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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

कपड़े के जूते


रेल की चमकती हुई पटकरियों के किनारे
वे कपड़े के पुराने जूते हैं
एक आदमी उन्हें छोड़कर चला गया
और एक ही क़दम बाद अदृश्य‍ हो गया
क्यों कि जूतों की दुनिया है सिर्फ़ एक कदम की

उस ओर से गुज़र रहे राहगीर का
एक कदम पीछा करते हुए
वे कपड़े के पुराने जूते हैं
उनके भीतर बारिश का पानी ठहर गया है
हवा तेज चलने से बारिश का पानी पैर की तरह हिलता है

लगातार भीगते हुए वे जूते फफूँद से ढँक गये हैं
और ज़मीन की सबसे बारीक सतह पर तो
वे जूते अँकुर भी रहे हैं
मैं सोच सकता ही हूँ कि
कितनी बार खेल के निर्णायक क्षणों में
ये जूते सूर्य की तरह गर्म हुए होंगे!
इन जूतों के भीतर धूल और पहाड़ों से भरे
रास्ते बिखरे हुए हैं-
आवाजों और मैदानों के भटक गये छोर इन्हें टिकने दे रहे हैं
आवाज़ों और मैदानों के भटक गये छोर-
 

 

जो आदमी की ज़रूरतों से बाहर रह गये !

इन जूतों के भीतर कितनी बार
आवारा सैलानियों की आत्मा एँ पैरों के सहारे
नीचे उतरी होंगी-
महीनों लगातार रही होंगी इन जूतों के भीतर
आत्माएँ-
छतों और राज्यों से बाहर-
समुद्र तल से कितना ऊपर!

कपड़े के ये जूते
सिगरेट और रूमाल की तरह मुलायम
सिगरेट और रूमाल की ही तरह हवाओं से भरे
घोंसलों की तरह बुने हुए-
ये जूते दुनिया में हत्या और बलात्काहर जैसी
ठोस चीज़ों के विरूद्ध
बहुत तरल हैं
घास और भाषा में मुड़ते हुए
नमक के क़रीब बढ़ते हुए-
और चूहों के लिए तो
कपड़े के ये जूते वर्णमाला की तरह हैं
जहाँ से वे कुतरने की शुरूआत करते हैं

जूतों की दुनिया जहाँ से शुरू हुई होगी-
गड़रिये वहाँ तक ज़रूर आये होंगे !
क्योंकि जूतों के भीतर एक निविड़ता है-
जो नष्ट नहीं की जा सकती
क्योंकि भेड़ों के भीतर एक निविड़ता है आज भी
जहाँ से समुद्र सुनाई पड़ता है
 

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