मेरा तबादला जैसलमेर हो गया था और वहां की फिज़ा में ऐसा धीरज, इतनी
उदासी, ऐसा इत्मीनान, इस कदर अनमनापन, ऐसा 'नेचा' है कि सोचा अजीब
माहौल है यार, चलो ऐसा कुछ करें जैसा और जगह नहीं कर सकते। मसलन किसी
दिन लुंगी पहनकर दफ्तर चले जायें, या गले में ढेर सारी मालाएँ पहन
लें और लोगों के हाथ देखने लगें या दिनदहाड़े छत पर खड़े होकर नंगे
नहाएँ! एक अपेक्षाकृत बड़ी जगह से इस छोटी जगह आया था इसलिए ज़रा
ज्यादा ही मस्ती लग रही थी। और यह मस्ती वहाँ की हर चीज़ में थी। लोग
आराम से उठते, चाय पीने से पहले आधा घंटा खाली बैठते, अखबार दो घंटे
में पढ़ते, दफ्तर के लिए तैयार होने में एक घंटा लगाते, रास्ते में
कोई मिल जाता तो हाथ मिलाने के दो-दिन मिनट बाद बात शुरू करते-कहिए
क्या हाल है? और आप पहले पूछे लें कि क्या हाल है तो डेढ़ मिनट रुककर,
जैसे काफी सोचकर जवाब देते कि बस ठीक-ठाक है! किसी को कहीं जाने की
जल्दी नहीं थी। दिन था, जो घटनाविहीन-सा था, रातें थीं, जिनमें कोई
लम्बे-चौड़े सपने नहीं थे, रिश्तेदारियाँ थीं, जो बहुत सीमित थीं।
पैंसठ की लड़ाई और फैमीन के किस्से थे जो बीसियों बार सुन-सुनाये जा
चुके थे। बच्चे थे, जो अपने आप आहिस्ता-आहिस्ता बड़े हो रहे थे। और एक
सूनी-सपाट-निष्प्रयोजन-अलस जिन्दगी थी जो धीरे-धीरे रेंग रही थी।
मैं यह सर्वग्रासी शैथिल्य देखकर दंग रह गया। हे भगवान! मैंने सोचा।
हिन्दुस्तान कहाँ का कहाँ भाग रहा है, जमाना इतनी तेजी से बदल रहा है
कि किसी शहर में दो सवाल बाद जाओ तो वह पहचान में नहीं आता, खुद अपने
ही शहर में अपनी गली, अपना मकान ढूंढना पड़ता है, अपना बचपन किताबों
में पढ़ी चीज-सा लगता है, अपने लड़कपन की पवित्र गुदगुदी मोहब्बत
बचकाना और वाहियात लगती है, अपने छोटे भाई बॉस लगते हैं और पिताजी के
दोस्त पुरानी डॉक्यूमेन्ट्री फिल्मों के पात्र, अपने लिए जिन
आदर्शों-मूल्यों का वरण किया था, झूठे लगते हैं, जिन कविताओं को
गा-गाकर झूमते या रो पड़ते थे, हास्यास्पद लगती हैं.... और यहाँ?यहाँ
तो लगता है अट्ठारह सौ सत्ताावन का गदर पिछले ही साल हुआ था!
जी में आया सदियों से सोई पड़ी इस शान्त झील में बड़ा-सा भाटा फेंक
दूँ। इस उबाऊ और एकरस जिन्दगी को हब्बीड़ा मारकर हचमचा दूँ। किसी ऊँची
इमारत से नीचे कूद पडूँ, कोई सनसनीखेज अफवाह फैला दूँ.... किसी
शरीफजादी को लेकर भाग जाऊँ.... किसी भी तरह इस ऊंघते इत्मीनान को
दो-चार तमाचे जड़ दूँ और हँस पडूँ।
पर वहाँ के लोग पता नहीं किस सन-संवत् में जीते थे। वे लोग दिनकर की
'उर्वशी' को एकदम नई कविता की किताब समझते थे। कोई हवाई जहाज आ जाता
तो सब लोग अपने-अपने काम छोड़कर आसमान की तरफ ताकने लगते थे, कहो कि
राहुल सांकृत्यायन कब के मर गए तो विश्वास नहीं करते थे, राजनीति पर
कभी बात करते तो इस तरह कि अच्छा बताइये इन्दिरा गाँधी हिन्दू है या
मुसलमान?और सुबह आपका रूमाल खो जाए तो शाम को कम से कम पचास लोग पूछ
लेते-सुना है आपका रूमाल खो गया! कैसे खोया? क्या बात हो गई थी?एक
खबर बन जाती। सुना आपने?आज तो फलां साहब का रूमाल खो गया।
लेकिन इधर में जड़ता पर हावी होने की सोच ही रहा था कि जड़ता ने मुझे
घेरना-ढकना शुरू कर भी दिया। तालाब की जलकुंभी की तरह... झाड़ियों की
अमरबेल की तरह... मैदान की गाजरघास की तरह... आसमान की टिड्डियों की
तरह... या जांख की तरह... वह मुझ पर छाने लगी। मैंने चुस्ती से खुद
को नोचा, दस-पांच दण्ड-बैठकें लगायीं, पन्द्रह मिनट कदमताल किया और
हुल्लड़-प्रेमी बंदे ढूँढने निकल पड़ा। दाढ़ी जरूर बढ़ जाने दी। मरहूम
जड़ता की यादगार में। चढ़ती जवानी में मानव सभ्यता के डर से नहीं बढ़ाई
थी-हमारे यहाँ अच्छा नहीं मानते। अब बढ़ा ली। यह छोटी-सी बात हुई। यही
लेकिन आगे महत्तवपूर्ण बन गयी। इसमें दिमाग को खूब नाश्ता दिया।
फिलहाल यह कहानी मेरी (अब भूतपूर्व) उस दाढ़ी के बारे में है।
अच्छी सुनहरी-सुनहरी घनी दाढ़ी थी। कुछ तो नई जगह का अपरिचय, कुछ
मेरा उर्दू लहजा, कुछ धर्म-वर्म के प्रति अनास्था और कुछ मेरा
कम्बख्त चेहरा जो अब मजे से दढ़िया गया था-नतीजा बड़ा मजेदार हुआ। लोग
मुझे मुसलमान समझने लगे। शुरू में तो मुझे पता ही नहीं चला। जब पता
चला तो मजा आया। मैंने खंडन भी नहीं किया। क्यों करता? मुस्कुरा
दिया। लोगों का शक पुख्ता हो गया। फिर कुछ कड़वे-मीठे हादसे पेश आए।
आपके पास वक्त हो तो अर्ज करूं?
पहला हादसा तो यह हुआ कि एक दिन एक प्याऊ पर पानी पीने गया तो वहाँ
पिलाने के लिए जो डोकरी बैठी हुई थी। उसने पूछा-थें कुण हो?मतलब मैं
कौन हूँ?बड़ा दार्शनिक प्रश्न था। मैं सोच में पड़ गया कि क्या जवाब
दूँ?आदमी हूँ यह तो इसे दिख ही रहा होगा। क्या यह बताना चाहिए कि
व्यापार करता हूँ या नौकरी?लेकिन फिर यह पूछेगी कि किस विभाग में
हो?किस पद पर हो?बेसिक पे क्या?वगैरह। नहीं, यह सब नहीं पूछेगी। मुझे
पानी पिलाना है, मेरे साथ बेटी थोड़ी परणानी है! उसने झुंझलाकर फिर
पूछा-थें हो कुण?वह बाएं हाथ का पंजा पूरा फैलाकर अपना आशय समझाते
हुए बोली-हिन्दू हो या मुसलमान?ओह! तो यह बात थी। मैंने झट से
कहा-हिन्दू हूँ, और अंजुरी मांड दी। और हालांकि मैं हिन्दू था जब
पैदा हुआ, अब नहीं हूँ, पर वह मेरे उत्तार से संतुष्ट और आश्वस्त हो
गयी और मुझे पानी पिलाने लगी। अच्छा था। ठंडा और मीठा। भरपूर पानी
पीकर मैंने मुस्कराकर उसके झुर्रीदार चेहरे को देखा और उसकी मार की
रेंज से बाहर होकर उसे दुआ दी-अल्ला तेरा भला करे भाई! वह भौंचक भाव
से बड़ी देर तक मुझे गालियाँ बकती रही और कोसती रही। वे बड़े दुर्लभ और
संग्रहणीय 'कोसने' थे। एकदम टेप करने लायक। ऐसे कोसने आजकल कहाँ
सुनने को मिलते हैं?औरतें तो सबकुछ भूलती जा रही हैं।
दूसरा हादसा घर पर हुआ। घर पर मैं लुंगी-कुरता पहने बैठा रहता था और
गालिब भाई और मीर भाई की गज़लें दहाड़ता रहता था। मेरा मकान सुनारों की
गली में था। पीछे 'सिलावटों' का मोहल्ला था। सिलावट यानी पत्थर का
काम करने वाले मुसलमान मजदूर-कारीगर। पड़ोस में एक नौजवान लेक्चरर
रहते थे जो मुझे बड़े मियाँ, बर्खुरदार बगैरह कहते रहते थे। बाद में
हम साथ खाना बनाने लगे। पीछे सिलावटों के मोहल्ले की चक्की पर ही
हमारा अनाज पिसता था। वहाँ एक मीट की दुकान भी थी जहाँ से हर इतवार
हम मीट लाकर पकाते थे। वहाँ खूब सारी जवान, गद्दर और गरीब लड़कियाँ
थीं जो हमें आकर्षित करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं करती थी।
खैर.....
एक दिन मैं बैठा था। एक साहब आए। रमजान मियाँ उनका नाम है। मकानों के
ठेकेदार है। कहने लगे-शाम का क्या परोगराम है? मैंने कहा-कुछ नहीं।
बोले शाम को वाज़ है। चलना। मैंने कहा-चलो भई चले चलेंगे। ज्ञान की
बातें भी सुन लेंगे और यह भी देख लेंगे कि वह वाइज़ ससुरा होता कैसा
है, जिसकी शायरों ने इतनी बुराई की है। लेकिन शाम को वाज़ में पहुँचने
से पहले ही रमजान मियाँ अपनी बेटी के बारे में मेरी राय और वालिद
साहब का नाम-पता ठिकाना पूछने लगे। राय तो उनकी बेटी के बारे में
मेरी खैर ठीक ही थी, पर वालिद साहब का नाम सुनकर उनके हाथों के तोते
उड़ गये। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि पिताजी का नाम सुनकर कभी किसी
को इतना सदमा पहुँचेगा। बाकी उनकी बेटी पर और दूसरियों पर क्या
गुजरी, पता नहीं।
तीसरा हादसा बस के सफर में हुआ। मैं जालौर जा रहा था। बस खचाखच भरी
हुई थी। एक जगह उतरा तो कोई और साहब मेरी जगह पधार गये, तो जरा तकरार
हो गयी। एक साहब बीच-बचाव करते हुए बोले-यहाँ आ जाइये खान साहब यहां
बैठ जाइये। कोई बात नहीं। दो घंटे की तो बात ही है। मुसाफिरी में
तो...... यूंइज हाले! कई सा?
मैं अपनी हक की सीट छोड़कर इस परदुखकातर के पास आ बैठा। अब जिसने मेरी
सीट हड़पी थी वह गुर्रा रहा था और जिसने जगह दी थी, पुचकार रहा था।
हड़पू अब अपने पड़ोसियों को ज्ञान दे रहा था ये मियें तो साले गद्दार
हैं और इनमें से अधिकतर तो पाकिस्तान के जासूस होते हैं वगैरह! और
हैरानी की बात यह थी कि उसके पासवाले उसकी बातों पर बड़े भक्तिभाव से
मुंडकी हिला रहे थे। इधर मेरे हमदर्द पड़ौसी ने उन 'चुभती' बातों से
मेरा ध्यान हटाने के लिए मुझसे पूछा-कहाँ जा रहे हैं?मैंने कहा,
जालौर। बोला, कहाँ से आ रहे हैं? मैंने कहा जैसलमेर से। बोला, जालौर
में तो आप लोगों के काफी घर हैं?मैंने कहा, है। हालांकि मुझे नहीं
मालूम। मैं तो पहली बार जालौर जा रहा था। कुछ देर चुप रहकर वह फिर
बोला-बिजनेस है? मैंने कहा-हां। बोले, किस चीज का?मैंने कहा चूड़ियों
का। वह चुप हो गया।
उधर हड़पू अपने पड़ौसियों को जोधपुर के एक मियें का किस्सा सुना रहा था
जो पैंसठ के वार में रात के अंधेरे में (पाकिस्तानी हवाई जवाज को
पहचानकर) उसे टॉर्च दिखा रहा था और (अपने घर बाल-बच्चों पर) बम डालने
की दावत दे रहा था! इधर इस दयालू ने पानबहार का डिब्बा निकालकर दो
चम्मच फंकी लगायी और डिब्बा रखते-रखते फिर खोलकर मुझे पानबहार पेश
किया। एक चम्मच मैंने भी गड़प लिया। मुझे खुशी हुई कि यह साला दयालू
का बच्चा अब कुछ देर चुप रहेगा।
उधर वह हड़पू अब जोश में आ गया था। दूसरे भी उसकी हाँ में हाँ मिला
रहे थे। वह कह रहा था, अजी इन 'कटवों' ने तो देश का सत्यानाश कर दिया
है। साले चार-चार शादियाँ करते हैं और बीस-बीस बच्चे पैदा करते हैं,
ताकि एक दिन हम हिन्दू इनसे कम हो जाएँ और ये हम पर शासन कर सकें। और
गौरमेण्ट भी इन्हें कुछ नहीं कहती। इन सालों को तो निकाल बाहर करना
चाहिए। साले भिष्ट!
जी में आया उठूँ और तड़ से एक झापड़ जमा दूँ। पर मुमकिन नहीं था। अब तक
दसियों आदमी उसकी सहमति से ल्हिसड़ चुके थे और उधर एक अजीब धार्मिक
उन्माद उफन रहा था। कुछ तो फुदक रहे थे। मैं जानता था कि मैं अपनी इस
कम्बख्त दाढ़ी और लहजे के कारण मुसलमान सिध्द हो चुका हूँ। चूं-कपड़
करूँगा तो सब मिलकर ठोक देंगे। और कहूँगा कि हिन्दू हूँ... पर कह
सकूँगा?और यही मेरा ज़मीर है?नहीं, मर जाऊँगा पर यह नहीं कहूँगा। पर
मान लो कहूँ कि हिन्दू हूँ तो?पतलून खोल दूँ तो भी कोई नहीं मानेगा।
खामोशी से बैठा रहा और जहर के घूँट पीता रहा। सोचता रहा कि हे भगवान!
इन गधों को कब सद्बुध्दि आयेगी?(और उत्पीड़ितों में वह साहस... कि
इनका मुँहतोड़ जवाब दे सकें सबके बीच)
जोधपुर के मिनर्वा होटल में चाय पीते हुए ये तीनों हादसे मैंने अपने
दोस्तों को सुनाये। दाढ़ी मुंडाने के बाद। नंदू, पारस, रामबक्ष और
हबीब। चारों खूब हँसे। हँसते-हँसते अचानक हबीब खामोश हो गया और
सिगरेट जलाकर कुर्सी पर पसरकर धुएँ के छल्ले छोड़ने लगा और होटल की छत
को घूरने लगा। अपने बेहद पुरमजाक और हमेशा हँसने रहनेवाले इस दोस्त
की यह मुद्रा देखकर पारस ने पूछा-तुझे क्या हो गया बे!
स्वयंप्रकाशुर्रहमान?फिर सब हँस दिये। वह उठता हुआ बोला-बेटा नंदू!
ऐलान कर दो कि हमें कुछ नहीं हुआ। ऐलान कर दो कि हम सिर्फ पिक्चर के
बारे में सोच रहे थे। ऐलान कर दो कि हिन्दुस्तान सिर्फ तुम्हारे बाप
का नहीं है। वह हमारे बाप का भी है ध्वेंऐंग....!! धमाधम धमाधम धमाधम
धमाधम....!!
हबीब की इस नगाड़ेबाजी पर सब खूब हँसे।
पर मैं सोचता हूं, वह सिर्फ मज़ाक नहीं कर रहा था। आपका क्या खयाल है?
कहानी 'चौथा हादसा' जो सवाल उठाती है उनमें सबसे मजेदार सवाल यह है
कि आखिर वो क्या चीज है जिसके आधार पर हम सही-गलत, दोस्त-दुश्मन,
अपने-पराये, अच्छे-बुरे का निर्णय करते हैं। क्या सिर्फ एपीयरंस?...
मात्र वह जो दूर से एक नज़र में दिखाई दे रहा है? क्या सिर्फ
सुनी-सुनायी बातें?
कहानी कहती है । कहानी में नायक या वर्णनकर्ता को मात्र उसकी
दाढ़ी के आधार पर मुसलमान मान लिया जाता है। कहानी के आरम्भ में कुछ
हल्के आधार और हैं मसलन नायक का उर्दू लहज़ा, उसका मीट खाना या
गालिब-मीर की गजलें गुनगुनाना..... लेकिन शीघ्र ये आधार पीछे छूट
जाते हैं और उसकी मुस्लिम पहचान का एकमात्र आधार उसकी दाढ़ी रह जाती
है। क्या यह हास्यास्पद नहीं?क्या यह पूरी स्थिति हमारी सार्वजनिक
सोच पर एक विकट व्यंग्य नहीं?यह कौन सिखाता है कि मुसलमान है तो दाढ़ी
जरूर रखेगा, इसाई है तो हैट पहनेगा और ब्राह्मण है तो त्रिपुण्ड
लगाएगा।
लेकिन इस कॉमेडी की ट्रेजडी यह है कि हमारे समाज की वास्तविक स्थिति
यही है। अधिकांश दंगे अफवाहों के आधार पर फूटते और फैलते हैं। हौर
हमारी जनता सर्वथा निष्प्रतिरोध, प्रश्नातीत भाव से तुरन्त अफवाहों
पर विश्वास कर लेती है। यह न सिर्फ हमारे सामाजिक जीवन की असुरक्षा
अपितु एक कुशल, कारगर और प्रभावी प्रशासन तंत्र की अनुपस्थिति की ओर
भी संकेत करता है। कभी-कभी लगता है अंग्रेजों से विरासत में मिला
तंत्र अनुचित को होने से रोकने में अधिक रुचि नहीं रखता, उसकी
दिलचस्पी अनुचित होने देने और बाद में दोषी को दण्डित करने में अधिक
रहती है।
कुल मिलाकर यह कहानी साम्प्रदायिकता के एक ऐसे बीज को उजागर करती है
जिसे आज तक किसी कहानी ने नहीं किया- परस्पर अज्ञान। नहीं जानने से
किस तरह मनुष्य निहित स्वार्थी द्वारा फैलाए जा रहे झूठ का शिकार--
बल्कि समर्थ और प्रचारक बन जाता है- यह समझने की बात है। पूरी कहानी
हमारे हास्यास्पद अज्ञान की अविकल प्रदर्शनी है। शहर के लोग दिनकर की
'उर्वशी' को नई कविता की किताब समझते हैं। कहो कि राहुल सांकृत्यायन
की बहुत पहले मृत्यु हो गयी, तो विश्वास नहीं करते। पानी पिलाने वाली
बुढ़िया नहीं जानती कि कोई मुसलमान खुद को हिन्दू बताकर उसे धोखा भी
दे सकता है। मुहल्ले की लड़कियाँ नहीं जानती कि नायक हिन्दू है। नायक
नहीं जानता कि वाज कैसी होती है, रमजान मियाँ बगैर नायक के बारे में
कुछ पता किये उससे अपनी बेटी के रिश्ते की बात चलाने चल पडते हैं, बस
में एक आदमी बता रहा है कि सीमा पर मुसलमान क्या करते हैं, वह नहीं
जानता कि नायक जैसलमैर से ही आ रहा है, नायक और उसका पड़ौसी जालौर और
जालौर के मुसलमानों के बारे में बातें कर रहे हैं, जबकि दोनों जालौर
या जालौर के मुसलमानों के बारे में कुछ नहीं जानते। नायक कहता है
उसका चूड़ियों का बिजनेस है। पड़ौसी बगैर शंका संदेह इसे मान लेता है।
अज्ञान की हास्यास्पदता की टे्रजिक इंतिहा तब होती है जब नायक सोचता
है 'कहूँ कि हिन्दू हूँ तो?पतलून खोल दूँ तो भी कोई नहीं मानेगा?'
सचमुच जीवन में ऐसा ही होता है। झूठ सुनते-सुनते हम उसके इतने
अभ्यस्त हो जाते हैं, वह हमें इतना अच्छा लगने लगता है कि हम सच को
भी स्वीकार नहीं करना चाहते। सच को नए सिरे से स्वीकार करने के लिए
थोड़ा बौध्दिक आलस्य त्यागना पड़ता है।
और कमाल देखिए कि हमारे दौर के सबसे जागरूक और जिम्मेदार
नागरिक-रचनाकार-भी वास्तविकता को न केवल नहीं जानते, बल्कि उसे
हँसी-मजाक की चीज समझ रहे हैं। बुध्दिजीवियों की गगनविहारिता का एक
नमूना यह है कि वे न जात-पाँत को मानते हैं (न जानते हैं) और उनकी
नजर में मनुष्य-मनुष्य में कोई अन्तर नहीं है- हबीब को चाहे हबीब कहो
चाहे स्वयंप्रकाशुर्रहमान। लेकिन इसके पीछे छिपी कला डालने वाली
हकीकत यह है कि मानवतावादी हबीब के एलिएनेशन को नन्दू और पारस कभी
समझ ही नहीं सकते। हबीब और उसके नाते-रिश्तेदारों को पार्टीशन की और
पाकिस्तान न जाने की सजा लगातार मिल रही है, उनके बाकायदा अलग
मौहल्ले अलग 'घेट्टो' बन रहे हैं, वे जानते हैं वे इस देश को अपना या
अपने बात का कभी नहीं कह सकते। हबीब जानता है, लाख होशियार सही, उसका
बच्चा नंदू और पारस के बच्चों से पीछे रह जाएगा, वह जानता है कि
नन्दू या पारस उसकी पीड़ा को कभी नहीं समझ पायेंगे न रामबक्ष। हाँ,
स्वयं प्रकाश समझे तो शायद समझ जाये।
लेकिन हिन्दुस्तान सिर्फ तुम्हारे बाप का नहीं, हमारे बाप का भी है,
यह भी हबीब सिर्फ जोधपुर के मिनर्वा होटल में दोस्तों के बीच कह सकता
है, वह भी हँसी-मजाक की नकाब में। वह या उसके मजहब वाले यही बात सड़क
पर या संसद में हर्गिज नहीं कह सकते। नहीं कहते।
यही है चौथा हादसा।