आदाब
समरेश बसु
(बांग्ला कहानी : अनुवाद : रणजीत
साहा)
कँपती ख़ामोश रात। तभी एक फ़ौज़ी गाड़ी हड़हड़ाती हुई
आयी और इस कँपकँपी को और भी झुरा गयी। इसने विक्टोरिया पार्क के गिर्द
चक्कर लगाया और गुज़र गयी।
शहर में धारा 144 लगी हुई है और कर्फ़्यू बहाल है।
हिन्दू और मुसलमान के बीच दंगा हुआ है। आमने-सामने छिड़ी इस लड़ाई में
हँसुआ, दाव, बल्लम, छड़-छुरा, लाठी, कटार और तलवार सबका खुलकर खेल हुआ है।
इतना ही नहीं, घात लगाकर वार करने वाले गिरोह गुप्त और घातक हथियार लेकर
अँधेरे में छुपे बैठे हैं।
चोर-उचक्के ओर लुटेरे भी मौके की टोह में बैठे हैं। मार-काट और मौत के आतंक
में डूबी इस अँधेरी गूँगी रात ने उनके हौंसले और इरादे को और भी बढ़ा दिया
है। किसी-किसी इलाके में मौत के डर से कातर स्त्रियों और बच्चों के चीत्कार
और हाहाकार से वहाँ का वातावरण और भी डरावना हो उठा है। और इसके ऊपर से इन
फ़ौज़ी गाडिय़ों की आवा$जाही। चारों ओर शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए
सैनिकों ने अन्धाधुन्ध गोलाबारी की है।
दो तरफ से दो गलियाँ आकर एक जगह मिल गयी हैं। इन दोनों गलियों के बीचोबीच
एक डस्टबिन औंधी पड़ी है—टूटी-फूटी हालत में। तभी घुटने के बल चलता हुआ एक
आदमी तेजी से गली के अन्दर से निकला और उसकी आड़ में छुप गया। फिर सिर
उठाकर ऊपर या इधर-उधर देखने का उसे साहस नहीं हुआ। वह कुछ देर तक मुर्दे की
तरह वहीं पड़ा रहा और चौकन्ना होकर दूर से आती हुई आहट को पकडऩे की कोशिश
करता रहा। वह कुछ समझ नहीं पाया कि यह आवाज़ कैसी है, ‘अल्ला हो अकबर’ की या
‘भारत माता की जय’ की।
अचानक डस्टबिन में थोड़ी-सी हरकत हुई। उसकी देह की एक-एक रग और नस जैसे
झनझना उठी। उसके जबड़े भींच गये और हाथ-पाँव अकड़ गये। वह इस बात के लिए
पूरी तरह तैयार हो गया कि अगला क्षण चाहे जितना भी कठोर हो, वह झेल लेगा।
कुछ क्षण इसी तरह बीते। चारों ओर इसी तरह की अपाहिज खामोशी टँगी रही।
शायद कोई कुत्ता था। उसे भागने के लिए उस आदमी ने डस्टबिन को आगे की तरफ
थोड़ा-सा खिसकाया। थोड़ी देर फिर चुप्पी रही। लेकिन यह क्या...वह फिर डुल
गयी। उसे भय के साथ-साथ थोड़ा कौतूहल भी हुआ। धीरे-धीरे उसने अपना सिर
उठाया—उधर से भी ठीक वैसा ही एक सिर हौले-हौले ऊपर उठता नज़र आया। अच्छा तो
यह कोई आदमी है।
डस्टबिन के दोनों ओर दो प्राणी बिना कोई हलचल और हरकत के, माटी के लौंदे की
तरह जमे बैठे थे। उनके दिल की धडक़नें भी जैसे थम गयी थीं। दो जोड़ी—पथरायी
ठण्डी आँखों में, धीरे-धीरे भय—आतंक—सन्देह और उत्तेजना गहराती चली गयी।
कोई किसी पर विश्वास नहीं कर रहा था। दोनों एक दूसरे की निगाह में हत्यारे
थे। आँखों-आँखों में ही, वे एक-दूसरे पर हमला करने की तैयारी में बैठे रहे।
इसी इन्तजार में दोनों की आँखों की पुतलियों से फूटती चिनगारियाँ धीरे-धीरे
ठंडी हो गयीं। हमला किसी भी तरफ से नहीं हुआ। अब दोनों के मन में यही एक
सवाल कौंध रहा था—‘यह हिन्दू है या मुसलमान?’ इस सवाल का जवाब मिलते ही, हो
न हो, कोई प्राणघातक हमला जरूर होगा। लेकिन कोई किसी से यह पूछने का साहस
जुटा नहीं पाया कि क्या पूछना चाहिए। दोनों अपनी जान के डर से, वहाँ से
कहीं भाग भी नहीं सकते थे। पता नहीं, कौन कहाँ से, हाथ में कटार लेकर टूट
पड़े।
काफी देर तक इसी सन्देह और पसोपेश में दोनों पड़े रहे और दोनों का ही सब्र
टूटा जा रहा था। आख़िर में एक ने पूछ ही लिया, ‘हिन्दू हो कि मुसलमान?’
‘‘पहले तुम बताओ’’, दूसरे ने जवाब न देकर पहले का सवाल लौटा दिया।
पहचान की पहल करने के लिए दोनों में से कोई तैयार न था। सन्देह के झूले में
दोनों का मन झूल रहा था। पहला सवाल दब गया और एक दूसरा साल उभरा। एक ने
पूछा, ‘‘घर कहाँ है?’’
‘‘बूढ़ी गंगा के इस पार...सुबइडा में। तुम्हारा?’’
‘‘चाशड़ा में...नारायण गंज के पास। करते क्या हो?’’
‘‘मेरी एक नाव है...माझी हूँ मैं...और तुम?’’
‘‘नारायण गंज के सूती मिल में काम करता हूँ।’’
फिर वही चुप्पी। हाथ को हाथ न सूझने वाले अन्धकार में दोनों की आँखें
एक-दूसरे का चेहरा टोह-टटोल रही थीं। साथ ही, यह भी देखने की कोशिश कि
दोनों ने कैसे कपड़े पहन रखे हैं। अँधेरा तो था ही, डस्टबिन की आड़ की वजह
से भी इसे देख पाने में कठिनाई हो रही थी। अचानक, बहुत पास ही कोई
हो-हल्ला-सा मचा। दोनों ही पक्ष के लोग चीख-चिल्ला रहे थे। सूत कारखाने का
मजदूर और नाव का माझी—दोनों ही थोड़ी देर के लिए विचलित हो उठे।
सूती मिल मजदूर के गले से भर्रायी-सी आवाज़ निकली, ‘लगता है किनारे पर ही
कहीं मारकाट मची है।’’
‘‘हाँ...चलो यहाँ से कहीं और चलें’’, माझी की आवाज़ भी बुझी हुई थी।
सूती-मिल मज़दूर ने रोका, ‘‘अरे नहीं भाई...उठना नहीं...अपनी जान देनी है
क्या?’’
माझी का मन एक बार फिर शंका में पड़ गया। कहीं इस आदमी की नीयत तो बुरी
नहीं। उसने कारखाने के मज़दूर की आँखों में झाँकने की कोशिश की। सूती मिल का
मजदूर भी उसे ही घूरे जा रहा था। आँखों चार हुईं तो बोला, ‘‘बैठे रहो। जैसे
पड़े हो वैसे ही!’’
माझी का दिल उसकी बात सुनकर बैठ गया। तो क्या वह उसे जाने नहीं देगा? उसकी
आँखों में सन्देह का भाव एक बार फिर गाढ़ा हो गया। उसने पूछा, ‘‘क्यों?’’
‘‘क्यों...भला क्यों...’’ सूत-मिल-मजदूर बोला, ‘‘क्या मरना चाहते हो तुम?’’
माझी को यह सुनकर कुछ अच्छा नहीं लगा। बात कही भी गयी थी बड़े बेतुके ढंग
से। उसके मन में होनी-अनहोनी जैसी कई तरह की बातें बड़ी गहराई से जड़ें
जमाकर बैठी हुई थीं। ‘‘जाऊँगा नहीं तो क्या यहीं इसी अन्धी गली के अन्दर
पड़ा रहूँगा?’’
इस आदमी की जिद देखकर मजदूर के मन में भी सन्देह पैदा हुआ। वह जैसे अँधेरे
को अपने जबड़े से चबाता हुआ बोला, ‘‘मतलब क्या है तुम्हारा...मुझे तो
तुम्हारी बात में खोट नज़र आ रही है। तुमने यह भी नहीं बताया कि तुम किसी
जाति के हो...ऐसा तो नहीं कि बाद में अपने लोगों को बुला-बटोर कर मुझ पर ही
टूट पड़ो।’’
‘‘यह क्या कह रहे हो तुम?’’ माझी स्थान और समय की नजाकत की अनदेखी करता,
गुस्से और दुख में लगभग चीखकर बोला।
‘‘मैंने ठीक ही कहा मेरे भाई...बैठे रहो। लोगों के मन की बात भी नहीं बूझ
पाते?’’
मजदूर की बातों में ऐसा कुछ तो था कि माझी को थोड़ा भरोसा हो आया।
बोला, ‘‘तुम चले गये तो मैं यहाँ अकेला थोड़े ही बैठा रहूँगा?’’
शोरगुल कहीं दूर जाकर थम गया। अँधेरी रात एक बार फिर मौत की तरह ही ख़ामोश
और ठंडी हो गयी। कुछेक क्षण मौत की प्रतीक्षा करते ही बीते जैसे। अँधेरी
गली के बीचों-बीच और औंधे पड़े डस्टबिन के दोनों ओर दो प्राणी अपनी-अपनी
मुसीबतों, घर के लोगों—माँ-बीवी और बच्चों के बारे में सोच रहे थे। क्या अब
उन लोगों तक अपनी-अपनी जान बचाकर ये दोनों किसी तरह भी, पहुँच पाएँगे। और
इसकी क्या गारण्टी है कि वे सब-के-सब जिन्दा ही मिलेंगे!—न कोई बात...न
विचार...न सर न पाँव...पता नहीं कहाँ से यह हुआ दंगा। किसी अनहोनी की तरह
सिर पर आ गिरा। अभी-अभी तो हाट-बाजार-दुकान में इतनी हँसी-खुशी, गप-बाजी और
कहकहों का सिलसिला जारी था और पलक झपकते ही मारकाट और एक-दूसरे की जान लेने
को तैयार और खून की गंगा बहाने को उतारू लोग। आखिर आदमी इतना निष्ठुर और
निर्मम हो कैसे जाता है? कैसी अभिशप्त जाति है यह? सूत-मिल-मजदूर ने एक
ठंडी उसाँस भरी। उसकी देखादेखी माझी ने भी लम्बी आह भरी।
‘बीड़ी पिओगे’, मिल-मजदूर ने जेब से एक बीड़ी बाहर निकाली और माझी की ओर
बढ़ाते हुए पूछा। माझी ने बीड़ी को हाथ में लेकर आदत के मुताबिक एक-बार
दबाया फिर दायें कान के पास ले जाकर कई बार घुमाया और फिर होंठों के बीच
ठूँस लिया। मिल-मजदूर अब भी दियासलाई की तीली जलाने की कोशिश में लगा था।
उसने पहले यह ध्यान ही नहीं दिया था कि उसका कुरता कब का भीग चुका है और
कुरते की जेब में रखी दियासलाई बुरी तरह सील चुकी है। कई-कई बार तीली घिसने
की खस-खस आवाज़ के साथ एकाध नीली चिनगारी कौंधी। अन्त में उसने मसाले से
खाली तीली को झुँझालाकर फेंक दिया।
‘‘साली माचिस की तीली भी गीली हो गयी है।’’ अब उसने एक दूसरी तीली बाहर
निकाली।
माझी अब तक अपना धीरज खो चुका था। वह मज़दूर के तनिक पास खिसक आया।
‘‘अरे जलेगी...जलेगी...लाओ मुझे दो...दो मुझे...’’ कहता हुआ माझी ने अपना
हाथ आगे बढ़ाया और मिल-मज़दूर से उसने एक तरह से माचिस छीन ली। दो-एक बार
खस...खस...की आवाज़ हुई और तीली सचमुच ही जल गयी।
‘‘सुभान अल्लाह...हो...सुलगाओ...जल्दी...हाँ!’’
मिल-मजदूर एकबारगी चौंक पड़ा। लगा कि उसने भूत देखा हो। भिंचे हुए होंठों
के बीच फँसी बीड़ी नीचे गिर पड़ी।
‘‘तो...तुम?’’
तभी हवा का एक हल्का-सा झोंका आया और तीली बुझाकर चला गया। इस बीहड़ अँधेरे
में एक बार फिर दो जोड़ी आँखें अविश्वास की उत्तेजना में बड़ी हो गयी।
कुछेक पल इसी ठंडी ख़ामोशी में बीते।
माझी भी तेजी से उठ खड़ा हुआ। बोला, ‘‘हाँ...मैं मुसलमान हूँ...तो क्या
हुआ?’’
मिल मज़दूर ने डरते-डरते जवाब दिया—‘‘कुछ भी नहीं हुआ...लेकिन...’’ उसने
माझी के बगल में रखी पोटली की ओर हाथ बढ़ाते हुए पूछा—‘‘उसमें क्या है?’’
‘‘बच्चों के लिए दो कुरते और उनकी अम्मी ख़की खातिर साड़ी। कल ईद का दिन
है...मालूम है...?’’
‘‘दूसरी कोई चीज तो नहीं...’’ सूती मिल का मज़दूर जैसे उसकी बातों पर
विश्वास नहीं कर पा रहा था।
‘‘मैं झूठ थोड़े ही कह रहा हूँ? भरोसा न हो तो देख लो’’, माझी ने अपनी
पोटली को मिल मज़दूर की तरफ बढ़ा दिया।
‘‘अरे यह बात नहीं है भाई, देखने को क्या है भला। लेकिन आजकल जैसी हवा चल
रही है...तुम देख ही रहे हो। किसी पर भरोसा किया जा सकता है? तुम ही
बताओ...?
‘‘बस यही तो रोना है...अच्छा भाई तुमने तो अपने पास ऐसा-वैसा कुछ रखा नहीं
तो?’’
‘‘भगवान की कसम खाकर कह सकता हूँ कि एक सुई तक नहीं। अपनी जान बचाकर किसी
तरह घर लौट सकूँ यही बहुत है’’, और मिल मजदूर ने अपने कुरते और घुटने के
ऊपर तक चढ़ी धोती को झाड़-झटक दिया।
दोनों अगल-बगल सटकर बैठ गये। फिर दोनों बीड़ी सुलगाकर चुपचाप सूँटा मारते
रहे और उसी में डूबे रहे।
‘‘अच्छा...’’ माझी इस तरह घुलमिल कर बातें करता रहा मानो वह घर के ही किसी
आदमी या नाते-रिश्तेदार से बतिया रहा हो।
‘‘अच्छा...तुम बता सकते हो मुझे?...अरे...माँ-बेटी और बच्चों को काट-पीटकर
क्या मिलना है?’’
सूती मिल-मज़दूर को अख़बारों में छपी ख़बरों की थोड़ी-बहुत जानकारी थी। उसने
सूखे गले से अटकते-अटकते कहा, ‘‘अब गलती तो तुम्हारे उन्हीं लीग वालों की
है। आग तो उन्होंने ही लगायी है और इस दंगे को इन्कलाब का नाम दिया है।’’
माझी ने भी मीठी चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘मैं यह सब नहीं समझता। मेरा कहना है
कि इस मारकाट से होगा क्या? दो लोग तुम्हारे मारे जाएँगे और दो
हमारे...उससे इस देश का क्या बनेगा-बिगड़ेगा?’’
‘‘अरे मैं भी तो यही कह रहा हूँ। किसको क्या मिलेगा, मिलेगा मेरा यह
घण्टा...’’ कहते हुए मिल-मजदूर ने अपना अँगूठा आगे बढ़ा दिया, ‘‘मरोगे
तुम...मारे जाएँगे हम...और हमारी बीवियाँ-बेटियाँ भीख माँगती फिरेंगी। अभी
पिछली बार के दंगे में मेरे बहनोई के जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया।
बहन विधवा हो गयी। उसकी बेटी-बेटे आकर मेरी गर्दन पर सवार हो गये हैं। अब
किसके आगे जाकर रोएँ और अपना दीदा फोड़ें। हमारे नेता सब अपनी सतमंज़िली
इमारत के ऊपर पाँव पर पाँव चढ़ाकर बस फ़रमान जारी कर देते हैं और मरने-कटने
को तो हम सब हैं ही।’’
‘‘हम जैसे आदमी ही नहीं, कुत्ते के पिल्ले हो गये हैं, वर्ना इस तरह
एक-दूसरे को काटते क्यों, एक-दूसरे पर झपटते और भौंकते ही क्यों?’’ यह कहते
हुए माझी ने उस गुस्से में, जिससे कुछ होने-जाने वाला नहीं था, अपने घुटने
को पकड़ कर काँपने लगा।
‘‘हाँ, बात ठीक ही है...।’’
‘‘हमारे बारे में कोई सोचता भी है? अब यही जो दंगा हुआ—उसमें ऐसा कौन
नाते-रिश्ते वाला है साला...जो दो ठो दाना जुटा देगा। वापस घाट जाने पर नाव
खड़ी मिलेगी भी...कोई बता सकता है... जमींदार रूपनाराइन बाबू के घर के
मुंशी हर महीने एक बार मेरी नाव पर जाते रहे, वही नइराचर पर कचहरी के काम
से। क्या बताएँ, बाबू का हाथ तो जैसे हजरत का हाथ है। पाँच रुपैया ब$ख्शीश
के और पाँच रुपैये नाव का किराया...एक ही बार में दस रुपैया। बाबू के उसी
दस ठो रुपैये में मेरे घर की महीने भर की खाना-खोराकी जुट जाती रही है। अब
कोई हिन्दू बाबू मेरी नाव पर पाँव भी रखेगा...।’’ माझी की आवाज़ बुझ गयी।
सूती कारखाने का मज़दूर कुछ कहना चाहता था लेकिन एक बारगी थम गया। भारी
बूटों की तेज आहट सुनाई पड़ रही थी। यह आवाज़ सामने वाली मुख्य सडक़ से गली
की तरफ बढ़ती हुई जान पड़ी। अब इसमें कोई सन्देह नहीं रहा। दोनों के मन में
एक शंका भरी उत्सुकता पैदा हुई और दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा।
‘‘मैं क्या करूँ अब?’’ माझी ने अपनी पोटली को काँख में दबाते हुए पूछा।
‘‘चलो भाग चलें। लेकिन जाएँ भी तो कहाँ? मैं तो इस शहर की गलियों और राहों
को ठीक से जानता तक नहीं।’’
‘‘जिस किसी तरफ भी...चलो भाग चलें। हम ख़ामख़ाह पुलिसवालों की मार क्यों खाएँ
भला! मुझे इन जालिमों का एकदम भरोसा नहीं।’’
‘‘हाँ...ठीक ही कहा तुमने। लेकिन जाओगे किस तरफ...पुलिसवाले तो बस आये ही
समझो...’’
‘‘उस तरफ’’—इस गली का जो सिरा दक्खिन की ओर निकल गया था, उसी तरफ माझी ने
इशारा किया। फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘चलो...अगर किसी तरह भी यहाँ से भाग
सकें और बादामतला घाट तक पहुँच सकें तो फिर आगे कोई डर नहीं।’’
दोनों ने अपना सिर नीचे की ओर किया और दम साधकर दौड़ पड़े सीधे पटुआटोली
वाली सडक़ की तरफ। सुनसान सडक़, बिजली की रोशनी से जगमगा रही थी। दोनों के
पाँव एक साथ रुक गये अचानक...कहीं कोई घात लगा कर बैठा तो नहीं? लेकिन यह
सब सोचने-समझने का भी समय कहाँ है किसी के पास? नुक्कड़ के पास एक बार
इधर-उधर देखकर दोनों सीधे पश्चिम की तरफ भागे। कुछ आगे बढ़े ही थे कि
उन्हें घोड़े की टाप की आवाज़ सुनाई पड़ी। उन्होंने गर्दन ऊँची कर देखा—दूर
से एक घुड़सवार इधर ही आता जान पड़ा। सोचने का समय नहीं। बायी तरफ की उस
सँकरी-सी गली में जिधर से संडास साफ करने के लिए मेहतर जाते-आते हैं—दोनों
उसी में घुस गये और सिकुड़ कर बैठ गये। थोड़ी देर बाद ही, वह घुड़सवार बड़ी
तेजी से हाथ में नंगी पिस्तौल लिये जैसे उनके सीने पर से गुज़र गया। दोनों
के सीने में घोड़े की टाप काफी देर तक बजती रही। दिल में सिहरन पैदा करने
वाली यह आवाज़ जब एकदम खामोश हो गयी तब दोनों एक बार फिर आहिस्ता-आहिस्ता
कदम बढ़ाते हुए आगे निकल पड़े।
सूती मिल मजदूर बोला—‘‘सडक़ के किनारे-किनारे चलो।’’
दोनों बुरी तरह डरे हुए थे और सडक़ के एकदम किनारे लगकर तेज़ी
से पाँव बढ़ाते चले जा रहे थे।
‘‘रुको...’’ अचानक माझी ने दबे स्वर में कहा।
‘‘क्या हुआ’’, सूत-मिल मज़दूर के पाँव रुक गये और वह बदहवास-सा दीखा।
‘‘उधर देखो...’’
माझी ने जिधर इशारा किया था, मजदूर ने उधर देखा। लगभग सौ गज की दूरी पर एक
मकान था, जिसमें रोशनी जल रही थी। नीचे की तरफ ऊँचे से बरामदे पर दस-बारह
बन्दूकधारी पहरेदार जले हुए पेड़ के तने की तरह दीख रहे थे। उनके सामने एक
अँग्रेज अधिकारी तमक-तमक कर कुछ बोल रहा था। उसके मुँह से पाइप लगी थी और
उसके बेतरतीब धुएँ में वह अपना हाथ-मुँह हिलाये चला जा रहा था। बरामदे के
नीचे घोड़े की लगाम पकड़े कोई दूसरा घुड़सवार खड़ा था। घोड़ा उत्तेजित दीख
रहा था और ज़मीन पर बार-बार अपने पाँव पटक रहा था। माझी बताने लगा, ‘‘वह रही
इसलामपुर पुलिस फाँड़ी। यहाँ से थोड़ी दूर पर फाँड़ी के पास से ही, बायीं
तरफ एक गली आगे निकल गयी है। मुझे उसी गली से बादामतला घाट की ओर जाना
होगा।’’
मजदूर का चेहरा फक हो गया। उसने घबराकर पूछा—‘‘तो फिर?’’
‘‘तभी तो मैं कह रहा था कि तुम यहीं रुको। घाट पहुँचकर तुम्हारा कोई काम
नहीं बनेगा।’’ माझी कहता रहा, ‘‘यह हिन्दुओं का इला$का है और इसलामपुर
मुसलमानों की बस्ती है। तुम कल सुबह होने पर अपने घर की ओर निकल जाना।’’
‘‘और तुम?’’
‘‘मैं तो अभी जाऊँगा’’, माझी की आवाज़ उद्वेग और आशंका से जैसे बिखरती चली
गयी, ‘‘मैं नहीं रुक सकता भाई! पिछले आठ दिनों से घर में क्या कुछ हुआ है,
पता नहीं। अल्ला-ताला ही जानते होंगे। किसी तरह उस गली में घुस पाया तो आगे
भी ठीक ही होगा। अगर नाव नहीं मिली तो बूढ़ी गंगा को तैरकर पार कर
जाऊँगा।’’
‘‘अरे नहीं मियाँ भाई...यह क्या कर रहे हो तुम?’’ मिल मजदूर ने माझी की
मैली-कुचैली कमीज़ का निचला सिरा कसकर पकडक़र फिरा कहा, ‘‘कैसे जाओगे
तुम...वहाँ...हाँ...?’’
माझी की आवाज़ अब भी उत्तेजना में काँप रही थी।
‘‘मुझे मत रोको भाई...जाने दो...तुम्हें पता नहीं शायद...कल ईद परब है।
बीवी-बच्चों ने आज ईद का नया चाँद देखा होगा। उन सबके मन में कैसे-कैसे
हौंसले होंगे...नए कपड़े पहनेंगे...अब्बाजान की पीठ पर चढ़ेंगे, गोद में
बैठेंगे। बीवी की आँखों के आँसू तो सूख ही नहीं पा रहे होंगे। मैं अपने को
रोक नहीं पा रहा भाई...मेरा मन कलप रहा है’’—माझी का गला भर आया। मिल-मज़दूर
के सीने में भी हूक-सी उठी और उसकी कसी उँगलियाँ ढीली पड़ गयीं।
‘‘और अगर वे तुम्हें पकड़ लें,’’ भय से कातर मिल-मजदूर की आवाज़ रुआँसी हो
आयी।
‘‘अरे नहीं पकड़़ पाएँगे? तुम इतने डर क्यों रहे हो?’’ और सुनो, यहीं कहीं
आसपास बैठे रहो।...मैं अब चलँू...इस रात की बात कभी भूला नहीं पाऊँगा। नसीब
में लिखा होगा तो कभी-न-कभी ज़रूर मुलाकात होगी...आदाब...’’
‘‘आदाब...मैं भी इस रात को कभी नहीं भूल पाऊँगा भाई।’’
माझी दबे कदमों से आगे बढ़ चला। मिल-मजदूर मरे हुए दिल और भरी हुई आँखों से
उसे निहारता रहा। उसके दिल की तेज धुकधुकी थम ही नहीं पा रही थी। उसके कान
पूरी तरह चौकस थे—हे भगवान...बेचारा माझी किसी विपदा में न फँस जाए।
वह थोड़ी देर तक इसी तरह दम साधे खड़ा रहा। कुछ देर बाद...उसे लगा कि माझी
अब तक निकल चुका होगा। उसके सारे घरवाले...बीवी और बच्चे कितनी खुशी से
नए-नए कपड़े पहनेंगे...खुशियाँ मनाएँगे। और बच्चे तो बाप के कलेजे का
टुकड़ा ही होते हैं। मिल-मजदूर ने एक गहरी उसाँस भरी। मियाँ माझी की बीवी
मीठे उलाहने के साथ आँखों में आँसू भरकर उसके सीने से लग जाएगी।
‘‘मौत के मुँह तक पहुँचकर भी तुम बचे हुए हो न भैया माझी?’’ मज़दूर के
होंठों पर हल्की-सी मुसकान खेल गयी। और इसके बाद माझी क्या करेगा? माझी
तब...
‘‘हाल्ट!...!’’
मिल-मजदूर का कलेजा धक-से रह गया। और साथ ही भारी बूटों के दौडऩे की आवाज़।
कौन हैं ये, जो ज़ोर-ज़ोर से चीख-चिल्ला रहे हैं?
‘‘डाकू भाग रहा है.।’’
मिल-मज़दूर ने अपनी गर्दन निकालकर देखा। पुलिस अफ़सर अपनी मुट्ठी में
रिवाल्वर खींचकर दौड़ पड़ा है। फिर पूरे इला$के की सर्द ख़ामोशी को कँपाते
हुए उसके रिवाल्वर की आवाज़ दो बार कौंधी—
गुडुम...गुडुम...म...म...म...!...!
दो बार नीली चिनगारियाँ-सी कौंधीं। मिल-मजदूर इस उत्तेजना में पता नहीं कब
अपनी एक उँगली चबाता रहा। उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। पुलिस अफ़सर पास
ही घोड़े पर सवार होकर गली के अन्दर दाख़िल हुआ। उस ‘डाकू’ की आख़िरी चीख भी
सुनी थी उसके कानों ने।
मिल-मज़दूर की बेचैन आँखों के सामने माझी के सीने का ख़ून
बहता रहा। उस खून में उसके बीवी-बच्चे बह रहे थे—उसी ख़ून
से उसकी बीवी की साड़ी-चोली लाल हो गयी थी। माझी कह रहा था—‘मैं अपने घर तक
नहीं पहुँच सका भाई। मेरे नन्हें-मुन्ने...मेरी बीवी...सभी परब के दिन आँसू
की बूढ़ी गंगा में डूब गये। दुश्मनों ने मुझे उनके पास पहुँचने नहीं
दिया...!’
(बांग्ला कहानी : अनुवाद : रणजीत
साहा)
मुख्य सूची:
विभाजन की कहानियाँ
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