वह थी ही ऐसी या ऐसी बनाई गई थी...यह बताने के लिए वह कई पन्ने घिसने
वाली है। डायरी के सारे पन्ने भर देने के बाद भी वह संतुष्ट नहीं थी।
उसे मालूम था एक दिन दुनिया उसे कई पन्नों में देखकर अपना नजरिया
बदलेगी। फिलहाल वह अपने दो पन्नों में रहती है। उसी में उसका घर,
उसके सपने और औरत का अपने होने को लेकर क्षमाप्रार्थी न होने का
विश्वास रहता है। चश्मे के अंदर वह अभी भी एक खूबसूरत लडक़ी थी और
चश्मे के बाहर देश की जानी-मानी पत्रकार , इसीलिए अपने बॉस यानी
संपादक को चश्मा उतारकर देखती थी। आसावरी ने आज भी बॉस को सीढिय़ों पर
देखा। कौन जाए लिफ्ट में--- वहां न तो पसीना आता है और न बॉस को
पसीना देखने का मजा। बॉस ने बिना चश्मा उतारे ही गर्दन के नीचे तक
पसीने से पहले फिसलकर पसीना देख लिया था। उसकी गंध भी महसूस की और
मुस्कुराकर अपने दो पन्ने को ‘हेलो’ कह दिया।
‘आसावरी केबिन में आना...!’
बिना कुछ कहे आसावरी मुस्कुराती हुई बॉस के पीछे हो ली। चश्मा भी लगा
लिया। अब वह पत्रकार थी। केबिन तक पहुंचने के रास्ते में जो भी स्टाफ
मिलता बॉस के रूतबे को नमस्कार करता और वह नमस्कार छन-छनकर आसावरी के
चश्मे पर चिपक रहा था। विजिटिंग कार्ड की तरह मुस्कुराहट बांटते हुए
वह बॉस के चेंबर में उनकी कुर्सी के सामने थी...चश्मा टेबल पर था।
बातें होती रही... कुछ ऑफिस की...कुछ अपनी । बातें और भी हो सकती थीं
यदि रंजना बीच में न आती। रंजना सक्सेना से थोड़ी-सी सीनियर थी
आसावरी और इस बात की थोड़ी-सी ही खुशी थी उसे बाकी खुशियों को रंजना
की चालाकियों ने निगल लिया था। सच मानें तो उसके लिए इस कहानी की
विलेन रंजना ही थी। खैर, अभी एक औपचारिक नमस्कार आसावरी को अपनी
मुस्कुराहट में मिलाकर रंजना दे चुकी थी और उसे वह मुस्कुराते हुए ले
भी चुकी थी। इस लेन-देन का बॉस ने भी मजा लिया।
यह था कहानी का एक दृश्य। जिस तरह हर आदमी की अपनी एक कहानी होती है,
उस कहानी में हजारों पात्र जुड़े होते हैं, ठीक उसी तरह इन तीनों के
अलावा भी इनकी ज़िंदगी में पात्रों की और कहानियों की कोई कमी नहीं
थी। आसावरी के लिए अपनी पत्रिका ‘पावर गेम’ के ऑफिस की कहानी उसके
अंदर बिना लिफ्ट की एक बिल्डिंग बना चुकी थी, जिसके अंतिम माले पर वह
रोज चढ़ती-उतरती थी। उसका बॉस यानी पत्रिका का प्रधान संपादक निरंजन
कपूर , वह खुद सहायक संपादक और उप संपादक रंजना सक्सेना...इसके अलावा
भी ऑफिस स्टॉफ से भरा था लेकिन आसावरी का दिल न किसी से भरा और न
किसी के लिए खाली हुआ।
‘ इस बार तो आप धमाल कर रही हैं... कवर स्टोरी भी चेंज हो गई है।’
‘हर बार तो आप ही छाई रहती हैं...’
‘अरे किस बात का ताना...आपने तो पहले से इतना पैर पसार रखा है कि
मेरी चादर हमेशा ही छोटी पड़ जाती है।’
‘अरे काहे का पैर और काहे की चादर...’
‘आप तो पहले से हैं, आपका ही पैर और आपकी ही चादर...मैं तो दो पन्ने
के लिए लिखती हूं। मेरी कई अच्छी-अच्छी स्टोरी पेंडिंग है और आप हैं
कि धड़ाधड़ स्टोरी दिए जा रही हैं।’
‘आसावरी जी...वो तो बॉस जानें और उनका काम जाने, निरंजन जी के मूड का
कोई क्या कहे...’
‘मोहतरमा, क्या आप बताएंगी कि बॉस का मूड बनता कैसे है?’
रंजना और आसावरी की आंखें मिलीं और दोनों हंसने लगे। एक की हंसी
विशेष अर्थ में और दूसरे की अर्थहीन।
अगल-बगल में था दोनों का केबिन। बिना किसी दीवार जैसी चीज के। दोनों
के चेहरे दिन भर में कई बार टकराते। दोनों भी टकराती। इस टकराहट की
आवाज पूरे ऑफिस को कभी -कभी सुनाई भी देती। अपनी सुविधानुसार चरित्र
की परिभाषा गढऩे वाले मर्दों के बीच रहने और काम करने की अभ्यस्त
दोनों ने अपने-अपने हिसाब से नजरें गढ़ ली थी। आसावरी जो खेल श्रम और
प्रतिभा से जीतना चाहती थी रंजना ने उसके लिए जीत का शॉटकट तलाश लिया
था।
रंजना जीत रही थी- लगातार!
आसावरी हार रही थी- लगातार!
‘अच्छा चलती हूं’ रंजना ने आसावरी का ध्यान तोड़ा। वह अपने कंप्यूटर
स्क्रीन पर लगी हुई थी, उसे इतना भी ध्यान नहीं रहा कि बड़े ध्यान से
रंजना उसे पढ़ रही थी।
‘ओ-के- बाय!’ आसावरी ने लंबी सांस खींची- ‘मुझे तो अभी देरी लगेगी।’
रंजना जा चुकी थी। अपने लेखन में व्यस्त सुभद्रा कुर्सी पर पीठ सीधी
करते हुए औरत और औरत होने के बारे में सोचती है...और धीमे-धीमे रंजना
को गालियां बकती है। अपना काम निबटाकर वह निरंजन के केबिन में
थी...चश्मा टेबल पर था।
‘बॉस, मेरी उत्तराखंड वाली स्टोरी का क्या कर रहे हैं आप? तीन महीने
से दबाकर रखी है। हर बार कट जाती है। आप मेरे साथ ही ऐसा क्यों करते
हैं?’ बात मजाक के लहजे में कही गई थी, जिसमें थोड़ी गंभीरता, थोड़ी
मासूमियत का रंग घुला था।
निरंजन ने अपनी आंखें आसावरी पर टिका दी।
आसावरी को लगा, कहीं बॉस को बुरा तो नहीं लग रहा। उसने अपनी आवाज में
शिकायत और गंभीरता का तत्व कम किया और अपने लहजे में मासूमियत और
इसरार का गाढ़ा रंग घोल दिया- ‘आप मेरा जरा भी ख्याल नहीं रखते।’
‘आसावरी जी, हम आप ही का ख्याल रखते हैं। आप तो सबकुछ जानते हुए बात
को कहां से कहां ले जाती हैं। अरे देखा है मैंने, इसबार भी आपके
‘बॉलीवुड स्पेशल’ स्टोरी पर ढेर सारे पत्र आए हैं। ’
‘बहलाइए मत बॉस’ इस बार चेहरे की दूरी आसावरी ने घटा दी थी। ए.सी.
में भी न जाने कहां से निरंजन ने वह गंध महसूस की। टेबल पर झुकी हुई
चश्मा उतारकर सामने बैठी थी आसावरी । वह एक आदमी, एक बॉस, एक मर्द और
एक संपादक यानी चारों को अलग-अलग हैंडिल करना जानती थी। मगर जब से
स्साली यह मोटी चमड़ीवाली आई है, बॉस के सामने उसका कोई सिक्का नहीं
चल पाता। सारे दाव खाली जा रहे हैं।
‘मेरी प्रतिभा को रोज-रोज परीक्षाओं से गुजरना होगा?’ उसे लगा यह
उसकी नहीं किसी और स्त्री के गले से निकल रही आवाज है। वह रिरिया रही
है?
‘अरे, आप तो सीरियस हो गई। हा....हा...हा...!’
बिना मतलब की हंसी आसावरी पसंद नहीं, लेकिन चूंकि यह बॉस की हंसी थी
सो वह भी हंस रही थी।
‘आज शाम क्लब में मिलें, बहुत दिन हो गए साथ ड्रिंक लिए...’ यह बॉस
का प्रस्ताव था।
‘नहीं सर, आज नहीं---फिर कभी।’
‘अरे हां, आज तो मुझे भी एक पार्टी में जाना है।’
अपने बैग के साथ निरंजन कपूर उठ चुके थे। दोनों ऑफिस से बाहर निकले।
‘अरे आसावरी जी, आप साथ होती हैं तो लिफ्ट में जाने का मजा कहां
है... चलिए सीढिय़ों से। यू नो...सीढिय़ां चढ़ते-उतरते एक खास अनुभव
होता है।’
‘जी, मुझे भी होता है।’
दोनो की आंखें मिली। इस बार बिना मतलब आसावरी ने ठहाका लगाया। निरंजन
कपूर को भी अच्छा लग रहा था। उसकी नजरें वहीं थी, जहां होनी चाहिए।
****
आसावरी अपना तीसरा पैग लगा चुकी थी। अन्य टेबल पर भी पत्रकारों की
भीड़ लगी हुई थी। लेकिन उसके साथ टेबल पर ‘ पावर गेम’ का कार्यकारी
संपादक मिलाप चतुर्वेदी था। छोटा बॉस। कभी साथी...कभी बॉस...कभी पूरा
का पूरा मर्द...कभी कुछ नहीं, अभी ड्रिंक पार्टनर, जिससे खुमारी
चढ़ते ही दिल की बात की जा सके।
‘मालूम है, वो साली नकली है।’तीसरे पैग के खुमार के बाद आसावरी के
दिल की बात जुबां पर आ गई।
‘अच्छा, रंजना का कोई डबल रोल भी है?’ मिलाप ने उसे छेड़ा।
‘देखो यार मिलाप जी, पकाओ मत। आप जानते हो मैं क्या कह रही हूं। आप
साले मर्द लोग न...एक जैसे होते हो। आपलोगों के लिए किसी भी परिभाषा
में औरत एक देह भर होती है।’
वह शुरू हो चुकी थी। चश्मा तो पहले ही बैग में डाल चुकी थी। अब वह
पूरी की पूरी लडक़ी थी, जो एक मर्द से बात कर रही थी...नशे में बहककर
नहीं बल्कि सदियों का नशा तोडऩे की कोशिश में।
‘आप भी तो उसी फुलझड़ी के साथ हो लेते हो समय आने पर। उसका नकली
चेहरा आपको भी अच्छा लगता है।’
‘आप भी तो औरत को मर्द के थर्मामीटर से मापना चाहती है।’ मिलाप ने
‘थर्मामीटर’ शब्द आराम से कहा था लेकिन आसावरी ने उसमें मर्दानी
शरारत महसूस की। दोनों दूसरी बातों में आ चुके थे। पैगों की संख्या
भी बढ़ रही थी। विषय बदल रहे थे। आसावरी ने बैग से चश्मा निकाला। अब
वो पत्रकार थी, एक औरत भी, जिसका एक घर भी था।
****
आज प्रोडक्शन का दिन था। ऑफिस में अफरा-तफरी। सब अपने-अपने काम में
व्यस्त। रचनात्मक व्यस्तता में मस्ती सिगरेट के धुएं की तरह निकल रही
थी। आसावरी आज अपने दो पन्ने की स्टोरी को डिजायनर से बनवा चुकी थी।
वह खुश थी अपने घर कभी न लौटने लायक बन चुकी लडक़ी की कहानी लिखकर।
लेकिन खुशी अचानक दिमाग के पिछली आलमारी में शिफ्ट होने लगी। उसकी
जानी-पहचानी हमराज उदासी उसके साथ थी। आखिर उदासी भी क्या करे?
आसावरी ने उसे कभी अपने दो पन्ने में जगह नहीं दी। उसकी आंखें अचानक
टिक गई रंजना पर। वह अपने काम में व्यस्त थी। उसकी काजल भरी आंखें
स्क्रीन पर टिकी थी। उंगलियां रह-रहकर की-बोर्ड पर आगे-पीछे हो रही
थीं। इधर आसावरी गौर से देख रही थी। असली और नकली के बीच की रंजना
को। एक गंभीर वेश-भूषा वाली झोलू पत्रकार बॉस के सामने अचानक औरत का
नक्शा कैसे बन जाती है, जिसमें औरत का पूरा पता साफ-साफ होता है। आज
वह रंजना को आर-पार देखना चाहती थी। उससे उम्र में छोटी, उससे देखने
में कम सुंदर।
‘साल्ला, सीढिय़ा मैं चढूं...चश्मा मैं उतारूं...बोल्ड औरत होने की
छवि मेरी और मजा लूटे ये। कमाल है...पता नहीं...हूंह!’ उसके बाद
लगातार अनाप-शनाप सोचते हुए आसावरी ने भीड़ का सामना किया।
****
आसावरी अकेले में बैठे घंटों सोचती रहती- ‘आखिर उस लडक़ी में क्या है,
जिसने मुझे अपने वजूद को लेकर आशंका, डर और असुरक्षा से भर दिया
है?’... क्या वह भी एक बार उन रास्तों पर चलकर देखे जिस रास्ते रंजना
जा रही है... और एक के बाद एक उपलब्धियां धड़ाधड़ उसके कदम चूम रहे
हैं... दफ्तर में बैठी वह उन रास्तों के बारे में सोचती रही और तमाम
पुरानी बातें रील की तरह घूमने लगीं।
पुराने ऑफिस में एक क्षेत्रीय अखबार में वह एक ऊबाऊ शाम थी। बॉस
धड़धड़ाते हुए अंदर घुसे। उसकी तरफ देखकर मुस्कुराए और पास कुर्सी
खींचकर बैठ गए। आसावरी ने देखा उनकी तरफ। आमने-सामने बैठे थे दोनों ।
बॉस ने अपनी हथेली उसकी जांधों पर फेरी— ‘एक ऑफिशियल टूर बन रहा है
हैदराबाद का, तुमको भेजना चाह रहा हूं। जाओगी?’ टूर के नाम पर हमेशा
आसावरी की लार टपकती है। इस बार भी आंखें चमकी और बुझ गई। हथेली
जांघों पर कस रही थीं और नाखून धंस रहे थे।
हैदराबाद की मीनारें धड़ से गिरीं। झटके से वह उठी और कहा— ‘मुझे
कहीं नहीं जाना। आप संजय को भेज दें!’
इस इनकार के बाद वह कई दिनों तक ऑफिस में बॉस की उपेक्षा झेलती रही।
मगर वह खुश थी कि उसकी जांघें सही-सलामत थीं।
इस नए दफ्तर में बॉस ने कोई संकेत दिया नहीं। क्या वह अपनी जांघें
उन्हें खुद ऑफर करे? क्या करे? उसने गाड़ी निकाली और इंडिया गेट से
जनपथ और कनॉट प्लेस तक कई चक्कर लगाए मगर दिलोदिमाग में उधेड़बुन
बरकरार रही। ऑफिस लौटी तो फिल्म समीक्षक पुनीत वर्मा इंतजार करते
मिले।
आसावरी फट पड़ी— ‘बहुत हो गया। मुझे भी कोई उपाय बताइए... आप मर्द
हैं। कैसे पटाते हैं। मैं ऐसा क्या करूं कि बॉस मुझे फेवर करने
लगें?’
वे मुस्कराए। दोनों हाथ आडवाणी की तर्ज पर मलते हुए उचके— ‘आप अब
नहीं कर सकतीं आसावरी जी। देर हो गई है। आपके और रंजना के बीच उम्र
का फासला है। साइज की तरह उम्र भी मायने रखती है। आप मुकाबले में मत
उतरिए।’
आसावरी के पैरों तले जमीन खिसक गई!
रास्ते में एक बड़ा पत्थर अचानक आ गिरा।
उसने बैग उठाया और दफ्तर की सीढिय़ां उतरने लगी। यह उतरन अपनी नजरों
से उतरन जाने जैसा था जिसमें सालों लगे।
*****
आसावरी कभी-कभी मन को समझाती कि हो सकता है, रंजना सचमुच प्रतिभाशाली
हो, जेनुइन हो, समझदार हो। थोड़ी देर ठीक रहती, रंजना के प्रति सहृदय
हो उठती। उसे चॉकलेट खाने को देती। उसकी प्रशंसक हो उठती। मगर जैसे
ही बॉस उसकी स्टोरी की तारीफ करते, आसावरी बौखला उठती। रंजना से बड़ा
शत्रु कोई नजर नहीं आता। फोन उठाती और अपनी किसी दोस्त को बताती।
जोर-जोर से बात करती ताकि रंजना सुन ले। और उसका मूड खराब हो जाए।
इसमें आसावरी को आंनद आता। वह फोन पर कहती, स्साली पता नहीं कितने घर
तोड़ेगी। रहती किसी के साथ है, घूमती किसी के साथ है। कोई दीन ईमान
नहीं इसका। मतलब के ढेरो यार हैं इसके। सबको धोखे में रखती है। यहां
भी नरक कर रखा है!’
रंजना को सब सुनाई पड़ता और कनखियों से आसावरी उसके तमतमाए चेहरे को
देखती और आनंदित होती। यह आनंद अवसाद में बदल जाता जब अगले दिन बॉस
किसी बहाने आसावरी की क्लास लगा देते। चपरासी भी गलती करे तो डांट
आसावरी को। कहीं कोई घटना घटे तो उसका जिम्मेवार आसावरी को मान लिया
जाता।
यह बात धीरे-धीरे आसावरी समेत दफ्तर के सभी साथी समझने लगे थे।
आज जो आसावरी ने देखा, वह सब को दिखाना चाहती थी। ऑफिस को सुनाई देने
वाली आवाज आज फुसफुसाहट में बदल गई थी। बगल में काम कर रही रंजना को
पहले आसावरी ने ही टोका।
‘क्या मैडम, क्या हो रहा था बॉस के केबिन में?’
कुछ नहीं कहा रंजना ने। कहती भी क्या? जानबूझकर आसावरी आज मोटी चमड़ी
में सूई गड़ाना चाह रही थी। मोटी चमड़ी को अपनी ताकत मानती थी रंजना।
इसी ताकत का इस्तेमाल वह आसावरी के लिए करती थी। ऑफिस में उठने वाली
तेज आवाज भी उसकी मोटी चमड़ी सोख लेती थी। उसका चेहरा थोड़ा सख्त
जरूर हुआ, लेकिन आसावरी का सामना उसकी मोटी चमड़ी कर रही थी और
आसावरी उसकी मोटी चमड़ी के पार जाकर उसको औरत होने का मतलब समझाना
चाहती थी। रंजना की ओढ़ी हुई सादगी की चमक खुरच देना चाहती थी वह।
‘क्या हुआ, बोल क्यूं नहीं रही हो?’
आक्रामक रूख देखकर इसबार संभल नहीं पायी रंजना- ‘कहना क्या चाहती हैं
आप?’
‘तुम्हारे नहीं दिखने वाली चालाकियों के बारे में कहना चाहती हूॅं।
और हां, तुम्हारी मोटी चमड़ी बहुत ज्यादा दिनों तक सच्चाई को नहीं
पचा पाएगी’
रंजना अपने काम में लग गई थी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। आसावरी भी मोटी
चमड़ी की हकीकत से लड़ते-लड़ते अपने दो पन्ने में घुसने के लिए तैयार
हो रही थी। शब्दों की चादर ओढक़र जिंदगी के चार हिस्सों में बिछी
आसावरी ने कंफ्यूटर स्क्रीन पर ही अपना एक कोना ढूंढा, जहां अपने को
ठीक से ओढऩे-बिछाने में उसे किसी रंजना का सामना न करना पड़े। उसने
अपना ब्लॉग बनाया, जहां उसे हंसने-रोने की पूरी आजादी थी।
****
सीढिय़ों पर निरंजन कपूर मिले, उसके बाद वह बॉस के केबिन में थी...
चश्मा टेबल पर था। यह और दिन की तरह रूटीन वर्क की तरह होता अगर आज
नई खबर के साथ दोनों आमने-सामने नहीं होते। दोनों एक-दूसरे का चेहरा
ओढक़र एक-दूसरे को देख रहे थे। आसावरी और निरंजन टेबल के आमने-सामने
इस तरह से बैठे थे कि दोनों का हाथ एक दूसरे से हल्का सटा हुआ था।
‘आपकी याद तो बहुत आएगी आसावरी जी। आप भी चलिए हमारे साथ।’
‘फिर यादों का क्या होगा... कुछ चीजें यादों में ही महफूज रहें तो
अच्छा है।’
बॉस के चेहरे की तिलमिलाहट देखकर आसावरी ने महसूस किया, उसका निशाना
सही लगा।... ‘लगता है अब फिर से पुराने दिन लौट आएंगे!’ इसी बीच
मिलाप चतुर्वेदी केबिन में दाखिल हुए।
‘नमस्ते सर, हैलो आसावरी जी...’
मिलाप के चेहरे पर असली रौनक और नकली उदासी की जबदस्त पुताई थी।
निरंजन और आसावरी अपनी कुर्सियों पर सीधे बैठ गए थे...ठीक से संभलना
अभी बाकी था।
निरंजन कपूर अब मिलाप से मुखातिब थे- ‘मिलाप जी आपको बधाई हो, अब
‘पावर गेम’ आपके हाथ में है।’
‘सर शुक्रिया, आपको भी बधाई हो...देश के इतने बड़े मीडिया हाऊस को
आपकी सेवाएं मिलने जा रही है।’
बात चलते-चलते ऑफिस की यादों और हंसी-ठहाकों का दौर शुरू हुआ है। एक
अलग मस्ती छा रही थी आसावरी पर भी। इसी बीच रंजना भी केबिन में
पहुंची। आज आसावरी ने पहले थोड़ी मुस्कुराहट और थोड़ी शरारत के साथ
अपना नमस्कार रंजना को दिया। दोनों की आंखें मिली। रंजना ने नमस्कार
भी बड़ी मीठी लगने वाली मुस्कुराहट के साथ लिया और निरंजन के साथ
मिलाप ने भी इस मुस्कुराहट का भरपूर मजा लिया।
मिलाप चतुर्वेदी ने रंजना के अभिवादन का जवाब भी बधाई से दिया- ‘अरे
रंजना जी, आपको ढेर सारी बधाईयां। आप भी बॉस के साथ जा रही हैं?’
आसावरी ने राहत की सांस ली- ‘चलो, जान तो छूटी मोटी चमड़ी से।
****
आज आसावरी के सामने पुरानी सीढिय़ों पर नया बॉस था। आज उसने अपना
चश्मा नहीं उतारा था। वह नए बॉस के साथ उसी पुराने केबिन में नई
उम्मीदों के साथ जा रही थी। आज सामने ‘पावर गेम’ के नए प्रधान संपादक
मिलाप चतुर्वेदी के सामने थी। उसका चश्मा आंखों में ही था। तभी केबिन
में एक खूबसूरत लडक़ी दाखिल होती है।
मिलाप परिचय करवाते हैं- ‘आसावरी जी, आप है संजना शर्मा। आपकी नई
सहयोगी। अब हमलोग पत्रिका को मिलकर बेहतर बनाएंगे’
आसावरी ने गौर से देखा अपनी नई सहयोगी को, जो रंजना की जगह पर आयी
थी।
‘अरे! यह तो वही है!’ आसावरी के होश उड़ गए। मोटी चमड़ी की गंध बॉस
के केबिन में फैल रही थी... बॉस और मोटी चमड़ी वाली लडक़ी की आंखें
अर्थपूर्ण ढंग से मिली... दोनों मुस्करा रहे थे... और बदहवास।
आसावरी को लगा, मानो उसका पांव फिसला हो और वह किसी अंधेरे, तिलिस्मी
कुएं में जा गिरी हो!