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अनिर्णीत
 

निरूपमा
 

       चार बजे भी मई का सूरज जैसे आग उगल रहा था। हवा का कहीं नामोनिशान नहीं था। चैपाल लगभग सूनसान सी थी। लग रहा था कि गर्मी से बेहाल होकर हरिया ने भी अपनी दुकान दोपहर में ही बन्द कर दी थी। अभी-अभी आया था दुकान खोलने कि काली सफेद कुतिया जिसे कबीर टोला के बच्चे काली कहकर पुकारते थे, दुम हिलाती हुई कूड़े के ढेर पर फेंके जाने वाले मिठाई के चूरे के लालच में बैठ गई पतली सी कच्ची गली के इस ओर हरिया की दुकान थी। दूसरी ओर रमोला का घर था। वहीं दालान में टीन डाल कर वह जूते चप्पल की मरम्मत करता था।

       कलुआ आज जूता कम्पनी में मरे हुए जानवरों की खालें बेचकर लौट रहा था। रास्ते में रूककर हरिया की दुकान से घर ले जाने के लिये मिठाई खरीदने लगा। घर लौटने को मुड़ा ही था कि गली से उसकी विवाहित पुत्री बिट्टन आती दिखाई देगई। वह रूक गया। उसे अकेली आते देख चैंका और बोला -

       ‘‘बिटनिया का अकेली आई है? घरवाला नई आया? रोय क्यों रई है? लली का बात हुई गई’’, बिट्टन पिता से सीने से लग रास्ते में ही रोने लगी। घर पर माँ ने दोनों को देखा तो घबरा गई। अनिष्ट की आशंका से बोली, ‘‘का हुई गवा। रोय रई है का डोकरी मर गई?’’ ‘‘नाय अम्मा डोकरी नाय मरी है। वो मोकू मारकेई मरेगी। उसने मोकू घर से निकार दियो। अब मत भेजियो हमें। कसाई है निरी कसाई। सारे दिन काम करती हूँ तहूँ मारती पीटती है।’’

       ‘‘चुप कर जा लली चुप जा। हमने सोची तू पढ़ी लिख्खी है दान दहेज भी दिल खोल के दियो। हमने तो जे सोची कि बिन बाप को इकल्ला लड़का है रानी बन के रहेगी। जब तेरी किस्मत में ही चैन नाय है तो जे भी इसुर की मर्जी मान के चुप जा।’’

       पाकड़ के बहुत पुराने पेड़ के तने को घेरता हुआ बड़ा सा चबूतरा था जो चैपाल के नाम से जाना जाता था। उसके चारों तरफ निकलने के रास्ते के नाम पर तंग गंदी गलियां छोड़ते हुए सत्तर अस्सी घर थे। कहीं-कहीं इक्का दुक्का पक्के मकान भी थे। पानी की निकासी का कोई जरिया न होने से पानी गलियों में बहता और जज्ब होता रहता था। अधनंगे छोटे-छोटे बच्चों के लिये वह कीचड़ पानी खेलने का अच्छा जरिया था। वह सींके लेकर वह पानी कुरेदते कभी बरसात में पानी भर जाने पर कागज की नाव भी तैराया करते।

       दिन भर की मेहनत के बाद शाम को सभी चैपाल पर एकत्र होते। भीखन जन्मजात अन्धा था। पर कण्ठ में स्वयं सरस्वती विराज गई थीं। वह राधाड्डष्ण के भजन गाता कभी आल्हा ऊदल सुनाता। यह गला ही उसकी रोजी रोटी था। वह भी  प्रायः शाम को चैपाल पर आ जाता। रमोला पुराने जूते चप्पलों की मरम्मत इतने सलीके से करता कि सिलाई पता ही नहीं लगती थी। उसके पास एक बांस से बना हुआ वाद्ययन्त्र था जिसे वह इकतारा कहता था। यह इकतारा शहर से पढ़कर आई एक मेमसाब ने उसे काम से प्रसन्न होकर उसे दिया ही नहीं वरन बजाना भी सिखा दिया था। कभी-कभी वह भीखन के भजनों में वह अपने इकतारा के स्वर भी मिला दिया करता खासकर तब जब उसे यह पता होता कि बिट्टन सामने घर में ही है।

       चैपाल से लगा हुआ एक छोटा सा रैदास मन्दिर था जहाँ राम लक्ष्मण सीता की सुन्दर मूर्ति के साथ-साथ दीवारों पर रामजन्म, राम सीता विवाह, सीता हरण, अग्नि परीक्षा आदि के सजीव चित्र उकेरे गये थे। सगुन पण्डित जी बाल्मीकि रामायण के कठिन श्लोकों को सरल मधुर भाषा में कभी गीत के रूप में कभी कथा के रूप में सुनाते। तब कबीर टोला में शायद ही कोई घर में रूक पाता था। बिट्टन भी उस कथा में अपने दुःख भूल जाती।

       कुछ ही दिनों में रोटी पानी की भी किल्लत ने बिट्टन के पति छोटे लाल को बेहाल कर दिया। गाय बकरी भी उपेक्षित हो रही थीं। यह मजबूरी उसे बिट्टन के गाँव ले आई। वह अपनी पत्नी को साथ ले जाना चाहता था लेकिन वह तैयार नहीं थी। दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अड़े थे लिहाजा फैसला पंचों पर छोड़ दिया गया। नियत समय पर चैपाल पर पंचायत बैठी और बिरादरी के साथ कबीर टोला भी एकत्र हो गया।

       बिट्टन ने रो-रो कर पंचों से ससुराल न जाने की विनती की।पंचों ने पूछा, ‘‘कौन सा पहाड़ टूट पड़ा था। ससुराल से क्यों भाग आई?

       ‘‘जब मैं ससुराल गई तो सास ने कही अब येई तेरो घर है। मायका भूल जा। आदमी परमेसुर होत है जैसे राजा राम। घर में सारे काम करियो, पूजा पाठ बी करियो, सबकी सेवा करियो, इससे आदमी भी खुस रहेगा और इसुर बी। तेरे पाप का दण्ड बी आदमी को मिलेगा और पुण्य का परताप भी दोनों को मिलेगा। बहुरिया भूलिकर बी गलत काम मति करियो। तू तो वैसे बी हमारे राम जैसा लरिका की सीता जैसी बहुरिया है। उसने जो भी समझाओ हम सब काम वैसेई करते रहे। सारे घर को काम करते, गइया बकरिया देखते, आदमी के साथ मरे जिनावर की खाल उतरवाते आंतें साफ करते और रात में सास के पांय दबाते सिर में तेल डारते।

       उस दिना तेज बुखार आय गया देह कतई जल रही तब भी सारे काम करत रहे। डोकरी की धोती धोय के हैडपम्प में निचोरन को डाली सोई चक्कर आ गओ और हम गिर पड़े। बछिया धोती चबाय गई। सरपंच जी जे बताओ हमारी का गलती है। बहुत मारो डोकरी ने और कही  ‘‘जा तेरे भतेरे यार मैके में परे है, या तो धेाती अपने बाप से ला नई तो यार से ला और घर से निकाल दियो।’’ कतई जिनावर है। मति भेजो मोय डोकरी मार डारेगी।’’

       पंच सोच पड़ गये। वह जानते थे कि बिट्टन बेकसूर थी। लेकिन समाज तो भय की ताकत समझता है। यदि अंकुश ढीला हो गया तो डर भी जाता रहेगा। आज बिट्टन आई है कल और भी लड़कियाँ सास के जुल्म से परेशान होकर मायके आएंगी। और फिर हमारी बहुएं भी घर छोड़ कर जाएंगी।

       मन्दिर में सगुन पण्डित जी मधुर स्वर में गा रहे थे।

                     ‘‘ढोर गंवार शूद्र पशु नारी

                     सकल ताड़ना के अधिकारी’’

       छोटे लाल ने हाथ जोड़ कर अपनी माँ की ओर से माफी मांग ली। पंचों ने फैसला सुना दिया -

       ‘‘छोटी मोटी बातें तो घरों में होती ही रहती है। सास तो बेवा है तुम दोनों के सिवा उसका है ही कौन। वैसे भी तेरा आदमी तो, तुझे कुछ भी नहीं कहता। देख बिना गलती के भी माफी मांग रहा है। वह भी मारता पीटता तो क्या करती? औरत है औरत की तरह रहा कर। चल अपने आदमी के साथ जा।’’

       जाते-जाते छोटे लाल ने आधे पौने दाम में मरियल सी गाय खरीद ली कि खिला पिला कर मोटा कर लेगा तो कुछ आमदनी का जरिया जो जाएगा। रस्सी हाथ में थामे हरी-हरी घास का लालच देता हुआ घर जा रहा था। बिट्टन की हालत भी गाय जैसे ही थी शायद उससे भी गई गुजरी।

       कच्चे रास्ते के दोनों ओर अरहर की फसल तैयार सी खड़ी थी उसकी नाजुक पतली डालियाँ हवा के अभाव में शान्त खड़ी थीं। सूरज ठीक सिर के ऊपर आग उगल रहा था। गला सूख रहा था फिर भी जैसे प्यास मर गई हो। थोड़ा आगे रहट के पास कहीं-कहीं क्यारियों में गेंदे के छोटे-छोटे फूल खिले थे। बीच-बीच में गुलाब की डालियों पर लाल-लाल फूल थे। पास में ही घना सा आम का पेड़ था। अधपके आम के लालच में तोते डालियों पर टांव टांव कर रहे थे। गइया भी प्यासी थी छोटे लाल को भी प्यास लगी थी, रूक कर पहले गइया को पानी पिलाया, पेड़ से बांध कर व उसके आगे घास और पत्तियाँ तोड़ कर डाल दीं, अपना मुँह धोया पानी पिया, अंगोछा गीला करके मुँह पर डाला और आम के तने का सहारा लेकर लेट गया। पास ही जानवरों के पानी पीने के लिये बड़ा सा गड्ढा था जिसमें पानी भरा रहता था। कनेर के पेड़ से कुछ गुलाबी फूल उस पानी में गिर गये थे बिट्टन उसी पानी में पैर डाल कर बैठ गई। वह एक पल के लिये भी ससुराल नहीं जाना चाहती थी। सोच रही थी कि वहां कोई बोलने बतियाने वाला नहीं है। घर जैसे कोई भयानक जंगल। चालाक लोमड़ी सी डोकरी जैसे जादूगरनी, कभी बिच्छू सा डंक मारती कभी चीते सी चढ़ बैठे तो समूचा ही चबा जाय। आदमी तो पूरा का पूरा खूंखार भेड़िया, दादी की कहानी वाला कि मैं तेरी नानी हूँ। जगली जानवरों से भरा घना अंधेरा जंगल उसकी जिन्दगी जैसा और वह इस जंगल में चीख रही है चिल्ला रही है कोई भी बचाने वाला नहीं है। धीरे-धीरे अंधेरा और घना हो रहा है। जंगल भीतर को सिकुड़ता जा रहा है। उसा गला घुटने सा लगा है और आवाज निकलनी बन्द हो जाती है और अंधेरे का राक्षस चील से पैने पंजों में जकड़ उसे मार रहा है।

       घबरा कर वह चिल्ला उठी। दूर छोटेलाल सो रहा था। बिट्टन ने रहट से पानी निकाला मुँह हाथ धोये चुल्लू से पानी पिया। कुछ संयत हुई लेकिन डर बदस्तूर बना हुआ था। इस बार तो काम के अन्तहीन से दौर में वह मरगिल्ली गाय भी जुड़ गई।

       कबीर टोला से जूता कम्पनी सात आठ कोस दूर था। कम्पनी वाले टोले से आकर खाल खरीद कर ले जाते। कलुआ को सांपों की खाल उतारने में महारथ हांसिल थी। काम गैर कानूनी था लिहाजा जोखिम भी बहुत था पर पैसा बहुत था इसलिये वह खाल कम्पनी तक पहुँचाने स्वयं जाता। इस बार जानवरों के साथ सांप की खालों का अच्छा पैसा मिला। सोचता हुआ आ रहा था कि इस बार साथ वाली जमीन का वह पांच गज का टुकड़ा खरीद लेगा तो एक चारपाई भर की कोठरी और छोटी दीवार खड़ी करके टट्टी गुसलखाना बनवा लेगा तो घर की औरतों को रात बिरात नहर किनारे नहीं जाना पड़ेगा। गली पार कर ही रहा था कि घर की ओर जाती लंगड़ाती बिट्टन दिखाई दे गई। पल भर में ही सारी खुशी धुआं हो गई। तेज कदमों से घर पहुंचा तब तक बिट्टन भी घर पहुंच चुकी थी। ‘‘का हुई गवा। तू फिर आय गई, का लली।  तेरो मन ना लगत है ससुराल में? तेरे तो ब्याह के बाद भी मोकू मुकती नाय मिल रई है।’’ यह तो पूछना ही भूल गया कि पैर में क्या हुआ है वह लंगड़ा क्यों रही है। ‘‘अरी बोलत नाय है? का हुई गवा’’ इतने सारे प्रश्नों के उत्तर में रोती हुई बिट्टन जैसे लाज शरम तो भूल ही गई और अपनी धोती घुटनों तक उठा दी कहीं फूटा तो सूजा हुआ घुटना नीला होकर वीभत्स सा हो गया था। चप्पल की मरम्मत छोड़ रमोला बिट्टन की आवाज सुन कर बाहर आ गया। कहाँ वह उसकी एक झलक पाने को मौके तलाशता था, आज ऊपर तक खुली पिण्डलियाँ देख कर भी न देख सका। चोटिल घुटने ने उसकी आंखों में बसी स्त्री देह को दूर धकेल सहानुभूति के साथ आंखों में गीला पन भर दिया।

       बिट्टन की माँ उसकी चोट पर हल्दी तेल लगाती उसकी सास को कोसती जा रही थी ‘‘जान सों मारन में कसर नाय छोड़ी है डोकरी ने। कहूँ कुआं खाई मां गिर परे नाय तो भेड़िया खाय ले डोकरी को तो मेरे कलेजा में ठंडक पड़े। लली किन्ने मारो आदमी ने जा डोकरी ने। काय बात पे मारो?’’

       ‘‘वो अम्मा तुमने गंगुआ के हाथ गुड़ और चावल भेजे, हम हाल पूछि के गुड़ और दूध लै आए और बातकरन लगे। लड़कपने की कौनो बात याद कर के हंसन लगे। तब ही डोकरिया आय गई और हंसन को गलत मतलब किनार के मोय गाली देन लगी। दोपहरी में उसको लरका लंगड़ातो आय गओ। महतारी ने पूछो तो उसने बताओं कि सैइकल बैलगाड़ी से टकराय गई। सैकिल बी टूट गयी घुटनों बी फूट गओ। हाय दइया डोकरी तो साच्छात चण्डी बन गई बाल खींचे लात घंूसा मारे तबहूँ चैन नाय परो जरती लकड़िया चूल्हा से निकार के पांय पै दे मारी। घुटना देखो कितना बड़ा फफोला परो है। इतने पर भी चैन नाय परो, सो घर से निकार दओ। बताओ अम्मा मैं का करती कहां जाती। कहूं ठिकानो नाय है। टांग उसके लरका की टूटी मोसे कहती तू अपने यार के साथ इसक लड़ाय रही थी तू कुलच्छिनी है पापिन है। मेरो लड़का तेरे पाप को फल भोग रओ है।

       माँ क्या करती। लड़की को उसके घर भेजती तो लड़की दुःखी रहती नहीं भेजती तो बिरादरी जीने नहीं देती। फिर सोचती पंचायत भी तो उसे उसके घर ही भेजती जलील करती सो अलग। तीन चार दिन में जब बिट्टन थोड़ा ठीक होने लगी तो माँ ने मौका देख कर समझाया - ‘‘लली औरत की जिनगी और जिनावर की जिनगी में कौनो फरक नाय होत है। थान में बंधी गइया देखी? लात खाती तऊं दूध देती। बूढ़ी हुई जाती काम की नाय रह जाती तो बेच डारते कसाई के हाथ। महतारी बी कहते, काम की नाय रहती तो बेच डारते। लली तेरा आदमी खटिया पे परो है कल तू अपने बाप के साथ घर चली जइयो।’’

       मन्दिर में सगुन पण्डित जी कथा सुना रहे थे। बिट्टन भी जी हल्का करने को मन्दिर चली आई। लंकाकाण्ड का समापन था सीता की अग्नि परीक्षा का प्रसंग था। सीता एक वर्ष उपरान्त अपने स्वामी राम को देखती है तो उनकी आँखों से अविरल अश्रु बहने लगते हैं। राम ने सीता को देखा और बोले ‘‘हे सीते! तुम एक वर्ष तक पर पुरूष के आधिपत्य में रही हो। लोग तुम्हारे चरित्र पर अंगुली उठायेंगे। मैं चाहता हूँ तुम अपनी सच्चरित्रता का प्रमाण दो। तुम्हें स्वयं को प्रमाणित करने के लिये अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा।’’

       इससे आगे बिट्टन नहीं सुन पाई। सीता के आंसू उसकी आँखों में झिलमिलाने लगे थे। उसे लगा कि सती साध्वी सीता को चरित्र के लिये आग में बैठना पड़ा तो उसकी क्या औकात है। भारी मनसे उठी और घर से विदा ले पिता के साथ जाने लगी।

       उसके पैर चल रहे थे इसलिये वह जा रही थी। दिल भी धड़क रहा था क्योंकि सांसों में गति थी पर सभी के सत्ताकेन्द्र अलग-अलग थे एक दूसरे से अन्जान। अजीब मनःस्थिति थी, जैसे सारी शक्ति शिथिल हो गई हो। मन में विचारों का अंधड़ सा चल रहा था, सोच रही थी, कितने अरमान थे, आदमी प्यार करेगा, घुमाने फिराने लेकर जाएगा, नये-नये कपड़े न भी दे पाये, टिकुली आलता चूड़ियां लायेगा। पर क्या मिला कसाई जैसी सास और उसके इशारों पर चलने वाला आदमी हाट में कठपुतली वाला खेला था वैसा ही। मेरे दुःखों से उसे मतबल ही नहीं। वैसे कमीना वह भी कम नहीं। दिन भर माँ के जुलम सहो रात में आदमी के। कमबखत जैसे मरे जिनावर की खाल खींचता है मुझे भी मरे जिनावर सा समझता है। अबकी हाथ बी नाय लगाने दूंगी।

       यों बिट्टन की सास को उससे कोई शिकायत नहीं थी बस डर था कि बड़े घर की लड़की है। लड़का बीबी के कहने में आएगा तो उसका बुढ़ापा कैसे कटेगा। बस इसीलिये उसे दबाकर रखने के लिये ही बिना वजह जुल्म करती रहती थी। बिट्टन का घर आ चुका था। सास बाहर ही मिल गई। क्या बाप तेरा रख ना पाया? चार दिन में रोटी भारी पड़ गई जो वापस ले आया। लेही आया है तो कलुआ अब अपने घर वापस चला जा और बहुरिया पिछवाड़े गोबर पड़ा है कण्डा पाथ ले फिपर रोटी कर लियो। और हाँ कान खोल के सुनि ले! मेरो लरका तुझ जैसी कुलच्छिनी के साथ नाय सोयगा सो वा अनाज वाली कोठरी है वाई में सोये कर।’’

       बिट्टन की आखिरी उम्मीद भी टूट गई। शादी के समय मायके से अपने तोते का पिंजरा साथ ले आई थी। जब सास नहीं होती तब उससे बातें कर मन हल्का कर लेती और सोचती कि उसमें और तोते में क्या अन्तर है। उससे कहती, ‘‘तेरी मेरी एकई सी हालत है। तू अपने पिंजरा में इकल्लो है। सारे दिन सींकचन से सिर मारतो है तऊं मुकती नाय मिलती। अंधेरा होन पे उनही सींकचन को सहारो ले के सोय जात है। जेई हमारी हालत है। मन करतो है पिंजरा तोर के आकास में दूर उड़ि जाऊं  डोंकरी पकर ना पाये।’’

       अचानक याद आया कि छोटे लाल बिना खाये पिये खेतों की ओर चला गया था। उसने खाना पोटली में बांधा और उसे खिलाने चल दी। छोटे लाल ने उसे भ्ी अपने साथ बैठा लिया दोनों ने मिल कर खाना खाया और बिट्टन वापस घर आ गई। बिट्टन को उबाऊ दिनचर्या में यह बदलाव अच्छा लगा। अब वह प्रायः ही खाना बनाने में देर कर देती और दोपहर में पोटली बांध देने चली जाती।

       एक दिन खाना खिला कर वापस आ रही थी रास्ते में मरा बैल दिखाई दे गया। वह रास्ते से ही वापस होली। खेत के आस पास उसे छोटे लाल दिखाई नहीं पड़ा। थोउ़ा दूर तक जाकर देखा तब भी नहीं। तभी अरहर के खेतों में हलचल सी जान पड़ी। जानवर होने की आशंका से भगाने को दौड़ी पर चन्द कदमों पर ही ठिठक गई। छोटे लाल के कपड़े वहीं झाड़ियों में पड़े थे। वह निर्वसना जमुना के साथ वहां तक पहुंच चुका था जहां तक उसे नहीं जाना चाहिये था। सीमाएं टूट चुकी थी।  बिट्टन को पास में हंसिया दिखाई दिया। वह उसी को उठाकर मारने दौड़ी पर वहीं पड़े गड़ासे पर एक मिट्टी के ढेले से टकराकर ओंधे मुंह गिर पड़ी। गड़ासा उसके हाथ को चीरता चला गया। काफी खून बह रहा था। छोटे लाल ने मेड़ से धीग्वार की पत्तियाँ तोड़ कुचल कर जख्मी हाथ पर लगाकर अंगोछे से हाथ बांध दिया और जैसे तैसे सहारा देकर घर लाया।

       बिट्टन ने घर आकर न्याय की उम्मीद से रो-रोकर सास को सारी घटना बताई। उसे लगा सास भी एक औरत है कम से कम आज तो वह उसका दुःख समझेगी। वह भूल गई कि शीत के डूबते सूर्य की किरणों से गरमाहट की कामना कंपकपाहट को और भी बढ़ा देती है।

       घटनाक्रम सुनते ही सास तो बुरी तरह भड़क उठी ‘‘अब समझ मा आई तेरे चोट कैसे लगी। तू तो थानेदारनी है, सजा देवेगी अपने आदमी को, अरे करो का है इसने। जे तो मरद की निसानी है। एक दुई का चार-चार लौंडिया रख सके है मरद है मरद। आदमी को मारेगी। करमजली सारी लाज सरम बेच आई है यार के हाथों। इसुर से भी नाय डरती आ मैं बताऊँ आदमी को कैसे मारो जात है। पास पड़ा कपड़ा धोने का डण्डा उठाया और उसे कपड़े सा धुन दिया। अधमरी बिट्टन को भैंसा गाड़ी में डाल छोटे लाल के साथ उसके मायके चैपाल पर छोड़ आई।

       पतझर की तेज हवाओं ने सभी को लगभग घरों में बन्द सा कर दिया था। हरिया की दुकान भी अभी तक नहीं खुली थी। रमोला हवेली से वापस लौट रहा था। वैसे तो वह घर में ही घुस जाता लेकिन गली की कीचड़ में पड़े उबले आलू के छिलके पर पैर फिसल गया। उठकर खड़ा हुआ। सामने चबूतरे पर अस्त व्यस्त सी बिट्टन दिखाई दी। सीने से आंचल सरक गया था सांवले से उन्नत उरोज ब्लाउज से झांक रहे थे। धोती भी पैर से ऊपर चढ़ गई थी। चिकनी मटमैली सी पिण्डली डूबते सूरज की लाली में तांबे सी चमक रही थी। धड़कन देखने के लिये चाहकर भी सीने पर हाथ न रख सका। ानाक के नीचे अंगुली रखकर देखों सांस चल रही थी। रमोला की जान में जान आई। आज पहली बार उसे बिट्टन को छूने का, उसके पास जाने का मौका मिला था। वह सहायता के लिये किसी को बुलाना नहीं चाहता था। घर से पानी लाकर मुंह पर छींटे दिये वह कराही और दूसरी करवट ले लुढ़क गई। अंगोछे से बंधा हाथ देख वह डर गया और भाग कर कलुआ को बुला लाया।

       कुछ दिनों की तीमारदारी से उसके जिस्मानी घाव तो भरने लगे पर मन के जख्मों ने उसे गंूगा कर दिया था कोई भी कुछ पूछता तो आंखों की कोर से बूंदे ढलक जाती।

       काली कुछ ही समय में बच्चों को जन्म देने वाली थी। उसे उस चुप रहने वाली बिट्टन से शायद कोई खतरा नहीं था इसलिये उसके पायताने बैठी दुम हिलाती रहती थी।

       कुछ ही दिनों में काली ने छः पिल्लों को जन्म दिया दो बिल्कुल काले थे बाकी चार काली की तरह से चितकबरे। वहीं दालान के कोने में पुआल के ढेर पर यह बच्चें कूँ-कूँ करते रहते। जैसे ही काली उनके पास जाती सारे के सारे उसके थनों से झूल जाते जैसे उसे नोचकर खाही जाएंगे। बिट्टन को काली पर तरस आता लेकिन जब उन पिल्लों को भगाती तो काली उस पर गुर्राने लगती और अपने बच्चों को एक बार फिर अपने अन्दर समेट लेती। उसे काली अपने जैसी लगती पति विहीना लाचार। फिर सोचती, ‘‘ठीक ही तो है आदमी नहीं है तो काली सुखी तो है, कोई तंग करने वाला तो नहीं है।’’

       छोटे लाल फिर बिट्टन को लिवाने आ गया लेकिन बिट्टन ने उसे लौटा दिया। अगले ही दिन उसकी सास भी छोटे लाल के साथ आ गई। सास बिना बिट्टन के जाने को तैयार नहीं थी और बिट्टन किसी भी सूरत में जाने को तैयार नहीं थी। बिरादरी वालों ने बहुत समझाया पर बात न बनी। हार कर फैसला पंचों के हाथ में दे दिया गया।

       एक बार फिर चैपाल पर पंचायत जुड़ी। पंचों ने बिट्टन और उसकी सास से कुछ नहीं पूछा बस फैसला कर दिया कि बिट्टन को ससुराल जाना ही चाहिये।

       बिट्टन के सब्र का बांध टूटा ‘‘अरे तुम पंच का फैसला करोगे, हो तो मरद। जे तो बताओ हमने का करा है? जब पहले हमें निकारा तब हमने का पाप करा था जो इत्ता मारा।  तब तुम पंचन ने फैसला कर दिया कि जा अपने घर। अब इस आदमी ने कित्ता बुरा काम किया पाप करम किया और सजा मोकू मिली। डोकरी कहती कि मरद जो चाहे कर सकता है। सारे घर को जिनावर की तरह काम करूं और जिनावर जैसी मार खाऊँ। भाग के नाय आती तो दोनों जने मोकू मारके गाड़ देते। जो बताओ पंच जी का पाप पुन्न नियाय अनियाय धरम अधरम औरत मर्द के अलग अलग होते बस इत्ती सी बात समझाय देवो।

       पंचों के पास कोई जवाब नहीं था। वह जानते थे कि वह जो फैसला कर रहे हैं वह गलत है पर सच को मानना भी तो पुरूष सत्ता को चुनौती देना ही था।

       लिहाजा फैसला सुना दिया कि या तो बिट्टन ससुराल चली जाए नहीं तो उसके परिवार को बिरादरी से बेदखल कर दिया जाएगा। और दस दिन की समय दे दिया गया।

       एक तरफा फैसले से बिट्टन ही नहीं उसकी माँ भी आहत थी सोच रही थी कि पंच भी गलत हैं और बिट्टन की सास भी। बिरादरी वालों की भी तो बेटियाँ फिर वह क्यों नहीं कुछ बोलते।

       वह पंचों से बोली, ‘‘पंच नाराज हों तो हों वैसे भी तुम मानुस नाय हो मानुस होते तो लरकिनी का दुःख समझते। तुम वाको दुःख नाय देखते बिरादरी बी नाय समझती तो हमें भी परवा नाय है। सब छूट जाए तो छूट जाए। हम इकल्ले ही भले हैं।’’ निर्णय तो ले लिया लेकिन उसके बाद ढेरों मुसीबतों का सामना आसान नहीं था।

       बिट्टन खुश थी कि नारकीय जीवन से मुक्ति मिली न बिरादरी में उठे बैठेगी न कोई पूछ गछ करेगा। माँ परेशान थी कि सबसे अलग होकर अकेली दुख सुख कैसे काटेगी। तीज त्यौहार पर सब साथ होंगे वह अकेली घर में होगी। होली भी तो आने को है। कलुआ परेशान था सोच रहा था कुछ ही समय में लाही कटने को है गेहूँ की कटाई शुरू हो जाएगी। उसे इस बार काम नहीं मिलेगा। मजदूरी तो जाएगी साथ ही खेतों में बिखरी अनाज की बालियाँ भी हाथ से जाएंगी। खालें बेचने से रोटी हमेशा तो नहीं मिल पाएगी। घर रहो तो माँ-बेटी का रोना सुनो बाहर कोई बोलने बतियाने वाला नहीं। पन्द्रह दिन बाद लाला जी के घर शादी है काम नहीं मिलेगा इनाम नहीं मिलेगा पुए पकवान की बात ही नहीं रहेगी। बिरादरी से अलग होना तो जीते जी मर जाने जैसा है। फिर उसे ईश्वर पर क्रोध आता कि ऐसी औलाद क्यों दी सहलेती तो माँ बाप की जिन्दगी न नरक बनती इसी उहापोह में आठ दिन बीत गये।

       आज रमोला ने पहली बार बिट्टन को आवाज दी, बिट्टन बाहर आई, ‘‘का है? क्यों बुला रहा है?’’

       ‘‘देख गुस्सां से बात मति कर। तेरो दुःख से मोकू भी दुःख होत है। ससुराल नाय जाएगी तो का माँ बाप पे बोझ बनेगी। जे बिरादरी वाले तो वैसे मुँह से रोटी छीन ले। मेमसाब की दादी की कूल्हा की हड्डी टूट गई बिस्तर पर परी है। कोई टट्टी पेसाब, साफ करन वाला नाय मिल रहा है। तू उनका सब काम संभाल ले। रोटी बी मिलती रहेगी पुराने कपड़ा बी। चार पैसा बी मिलेंगे। बिरादरी से कौनो मतलब नहीं है। सास के जुलम से तो जेई सई है।’’

       बिट्टन ने सोचा लेकिन उसे गन्दगी साफ करने के नाम पर घिन आने लगी। उसे लगा भारी भरकम शरीर कैसे साफ करेगी और उसने मना कर दिया।

       रात में बिट्टन पेशाब जाने के उठी तो देखा कि कलुआ अकेला चारपाई पर सिर पकड़े बैठा हुआ है। उस रात बिट्टन सो न सकी। वह सोच नहीं पा रही थी वह अपने फैसले में सही है या गलत। अपना दुःख उसे ससुराल जाने से रोकता था और माता पिता की परेशानियाँ जाने को विवश करती। अजब द्विविधा में फंस गई। उसने सोचा  कि अपने दुःख वह जैसे तैसे सह लेगी माता पिता को नहीं सहने देगी और उसने निर्णय ले लिया कि वह वापस चली जाएगी।

       आज पंचायत के नियत समय का आखिरी दिन था। आज ही पण्डित जी कथा समाप्त कर के कुछ दिनों के लिये जा रहे थे। बिट्टन समय से पूर्व चैपाल पर आ गई उसे सगुन पण्डित जी की कथा अपनी कहानी जैसी लगती थी। आज रमोला भी इकतारा घर पर छोड़ आया था। बिट्टन से अनजाना सा लगाव उसे चैपाल तक ले आया था। उसे भी फैसले की प्रतीक्षा थी।

       लवकुश काण्ड समाप्ति की ओर था। वाल्मीकि आश्रम के प्राड्डतिक सौन्दर्य बहुत ही सुन्दर वर्णन कर रहे थे पण्डित जी। राम उनके आश्रम में सीता को लेने आते हैं। सीता उन्हें प्रणाम करती है और साथ जाने से इन्कार कर देती है कहती है, ‘‘मैं तो पहले ही अग्नि परीक्षा देकर स्वयं को साध्वी प्रमाणित कर चुकी थी। फिर आपने मुझ गर्भवती स्त्री को निर्वासित करके क्या अपने प्रख्यात कुल के अनुरूप कार्य किया है? इतना अपमान और तिरस्कार क्या केवल इसलिये कि मैं मात्र वस्तु हूँ? गर्भावस्था पर विचार तक नहीं? जिस राज्य में स्त्री को स्वर्ण प्रतिमा में कैद कर जड़ दिया जाता है उस राज्य की महारानी बनने की कामना नहीं है मुझे। तुम्हारे साथ जाने से अच्छा है कि धरती फट जाए और मैं इसमें समा जाऊँ।’’

       पंच चैपाल पर आ चुके थे। बिरादरी भी जमा हो चुकी थी। पंचों ने पूछा, ‘‘क्या सोचा तूने? बिट्टन गर्विता से खड़ी हुई, ‘‘छिमा सरपंच जी, जे न्याय अनयाय इसुर ने नाय बनाए हैं तुम मरदन के बनाए हैं। सरन में आये को तो जिनावर भी नाय मारते। तुम तो उनसे बी गये बीते हो। मैं ससुराल नाय जाऊँगी। एक बात और सुनि लेओ मैं अपनो घर बी छोड़ रई हूँ। इसके बाद अम्मा बापू से मेरो कौनो मतबल नाय है। उन्हें बिरादरी में सामिल रहन दियो। उनकी कौनो गलती नाय है।’’

       ‘‘चल रमोला मोय मेमसाब के घर छोड़िआ’’

 

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