| 
         
        अपनी शक़्ल 
        
        मुनीर अहमद 
        (उर्दू से 
        अनुवाद : शम्भु यादव) 
         
        ‘‘आपका गाँव?’’ 
        ‘‘गुज़राँवाला।’’ 
        ‘‘वह तो शहर है। रहने वाले कहाँ के हो?’’ 
        ‘‘अलीपुर का, जिसे अकालगढ़ भी कहते थे।’’ 
        ‘‘कोई जात भी होगी आपकी?’’ 
        ‘‘जी हाँ, शेख।’’ 
        ‘‘शेख...कश्मीरी, गल्ले जई, खोजे, कानूनगो, या मल्लीन?’’ 
        ‘‘कानूनगो।’’ 
        ‘‘और आपके बाप-दादा?’’ 
        ‘‘बाप-दादा? वे हिन्दू थे?’’ 
        ‘‘किसी बड़े-बूढ़े का नाम याद है?’’ 
        ‘‘जी हाँ, बख्तमल...यह मुग़लों के वक़्त में दीवान था। फिर मुसलमान हो गया।’’ 
        ‘‘उसके कोई बहन-भाई भी थे?’’ 
        ‘‘जी हाँ, एक भाई था उसका नाम था—तख्तमल। वह अपने तख़्त पर ही बैठा रहा। 
        मुसलमान नहीं हुआ।’’ 
        ‘‘अगर मैं तख़्तमल को गाली दूँ, तो आपको लगेगी?’’ 
        ‘‘गाली देके तो देखिए...मैं आपका मुँह तोड़ दूँगा!’’ 
        ‘‘आप बुरा मान रहे हैं, तो मैं माफी माँगता हूँ।’’ 
        ‘‘और यह साहब कहाँ से आये है?’’ 
        ‘‘कहते हैं यू.पी. से आये हैं हिजरत करके। बेचारे अपना सब कुछ वहीं छोड़ 
        आये हैं...ज़मीनें, मकान, मकानों के सेहन और सेहन में उगा हुआ इमली का 
        पेड़...’’ 
        ‘‘कोई क्लेम भी दाख़िला किया है?’’ 
        ‘‘नहीं। कहते हैं, हमें कोई क्लेम नहीं करना। मैंने कहा, आप एक बार क्लेम 
        दाख़िल तो करवाएँ, तो चिढ़-से जाते हैं और कहते हैं, मेरा क्लेम आपको महँगा 
        पड़ेगा और बहुत ही इसरार है, तो फिर मेरे क्लेम में ताजमहल, लालकिला और 
        इमली का पेड़ है। सैटलमेंट वालों से पूछ लीजिए, वे इन तीनों में से कोई एक 
        चीज़ भी नहीं दे सकते हैं।’’ 
        ‘‘तो आपने इसका क्या जवाब दिया?’’ 
        ‘‘मैंने कहा, जाने भी दीजिए अब ताजमहल को। ताजमहल तो अब तस्वीरों के अन्दर 
        हमारे घर-घर में मौजूद है...और लाल किला हमारे सीनों में आबाद है...और इमली 
        खट्टी होती है। लडक़ों-बालों के खाने की शै है और आप तो अब बड़े हो गये हैं। 
        यह एक बात और कहते हैं। कहते हैं कि जंगे-बदर और कर्बला की जंग मैंने लड़ी 
        है...’’ 
        ‘‘तो पानीपत की लड़ाई में इनके बड़े-बूढ़े किस ओर से लड़े थ? यह अरब से आये 
        हुए हैं, या यू.पी. के हैं?’’ 
        ‘‘मैंने जब पूछा, तो फरमाने लगे कि मैं दोनों जगहों से आया हूँ और फिर कहने 
        लगे, कृष्ण का पुजारी हूँ, अली का बन्दा हूँ।’’ 
        ‘‘यह क्या बात हुई?’’ 
        ‘‘यह आप ही इनसे पूछें, मैं नहीं पूछता।’’ 
        ‘‘और यह साहब, जो आपके पास बैठे हुए हैं?’’ 
        ‘‘यह गुज़रात के हैं, जात के कश्मीरी हैं। अरसा हुआ, इनके बड़े-बूढ़े कश्मीर 
        से पंजाब में आ गये और गुज़रात में आबाद हो गये।’’ 
        ‘‘क्या कहा आपने? जात के कश्मीरी?’’ 
        ‘‘आप तो चौंक पड़े! हर नस्ल में जहाँ कुछ बुरे होते हैं, वहाँ कुछ अच्छे भी 
        होते हैं यह बड़े अहले-दर्द हैं। नानक, कबीर, सूरदास, मीराबाई, शाह हुसैन 
        और ख्वाजा फरीदा के मानने वाले में से हैं।’’ 
        ‘‘कबीर और नानक से इनका क्या रिश्ता है? वे क्या कश्मीर से आये थे?’’ 
        ‘‘सब कहीं-न-कहीं से आये हुए हैं। कबीर भी कहीं से आये थे।’’ 
        ‘‘फिर तो यह नानक और कबीर के आदमी हुए!’’ 
        ‘‘कबीर इनमें से हुए और यह कबीर में से...मैं रांझे विच रांझा मैं विच हीर 
        न आखो कोई।’’ 
        ‘‘जात समझ में नहीं आती।’’ 
        ‘‘जात को पहचानने की कभी कोशिश की है?’’ 
        ‘‘कई बार मैंने सोचा है कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ? कहाँ से चला था? 
        आगे कहाँ जाना है...?’’ 
        ‘‘आप तो ख्वाहमख्वाह चक्करों में पड़ गये। जहाँ कहीं से भी चले थे, ठीक है, 
        लेकिन इस वक्त हम पाकिस्तान में हैं।’’ 
        ‘‘आप तो जैसे ख़बर सुना रहे हैं। मुझे खबरों से दिलचस्पी नहीं। मैं अख़बार 
        नहीं पढ़ा करता।’’ 
        ‘‘तो फिर क्या पढ़ते हैं?’’ 
        ‘‘अपने आपको। जब कभी यहाँ से फुरसत हुई, तो अखबार भी देख लेंगे।’’ 
        ‘‘छोडि़ए, और कोई बात करें। यह बताइए, आजकल डेरे कहाँ लगा रखे हैं?’’ 
        ‘‘बूढ़े रावी के किनारे, जो कभी जवान था। किले और शाही मसजिद के नीचे से 
        दीवानावार झाग उड़ाता बहा करता था।’’ 
        ‘‘दरिया बूढ़े भी हो जाते हैं?’’ 
        ‘‘हाँ, दरिया बूढ़े भी हो जाते हैं।’’ 
        ‘‘वह कैसे?’’ 
        ‘‘यह बात आपकी समझ में नहीं आ सकती। जाने दीजिए।’’ 
        ‘‘लेकिन बूढ़ा रावी...रावी किस तरफ से है? अब तो यह बूढ़ा है न रावी!’’ 
        ‘‘हाँ, अब तो यह बूढ़ा है न रावी! इसे दोनों ओर से बन्द कर दिया गया है। अब 
        इसमें पानी नहीं बहता।’’ 
        ‘‘आप तो इसका ज़िक्र ऐसे कर रहे हैं, जैसे आपकी इससे कोई रिश्तेदारी हो।’’ 
        ‘‘दरिया से मेरी पुरानी रिश्तेदारी है। इसने हमारी धरती को पानी दिया और 
        इसके अन्दर से हम पैदा हुए। इसका पानी पी-पी कर हम बूढ़े हुए हैं। इसके 
        पानी से हमारे अन्दर मुहब्बत की जोत जगी है। अब इसने मुँह दूसरी ओर को फेर 
        लिया है! शहर से परे-ही-परे गुजर जाता है। वह शहर में रूठ गया है...तुसी 
        जाओ सइयो नी, मेरे रांझेय नूं लियो मोड़ के।’’  
        ‘‘दरिया आपकी माँ की जगह है, या बाप का जगह?’’ 
        ‘‘यह हमारा बाप है। धरती को पानी देता है और धरती हरी हो जाती है।’’ 
        ‘‘आप फादरलैंड के कायल लगते हैं?’’ 
        ‘‘मैं सिर्फ दरिया का कायल हूँ। इसके किनारे मेरा घर है, जिसके खुले सेहन 
        की धूप में हम नहाते हैं, इस सेहन में एक पेड़ है। हर सुबह इसकी टहनियों पर 
        चिडिय़ाँ चहचहाती हैं। घर के अन्दर खालिस घी के तडक़े की खुशबू फैली होती है। 
        हम बड़े सुखी हैं।’’ 
        ‘‘हटाइए, मिट्टी डालिए इस बात पर!’’ 
        ‘‘हाँ, रहने दीजिए...गोली मारिए!’’ 
        ‘‘यह हम कहाँ आ गये हैं? यहाँ तो मैं पहली बार आया हूँ।’’ 
        ‘‘आप दर्रा $खैबर के नज़दीक खड़े हैं। यह क़बायली इला$का है जिसे गैर इलाका 
        भी कहते हैं। वह सडक़ के नीचे अलीमसजिद है। इसमें हज़रत अली के पंजे का निशान 
        है।’’ 
        ‘‘यह हजरत अली के खैबर-शिकन का पंजा है?’’ 
        ‘‘जी, कहते हैं कि हजरत अली ने इस पत्थर को हाथ से रोका था और उनके पंजे का 
        निशाना इस पर लग गया। लोग इस पंजे को चूमते हैं...आँखों से लगाते हैं। फूल 
        चढ़ाते हैं। चिराग जलाते हैं।’’ 
        ‘‘हज़रत अली यहाँ कहाँ आ गये थे?’’ 
        ‘‘ऐसी बातों को तारीख़ के हवालों से नहीं देखा करते और न ही इनमें 
        लम्बी-चौड़ी जाँच पड़ताल की जरूरत होती है। यह अकीदत (श्रद्धा) की बात है। 
        अकीदत बड़ी ज़रूरी चीज़ है, बहुत बड़ी ताक़त है। अ$कीदत के बिना सीना खाली 
        रहता है।’’ 
        ‘‘ठीक कहा है आपने। मुझे यों लगता है कि हमारे सीने इससे खाली होते जा रहे 
        हैं।’’ 
        ‘‘शायद इसीलिए हम रोज-ब-रोज अन्दर से खाली हो रहे हैं। हमारे दिल वीरान 
        कुओं की तरह होते जा रहे हैं।’’ 
        ‘‘कभी आप पागलखाने गये हैं?’’ 
        ‘‘हाँ, एब बार, मेरा एक दोस्त पागल हो गया था उसकी ख़र-ख़बर पूछने गया था।’’ 
        ‘‘आपका दोस्त पागल कैसे हो गया था?’’ 
        ‘‘वह मेरे साथ ही पढ़ा करता था। मेरा हम उम्र था। क्लास में हमेशा फस्र्ट 
        आया करता। उसके प्रोफेसर उससे कहा करते—मियाँ, तुम इतना कुछ जानते हो कि 
        तुम्हें क्लास में आने की ज़रूरत नहीं, हम तुम्हारी हाजिरी लगा दिया करेंगे। 
        लडक़ा क्या था, सोना था। बहुत ही सभ्य, सुसंस्कृत। बात सदा सोच-समझकर करता 
        था। वे लोग पूर्वी पंजाब से हिजरत करके लाहौर आये थे। घर में सभी बहन-भाई 
        पढ़े-लिखे थे। माँ भी बड़ी समझदार, सुघड़ और पढ़ी-लिखी थी। अपने बच्चों के 
        साथ बात-चीत हमेशा उर्दू में करती। मेरा दोस्त मुझे बताया करता कि बचपन में 
        उसने गली के लडक़ों से ठेठ पंजाबी में एक शब्द सुन लिया और माँ के सामने बोल 
        दिया। माँ उसे रसोईघर में ले गयी और चिमटे में एक दहकता हुआ कोयला पकड़ कर 
        बोली, ‘बोलो, फिर यह शब्द कभी मुँह से निकालोगे?’ उसने तोबा की कानों को 
        पकडक़र हाथ जोड़े और वादा किया कि आइन्दा कभी यह शब्द उसके मुँह से सुने तो 
        उसकी जबान पर कोयला रख दें। उसके बाद उसके मुँह से किसी ने पंजाबी का एक 
        फिकरा न सुना। हमेशा अँग्रे$जी या उर्दू में ही बात किया करता था।’’ 
        ‘‘फिर क्या हुआ?’’ 
        ‘‘उसने एम. ए. पास किया। उसकी बड़ी इच्छा थी कि वह किसी कॉलेज या 
        यूनिवर्सिटी में लेक्चरर लग जाएे, मगर उसकी यह इच्छा पूरी न हो सकी और व 
        किसी फर्म की अकाउंट्स ब्राँच में ऊँची तनख्वाह वाली नौकरी पर चला गया। 
        फर्म वालों ने उसके काम से खुश होकर उसे प्रशिक्षण के लिए अमरीका भेज दिया। 
        जब वह वहाँ पहुँचा, तो महीने के अन्दर-अन्दर न जाने उसे क्या हुआ कि उसका 
        दिमाग चल गया। वहाँ की यूनिवर्सिटी ने उसे वापस भेज दिया। अब गुमसुम-सा 
        रहता। पी.आई.ए. की अब इत्तिफाक से नज़र आ जाए, तो कहता है—लारी भेजी है। 
        कहते हैं, इस मुल्क से बाहर निकल...’’ 
        ‘‘बेचारी माँ ने तो रो-रोकर बुरा हाल कर रखा होगा?’’ 
        ‘‘माँ का हाल वाकई बहुत बुरा है। कहती है—अमरीका में एक मेम के घर गूंगा 
        बच्चा पैदा हुआ था और उसने टोना करके फेंका हुआ था। उस टोने पर मेरे बच्चे 
        का पाँव आ गया। उस दिन से यह कोई बात नहीं करता। एक दिन मुझे चौक में मिल 
        गया। सीने से लगाकर उसने मुझे जोर भींचा, फिर बोला, ‘‘यार, मैं आजकल बेकार 
        हूँ कोई पंजाबी ड्रामा करवाओ, उसमें हीरो का पार्ट मैं करूँगा।’’ उसे 
        पागलखाने में दाखिल करवाया गया। वहाँ पढ़े-लिखे पागलों के अनपढ़ पागलों से 
        अलग रखा जाता है। हम पहले अनपढ़ पागलों की ओर गये। पागलखाने का डॉक्टर मेरे 
        साथ था। अनपढ़ पागल मुझे देखकर तरह-तरह के इशारे करने लगे। कोई चीखें मारने 
        लगा, तो कोई हँस पड़ा। एक-आध ने हमें देखकर ताली बजायी। और जब हम पढ़े-लिखे 
        पागलों की ओर गये, तो जिस पागल से भी सामना हुआ, वह अँग्रे$जी बोलने लगा—ओ 
        यू गुड मैन दि लालटन...बुड ऐनक एण्ड ए टाई...वाट बिजनेस हैव यू हेयर...हम 
        सब डैमफूल का बच्चा है...ही ही ही ही...और उस समय मुझे खयाल आया, हमारे शहर 
        में अलीगढ़ का ग्रेजुएट काजी करीम जब पागल हो गया था, तो हर एक के साथ 
        अँग्रे$जी में ही उलटी-सीधी हाँकता रहता था।’’ 
        ‘‘यह तो आपने बड़ी अजीब बात सुनायी! ये हमारी ओर के पागल इतनी $ज्यादा 
        अँग्रे$जी क्यों बोलने लगते हैं?’’ 
        ‘‘मुझे तो यों लगता है कि हमारे अन्दर दूर किसी घुप अँधेरी कोठरी में एक 
        अँग्रेज़ छुपा बैठा है और जब वह देखता है कि अब राह साफ है, तो अपनी दोनाली 
        बन्दूक निकालकर बाहर निकल आता है?’’ ‘‘कभी आपने कोई अँग्रेज़ पागल भी 
        देखा?’’ 
        ‘‘जी हाँ, एक देखा था।’’ 
        ‘‘वह कौन-सी भाषा बोलता था?’’ 
        ‘‘वह तो अँग्रे$जी ही बोलता था।’’ 
        ‘‘अँग्रेज़ पागल हो जाए, तो भी अँग्रेज़ ही रहता है।’’ 
        ‘‘मुझे तो यों लग रहा है, जैसे आप मेरी बातें सुनकर परेशान हो रहे 
        हैं...आपका रंग क्यों उड़ा-उड़ा-सा है?’’ 
        ‘‘रंग उडऩे की बात तो है! समझ में नहीं आ रहा, हम कौन हैं? कहाँ से आये 
        हैं? कहाँ से चले थे? कहाँ जाना है? हमारी जड़ें कहाँ हैं? हम हवा में 
        क्यों लटके हुए हैं?’’ 
        ‘‘अपने अतीत के आईने में अपनी शक्ल देखिए, उसमें से आपको अपनी कोई शक़्ल नज़र 
        नहीं आती। अपनी खुदाई कीजिए। खोयी हुई ची$जों को तलाश कीजिए। अपनी शक़्ल 
        पहचानिए। कयामत के रोज़ हमारी श$क्लें बदली हुई होंगी।’’ 
        ‘‘कयामत के रोज क्या होगा?’’ 
        ‘‘उस रोज हम अपनी माँ के नाम से पुकारे जाएँगे।’’ 
        ‘‘हमारी माँ कौन है?’’ 
        ‘‘यह धरती...इसी धरती ने हमें जना है और इसी में हमें लौट के जाना है।’’ 
        (उर्दू कहानी : अनुवाद : शम्भु यादव) 
        
        मुख्य सूची: 
        विभाजन की कहानियाँ 
   |