नींद नहीं आती
सज्जाद ज़हीर
घड-घड-घड-घड, टिक-टिक, चट, टिक-टिक-टिक, चट-चट-चट। गुजर गया ज़माना गले
लगाए ए... ए... ऐ... खामोशी और अंधेरा। अंधेरा-अंधेरा। आँख एक पल के बाद
खुली। तकिये के गिलाफ की सफ़ेदी। अंधेरा, मगर बिलकुल अंधेरा नहीं। फिर आँख
बन्द हो गयी। मगर पूरा अंधेरा नहीं। आँख दबा कर बन्द की फिर भी रौशनी आ ही
जाती है। अंधेरा, पूरा अंधेरा क्यों नहीं होता? क्यों नहीं ? क्यों नहीं?
बडा मेरा दोस्त बनता है, जब मुलाकात हुई, आइये अकबर भाई, आपको तो देखने को
आंखें तरस गयीं। हें... हें...हें। कुछ ताज़ा क़लाम सुनाइये। लीजिये,
सिगरेट का शौक फ़रमाइये। मगर समझता है, शेर खूब समझता है। वह दूसरा उल्लू
का पठ्ठा तो बिलकुल मूढ़ है। आख्ख़ाह - आज तो आप बिलकुल नई अचकन पहने हैं।
नई अचकन पहने हैं.... तेरे बाप का क्या बिगडता है जो मैं नई अचकन पहने
हूँ। तू चाहता है कि बस तेरे पास ही नई अचकन हो और शेर समझना तो दूर की
बात, सही पढ़ भी नहीं सकता। नाक में दम कर देता है। बेहूदा - बत्तमीज क़हीं
का। मगर बड़ा भारी दोस्त बनता है। ऐसों की दोस्ती क्या? मेरी बातों से उसका
दिल बहल जाता है। बस, यही दोस्ती है, मुफ़्त का मुसाहिब मिला, चलो मजे
हैं... ख़ुदा सब कुछ करे ग़रीब न करे। दूसरों की खुशामद करते-करते जबान घिस
जाती है और वह है कि चार पैसे जो जेब में हमसे जादा हैं तो मिजाज ही नहीं
मिलते। मैने आखिर एक दिन कह दिया कि मैं नौकर हूं कोई आपका गुलाम नहीं हूँ।
तो क्या आँखें निकाल कर लगा मुझे दिखाने। बस, जी में आया कि कान पकड़ क़े
एक चाँटा रसीद करूँ, साले का दिमाग ठीक हो जाय।
टप-टप-खट, टप-टप-खट, टप-टप-खट, टप-टप-टप.... ट....
इस वक्त रात को आखिर यह कौन जा रहा है? मरन है उसकी और कहीं पानी बरसने लगे
तो मजा है। लखनऊ में जब मैं था। एक सभा में मूसलाधार बारिश। अमीनाबाद का
पार्क तालाब मालूम होता था। मगर लोग हैं कि अपनी जगह से टस से मस नहीं
होते। और क्या है - जो यों सब जान पर खेलने को तैयार हैं। महात्मा गांधी के
आने का इंतजार है। अब आए-तब आए। वह आए - आए - आए। वह मचान पर महात्मा जी
पहुचे... ज़ै... ज़ै... ज़ै... ख़ामोशी।
-- मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूं कि आप लोग विदेशी कपडा पहनना बिलकुल
छोड दें। यह सेतानी गौरमेंट...
यहाँ पानी सर से होकर पैरो से परनालों की तरह बहने लगा। कुदरत मूत रही थी।
सेतानी गौरमेंट, सेतानी गौरमेंट की नानी। इस गांधी से शैतानी गौरमेंट की
नानी मरती है। हा-हा शैतानी और नानी। अकबर साहब आप तो माशाअल्ला शायर हैं।
कोई राष्ट्रीय गीत रच डालिये। यह गुल और बुलबुल की कहानियाँ कब तक। कौम की
ऐसी की तैसी, कौम ने मेरे साथ कौन-सा अच्छा सलूक किया है जो मैं गुल और
बुलबुल को छोड़ क़र कौम के आगे दुम हिलाऊँ, थिरकूँ।
मगर मैं कहता हूँ कि मैने आखिर किसी के साथ कौन सा बुरा सलूक किया कि सारा
ज़माना हाथ धोकर पीछे पडा है। मेरे कपड़े मैले हैं...। उनसे बू आती है...
बदबू सही। मेरी टोपी देख कर कहने लगा कि तेल का धब्बा पड़ गया, नई टोपी
क्यों नहीं खरीदते? क्यों खरीदूँ नई टोपी.... नई टोपी, नई टोपी, नई टोपी
में क्या मोर के पंख लगे हैं? बहुत इतरा के साथ चलते थे जो, वह जूतियाँ
चटखारते फिरते हैं आज, हम औजेताला-ए-लाल-ओ-गुहर को....
वाह...वाह क्या बेतुकापन है। जार्ज पंजुम के ताज में हमारा हिंदुस्तानी
हीरा है। ले गए चुरा के अंग्रेज, रह गये न मुँह देखते। उड ग़यी सोने की
चिडिया, रह गयी दुम हाथ में अब चाहते हैं दुम भी हाथ से निकल जाये। न दुम
छूटने पाए। शाबाश है मेरे पहलवान, लगाए जा ज़ोर। दुम छूटी तो इज्ज़त गई।
क्या कहा? इज्ज़त? इज्ज़त ले के चाटना है। सूखी रोटी और नमक खाकर क्या
बाँका जिस्म निकल आया है। फाका हो तो फिर क्या कहना, और अच्छा है फिर तो बस
इज्ज़त है और इज्ज़त के ऊपर पाक खुदा। ख़ुदा बन्दे पाक, अल्लाह बोरी ताला,
रब्बुल इज्ज़त परमेश्वर परमात्मा लाख नाम लिये जाए। जल्दी-जल्दी और जल्दी
क्या हुआ? रूहानी सुकून? बस तुम्हारे लिये यही काफ़ी है। मगर मेरे पेट में
दोजख़ है। दुआ करने से पेट नहीं भरता, पेट से हवा निकल जाती है। भूख और
जादा मालूम होने लगती है, भौं-भौं-भौं....
अब इनका भौंकना शुरू हुआ तो रात भर जारी रहेगा। मच्छर अलग सता रहे हैं।
तौबा है तौबा! एक जाली का पर्दा गर्मियों में बहुत आराम देता है। मच्छरों
से निजात मिलती है। मगर क्या निजात क्या? दिन भर की मेहनत, चीख पुकार, कड़ी
धूप में घंटों एक जगह से दूसरी जगह घूमते-घूमते जान निकल जाती है। अम्मा
कहा करती थीं अकबर धूप में मत दौड, आ मेरे पास आ के लेट बच्चे। लू लग
जायेगी तुझे बच्चे। एक मुद्दत हो गयी उसे भी। अब तो ये बातें सपना मालूम
होती हैं और मौलवी साहब हमेशा तारीफ करते थे। देखो, नालायको, अकबर की देखो,
उसे शौक है पढ़ने का। सपना, वो सारी बातें सपना मालूम होती हैं। मैं बस्ता
तख्ती लिये दौडता हुआ वापस आता था। अम्मा गोद से चिपटा लेती थी। मगर क्या
आराम था। उस वक्त भी क्या आराम था। ये सब चीज़ें मेरी किस्मत में ही नहीं।
मगर जो मुसीबत मैं बरदाश्त कर चुका शायद ही किसी को उठानी पडी हो। उसे याद
करने से फ़ायदा? खैराती अस्पताल, नर्से, डाक्टर सब नाक भौ चढाए और अम्मा का
यह हाल कि करवट लेना मुहाल और उनके उगालदान में खून के डले के डले। मालूम
होता था कि गोश्त के लोथडे हैं.... और मैं सबको ख़त पे ख़त लिखता था। वही
सब जो रिश्तेदार बनते हैं। आइये अकबर भाई, आइये, आपसे बरसों से मुलाकात
नहीं हुई। यही उन्हीं के माँ-बाप। क्या हो जाता अगर जरा और मदद कर देते।
दुनिया भर के पाखंड पर पानी की तरह दौलत बहाते हैं किसी रिश्तेदार की मदद
करते वक्त मल-मल के पैसे देते हैं और फिर अहसान जताना इतना कि खुदा की
पनाह। उस दिन मैं कहीं बाहर गया हुआ था, उन्हीं महाशय की अम्मीजान, अम्मा
को देखने आयी। मैं जब पहुँचा तो उन्हें आए चन्द मिनट हुए थे। चेहरे से टपक
रहा था कि उन्हें डर है कि जीवाणु उनके सीने में न घुस जायें मगर बीमार को
देखने का फर्ज़ है। सवाब का काम है। यह सब तो अपनी जगह। उल्टे मुझे डाँटना
शुरू कर दिया। कहाँ गये थे तुम अपनी अम्मा को छोड क़र। इनकी हालत ऐसी नहीं
कि इन्हें इस तरह छोडा जाये।
मरीज क़े मुंह पर इस तरह की बातें- मैं गुस्से से खौलने लगा। मगर मरता क्या
न करता। अस्पताल का खर्च इन्हीं लोगों से लेना था। मेरे बीवी बच्चे का
ठिकाना इन्हीं लोगों के यहाँ था... मेरी शादी का जिसने सुना विरोध किया।
मगर अम्मा बेचारी का सबसे बडा अरमान मेरी शादी थी। अकबर की दुल्हन बियाह के
लाऊँ, बस मेरी यह आखरी तमन्ना है। लोग कहते थे घर में खाने को नहीं शादी
किस बूते पर करेगी? अम्मा कहतीं थीं, खुदा रोजी देने वाला है। जब मेरा
रिश्ता तय हो गया, शादी की तारीख निश्चित हो गई, शादी का दिन आ गया, तो वही
लोग जो विरोध करते थे सब बारात में जाने को तैयार होकर आ गए। अम्मी की सारी
बची बचाई पूंजी मेहमानदारी और शादी की रस्मों में खर्च हो गई। गैस की
रौशनी, रेशमी अचकनें, पुलाव, बाजा, मसनद, हँसी-मजाक, भीड़। ख़ाने में कमी
पड ग़यी। बावर्ची ने चोरी की। बादशाह अली साहब का जूता चोरी गया।
ज़मीन-आसमान एक कर दिया। अबे उल्लू के पठ्ठे तूने जूता संभाल कर क्यों नहीं
रखा। जी हुजूर, कुसूर मेरा नहीं- मेहर का झगडा शुरू हुआ। मोज्जिल और
मोअज्जल की बहस। मुँह दिखाई की रस्म। सलाम कराई की रसम। मजाक, फूल गाली
गलौज शादी हो गई। अम्मा का अरमान पूरा हो गया...
मुहर्रम अली बेचारा चालीस साल का हो गया उसकी शादी नहीं हुई। अकबर मियां
शादी करवा दीजिये शैतान रात को बहुत सताता है। शादी खुशी। कोई हमदर्द बात
करने वाला जिसे अपने दिल की सारी बातें अकेले सुना दें। कोई औरत जिससे
मुहब्बत कर सकें। दो घड़ी हँसें, बोलें, छाती से लगाऐं, प्यार करें- अरे
मान भी जाओ मेरी जान। मेरी प्यारी, मेरी सब-कुछ। जुबान बेकार है। हाथ, पैर,
सारा जिस्म, जिस्म का एक-एक रोंगटा.. क्यों आज मुझ से नाराज़ हों, बोलो।
अरे, तुमने तो रोना शुरू कर दिया। खुदा के वास्ते बताओ, आखिर क्या बात है।
देखो, मेरी तरफ देखो तो सही। वह आई हँसीं, वह आई होंटों पर। बस अब हँस तो
दो। क्या दो दिन की ज़िन्दगी में बेकार का रोना-धोना। ओ... ओ....हो... यों
नहीं यों- और ...और जोर से मेरे सीने से लिपट जाओ ...लखनऊ के कोठों की सैर
मैने भी की है। ऐसा गरीब नहीं हूं कि दूर ही दूर से देखकर सिसकियाँ लिया
करूँ।
आइये हुज़ूर अकबर साहब यह क्या है जो मुद्दतों से हमारी तरफ रूख ही नहीं
करते। इधर कोई नई चलती हुई गज़ल कही हो तो इनायत फरमाइये। गाकर सुनाऊँ?
लीजिये पान नौश फरमाइये। ऐ, लो और लो, जरा दम तो लीजिये। नहीं आज माफ
फरमाइये, फिर कभी। मैं तो आपकी खादिम हूँ, रूपये की गुलाम हूँ। समझती है
मेरे पास टके नहीं। रूपये देखकर राजी हो गई। क्या सुनाऊँ हुजूर ...तबले की
थाप, सारंगी की आवाज़, ग़ाना-बजाना। फिर तो मैं था और वो थी और सारी रात
थी। नींद जिसे आयी हो वह काफ़िर। यह रातों का जागना, दूसरे दिन सर-दर्द,
थकावट, चिडचिडापन।
अम्मा की बीमारी के ज़माने में उनकी पलंग की पट्टी से लगा घंटों बैठा रहता
था और उनकी खाँसी। कभी-कभी तो मुझे खुद डर मालूम होने लगता, मालूम होता था
कि हर खाँसी के साथ उसके सीने में एक गहरा जख्म और पड़ ग़या। हर साँस के
साथ जैसे जख़्मों पर से किसी ने तेज़ छुरी की बाढ़ चला दी और वह घड़घड़ाहट,
जैसे किसी पुराने खंडहर में लू चलने की आवाज़ होती है। डरावनी। मुझे अपनी
माँ से डर मालूम होने लगा। इस हड्डी-चमडे़ क़े ढांचे में मेरी माँ कहाँ।
मैं उनके हाथ पर हाथ रखता, धीरे से दबाता, उनकी आधी खुली आधी बन्द आंखें
मेरी तरफ मुडतीं, उनकी नजर मुझ पर होती। उस वक्त इस जर्जर, हारे हुए मुर्दा
जिस्म भर में सिर्फ आंखें जिन्दा होतीं। उनके होंठ हिलते अम्मा-अम्मा आप
क्या कहना चाहती हैं। जी ....मैं अपना कान आपके होठों के पास ले जाता। वह
अपना हाथ उठाकर मेरे सिर पर रखतीं। मेरे बालों में उनकी उंगलियां मालूम
होता था फंसी जाती हैं। और बह छुडाना नहीं चाहतीं। बहुत देर करदी, जाओ तुम
सो रहो ...अम्मा यों ही पलंग पर लेटी हैं। एक महीना, दो महीना, तीन महीना,
एक साल, दो साल, सौ साल, हज़ार साल। मौत का फरिश्ता आया। बत्तमीज, बेहूदा
कहीं का। चल निकल यहां से भाग। अभी भाग वरना तेरी दुम काट लूंगा। डांट
पडेग़ी फिर बडे मियां की। हंसता है। क्यों खडा है सामने दांत निकाले। तेरे
फरिश्ते की ऐसी-तैसी। तेरे फरिश्ते की...।
सारी दुनिया की ऐसी-तैसी, मियां अकबर तुम्हारी ऐसी-तैसी। जरा अपनी काया पर
गौर फरमाइये। फूंक दूं तो उड ज़ाए, मुशायरों में पढेंग़े तो चिल्लाकर, बडे
बने हैं गुर्राने वाले। मुशायरों में तारीफ क्या हो जाती है कि समझते हैं
....क्या समझते हैं बेचारे, समझेंगे क्या, बीवीजान कुछ समझने भी दें। सुबह
से शाम तक शिकायत, रोना-धोना। कपडा फटा है। बच्चे की टोपी खो गयी, नई खरीद
कर ले आओ, जैसे मेरी अपनी नई टोपी है। कहां खो गयी टोपी। मैं क्या जानूं
कहां खो गयी। उसके साथ कोने-कोने में थोडी भागती फिरती हूं। मुझे काम करना
होता है, बर्तन धोना, कपडे सीना। सारे घर का काम मेरे जिम्मे है। मुझे किसी
की तरह शेर कहने की फुर्सत नहीं। सुन लो खूब अच्छी तरह से मुझे काम करना
होता है। मगर छत्ता छेड दिया, अब जान बचानी मुश्किल हुई, क्या कैची की तरह
जुबान चलती है। माशाअल्लाह, खुदा बुरी नजर से बचाए। अच्छी तरह जानते हो
मेरे पास पहनने को एक ठिकाने का कपडा नहीं है। लडक़ा तुम्हारा अलग नंगा
घूमता है। हाय अल्लाह, मेरी किस्मत फूट गयी। अब रोना शुरू होने वाला है।
मियां बेहतर यही है कि तुम चुपके से खिसक जाओ। इसमें शरमाने की क्या बात
है। तुम्हारी मर्दानगी में कोई फर्क नहीं आता, खैरियत बस इसी में है कि
खामोशी के साथ खिसक जाओ। हिजरत करने से एक रसूल की जान बची। मालूम नहीं ऐसे
मौकों पर रसूल बेचारे क्या करते थे। औरतों ने उनकी नाक में भी दम कर रखा
था। ऐ खुदा, आखिर तूने औरत क्यों पैदा की।
मुझ जैसा गरीब कमजोर आदमी तेरी इस अमानत का भार अपने कंधों पर नहीं उठा
सकता और कयामत के दिन मैं जानता हूं क्या होगा। यही औरतें वहां भी ऐसी
चीख-पुकार मचाएंगी, ऐसी-ऐसी आदाएं दिखाएंगी, वह आंखें मारेंगी कि अल्ला
मियां बेचारे खुद अपनी दाढी ख़ुजाने लगें। कयामत का दिन आखिर कैसा होगा।
सूरज आसमान के बीचो बीच आग उगलता हुआ, मई, जून की गर्मी उसके सामने क्या
होगी, गर्मी की तकलीफ तौबा-तौबा अरे तौबा। यह मच्छरों के मारे नाक में दम
नींद हराम हो गयी। पिन-पिन, चट। वह मारा। आखिर यह कम्बख्त न हों, मगर क्या
ठीक। कुछ ठीक नहीं। आखिर मच्छर और खटमल इस दुनियां में खुदा ने ही किसी वजह
से पैदा किये? पता नहीं पैगम्बरों को मच्छर खटमल काटते हैं या नहीं। कुछ
ठीक नहीं, कुछ ठीक नहीं। आपका नाम क्या है, मेरा क्या नाम है। कुछ ठीक
वाह-वाह-वाह, खुदा की इच्छा।
मियां अकबर इतना भी अपनी हद से बाहर न निकलिये। और क्या है? नदी में बह
चले। अंगूर खट्टे, आपको खटास पसंद है, पसंद से क्या होता है, चीज हाथ भी तो
लगे। मुझे घोडा गाडी पसंद है मगर करीब पहुंचा नहीं कि वह दुलत्ती पडती है
कि सर पर पांव रखकर भागना पडता है। और मुझे क्या पसंद है? मेरी जान। मगर
तुम तो मेरी जान से प्यारी हो, चलो हटो, बस रहने भी दो, तुम्हारी मीठी मीठी
बातों का मजा मैं खूब चख चुकी हूं। क्यों क्या हुआ, हुआ क्या मुझसे यह
बेगैरती नहीं सही जाती। तुम जानते हो कि दिनभर लौंडी की तरह काम करती हूं ,
किसी खिदमतगारिन को एक महीने से जादा टिकते नहीं देखा। मुझे साल भर से जादा
हो गये मगर कभी जो जरा दम मारने की फुर्सत मिली हो। अकबर की दुल्हन यह करो।
अकबर की दुल्हन वह करो...अरे-अरे क्या, हुआ क्या तुमने तो फिर रोना शुरू
किया।
मैं तुम्हारे सामने हाथ जोडती हूं.... मुझे यहां से कहीं और ले जा के रखो।
मैं शरीफजादी हूं। सबकुछ तो सह लिया, अब मुझसे गाली बर्दाश्त न होगी।
गाली-गाली, मालूम नहीं क्या गाली दी। मेरी बीवी पर गालियां पडने लगीं, या
अल्लाह, या अल्लाह। इस बेगम कम्बख्त का गला और मेरा हाथ। उसकी आंखें निकल
पडीं ज़ुबान बाहर लटकने लगी। हो जा अब इस दुनिया से रूखसत। खुदा के लिये
मुझे छोड दो। कुसूर हुआ माफ करो, अकबर मैने तुम्हारे साथ अहसान भी किये
हैं। .....अहसान तो जरूर किये हैं। अहसान का शुकि्रया अदा करता हूं , मगर
अब तुम्हारा वक्त आगया। क्या समझकर मेरी बीवी को गालियां दी थीं। बस खत्म,
आखिरी दुआ मांग लो। गला घोटने से सर काटना बेहतर है। बालों को पकड क़र सर
को उठाया जबान एक तरफ निकली पड रही है, खून टपक रहा है। आंखें घूर रही हैं
....या अल्लाह आखिर मुझे क्या हो गया। खून का समंदर। मैं खून के समंदर में
डूबा जा रहा हूं। चारों तरफ से लाल-लाल गोले मेरी तरफ बढते चले आ रहे हैं।
वह आया, वह आया। एक, दो, तीन सब मेरे सर पर आकर फटेंगे। कहीं यह दोजख़ तो
नही, मगर ये तो गोले हैं आग के शोले नहीं। मेरे तन-बदन में आग लग गयी। मेरे
रोंगटे जल रहे हैं। दौडो, अरे दौडो, खुदा के लिये दौडो । मेरी मदद करो, मैं
जला जा रहा हूं मेरे सर के बाल जलने लगे। पानी, पानी कोई सुनता क्यों नहीं?
खुदा के वास्ते मेरे सर पर पानी डालो। क्या इन जलते हुए अंगारों पर से मुझे
नंगे पैर चलना पडेग़ा? क्या मेरी आंखों में दहकते हुए लोहे की सलाखें डाली
जाएंगी? क्या मुझे खौलता हुआ पानी पीने को मिलेगा? ये शोले मेरी तरफ क्यों
बढते चले आरहे हैं? ये शोले हैं या भाले? आग के त्रिशूल। जख्म की भी तकलीफ
और जलने की भी.... या अल्लाह मुझे जहन्नुम की आग से बचा। तू रहम करने वाला
है। मैं तेरा एक नाचीज ग़ुनहगार बंदा तेरे हुज़ूर में हाथ बांधे खडा हूं
....मगर कुछ भी हो जिल्लत मुझे बर्दाश्त न होगी। मेरे बीवी पर गालियां पडने
लगीं मगर मैं क्या करूं। भूखा मरूं? हड्डियों का एक ढांचा, उसपर एक खोपडी,
ख़ट-खट करती सडक़ पर चली जारही है। अकबर साहब, आपके जिस्म का गोश्त क्या
हुआ? आपका चमडा किधर गया? जी मैं भूखा मर रहा हूं , गोश्त अपना मैनें
गिध्दों को खिला दिया, चमडे क़े तबले बनवाकर बी मुन्नी जान को तोहफे में दे
दिये। कहिये क्या खूब सूझी। आपकोर् ईष्या होती हो तो अल्लाह का नाम ले कर
मेरी पैरवी कीजिये। मैं किसी की पैरवी नहीं करता। मैं आजाद हूं, हवा की तरह
से। आजादी की आजकल अच्छी हवा चली है। पेट में आंतें कुलहो अल्लाह पढ रही
हैं और आप हैं कि आजादी के चक्कर में हैं। मौत या आजादी। ना मुझे मौत पसंद
है न अजादी। कोई मेरा पेट भर दे।
पिन, पिन, पिन, चट, हट तेरे मच्छर की ....टन टन टन ....टुन टुन टुन...
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