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कहानी |
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उसकी कहानी
राधाकृष्ण
कहानियाँ जन्म
18 सितंबर 1910, रांची
निधन
3 फरवरी 1979
एक ठूँठ खड़ा था और उसके खोड़हर में घोंसला बना कर एक चिडिय़ा रहती थी।
वह भी कोई दिन था, जब इस ठूँठ ने पृथ्वी के ऊपर खड़े होकर अपने लाल-लाल पत्तों के इशारे से वसंत को बुलाया था और उसके स्वागत में अपनी सुगन्ध-भरी मदमाती
मंजरियाँ भेंट की थीं।
लेकिन अब वे दिन अतीत में अस्त हो गए थे। समय श्वेत और श्यामल चरण-चिह्न छोड़ता हुआ बहुत दूर तक चला गया था। यदि वह ठूँठ याद कर सकता, तो अनेकों वसन्त,
अनेकों बरसात और शरद की असंख्य चाँदनी रातों को याद कर सकता।
अब भी वसन्त आता था, अब भी भौंरे गुन-गुन गाते थे, अब भी विगह-कूजन से निस्तब्ध सन्ध्या चंचल हो उठती थी; किंतु वहाँ अब इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था;
क्योंकि वह एक ठूँठ था। इने-गिने पत्र-पुंज ही उसकी सजीवता की साक्षी देते थे।
समीप ही एक झरना झर रहा था। वह एक स्वर और एक रागिनी में न जाने क्या गा रहा था। यह वही जाने। वहाँ फेनिल लहरें उछल-उछल कर, नाच-नाच कर क्रीड़ा किया करती
थीं। आसपास हरे-भरे झुरमुट थे, पृथ्वी पर तृणों की शैया थी, बहुतेरे फूल हँस-हँस कर खेल रहे थे; किंतु वह ठूँठ जैसे सबसे पृथक, अकेला और असुन्दर होकर खड़ा
था।
रात हो आई थी। तृतीया का बंक शशि रूप की नौका के समान तैरता हुआ आकाश के नील महासागर को पार कर रहा था। बिखरे हुए तारे ऐसे जान पड़ते थे, जैसे किसी महाकाव्य
में पड़ी हुई उपमाएँ। शीतल पवन मन की भाँति इधर-उधर दौड़ता हुआ अठखेलियाँ कर रहा था।
ठूँठ खड़ा था और अपने घोंसले से सिर निकाल कर चिडिय़ाँ झाँक रही थीं।
सहसा पूरब की ओर से कुछ मेघ दौड़ पड़े। हवा की चंचलता क्षुब्धता में बदल गई। आकाश में छितराये हुए प्रकाश के मोती अलोप हो गये। चाँद बादलों के बीच उलझ गया।
चारों ओर एक स्याही-सी फिर गई। एक भीषण गरज से पृथ्वी काँप उठी। ...फिर बिजलियों की तड़पन, मेघों की गरज, वृष्टि की बौछार और हवा का हाहाकार!...आखिर थोड़ी
देर के बाद सब थम गया। बादल दौड़ते हुए आए थे, दौड़ते हुए चले गये। चाँद खिलखिलाता हुआ निकल आया। तारे हँसने लगे।
सब हुआ; लेकिन वह ठूँठ गिर पड़ा। उसकी डालें टूट गई थीं और उसमें रहने वाली चिडियाँ चें-चें करके उस अंधकार में उड़कर न जाने कहाँ चली गई थीं। ठूँठ
निस्सहाय, निरावलंब पृथ्वी पर पड़ा हुआ था।
अब भी झरना वही अपना मुक्त, प्रवाहमय और अविराम गीत गाने में व्यस्त था, फेनिल लहरें क्रीड़ा कर रही थीं, वृक्षों की द्रुमावलियाँ डोल रही थीं, फूल
हँस-हँसकर लोट रहे थे, पर वह ठूँठ नहीं था और उसमें बसने वाली चिडियाँ भी नहीं थीं।
सब कुछ वही था, केवल रह-रह कर हवा ठंडी साँसें ले लिया करती थी।
('हंस', फरवरी, 1935)
(सौजन्य : संजय कृष्ण)
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