जाह्नवी अपने बालू के कम्बल में ठिठुरकर सो रही थी। शीत कुहासा बनकर
प्रत्यक्ष हो रहा था। दो-चार लाल धारायें प्राची के क्षितिज में बहना
चाहती थीं। धार्मिक लोग स्नान करने के लिए आने लगे थे।
निर्मल की माँ स्नान कर रही थी, और वह पण्डे के पास बैठा हुआ बड़े
कुतूहल से धर्म-भीरु लोगों की स्नान-क्रिया देखकर मुस्करा रहा था।
उसकी माँ स्नान करके ऊपर आई। अपनी चादर ओढ़ते हुए स्नेह से उसने
निर्मल से पूछा-‘‘क्या तू स्नान न करेगा?’’
निर्मल ने कहा-‘‘नहीं माँ, मैं तो धूप निकलने पर घर पर ही स्नान
करूँगा।’’
पण्डाजी ने हँसते हुए कहा-‘‘माता, अबके लड़के पुण्य-धर्म क्या जानें?
यह सब तो जब तक आप लोग हैं, तभी तक है।’’
निर्मल का मुँह लाल हो गया। फिर भी वह चुप रहा। उसकी माँ संकल्प लेकर
कुछ दान करने लगी। सहसा जैसे उजाला हो गया-एक धवल दाँतों की श्रेणी
अपना भोलापन बिखेर गई- ‘‘कुछ हमको दे दो, रानी माँ!’’
निर्मल ने देखा, एक चौदह बरस की भिखारिन भीख माँग रही है। पण्डाजी
झल्लाये, बीच ही में संकल्प अधूरा छोड़कर बोल उठे-‘‘चल हट!’’
निर्मल ने कहा- ‘‘माँ! कुछ इसे भी दे दो।’’
माता ने उधर देखा भी नहीं, परन्तु निर्मल ने उस जीर्ण मलिन वसन में
एक दरिद्र हृदय की हँसी को रोते हुए देखा। उस बालिका की आँखों मे एक
अधूरी कहानी थी। रूखी लटों में सादी उलझन थी, और बरौनियों के अग्रभाग
में संकल्प के जलबिन्दु लटक रहे थे, करुणा का दान जैसे होने ही वाला
था।
धर्म-परायण निर्मल की माँ स्नान करके निर्मल के साथ चली। भिखारिन को
अभी आशा थी, वह भी उन लोगों के साथ चली।
निर्मल एक भावुक युवक था। उसने पूछा-‘‘तुम भीख क्यों माँगती हो?’’
भिखारिन की पोटली के चावल फटे कपड़े के छिद्र से गिर रहे थे। उन्हें
सँभालते हुए उसने कहा-‘‘बाबूजी, पेट के लिए।’’
निर्मल ने कहा-‘‘नौकरी क्यों नही करतीं? माँ, इसे अपने यहाँ रख क्यों
नहीं लेती हो? धनिया तो प्राय: आती भी नहीं।’’
माता ने गम्भीरता से कहा-‘‘रख लो! कौन जाति है, कैसी है, जाना न
सुना; बस रख लो।’’
निर्मल ने कहा-‘‘माँ, दरिद्रों की तो एक ही जाति होती है।’’
माँ झल्ला उठी, और भिखारिन लौट चली। निर्मल ने देखा, जैसे उमड़ी हुई
मेघमाला बिना बरसे हुए लौट गई। उसका जी कचोट उठा। विवश था, माता के
साथ चला गया।
‘‘सुने री निर्धन के धन राम! सुने री-’’
भैरवी के स्वर पवन में आन्दोलन कर रहे थे। धूप गंगा के वक्ष पर उजली
होकर नाच रही थी। भिखारिन पत्थर की सीढिय़ों पर सूर्य की ओर मुँह किये
गुनगुना रही थी। निर्मल आज अपनी भाभी, के संग स्नान करने के लिए आया
है। गोद में अपने चार बरस के भतीजे को लिये वह भी सीढिय़ों से उतरा।
भाभी ने पूछा-‘‘निर्मल! आज क्या तुम भी पुण्य-सञ्चय करोगे?’’
‘‘क्यों भाभी! जब तुम इस छोटे से बच्चे को इस सरदी में नहला देना
धर्म समझती हो, तो मै ही क्यों वञ्चित रह जाऊँ?’’
सहसा निर्मल चौंक उठा। उसने देखा, बगल में वही भिखारिन बैठी गुनगुना
रही है। निर्मल को देखते ही उसने कहा-बाबूजी, तुम्हारा बच्चा
फले-फूले, बहू का सोहाग बना रहे! आज तो मुझे कुछ मिले।’’
निर्मल अप्रतिभ हो गया। उसकी भाभी हँसती हुई बोली-‘‘दुर पगली!’’
भिखारिन सहम गई। उसके दाँतो का भोलापन गम्भीरता के परदे में छिप गया।
वह चुप हो गई।
निर्मल ने स्नान किया। सब ऊपर चलने के लिए प्रस्तुत थे। सहसा बादल हट
गये, उन्हीं अमल-धवल दाँतो की श्रेणी ने फिर याचना की-‘‘बाबूजी, कुछ
मिलेगा?’’
‘‘अरे , अभी बाबूजी का ब्याह नहीं हुआ। जब होगा, तब तुझे न्योता देकर
बुलावेंगे। तब तक सन्तोष करके बैठी रह।’’ भाभी ने हँसकर कहा।
‘‘तुम लोग बड़ी निष्ठुर हो, भाभी! उस दिन माँ से कहा कि इसे नौकर रख
लो, तो वह इसकी जाति पूछने लगी; और आज तुम भी हँसी ही कर रही हो!’’
निर्मल की बात काटते हुए भिखारिन ने कहा-‘‘बहूजी, तुम्हें देखकर मैं
तो यही जानती हूँ कि ब्याह हो गया है। मुझे कुछ न देने के लिए बहाना
कर रही हो!’’
‘‘मर पगली! बड़ी ढीठ है!’’ भाभी ने कहा।
‘‘भाभी! उस पर क्रोध न करो। वह क्या जाने, उसकी दृष्टि में सब अमीर
और सुखी लोग विवाहित हैं। जाने दो, घर चलें!’’
‘‘अच्छा चलो, आज माँ से कहकर इसे तुम्हारे लिए टहलनी रखवा
दूँगी।’’-कहकर भाभी हँस पड़ी।
युवक हृदय उत्तेजित हो उठा। बोला-‘‘यह क्या भाभी! मैं तो इससे ब्याह
करने के लिए भी प्रस्तुत हो जाऊँगा! तुम व्यंग क्यों कर रही हो?’’
भाभी अप्रतिभ हो गई। परन्तु भिखारिन अपने स्वाभाविक भोलेपन से
बोली-‘‘दो दिन माँगने पर भी तुम लोगों से एक पैसा तो देते नहीं बना,
फिर क्यों गाली देते हो, बाबू? ब्याह करके निभाना तो बड़ी दूर की बात
है!’’-भिखारिन भारी मुँह किये लौट चली।
बालक रामू अपनी चालाकी में लगा था। माँ की जेब से छोटी दुअन्नी अपनी
छोटी उँगलियों से उसने निकाल ली और भिखारिन की ओर फेंककर बोला-‘‘लेती
जाओ, ओ भिखारिन!’’
निर्मल और भाभी को रामू की
इस दया पर कुछ प्रसन्नता हुई, पर वे प्रकट न कर सके; क्योंकि भिखारिन
ऊपर की सीढिय़ों पर चढ़ती हुई गुनगुनाती चली जा रही थी-
‘‘सुने री निर्धन के धन राम!’’
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