चंदा के तट पर बहुत-से छतनारे वृक्षों की छाया है, किन्तु मैं
प्राय: मुचकुन्द के नीचे ही जाकर टहलता, बैठता और कभी-कभी चाँदनी में
ऊँघने भी लगता। वहीं मेरा विश्राम था। वहाँ मेरी एक सहचरी भी थी,
किन्तु वह कुछ बोलती न थी। वह रहट्ठों की बनी हुई मूसदानी-सी एक
झोपड़ी थी, जिसके नीचे पहले सथिया मुसहरिन का मोटा-सा काला लडक़ा पेट
के बल पड़ा रहता था। दोनों कलाइयों पर सिर टेके हुए भगवान् की अनन्त
करुणा को प्रणाम करते हुए उसका चित्र आँखों के सामने आ जाता। मैं
सथिया को कभी-कभी कुछ दे देता था; पर वह नहीं के बराबर। उसे तो मजूरी
करके जीने में सुख था। अन्य मुसहरों की तरह अपराध करने में वह चतुर न
थी। उसको मुसहरों की बस्ती से दूर रहने में सुविधा थी, वह मुचकुन्द
के फल इकट्ठे करके बेचती, सेमर की रुई बिन लेती, लकड़ी के गट्ठे बटोर
कर बेचती पर उसके इन सब व्यापारों में कोई और सहायक न था। एक दिन वह
मर ही तो गई। तब भी कलाई पर से सिर उठा कर, करवट बदल कर अँगड़ाई लेते
हुए कलुआ ने केवल एक जँभाई ली थी। मैंने सोचा-स्नेह, माया, ममता इन
सबों की भी एक घरेलू पाठशाला है, जिसमें उत्पन्न होकर शिशु धीरे-धीरे
इनके अभिनय की शिक्षा पाता है। उसकी अभिव्यक्ति के प्रकार और विशेषता
से वह आकर्षक होता है सही, किन्तु, माया-ममता किस प्राणी के हृदय में
न होगी! मुसहरों को पता लगा-वे कल्लू को ले गये। तब से इस स्थान की
निर्जनता पर गरिमा का एक और रंग चढ़ गया।
मैं अब भी तो वहीं पहुँच जाता हूँ। बहुत घूम-फिर कर भी जैसे मुचकुन्द
की छाया की ओर खिंच जाता हूँ। आज के प्रभात में कुछ अधिक सरसता थी।
मेरा हृदय हलका-हलका सा हो रहा था। पवन में मादक सुगन्ध और शीतलता
थी। ताल पर नाचती हुई लाल-लाल किरनें वृक्षों के अन्तराल से बड़ी
सुहावनी लगती थीं। मैं परजाते के सौरभ में अपने सिर को धीरे-धीरे
हिलाता हुआ कुछ गुनगुनाता चला जा रहा था। सहसा मुचकुन्द के नीचे मुझे
धुँआ और कुछ मनुष्यों की चहल-पहल का अनुमान हुआ। मैं कुतूहल से उसी
ओर बढऩे लगा।
वहाँ कभी एक सराय भी थी, अब उसका ध्वंस बच रहा था। दो-एक कोठरियाँ
थीं, किन्तु पुरानी प्रथा के अनुसार अब भी वहीं पर पथिक ठहरते।
मैंने देखा कि मुचकुन्द के आस-पास दूर तक एक विचित्र जमावड़ा है।
अद्भुत शिविरों की पाँति में यहाँ पर कानन-चरों, बिना घरवालों की
बस्ती बसी हुई है।
सृष्टि को आरम्भ हुए कितना समय बीत गया, किन्तु इन अभागों को कोई
पहाड़ की तलहटी या नदी की घाटी बसाने के लिए प्रस्तुत न हुई और न
इन्हें कहीं घर बनाने की सुविधा ही मिली। वे आज भी अपने चलते-फिरते
घरों को जानवरों पर लादे हुए घूमते ही रहते हैं! मैं सोचने लगा-ये
सभ्य मानव-समाज के विद्रोही हैं, तो भी इनका एक समाज है। सभ्य संसार
के नियमों को कभी न मानकर भी इन लोगों ने अपने लिए नियम बनाये हैं।
किसी भी तरह, जिनके पास कुछ है, उनसे ले लेना और स्वतन्त्र होकर
रहना। इनके साथ सदैव आज के संसार के लिए विचित्रतापूर्ण संग्रहालय
रहता है। ये अच्छे घुड़सवार और भयानक व्यापारी हैं। अच्छा, ये लोग
कठोर परिश्रमी और संसार-यात्रा के उपयुक्त प्राणी हैं, फिर इन लोगों
ने कहीं बसना, घर बनाना क्यों नहीं पसन्द किया?-मैं मन-ही-मन सोचता
हुआ धीरे-धीरे उनके पास होने लगा। कुतूहल ही तो था। आज तक इन लोगों
के सम्बन्ध में कितनी ही बातें सुनता आया था। जब निर्जन चंदा का ताल
मेरे मनोविनोद की सामग्री हो सकता है, तब आज उसका बसा हुआ तट मुझे
क्यों न आकर्षित करता? मैं धीरे-धीरे मुचकुन्द के पास पहुँच गया। एक
डाल से बँधा हुआ एक सुन्दर बछेड़ा हरी-हरी दूब खा रहा था और
लहँगा-कुरता पहने, रुमाल सिर से बाँधे हुए एक लडक़ी उसकी पीठ सूखे घास
के मट्ठे से मल रही थी। मैं रुक कर देखने लगा। उसने पूछा-घोड़ा लोगे,
बाबू?
नहीं-कहते हुए मैं आगे बढ़ा था, कि एक तरुणी ने झोपड़े से सिर निकाल
कर देखा। वह बाहर निकल आई। उसने कहा-आप पढऩा जानते हैं?
हाँ, जानता तो हूँ।
हिन्दुओं की चिट्ठी आप पढ़ लेंगे?
मैं उसके सुन्दर मुख को कला की दृष्टि से देख रहा था। कला की दृष्टि;
ठीक तो बौद्ध-कला, गान्धार-कला, द्रविड़ों की कला इत्यादि नाम से
भारतीय मूर्ति-सौन्दर्य के अनेक विभाग जो है; जिससे गढऩ का अनुमान
होता है। मेरे एकान्त जीवन को बिताने की साम्रगी में इस तरह का जड़
सौन्दर्य-बोध भी एक स्थान रखता है। मेरा हृदय सजीव प्रेम से कभी
आप्लुत नहीं हुआ था। मैं इस मूक सौन्दर्य से ही कभी-कभी अपना
मनोविनोद कर लिया करता। चिट्ठी पढऩे की बात पूछने पर भी मैं अपने मन
में निश्चय कर रहा था, कि यह वास्तविक गान्धार प्रतिमा है, या ग्रीस
और भारत का इस सौन्दर्य में समन्वय है।
वह झुँझला कर बोली-क्या नहीं पढ़ सकोगे?
चश्मा नहीं है, मैंने सहसा कह किया। यद्यपि मैं चश्मा नहीं लगाता, तो
भी स्त्रियों से बोलने में न जाने क्यों मेरे मन में हिचक होती है।
मैं उनसे डरता भी था, क्योंकि सुना था कि वे किसी वस्तु को बेचने के
लिए प्राय: इस तरह तंग करती हैं कि उनसे दाम पूछने वाले को लेकर ही
छूटना पड़ता है। इसमें उनके पुरुष लोग भी सहायक हो जाते हैं, तब वह
बेचारा ग्राहक और भी झंझट में फँस जाता। मेरी सौन्दर्य की अनुभूति
विलीन हो गई। मैं अपने दैनिक जीवन के अनुसार टहलने का उपक्रम करने
लगा; किन्तु वह सामने अचल प्रतिमा की तरह खड़ी हो गई। मैंने कहा-क्या
है?
चश्मा चाहिए? मैं ले आती हूँ।
ठहरो, ठहरो, मुझे चश्मा न चाहिए।
कहकर मैं सोच रहा था कि कहीं मुझे खरीदना न पड़े। उसने पूछा-तब तुम
पढ़ सकोगे कैसे?
मैंने देखा कि बिना पढ़े मुझे छुट्टी न मिलेगी। मैंने कहा-ले आओ,
देखूँ, सम्भव है कि पढ़ सकूँ- उसने अपनी जेब से एक बुरी तरह मुड़ा
हुआ पत्र निकाला। मैं उसे लेकर मन-ही-मन पढऩे लगा।
लैला....,
तुमने जो मुझे पत्र लिखा था, उसे पढ़ कर मैं हँसा भी और दु:ख तो हुआ
ही। हँसा इसलिए कि तुमने दूसरे से अपने मन का ऐसा खुला हुआ हाल क्यों
कह दिया। तुम कितनी भोली हो! क्या तुमको ऐसा पत्र दूसरे से लिखवाते
हुए हिचक न हुई। तुम्हारा घूमनेवाला परिवार ऐसी बातों को सहन करेगा?
क्या इन प्रेम की बातों में तुम गम्भीरता का तनिक भी अनुभव नहीं करती
हो? और दुखी इसलिए हुआ कि तुम मुझसे प्रेम करती हो। यह कितनी भयानक
बात है। मेरे लिए भी और तुम्हारे लिए भी। तुमने मुझे निमन्त्रित किया
है प्रेम के स्वतन्त्र साम्राज्य में घूमने के लिए, किन्तु तुम जानती
हो, मुझे जीवन की ठोस झंझटों से छुट्टी नहीं। घर में मेरी स्त्री है,
तीन-तीन बच्चे हैं, उन सबों के लिए मुझे खटना पड़ता है, काम करना
पड़ता है। यदि वैसा न भी होता, तो भी क्या मैं तुम्हारे जीवन को अपने
साथ घसीटने में समर्थ होता? तुम स्वतन्त्र वन-विहंगिनी और मैं एक
हिन्दू गृहस्थ; अनेकों रुकावटें, बीसों बन्धन। यह सब असम्भव है। तुम
भूल जाओ। जो स्वप्न तुम देख रही हो-उसमें केवल हम और तुम हैं। संसार
का आभास नहीं। मैं संसार में एक दिन और जीर्ण सुख लेते हुए जीवन की
विभिन्न अवस्थाओं का समन्वय करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। न-मालूम कब
से मनुष्य इस भयानक सुख का अनुभव कर रहा है। मैं उन मनुष्यों में
अपवाद नहीं हूँ, क्योंकि यह सुख भी तुम्हारे स्वतन्त्र सुख की सन्तति
है! वह आरम्भ है, यह परिणाम है। फिर भी घर बसाना पड़ेगा। फिर वही
समस्याएँ सामने आवेंगी। तब तुम्हारा यह स्वप्न भंग हो जायगा। पृथ्वी
ठोस और कंकरीली रह जायगी। फूल हवा में बिखर जायेंगे। आकाश का विराट्
मुख समस्त आलोक को पी जायगा। अन्धकार केवल अन्धकार में झुँझलाहट-भरा
पश्चाताप, जीवन को अपने डंकों से क्षत-विक्षत कर देगा। इसलिए लैला!
भूल जाओ। तुम चारयारी बेचती हो। उससे सुना है, चोर पकड़े जाते हैं।
किन्तु अपने मन का चोर पकडऩा कहीं अच्छा है। तुम्हारे भीतर जो तुमको
चुरा रहा है, उसे निकाल बाहर करो। मैंने तुमसे कहा था कि बहुत-से
पुराने सिक्के खरीदूँगा, तुम अबकी बार पश्चिम जाओ तो खोजकर ले आना।
मैं उन्हें अच्छे दामों पर ले लूँगा। किन्तु तुमको खरीदना है, अपने
को बेचना नहीं, इसलिए मुझसे प्रेम करने की भूल तुम न करो।
हाँ, अब कभी इस तरह पत्र न भेजना क्योंकि वह सब व्यर्थ है।
रामेश्वर
मैं एक साँस में पत्र पढ़ गया, तब तक लैला मेरा मुँह देख रही थी।
मेरा पढऩा कुछ ऐसा ही हुआ, जैसे लोग अपने में बर्राते हैं। मैंने
उसकी ओर देखते हुए वह कागज उसे लौटा दिया। उसने पूछा-इसका मतलब?
मतलब! वह फिर किसी समय बताऊँगा। अब मुझे जलपान करना है। मैं जाता
हूँ। कहकर मैं मुड़ा ही था कि उसने पूछा-आपका घर, बाबू!-मैंने चंदा
के किनारे अपने सफेद बँगले को दिखा दिया। लैला पत्र हाथ में लिये
वहीं खड़ी रही। मैं अपने बँगले की ओर चला। मन में सोचता जा रहा था।
रामेश्वर। वही तो रामेश्वरनाथ वर्मा! क्यूरियो मर्चेण्ट! उसी की
लिखावट है। वह तो मेरा परिचित है। मित्र मान लेने में मन को एक तरह
की अड़चन है। इसलिए मैं प्राय: अपने कहे जानेवाले मित्रों को भी जब
अपने मन में सम्बोधन करता हूँ, तो परिचित ही कहकर! सो भी जब इतना
माने बिना काम नहीं चलता। मित्र मान लेने पर मनुष्य उससे शिव के समान
आत्म-त्याग, बोधिसत्व के सदृश सर्वस्व-समर्पण की जो आशा करता है और
उसकी शक्ति की सीमा को प्राय: अतिरञ्जित देखता है। वैसी स्थिति में
अपने को डालना मुझे पसन्द नहीं। क्योंकि जीवन का हिसाब-किताब उस
काल्पनिक गणित के आधार पर रखने का मेरा अभ्यास नहीं, जिसके द्वारा
मनुष्य सबके ऊपर अपना पावना ही निकाल लिया करता है।
अकेले जीवन के नियमित व्यय के लिये साधारण पूँजी का ब्याज मेरे लिए
पर्याप्त है। मैं सुखी विचरता हूँ! हाँ, मैं जलपान करके कुरसी पर
बैठा हुआ अपनी डाक देख रहा था। उसमें एक लिफाफा ठीक उन्ही अक्षरों
में लिखा हुआ-जिनमें लैला का पत्र था-निकला। मैं उत्सुकता से खोलकर
पढऩे लगा-
भाई श्रीनाथ
तुम्हारा समाचार बहुत दिनों से नहीं मिला। तुम्हें यह जानकर
प्रसन्नता होगी कि हम लोग दो सप्ताह के भीतर तुम्हारे अतिथि होंगे।
चंदा की वायु हम लोगों को खींच रही है। मिन्ना तो तंग कर ही रहा है,
उसकी माँ को और भी उत्सुकता है। उन सबों को यही सूझी है, कि दिन भर
ताल में डोंगी पर भोजन न करके हवा खायेंगे और पानी पीयेंगे। तुम्हें
कष्ट तो न होगा?
तुम्हारा-रामेश्वर
पत्र पढ़ लेने पर जैसे कुतूहल मेरे सामने नाचने लगा। रामेश्वर के
परिवार का स्नेह, उनके मधुर झगड़े; मान-मनौवल-समझौता और अभाव में भी
सन्तोष; कितना सुन्दर! मैं कल्पना करने लगा। रामेश्वर एक सफल कदम्ब
है, जिसके ऊपर मालती की लता अपनी सैकड़ों उलझनों से, आनन्द की छाया
और आलिंगन का स्नेह-सुरभि ढाल रही है।
रामेश्वर का ब्याह मैंने देखा था। रामेश्वर के हाथ के ऊपर मालती की
पीली हथेली, जिसके ऊपर जलधारा पड़ रही थी। सचमुच यह सम्बन्ध कितना
शीतल हुआ। उस समय मैं हँस रहा था-बालिका मालती और किशोर रामेश्वर!
हिन्दू-समाज का यह परिहास-यह भीषण मनो-विनोद! तो भी मैंने देखा, कहीं
भूचाल नहीं हुआ-कहीं ज्वालामुखी नहीं फूटा। बहिया ने कोई गाँव बहाया
नहीं। रामेश्वर और मालती अपने सुख की फसल हर साल काटते हैं। ...मैंने
जो सोचा-अभी-अभी जो विचार मेरे मन में आया, वह न लिखूँगा। मेरी
क्षुद्रता जलन के रूप में प्रकट होगी। किन्तु मैं सच कहता हूँ, मुझे
रामेश्वर से जलन नहीं, तो भी मेरे उस विचार का मिथ्या अर्थ लोग लगा
ही लेंगे। आज-कल मनोविज्ञान का युग है न। प्रत्येक ने मनोवृत्तियों
के लिए हृदय को कबूतर का दरबा बना डाला है। इनके लिए सफेद, नीला,
सुर्ख का श्रेणी-विभाग कर लिया गया है। उतनी प्रकार की मनोवृत्तियों
को गिनकर वर्गीकरण कर लेने का साहस भी होने लगा है।
तो भी मैंने उस बात को सोच
ही लिया। मेरे साधारण जीवन में एक लहर उठी। प्रसन्नता की स्निग्ध
लहर! पारिवारिक सुखों से लिपटा हुआ, प्रणय-कलह देखूँगा; मेरे
दायित्व-विहीन जीवन का वह मनोविनोद होगा। मैं रामेश्वर को पत्र लिखने
लगा-
भाई रामेश्वर!
तुम्हारे पत्र ने मुझ पर प्रसन्नता की वर्षा की है। मेरे शून्य जीवन
को आनन्द कोलाहल से, कुछ ही दिनों के लिए सही भर देने का तुम्हारा
प्रयत्न, मेरे लिए सुख का कारण होगा, तुम अवश्य आओ और सबको साथ लेकर
आओ!
तुम्हारा-श्रीनाथ
पुनश्च-
बंबई से आते हुए सूरन अवश्य लेते आना! यहाँ वैसा नहीं मिलता। सूरन की
तरकारी की गरमी में ही तुम लोग चंदा की ठंडी हवा झेल सकोगे और
साथ-साथ अपनी चलती-फिरती दूकान का एक बक्स, जिस पर हम लोगों की
बातचीत की परम्परा लगी रहे।
-श्रीनाथ
दोपहर का भोजन कर लेने के बाद मैं थोड़ी देर अवश्य लेटता हूँ कोई
पूछता है, तो कह देता हूँ कि यह निद्रा नहीं भाई, तन्द्रा है,
स्वास्थ्य को मैं उसे अपने आराम से चलने देता हूँ! चिकित्सकों से
सलाह पूछकर उसमें छेड़-छाड़ करना मुझे ठीक नहीं जँचता। सच बात तो यह
है कि मुझे वर्तमान युग की चिकित्सा में वैसा ही विश्वास है, जैसे
पाश्चात्य पुरातत्वज्ञों की खोज पर। जैसे वे साँची और अमरावती के
स्तम्भ तथा शिल्प के चिह्नों में वस्त्र पहनी हुई मूर्तियों को
देखकर, ग्रीक शिल्प-कला का आभास पा जाते हैं और कल्पना कर बैठते हैं
कि भारतीय बौद्ध कला ऐसी हो ही नहीं सकती, क्योंकि वे कपड़ा पहनना
जानते ही न थे। फिर चाहे आप त्रिपिटक से ही प्रमाण क्यों न दें कि
बिना अन्तर्वासक, चीवर इत्यादि के भारत का कोई भी भिक्षु नहीं रहता
था; पर वे कब माननेवाले! वैसे ही चिकित्सक के पास सिर में दर्द होने
की दवा खोजने गये कि वह पेट से उसका सम्बन्ध जोड़कर कोई रेचक औषधि दे
ही देगा। बेचारा कभी न सोचेगा कि कोई गम्भीर विचार करते हुए, जीवन की
किसी कठिनाई से टकराते रहने से भी पीड़ा हो सकती है। तो भी मैं
हल्की-सी तन्द्रा केवल तबीयत बनाने के लिए ले ही लेता हूँ।
शरद्-काल की उजली धूप ताल के नीले जल पर फैल रही थी। आँखों में
चकाचौंधी लग रही थी। मैं कमरे में पड़ा अँगड़ाई ले रहा था। दुलारे ने
आकर कहा-ईरानी-नहीं-नहीं बलूची आये हैं। मैंने पूछा-कैसे ईरानी और
बलूची?
वही जो मूँगा, फिरोज़ा, चारयारी बेचते हैं, सिर में रुमाल बाँधे हुए।
मैं उठ खड़ा हुआ, दालान में आकर देखता हूँ, तो एक बीस बरस के युवक के
साथ लैला। गले में चमड़े का बेग, पीठ पर चोटी, छींट का रुमाल। एक
निराला आकर्षक चित्र! लैला ने हँसकर पूछा-बाबू, चारयारी लोगे?
चारयारी?
हाँ बाबू! चारयारी! इसके रहने से इसके पास सोना, अशर्फी रहेगा। थैली
कभी खाली न होगी। और बाबू! इससे चोरी का माल बहुत जल्द पकड़ा जाता
है।
साथ ही युवक ने कहा-ले लो बाबू! असली चारयारी; सोना का चारयारी! एक
बाबू के लिए लाया था। वह मिला नहीं।
मैं अब तक उन दोनों की सुरमीली आँखों को देख रहा था। सुरमे का घेरा
गोरे-गोरे मुँह पर आँख की विस्तृत सत्ता का स्वतन्त्र साक्षी था।
पतली लम्बी गर्दन पर खिलौने-सा मुँह टपाटप बोल रहा था! मैंनें
कहा-मुझे तो चारयारी नहीं चाहिए।
किन्तु वहाँ सुनता कौन है, दोनों सीढ़ी पर बैठ गये थे और लैला अपना
बेग खोल रही थी। कई पोटलियाँ निकलीं, सहसा लैला के मुँह का रंग उड़
गया। वह घबराकर कुछ अपनी भाषा में कहने लगी। युवक उठ खड़ा हुआ। मैं
कुछ न समझ सका। वह चला गया। अब लैला ने मुस्कराते हुए, बेग में से
वही पत्र निकाला। मैंने कहा-इसे तो मैं पढ़ चुका हूँ।
इसका मतलब!
वह तुम्हारी चारयारी खरीदने फिर आवेगा। यही इसमें लिखा है-मैंने कहा।
बस! इतना ही?
और भी कुछ है।
क्या बाबू?
और जो उसने लिखा है, वह मैं
नहीं कह सकता-
क्यों बाबू? क्यों न कह सकोगे? बोलो।
लैला की वाणी में पुचकार, दुलार, झिडक़ी और आज्ञा थी।
यह सब बात मैं नहीं ......
बीच में ही बात काटकर उसने कहा-नहीं क्यों? तुम जानते हो, नहीं
बोलोगे?
उसने लिखा है, मैं तुमको प्यार करता हूँ।
लिखा है, बाबू!-लैला की आँखों में स्वर्ग हँसने लगा! वह फुरती से
पत्र मोड़कर रखती हुई हँसने लगी। मैंने अपने मन में कहा-अब यह पूछेगी,
वह कब आवेगा? कहाँ मिलेगा?-किन्तु लैला ने यह सब कुछ नहीं पूछा। वह
सीढिय़ों पर अर्द्ध-शयनावस्था में जैसे कोई सुन्दर सपना देखती हुई
मुस्करा रही थी। युवक दौड़ता हुआ आया; उसने अपनी भाषा में कुछ घबरा
कर कहा पर लैला लेटे-ही-लेटे कुछ बोली। युवक भी बैठ गया। लैला ने
मेरी ओर देखकर कहा-तो बाबू! वह आवेगा। मेरी चारयारी खरीदेगा। गुल से
भी कह दो। मैंने समझ लिया कि युवक का नाम गुल है। मैंने कहा-हाँ, वह
तुम्हारी चारयारी खरीदने आवेंगे। गुल ने लैला की ओर प्रसन्न दृष्टि
से देखा।
परन्तु मैं, जैसे भयभीत हो गया। अपने ऊपर सन्देह होने लगा। लैला
सुन्दरी थी, पर उसके भीतर भयानक राक्षस की आकृति थी या देवमूर्ति! यह
बिना जाने मैंने क्या कह दिया! इसका परिणाम भीषण भी हो सकता है। मैं
सोचने लगा। रामेश्वर को मित्र तो मानता नहीं, किन्तु मुझे उससे
शत्रुता करने का क्या अधिकार है?
चंदा के दक्षिणी तट पर ठीक मेरे बँगले के सामने एक पाठशाला थी।
उसमें एक सिंहली सज्जन रहते थे। न जाने कहाँ-कहाँ से उनको चंदा
मिलता था। वे पास-पड़ोस के लडक़ों को बुलाकर पढ़ाने के लिए बिठाते थे।
दो मास्टरों को वेतन देते थे। उनका विश्वास था कि चंदा का तट किसी
दिन तथागत के पवित्र चरण-चिह्न से अंकित हुआ था, वे आज भी उन्हें
खोजते थे। बड़े शान्त प्रकृति के जीव थे। उनका श्यामल शरीर, कुञ्चित
केश, तीक्ष्ण दृष्टि, सिंहली विशेषता से पूर्ण विनय, मधुर वाणी और
कुछ-कुछ मोटे अधरों में चौबीसों घण्टे बसने वाली हँसी आकर्षण से भरी
थी। मैं कभी-कभी जब जीभ में खुजलाहट होती, वहाँ पहुँच जाता। आज की वह
घटना मेरे गम्भीर विचार का विषय बनकर मुझे व्यस्त कर रही थी। मैं
अपनी डोंगी पर बैठ गया। दिन अभी घण्टे-डेढ़-घण्टे बाकी था। उस पार
खेकर डोंगी ले जाते बहुत देर नहीं हुई। मैं पाठशाला और ताल के बीच के
उद्यान को देख रहा था। खजूर और नारियल के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को
जिसमें निराली छटा थी। एक नया पीपल अपने चिकने पत्तों की हरियाली में
झूम रहा था। उसके नीचे शिला पर प्रज्ञासारथि बैठे थे। नाव को अटकाकर
मैं उनके समीप पहुँचा। अस्त होनेवाले सूर्य-बिम्ब की रँगीली किरणें
उनके प्रशान्त मुखमण्डल पर पड़ रही थीं। दो ढाई हजार वर्ष पहले का
चित्र दिखाई पड़ा, जब भारत की पवित्रता हजारों कोस से लोगों को
वासना-दमन करना सीखने के लिए आमन्त्रित करती थी। आज भी आध्यात्मिक
रहस्यों के उस देश में उस महती साधना का आशीर्वाद बचा है। अभी भी
बोध-वृक्ष पनपते हैं! जीवन की जटिल आवश्यकता को त्याग कर जब काषाय
पहने सन्ध्या के सूर्य के रंग में रंग मिलाते हुए ध्यान-स्तिमित-लोचन
मूर्तियाँ अभी देखने में आती है, तब जैसे मुझे अपनी सत्ता का विश्वास
होता है, और भारत की अपूर्वता का अनुभव होता है। अपनी सत्ता का इसलिए
कि मैं भी त्याग का अभिनय करता हूँ न! और भारत के लिए तो मुझे पूर्ण
विश्वास है कि इसकी विजय धर्म में हैं।
अधरों में कुञ्चित हँसी, आँखों में प्रकाश भरे प्रज्ञासारथि ने मुझे
देखते हुए कहा-आज मेरी इच्छा थी कि आपसे भेंट हो।
मैंने हँसते हुए कहा-अच्छा हुआ कि मैं प्रत्यक्ष ही आ गया। नहीं तो
ध्यान में बाधा पड़ती।
श्रीनाथजी! मेरे ध्यान में आपके आने की सम्भावना न थी। तो भी आज एक
विषय पर आपकी सम्मति की आवश्यकता है।
मैं भी कुछ कहने के लिए ही यहाँ आया हूँ। पहले मैं कहूँ कि आप ही
आरम्भ करेंगे?
सथिया के लड़के कल्लू के सम्बन्ध में तो आपको कुछ नहीं कहना है? मेरे
बहुत कहने पर मुसहरों ने उसे पढऩे के लिए मेरी पाठशाला में रख दिया
है और उसके पालन के भार से अपने को मुक्त कर लिया। अब वह सात बरस का
हो गया है। अच्छी तरह खाता-पीता है। साफ-सुथरा रहता है। कुछ-कुछ
पढ़ता भी है!-प्रज्ञासारथि ने कहा।
चलिए, अच्छा हुआ! एक रास्ते पर लग गया। फिर जैसा उसके भाग्य में हो।
मेरा मन इन घरेलू बन्धनों में पड़ने के लिए विरक्त-सा है, फिर भी न
जाने क्यों कल्लू का ध्यान आ ही जाता है-मैंने कहा।
तब तो अच्छी बात है, आप इस कृत्रिम विरक्ति से ऊब चले हैं, तो कुछ
काम करने लगिए। मैं भी घर जाना चाहता हूँ, न हो तो पाठशाला ही
चलाइए-कहते हुए प्रज्ञासारथि ने मेरी ओर गम्भीरता से देखा।
मेरे मन में हलचल हुई। मैं एक बकवादी मनुष्य! किसी विषय पर गम्भीरता
का अभिनय करके थोड़ी देर तक सफल वाद-विवाद चला देना और फिर विश्वास
करना; इतना ही तो मेरा अभ्यास था। काम करना, किसी दायित्व को सिर पर
लेना असम्भव! मैं चुप रहा। वह मेरा मुँह देख रहे थे। मैं चतुरता से
निकल जाना चाहता था। यदि मैं थोड़ी देर और उसी तरह सन्नाटा रखता, तो
मुझे हाँ या नहीं कहना ही पड़ता। मैंने विवाहवाला चुटकुला छेड़ ही तो
दिया।
आप तो विरक्त भिक्षु हैं। अब घर जाने की आवश्यकता कैसे आ पड़ी?
भिक्षु! आश्चर्य से प्रज्ञासारथि ने कहा-मैं तो ब्रह्मचर्य में हूँ।
विद्याभ्यास और धर्म का अनुशीलन कर रहा हूँ। यदि मैं चाहूँ तो
प्रव्रज्या ले सकता हूँ, नहीं तो गृही बनने में कोई धार्मिक आपत्ति
नहीं। सिंहल में तो यही प्रथा प्रचलित है। मेरे विचार से यह प्राचीन
आर्य-प्रथा भी थी! मैं गार्हस्थ्य-जीवन से परिचित होना चाहता हूँ।
तो आप ब्याह करेंगे?
क्यों नहीं; वही करने तो जा रहा हूँ।
देखता हूँ, स्त्रियों पर आपको पूर्ण विश्वास है।
अविश्वास करने का कारण ही क्या है? इतिहास में, आख्यायिकाओं में कुछ
स्त्रियों और पुरुषों का दुष्ट चरित्र पढक़र मुझे अपने और अपनी भावी
सहधर्मिणी पर अविश्वास कर लेने का कोई अधिकार नहीं? प्रत्येक व्यक्ति
को अपनी परीक्षा देनी चाहिए।
विवाहित जीवन! सुखदायक होगा?-मैंने पूछा।
किसी कर्म को करने के पहले उसमें सुख की ही खोज करना क्या अत्यन्त
आवश्यक है? सुख तो धर्माचरण से मिलता है। अन्यथा संसार तो दु:खमय है
ही! संसार के कर्मों को धार्मिकता के साथ करने में सुख की ही
सम्भावना है।
किन्तु ब्याह-जैसे कर्म से तो सीधा-सीधा स्त्री से सम्बन्ध है।
स्त्री! कितनी विचित्र पहेली है। इसे जानना सहज नहीं। बिना जाने ही
उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेना, कितनी बड़ी भूल है,
ब्रह्मचारीजी!-मैंने हँस कर कहा।
भाई, तुम बड़े चतुर हो। खूब सोच-समझकर, परखकर तब सम्बन्ध जोडऩा चाहते
हो न; किन्तु मेरी समझ में सम्बन्ध हुए बिना परखने का दूसरा उपाय
नहीं। प्रज्ञासारथि ने गम्भीरता से कहा। मैं चुप होकर सोचने लगा।
अभी-अभी जो मैंने एक काण्ड का बीजारोपण किया है, वह क्या लैला के
स्वभाव से परिचित होकर! मैं अपनी मूर्खता पर मन-ही-मन तिलमिला उठा।
मैंने कल्पना से देखा, लैला प्रतिहिंसा भरी एक भयानक राक्षसी है, यदि
वह अपने जाति-स्वभाव के अनुसार रामेश्वर के साथ बदला लेने की
प्रतिज्ञा कर बैठे, तब क्या होगा?
प्रज्ञासारथि ने फिर कहा-मेरा जाना तो निश्चित है। ताम्रपर्णी की
तरंग-मालाएँ मुझे बुला रही हैं! मेरी एक प्रार्थना है। आप कभी-कभी
आकर इसका निरीक्षण कर लिया कीजिए।
मुझे एक बहाना मिला, मैंने कहा-मैंने बैठे-बिठाये एक झंझट बुला ली
है। मैं देखता हूँ कि कुछ दिनों तक तो मुझे उसमें फँसना ही पड़ेगा।
प्रज्ञासारथि ने पूछा-वह क्या?
मैंने लैला का पत्र पढऩे और उसके बाद का सब वृतान्त कह सुनाया।
प्रज्ञासारथि चुप रहे, फिर उन्होंने कहा-आपने इस काम को खूब सोच-समझ
कर करने की आवश्यकता पर तो ध्यान न दिया होगा, क्योंकि इसका फल दूसरे
को भोगने की सम्भावना है न!
मुझे प्रज्ञासारथि का यह व्यंग अच्छा न लगा। मैंने कहा-सम्भव है कि
मुझे भी कुछ भोगना पड़े।
भाई मैं देखता हूँ, संसार में बहुत-से ऐेसे काम मनुष्य को करने पड़ते
हैं, जिन्हें वह स्वप्न में भी नहीं सोचता। अकस्मात् वे प्रसंग सामने
आकर गुर्राने लगते हैं, जिनसे भाग कर जान बचाना ही उसका अभीष्ट होता
है। मैं भी इसी तरह ब्याह करने के लिए सिंहल जा रहा हूँ।
अन्धकार को भेद कर शरद् का चन्द्रमा नारियल और खजूर के वृक्षों पर
दिखाई देने लगा था। चंदा का ताल लहरियों में प्रसन्न था। मैं क्षण
भर के लिए प्रकृति की उस सुन्दर चित्रपटी को तन्मय होकर देखने लगा।
कलुआ ने जब प्रज्ञासारथि को भोजन करने की सूचना दी, मुझे स्मरण हुआ
कि मुझे उस पार जाना है। मैंने दूसरे दिन आने को कह कर प्रज्ञासारथि
से छुट्टी माँगी।
डोंगी पर बैठकर मैं धीरे-धीरे डाँड़ चलाने लगा।
मैं अनमना-सा डाँड़ चलाता हुआ कभी चन्द्रमा को और कभी चंदा ताल को
देखता। नाव सरल आन्दोलन में तिर रही थी। बार-बार सिंहली प्रज्ञासारथि
की बात सोचता जाता था। मैंने घूमकर देखा, तो कुञ्ज से घिरा हुआ
पाठशाला का भवन चंदा के शुभ्रजल में प्रतिबिम्बित हो रहा था! चंदा
का वह तट समुद्र-उपकूल का एक खण्ड-चित्र था। मन-ही-मन सोचने लगा-मैं
करता ही क्या हूँ, यदि मैं पाठशाला का ही निरीक्षण करूँ, तो हानि
क्या? मन भी लगेगा और समय भी कटेगा। -अब मैं दूर चला आया था। सामने
मुचकुन्द वृक्ष की नील आकृति दिखलाई पड़ी। मुझे लैला का फिर स्मरण आ
गया। कितनी सरल, स्वतन्त्र और साहसिकता से भरी हुई रमणी है। सुरमीली
आँखों में कितना नशा है और अपने मादक उपकरणों से भी रामेश्वर को अपनी
ओर आकर्षित करने में वह असमर्थ है। रामेश्वर पर मुझे क्रोध आया और
लैला को फिर अपने विचारों से उलझते देख कर झुँझला उठा। अब किनारा
समीप हो चला था। मैं मुचकुन्द की ओर से नाव घुमाने को था कि मुझे उस
प्रशान्त जल में दो शिर तैरते हुए दिखाई पड़े। शरद्-काल की शीतल रजनी
में उन तैरनेवालों पर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने डाँड़ चलाना बन्द कर
दिया। दोनों तैरनेवाले डोंगी के पास आ चले थे। मैंने चन्द्रिका के
आलोक में पहचान लिया, वह लैला का सुन्दर मुख था। कुमदिनी की तरह
प्रफुल्ल चाँदनी में हँसता हुआ लैला का मुख! मैंने पुकारा-लैला! वह
बोलने ही को थी कि उसके साथवाला मुख गुर्रा उठा। मैंने समझा कि उसका
साथी गुल होगा; किन्तु लैला ने कहा-चुप, बाबूजी हैं। अब मैंने
पहचाना-वह एक भयानक ताजी कुत्ता है, जो लैला के साथ तैर रहा था। लैला
ने कहा-बाबूजी, आप कहाँ? मेरी डोंगी के एक ओर लैला का हाथ था और
दूसरी ओर कुत्ते के दोनों अगले पँजे। मैंने कहा-यों ही घूमने आया था
और तुम रात को तैरती हो? लैला।
दिनभर काम करने के बाद अब तो छुट्टी मिली है, बदन ठण्डा कर रही
हूँ-लैला ने कहा।
वह एक अद्भुत दृश्य था। इतने दिनों तक मैं जीवन के अकेले दिनों को
काट चुका हूँ। अनेक अवसर विचित्र घटनाओं से पूर्ण और मनोरञ्जक मिले
हैं; किन्तु ऐसा दृश्य तो मैंने कभी न देखा। मैंने पूछा-आज की रात तो
बहुत ठण्डी है, लैला!
उसने कहा-नहीं, बड़ी गर्म।
दोनों ने अपनी रुकावट हटा ली। डोंगी चलने को स्वतन्त्र थी। लैला और
उसका साथी दोनों तैरने लगे। मैं फिर अपने बँगले की ओर डोंगी खेने
लगा। किनारे पर पहुँच कर देखता हूँ कि दुलारे खड़ा है। मैंने
पूछा-क्यों रे! तू कब से यहाँ है?
उसने कहा-आपको आने में देर हुई, इसलिए मैं आया हूँ। रसोई ठण्डी हो
रही है।
मैं डोंगी से उतर पड़ा और बँगले की ओर चला। मेरे मन में न जाने क्यों
सन्देह हो रहा था कि दुलारे जान-बूझकर परखने आया था। लैला से बातचीत
करते हुए उसने मुझे अवश्य देखा है। तो क्या वह मुझ पर कुछ सन्देह
करता है? मेरा मन दुलारे को सन्देह करने का अवसर देकर जैसे कुछ
प्रसन्न ही हुआ। बँगले पर पहुँचकर मैं भोजन करने बैठ गया। स्वभाव के
अनुसार शरीर तो अपना नियमित सब करता ही रहा, किन्तु सो जाने पर भी
वही सपना देखता रहा।
आज बहुत विलम्ब से सोकर उठा। आलस से कहीं घूमने-फिरने की इच्छा न थी।
मैंने अपनी कोठरी में ही आसन जमाया। मेरी आँखों में वह रात्रि का
दृश्य अभी घूम रहा था। मैंने लाख चेष्टा की किन्तु लैला और वह सिंहली
भिक्षु दोनों ही ने मेरे हृदय को अखाड़ा बना लिया था। मैंने विरक्त
होकर विचार-परम्परा को तोड़ने के लिये बाँसुरी बजाना आरम्भ किया।
आसावरी के गम्भीर विलम्बित आलापों में फिर भी लैला की प्रेमपूर्ण
आकृति जैसे बनने लगती। मैंने बाँसुरी बजाना बन्द किया और ठीक
विश्रामकाल में ही मैंने देखा कि प्रज्ञासारथि सामने खड़े हैं। मैंने
उन्हें बैठाते हुए पूछा-आज आप इधर कैसे भूल पड़े?
यह प्रश्न मेरी विचार-विशृंखलता के कारण हुआ था, क्योंकि वे तो
प्राय: मेरे यहाँ आया ही करते थे। उन्होंने हँस कर कहा-मेरा आना
भूलकर नहीं, किन्तु कारण से हुआ है। कहिये, आपने उस विषय में कुछ
स्थिर किया?
मैंने अनजान बनकर पूछा-किस विषय में?
प्रज्ञासारथि ने कहा-वही पाठशाला की देख-रेख करने के लिए, जैसा मैंने
उस दिन आपसे कहा था।
मैंने बात उड़ाने के ढंग से कहा-आप तो सोच-विचारकर काम करने में
विश्वास ही नहीं रखते। आपका तो यही कहना है न कि मनुष्य प्राय:
अनिच्छावश बहुत-से काम करने के लिए बाध्य होता है, तो फिर मुझे उस पर
सोचने-विचारने की क्या आवश्यकता थी? जब वैसा अवसर आवेगा, तब देखा
जायगा।
कृपया मेरी बातों का मनोनुकूल अर्थ न लगाइए। यह तो मैं मानता हूँ कि
आप अपने ढंग से विचार करने के लिए स्वतन्त्र हैं; किन्तु उन्हें
क्रियात्मक रूप देने के समय आपकी स्वतन्त्रता में मेरा विश्वास
संदिग्ध हो जाता है। प्राय: देखा जाता है, हम लोग क्या करने जाकर
क्या कर बैठते हैं, तो भी हम उसकी जिम्मेदारी से छूटते नहीं। मान
लीजिए कि लैला के हृदय में एक दुराशा उत्पन्न करके आपने रामेश्वर के
जीवन में अड़चन डाल दी है। सम्भव है, यह घटना साधारण न रह कर कोई
भीषण काण्ड उपस्थित कर सकती है और आपका मित्र अपने अनिष्ट करनेवाले
को न भी पहचान सके, तो क्या आप अपने ही मन के सामने इसके लिए अपराधी
न ठहरेंगे?
प्रज्ञासारथि की ये बातें मुझे बेढंगी-सी जान पड़ीं क्योंकि उस समय
मुझे उनका आना और मुझे उपदेश देने का ढोंग रचना असह्य होने लगा। मेरी
इच्छा होती थी कि वे किसी तरह भी यहाँ से चले जाते; तो भी मुझे
उन्हें उत्तर देने के लिए इतना तो कहना ही पड़ा कि-आप कच्चे
अदृष्टवादी हैं। आपके जैसा विचार रखने पर मैं तो इसे इस तरह
सुलझाऊँगा कि अपराध करने में और दण्ड देने में मनुष्य एक दूसरे का
सहायक होता है। हम आज जो किसी को हानि पहुँचाते हैं, या कष्ट देते
हैं, वह इतने ही के लिए नहीं कि उसने मेरी कोई बुराई की है। हो सकता
है कि मैं उसके किसी अपराध का यह दण्ड समाज-व्यवस्था के किसी मौलिक
नियम के अनुसार दे रहा हूँ। फिर चाहे मेरा यह दण्ड देना भी अपराध बन
जाय और उसका फल भी मुझे भोगना पड़े। मेरे इस कहने पर प्रज्ञासारथि ने
हँस दिया और कहा-श्रीनाथजी, मैं आपकी दण्ड-व्यवस्था ही तो करने आया
हूँ। आप अपने बेकार जीवन को मेरी बेगार में लगा दीजिए। मैंने पिण्ड
छुड़ाने के लिए कहा- अच्छा, तीन दिन सोचने का अवसर दीजिए।
प्रज्ञासारथि चले गये और मैं चुपचाप सोचने लगा। मेरे स्वतन्त्र जीवन
में माँ के मर जाने के बाद यह दूसरी उलझन थी। निश्चिन्त जीवन की
कल्पना का अनुभव मैंने इतने दिनों तक कर लिया था। मैंने देखा कि मेरे
निराश जीवन में उल्लास का छींटा भी नहीं। यह ज्ञान मेरे हृदय को और
और भी स्पर्श करने लगा। मैं जितना ही विचारता था, उतना ही मुझे
निश्चिन्तता और निराशा का अभेद दिखलाई पड़ता था। मेरे आलसी जीवन में
सक्रियता की प्रतिध्वनि होने लगी। तो भी काम न करने का स्वभाव मेरे
विचारों के बीच में जैसे व्यंग से मुस्करा देता था।
तीन दिनों तक मैंने सोचा और विचार किया। अन्त में प्रज्ञासारथि की
विजय हुई क्योंकि मेरी दृष्टि में प्रज्ञासारथि का काम नाम के लिए तो
अवश्य था, किन्तु करने में कुछ भी नहीं के बराबर।
मैंने अपना हृदय दृढ़ किया और प्रज्ञासारथि से जाकर कह दिया कि-मैं
पाठशाला का निरीक्षण करूँगा, किन्तु मेरे मित्र आनेवाले हैं और जब तक
यहाँ रहेंगे, तब तक तो मैं अपना बँगला न छोड़ूँगा क्योंकि यहाँ उन
लोगों के आने से आपको असुविधा होगी। फिर जब वे लोग चले जायेंगे, तब
मैं यहीं आकर रहने लगूँगा।
मेरे सिंघली मित्र ने हँस कर कहा-अभी तो एक महीने यहाँ मैं अवश्य
रहूँगा। यदि आप अभी से यहाँ चले आवें तो, बड़ा अच्छा हो, क्योंकि
मेरे रहते यहाँ का सब प्रबन्ध आपकी समझ में आ जायगा। रह गई मेरी
असुविधा की बात, सो तो केवल आपकी कल्पना है। मैं आपके मित्रों को
यहाँ देखकर प्रसन्न ही होऊँगा। जगह की कमी भी नहीं।
मैं ‘अच्छा’ कह कर उनसे छुट्टी लेने के लिए उठ खड़ा हुआ; किन्तु
प्रज्ञासारथि ने मुझे फिर से बैठाते हुए कहा-देखिए श्रीनाथजी, यह
पाठशाला का भवन पूर्णत: आपके अधिकार में रहेगा। भिक्षुओं के रहने के
लिए तो संघाराम का भाग अलग है ही और उसमें जो कमरे अभी अधूरे हैं,
उन्हें शीघ्र ही पूरा कराकर तब मैं जाऊँगा और अपने संघ से मैं इसकी
पक्की लिखा-पढ़ी कर रहा हूँ कि आप पाठशाला के आजीवन अवैतनिक
प्रधानाध्यक्ष रहेंगे और उसमें किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार न
होगा।
मैं उस युवक बौद्ध मिशनरी की युक्तिपूर्ण व्यावहारिकता देख कर
मन-ही-मन चकित हो रहा था। एक क्षण भर के लिए उस सिंहली की
व्यवहार-कुशल बुद्धि से मैं भीतर-ही-भीतर ऊब उठा। मेरी इच्छा हुई कि
मैं स्पष्ट अस्वीकार कर दूँ; किन्तु न जाने क्यों मैं वैसा न कर सका।
मैंने कहा-तो आपको मुझमें इतना विश्वास है कि मैं आजीवन आपकी पाठशाला
चलाता रहूँगा!
प्रज्ञासारथि ने कहा-शक्ति की परीक्षा दूसरों ही पर होती है; यदि
मुझे आपकी शक्ति का अनुभव हो, तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं। और आप तो
जानते ही हैं कि धार्मिक मनुष्य विश्वासी होता है। सूक्ष्म रूप से जो
कल्याण-ज्योति मानवता में अन्तर्निहित है, मैं तो उसमें अधिक-से-अधिक
श्रद्धा करता हूँ। विपथगामी होने पर वही सन्त हो करके मनुष्य का
अनुशासन करती है, यदि उसकी पशुता ही प्रबल न हो गई हो, तो।
मैंने प्रज्ञासारथि की आँखों से आँख मिलाते हुए देखा, उसमें तीव्र
संयम की ज्योति चमक रही थी, मैं प्रतिवाद न कर सका, और यह कहते हुए
खड़ा हुआ कि- अच्छा, जैसा आप कहते हैं वैसा ही होगा!
मैं धीरे-धीरे बँगले की ओर लौट रहा था। रास्ते में अचानक देखता हूँ
कि दुलारे दौड़ा हुआ चला आ रहा है। मैंने पूछा-क्या है रे?
उसने कहा-बाबूजी, घोड़ागाड़ी पर बहुत-से आदमी आये हैं। वे लोग आपको
पूछ रहे हैं।
मैंने समझ लिया कि रामेश्वर आ गया। दुलारे से कहा कि-तू दौड़ जा, मैं
यहीं खड़ा हूँ। उन लोगों को सामान-सहित यहीं लिवा ला!
दुलारे तो बँगले की ओर भागा, किन्तु मैं उसी जगह अविचल भाव से खड़ा
रहा। मन में विचारों की आँधी उठने लगी, रामेश्वर तो आ गया और वे
ईरानी भी यहीं हैं। ओह, मैंने कैसी मूर्खता की! तो मेरे मन को जैसे
ढाढ़स हुआ कि रामेश्वर मेरे बँगले में नहीं ठहरता है। इस बौद्ध
पाठशाला तक लैला क्यों आने लगी? जैसे लैला को वहाँ आने में कोई दैवी
बाधा हो। फिर मेरा सिर चकराने लगा। मैंने कल्पना की आँखों से देखा कि
लैला अबाधगति से चलने वाली एक निर्झरणी है। पश्चिम की सर्राटे से भरी
हुई वायुतरंग-माला है। उसको रोकने की किसमें सामथ्र्य है; और फिर
अकेले रामेश्वर ही तो नहीं, उसकी स्त्री भी उसके साथ है। अपनी
मूर्खतापूर्ण करनी से मेरा ही दम घुटने लगा। मैं खड़ा-खड़ा झील की ओर
देख रहा था। उसमें छोटी-छोटी लहरियाँ उठ रही थीं, जिनमें सूर्य की
किरणें प्रतिबिम्बित होकर आँखों को चौंधिया देती थीं। मैंने आँखे
बन्द कर लीं। अब मैं कुछ नहीं सोचता था। गाड़ी की घरघराहट ने मुझे
सजग किया। मैंने देखा कि रामेश्वर गाड़ी का पल्ला खोलकर वहीं सड़क में
उतर रहा है।
मैं उससे गले मिल शीघ्रता से कहने लगा-गाड़ी पर बैठ जाओ। मैं भी चलता
हूँ। यहीं पास ही चलना है।-उसने गाड़ीवान से चलने के लिए कहा। हम
दोनों साथ-साथ पैदल ही चले। पाठशाला के समीप प्रज्ञासारथि अपनी
रहस्यपूर्ण मुस्कराहट के साथ अगवानी करने के लिए खड़े थे।
दो दिनों में हम लोग अच्छी तरह रहने लगे। घर का कोना-कोना आवश्यक
चीजों से भर गया। प्रज्ञासारथि इसमें बराबर हम लोगों के साथी हो रहे
थे और सबसे अधिक आश्चर्य मुझे मालती को देख कर हुआ। वह मानो इस जीवन
की सम्पूर्ण गृहस्थी यहाँ सजा कर रहेगी। मालती एक स्वस्थ युवती थी;
किन्तु दूर से देखने में अपनी छोटी-सी आकृति के कारण वह बालिका-सी
लगती थी। उसकी तीनों सन्तानें बड़ी सुन्दर थीं। मिन्ना छह बरस का,
रज्जन चार का और कमलो दो की थी। कमलो सचमुच एक गुडिय़ा थी, कल्लू का
उससे इतना घना परिचय हो गया कि दोनों को एक दूसरे बिना चैन नहीं। मैं
सोचता था कि प्राणी क्या स्नेहमय ही उत्पन्न होता है। अज्ञात
प्रदेशों से आकर वह संसार में जन्म लेता है। फिर अपने लिए स्नेहमय
सम्बन्ध बना लेता है; किन्तु मैं सदैव इन बुरी बातों से भागता ही
रहा। इसे मैं अपना सौभाग्य कहूँ, या दुर्भाग्य?
इन्हीं कई दिनों में रामेश्वर के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह
उमड़ा कि मैं उसे एक क्षण छोड़ने के लिए प्रस्तुत न था। अब हम लोग साथ
बैठकर भोजन करते, साथ ही टहलने निकलते। बातों का तो अन्त ही न था।
कल्लू तीनों लडक़ों को बहलाये रहता। दुलारे खाने-पीने का प्रबन्ध कर
लेता। रामेश्वर से मेरी बातें होती और मालती चुपचाप सुना करती।
कभी-कभी बीच में कोई अच्छी-सी मीठी बात बोल भी देती।
और प्रज्ञासारथि को तो मानो एक पाठशाला ही मिल गई थी। वे
गार्हस्थ्य-जीवन का चुपचाप अच्छा-सा अध्ययन कर रहे थे।
एक दिन मैं बाजार से अकेला लौट रहा था। बंगले के पास मैं पहुँचा ही
था, कि लैला मुझे दिखाई पड़ी। वह अपने घोड़े पर सवार थी। मैं क्षण भर
तक विचारता रहा कि क्या करूँ। तब तक घोड़े से उतर कर वह मेरे पास चली
आई। मैं खड़ा हो गया था। उसने पूछा-बाबूजी, आप कहीं चले गये थे?
हाँ!
अब इस बँगले में आप नहीं रहते?
मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूँ, लैला। मैंने घबरा कर उससे कहा।
क्या बाबूजी?
वह चिट्ठी।
है मेरे ही पास, क्यों?
मैंने उसमें कुछ झूठ कहा था।
झूठ! लैला की आँखों से बिजली निकलने लगी थी।
हाँ लैला! उसमें रामेश्वर ने लिखा था कि मैं तुमको नहीं चाहता, मुझे
बाल-बच्चे हैं।
ऐं! तुम झूठे! दगाबाज! .... कहती हुई लैला अपनी छुरी की ओर देखती हुई
दाँत पीसने लगी।
मैंने कहा-लैला, तुम मेरा कसूर....।
तुम मेरे दिल से दिल्लगी करते थे! कितने रञ्ज की बात है! वह कुछ न कह
सकी। वहीं बैठकर रोने लगी। मैंने देखा कि यह बड़ी आफत है। कोई मुझे
इस तरह यहाँ देखेगा तो क्या कहेगा। मैं तुरन्त वहाँ से चल देना चाहता
था, किन्तु लैला ने आँसू भरी आँखों से मेरी ओर देखते हुए कहा-तुमने
मेरे लिए दुनिया में एक बड़ी अच्छी बात सुनाई थी। वह मेरी हँसी थी!
इसे जान कर आज मुझे इतना गुस्सा आता है कि मैं तुमको मार डालूँ या आप
ही मर जाऊँ।-लैला दाँत पीस रही थी। मैं काँप उठा-अपने प्राणों के भय
से नहीं किन्तु लैला के साथ अदृष्ट के खिलवाड़ पर और अपनी मूर्खता
पर। मैंने प्रार्थना के ढंग से कहा-लैला, मैंने तुम्हारे मन को ठेस
लगा दी है-इसका मुझे बड़ा दु:ख है। अब तुम उसको भूल जाओ।
तुम भूल सकते हो, मैं नहीं! मैं खून करूँगी!-उसकी आँखों से ज्वाला
निकल रही थी।
किसका, लैला! मेरा?
ओह नहीं, तुम्हारा नहीं, तुमने एक दिन मुझे सबसे बड़ा आराम दिया है।
हो, वह झूठा। तुमने अच्छा नहीं किया था, तो भी मैं तुमको अपना दोस्त
समझती हूँ।
तब किसका खून करोगी?
उसने गहरी साँस ले कर कहा-अपना या किसी..... फिर चुप हो गई। मैंने
कहा-तुम ऐसा न करोगी, लैला! मेरा और कुछ कहने का साहस नहीं होता था।
उसी ने फिर पूछा-वह जो तेज हवा चलती है, जिसमें बिजली चमकती है, बरफ
गिरती है, जो बड़े-बड़े पेड़ों को तोड़ डालती है।...हम लोगों के घरों
को उड़ा ले जाती है।
आँधी!-मैंने बीच ही में कहा।
हाँ, वही मेरे यहाँ चल रही है!-कहकर लैला ने अपनी छाती पर हाथ रख
दिया।
लैला!-मैंने अधीर होकर कहा।
मैं उसको एक बार देखना चाहती हूँ।-उसने भी व्याकुलता से मेरी ओर
देखते हुए कहा।
मैं उसे दिखा दूँगा; पर तुम उसकी कोई बुराई तो न करोगी?-मैंने कहा।
हुश!-कहकर लैला ने अपनी काली आँखें उठाकर मेरी ओर देखा।
मैंने कहा-अच्छा लैला! मैं दिखा दूँगा।
कल मुझसे यहीं मिलना। कहती हुई वह अपने घोड़े पर सवार हो गई। उदास
लैला के बोझ से वह घोड़ा भी धीरे-धीरे चलने लगा और लैला झुकी हुई-सी
उस पर मानो किसी तरह बैठी थी।
मैं वहीं थोड़ी देर तक खड़ा रहा। और फिर धीरे-धीरे अनिच्छापूर्वक
पाठशाला की ओर लौटा। प्रज्ञासारथि पीपल के नीचे शिलाखण्ड पर बैठे थे।
मिन्ना उनके पास खड़ा उनका मुँह देख रहा था। प्रज्ञासारथि की
रहस्यपूर्ण हँसी आज अधिक उदार थी। मैंने देखा कि वह उदासीन विदेशी
अपनी समस्या हल कर चुका है। बच्चों की चहल-पहल ने उसके जीवन में
वाञ्छित परिवर्तन ला दिया है। और मैं?
मैं कह चुका था, इसलिए दूसरे दिन लैला से भेंट करने पहुँचा। देखता
हूँ कि वह पहले ही से वहाँ बैठी है। निराशा से उदास उसका मुँह आज
पीला हो रहा था। उसने हँसने की चेष्टा नहीं की और न मैंने ही। उसने
पूछा-तो कब, कहाँ चलना होगा? मैं तो सूरत में उससे मिली थी! वहीं
उसने मेरी चिट्ठी का जवाब दिया था। अब कहाँ चलना होगा?
मैं भौंचक-सा हो गया। लैला को विश्वास था कि सूरत, बम्बई, काश्मीर वह
चाहे कहीं हो, मैं उसे लिवाकर चलूँगा ही। और रामेश्वर से भेंट करा
दूँगा। सम्भवत: उसने मेरे परिहास का दण्ड निर्धारित कर लिया था। मैं
सोचने लगा-क्या कहूँ।
लैला ने फिर कहा-मैं उसकी बुराई न करूँगी, तुम डरो मत।
मैंने कहा-वह यहीं आ गया है। उसके बाल-बच्चे सब साथ हैं! लैला, तुम
चलोगी?
वह एक बार सिर से पैर तक काँप उठी! और मैं भी घबरा गया। मेरे मन में
नई आशंका हुई। आज मैं क्या दूसरी भूल करने जा रहा हूँ? उसने सम्हलकर
कहा-हाँ चलूँगी, बाबू! मैंने गहरी दृष्टि से उसके मुँह की ओर देखा,
तो अन्धड़ नहीं, किन्तु एक शीतल मलय का व्याकुल झोंका उसकी घुँघराली
लटों के साथ खेल रहा था। मैंने कहा-अच्छा, मेरे पीछे-पीछे चलो आओ!
मैं चला और वह मेरे पीछे थी। जब पाठशाला के पास पहुँचा, तो मुझे
हारमोनियम का स्वर और मधुर आलाप सुनाई पड़ा। मैं ठिठककर सुनने
लगा-रमणी-कण्ठ की मधुर ध्वनि! मैंने देखा कि लैला की भी आँखे उस
संगीत के नशे में मतवाली हो चली हैं। उधर देखता हूँ तो कमलो को गोद
में लिये प्रज्ञासारथि भी झूम रहे हैं। अपने कमरे में मालती छोटे-से
सफरी बाजे पर पीलू गा रही है और अच्छी तरह गा रही है! रामेश्वर लेटा
हुआ उसके मुँह की ओर देख रहा है। पूर्ण तृप्ति! प्रसन्नता की माधुरी
दोनों के मुँह पर खेल रही है! पास ही रञ्जन और मिन्ना बैठे हुए अपने
माता और पिता को देख रहे हैं! हम लोगों के आने की बात कौन जानता है।
मैंने एक क्षण के लिए अपने को कोसा; इतने सुन्दर संसार में कलह की
ज्वाला जला कर मैं तमाशा देखने चला था। हाय रे-मेरा कुतूहल! और लैला
स्तब्ध अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से एकटक न जाने क्या देख रही थी। मैं
देखता था कि कमलो प्रज्ञासारथि की गोद से धीरे से खिसक पड़ी और
बिल्ली की तरह पैर दबाती हुई अपनी माँ की पीठ पर हँसती हुई गिर पड़ी,
और बोली-माँ! और गाना रुक गया। कमलो के साथ मिन्ना और रञ्जन भी हँस
पड़े। रामेश्वर ने कहा-कमलो, तू बली पाजी है ले! बा-पाजी-लाल-कहकर
कमलो ने अपनी नन्ही-सी उँगली उठाकर हम लोगों की ओर संकेत किया।
रामेश्वर तो उठकर बैठ गये। मालती ने मुझे देखते ही सिर का कपड़ा तनिक
आगे की ओर खींच लिया और लैला ने रामेश्वर को देखकर सलाम किया। दोनों
की आँखे मिलीं। रामेश्वर के मुँह पर पल भर के लिए एक घबराहट दिखाई
पड़ी। फिर उसने सम्हलकर पूछा-अरे लैला! तुम यहाँ कहाँ?
चारयारी न लोगे, बाबू?-कहती हुई लैला निर्भीक भाव से मालती के पास
जाकर बैठ गई।
मालती लैला पर एक सलज्ज मुस्कान छोड़ती हुई, उठ खड़ी हुई। लैला उसका
मुँह देख रही थी, किन्तु उस ओर ध्यान न देकर मालती ने मुझसे कहा-भाई
जी, आपने जलपान नहीं किया। आज तो आप ही के लिए मैंने सूरन के लड्डू
बनाये हैं।
तो देती क्यों नहीं पगली, मैं सवेरे से ही भूखा भटक रहा हूँ-मैंने
कहा। मालती जलपान ले आने गई। रामेश्वर ने कहा-चारयारी ले आई हो? लैला
ने हाँ कहते हुए अपना बेग खोला। फिर रुक कर उसने अपने गले से एक
ताबीज निकाला। रेशम से लिपटा हुआ चौकोर ताबीज का सीवन खोलकर उसने वह
चिठ्ठी निकाली। मैं स्थिर भाव से देख रहा था। लैला ने कहा-पहले
बाबूजी, इस चिठ्ठी को पढ़ दीजिए।-रामेश्वर ने कम्पित हाथों से उसको
खोला, वह उसी का लिखा हुआ पत्र था। उसने घबराकर लैला की ओर देखा।
लैला ने शान्त स्वरों में कहा-पढि़ए बाबू! मैं आप ही के मुँह से
सुनना चाहती हूँ।
रामेश्वर ने दृढ़ता से पढऩा आरम्भ किया। जैसे उसने अपने हृदय का
समस्त बल आनेवाली घटनाओं का सामना करने के लिए एकत्र कर लिया हो;
क्योंकि मालती जलपान लिये आ ही रही थी। रामेश्वर ने पूरा पत्र पढ़
लिया। केवल नीचे अपना नाम नहीं पढ़ा। मालती खड़ी सुनती रही और मैं
सूरन के लड्डू खाता रहा। बीच-बीच में मालती का मुँह देख लिया करता
था! उसने बड़ी गम्भीरता से पूछा-भाई जी, लड्डू कैसे हैं, यह तो आपने
बताया नहीं, धीरे से खा गये।
जो वस्तु अच्छी होती है, वही तो गले में धीरे से उतार ली जाती है।
नहीं तो कड़वी वस्तु के लिए, थू-थू न करना पड़ता। मैं कह ही रहा था
कि लैला ने रामेश्वर से कहा- ठीक तो! मैंने सुन लिया। अब आप उसको
फाड़ डालिए। तब आपको चारयारी दिखाऊँ।
रामेश्वर सचमुच पत्र फाड़ने लगा। चिन्दी-चिन्दी उस कागज के टुकड़े की
उड़ गई और लैला ने एक छिपी हुई गहरी साँस ली, किन्तु मेरे कोनों ने
उसे सुन ही लिया। वह तो एक भयानक आँधी से कम न थी। लैला ने सचमुच एक
सोने की चारयारी निकाली। उसके साथ एक सुन्दर मूँगे की माला। रामेश्वर
ने चारयारी लेकर देखा। उसने मालती से पचास के नोट देने के लिए कहा।
मालती अपने पति के व्यवसाय को जानती थी, उसने तुरन्त नोट दे दिये।
रामेश्वर ने जब नोट लैला की ओर बढ़ाये, तभी कमलो सामने आकर खड़ी हो
गई-बा..... लाल.....। रामेश्वर ने पूछा, क्या है रे कमलो?
पुतली-सी सुन्दर बालिका ने रामेश्वर के गालों को अपने छोटे से हाथों
से पकड़ कर कहा-लाला-लाल....
लैला ने नोट ले लिये थे। पूछा-बाबूजी! मूँगे की माला न लीजिएगा?
नहीं।
लैला ने माला उठाकर कमलो को पहना दी। रामेश्वर नहीं-नहीं कर ही रहा
था किन्तु उसने सुना नहीं! कमलो ने अपनी माँ को देखकर कहा
माँ....लाल....वह हँस पड़ी और कुछ नोट रामेश्वर को देते हुए बोली-तो
ले न लो, इसका भी दाम दे दो।
लैला ने तीव्र दृष्टि से मालती को देखा; मैं तो सहम गया था। मालती
हँस पड़ी। उसने कहा-क्या दाम न लोगी?
लैला, कमलो का मुँह चूमती हुई उठ खड़ी हुई। मालती अवाक्, रामेश्वर
स्तब्ध, किन्तु मैं प्रकृतिस्थ था।
लैला चली गई।
मैं विचारता रहा, सोचता रहा। कोई अन्त न था-ओर-छोर को पता नहीं।
लैला-प्रज्ञासारथि-रामेश्वर और मालती सभी मेरे सामने बिजली के
पुतलों-से चक्कर काट रहे थे। सन्ध्या हो चली थी, किन्तु मैं पीपल के
नीचे से उठ न सका। प्रज्ञासारथि अपना ध्यान समाप्त करके उठे।
उन्होंने मुझे पुकारा-श्रीनाथजी! मैंने हँसने की चेष्टा करते हुए
कहा-कहिए!
आज तो आप भी समाधिस्थ रहे।
तब भी इसी पृथ्वी पर था! जहाँ लालसा क्रन्दन करती है, दु:खानुभूति
हँसती है और नियति अपने मिट्टी के पुतलों के साथ अपना क्रूर मनोविनोद
करती है; किन्तु आप तो बहुत ऊँचे किसी स्वर्गीय भावना में.....
ठहरिये श्रीनाथजी! सुख और दु:ख, आकाश और पृथ्वी, स्वर्ग और नरक के
बीच में है वह सत्य, जिसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है।
मुझे क्षमा कीजिए! अन्तरिक्ष में उड़ने की मुझमें शक्ति नहीं है।
मैंने परिहास-पूर्वक कहा।
साधारण मन की स्थिति को छोड़ कर जब मनुष्य कुछ दूसरी बात सोचने के
लिए प्रयास करता है; तब क्या वह उड़ने का प्रयास नहीं? हम लोग कहने के
लिए द्विपद हैं, किन्तु देखिए तो जीवन में हम लोग कितनी बार उचकते
हैं, उड़ान भरते हैं। वही तो उन्नति की चेष्टा, जीवन के लिए संग्राम,
और भी क्या-क्या नाम से प्रशंसित नहीं होती? तो मैं भी इसकी निन्दा
नहीं करता; उठने की चेष्टा करनी चाहिए, किन्तु
आप यही न कहेंगे कि समझ-बूूझ कर एक बार उचकना चाहिए; किन्तु उस एक
बार को-उस अचूक अवसर को जानना सहज नहीं। इसीलिए तो मनुष्य को, जो
सबसे बुद्धिमान प्राणी है, बार-बार धोखा खाना पड़ता है। उन्नति को
उसने विभिन्न रूपों में अपनी आवश्यकताओं के साथ इतना मिलाया है कि
उसे सिद्धान्त बना लेना पड़ा है कि उन्नति का द्वन्द्व पतन ही है।
संयम का वज्र-गम्भीर नाद प्रकृति से नहीं सुनते हो? शारीरिक कर्म तो
गौण है, मुख्य संयम तो मानसिक है। श्रीनाथजी, आज लैला का वह मन का
संयम क्या किसी महानदी की प्रखर धारा के अचल बाँध से कम था? मैं तो
देखकर अवाक् था। आपकी उस समय विचित्र परिस्थिति रही। फिर भी कैसे सब
निर्विघ्न समाप्त हो गया। उसे सोचकर तो मैं अब भी चकित हो जाता हूँ;
क्या वह इस भयानक प्रतिरोध के धक्के को सम्हाल लेगी?
लैला के वक्ष:स्थल में कितना भीषण अन्धड़ चल रहा होगा, इसका अनुभव हम
लोग नहीं कर सकते! मैं अब भी इससे भयभीत हो रहा हूँ।
प्रज्ञासारथि चुप रहकर धीरे-धीरे कहने लगे-मैं तो कल जाऊँगा। यदि
तुम्हारी सम्मति हो, तो रामेश्वर को भी साथ चलने के लिए कहूँ। बम्बई
तक हम लोगों का साथ रहेगा और मालती इस भयावनी छाया से शीघ्र ही दूर
हट जायगी! फिर तो सब कुशल ही है। ....
मेरे त्रस्त मन को शरण मिली। मैंने कहा-अच्छी बात है। प्रज्ञासारथि
उठ गये। मैं वहीं बैठा रहा, और भी बैठा रहता, यदि मिन्ना और रञ्जन की
किलकारी और रामेश्वर की डाँट-डपट-मालती की कलछी की खट-खट का कोलाहल
जोर न पकड़ लेता और कल्लू सामने आकर न खड़ा हो जाता।
प्रज्ञासारथि, रामेश्वर और मालती को गये एक सप्ताह से ऊपर हो गया।
अभी तक उस वास्तविक संसार का कोलाहल सुदूर से आती हुई मधुर संगीत की
प्रतिध्वनि के समान मेरे कानों में गूँज रहा था। मैं अभी तक उस
मादकता को उतार न सका था। जीवन में पहले की-सी निश्चिन्तता का विराग
नहीं, न तो वह बे-परवाही रही। मैं सोचने लगा कि अब मैं क्या करूँ?
कुछ करने की इच्छा क्यों? मन के कोने से चुटकी लेते कौन पूछ बैठा?
किये बिना तो रहा नहीं जाता।
करो भी, पाठशाला से क्या मन ऊब चला?
उतने से सन्तोष नहीं होता।
और क्या चाहिए?
यही तो समझ नहीं सका, नहीं तो यह प्रश्न ही क्यों करता कि-अब मैं
क्या करूँ-मैंने झुँझला कर कहा। मेरी बातों का उत्तर लेने-देनेवाला
मुस्करा कर हट गया। मैं चिन्ता के अन्धकार में डूब गया! वह मेरी ही
गहराई थी, जिसकी मुझे थाह न लगी। मैं प्रकृतिस्थ हुआ कब, जब एक उदास
और ज्वालामयी तीव्र दृष्टि मेरी आँखों में घुसने लगी। अपने उस
अन्धकार में मैंने एक ज्योति देखी।
मैं स्वीकार करूँगा कि वह लैला थी, इस पर हँसने की इच्छा हो तो हँस
लीजिए, किन्तु मैं लैला को पा जाने के लिए विकल नहीं था, क्योंकि
लैला जिसको पाने की अभिलाषा करती थी, वही उसे न मिला। और परिणाम ठीक
मेरी आँखों के सामने था। तब? मेरी सहानुभूति क्यों जगी? हाँ, वह
सहानुभूति थी। लैला जैसे दीर्घ पथ पर चलने वाले मुझ पथिक की
चिरसंगिनी थी।
उस दिन इतना ही विश्वास करके मुझे सन्तोष हुआ।
रात को कलुआ ने पूछा-बाबूजी! आप घर न चलिएगा। मैं आश्चर्य से उसकी ओर
देखने लगा। उसने हठ-भरी आँखों से फिर वही प्रश्न किया। मैंने हँस कर
कहा-मेरा घर तो यही है रे कलुआ!
नहीं बाबूजी! जहाँ मिन्ना गये हैं। जहाँ रञ्जन और जहाँ कमलो गई है,
वहीं तो घर है।
जहाँ बहूजी गई हैं-जहाँ बाबाजी....हठात् प्रज्ञासारथि का मुझे स्मरण
हो आया। मुझे क्रोध में कहना पड़ा-कलुआ, मुझे और कहीं घर-वर नहीं है।
फिर मन-ही-मन कहा-इस बात को वह बौद्ध समझता था-
‘‘हूँ, सबको घर है, बाबाजी को, बहूजी को, मिन्ना को-सबको है, आपको
नहीं है?’’ उसने ठुनकते हुए कहा।
किन्तु मैं अपने ऊपर झुँझला रहा था। मैंने कहा-बकवाद न कर, जा सो रह,
आज-कल तू पढ़ता नहीं।
कलुआ सिर झुकाये-व्यथा-भरे वक्ष:स्थल को दबाये अपने बिछौने पर जा
पड़ा। और मैं उस निस्तब्ध रात्रि में जागता रहा! खिडक़ी में से झील का
आन्दोलित जल दिखाई पड़ रहा था और मैं आश्चर्य से अपना ही बनाया हुआ
चित्र उसमें देख रहा था। चंदा के प्रशान्त जल में एक छोटी-सी नाव
है, जिस पर मालती, रामेश्वर बैठे थे और मै डाँड़ा चला रहा था।
प्रज्ञासारथि तीर पर खड़े बच्चों को बहला रहे थे। हम लोग उजली चाँदनी
में नाव खेते चले जा रहे थे। सहसा चित्र में एक और मूर्ति का
प्रादुर्भाव हुआ। वह थी लैला! मेरी आँखे तिलमिला गई।
मैं जागता था-सोता था।
सवेरा हो गया था। नींद से भरी आँखे नहीं खुलती थीं, तो भी बाहर के
कोलाहल ने मुझे जगा दिया। देखता हूँ, तो ईरानियों का एक झुण्ड बाहर
खड़ा है।
मैंने पूछा-क्या है?
गुल ने कहा-यहाँ का पीर कहाँ है?
पीर!-मैंने आश्चर्य से पूछा।
हाँ वही, जो पीला-पीला कपड़ा पहनता था।
मैं समझ गया, वे लोग प्रज्ञासारथि को खोजते थे। मैंने कहा-वह तो यहाँ
नहीं है, अपने घर गये। काम क्या है?
एक लडक़ी को हवा लगी है, यहीं का कोई आसेब है। पीर को दिखलाना चाहती
हूँ।-एक अधेड़ स्त्री ने बड़ी व्याकुलता से कहा।
मैंने पूछा-भाई! मैं तो यह सब कुछ नहीं जानता। वह लडक़ी कहाँ है?
पड़ाव पर, बाबूजी! आप चलकर देख लीजिए।
आगे वह कुछ न बोल सकी। किन्तु गुल ने कहा-बाबू! तुम जानते हो,
वही-लैला!
आगे मैं न सुन सका। अपनी ही अन्तध्र्वनि से मैं व्याकुल हो गया। यही
तो होता है, किसी के उजड़ने से ही दूसरा बसता है। यदि यही विधि-विधान
है, तो बसने का नाम उजडऩा ही है। यदि रामेश्वर, मालती और अपने
बाल-बच्चों की चिन्ता छोड़कर लैला को ही देखता, तभी...किन्तु वैसा हो
कैसे सकता है। मैंने कल्पना की आँखों से देखा; लैला का विवर्ण सुन्दर
मुख-निराशा की झुलस से दयनीय मुख!
उन ईरानियों से फिर बात न करके मैं भीतर चला गया और तकिये में अपना
मुँह छिपा लिया। पीछे सुना, कलुआ डाँट बताता हुआ कह रहा है-जाओ-जाओ,
यहाँ बाबा जी नहीं रहते!
मैं लडक़ों को पढ़ाने लगा। कितना आश्चर्यजनक भयानक परिवर्तन मुझमें हो
गया! उसे देखकर मैं ही विस्मित होता था। कलुआ इन्हीं कई महीनों में
मेरा एकान्त साथी बन गया। मैंने उसे बार-बार समझाया, किन्तु वह
बीच-बीच में मुझसे घर चलने के लिए कह बैठता ही था। मैं हताश हो गया।
अब वह जब घर चलने की बात कहता, तो मैं सिर हिलाकर कह देता-अच्छा, अभी
चलूँगा।
दिन इसी तरह बीतने लगे। बसन्त के आगमन से प्रकृति सिहर उठी।
वनस्पतियों की रोमावली पुलकित थी। मैं पीपल के नीचे उदास बैठा हुआ
ईषत् शीतल पवन से अपने शरीर में फुरहरी का अनुभव कर रहा था। आकाश की
आलोक-माला चंदा की वीचियों में डुबकियाँ लगा रही थी। निस्तब्ध
रात्रि का आगमन बड़ा गम्भीर था।
दूर से एक संगीत की-नन्ही-नन्ही करुण वेदना की तान सुनाई पड़ रही थी।
उस भाषा को मैं नहीं समझता था। मैंने समझा, यह भी कोई छलना होगी। फिर
सहसा मैं विचारने लगा कि नियति भयानक वेग से चल रही है। आँधी की तरह
उसमें असंख्य प्राणी तृण-तूलिका के समान इधर-उधर बिखर रहे हैं। कहीं
से लाकर किसी को वह मिला ही देती है और ऊपर से कोई बोझे की वस्तु भी
लाद देती है कि वे चिरकाल तक एक दूसरे से सम्बद्ध रहें। सचमुच!
कल्पना प्रत्यक्ष हो चली। दक्षिण का आकाश धूसर हो चला-एक दानव ताराओं
को निगलने लगा। पक्षियों का कोलाहल बढ़ा। अन्तरिक्ष व्याकुल हो उठा!
कड़कड़ाहट में सभी आश्रय खोजने लगे; किन्तु मैं कैसे उठता! वह संगीत
की ध्वनि समीप आ रही थी। वज्रनिर्घोष को भेद कर कोई कलेजे से गा रहा
था। अन्धकार के साम्राज्य में तृण, लता, वृक्ष सचराचर कम्पित हो रहे
थे।
कलुआ की चीत्कार सुन कर भीतर चला गया। उस भीषण कोलाहल में भी वही
संगीत-ध्वनि पवन के हिण्डोले पर झूल रही थी, मानो पाठशाला के चारों
ओर लिपट रही थी। सहसा एक भीषण अर्राहट हुई। अब मैं टार्च लिये बाहर आ
गया।
आँधी रुक गई थी। मैंने देखा पीपल कि बड़ी-सी डाल फटी पड़ी है और लैला
नीचे दबी हुई अपनी भावनाओं की सीमा पार कर चुकी है।
मैं अब भी चंदा-तट की बौद्ध पाठशाला का अवैतनिक अध्यक्ष हूँ।
प्रज्ञासारथि के नाम को कोसता हुआ दिन बिताता हूँ। कोई उपाय नहीं।
वहीं जैसे मेरे जीवन का केन्द्र है।
आज भी मेरे हृदय में आँधी चला करती है और उसमें लैला का मुख बिजली की
तरह कौंधा करता है।
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