वनस्थली के रंगीन संसार में अरुण किरणों ने इठलाते हुए पदार्पण किया
और वे चमक उठीं, देखा तो कोमल किसलय और कुसुमों की पंखुरियाँ,
बसन्त-पवन के पैरों के समान हिल रही थीं। पीले पराग का अंगराग लगने
से किरणें पीली पड़ गई। बसन्त का प्रभात था।
युवती कामिनी मालिन का काम करती थी। उसे और कोई न था। वह इस
कुसुम-कानन से फूल चुन ले जाती और माला बनाकर बेचती। कभी-कभी उसे
उपवास भी करना पड़ता। पर, वह यह काम न छोड़ती। आज भी वह फूले हुए
कचनार के नीचे बैठी हुई, अर्द्ध-विकसित कामिनी-कुसुमों को बिना बेधे
हुए, फन्दे देकर माला बना रही थी। भँवर आये, गुनगुनाकर चले गये।
बसन्त के दूतों का सन्देश उसने न सुना। मलय-पवन अञ्चल उड़ाकर, रूखी
लटों को बिखराकर, हट गया। मालिन बेसुध थी, वह फन्दा बनाती जाती थी और
फूलों को फँसाती जाती थी।
द्रुत-गति से दौड़ते हुए अश्व के पद-शब्द ने उसे त्रस्त कर दिया। वह
अपनी फूलों की टोकरी उठाकर भयभीत होकर सिर झुकाये खड़ी हो गई।
राजकुमार आज अचानक उधर वायु-सेवन के लिये आ गये थे। उन्होंने दूर ही
से देखा, समझ गये कि वह युवती त्रस्त है। बलवान अश्व वहीं रुक गया।
राजकुमार ने पूछा-‘‘तुम कौन हो?’’
कुरंगी कुमारी के समान बड़ी-बड़ी आँखे उठाकर उसने कहा-‘‘मालिन!’’
‘‘क्या तुम माला बनाकर बेचती हो?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘यहाँ का रक्षक तुम्हें रोकता नहीं?’’
‘‘नहीं, यहाँ कोई रक्षक नहीं है।’’
‘‘आज तुमने कौन-सी माला बनाई है?’’
‘‘यही कामिनी की माला बना रही थी।’’
‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘कामिनी।’’
‘‘वाह! अच्छा, तुम इस माला को पूरी करो, मैं लौटकर-उसे लूँगा।’’ डरने
पर भी मालिन ढीठ थी। उसने कहा-‘‘धूप निकल आने पर कामिनी का सौरभ कम
हो जायगा।’’
‘‘मैं शीघ्र आऊँगा’’-कहकर राजकुमार चले गये।
मालिन ने माला बना डाली। किरणें प्रतीक्षा में लाल-पीली होकर धवल हो
चलीं। राजकुमार लौटकर नहीं आये। तब उसी ओर चली-जिधर राजकुमार गये थे।
युवती बहुत दूर न गई होगी कि राजकुमार लौटकर दूसरे मार्ग से उसी
स्थान पर आये। मालिन को न देखकर पुकारने लगे-‘‘मालिन! ओ मालिन!’’
दूरागत कोकिल की पुकार-सा वह स्वर उसके कान में पड़ा था। वह लौट आई।
हाथों में कामिनी की माला लिये वह वन-लक्ष्मी के समान लौटी। राजकुमार
उसी दिन-सौन्दर्य को सकुतूहल देख रहे थे। कामिनी ने माला गले में
पहना दी। राजकुमार ने अपना कौशेय उष्णीश खोलकर मालिन के ऊपर फेंक
दिया। कहा-‘‘जाओ, इसे पहनकर आओ।’’ आश्चर्य और भय से लताओं की झुरमुट
में जाकर उसने आज्ञानुसार कौशेय वसन पहना।
बाहर आई, तो उज्ज्वल किरणें उसके अंग-अंग पर हँसते-हँसते लोट-पोट हो
रही थीं। राजकुमार मुस्कराये और कहा-‘‘आज से तुम इस कुसुम-कानन की
वन-पालिका हुई हो। स्मरण रखना।’’
राजकुमार चले गये। मालिन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मधूक-वृक्ष के नीचे
बैठ गई।
2
बसन्त बीत गया। गर्मी जलाकर चली गई। कानन में हरियाली फैल रही थी।
श्यामल घटायें आकाश में और शस्य-शोभा धरणी पर एक सघन-सौन्दर्य का
सृजन कर रही थी। वन-पालिका के चारों ओर मयूर घेरकर नाचते थे। सन्ध्या
में एक सुन्दर उत्सव हो रहा था। रजनी आई। वन-पालिका के कुटीर को तम
ने घेर लिया। मूसलाधार वृष्टि होने लगी। युवती प्रकृति का मद-विह्वल
लास्य था। वन-पालिका पर्ण-कुटीर के वातायन से चकित होकर देख रही थी।
सहसा बाहर कम्पित कण्ठ से शब्द हुआ-‘‘आश्रय चाहिए!’’ वन-पालिका ने
कहा-‘‘तुम कौन हो?’’
‘‘एक अपराधी।’’
‘‘तब यहाँ स्थान नहीं है।’’
‘‘विचार कर उत्तर दो, कहीं आश्रय न देकर तुम अपराध न कर बैठो।’’
वन-पालिका विचारने लगी। बाहर से फिर सुनाई पड़ा-‘‘विलम्ब होने से
प्राणों की आशंका है।’’
वन-पालिका निस्संकोच उठी और उसने द्वार खोल दिया। आगन्तुक ने भीतर
प्रवेश किया। वह एक बलिष्ठ युवक था, साहस उसकी मुखाकृति थी।
वन-पालिका ने पूछा-‘‘तुमने कौन-सा अपराध किया है?’’
‘‘बड़ा भारी अपराध है, प्रभात होने पर सुनाऊँगा। इस रात्रि में केवल
आश्रय दो।’’-कहकर आगन्तुक अपना आद्र्र वस्त्र निचोड़ने लगा। उसका स्वर
विकृत और वदन नीरस था। अन्धकार ने उसे और भी अस्पष्ट बना दिया था।
युवती वन-पालिका व्याकुल होकर प्रभात की प्रतीक्षा करने लगी। सहसा
युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। वह त्रस्त हो गई, बोली-‘‘अपराधी, यह
क्या?’’
‘‘अपराधी हूँ सुन्दरी!’’-अबकी बार उसका स्वर परिवर्तित था। पागल
प्रकृति पर्णकुटी को घेरकर अपनी हँसी में फूटी पड़ती थी। वह करस्पर्श
उन्मादकारी था। कामिनी की धमनियों में बाहर के बरसाती नालों के समान
रक्त दौड़ रहा था। युवक के स्वर में परिचय था, परन्तु युवती की वासना
के कुतूहल ने भय का बहाना खोज लिया! बाहर करकापात के साथ ही बिजली
कडक़ी। वन-पालिका ने दूसरा हाथ युवक के कण्ठ में डाल दिया।
अन्धकार हँसने लगा।
3
बहुत दिन बीत गये। कितने ही बरस आये और चले गये। वह
कुसुम-कानन-जिसमें मोर, शुक और पिक, फूलों से लदी झाड़ियों में विहार
करते थे, अब एक जंगल हो गया। अब राजकुमार वहाँ नहीं आते थे। अब वे
स्वयं राजा हैं। सुकुमार पौदे सूख गये। विशालकाय वृक्षों ने अपनी
शाखाओं से जकड़ लिया। उस गहन वन में एक कोने में पर्णकुटी थी, उसमें
एक स्त्री और उसका पुत्र, दोनो रहते थे।
दोनों बहेलियों का व्यवसाय करते; उसी से उनका जीवन-निर्वाह होता।
पक्षियों को फँसाकर नागरिकों के हाथ वह बालक बेचा करता, कभी-कभी
मृग-शावक भी पकड़ ले आता।
एक दिन वन-पालिका का पुत्र एक सुन्दर कुरंग पकड़कर नगर की ओर बेचने के
लिए ले गया। उसकी पीठ पर बड़ी अच्छी बूटियाँ थीं। वह दर्शनीय था।
राजा का पुत्र अपने टट्टू पर चढक़र घूमने निकला था, उसके रक्षक साथ
थे। राजपुत्र मचल गया। किशोर मूल्य माँगने लगा। रक्षकों ने कुछ देकर
उसे छीन लेना चाहा। किशोर ने कुरंग का फन्दा ढीला कर दिया। वह छलाँग
भरता हुआ निकल गया। राजपुत्र अत्यन्त हठी था, वह रोने लगा। रक्षकों
ने किशोर को पकड़ लिया। वे उसे राजमन्दिर की ओर ले चले।
वातायन से रानी ने देखा, उसका लाल रोता हुआ लौट रहा है। एक आँधी-सी आ
गई। रानी ने समाचार सुनकर उस बहेलिये के लड़के को बेंतों से पीटे जाने
की आज्ञा दी।
किशोर ने बिना रोये-चिल्लाये और आँसू बहाये बेंतों की चोट सहन की।
उसका सारा अंग क्षत-विक्षत था, पीड़ा से चल नहीं सकता था। मृगया से
लौटते हुए राजा ने देखा। एक बार दया तो आई, परन्तु उसका कोई उपयोग न
हुआ। रानी की आज्ञा थी। वन-पालिका ने राजा के निकल जाने पर किशोर को
गोद में उठा लिया। अपने आँसुओं से घाव धोती हुई, उसने कहा-‘‘आह! वे
कितने निर्दयी हैं!’’
फिर कई वर्ष बीत गये। नवीन राजपुत्र को मृगया की शिक्षा के लिए,
लक्ष्य साधने के लिए, वही नगरोपकण्ठ का वन स्थिर हुआ। वहाँ राजपुत्र
हिरणों पर, पक्षियों पर तीर चलाता। वन-पालिका को अब फिर कुछ लाभ होने
लगा। हिरणों को हाँकने से पक्षियों का पता बताने से, कुछ मिल जाता
है। परन्तु उसका पुत्र किशोर राजकुमार की मृगया में भाग न लेता।
एक दिन बसन्त की उजली धूप में राजा अपने राजपुत्र की मृगया-परीक्षा
लेने के लिए, सोलह बरस बाद, उस जंगल में आये। राजा का मुँह एक बार
विवर्ण हो गया। उस कुसुम कानन के सभी सुकुमार पौधे सूखकर लोप हो गये
हैं। उनकी पेड़ियों में कहीं-कहीं दो-एक अंकुर निकल कर अपने प्राचीन
बीज का निर्देश करते थे। राजा स्वप्न के समान उस अतीत की कल्पना कर
रहे थे।
अहेरियों के वेश में राजपुत्र और उसके समवयस्क जंगल में आये। किशोर
भी अपना धनुष लिये एक ओर खड़ा था। कुरंग पर तीर छूटे। किशोर का तीर
कुरंग के कण्ठ को बेधकर राजपुत्र की छाती में घुस गया। राजपुत्र अचेत
होकर गिर पड़ा। किशोर पकड़ लिया गया।
इधर वन-पालिका राजा के आने का समाचार सुनकर फूल खोजने लगी थी। उस
जंगल में अब कामिनी-कुसुम नहीं थे। उसने मधूक और दूर्वा की सुन्दर
माला बनाई, यही उसे मिले थे।
राजा क्रोध से उन्मत्त थे। प्रतिहिंसा से कड़ककर बोले-मारो!-बधिकों के
तीर छूटे? वह कमनीय-कलेवर किशोर पृथ्वी पर लोटने लगा। ठीक उसी समय
मधूक-मालिका लिये वन-पालिका राजा के सामने पहुँची।
कठोर नियति जब अपना विधान पूर्ण कर चुकी थी, तब कामिनी किशोर के शव
के पास पहुँची! पागल-सी उसने माला राजा के ऊपर फेंकी और किशोर को गोद
में बैठा लिया। उसकी निश्चेष्ट आँखे मौन भाषा में जैसे माँ-माँ कह
रही थीं! उसने हृदय में घुस जानेवाली आँखों से एक बार राजा की ओर
देखा। और भी देखा-राजपुत्र का शव!
राजा एक बार आकाश और पृथ्वी के बीच में हो गये। जैसे वह कहाँ-से-कहाँ
चले आये। राजपुत्र का शोक और क्रोध, वेग से बहती हुई बरसाती नदी की
धारा में बुल्ले के समान बह गया। उनका हृदय विषय-शून्य हो गया। एक
बार सचेत होकर उन्होंने देखा और पहचाना-अपना वही-‘‘जीर्ण कौशेय
उष्णीश।’’-‘‘वन-पालिका!’’
‘‘राजा’’-कामिनी की आँखों में आँसू नहीं थे।
‘‘यह कौन था?’’
गम्भीर स्वर में सर नीचा किये वन-पालिका ने कहा-‘‘अपराधी।’’
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