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लोग ही चुनेंगे रंग-  ‘लाल्टू’


 
कहानी

 

कहानी-1


एक आदमी तकरीबन एक हज़ार साल पहले रहता था.
उसके सिर पर चोटी थी
बचपन की याद आते ही उसका सिर खिंचता था
और वह झटके से खुद को बचपन से बाहर निकाल लाता.

बचपन और वयस्क संसारों के बीच की खिड़की के आरपार
आते-जाते उसने अनन्त चोटें झेली थीं. चोट सहते हुए
उसने शब्दों के हार बना लिए. उसके शब्दों के हार ज़हरीले.

तकरीबन एक हज़ार साल तक रहा ज़हर का असर.
आजकल शब्दों के हार टूट रहे हैं.
बिखरे शब्दों को सुनकर कोई कहता है -
कुछ शब्द मिले हैं, शायद आपके हैं.

मैं शब्द लेते हुए कह नहीं पाता वाकई मेरे हैं शब्द
बचा हुआ लौटा है ज़हर.

(पहल - 2004)



कहानी-2
दस दिन हो गए
शहर से उमस चली गई
एक ट्रेन जो गई मुम्बई
लौटी तो तीन दिन पहले वाली बन कर लौटी
शहर छोड़ते हुए ट्रेन
एक आदमी को लेकर गई थी

वह आदमी दस दिन पहले घर छोड़ जा रहा था
घर में लड़ते हुए उसने अपनी चप्पल उठा ली थी
दस दिन पहले उस आदमी की सोच थी चप्पल

दस दिन पहले उसने बहुत कुछ कहा था
बहुत कुछ कहते हुए वह हर दूसरे आदमी जैसा बन गया था
जो जीवन में किसी एक दिन के दस दिन पहले बहुत कुछ कहते हैं

दसों दिनों तक ट्रेन शहर से जाएगी
दसों दिनों तक दौड़ती रेलगाड़ी हमें सुनाएगी
एक आदमी को गए दस दिन हो गए.

(पहल - 2004)
 

 

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