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कहानी/गीताश्री   

     अनुक्रम / परिचय

उदास पानी
गीताश्री

‘उसकी रगो में अंधेरा दौड़ता है, मेरी रगो में रोशनी...’ उसके मुंह से आखिर बोल फूटे। तभी एक तेज फेनिल लहर आई और उन्हें घुटनों तक भिगो गई। सोनाली और मलय बनर्जी समंदर के किनारे टूटे हुए नारियल के लंबे-मोटे तने पर आमने-सामने बैठे थे...

सोनल को जारवा आदिवासियों पर अध्ययन के लिए फेलोशिप मिली थी। पर्यटकों और शिकारियों के अतिक्रमण से जारवा आदिवासियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। इसकी पड़ताल करने के सिलसिले में वह पांच दिन के लिए पोर्टब्लेयर आई थी। दिल्ली से चलते समय उसके एक मित्र ने मलय का फोन नंबर देते हुए आश्वस्त किया था कि वह उसकी पूरी मदद करेगा।

सोनल पहली बार अंडमान आई थी...

आज दिनभर वे साथ घूमते रहे थे...

मलय ने समंदर के अंधेरे में खोई सोनाली का चेहरा अपनी तरफ घुमाया। आंखों में अजीब-सी कशिश और आकर्षण। वह थोड़ा अनौपचारिक हुआ और उसके बेहिचक सोनल की हथेलियां थामते हुए पूछा, ‘तुम किसके बारे में कह रही थी, अंधेरा-रोशनी...?’

‘तुम क्यों जानना चाहते हो?’ धीमे किंतु संयत स्वर में सोनाली ने पूछा।

‘मुझे लगा कि तुम कुछ परेशान हो, जिंदगी से उदास भी।’ उस आवाज में थोड़ा संशय था, थोड़ी चाहना।

‘एक दिन में ही... इतना समझ गए मुझे...’ बहुत देर बाद व्यंग्यात्मक मुस्कान सोनाली के होठों पर उभरी और लहरों की तरफ लौट गई।

‘क्यों, जरुरी है कि पूरी जिंदगी लगे समझने में। वैसे मैं समझ नहीं पाया इसलिए तो यहां लाया हूँ। समझना चाहता हूं तो इसमें बुराई क्या है? तुम हंसना तो दूर... मुस्कुराती तक नहीं हो। एकदम ठस्स सी लगती हो। तुम ऐसी क्यों हो? इतनी उदास...अपनी जिंदगी से...अपनी उपस्थिति से...अपने होने से। मुझे लगा तुमसे एकांत में बात करनी चाहिए...’ अपनी रौ में बोलता चला गया मलय...।

‘मुझे जानने के लिए तुम इस उदास और अंधेरी जगह में ले आए। कहीं डिस्को-विस्को चलते, रेस्तरां में कॉफी पीते, बार में चलते... यहां आकर तो अच्छा-खासा हंसता खेलता इंसान भी उदास हो जाए...नहीं...?’ सोनल मुस्कुराई। मलय ने नोट किया कि वह रहस्यमयी और मूडी है, आसानी से अपना दुख-दर्द बताएगी नहीं।

सोनल के साथ होते हुए मलय अपने अंदर कुछ टटोल रहा था...‘शायद यही रहस्य-भाव उसे इस स्त्री की ओर शिद्दत से खींच रहा है... ओह! उसे जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए...इस खेल में बने रहना चाहिए।’ उसने ज्यादा जिद नहीं किया और दोनों देर रात तक लहरों के शोर के बीच अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के बारे में बातें करते रहे...

लौटते हुए सोनल की नजर एक पहाड़ी टीले पर पड़ी। वहां छोटे-छोटे घर जैसे दिख रहे थे। बत्तियां भी जल रही थी...अंदर कुछ परछाईंयां डोलती हुई-सी दिख रही थी। मोटर साइकिल पर बैठते हुए सोनल ने मलय के कंधे पर हाथ रखते हुए इशारा किया, ‘वहां क्या है, कोई बस्ती...’

मलय ने चेहरा घुमाया, सोनल का चेहरा सवाल पूछने के दौरान इतना करीब आ गया था कि छू गया।

‘ऐसा कुछ भी नहीं वहां, मेरे एक परिचित हैं बाबू राव, उन्होंने इस पहाड़ी पर कई टेंट बना रखे हैं। एडवेंचर पसंद टूरिस्ट वहां नाइटहाल्ट करते हैं? आर यू इंटेरेस्टेड?’

सोनल ने चेहरा थोड़ा पीछे किया, ‘अकेले...?’

मलय चुप रहा। शायद संकोचवश।

हालांकि वहां एक रात बिताने के ख्याल से सोनल को रोमांच हो आया। मोटर साईकिल हवा से बात करने लगी और सोनल अपने नथूने में समुद्री हवा भरने लगी। अचानक स्पीड ब्रेकर पर मोटरसाईकिल उछली, मलय चीखा, ‘जोर से पकडऩा, गिरी तो मुझे दोष मत देना।’

सोनल की बाहें मलय के कमर पर कस गई... मलय और जोर से चीखा... और जोर से... आगे और बड़े-बड़े गड्डे हैं...मैडम...

बाहें और कसी... वह चीखता रहा... बाहें कसती रहीं और मोटर साइकिल की गति बढ़ती रही। मलय गा रहा था...जीवन के सफर में राही...मिलते हैं...बिछड़ जाने को...सोनल को इससे ज्यादा रोमांच जीवन में कभी नहीं मिला था...

दूसरे दिन सुबह मलय ठीक आठ बजे सोनल के गेस्ट हाउस में आ धमका। जारवा रिजर्व फारेस्ट की सैर पर जाने के लिए गाड़ी तैयार खड़ी थी। उसने आज भी अपने आफिस से छुट्टी ले ली थी। शायद वह पूरे पांच दिन सोनल के साथ घूमने का मन बना चुका था। जारवा इलाके में जाने के लिए परमिट का इंतजाम करके ही उसे लेने आया था।

‘इतनी सुबह-सुबह...?’ सोनल चौंकी।

‘अरे यार...अपना जुगाड़ है, आमार आनेक कांटेक्ट आछे...।’ मस्ती में वह अपनी भाषा में बोल रहा था और सोनल के दिमाग में कुछ और चल रहा था... जुगाड़... हुम्म... तो जनाब बड़े काम के हैं...

थोड़ी ही देर में उनकी गाड़ी जारवा रिजर्व फारेस्ट की सडक़ पर थी। दोनों तरफ घना जंगल। पहाडिय़ां। इक्का दुक्का गाडिय़ों की आवाजाही थी। सोनल एकटक जंगल के दोनों ओर अपनी खोजी नजरें गड़ाए थी। उसने बैग से अपना कैमरा निकाला तो मलय ने हाथ पकड़ लिया। सडक़ के किनारे दो जारवा औरतें खड़ी थीं। गाड़ी की तरफ देखती हुई। सोनल बेहद रोमांचित हो उठी...उसे याद आ गई जिम कार्बेट पार्क की वह सुबह...जब अचानक एक बाघिन खुले जीप के सामने आ खड़ी हुई थी...उसके मुंह से चीख निकली थी, तब ड्राइवर ने हल्के से डांटा था, मैडम जी, शोर मत मचाइए...अटैक कर देगी।’ जीप फर्राटे से धूल उड़ाती चली गई...

‘नहीं...बिल्कुल नहीं... ऐसा गजब मत करना। फोटो खिंचने की मनाही है। जंगल में चारों तरफ गार्डस हैं जो हर गाड़ी पर निगाह रखते हैं। जारवा भी हमला कर सकते हैं गाड़ी पर... ये लोग खतरनाक होते हैं और जरा भी इन्हें खतरे का आभास होता है हमला बोल देते हैं... शांत बैठी रहो...।’

मुझे फोटो भी छपवाना पड़ेगा ना...सबूत के लिए कुछ तो चाहिए...।’ सोनल रुआंसी हो गई बाघिन पीछे छूट चुकी थी।

मलय मुस्कुराया, ‘डोंट वरी...आई विल मैनेज। मैं हूँ ना...।’

‘प्लीज मलय, इतना कर दो कि मैं इन्हें करीब से देख सकूँ। इनके किसी प्रतिनिधि से बात नहीं हो पाएगी क्या?’ सोनाली गिड़गिड़ाई।

फिर मलय चीखा, ‘सोनाली देखो...वो, उधर... एक साथ पूरा ग्रूप...रेयर वियू... कम ही होता है ऐसा...देखो...ड्राइवर गाड़ी जरा धीमे करना, लेकिन उनसे दूरी बनाए रखो...।’ सोनल दंग रह गई... ढेर सारे जारवा बच्चे...बूढ़े...जवान... औरतें... लगभग आठ दस, तीर कमान लिए किनारे पर खड़े थे। गाड़ी जैसे ही करीब आई, बच्चे पीछे-पीछे दौडऩे लगे ठीक वैसे ही जैसे गांव में कोई दुल्हन खुले टमटम पर आती तो बच्चे पीछे-पीछे भागते हैं...

सोनल ने सवालिया निगाहों से मलय की तरफ देखा...

‘ये भीख मांग रहे हैं... इस रास्ते से गुजरने वाले पर्यटकों ने इन्हें अपना जूठन फेंक-फेंककर उन्हें भिखारी बना दिया है। हिंदी तो आती नहीं...बस भीख मांगने की भाषा सीख गये हैं...दे दे दे...।’ मलय का चेहरा तन गया।

ओह... सोनल ने पहली बार गौर से जारवा आदिवासियों को देखा...कुछ तो पूरी तरह नंगे थे, कुछ ने पत्तें से कमर के नीचे का हिस्सा ढंक रखा था और कुछ पुरुषों ने फटा-घिसा बरमूडा पहना हुआ था, जिसके चिथड़े कमर के नीचे लटक रहे थे।

इस सडक़ ने जारवा आदिवासियों का बेड़ा गर्क कर दिया है। शिकारी आते हैं, अपने कपड़े छोड़ जाते हैं, इन्हें दे जाते हैं...जिन्हें ये पहन रहे हैं। कपड़े धोने की कला इन्हें आती नहीं...बारिश, धूल मिट्टी से ये कपड़े उनके शरीर पर चिपक रहे हैं, गल रहे हैं... तरह-तरह की बीमारियों हो रही है...ये मर रहे हैं... खत्म हो जाएंगे एक दिन’... मलय बता रहा था और सोनल नोटबुक में नोट करती जा रही थी...।

शाम को लौटते वक्त वह रोमांचित थी। उसने आदिम सभ्यता को उसके असली रंग में देखा था बस पास से देखने की तमन्ना रह गई थी। शायद कल पूरी हो जाए। मलय उसे गेस्ट हाउस उतारकर कल आने का वादा कर चला गया। सोनल का मन हुआ उसे रोक ले... ‘ओफ ! मगर क्यों? आखिर वह क्या चाहती है?’ उसने अपने अंतर को टटोला-‘मलय से आखिर वह क्या चाहती है? और अपनी जिंदगी से?’... बिस्तर पर लेटी तो आंखों के सामने काली-काली छायाएं मंडराने लगीं। काली चमकीली, भरी-भरी छातियों वाली औरतें, लाल-लाल आंखों वाले बलिष्ठ पुरुष, इतनी चमकीली त्वचा तो काले अमेरिकनों की भी नहीं होती। उसे याद आया अपने गांव का कुम्हार बुन्नी सहनी, उसकी चाक पर बने काली मिट्टी के बड़े-बड़े घड़े धूप में सूखकर कितने चमकते थे...

‘ताप के ताए हुए दिन’ की तर्ज पर ताप के ताए हुए बदन वाले पुरुष...कैसे अचंभे की तरह घूर रहे थे...सोनल की निगाहें उनके चेहरे और देह पर गई थी, कमर के नीचे का हिस्सा देख नहीं पाई... यह मल, अचानक कहां से दिमाग में घुस आया। यह भी तो सांवला है, भरा-पूरा जिस्म, उम्र कम ही लगती है। पूछेगी... पर क्यों? क्या करना? अब चार दिन की ही तो बात है...

उसके बाद तुम कहां... हम कहां? उसे लगा कि मलय कुछ ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है उसमें, या वही ले रही हैं उसमें रुचि, पता नहीं... वह इतना वक्त क्यों नहीं दे रहा है, सब काम छोडक़र, कोई करता है क्या किसी अजनबी के लिए। खर्च भी नहीं करने देता, वह बार-बार कहती है, ‘अरे, बिल मुझे देने दो। मुझे इसके पैसे मिले है।’

मलय हंसता है, ‘तुम हमारी मेहमान हो यहां। दिल्ली आऊंगा तब तुम करना। ओके?’

सोनल चुप रह गई। दिल्ली आऊंगा... दिल्ली में इतनी फुर्सत होती है क्या किसी को? इतना वक्त कहां दे पाएगी वह । उसे तो अपने हर पल का हिसाब घर में देना होता है...’ बहुत देर हो गई आज ? ऑफिस तो छह बजे खत्म होता है? गाड़ी में कौन था साथ? कितना टाइट कपड़े पहनने लगी हो, स्लीवलेस कुर्ते मुझे पसंद नहीं, भद्दी लगती हैं बाहें, बड़ी एसएमएसबाजी हो रही है? मोबाइल छिपाया जाने लगा है..., ये मेरा घर है, मेरे पैसे से जुटाई गई सुविधाओं को तुम भोग रही हो सोनल सक्सेना... तुम्हें मेरे साथ मेरी शर्त पर रहना होगा... समझी!’

‘क्या वह सचमुच पति के जुटाए सुविधाओं की गुलाम बन गई है...क्या अब वह फोर बेडरूम के आलीशान मकान और लग्जरी गाड़ी के बगैर जिंदगी नहीं जी सकती...’ फिर वह अपने भीतर बैठी स्त्री का क्या करें? वह औरत रगों में रोशनी दौड़ती है... जिसे प्यार और अपनेपन की दरकार है... मगर क्या मलय ही वह पुरुष है, जिसका उसे इंतजार था। शायद हां... शायद नहीं...

******

‘नहीं...!’ जोर से हिचकियां लेकर रो पड़ी सोनल। उठो... हैलो...गेटअप...जंगल में चोरी-छिपे घूमना है ना, चलो उठो। चलते हैं... हड़बड़ा कर नींद से जगी सोनल। देखा सुबह के नौ बज गए हैं। धूप सिरहाने खड़ी है और मलय भी।

ओह! इसका मतलब रात भर दरवाजा खुला रह गया।

अनजाने भय से उसका दिल धडक़ उठा। मलय ताड़ गया। बोला, ‘डरो मत... यहां चोरी नहीं होती। कोई लूटेरा नहीं आता। जाएगा कहां... धरती का एक टुकड़ा और चारों तरफ काला पानी... घूमकर यहीं आना है।’

झेंपती हुई वह उठी और सीधे बाथरूम में। मलय वहीं सौफे पर पसर गया। जब वह लौटी तो चाय और नाश्ता टेबल पर उसका इंतजार कर रहे थे। उसने गौर किया, मलय चोरी-चोरी उसे देख रहा है। उसके भीतर एक अजीब-सी सिरहन हुई मगर वह अनजान बनी रही...

जंगल के हरेक प्रवेश द्वार पर चेक पोस्ट बने हुए हैं। पता नहीं मलय कैसे उसे वहां ले जाएगा। चेक पोस्ट के पास तैनात गार्ड के पास मलय गया। कान में कुछ फुसफुसाया और दूर खड़ी सोनल को इशारे से बुलाया। सोनल की आदत बात-बात पर तालियां बजाने और उछलने की थी। वह किलकारियां मारती हुई दौड़ी और मलय से लिपट गई...‘थैंक्स यार... यू आर सो ग्रेट! मजा आ गया। वाऊ...’

गार्ड कनखियों से उन्हें देखता हुआ अपने कक्ष में घुस गया।

‘बस-बस-बस... अब ज्यादा चीखो मत...जंगल है, खामोश रहना। नहीं तो जारवा मर्द तुम्हें खा जाएंगे...।’ मलय ने चुटकी ली।

सोनाली मुस्कुराई- ‘खाने दो... क्या प्रॉब्लम है?’

‘अरे मेरी ओढऩी... कहां गिर गई ?’ सोनल ने औचक पूछा। मलय जैसे होश में आया, ‘ओह! मैं ढंूढता हूँ... वैसे तुम ये व्यर्थ का बोझ क्यों ढोती हो। मुक्ति पाओ इससे। तुम वेस्टर्न ड्रेस में गार्जियस लगती हो। पटाखा... टाइप।’

सोनाली मग्न थी... किसी और दुनिया में। जारवा...जंगल... सब गायब। दिल्ली तो दिलो-दिमाग से साफ हो चुकी थी। पानी की सतह पर धरती के टुकड़े की तरह तैरते हुए वह कहां जा रही है, पता नहीं।

एक द्वीप दूसरे द्वीप की तलाश में कभी मिल नहीं पाते, बस तैरते रहते हैं।

चार दिन कैसे निकल गये पता नहीं चला। उसे अब वापस चलना था। शोध की पूरी जानकारी लगभग बटोर चुकी थी। शाम को फिर मलय उसे मोटरसाईकिल पर वैसे ही बिठाकर उसी ‘शांत’ पर ले आया। उसी टूटे हुए पेड़ के मोटे-तने पर वैसे ही बैठे थे दोनों। भीतर से उदास और भरे हुए। मलय ने सोनल का हाथ पकड़ा, ‘जाते-जाते इतना तो बता जाओ कि तुम दुखी क्यों हो! आई वांट टू नो, विलीव मी... मैं तुम्हारे साथ हूं।’

सोनल ने सिर उठाया... ‘मैं अपना दुख कभी किसी से शेयर नहीं करती। कोई दूर नहीं करता, दिल्ली जैसे शहर में तो किसी को फुर्सत नहीं। लोग पूछते हैं, ‘हाऊ आर यू... जवाब में सिर्फ इतना सुनना चाहते हैं, फाइन... कोई फाइन नहीं होता...कोई नहीं...’ बोलते-बोलते सोनल कब मलय के करीब आ गई, पता नहीं चला। समंदर की लहरें तेज उछल रही थी। अंधेरा घना था। शायद बारिश हो। मलय ने आकाश की तरफ देखा फिर सोनल को थाम लिया।

‘मैं दिल्लीवाला नहीं हूं! मैं तुम्हें सुनना चाहता हूँ... अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारा साथ देने को तैयार हूं..बोलो।’ अंधेरे में मलय की आवाज पहाड़ी झरने की तरह गूंज रही थी... सोनल सुध-बुध खो रही थी। उसके गले में डर और उत्तेजना से कंपकपाती आवाज बाहर आयी- ‘वह बहुत कंजरवेटिव है। तालिबानी मानसिकता का आदमी। बहुत मुश्किल से मैं नौकरी कर पा रही हूँ। आजादी मेरे लिए सिर्फ एक स्वप्न है... चोरी-छिपे देखा जाने वाला। दम घुटता है मेरा उसके साथ। उसने ऑक्टोपस की तरह मेरे अस्तित्व को जकड़ रखा है, वह अंधेरा है, अंधेरा... मेरे दोस्त कहते हैं, मैं जीवन से भरी हूं.. रोशनी हूं...।’ सिसक रही थी सोनल ‘मगर यह सब वह इसे क्यों बता रही है?’ सोनल ने खुद को संयत किया।

पूछ रहा था- ‘क्या तुम मेरे साथ यहां रहना पसंद करोगी? छोड़ सकती हो उसे?’ एक नई शुरूआत...

मलय के प्रस्ताव पर वह खामोश थी। उसे लगा कि जिंदगी में ऐसे प्रस्ताव जो क्षणों में लिए जाते हैं वे बाद में पूरी जिंदगी की मांग करते हैं। उसने ठहरी हुई आवाज में कहा, ‘मलय, तुम बहुत अच्छे हो मगर मैं...मैं इस समंदर के ठहरे पानियों-सी उदास पानी हूं... तुमने उदास पानी का दर्द समझा, मेरे लिए यही बहुत है। मुझे गेस्ट हाउस तक छोड़ दो, प्लीज।’

जब वह मलय की मोटरसाईकिल से उतरी, अंधेरा घिर आया था। कहां तो चार दिन चहकते हुए बेतकल्लुफी में गुजरे थे और कहां पिछले कुछ वक्तों से खामोशी हावी हो गई थी।

‘चलता हूं..’

‘हां...चलो मुझे भी कल चलना है...थैंक्स...थैंक्स फॉर एवरीथिंग...’ नम और तपी हुई दो हथेलियां मिली और जुदा हो गईं।

वह मलय की मोटरसाईकिल को ओझल होते हुए देखती रही...।

 

(शीर्ष पर वापस)

 

 

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