गाँव के बाहर, एक छोटे-से बंजर में कंजरों का दल पड़ा था। उस परिवार
में टट्टू, भैंसे और कुत्तों को मिलाकर इक्कीस प्राणी थे। उसका सरदार
मैकू, लम्बी-चौड़ी हड्डियोंवाला एक अधेड़ पुरुष था। दया-माया उसके
पास फटकने नहीं पाती थी। उसकी घनी दाढ़ी और मूँछों के भीतर प्रसन्नता
की हँसी छिपी ही रह जाती। गाँव में भीख माँगने के लिए जब कंजरों की
स्त्रियाँ जातीं, तो उनके लिए मैकू की आज्ञा थी कि कुछ न मिलने पर
अपने बच्चों को निर्दयता से गृहस्थ के द्वार पर जो स्त्री न पटक
देगी, उसको भयानक दण्ड मिलेगा।
उस निर्दय झुण्ड में गानेवाली एक लडक़ी थी। और एक बाँसुरी बजानेवाला
युवक। ये दोनों भी गा-बजाकर जो पाते, वह मैकू के चरणों में लाकर रख
देते। फिर भी गोली और बेला की प्रसन्नता की सीमा न थी। उन दोनों का
नित्य सम्पर्क ही उनके लिए स्वर्गीय सुख था। इन घुमक्कड़ों के दल में
ये दोनों विभिन्न रुचि के प्राणी थे। बेला बेडिऩ थी। माँ के मर जाने
पर अपने शराबी और अकर्मण्य पिता के साथ वह कंजरों के हाथ लगी। अपनी
माता के गाने-बजाने का संस्कार उसकी नस-नस में भरा था। वह बचपन से ही
अपनी माता का अनुकरण करती हुई अलापती रहती थी।
शासन की कठोरता के कारण कंजरों का डाका और लड़कियों के चुराने का
व्यापार बन्द हो चला था। फिर भी मैकू अवसर से नहीं चूकता। अपने दल की
उन्नति में बराबर लगा ही रहता। इस तरह गोली के बाप के मर जाने पर-जो
एक चतुर नट था-मैकू ने उसकी खेल की पिटारी के साथ गोली पर भी अधिकार
जमाया। गोली महुअर तो बजाता ही था, पर बेला का साथ होने पर उसने
बाँसुरी बजाने में अभ्यास किया। पहले तो उसकी नट-विद्या में बेला भी
मनोयोग से लगी; किन्तु दोनों को भानुमती वाली पिटारी ढोकर दो-चार
पैसे कमाना अच्छा न लगा। दोनों को मालूम हुआ कि दर्शक उस खेल से अधिक
उसका गाना पसन्द करते हैं। दोनों का झुकाव उसी ओर हुआ। पैसा भी मिलने
लगा। इन नवागन्तुक बाहरियों की कंजरों के दल में प्रतिष्ठा बढ़ी।
बेला साँवली थी। जैसे पावस की मेघमाला में छिपे हुए आलोकपिण्ड का
प्रकाश निखरने की अदम्य चेष्टा कर रहा हो, वैसे ही उसका यौवन सुगठित
शरीर के भीतर उद्वेलित हो रहा था। गोली के स्नेह की मदिरा से उसकी
कजरारी आँखें लाली से भरी रहतीं। वह चलती तो थिरकती हुई, बातें करती
तो हँसती हुई। एक मिठास उसके चारों ओर बिखरी रहती। फिर भी गोली से
अभी उसका ब्याह नहीं हुआ था।
गोली जब बाँसुरी बजाने लगता, तब बेला के साहित्यहीन गीत जैसे प्रेम
के माधुर्य की व्याख्या करने लगते। गाँव के लोग उसके गीतों के लिए
कंजरों को शीघ्र हटाने का उद्योग नहीं करते! जहाँ अपने सदस्यों के
कारण कंजरों का वह दल घृणा और भय का पात्र था, वहाँ गोली और बेला का
संगीत आकर्षण के लिए पर्याप्त था; किन्तु इसी में एक व्यक्ति का
अवांछनीय सहयोग भी आवश्यक था। वह था भूरे, छोटी-सी ढोल लेकर उसे भी
बेला का साथ करना पड़ता।
भूरे सचमुच भूरा भेडिय़ा था। गोली अधरों से बाँसुरी लगाये
अर्द्धनिमीलित आँखों के अन्तराल से, बेला के मुख को देखता हुआ जब
हृदय की फूँक से बाँस के टुकड़े को अनुप्राणित कर देता, तब विकट घृणा
से ताड़ित होकर भूरे की भयानक थाप ढोल पर जाती। क्षण-भर के लिए जैसे
दोनों चौंक उठते।
उस दिन ठाकुर के गढ़ में बेला का दल गाने के लिए गया था। पुरस्कार
में कपड़े-रुपये तो मिले ही थे; बेला को एक अँगूठी भी मिली थी। मैकू
उन सबको देखकर प्रसन्न हो रहा था। इतने में सिरकी के बाहर कुछ हल्ला
सुनाई पड़ा। मैकू ने बाहर आकर देखा कि भूरे और गोली में लड़ाई हो रही
थी। मैकू के कर्कश स्वर से दोनों भयभीत हो गये। गोली ने कहा-‘‘मैं
बैठा था, भूरे ने मुझको गालियाँ दीं। फिर भी मैं न बोला, इस पर उसने
मुझे पैर से ठोकर लगा दी।’’
‘‘और यह समझता है कि मेरी बाँसुरी के बिना बेला गा ही नहीं सकती।
मुझसे कहने लगा कि आज तुम ढोलक बेताल बजा रहे थे।’’ भूरे का कण्ठ
क्रोध से भर्राया हुआ था।
मैकू हँस पड़ा। वह जानता था कि गोली युवक होने पर भी सुकुमार और अपने
प्रेम की माधुरी में विह्वल, लजीला और निरीह था। अपने को प्रमाणित
करने की चेष्टा उसमें थी ही नहीं। वह आज जो कुछ उग्र हो गया, इसका
कारण है केवल भूरे की प्रतिद्वन्द्विता।
बेला भी वहाँ आ गयी थी। उसने
घृणा से भूरे की ओर देखकर कहा-
‘तो क्या तुम सचमुच बेताल नहीं बजा रहे थे?’
‘‘मैं बेताल न बजाऊँगा, तो दूसरा कौन बजायेगा। अब तो तुमको नये यार न
मिले हैं। बेला! तुझको मालूम नहीं तेरा बाप मुझसे तेरा ब्याह ठीक
करके मरा है। इसी बात पर मैंने उसे अपना नैपाली का दोगला टट्टू दे
दिया था, जिस पर अब भी तू चढक़र चलती है।’’ भूरे का मुँह क्रोध के झाग
से भर गया था। वह और भी कुछ बकता; किन्तु मैकू की डाँट पड़ी। सब चुप
हो गये।
उस निर्जन प्रान्त में जब अन्धकार खुले आकाश के नीचे तारों से खेल
रहा था, तब बेला बैठी कुछ गुनगुना रही थी।
कंजरों की झोपड़ियों के पास ही पलाश का छोटा-सा जंगल था। उनमें बेला
के गीत गूँज रहे थे। जैसे कमल के पास मधुकर को जाने से कोई रोक नहीं
सकता; उसी तरह गोली भी कब माननेवाला था। आज उसके निरीह हृदय में
संघर्ष के कारण आत्मविश्वास का जन्म हो गया था। अपने प्रेम के लिए,
अपने वास्तविक अधिकार के लिए झगड़ने की शक्ति उत्पन्न हो गयी थी। उसका
छुरा कमर में था। हाथ में बाँसुरी थी। बेला की गुनगुनाहट बन्द होते
ही बाँसुरी में गोली उसी तान को दुहराने लगा। दोनों वन-विहंगम की तरह
उस अँधेरे कानन में किलकारने लगे। आज प्रेम के आवेश ने आवरण हटा दिया
था, वे नाचने लगे। आज तारों की क्षीण ज्योति में हृदय-से-हृदय मिले,
पूर्ण आवेग में। आज बेला के जीवन में यौवन का और गोली के हृदय में
पौरुष का प्रथम उन्मेष था।
किन्तु भूरा भी वहाँ आने से नहीं रुका। उसके हाथ में भी भयानक छुरा
था। आलिंगन में आबद्ध बेला ने चीत्कार किया। गोली छटककर दूर जा खड़ा
हुआ, किन्तु घाव ओछा लगा।
बाघ की तरह झपटकर गोली ने दूसरा वार किया। भूरे सम्हाल न सका। फिर
तीसरा वार चलाना ही चाहता था कि मैकू ने गोली का हाथ पकड़ लिया। वह
नीचे सिर किये खड़ा रहा।
मैकू ने कड़क कर कहा-‘‘बेला, भूरे से तुझे ब्याह करना ही होगा। यह खेल
अच्छा नहीं।’’
उसी क्षण सारी बातें गोली के मस्तक में छाया-चित्र-सी नाच उठीं। उसने
छुरा धीरे से गिरा दिया। उसका हाथ छूट गया। जब बेला और मैकू भूरे का
हाथ पकड़कर ले चले, तब गोली कहाँ जा रहा है, इसका किसी को ध्यान न
रहा।
2
कंजर-परिवार में बेला भूरे की स्त्री मानी जाने लगी। बेला ने भी सिर
झुका कर इसे स्वीकार कर लिया। परन्तु उसे पलाश के जंगल में सन्ध्या
के समय जाने से कोई भी नहीं रोक सकता था। उसे जैसे सायंकाल में एक
हलका-सा उन्माद हो जाता। भूरे या मैकू भी उसे वहाँ जाने से रोकने में
असमर्थ थे। उसकी दृढ़ता-भरी आँखों से घोर विरोध नाचने लगता।
बरसात का आरम्भ था। गाँव की ओर से पुलिस के पास कोई विरोध की सूचना
भी नहीं मिली थी। गाँव वालों की छुरी-हँसिया और काठ-कबाड़ के कितने
ही काम बनाकर वे लोग पैसे लेते थे। कुछ अन्न यों भी मिल जाता।
चिडिय़ाँ पकड़कर, पक्षियों का तेल बनाकर, जड़ी-बूटी की दवा तथा उत्तेजक
औषधियों और मदिरा का व्यापार करके, कंजरों ने गाँव तथा गढ़ के लोगों
से सद्भाव भी बना लिया था। सबके ऊपर आकर्षक बाँसुरी जब उसके साथ
नहीं बजती थी, तब भी बेला के गले में एक ऐसी नयी टीस उत्पन्न हो गयी
थी, जिसमें बाँसुरी का स्वर सुनाई पड़ता था।
अन्तर में भरे हुए निष्फल प्रेम से युवती का सौन्दर्य निखर आया था।
उसके कटाक्ष अलस, गति मदिर और वाणी झंकार से भर गयी थी। ठाकुर साहब
के गढ़ में उसका गाना प्राय: हुआ करता था।
छींट का घाघरा और चोली, उस पर गोटे से ढँकी हुई ओढ़नी सहज ही खिसकती
रहती। कहना न होगा कि आधा गाँव उसके लिए पागल था। बालक पास से, युवक
ठीक-ठिकाने से और बूढ़े अपनी मर्यादा, आदर्शवादिता की रक्षा करते हुए
दूर से उसकी तान सुनने के लिए, एक झलक देखने के लिए घात लगाये रहते।
गढ़ के चौक में जब उसका गाना जमता, तो दूसरा काम करते हुए
अन्यमनस्कता की आड़ में मनोयोग से और कनखियों से ठाकुर उसे देख लिया
करते।
मैकू घाघ था। उसने ताड़ लिया। उस दिन संगीत बन्द होने पर पुरस्कार
मिल जाने पर और भूरे के साथ बेला के गढ़ के बाहर जाने पर भी मैकू
वहीं थोड़ी देर तक खड़ा रहा। ठाकुर ने उसे देखकर पूछा-‘क्या है?’
‘‘सरकार! कुछ कहना है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘यह छोकरी इस गाँव से जाना नहीं चाहती। उधर पुलिस तंग कर रही है।’’
‘‘जाना नहीं चाहती, क्यों?’’
‘‘वह तो घूम-घाम कर गढ़ में आ जाती है। खाने को मिल जाता है।...’’
मैकू आगे की बात चुप होकर कुछ-कुछ संकेत-भरी मुस्कराहट से कह देना
चाहता था।
ठाकुर के मन में हलचल होने
लगी। उसे दबाकर प्रतिष्ठा का ध्यान करके ठाकुर ने कहा-
‘‘तो मैं क्या करूँ?’’
‘‘सरकार! वह तो साँझ होते ही पलाश के जंगल में अकेली चली जाती है।
वहीं बैठी हुई बड़ी रात तक गाया करती है।’’
‘‘हूँ!’’
‘‘एक दिन सरकार धमका दें, तो हम लोग उसे ले-देकर आगे कहीं चले
जायँ।’’
‘‘अच्छा।’’
मैकू जाल फैलाकर चला आया। एक हजार की बोहनी की कल्पना करते वह अपनी
सिरकी में बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाने लगा।
बेला के सुन्दर अंग की मेघ-माला प्रेमराशि की रजत-रेखा से उद्भासित
हो उठी थी। उसके हृदय में यह विश्वास जम गया था कि भूरे के साथ घर
बसाना गोली के प्रेम के साथ विश्वासघात करना है। उसका वास्तविक पति
तो गोली ही है। बेला में यह उच्छृङ्खल भावना विकट ताण्डव करने लगी।
उसके हृदय में वसन्त का विकास था। उमंग में मलयानिल की गति थी। कण्ठ
में वनस्थली की काकली थी। आँखों में कुसुमोत्सव था और प्रत्येक
आन्दोलन में परिमल का उद्गार था। उसकी मादकता बरसाती नदी की तरह
वेगवती थी।
आज उसने अपने जूड़े में जंगली करौंदे के फूलों की माला लपेटकर, भरी
मस्ती में जंगल की ओर चलने के लिए पैर बढ़ाया, तो भूरे ने डाँटकर
कहा-‘‘कहाँ चली?’’
‘‘यार के पास।’’ उसने छूटते ही कहा। बेला के सहवास में आने पर अपनी
लघुता को जानते हुए मसोसकर भूरे ने कहा-‘‘तू खून कराये बिना चैन न
लेगी।’’
बेला की आँखों में गोली का और उसके परिवर्धमान प्रेमांकुर का चित्र
था, जो उसके हट जाने पर विरह-जल से हरा-भरा हो उठा था। बेला पलाश के
जंगल में अपने बिछुड़े हुए प्रियतम के उद्देश्य से दो-चार विरह-वेदना
की तानों की प्रतिध्वनि छोड़ आने का काल्पनिक सुख नहीं छोड़ सकती थी।
उस एकान्त सन्ध्या में
बरसाती झिल्लियों की झनकार से वायुमण्डल गूँज रहा था। बेला अपने
परिचित पलाश के नीचे बैठकर गाने लगी-
चीन्हत नाहीं बदल गये नैना....
ऐसा मालूम होता था कि सचमुच गोली उस अन्धकार में अपरिचित की तरह मुँह
फिराकर चला जा रहा है। बेला की मनोवेदना को पहचानने की क्षमता उसने
खो दी है।
बेला का एकान्त में विरह-निवेदन उसकी भाव-प्रवणता को और भी उत्तेजित
करता था। पलाश का जंगल उसकी कातर कुहुक से गूँज रहा था। सहसा उस
निस्तब्धता को भंग करते हुए घोड़े पर सवार ठाकुर साहब वहाँ आ पहुँचे।
‘‘अरे बेला! तू यहाँ क्या कर रही है?’’
बेला की स्वर-लहरी रुक गयी थी। उसने देखा ठाकुर साहब! महत्व का
सम्पूर्ण चित्र, कई बार जिसे उसने अपने मन की असंयत कल्पना में
दुर्गम शैल-शृंग समझकर अपने भ्रम पर अपनी हँसी उड़ा चुकी थी। वह सकुच
कर खड़ी हो रही। बोली नहीं, मन में सोच रही थी-‘‘गोली को छोड़कर भूरे
के साथ रहना क्या उचित है? और नहीं तो फिर....’’
ठाकुर ने कहा-‘‘तो तुम्हारे साथ कोई नहीं है। कोई जानवर निकल आवे,
तो?’’
बेला खिलखिला कर हँस पड़ी। ठाकुर का प्रमाद बढ़ चला था। घोड़े से
झुककर उसका कन्धा पकड़ते हुए कहा, ‘‘चलो, तुमको पहुँचा दें।’’
उसका शरीर काँप रहा था, और ठाकुर आवेश में भर रहे थे। उन्होंने
कहा-‘‘बेला, मेरे यहाँ चलोगी?’’
‘‘भूरे मेरा पति है!’’ बेला के इस कथन में भयानक व्यंग था। वह भूरे
से छुटकारा पाने के लिए तरस रही थी। उसने धीरे से अपना सिर ठाकुर की
जाँघ से सटा दिया। एक क्षण के लिए दोनों चुप थे। फिर उसी समय अन्धकार
में दो मूर्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। कठोर कण्ठ से भूरे ने
पुकारा-‘‘बेला!’’
ठाकुर सावधान हो गये थे। उनका हाथ बगल की तलवार की मूठ पर जा पड़ा।
भूरे ने कहा-‘‘जंगल में किसलिए तू आती थी, यह मुझे आज मालूम हुआ। चल,
तेरा खून पिये बिना न छोड़ूँगा।’’
ठाकुर के अपराध का आरम्भ तो उनके मन में हो ही चुका था। उन्होंने
अपने को छिपाने का प्रयत्न छोड़ दिया। कड़ककर बोले-‘‘खून करने के पहले
अपनी बात भी सोच लो, तुम मुझ पर सन्देह करते हो, तो यह तुम्हारा भ्रम
है। मैं तो....’’
अब मैकू आगे आया। उसने कहा-‘‘सरकार! बेला अब कंजरों के दल में नहीं
रह सकेगी।’’
‘‘तो तुम क्या कहना चाहते हो?’’ ठाकुर साहब अपने में आ रहे थे, फिर
भी घटना-चक्र से विवश थे।
‘‘अब यह आपके पास रह सकती है। भूरे इसे लेकर हम लोगों के संग नहीं रह
सकता।’’ मैकू पूरा खिलाड़ी था। उसके सामने उस अन्धकार में रुपये चमक
रहे थे।
ठाकुर को अपने अहंकार का
आश्रय मिला। थोड़ा-सा विवेक, जो उस अन्धकार में झिलमिला रहा था, बुझ
गया। उन्होंने कहा-
‘‘तब तुम क्या चाहते हो?’’
‘‘एक हजार।’’
‘‘चलो, मेरे साथ’’-कहकर बेला का हाथ पकड़कर ठाकुर ने घोड़े को आगे
बढ़ाया। भूरे कुछ भुनभुना रहा था; पर मैकू ने उसे दूसरी ओर भेजकर
ठाकुर का संग पकड़ लिया। बेला रिकाब पकड़े चली जा रही थी।
दूसरे दिन कंजरों का दल उस गाँव से चला गया।
3
ऊपर की घटना को कई साल बीत गये। बेला ठाकुर साहब की एकमात्र प्रेमिका
समझी जाती है। अब उसकी प्रतिष्ठा अन्य कुल-बधुओं की तरह होने लगी है।
नये उपकरणों से उसका घर सजाया गया है। उस्तादों से गाना सीखा है। गढ़
के भीतर ही उसकी छोटी-सी साफ-सुथरी हवेली है। ठाकुर साहब की उमंग की
रातें वहीं कटती हैं। फिर भी ठाकुर कभी-कभी प्रत्यक्ष देख पाते कि
बेला उनकी नहीं है! वह न जाने कैसे एक भ्रम में पड़ गये। बात निबाहने
की आ पड़ी।
एक दिन एक नट आया। उसने अनेक
तरह के खेल दिखलाये। उसके साथ उसकी स्त्री थी, वह घूँघट ऊँचा नहीं
करती थी। खेल दिखलाकर जब अपनी पिटारी लेकर जाने लगा, तो कुछ मनचले
लोगों ने पूछा-
‘‘क्यों जी, तुम्हारी स्त्री कोई खेल नहीं करती क्या?’’
‘‘करती तो है सरकार! फिर किसी दिन दिखलाऊँगा।’’ कहकर वह चला गया;
किन्तु उसकी बाँसुरी की धुन बेला के कानों में उन्माद का आह्वान सुना
रही थी। पिंजड़े की वन-विहंगनी को वसन्त की फूली हुई डाली का स्मरण
हो आया था।
दूसरे दिन गढ़ में भारी जमघट
लगा। गोली का खेल जम रहा था। सब लोग उसके हस्त-कौशल में मुग्ध थे।
सहसा उसने कहा-
‘‘सरकार! एक बड़ा भारी दैत्य आकाश में आ गया है, मैं उससे लड़ने जाता
हूँ, मेरी स्त्री की रक्षा आप लोग कीजियेगा।’’
गोली ने एक डोरी निकालकर उसको ऊपर आकाश की ओर फेंका। वह सीधी तन गयी।
सबके देखते-देखते गोली उसी के सहारे आकाश में चढक़र अदृश्य हो गया। सब
लोग मुग्ध होकर भविष्य की प्रतीक्षा कर रहे थे। किसी को यह ध्यान
नहीं रहा कि स्त्री अब कहाँ है।
गढ़ के फाटक की ओर सबकी दृष्टि फिर गयी। गोली लहू से रंगा चला आ रहा
था। उसने आकर ठाकुर को सलाम किया और कहा-‘‘सरकार! मैंने उस दैत्य को
हरा दिया। अब मुझे इनाम मिलना चाहिए।’’
सब लोग उस पर प्रसन्न होकर
पैसों-रुपयों की बौछार करने लगे। उसने झोली भरकर इधर-उधर देखा, फिर
कहा-
‘‘सरकार मेरी स्त्री भी अब मिलनी चाहिए, मैं भी...।’’ किन्तु यह
क्या, वहाँ तो उसकी स्त्री का पता नहीं। गोली सिर पकड़कर शोक-मुद्रा
में बैठ गया। जब खोजने पर उसकी स्त्री नहीं मिली, तो उसने चिल्लाकर
कहा-‘‘यह अन्याय इस राज्य में नहीं होना चाहिए। मेरी सुन्दरी स्त्री
को ठाकुर साहब ने गढ़ के भीतर कहीं छिपा दिया। मेरी योगिनी कह रही
है।’’ सब लोग हँसने लगे। लोगों ने समझा, यह कोई दूसरा खेल दिखलाने जा
रहा है। ठाकुर ने कहा-‘‘तो तू अपनी सुन्दर स्त्री मेरे गढ़ में से
खोज ला!’’ अन्धकार होने लगा था। उसने जैसे घबड़ाकर चारों ओर देखने का
अभिनय किया। फिर आँख मूँदकर सोचने लगा।
लोगों ने कहा-‘‘खोजता क्यों नहीं? कहाँ है तेरी सुन्दरी स्त्री?’’
‘‘तो जाऊँ न सरकार?’’
‘‘हाँ, हाँ, जाता क्यों नहीं’’-ठाकुर ने भी हँसकर कहा।
गोली नयी हवेली की ओर चला। वह नि:शंक भीतर चला गया। बेला बैठी हुई
तन्मय भाव से बाहर की भीड़ झरोखे से देख रही थी। जब उसने गोली को
समीप आते देखा, तो वह काँप उठी। कोई दासी वहाँ न थी। सब खेल देखने
में लगी थीं। गोली ने पोटली फेंककर कहा-‘‘बेला! जल्द चलो।’’
बेला के हृदय में तीव्र अनुभूति जाग उठी थी। एक क्षण में उस दीन
भिखारी की तरह-जो एक मुट्ठी भीख के बदले अपना समस्त सञ्चित आशीर्वाद
दे देना चाहता है-वह वरदान देने के लिए प्रस्तुत हो गयी।
मन्त्र-मुग्ध की तरह बेला ने उस ओढ़नी का घूँघट बनाया। वह धीरे-धीरे
उसके पीछे भीड़ में आ गयी। तालियाँ पिटीं। हँसी का ठहाका लगा। वही
घूँघट, न खुलने वाला घूँघट सायंकालीन समीर से हिल कर रह जाता था।
ठाकुर साहब हँस रहे थे। गोली दोनों हाथों से सलाम कर रहा था।
रात हो चली थी। भीड़ के बीच गोली बेला को लिये जब फाटक के बाहर
पहुँचा, तब एक लड़के ने आकर कहा-‘‘एक्का ठीक है।’’
तीनों सीधे उस पर जाकर बैठ गये। एक्का वेग से चल पड़ा।
अभी ठाकुर साहब का दरबार जम रहा था और नट के खेलों की प्रशंसा हो रही
थी।
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