उसके जाल में सीपियाँ उलझ गयी थीं। जग्गैया से उसने कहा-‘‘इसे फैलाती
हूँ, तू सुलझा दे।’’
जग्गैया ने कहा-‘‘मैं क्या तेरा नौकर हूँ?’’
कामैया ने तिनककर अपने खेलने का छोटा-सा जाल और भी बटोर लिया।
समुद्र-तट के छोटे-से होटल के पास की गली से अपनी झोपड़ी की ओर चली
गयी।
जग्गैया उस अनखाने का सुख लेता-सा गुनगुनाकर गाता हुआ, अपनी खजूर की
टोपी और भी तिरछी करके, सन्ध्या की शीतल बालुका को पैरों से उछालने
लगा।
-- --
दूसरे दिन, जब समुद्र में स्नान करने के लिए यात्री लोग आ गये थे;
सिन्दूर-पिण्ड-सा सूर्य समुद्र के नील जल में स्नान कर प्राची के
आकाश में ऊपर उठ रहा था; तब कामैया अपने पिता के साथ धीवरों के झुण्ड
में खड़ी थी; उसके पिता की नावें समुद्र की लहरों पर उछल रही थीं।
महाजाल पड़ा था, उसे बहुत-से धीवर मिलकर खींच रहे थे। जग्गैया ने आकर
कामैया की पीठ में उँगली गोद दी। कामैया कुछ खिसककर दूर जा खड़ी हुई।
उसने जग्गैया की ओर देखा भी नहीं।
जग्गैया को केवल माँ थी, वह कामैया के पिता के यहाँ लगी-लिपटी रहती,
अपना पेट पालती थी। वह बेंत की दौरी लिये वहीं खड़ी थी। कामैया की
मछलियाँ ले जाकर बाजार में बेचना उसी का काम था।
जग्गैया नटखट था। वह अपनी माँ को वहीं देखकर और हट गया; किन्तु
कामैया की ओर देखकर उसने मन-ही-मन कहा-अच्छा।
-- --
महाजाल खींचकर आया। कुछ तो मछलियाँ थीं ही; पर उसमें एक भीषण समुद्री
बाघ भी था। दर्शकों के झुण्ड जुट पड़े। कामैया के पिता से कहा गया
उसे जाल में से निकालने के लिए, जिसमें प्रकृति की उस भीषण कारीगरी
को लोग भली-भाँति देख सकें।
लोभ संवरण न करके उसने समुद्री बाघ को जाल से निकाला। एक खूँटे से
उसकी पूँछ बाँध दी गयी। जग्गैया की माँ अपना काम करने की धुन में जाल
में मछलियाँ पकड़कर दौरी में रख रही थी। समुद्री बाघ बालू की विस्तृत
बेला में एक बार उछला। जग्गैया की माता का हाथ उसके मुँह में चला
गया। कोलाहल मचा; पर बेकार! बेचारी का एक हाथ वह चबा गया।
दर्शक लोग चले गये। जग्गैया अपनी मूर्च्छित माता को उठाकर झोपड़ी में
जब ले चला, तब उसके मन में कामैया के पिता के लिए असीम क्रोध और
दर्शकों के लिए घोर प्रतिहिंसा उद्वेलित हो रही थी। कामैया की आँखों
से आँसू बह रहे थे। तब भी वह बोली नहीं।
-- --
कई सप्ताह से महाजाल में मछलियाँ नहीं के बराबर फँस रही थीं। चावलों
की बोझाई तो बन्द थी ही, नावें बेकार पड़ी रहती थीं। मछलियों का
व्यवसाय चल रहा था; वह भी डावाँडोल हो रहा था। किसी देवता की अकृपा
है क्या?
कामैया के पिता ने रात को पूजा की। बालू की वेदियों के पास खजूर की
डालियाँ गड़ी थीं। समुद्री बाघ के दाँत भी बिखरे थे। बोतलों में
मदिरा भी पुजारियों के समीप प्रस्तुत थी। रात में समुद्र-देवता की
पूजा आरम्भ हुई
जग्गैया दूर-जहाँ तक समुद्र की लहरें आकर लौट जाती हैं, वहीं-बैठा
हुआ चुपचाप उस अनन्त जलराशि की ओर देख रहा था, और मन में सोच रहा
था-क्यों मेरे पास एक नाव न रही? मैं कितनी मछलियाँ पकड़ता; आह! फिर
मेरी माता को इतना कष्ट क्यों होता। अरे! वह तो मर रही है; मेरे लिए
इसी अन्धकार-सा दारिद्र्य छोड़कर! तब भी देखें, भाग्य-देवता क्या करते
हैं। इसी रग्गैया की मजूरी करने से तो वह मर रही है।
उसके क्रोध का उद्वेग समुद्र-सा गर्जन करने लगा।
-- --
पूजा समाप्त करके मदिरारुण नेत्रों से घूरते हुए पुजारी ने
कहा-‘‘रग्गैया! तुम अपना भला चाहते हो, तो जग्गैया के कुटुम्ब से कोई
सम्बन्ध न रखना। समझा न?’’
उधर जग्गैया का क्रोध अपनी सीमा पार कर रहा था। उसकी इच्छा होती थी
कि रग्गैया का गला घोंट दे किन्तु वह था निर्बल बालक। उसके सामने से
जैसे लहरें लौट जाती थीं, उसी तरह उसका क्रोध मूर्च्छित होकर
गिरता-सा प्रत्यावर्तन करने लगा। वह दूर-ही-दूर अन्धकार में झोपड़ी
की ओर लौट रहा था।
सहसा किसी का कठोर हाथ उसके कन्धे पर पड़ा। उसने चौंककर कहा-‘‘कौन?’’
मदिरा-विह्वल कण्ठ से रग्गैया ने कहा-‘‘तुम मेरे घर कल से न आना।’’
जग्गैया वहीं बैठ गया। वह फूट-फूटकर रोना चाहता था; परन्तु अन्धकार
उसका गला घोंट रहा था। दारुण क्षोभ और निराशा उसके क्रोध को उत्तेजित
करती रही। उसे अपनी माता के तत्काल न मर जाने पर झुँझलाहट-सी हो रही
थी। समीर अधिक शीतल हो चला। प्राची का आकाश स्पष्ट होने लगा; पर
जग्गैया का अदृष्ट तमसाच्छन्न था।
-- --
कामैया ने धीरे-धीरे आकर जग्गैया की पीठ पर हाथ रख दिया। उसने घूमकर
देखा। कामैया की आँखों में आँसू भरा था। दोनों चुप थे।
कामैया की माता ने पुकारकर कहा-‘‘जग्गैया! तेरी माँ मर गयी। इसको अब
ले जा।’’
जग्गैया धीरे-धीरे उठा और अपनी माता के शव के पास खड़ा हो गया। अब
उसके मुख पर हर्ष-विषाद, सुख-दु:ख कुछ भी नहीं था। उससे कोई बोलता न
था और वह भी किसी से बोलना नहीं चाहता था; किन्तु कामैया
भीतर-ही-भीतर फूट-फूटकर रो रही थी; पर वह बोले कैसे? उससे तो अनबोला
था न!
-- |