कानदाँव
स्वयं प्रकाश
पन्ना संवादकहते हैं,
किसी जमाने में कोयल कुहू-कुहू बोलती थी और पपीहा पीहू-पीहू। लोग पहली रोटी
गाय के लिए निकालते थे और आखिरी कुत्ते के लिए। मुसलमान की बेटी की शादी हो
तो हिन्दू कन्यादान लेकर जाते थे और हिंदू की बेटी की शादी हो तो मुसलमान
जोड़ा लेकर। अब तो कहते हैं कोयल बोलती नहीं,
बोलता है,
और गाना उसे हम समझें तो हमारी मर्जी,
है तो वह मेटिंग कॉल। सूचना का युग है। लोगों को यह तक नहीं मालूम की
नारियल,
सेब,
केला और नींबू में से किसका वृक्ष कांटेदार होता है। सही जवाब बता सकने
वाले नरपुंगव या नारीरत्न को मीडियापति प्रसन्न होकर हजारों रुपये का
पुरस्कार देते हैं।
तो खैर बात उस जमाने की है जब कोयल कुहू-कुहू बोलती थी वगैरह।
कि एक था बनिया और एक था पठान। दोनों का साथ ऐसा जैसे घी-शक्कर,
पर किसी बात पर हो गई दोनों में अनबन और अनबन भी ऐसी की मुँह पर तो
मीठे-मीठे लेकिन अंदर-अंदर एक-दूसरे की खाल खींचने को उतावले। बनिये को
अभिमान अपनी कुटिल बुद्धि का,
तो पठान को नाज़ अपने बाजुओं के दमखम का। बढ़ते-बढ़ते जब बात ज़्यादा बढ़
गई तो दुआ-सलाम,
रामा-श्यामा से भी गए। सरेराह गरेबान पकड़ने की नौबत आ गई। हो ये रहा था कि
बनिया था गाँव का एकमात्र बोहरा-बजाज और पठान था हिसाब में कच्चा। रिवाज़
था कि साल भर सामान लेते जाओ और फसल पर दाम चुका दो।
बनिये-पठान की दोस्ती से जलकर किसी ने पठान में फूँक भर दी कि बनिया हिसाब
में डंडी मार रहा है और तुझसे ऐसे कागजों पर टीप मंडवा रहा है कि जिनसे एक
दिन तेरी सारी ज़मीन बनिये की हो जाएगी।
जब अदावत चल पड़ी तो छोटी-छोटी बातों ने भी आग में घी का काम किया। औरतों
की कहा-सुनी,
बच्चों के झगड़े-झंझट और तमाशबीनों की लगाई-बुझाई। करनी कुछ ऐसी हुई कि एक
दिन सरेराह पठान ने बनिये का गरेबान पकड़ लिया और उसकी चटनी बनाने पर आमादा
हो गया। देखते-देखते सारा गाँव इकट्ठा हो गया। सयानों ने बीचबचाव किया और
सलाह दी कि शान्ति रखी जाए और जो भी मामला है,
वह पंचायत को सुलटाने दिया जाए। रही चटनी,
तो पठान जैसी कहे वे खुद पठान के घर पहुँचा देंगे। वैसे भी बनिये की चटनी
में क्या स्वाद आएगा?
सात-सात दिन नहाता तो है नहीं साला।
मान तो गया,
पर पठान को पूरा शक था कि पंचायत बनिये के हक में ही फैसला करेंगी अब ऐसा
क्या किया जाए कि न बनिये को और न पंचायत को मौका मिले भांजी मारन का। तो
उसने जुगत भिड़ाई कि ठीक है,
पंचों का जो भी फैसला होगा सिर आँखें पर लूँगा,
लेकिन फैसले की शर्त मैं खुद तय करूँगा। और शर्त ऐसी रखूँगा...
...और
शर्त उसने ऐसी रखी कि सारा गाँव सन्न। और पंच तो जैसे पत्थर की मूरत। रही
ऐसी ही गत थोड़ी देर। पठान की शर्त ये थी कि बातों से किसी को भरमाना तो
मुझे आता नहीं पर सत्त और न्याव की परीक्षा ऐसी होनी चाहिए जो गाँव के सारे
लोगों को ही नहीं,
चिड़िया-चरोंटों को भी दिखाई दे। इसलिए करवा तो सबसे सामने एक दिन मेरी और
बनिये की कुश्ती जो जीता वही सच्चा।
बुजुर्गों ने पठान को समझाने की कोशिश की कि गेलसफा जैसी बात मत कर। अब तुम
लोग बच्चे तो हो नहीं कि कुश्ती से फैसला करा लें। सोचो,
अच्छे लगोगे गाँव भर की बैयर-जनानियों-बहुओं-बेटियों के आगे लँगोट लगाकर खम
ठोंकते?
पठान कुछ देर चुपचाप सुनता रहा। लगा कि समझ रहा है। उस ज़माने में फिल्मों
का चलन तो था नहीं,
लेकिन फिर पठान ने ठेठ आजकल की फिल्मों के अन्दाज़ में हवा में अपने बाजू
उठाए और हुंकार भरी,
‘‘अब
तो इस बात का फैसला कुश्ती के अखाड़े में ही होगा।’’
पठान की ललकार इतनी थिएटराना थी कि वहाँ जमा छोरों-छकारों ने इस बात पर
तालियाँ पीट दीं। पीट क्या दीं,
उनसे पिट गई। मुफ्त का इतना बड़ा तमाशा कौन छोड़े।
अब बनिये के मुँह में तो जैसे दही जम गया।
कुछ देर की अफरातफरी के बाद आखिर एक बुजुर्गों के भी बुजुर्ग ने फिर पठान
को समझाने की कोशिश की,
‘‘रे
पठान! इस तरह तो आज तक कोई फैसला नहीं हुआ है।’’
‘‘कैसे
नहीं हुआ?’’
पठान बोला,
‘‘राजा
फलान सिंह जी के ज़माने में नहीं हुआ था जब वजीरे-खजाना पर रानी के साथ
बदफैली का इल्ज़ाम लगाया था सेनापति ने और बताऊँ?’’
‘‘बोलो?’’
‘‘राजा
ढिकान सिंह जी के ज़माने में नहीं हुआ था,
जब लोटन खवास और पीरू भिश्ती के बीच खेत में डंगर हाँकने की मसला आया था?’
‘‘वो
ज़माना अब नहीं रहा रे पठान।’’
‘‘पर
तुम तो हो। भीषम पितामै! के तुम भी नहीं रहे?’’
अब,
इस बात का कोई क्या जवाब देता?
तभी अचानक सबको चैंकते हुए बनिया दोनों हाथ हवा मे उठाकर आत्मसमर्पण की-सी
मुद्रा में बोला,
‘‘मुझे
मंजूर है। मुझे पठान भाई की शर्त मंजूर है।’’
सारा गाँव फिर सन्न। पंच जैसे पत्थर की मूरत। ये क्या कह रहा है बनिया।
बावला तो नहीं हो गया?
कहाँ वो छहफुटा जबरजंग सांड-सा पठान और कहाँ ये पिलपिले आटे का थुलथुल थोत!
लगता है,
अपनी चटनी ही बनवाकर छोड़ेगा-फिर उसका स्वाद जैसा भी हो।
बनिया हाथ जोड़े-जोड़े पठान के सामने आया और बोला,
‘‘पठान
भाई,
मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है। पंचों से कहो कि कुश्ती की तारीख मुकर्रर कर
दें।’’
अब बात ऐसी हो गई थी कि ताली पीटने वालों से ताली भी नहीं पिट रही थीं
दो-चार लोगों ने बनिये को समझाया कि क्या कर रहा है?
पागल हो गया है क्या?
जरा अपने बाल-बच्चों की तरफ देख। श्राद्ध तो तेरा चलो हम चंदा करके भी कर
देंगे,
पर उम्र भर उन्हें बैठाकर खिलाएगा कौन?
लेकिन बनिया क्यों मानता?
अब बात यह थी कि गाँव के लोग पठान की दादागिरी से भी उतने ही दुखी थे जितने
बनिये के कांइयांपने से। सो उन्होंने सोचा,
मरने दो सालों को। और उन्होंने तिथि-वार विचारकर डेढ़ महीने बाद की एक
तारीख पक्की कर दीं।
बनिया तो हस्बमामूल अपने काम में लगा रहा,
पर पठान ने सारे काम-धाम छोड़कर मालिश कराना और दंड पेलना शुरू कर दिया। अब
दंड पेलेगा तो खूराक भी लगेगीं तो काजू-किशमिश-बादाम-पिस्ता आ रहा है बनिये
की ही दुकान से। और तो कहाँ से आता?
दूसरा काम पठान ने ये किया कि आसपास के बीस गाँवों में अपने रिश्तेदारों को
ख़बर करवा दी कि अमुक तारीख को कुश्ती है,
देखने जरूर आएँ। तो हुआ यह कि पठान के घर मेहमान आने लगे ठठ के ठठ। तो उनके
लिए आटा-दाल-घी-गुड़ भी आ रहा है बलिये की दुकान से। और बनिया एक के बाद एक
नए काग़ज पर लगवाता जा रहा है पठान का अँगूठा।
करते-करते वो दिन भी आ गया जब पठान और बनिये की कुश्ती होनी थीं गाँव से
जरा हटकर खुले मैदान में खोदा गया अखाड़ा और बजने लगे ढोल। सजधजकर सिंहासन
पर बिराज कर पंच परमेश्वर और भीड़ इतनी कि कहीं तिल धरने की जगह नहीं।
शोरगुल इतना की खुद अपनी आवाज भी सुनाई न दे। लोग थे कि कयास-आराइयों से
फुरसत नहीं पा रहे थे। पठान जीतेगा लगा तो शर्त दो-दो सौ की बनिया जीतेगा,
बद ते पाँच-पाँच सौ की,
वगैरह-वगैरह।
आखिर लँगोट कसे खम ठोंकते उतरा पठान अखाड़े में और भूखे शेर की तरह इधर से
उधर कूदने-फाँदने लगा। अब देखना! बनिया आया नहीं कि बनी उसकी चटनी अजी
देखना,
भाग जाएगा दुम दबाके! शर्त बद लो जो पाँव भी धर दे अखाड़े में। ये अखाड़ा
है,
कोई पीले पन्नों की बही नहीं,
जिसमें कुछ भी मांड लो। यहाँ तो जो डंके की चोट है! अरे नहीं भाई! उसने भी
कुछ किया है तो सोच-समझकर ही किया है। उसे सीधा मत समझो। जन्म का टेढ़ा है।
जरूर कोई दाँव सीखकर आया होगा जिसकी काट पठान नहीं जानता। अजी छोड़ो! कहाँ
से दाँव सीखकर आएगा?
उसकी सात पुश्तों में लड़ी है किसी ने कुश्ती?
ये बातें चल ही रही थी कि भीड़ के बीच से बनिया प्रकट हुआ। पगड़ी उतारी,
कुर्ता उतारा,
जुती उतारी,
धोती का कछौटा बाँधा और अपनी थुलथुल काया लेकर अखाड़े में कूद पड़ा।
दर्शकों की ऊपर की साँस ऊपर,
नीचे की साँस नीचे।
पंचों का इशारा हुआ। दोनों पहलवानों ने खम ठोके और पंजे फैलाकर एक-दूसरे की
तरफ बढ़े। पंजे लड़ाए और सिर जोड़े। बस! यही वो पल था जब कुछ भी हो सकता
था। बनिये ने पठान की आँखों में आँखें डालीं और बोला,
‘‘हजार
अशर्फियाँ चाहिए?
सोने की?’’
जोड़ी पंजे भिड़ाए अखाड़े में गोल-गोल घूम रही थीं ढोल-नगाड़े पूरे जोश से
बज रहे थे,
दर्शक सन्न थे कि पठान भौंचक कि ये साला बनिया इस समय बातें क्यों कर रहा
है?
चाहता क्या है?
रहम की भीख तो नहीं माँग रहा?
बनिया फिर मुस्कराकर बोला,
‘‘तेरी
सारी जमीन छोड़ दूँगा और हजार अशर्फियाँ ऊपर से दूँगा। सोने की बोल?
चाहिए?’’
पठान समझा। पर चुप रहा। ये सारा हाथी की लीद मुझे समझता क्या है?
मौत सामने देखकर नानी पर रही है... हजार क्या बोला?
अशर्फी?
हजार?
सोने की?
बनिया फिर मुस्कराकर बोला,
‘‘मैं
लंगी लगाऊँगा,
तू चित हो जाना। कुछ देर तड़पना और फिर बस... हजार अशर्फी तेरी,
सोने की...’’
‘‘मुकर
गया तो?’’
पठान ने पूछा।
‘‘जान
प्यारी नहीं है क्या मुझे?
मुकर जाऊँगा तो तू छोड़ेगा?’’
बस,
उसी पल चमत्कार जैसा हो गया। बनिये ने लंगी लगाई और पठान हवा में उछलकर
अखाड़े की मिट्टी में चित पड़ गया,
कुछ देर तड़पा और ढेर हो गया। बनिया उछलने लगा। उससे ज़्यादा उसकी तोंद।
दर्शक उत्तेजना और अविश्वास से पागल। क्या हुआ?
क्या हुआ?
सब एक-दूसरे के कंधों पर चढ़ने लगे। धक्कामुक्की,
अच्छी तरह देख लेने के लिए। भगदड़ धूल,
शोर,
गुलगपाड़ा। बनिये पर दाँव लगाने वालों की पौ-बारह। शाबाशियाँ,
बधाइयाँ,
जयकार।
करीब महीने भर बाद पठान पहुँचा बनिये की गद्दी पर और एकांत देखकर बोला,
‘‘हाँ
जी! मेरी अशर्फियाँ!’’
बनिये ने बहाना मारा कि आज तो बहुत काम पड़ा है जी को। तू ऐसा कर कि पंद्रह
दिन बाद आ जा।
पंद्रह दिन बात बोला कि आज तो में बाहर जा रहा हूँ,
ऐसा कर कि पंद्रह दिन बाद आ जा।
पंद्रह दिन बात बोला कि देख यहाँ तो ठीक नहीं रहेगा,
मैं ऐसा करता हूँ कि महीने भी बाद तेेरे घर पर ही पहुँचा दूँगा।
महीने भर बाद बोला कि तू कल दोपहर मेरी गद्दी पर ही आ जा।
गद्दी पर आया तो दरवाजा अंदर से बंद कर लिया और बोला,
‘‘ये
बता,
तू कुश्ती लड़ना जानता है?’’
‘‘ये
भी कोई पूछने की बात है?’’
पठान तुनककर बोला।
‘‘मुझे
तो नहीं लगता कि तू कुश्ती लड़ना जानता है।’’
‘‘कैसे
नहीं जानता?’’
‘‘जानता
है तो बता तुझे कौन-कौन-से दाँव आते हैं?’’
पठान को जितने दाँव आते थे,
सब उसने गिना दिए,
लंगी,
घिस्सा,
गरदनिया,
कलाई तोड़,
धोबीपाट,
रानबंदी और भी कितने ही बनिया आँख मूंदे सुनता रहा। फिर बोला,
‘‘और?’’
‘‘और
क्या?’’
‘‘और
नहीं आता?
ये तो मुझे भी आते हैं।’’
पठान क्या बोलता?
और तो उसे कोई दाँव नहीं आता था। दिमाग पर जोर डाला। पर कुछ सुझा ही नहीं।
तब बनिया बोला,
‘‘मुझे
एक दाँव और आता है।’’
‘‘कौन-सा?’’
‘‘कानदांव,
तुझे आता है?’’
‘‘कानदांव?
ये क्या होता है?’’
‘‘वही,
जो मैंने तुझ पर लगाया। अब भई देख,
मैंने तो दाँव लगाकर कुश्ती जीती है,
फिर कैसा लेना और कैसा देना?
तू ही बता।’’
पठान समझ गया,
इस साले बनिये ने फिर भांजी मार दी है। उसे गुस्सा आने लगा। बनिये से
ज़्यादा खुद पर। मैंने इसका विश्वास ही क्यों किया?
मैं लालच में फँसा ही क्यों?
अब किस मुँ से किसी से कहूँ कि मैं इसकी बातें में आकर जान-बूझकर कुश्ती
हारा था?
चुपचाप उठ गया और सिर लटकाकर जाने लगा।
बनिये ने पीछे से आवाज़ दी और तिजोरी से एक थैली निकालकर पकड़ाई। बोला,
--तेरा
बनता तो नहीं है,
पर मुझे भी ऊपर जाकर किसी को मुँह दिखाना है। पूरी हजार अशर्फियाँ हैं सोने
की गिन लेना। पर तेरी ज़मीन नहीं दूँगा। वह सारी अब मेरी हो चुकी है। कहीं
और जाना और इस दौलत से कोई दूसरा कारोबार शुरू करना। जा खुश रह।’’
पठान,
जो पूरी तरह नाउम्मी हो चुका था,
हजार अशर्फियाँ पाकर इतना खुश हुआ कि उसने
‘बनिया
भाई’
को गले से लगा लिया। आँखों में आनंदाश्रु आ गए।
बनिया भी अपार खुश हुआ कि हज़ार अशर्फियों में पठान की सारी उपजाऊ ज़मीन भी
मिली और पोल भी खुलते-खुलते रह गई।
घर आकर पठान को पूरी बात समझ में आई। उसने ज़मीन पर से कब्जा नहीं छोड़ा।
करने दो उसको पंचायत,
इस बार फिर कुश्ती करवाऊँगा।
आखिर यह तय हुआ कि ज़मीन बनिये की ही रहेगी पर खेती पठान करेगा,
आधा हिस्सा बनिये को मिलेगा।
मित्रो! यह इतिहास की पहली मैच फिक्सिंग थीं मैच फिक्सिंग को हिंदी में
कानदांव कहते हैं।
इस महान सांस्कृतिक हरकत ने हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी के
लिए ऐसा सौहार्द,
ऐसी समरसता,
ऐसा भाईचारा,
ऐसा इत्तिहाद पैदा किया कि अंग्रेजों को भी उसे तोड़ने में ऐड़ी-चोटी का
पसीना एक करना पड़ा।
कोई ढाई सौ साल बाद
1947
में जाकर यह हुआ कि एक तरफ बैठे गाँधी-नेहरू-पटेल और जिन्ना। और दूसरी तरफ
बैठे लॉर्ड माउंटबेटन। लाट साहब ने पूछा,
‘‘ये
आपको आखिरी जवाब है?
कॉन्फिडेंट?
लॉक कर दें इसे?’’
और देखिए मजा कि सब एक सा बोल उठे-यस्स!
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