम-ओ-सलात से ‘फ़िराक़ ‘
मेरे गुनाह कम नहीं

(शीर्ष पर वापस)


 

 

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