‘‘बाबूजी, एक पैसा!’’
मैं सुनकर चौंक पड़ा, कितनी कारुणिक आवाज थी। देखा तो एक
9-10 बरस का
लडक़ा अन्धे की लाठी पकड़े खड़ा था। मैंने कहा-सूरदास, यह तुमको कहाँ
से मिल गया?
अन्धे को अन्धा न कह कर सूरदास के नाम से पुकारने की चाल मुझे भली
लगी। इस सम्बोधन में उस दीन के अभाव की ओर सहानुभूति और सम्मान की
भावना थी, व्यंग न था।
उसने कहा-बाबूजी, यह मेरा लडक़ा है-मुझ अन्धे की लकड़ी है। इसके रहने
से पेट भर खाने को माँग सकता हूँ और दबने-कुचलने से भी बच जाता हूँ।
मैंने उसे इकन्नी दी, बालक ने उत्साह से कहा-अहा इकन्नी! बुड्ढे ने
कहा-दाता, जुग-जुग जियो!
मैं आगे बढ़ा और सोचता जाता था, इतने कष्ट से जो जीवन बिता रहा है,
उसके विचार में भी जीवन ही सबसे अमूल्य वस्तु है, हे भगवान्!
दीनानाथ करी क्यों देरी?-दशाश्वमेध की ओर जाते हुए मेरे कानों में एक
प्रौढ़ स्वर सुनाई पड़ा। उसमें सच्ची विनय थी-वही जो तुलसीदास की
विनय-पत्रिका में ओत-प्रोत है। वही आकुलता, सान्निध्य की पुकार,
प्रबल प्रहार से व्यथित की कराह! मोटर की दम्भ भरी भीषण भों-भों में
विलीन होकर भी वायुमण्डल में तिरने लगी। मैं अवाक् होकर देखने लगा,
वही बुड्ढा! किन्तु आज अकेला था। मैंने उसे कुछ देते हुए
पूछा-क्योंजी, आज वह तुम्हारा लडक़ा कहाँ है?
बाबूजी, भीख में से कुछ पैसा चुरा कर रखता था, वही लेकर भाग गया, न
जाने कहाँ गया!-उन फूटी आँखों से पानी बहने लगा। मैंने पूछा-उसका पता
नहीं लगा? कितने दिन हुए?
लोग कहते हैं कि वह कलकत्ता भाग गया! उस नटखट लड़के पर क्रोध से भरा
हुआ मैं घाट की ओर बढ़ा, वहाँ एक व्यास जी श्रवण-चरित की कथा कह रहे
थे। मैं सुनते-सुनते उस बालक पर अधिक उत्तेजित हो उठा। देखा तो पानी
की कल का धुआँ पूर्व के आकाश में अजगर की तरह फैल रहा था।
कई महीने बीतने पर चौक में वही बुड्ढा दिखाई पड़ा, उसकी लाठी पकड़े
वही लडक़ा अकड़ा हुआ खड़ा था। मैंने क्रोध से पूछा-क्यों बे, तू अन्धे
पिता को छोड़कर कहाँ भागा था? वह मुस्कराते हुए बोला-बाबू जी, नौकरी
खोजने गया था। मेरा क्रोध उसकी कर्तव्य-बुद्धि से शान्त हुआ। मैंने
उसे कुछ देते हुए कहा-लड़के, तेरी यही नौकरी है, तू अपने बाप को छोड़कर
न भागा कर।
बुड्ढा बोल उठा-बाबूजी, अब यह नहीं भाग सकेगा, इसके पैरों में बेड़ी
डाल दी गई है। मैंने घृणा और आश्चर्य से देखा, सचमुच उसके पैरों में
बेड़ी थी। बालक बहुत धीरे-धीरे चल सकता था। मैंने मन-ही-मन कहा-हे
भगवान्, भीख मँगवाने के लिए, बाप अपने बेटे के पैर में बेड़ी भी डाल
सकता है और वह नटखट फिर भी मुस्कराता था। संसार, तेरी जय हो!
मैं आगे बढ़ गया।
मैं एक सज्जन की प्रतीक्षा में खड़ा था, आज नाव पर घूमने का उनसे
निश्चय हो चुका था। गाड़ी, मोटर, ताँगे टकराते-टकराते भागे जा रहे
थे, सब जैसे व्याकुल। मैं दार्शनिक की तरह उनकी चञ्चलता की आलोचना कर
रहा था! सिरस के वृक्ष की आड़ में फिर वही कण्ठ-स्वर सुनायी पड़ा।
बुड्ढे ने कहा-बेटा, तीन दिन और न ले पैसा, मैंने रामदास से कहा है
सात आने में तेरा कुरता बन जायगा, अब ठण्ड पड़ने लगी है। उसने ठुनकते
हुए कहा-नहीं, आज मुझे दो पैसा दो, मैं कचालू खाऊँगा, वह देखो उस
पटरी पर बिक रहा है। बालक के मुँह और आँख में पानी भरा था। दुर्भाग्य
से बुड्ढा उसे पैसा नहीं दे सकता था। वह न देने के लिए हठ करता ही
रहा; परन्तु बालक की ही विजय हुई। वह पैसा लेकर सड़क की उस पटरी पर
चला। उसके बेड़ी से जकड़े हुए पैर पैंतरा काट कर चल रहे थे। जैसे
युद्ध-विजय के लिए।
नवीन बाबू चालिस मील की स्पीड से मोटर अपने हाथ से दौड़ा रहे थे।
दर्शकों की चीत्कार से बालक गिर पड़ा, भीड़ दौड़ी। मोटर निकल गई और
यह बुड्ढा विकल हो रोने लगा-अन्धा किधर जाय!
एक ने कहा-चोट अधिक नहीं।
दूसरे ने कहा-हत्यारे ने बेड़ी पहना दी है, नहीं तो क्यों चोट खाता।
बुड्ढे ने कहा-काट दो बेड़ी बाबा, मुझे न चाहिए।
और मैंने हतबुद्धि होकर देखा कि बालक के प्राण-पखेरू अपनी बेड़ी काट
चुके थे।
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