हिंदी का रचना संसार | ||||||||||||||||||||||||||
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बारिश का मौसम बीतने को था। पहाड़ी नदियों में पानी बढ़ गया था। संभवतः कुछ समय पूर्व ही तेज बारिश हुई थी। तलहटी में पड़े पत्थरों से टकराकर टूटती भागती लहरों का शोर भी ज्यादाही तेज था। सामने पहाड़ियों से झोकते डूबते सूरज की सिदूरी किरणें भी लहरों से होड़ लगाती भोगती जा रही थी। सागौन के मोटे तने के सहारे से बैठी, स्वर्णा को हंसी आगई। ‘‘क्या देख कर हंस रही हो’’? चंदन पता नहीं, कब से स्वर्णा के पीछे खड़ा हुआ था ‘‘अरे! कब आए’’ देखो-देखो पानी का बहाव कितना तेज है लहरें तो भागती जा रही हैं न टूटने की चिन्ता न बिखरने का डर और सूरज की सिन्दूरी किरणें ये तो लहरों से ऐसे होड़ लगा रही हैं जैसे क्रास कन्ट्री की रेस हो।’’ अचानक ही चहकती सी स्वर्णा पास रखी छड़ी देखकर उदास हो गई। ‘‘आज घूमने नहीं चलोगी?’’ ‘‘नहीं! तुम बहुत नीचे तक चले जाते हो, मैं इतना नहीं चल पाती हूँ। डर लगता है कि गिर पडूंगीं।’’ ‘‘कोशिश तो करो। देखो न पहले से कितना ज्यादा चल लेती हो। और फिर मैं इन..........कह रहा हूँ नहीं गिरोगी देखो नीचे कितने सुन्दर फूल हैं बिल्कुल तुम्हारे कमरे से मैच करते कत्थई शेड वाले पीले से फूल। इन्हें किसी सूखी टहनी पर पेन्ट कर के सजा दूगां, बोन्साई की तरह। जानती हो यह फूल कभी नहीं सूखते हमेशा ऐसे ही अपना स्वाभाविक रंग रूप में बने रहते हैं। इन्हें पेपर फ्लावर कहते हैं। तुम यह बोन्साई कम्प्यूटर टेबिल पर रख देना। हमेशा यह तुम्हें मेरी याद दिलााएगा।’’ स्वर्णा ने एक हाथ छड़ी पर कसा दूसरे हाथ से चंदन का सहारा लेकर उतरने लगी। नीचे उतरता हर कदम उसके दर्द के अहसास को बढ़ा रहा था। जब एक भी कदम बढ़ाना नामुमकिन सा लगने लगा तो वहीं पस्त होकर बैठ गई। ‘‘उठो न - कुछ ही कदम की तो दूरी है कोशिश करो। देखो कितने पास है वह फूल’’। ‘‘नहीं एक कदम भी नहीं। अब नहींे पैर के साथ छड़ी पकड़े-पकड़े हाथ में भी बहुत दर्द है।’’ ‘‘आज बाल धोये हैं क्या?’’ ‘‘हाँ? पर ऐसे क्यों पूछ रहे हो?’’ ‘‘सागौन की डालियों से छन कर आती धूप में तुम्हारे मंेहदी लगे बाल ऐसे लग रहे हैं जैसे तुम मर्गन्डी कलर करा कर आई हो। तुम्हारी रस्त कलर की चुन्नी के सुरमई किनारे ऐसे लग रहे हैं जैसे शाम गहरा गई हो। कितनी सुन्दर लग रही हो तुम। सोच रहा हूँ तुम छड़ी का सहारा छोड़ कर इन वादियों में अकेली दौड़ती फिरो और जब किसी मोटे तने या पहाड़ी के पीछे से तुम न दिखाई पड़ो तो तुम्हें ढूँढते हुए मैं जोर-जोर से चिल्लाऊँ ‘‘कहाँ हो स्वर्णा। सामने आओ, आई लव यू, आई लव यू आई लव यू’’ चंदन ने यह बात थोड़ा चिल्ला कर क्या कही कि हर दिशा प्रतिध्वनित होने लगी। स्वर्णा ने एक बार फिर छड़ी पर हाथ कसा और नीचे उतरने के प्रयत्न में नौले तक पहुँच गई। सांस फूलने लगी थी। पैरों का दर्द चेहरे पर झलक रहा था, पर आँखों में चमक थी। नौले से पानी भर कर औरतें दूर जा रही थी पानी की तलाश में आई लोमड़ी संभवतः स्वर्णा की उपस्थिति का आभास पा कर भाग गई। स्वर्णा उन्हें देख कर डर गई शरीर निष्प्राण सा हो गया। बिना शब्दों का सहारा लिये उसने चंदन की बाँह थाम ली। तथी उसे लगा घाटी पुनः प्रतिध्वनित होने लगी है कोलाहल सा मच गया है वह बिना सहारे के झूम रही है। चंदन की माँह पर उसका कसाव बढ़ गया और उसका सिर उसके कन्धे पर ढुलक गया। रात के ग्यारह बजे थे स्वर्णा को नींद नहीं आ रही थी वह कम्प्यूटर खोलकर बैठ गई वैसे भी उसकी तनहाई उसका दर्द स्क्रीन पर पेन्टिंग बन बिखर जाता था बेख्याली में चिलिया नौला का सारा मन्जर सजीव कर डाला ध्यान से दखा उसमें पानी भर कर जाती औरतें थी भागती लोमड़ी भी थी फूल पेड़ पौधे पहाड़ बस चन्दन ही कहीं नहीं था न ही प्रतिध्वनि थी। इन अनुपस्थितयों को मन मानने को तैयार ही नहीं था। जिस सन्नाटे को चीरने के प्रयत्न में कम्प्यूटर खोला था वह तो अब भी वहीं था। अब इन्टरनेट पर ‘गूगल’ खोल कर रानीखेत टाइप किया। पलक झपकते ही स्क्रीन पर हरी भरी वादियाँ, पहाड़ और उन पर माचिस नुमा ऊँचे-नीचे घर फैल गये। चिलिया नौला जूम किया वहाँ भी सब कुछ वैसा ही था बस न चंदन था न प्रतिध्वनित होती उसकी आवाज। तो क्या वह आवाज वह प्रतिध्वनि धोखा थी। फिर स्वर्णा सोचती आवाज धोखा होती तो वह नीचे तक कैसे उतार पाती वह आवाज ही तो उसे नीचे तक ले गई थी। कैसे सम्मोहन में बांध लिया उस आवाज ने। कम्प्यूटर का क्या न तो वह चंदन को ला सकता था न ही प्रतिध्वनि सुना सकता था। कहीं भावनाएँ भी चित्रित की जा सकती या सुनी जा कसती हैं। इस इलेक्ट्रानिक युग ने बहुत कुछ देकर बहुत कुछ छीन भी लिया। हम चिट्ठियों के शब्दों में जो प्यार होता था वह इ-मेल में कहाँ। स्मृतियाँ स्वर्णा को बहुत पीछे खींच ले जाती हैं बचपन तक। उसके पापा का तबादला जबलपुर हो गया था। नये-नये प्रचलन में आए मोबाइल लोगों की सम्पन्नता का साक्षी हुआ करते थे। पापा से बात करने के लिये ट्रंक काल बुक कराकर कभी-कभी प्रतीक्षा भी करनी पड़ती थी। एक बार काॅल देर से लगी और पापा प्रतीक्षा कर आफिस से साइट पर चले गये थे कितना रोई थी तब वह। माँ भी उदास हो गई थी। छोटे की फीस भरने को पैसों के लिये कहना था। चार दिन लाइन खराब होने से बात नहीं हो पाई और फीस के लिये माँ को अँगूठी बेचनी पड़ी थी। पापा किसी प्रोजेक्ट का इंचार्ज बनकर युगान्डा क्या गये कि पाँच वर्षों की वापसी तक हर कमरे में एसी टीवी लग गये सबके पास अपने-अपने मोबाइल, मेरे और छोटे के कमरे में अलग-अलग कम्प्यूटर थे। जो अकेलापन वह हम सबको दे कर, पैसा कमाने गये थे उस पैसे ने सबको अपने-अपने कमरों में कैद कर दिया। कम से कम लैण्डलाइन फोन और एक टीवी सबको एक जगह इकट्ठा तो रखता ही था। सूरज की गर्मी में हल्की सं ठंडक का एहसास होने लगा था। अखरोट के कन खजूरे जैसे फूल अखरोट की शक्ल लेने लगे थे उन्हीं को देखते हुए स्वर्णा चंदन की प्रतीक्षा कर रही थी। निराश होकर स्वयं ही छड़ी के सहारे से नीचे उतरने लगी एक-एक कदम जमा कर जितना वह नीचे उतर रही थी फूल उसे उतने ही दूर लग रहे थे। दर्द पूरे शरीर पर आधिपत्य कर रहा था। वह थक कर बैठ गई फूल देखकर फिर खड़ी हो गई सोचा किसी नई शैली में फूलों को फर्न के साथ सजाकर चंदन को देगी। फूलों को पकड़े-पकड़े ऊपर चढ़ना असंभव सा लग रहा था फूल छोड़ भी नहीं पा रही थी। उहापोह में थी कि उसे लगा घाटियाँ प्रतिध्वनित होने लगी हैं थोड़ा ऊपर चढ़कर वह डगमगाई ही थी कि चंदन ने थाम लिया ‘‘क्या करने नीचे उतर गई थी’’ ‘‘यह फूल ...............................’’, ‘‘गिर जाती तो? फूल फेंक देती और डाली पकड़ लेती?’’ ‘‘फूल अच्छे हैं न ......................’’ ‘‘यहाँ समतल से रास्ते में आगे एक आश्रम नुमा मन्दिर है हेड़ा खान’’ साफ सुथरा शान्त सा। जगह-जगह क्यारियों में रंग-बिरंगे सुन्दर से फूल बरबस ही मन मोह लेते हैं। आजकल तो फूलों की बहार सी छाई हुई है। वहाँ तुम्हें भारतीय से विदेशी भक्त अधिक मिलेंगे उनके बच्चे भी प्रार्थना स्थल पर शान्ति से प्रार्थना करते हैं। यह विदेशी यहाँ भारत में शान्ति की तलाश में योग और साधना के लिये आते हैं और हम भारतीय ................. विदेशी चका चैंध के पीछे भागते-भागते अपनी शान्ति खो बैठते हैं। ‘‘मन्दिर चलोगो न मेरे साथ?’’ ‘‘तुम छड़ी छोड़ दो भले ही मेरा सहारा ले लो तो चलता हूँ। वैसे तुम ही तो कह रही हो रास्ता समतल सा है।’’ छड़ी छोड़ कर जाना मन को आश्वस्त नहीं कर पा रहा था चन्दन का साथ मन को निश्चिन्तता के साथ खुशी भी दे रहा था। इसी उहापोह में थी कि चन्दन ने उसके हाथ से छड़ी लेकर किनारे रख अपना हाथ सहारे के लिये आगे कर दिया। छः-सात सीढ़ियाँ चढ़कर सपाट सी सड़क आ गई थी। पास ही तोते टांव-टांव कर रहे थे चिड़ियों का कलख भी उसी में सम्मिलित था। उसे यह शोर प्रतिध्वनि जैसा लग रहा था। ‘‘वह देखो वह बिडला पब्लिक स्कूल है। मैं इसी में पढ़ी हूँ तब मैं ठीक थी यही स्कूल में घुड़स्वारी के दौरान गिरने का ही परिणाम है जो मैं तिल-तिल करके झेल रही हूँ। अब लगता है मैं पहले की तरह कभी चल ही नहीं पाऊंगी। अब तो अपाहिज हूँ दया की पात्र। व्हील चेयर के साथ ही कम्प्यूटर्स में मास्टर्स किया है। फोटोशापी में विशेष योग्यता हासिल की। कितने अजीब हैं कायदे कानून इतना पढ़ कर भी नौकरी विकलांग कोटे से मिलती है मैं कर ही नहीं पाती हूँ दया की भीख जैसी लगती है।’’ ई मेल चैक करते समय स्वर्णा का मेल सामने था। चन्दन ने जैसे ही मेल खोला उसमें मन्दिर का सजीव चित्रण था। स्वर्णा ने स्वयं को बिना सहारे के चित्रित किया था। मन्दिर की बोगेनवेलिया से लदी बाहरी दीवार के सहारे से बैठी हुई वह उसके ऊपर लदी हुई सी थी। उसके हाथ में बोगेनवेलिया की पंखुरी थी, नीचे टेक्स्ट में लिखा था - यह फूल मेरे जीवन जैसे ही हैं न मन्दिर में चढ़ते हैं न बालों में सजते हैं और न ही गुलदस्ते में, बस खिलते हैं और झर जाते हैं खो देते हैं अपना अस्तित्व पैरों तले।’’ फिर थोड़ी जगह छोड़ कर फिर लिखा था - वह प्रतिध्वनि तुम्हारी ही आवाज की थी थी या पत्तों की सरसराहट या फिर मेरे कानों को धोखा। चंदन के पास उत्तर देने के लिये कुछ भी नहीं था पहाड़ी फूलों सी स्वर्णा की मादक देह गन्ध उसे भी आकर्षित करती थी। उसकी बातें उसे भी विचलित करती थी। जब वह फूलों भरी डाली सी उस पर झुक जाती तो उसका भी मन करता समेट ले उसे अपनी बाहों में और उसे वह हर सुख दे दे जो जमाने ने उससे छीन लिया है और फिर उसे उसकी नौकरी, उसकी विवशता याद दिलाने लगती और मन आत्मग्लानि से मरने लगता फिर सोच भी राह बदल देती। स्वर्णा ठीक हो रही है। कुछ ही सप्ताह में वह स्वयं चलने लगेगी, बिना सहारे के। आत्मविश्वास भी बढ़ रहा है जहाँ मेडिकल साइंस हार मानने लगती है वहाँ प्यार जीत जाता है। स्वर्णा चंदन को तलाश रही थी चंदन की एक झलक मिलते ही वह नीचे उतरने लगी अचानक छड़ी हाथ से छूट गई वह हाथ से पत्थरों का सहारा लेकर उतरने लगी। ‘‘देखो स्वर्णा तुम्हारी पसन्द के फूल - मैं ऊपर उछाल रहा हूँ पकडो। फूल पकड़ने के प्रयास में हाथ का सहारा भी छूट गया। उसने जोश में पास के तने पर धड़ टिकाया और दोनों हाथ से फूल पकड़ लिये उसी जोश में छः-सात कदम नीचे उतर कर चंदन की बाहों में ढेर हो गई। चंदन वैसे ही प्रसन्नता से भर गया जैसे एक माँ अपने बच्चे को पहला कदम बढ़ाते देखकर प्रसन्न होती है। स्वर्णा ट्रेनिंग पर जा चुकी थी उसे किसी चैनल में ग्राफिक्स एडीटर की नौकरी मिल गई थी। ट्रेनिंग खत्म होते ही उसने चंदन को मेल किया - स्वर्णा बाॅल्कनी में चेयर पर बैठी है चंदन बुरूश के फूल उसके बालों में सजा रहा है आगे टेक्सट में लिखा था अब मैं आर्थिक शारीरिक मानसिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हूँ मुझे अपनी प्रतिध्वनि बनाओगे? अगले ही पल चन्दन का मेल सामने था - ‘‘मैं रीहेबिलिटेशन सेन्टर से तुम्हारे लिये ही आया था काम खत्म हो चुका है।’’ 000000000
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